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वारेन हेस्टिंग्स

सूची वारेन हेस्टिंग्स

वारेन हेस्टिंग्स (6 दिसंबर 1732 – 22 अगस्त 1818), एक अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ था, जो  फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) का प्रथम गवर्नर तथा बंगाल की सुप्रीम काउंसिल का अध्यक्ष था और इस तरह 1773 से 1785 तक वह भारत का प्रथम वास्तविक (डी-फैक्टो) गवर्नर जनरल रहा। 1787 में भ्रष्टाचार के मामले में उस पर महाभियोग चलाया गया लेकिन एक लंबे परीक्षण के बाद उसे 1795 में अंततः बरी कर दिया गया। 1814 में उसे प्रिवी काउंसिलर बनाया गया। .

21 संबंधों: चेत सिंह, द्वारका प्रसाद शर्मा, नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर, पैलेस ऑफ़ वेस्ट्मिन्स्टर, बनारस विद्रोह, बंगाल का भीषण अकाल (१७७०), भारत में ब्रिटिश काल में भ्रष्टाचार, भारत के महाराज्यपाल, भारत के गवर्नर जनरलों की सूची, भारतीय विदेश सेवा, महाराज नंदकुमार, जिलाधिकारी, जेम्स ऑगस्टस हिक्की, वाराणसी, गंगागोविन्द सिंह, आसफ़ुद्दौला, कंपनी राज, कोलकाता, अंग्रेज़ी शासन, १८१८, २२ अगस्त

चेत सिंह

बनारस के सामंत जमींदार बलवंतसिंह के पुत्र चेतसिंह के उत्तराधिकार ग्रहण (१७७० ई.) करने के बाद, उक्त जमींदारी अवध के आधिपत्य से ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत ले ली गई (१७७५)। हेस्टिंग्ज़ ने तब चेतसिंह को वचन दिया था कि उनके नियमित कर देते रहने पर, उनसे किसी भी रूप में अतिरिक्त धन नहीं लिया जाएगा। किंतु मरहठा युद्ध से उत्पन्न आर्थिक संकट में हेस्टिंग्ज ने उनसे पाँच लाख रुपयों की माँग की (१७७८)। चेतसिंह के आनाकानी करने पर हेंस्टिंग्ज ने पाँच दिनों के अंदर भूगतान की धमकी दे रकम वसूल ली। अगले वर्ष उनसे पाँच लाख की दुबारा माँग की। चेतसिंह के पूर्व आश्वासन का विनम्र उल्लेख करने पर, हेस्टिंग्ज ने सक्रोध हर्जाने के रूप में बीस हजार रुपए भी साथ वसूले। १७८० में हेस्टिंग्ज ने उतना ही धन (पाँच लाख) देने का फिर आदेश दिया। चेतसिंह ने हेंस्टिंग्ज को मनाने अपना विश्वासपात्र नौकर कलकत्ते भेजा; साथ में दो लाख रुपए की घूस भी अर्पित की। हेस्टिंग्ज ने घूस तो स्वीकार करली, लेकिन भारी दंड सहित उक्त धन तीसरी बार भी वसूल किया। अब उसने चेतसिंह को एक हजार घुड़सवार भेजने की फरमाइश की। चेतसिंह के पाँच सौ घुड़सवार और पाँच सौ पैदल तैयार करने पर, हेंस्टिंग्ज ने पाँच करोड़ रुपए का जुर्माना थोप दिया। हेस्टिंग्ज के बनारस पहुँचने पर उसने चेतसिंह से मिलना ही अस्वीकार नहीं किया, बल्कि उनके नम्रतापूर्ण पत्र को विद्रोहप्रदर्शन घोषित कर, उन्हें बंदी बना लिया। इस दुर्व्यवहार से उत्तेजित हो चेतसिंह की सेना ने स्वत: विद्रोह कर, हेस्टिंग्ज का निवास स्थान घेर लिया। हेस्टिंग्ज ने प्राणापन्न संकट में धैर्य और साहस से विद्रोह का दमन किया; यद्यपि अंग्रेजी सेना के बनारस का पूरा खजाना लूट लेने के कारण हेस्टिंग्ज के हाथ कुछ न लगा। चेतसिंह विद्रोहजनित अवस्था में लाभ उठाकर विजयगढ़ भाग गए और विजयगढ़ से ग्वालियर। हेस्टिंग्ज ने बनारस की जमींदारी अपहृत कर चेतसिंह के किशोरवयस्क भांजे को, यथेष्ट लगानवृद्धि के साथ सौंप दी। चेतसिंह के प्रति हेस्टिंग्ज के इस लज्जाजनक दुर्व्यवहार के मूल में हेस्टिंग्ज की व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना निहित थी, जिसकी पार्लियामेंट में भर्त्सना हुई। श्रेणी:ब्रिटिशकालीन भारत श्रेणी:भारतीय शासक श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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द्वारका प्रसाद शर्मा

