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विट्ठलनाथ

सूची विट्ठलनाथ

विट्टलनाथ के पिता वल्लभचार्य की तस्वीर विट्ठलनाथ वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे। गुसाईं विट्ठलनाथ का जन्म काशी के निकट चरणाट ग्राम में पौष कृष्ण नवमी को संवत्‌ १५७२ (सन्‌ १५१५ ई.) में हुआ। इनका शैशव काशी तथा प्रयाग के निकट अरैल नामक स्थान में व्यतीत हुआ। काशी में रहकर इन्होंने अपने शास्त्रगुरु श्री माधव सरस्वती से वेदांत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने ज्येष्ठ भ्राता गोपीनाथ जी के अकाल कवलित हो जाने पर संवत्‌ १५९५ में संप्रदाय की गद्दी के स्वामी बनकर उसे नया रूप देने में लीन हो गए। धर्मप्रचार के लिए इन्होंने दो बार गुजरात की यात्रा की और अनेक धर्मप्रेमियों का वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। वल्लभ संप्रदाय को सुसंगठित एवं व्यवस्थित रूप देने में विट्ठलनाथ का विशेष योगदान है। श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा की नूतन विधि, वार्षिक उत्सव, व्रतोपवास आदि की व्यवस्था कर उन्हें अत्यंत आकर्षक बनाने का श्रेय इन्हीं को है। संगीत, साहित्य, कला आदि के सम्मिश्रण द्वारा इन्होंने भक्तों के लिए अद्भुत आकर्षण की सामग्री श्रीनाथ जी के मंदिर में जुटा दी थी। अपने पिता के चार शिष्य कुंभनदास, परमानंददास तथा कृष्णदास के साथ अपने चार शिष्य चतुर्भुजदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर इन्होंने अष्टछाप की स्थापना की। इन्हीं आठ सखाओं के पद श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा के समय गाए जाते थे। भक्तमाल में नाभादास ने लिखा है - विट्ठलनाथ का अपने समय में अत्यधिक प्रभाव था। अकबर बादशाह ने इनके अनुरोध से गोकुल में वानर, मयूर, गौ आदि के वध पर प्रतिबंध लगाया था और गोकुल की भूमि अपने फरमान से माफी में प्रदान की थी। विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे जिन्हें गुसाइर्ं जी ने सात स्थानों में भेजकर संप्रदाय की सात गद्दियाँ स्थापित कर दीं। अपनी संपत्ति का भी उन्होंने अपने जीवनकाल में ही विभाजन कर दिया था। सात पुत्रों को पृथक्‌ स्थानों पर भेजने से संप्रदाय का व्यापक रूप से प्रचार संभव हुआ। इनके चौथे पुत्र गुसाई गोकुलनाथ ने चौरासी वैष्णवन की बार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता का प्रणयन किया। कुछ विद्वान्‌ मानते हैं कि ये वार्ताएँ प्रारंभ में मौखिक रूप में कही गई थीं, बाद में इन्हें लिखित रूप मिला। विट्ठलनाथ जी के लिखे ग्रंथों में अणुभाष्य, यमुनाष्टक, सुबोधिनी की टीका, विद्वन्मंडल, भक्तिनिर्णय और शृंगाररसमंडन प्रसिद्ध हैं। शृंगाररसमंडन ग्रंथ द्वारा माधुर्य भक्ति की स्थापना में बहुत योग मिला। संवत्‌ १६४२ वि.

4 संबंधों: शिवानन्द गोस्वामी, ज्ञानेश्वर, गोस्वामी गोकुलनाथ, अष्टछाप

शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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ज्ञानेश्वर

संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे जिन्होंने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के 'आद्य-प्रवर्तकों' में भी माने जाते हैं। .

