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विरेचक

सूची विरेचक

विरेचक या आरेचक (Laxatives या purgatives या aperients) ऐसे खाद्यपदार्थ, यौगिक या दवाओं क कहा जाता है जिनके सेवन से मलत्याग में आसानी होती है। इनके उपयोग से मलाशय की सफाई करने में आसानी होती है।; कुछ प्रमुख विरेचक.

6 संबंधों: बनबेर, मूत्रल, विरेचन, इंद्रायन, अमलतास, अगर

बनबेर

बनबेर या उन्नाव, बेर की जाति का पौधा है और पश्चिम हिमालय प्रदेश, पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, ईरान इत्यादि में पाया जाता है। इसकी झाड़ी काँटेदार, पत्ते बेर के पत्तों से कुछ तथा नुकीले, फल छोटी बेर के बराबर और पकने पर लाल रंग के होते हैं। उत्तरी अफगानिस्तान का उन्नाव सर्वोत्कृष्ट होता है। इसका मराठी तथा उर्दू में भी 'उन्नाव' ही नाम है। संस्कृत में इसे सौबीर तथा लैटिन में जिजिफ़स सैटिवा (Ziziphus Sativa) कहते हैं। इस औषधि का उपयोग विशेषकर हकीम करते हैं। इनके मतानुसार इसके पत्ते विरेचक होते हैं तथा खाज, गले के भीतर के रोग और पुराने घावों में उपयोगी हैं। परंतु औषधि के काम में इसका फल ही मुख्यत: प्रयुक्त होता है जो स्वाद में खटमीठा होता है। यह कफ तथा मूत्रनिस्सारक, रक्तशोधन तथा रक्तवर्धक कहा गया है। और खाँसी, कफ और वायु से उत्पन्न ज्वर, गले के रोग, यकृत और प्लीहा (तिल्ली) की वृद्धि में विशेष लाभदायक माना गया है। .

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मूत्रल

मूत्रल (diuretic) उन सभी पदार्थों को कहते हैं जो मूत्र के अधिक निर्माण में सहायक होते हैं। मूत्रलों के कई वर्ग (प्रकार) हैं। .

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विरेचन

विरेचन भारतीय चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है- रोचक औषधि के द्वारा शारीरिक विकारों अर्थात् उदर के विकारों की शुद्धि। यह पंचकर्मों में से एक है। आयुर्वेद के अनुसार त्वचारोगों के उपचार के लिए विरेचन सर्वोत्तम चिकित्सा है। .

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इंद्रायन

इंद्रायण की बेल तथा फल इन्द्रायन की बेल एवं अन्य भाग इंद्रायन की बेल मध्य, दक्षिण तथा पश्चिमोत्तर भारत, अरब, पश्चिम एशिया, अफ्रीका के उच्च भागों तथा भूमध्यसागर के देशों में भी पाई जाती है। इसके पत्ते तरबूज के पत्तों के समान, फूल नर और मादा दो प्रकार के तथा फल नांरगी के समान दो इंच से तीन इंच तक व्यास के होते हैं। ये फल कच्ची अवस्था में हरे, पश्चात्‌ पीले हो जाते हैं और उन पर बहुत सी श्वेत धारियाँ होती हैं। इसके बीज भूरे, चिकने, चमकदार, लंबे, गोल तथा चिपटे होते हैं। इस बेल का प्रत्येक भाग कड़वा होता है। इंद्रायन का नाम बँगला तथा गुजराती में भी यही है। संस्कृत में इसे चित्रफल, इंद्रवारुणी, मराठी में कडु इंद्रावण, लोकभाषाओं में गड़तुम्बा, पापड़, पिंदा आदि नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में कॉलोसिंथ या 'बिटर ऐपल' तथा लैटिन में 'सिट्रलस कॉलोसिंथस' (Citrullus colocynthis) कहते हैं। अन्य दो वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहते हैं। इसके फल के गूदे को सुखाकर ओषधि के काम में लाते हैं। आयुर्वेद में इसे शीतल, रेचक और गुल्म, पित्त, उदररोग, कफ, कुष्ठ तथा ज्वर को दूर करनेवाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधी व्याधियों में विशेष लाभकारी तथा धवलरोग (श्वेतकुष्ठ), खाँसी, मंदाग्नि, कोष्ठबद्धता, रक्ताल्पता और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है। यूनानी मतानुसार यह सूजन को उतारनेवाला, वायुनाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों में, जैसे लकवा, मिरगी, अधकपारी, विस्मृति इत्यादि में लाभदायक है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न करनेवाला है, इसलिए दुर्बल व्यक्ति को इसे न देना चाहिए। इसकी मात्रा डेढ़ से ढाई माशे तक की होती है। इसका चूर्ण तीन माशे तक बबूल की गोंद, खुरासानी अजवायन के सत्व इत्यादि के साथ, जो इसकी त्व्रीाता को घटा देते हैं, गोलियों के रूप में दिया जाता हैं। रासायनिक विश्लेषण से इसमें कुछ उपक्षार (ऐल्कलॉड) तथा कॉलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड, जो इस ओषधि का मुख्य तत्व है, पाए गए हैं। ब्रिटिश मटेरिया मेडिका के अनुसार इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग त्व्रीा कोष्ठबद्धता, जलोदर, ऋतुस्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जा सकता है। लाल इंद्रायन का लैटिन नाम ट्रिकोसेंथन पामाटा है। इसे संस्कृत तथा बँगला में महाकाल कहते हैं। इसकी बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह इंच के व्यास के, त्रिकोण से सप्तकोण तक होते हैं। फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा १० नांरगी धारियोंवाले होते हैं। फल का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गाँठें होती हैं। रासायनिक विश्लेषण से इसके फल के गूदे में कॉलोसिंथिन से मिलता जुलता ट्रिकोसैंथिन नामक पदार्थ पाया गया है। लाल इंद्रायन भी त्व्रीा विरेचक है। आयुर्वेद में इसे श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा गया है। जंगली या छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल पूर्वोक्त दोनों इंद्रायनों से छोटे होते हैं। इसके फल में भी कॉलोसिंथिन से मिलते जुलते तत्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक, स्वाद को सुधारनेवाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करनेवाला बताया गया है। .