द्वारका प्रसाद शर्मा (संवत १८७७-) हिन्दी के साहित्यकार थे। इन्हें हिंदी गद्य के विकास काल के आरंभिक लेखकों में गिना जाता है। चतुर्वेदीजी को हिंदी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण योगदान हेतु "शर्मा" की उपाधि से सम्मानित किया गया। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा में संवत १८७७ में हुआ था। वे बाद में इलाहाबाद में आकर बस गए थे। ये पहले सरकारी नौकरी में थे परंतु वारेन हेस्टिंग्स का जीवन चरित्र लिखने के कारण नौकरी से अलग कर दिए गए और साहित्य की ओर प्रवृत हुए। चतुर्वेदीजी ने "राघवेंद्र" मासिक पत्र भी निकल था.

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नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर

ग़ाजी-उद्-दीन हैदन (१७६९- १९ अक्टूबर, १८२७) अवध का नवाब था। वह नवाब सआदत अली खान का तीसरा बेटा था और उसकी माँ का नाम मुशीरज़ादी था। वह ११ जुलाई १८१४ में अपने पिता की मृत्यु के बाद अवध का नवाब वज़ीर बना। १८१९ में अँग्रेज गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स से प्रभावित होकर उसने स्वयं को स्वतंत्र अवध का बादशाह घोषित कर दिया था। उसका देहांथ लखनऊ के फरहत बख्श महल में १८२७ में हुआ। उसे बाद उसका बेटा नासिरुद्दीन हैदर उसकी गद्दी पर बैठा। नवाब गाजीउद्दीन हैदर के शासनकाल में बनवाई गई प्रसिद्ध इमारतों में छतर मंजिल आज भी अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। श्रेणी:लखनऊ के नवाब.

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पैलेस ऑफ़ वेस्ट्मिन्स्टर

पैलेस ऑफ वेस्टमिन्स्टर, जिसका अर्थ है वेस्टमिंस्टर का महल और जिसे हाउस ऑफ पार्लियामेंट या वेस्टमिन्स्टर पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटेन की संसद के दो सदनों का सभा स्थल है। इनमें से एक है ''हाउस ऑफ लॉर्ड्स'' और दूसरा है ''हाउस ऑफ कॉमन्स''। यह लंदन शहर के हृदय माने जाने वाले वेस्टमिन्स्टर शहर में थेम्स नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है। यह सरकारी भवन वाइटहॉल और डाउन स्ट्रीट तथा ऐतिहासिक स्थल वेस्टमिन्स्टर ऐबी के करीब है। यह नाम निम्न दो में से किसी एक संरचना को संदर्भित कर सकता है, द ओल्ड पैलेस, जो एक मध्यकालीन इमारत है जो कि 1834 में ही नष्ट हो गई थी और उसके स्थान पर बनने वाला न्यू पैलेस जो आज भी मौजूद है। लेकिन इसकी मूल शैली और शाही ठाठबाट पूर्ववत बनी हुई है। इस जगह पर पहला शाही महल ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया था और 1512 में इस इमारत के नष्ट होने से पहले वेस्टमिन्स्टर ही लंदन के राजा का प्राथमिक लंदन निवास था। इसके बाद से ही यह संसद भवन के रूप में कार्य कर रहा है। 13 वीं शताब्दी से यहां संसद की सभाएं होती हैं और शाही न्याय पीठ एवं वेस्टमिन्स्टर हॉल भी यहीं पर है। पुनः पूरी भव्यता से बनाये गये इस संसद भवन में 1834 में भयानक आग लग गई। इस आग से जो इमारते बच गईं उनमें शामिल हैं वेस्टमिन्स्टर हॉल, द क्लॉइस्टर्स ऑफ सेंट स्टीफन्स, चैपल ऑफ सेंट मैरी अंडरक्राफ्ट और जूअल टॉवर.