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गोस्वामी गोकुलनाथ

गोस्वामी गोकुलनाथ वल्लभ संप्रदाय की आचार्य परंपरा में वचनामृत पद्धति के यशस्वी प्रचारक के रूप में विख्यात हैं। आप गोस्वामी विट्ठलनाथ के चतुर्थ पुत्र थे। आपका जन्म संवत्‌ 1608, मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को प्रयाग के समीप अड़ैल में हुआ था। गोस्वामी विट्ठलनाथ के सातों पुत्रों में गोकुलनाथ सबसे अधिक मेधावी, प्रतिभाशाली, पंडित और वक्ता थे। सांप्रदायिक गूढ़ गहन सिद्धांतों का आपने विधिवत्‌ अध्ययन किया था और उनके मर्मोद्घाटन की विलक्षण शक्ति आपको प्राप्त हुई थी। सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचार और प्रसार में अपने पिता के समान आपका भी बहुत योगदान है। संस्कृत भाषा के साथ ही हिंदी काव्य और संगीत का भी आपने गोविन्दस्वामी से अध्ययन किया था, जिसका उपयोग आपने प्रचार कार्य में किया। गोकुलनाथ की वैष्णव जगत्‌ में ख्याति के विशेषत: दो कारण बताए जाते है। पहला कारण यह है कि इन्होंने अपने संप्रदाय के वैष्णव भक्तों के चारित्रिक दृष्टांतों द्वारा सांप्रदायिक उपदेश देने की लोकप्रिय प्रथा का प्रवर्तन किया। इन कथाओं को ही हिंदी साहित्य में 'वार्ता साहित्य' का नाम दिया गया है। आपकी प्रसिद्धि का दूसरा कारण सांप्रदायिक अनुश्रुतियों में 'मालाप्रसंग' नाम से अभिहित किया जाता है। इस मालाप्रसंग के कारण, कहा जाता है कि, गोकुलनाथ जी को वैष्णव जगत्‌ में सार्वदेशिक यश और सम्मान प्राप्त हुआ था। मालाप्रसंग का संबंध एक ऐतिहासिक घटना से बताया जाता है। वंसत्‌ 1674 में बादशाह जहाँगीर की उज्जैन और मथुरा में एक वेदांती संन्यासी चिद्रूप से भेंट हुई जिसकी विस्पृह साधना से बादशाह मुग्ध था। वैष्णवों में प्रचलित है कि उसके कहने पर बादशाह ने वैष्णवों के बाह्य चिन्हों (माला, कंठी और तिलक) के धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निषेधाज्ञा को हटवाने में गोकुलनाथ जी ने सफलता पाई। यद्यपि इस वैष्णव परंपरा की पुष्टि ऐतिहासिक ग्रंथों से नहीं होती। जहाँगीर के 'आत्मचरित' अथवा फारसी की ऐतिहासिक सामग्री में इस घटना का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। परंतु गोकुलनाथ जी के विषय में यह मिलता है कि उन्होंने जहाँगीर से गोस्वामियों के लिए नि:शुल्क चरागाह प्राप्त किए थे। उनका यश और सम्मान पुष्टिमार्गी संतसमाज में इससे अधिक बढ़ गया। चिद्रूप की लोकप्रियता कम हुई अथवा नहीं, किन्तु गोकुलनाथ जी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आगे चलकर इसका स्पष्ट प्रभाव उनकी कृतियों पर पड़ा। वार्ता साहित्य के यशस्वी कृतिकार एवं प्रचारक के रूप में उनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वैष्णव मत के सिद्धांतों और भक्ति की रसानुभूति में उनकी लेखनी खूब चली। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में गोकुलनाथ जी का उल्लेख उनके 'वार्ता साहित्य' के कारण हुआ है। गोकुलनाथ रचित दो वार्ता ग्रंथ प्राप्त हैं। पहला 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' और दूसरा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता'। इन दोनों की प्रामाणिकता और गोकुलनाथ रचित होने में विद्वानों में प्रारंभ से ही मतभेद रहा है, किंतु नवीनतम शोध और अनुशीलन से यह सिद्ध होता जा रहा है कि मूल वार्ताओं का कथन गोकुलनाथ ने ही किया था। इन वार्ताओं से वल्लभ संप्रदायी कवियों तथा वैष्णव भक्तों का परिचय प्राप्त करने में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई है। अत: इनको अप्रामाणिक कहकर उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता। सांप्रदायिक पंरपराओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि गोकुलनाथ जी ने सर्वप्रथम श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्यों-सेवकों का वृत्तांत मौखिक रूप से 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के रूप में कहा और तदनंतर अपने पिता श्री विट्ठलनाथ जी के शिष्यों-सेवकों का चरित्र 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में सुनाया, यद्यपि गोकुलनाथ ने स्वयं इन वार्ताओं को नहीं लिखा। लेखन और संपादन का कार्य बाद में होता रहा। विशेष रूप से गुसाई हरिराय ने इनके संपादन का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने 'भाव प्रकाश' लिखकर इन वार्ताओं का पल्लवन करते हुए इनमें विस्तार के साथ कतिपय समसामयिक घटनाओं का भी समावेश कर दिया। इन घटनाओं में औरंगजेब के आक्रमणों की बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वस्तुत: हरिराय जी ने अपने काल की वर्तमानकालिक घटनाओं को भाव प्रकाशन तथा पल्लवन के समय जोड़ा था। मूल वार्ताओं में वे घटनाएँ नहीं थीं। परवर्ती संपादकों और लिपिकारों ने अनेक नवीन प्रसंग जोड़कर वार्ताओं को बहुत भ्रामक बना दिया है। किंतु वार्ताओं की प्राचीनतम प्रतियों में उन घटनाओं का वर्णन न होने से अनेक भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है। वार्ता साहित्य का हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और अब उनका विधिवत्‌ मूल्यांकन होने लगा है। गोकुलनाथ जी रचित कुछ और ग्रंथ भी उपलब्ध हैं जिनमें 'वनयात्रा', 'नैत्य-सेवा-प्रकार', 'बैठक चरित्र', 'घरू वार्ता', 'भावना', 'हास्य प्रसंग' आदि हैं। गोकुलनाथ जी की ख्याति का एक कारण उनकी सांप्रदायिक विशेषता भी है। गोकुलनाथ के इष्टदेव का स्वरूप 'गोकुलनाथ' ही है और उसके विराजने का स्थान गोकुल है। इनके यहाँ स्वरूपसेवा के स्थान पर गद्दी को ही सर्वस्व मानकर पूजा जाता है। इनका सेवकसमुदाय भंडूची वैष्णवों के नाम से प्रसिद्ध है। गोकुलनाथ जी वचनामृत द्वारा वल्लभ संप्रदाय का प्रचार करनेवाले सबसे प्रमुख आचार्य थे। उनकी मृत्यु संवत्‌ 1697 की फाल्गुन कृष्णा नवमी को हुई। .

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अष्टछाप

अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित ८ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना १५६५ ई० में हुई थी। .

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