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अमलतास

फल अमलतास पीले फूलो वाला एक शोभाकर वृक्ष है। अमलतास को संस्कृत में व्याधिघात, नृप्रद्रुम इत्यादि, गुजराती में गरमाष्ठो, बँगला में सोनालू तथा लैटिन में कैसिया फ़िस्चुला कहते हैं। शब्दसागर के अनुसार हिंदी शब्द अमलतास संस्कृत अम्ल (खट्टा) से निकला है। भारत में इसके वृक्ष प्राय: सब प्रदेशों में मिलते हैं। तने की परिधि तीन से पाँच कदम तक होती है, किंतु वृक्ष बहुत उँचे नहीं होते। शीतकाल में इसमें लगनेवाली, हाथ सवा हाथ लंबी, बेलनाकार काले रंग की फलियाँ पकती हैं। इन फलियों के अंदर कई कक्ष होते हैं जिनमें काला, लसदार, पदार्थ भरा रहता है। वृक्ष की शाखाओं को छीलने से उनमें से भी लाल रस निकलता है जो जमकर गोंद के समान हो जाता है। फलियों से मधुर, गंधयुक्त, पीले कलझवें रंग का उड़नशील तेल मिलता है। .

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अगर

200px अगर एक कालिलीय (कोलायडल) पदार्थ है जिसे विभिन्न प्रकार के लाल शैवालों से प्राप्त किया जाता है। इसमें सूक्ष्मजीवों का कल्चर करते है। सुक्ष्मजीवों के आवश्यकता अनुसार अगर में विभिन्न पदार्थ रखे होते है। अगर के पदार्थ अनुसार अगर भिन्न होते है। इसमें गैलेक्टोस और सल्फेट होता है। यह विभिन्न प्रकार से प्रयोगों में लाया जाता है। आरेचक (लैक्ज़ेटिव) के रूप में इसका उपयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रयोगशाला में इसका उपयोग सूक्ष्म जीवों के भोज्य पदार्थों (माइक्रोबियल कल्चर मीडिया) का ठोस बनाने के लिए किया जाता है। मिष्ठान्नशाला में तथा मांस संवेष्ठन उद्योगों (मीट पैकिंग इंडस्ट्रीज) में भी अगर का उपयोग होता है। भेषजीय उत्पादन में यह प्रनिलंबक अभिकर्ता (इमल्सीफाइंग एजेंट) के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। अगर के पौधों को इकट्ठा करके तुरंत सुखाया जाता है। इसके बाद कारखाने में भेज दिया जाता है, जहाँ पर ये धोए जाते हैं। विशेष प्रयोग में लाए जाने वाले अगर की उपलब्धि के लिए उक्त पौधों को विरंजित (ब्लीच्ड) करके पुन शुद्ध किया जाता है। तत्पश्चात्‌ म्यूसीलेज को कुछ घंटों के लिए उबाला जाता है और अनेक छननों से छानते हुए विभिन्न फ्रेमों में जेली के रूप में प्रवाहित किया जाता है। तत्पश्चात्‌ ठंढा करके जमा दिया जाता है। पानी को फेंककर जेली सुखाई जाती है और अंत में इसे चूर्ण का रूप दिया जाता है। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता है। इससे अगरबत्तियाँ भी बनाई जाती है। .

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