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बनारस विद्रोह

वह 16 अगस्त 1781 का दिन था। अचानक पूरी काशी नगरी में बिजली की भांति यह खबर फैल गई कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसर वारेन हेस्टिंग्स ने काशी नरेश महाराज चेत सिंह को उनके शिवाला स्थित राजमहल में बंदी बना लिया है। कारण था, हेस्टिंग्स की घूस-खोरी। यह अंग्रेज उन दिनों दोनों हाथों से भारतीय नरेशों से रिश्वत वसूलने के लिए बदनाम था। महाराज चेत सिंह से भी इसने झूठे दोष मढ़कर 50 लाख रुपए जुर्माने के नाम पर वसूलने चाहे, जिसे उन्होंने देने से इनकार किया तो हेस्टिंग्स 4 कम्पनी सेना सहित 14 अगस्त को काशी आ धमका और वहां माधोदास सातिया के बाग में पड़ाव डाला, जोकि गोला दीनानाथ के सन्निकट था। उसे कलकत्ते से नदी के रास्ते काशी आने में एक महीने से अधिक समय लगा। वह कलकत्ता से 5 जुलाई को चला था। 16 अगस्त को उसने चेत सिंह को बंदी बना लिया। वहीं काशीवासी प्रलयंकर भगवान विश्वेश्वर विश्वनाथ के ऐसे भक्त थे जो गोमांस भक्षक अंग्रेजों को सबक सिखाना जानते थे। हजारों काशीवासियों ने जो भी हथियार हाथ लगा वह लेकर वारेन हेस्टिंग्स और उसकी सेना की घेराबंदी कर ली। अंग्रेज असावधान थे और घमण्ड में चूर थे। काशी की जनता ने लगातार 4 दिन तक अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, जिसमें सैकड़ों अंग्रेज काट डाले गए। हेस्टिंग्स के होश उड़ गए और उसे अपनी जान के लाले पड़ गए। तब उसने कोट-पैण्ट-टोप दूर फेंककर स्त्री वेश पहना और जनानी सवारी की तरह एक पर्देदार पालकी में जा बैठा। उस पालकी को ढोने वालों को कहा गया कि "बीबी जी देवी-दर्शन के लिए विंध्याचल देवी के दर्शनार्थ जा रही हैं।" इस तरह छलपूर्वक जनाने वेश में हेस्टिंग्स चुनार आया और वहां से पुन: जल मार्ग से ही कलकत्ता कूच कर गया। चेत सिंह काशी के जन-बल सहित अंग्रेजों पर भारी पड़े और जनता ने ही उन्हें शिवाला के महल से मुक्त कराया। तभी से उस ऐतिहासिक विजय की स्मृति में काशीवासी ये पंक्तियां कहने लगे- "घोड़े पर होदा, हाथी पर जीन, काशी से भागा, वारेन हेस्टीन।।" अर्थात् कि भयभीत वारेन हेस्टिंग्स को काशी से भागते समय ऐसी घबराहट हुई कि हाथी का हौदा उसने रखवाया घोड़े पर और घोड़े की जीन कसवाई हाथी पर और काशी से भाग निकला। .

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बंगाल का भीषण अकाल (१७७०)

१७७० का बांगाल का भीषण अकाल (बांग्ला: ৭৬-এর মন্বন্তর, छिअत्तरेर मन्वन्तर .

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भारत में ब्रिटिश काल में भ्रष्टाचार

अंग्रेजों ने भारत के राजा महराजाओं को भ्रष्ट करके भारत को गुलाम बनाया। उसके बाद उन्होने योजनाबद्ध तरीके से भारत में भ्रष्टाचार को बढावा दिया और भ्रष्टाचार को गुलाम बनाये रखने के प्रभावी हथियार की तरह इस्तेमाल किया। देश में भ्रष्टाचार भले ही वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है, लेकिन भ्रष्टाचार ब्रिटिश शासनकाल में ही होने लगा था जो हमारे राजनेताओं को विरासत में दे गए थे। भारत छोड़कर जाते-जाते भी अंग्रेजों की कुटिल बुद्धि ने भारत को और भी गारत करने सोच लिया था इसीलिए एक लम्बे अरसे से षड़यन्त्र पूर्वक इस देश में में नफरत फैलाना शुरू कर दिया था। धर्मेन्द्र गौड़ की पुस्तक “मैं अंग्रेजों का जासूस था” उनके द्वारा भारत छोड़ने के नफरत फैलाने का साक्ष्य है। भारत को विभाजन की आग में झोंकने की कुटिल योजना पहले से ही उन्होंने बना रखी थी। इतनी अधिक अराजकता इस देश में अंग्रेजों के आने से पहले कभी नहीं थी। आमतौर पर भ्रष्टाचार तथा गरीबी भारत में कहीं भी कभी भी देखने को नहीं मिलती थी। यदि यह कहा जाए कि गरीबी, सामान्य राजनीति और प्रशासनिक भ्रष्टाचार अंग्रेजों की देन है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक और व्यवसायी शानबाग लेखकों और साहित्यकारों में काफी प्रसिद्ध रहे हैं। फोर्ट में उनकी पुस्तकों की दुकान स्ट्रेंड बुक स्टाल एक ग्रंथ तीर्थ ही माना जाता है। अपने देहांत से पहले शानबाग ने भारतीय संपदा और पाठकों पर बड़ा उपकार किया, जब उन्होंने विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार एवं चिंतक विल डूरा की दुर्लभ एवं लुप्तप्राय पुस्तक "द केस फॉर इंडिया" का पुन: प्रकाशन किया। यह पुस्तक अंग्रेजों द्वारा भारत की लूट ही नहीं, बल्कि भारत के प्राचीन संस्कारों, विद्या और चरित्र पर इतिहास के सबसे बड़े आक्रमण का तथ्यात्मक वर्णन करती है। इसमें उन्होंने लिखा है कि भारत केवल एक राष्ट्र ही नहीं था, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और भाषा में विश्व का मातृ संस्थान था। भारतभूमि हमारे दर्शन, संस्कृति और सभ्यता की मां कही जा सकती है। विश्व का ऎसा कोई श्रेष्ठता का क्षेत्र नहीं था, जिसमें भारत ने सर्वोच्च स्थान न हासिल किया हो। चाहे वह वस्त्र निर्माण हो, आभूषण और जवाहरात का क्षेत्र हो, कविता और साहित्य का क्षेत्र हो, बर्तनों और महान वास्तुशिल्प का क्षेत्र हो अथवा समुद्री जहाज का निर्माण क्षेत्र हो, हर क्षेत्र में भारत ने दुनिया को अपना प्रभाव दिखाया। जब अंग्रेज भारत आए, तो उन्होंने राजनीतिक दृष्टि से कमजोर, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अत्यंत वैभव और ऎश्वर्य संपन्न भारत को पाया। ऎसे देश में अंग्रेजों ने धोखाधड़ी, अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार के माध्यम से राज्य हड़पे, अमानुषिक टैक्स लगाए, करोड़ों को गरीबी और भुखमरी के गर्त में धकेला तथा भारत की सारी संपदा व वैभव लूटकर ब्रिटेन को मालामाल किया। उन्होंने मद्रास, कोलकाता और मुंबई में हिंदू शासकों से व्यापारिक चौकियां भाड़े पर लीं और बिना अनुमति के वहां अपनी तौपें और सेनाएं रखीं। 1756 में बंगाल के राजा ने इस प्रकार के आक्रमण का जब विरोध किया और अंग्रेजों के दुर्ग फोर्ट विलियम पर हमला करके उस पर कब्जा कर लिया, तो एक साल बाद रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के युद्ध में बंगाल को हराकर उस पर कब्जा कर लिया और एक नवाब को दूसरे से लड़ा कर लूट शुरू कर दी। सिर्फ एक साल में क्लाइव ने 11 लाख 70 हजार डॉलर की रिश्वत ली और 1 लाख 40 हजार डॉलर सालाना नजराना लेना शुरू किया। जांच में उसे गुनहगार पाया गया, लेकिन ब्रिटेन की सेवा के बदले उसे माफी दे दी गई। विल ड्यूरा लिखते हैं कि भारत से 20 लाख का सामान खरीद कर ब्रिटेन में एक करोड़ में बेचा जाता है। अंग्रेजों ने अवध के नवाब को अपनी मां और दादी का खजाना लूट कर अंग्रेजों को 50 लाख डॉलर देने पर मजबूर किया फिर उस पर कब्जा कर लिया और 25 लाख डॉलर में एक दूसरे नवाब को बेच दिया। अंग्रेजी भाषा चलाने और अंग्रेजों के प्रति दासता मजबूत करने के लिए भारतीय विद्यालय बंद किए गए। 1911 में गोपालकृष्ण गोखले ने संपूर्ण भारतवर्ष में प्रत्येक भारतीय बच्चे के लिए अनिवार्य प्राइमरी शिक्षा का विधेयक लाने की कोशिश की, लेकिन उसे अंग्रेजों ने विफल कर दिया। 1916 में यह विधेयक फिर से लाने की कोशिश की, ताकि संपूर्ण भारतीयों को शिक्षित किया जा सके, लेकिन इसे भी अंग्रेजों ने विफल कर दिया। भारतीय सांख्यिकी के महानिदेशक सर विलियम हंटर ने लिखा है कि भारत में 4 करोड़ लोग ऎसे थे, जो कभी भी अपना पेट नहीं भर पाते थे। भूख और गरीबी की ओर धकेल दिए गए समृद्ध भारतीय शारीरिक दृष्टि से कमजोर होकर महामारी के शिकार होने लगे। 1901 में विदेश से आए प्लेग के कारण 2 लाख 72 हजार भारतीय मर गए, 1902 में 50 लाख भारतीय मरे, 1903 में 8 लाख भारतीय मारे गए और 1904 में 10 लाख भारतीय भूख, कुपोषण और प्लेग जैसी महामारी के कारण मारे गए। 1918 में 12 करोड़ 50 लाख भारतीय इनफ्लूएंजा रोग के शिकार हुए, जिनमें से 1 करोड़ 25 लाख लोगों की मौत सरकारी तौर पर दर्ज हुई। समान काम के लिए अंग्रेजों को भारतीयों से 10 गुना ज्यादा वेतन दिया जाता था और अंग्रेजों से 10 गुना अधिक विद्वान भारतीय को उनकी योग्यता के अनुरूप पद नहीं दिया जाता था। .

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भारत के महाराज्यपाल

भारत के महाराज्यपाल या गवर्नर-जनरल (१८५८-१९४७ तक वाइसरॉय एवं गवर्नर-जनरल अर्थात राजप्रतिनिधि एवं महाराज्यपाल) भारत में ब्रिटिश राज का अध्यक्ष और भारतीय स्वतंत्रता उपरांत भारत में, ब्रिटिश सम्प्रभु का प्रतिनिधि होता था। इनका कार्यालय सन 1773 में बनाया गया था, जिसे फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी का गवर्नर-जनरल के अधीन रखा गया था। इस कार्यालय का फोर्ट विलियम पर सीधा नियंत्रण था, एवं अन्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों का पर्यवेक्षण करता था। सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत पर पूर्ण अधिकार 1833 में दिये गये और तब से यह भारत के गवर्नर-जनरल बन गये। १८५८ में भारत ब्रिटिश शासन की अधीन आ गया था। गवर्नर-जनरल की उपाधि उसके भारतीय ब्रिटिश प्रांत (पंजाब, बंगाल, बंबई, मद्रास, संयुक्त प्रांत, इत्यादि) और ब्रिटिष भारत, शब्द स्वतंत्रता पूर्व काल के अविभाजित भारत के इन्हीं ब्रिटिश नियंत्रण के प्रांतों के लिये प्रयोग होता है। वैसे अधिकांश ब्रिटिश भारत, ब्रिटिश सरकार द्वारा सीधे शासित ना होकर, उसके अधीन रहे शासकों द्वारा ही शासित होता था। भारत में सामंतों और रजवाड़ों को गवर्नर-जनरल के ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि होने की भूमिका को दर्शित करने हेतु, सन १८५८ से वाइसरॉय एवं गवर्नर-जनरल ऑफ इंडिया (जिसे लघुरूप में वाइसरॉय कहा जाता था) प्रयोग हुई। वाइसरॊय उपाधि १९४७ में स्वतंत्रता उपरांत लुप्त हो गयी, लेकिन गवर्नर-जनरल का कार्यालय सन १९५० में, भारतीय गणतंत्रता तक अस्तित्व में रहा। १८५८ तक, गवर्नर-जनरल को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों द्वारा चयनित किया जाता था और वह उन्हीं को जवाबदेह होता था। बाद में वह महाराजा द्वारा ब्रिटिश सरकार, भारत राज्य सचिव, ब्रिटिश कैबिनेट; इन सभी की राय से चयन होने लगा। १९४७ के बाद, सम्राट ने उसकी नियुक्ति जारी रखी, लेकिन भारतीय मंत्रियों की राय से, ना कि ब्रिटिश मंत्रियों की सलाह से। गवर्नर-जनरल पांच वर्ष के कार्यकाल के लिये होता था। उसे पहले भी हटाया जा सकता था। इस काल के पूर्ण होने पर, एक अस्थायी गवर्नर-जनरल बनाया जाता था। जब तक कि नया गवर्नर-जनरल पदभार ग्रहण ना कर ले। अस्थायी गवर्नर-जनरल को प्रायः प्रान्तीय गवर्नरों में से चुना जाता था। .

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भारत के गवर्नर जनरलों की सूची

भारत के गवर्नर जनरल (या, 1857 से 1947 तक, भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल) भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश राज का प्रधान पद था। यह सूची भारत और पाकिस्तान के आजादी से पहले के सभी वायसराय और गवर्नर-जनरल, भारतीय संघ के दो गवर्नर-जनरल और पाकिस्तानी अधिराज्य के चार गवर्नर-जनरल को प्रदर्शित करती है। गवर्नर जनरल ऑफ द प्रेसीडेंसी ऑफ फोर्ट विलियम के शीर्षक के साथ इस कार्यालय को 1773 में सृजित किया गया था। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान को आजादी मिली तब वायसराय की पदवी को हटा दिया गया, लेकिन दोनों नई रियासतों में गवर्नर-जनरल के कार्यालय को तब तक जारी रखा गया जब तक उन्होंने क्रमशः 1950 और 1956 में गणतंत्र संविधान को अपनाया.

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भारतीय विदेश सेवा

भारतीय विदेश मन्त्रालय के कार्य को चलाने के लिए एक विशेष सेवा वर्ग का निर्माण किया गया है जिसे भारतीय विदेश सेवा (Indian Foreign Service I.F.S.) कहते हैं। यह भारत के पेशेवर राजनयिकों का एक निकाय है। यह सेवा भारत सरकार की केंद्रीय सेवाओं का हिस्सा है। भारत के विदेश सचिव भारतीय विदेश सेवा के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं। भारतीय राजनय अब संभ्रान्त परिवारों, राजा-रजवाड़ों, सैनिक अफसरों आदि तक ही सीमित न रहकर सभी के लिए खुल गया है। सामान्य नागरिक अपनी योग्यता और शिक्षा के आधार पर इस सेवा का सदस्य बन सकता है। सन 1947-1948 की विशेष संकटकालीन भरती के अलावा विदेश सेवा के लिये चुनाव एक विशेष परीक्षा व साक्षात्कार द्वारा किया जाता है। चुनाव हो जाने के पश्चात् इन्हें एक विशेष प्रशिक्षण के लिये भेजा जाता है, जो कई भागों में पूरा होता है। इसमें शैक्षणिक विषयों का ज्ञान, विदेश भाषा की शिक्षा, एक माह के लिये विदेश दूतावास में व्यापार की शिक्षा और राष्टंमण्डल के विदेश सेवा अधिकारी प्रशिक्षण केन्द्र में डेढ़ माह का प्रशिक्षण दिया जाता है। तत्पश्चात् ही इनकी किसी विदेश दूतावास में नियुक्ति होती है। इस प्रकार प्रशिक्षित व्यावसायिक राजदूतों के अलावा सरकार समय-समय पर गैर-व्यावसायिक राजनीतिज्ञों सैनिकों, खिलाड़ियों आदि को भी राजदूत नियुक्त करती है। दूतावास में अताशों की भी नियुक्ति की जाती है। प्रधानमन्त्री कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में अपने व्यक्तिगत प्रतिनिधि विशेष दूत अथवा घूमने वाले राजदूत (Roving Ambassador) को भी भेज सकता है। विदेश सेवा बोर्ड राजनयिक, व्यापारी एवं वाणिज्य ओर दूतावासों में अधिकारियों की नियुक्ति, उनका स्थानान्तरण और पदोन्नति के कार्य करता है। .

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महाराज नंदकुमार

महाराज नंदकुमार महाराज नंदकुमार बंगाल का एक संभ्रांत ब्राहमण था। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समय में वह हुगली का फौजदार था। मार्च, सन्‌ 1757 में अंग्रेजों ने जब फ्रांसीसियों की बस्ती चंदननगर पर हमले की तैयारी की, तो नवाब सिराजुद्दौला ने नंदकुमार को एक बड़ी सेना के साथ फ्रांसीसियों और वहाँ की भारतीय प्रजा की रक्षा के लिये तुरंत चंद्रनगर भेज दिया था। लेकिन अंग्रेजों से रिश्वत पाकर नंदकुमार अंग्रेजी सेना के चंद्रनगर पहुँचते ही वहाँ से हट गया। उसके हट जाने से फ्रांसीसी कमजोर पड़ गए और चंद्रनगर पर अंग्रेजों का सरलता से अधिकार हो गया (23 मार्च 1757)। जून, 1757 में रिश्वत ओर धोखे का सहारा लेकर क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला को हराकर गद्दार मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया। बाद में अंग्रेजों ने उसे भी गद्दी से उतारकर उसके दामाद और मीर कासिम को, बहुत सा धन पाने के वादे पर, नवाब बना दिया। कुछ समय बाद अंग्रेजों की लूट-खसोट की नीति के कारण मीर कासिम को अंग्रेजों से युद्ध करने को विवश होना पड़ा किंतु लड़ाई में वह हार गया। जब 1763 ईo में मीर जाफर दुबारा नवाब बना तो उसने महाराज नंदकुमार को अपना दीवान बनाया। नंदकुमार अब अंग्रेजों की चालों को समझ गया था। इसलिये उसने बंगाल की नवाबी को पुष्ट करने के लिये मीर जाफर को यह सलाह दी कि वह बंगाल की सूबेदारी के लिये सम्राट् शाह आलम और वजीर शुजाउद्दौला को प्रसन्न करके शाही फरमान हासिल कर ले। ऐसा होने से नवाब अंग्रेजों के चंगुल से छूटकर स्वाधीन हो सकता था। इसपर अंग्रेज नंदकुमार से चिढ़ गए। फरवरी, 1765 में मीर जाफर के मरने पर उसका लड़का नवाब नजमुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसने नंदकुमार को अपना दीवान रखना चाहा, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं होने दिया। फलत: नवाब का एक योग्य एवं स्वामिभक्त सेवक उसके हाथ से जाता रहा। अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने अब महाराज नंदकुमार को हमेशा के लिये खत्म कर देने की योजना बनाई। नवाब नजमुद्दौला ने मुहम्मद रज़ा खाँ नाम के व्यक्ति को अपना नायब नियुक्त किया था। हेस्टिंग्स ने नंदकुमार को बंगाल का नायब बनाने का लालच देकर उसे मुहम्मद रजा खाँ के खिलाफ कर दिया था। इस लालच में नंदकुमार ने रजा खाँ पर गबन का इलजाम साबित करने में मदद की थी। लेकिन काम निकलने के बाद हेस्टिंग्स नंदकुमार को पुरस्कृत करने बजाय उसका विरोधी हो गया। नंदकुमार ने भी अब हेस्टिंग्स के खिलाफ कलकत्ते की कौंसिल को एक अर्जी पेश की जिसमें हेस्टिंग्स पर रिश्वत लेने और जबरदस्ती धन वसूल करने तथा मुर्शिदाबाद के नवाब की माँ मुन्नी बेगम से बहुत सा धन वसूल करने आदि के इलजाम लगाए थे। ये इलजाम कौंसिल के मेंबरों ने यद्यपि सही समझे, तथापि हेस्टिंग्स को कोई दंड नहीं दिया गया। अपितु हेस्टिंग्स ने उलटे नंदकुमार पर यह जुर्म लगाया कि पाँच साल पहले सन्‌ 1770 में नंदकुमार ने किसी दीवानी के मामले में एक जाली दस्तावेज बनाया था। जालसाजी का यह मुकदृमा मोहनप्रसाद नाम के एक व्यक्ति द्वारा कलकत्ते की अँग्रेजी `सुप्रीम कोर्ट` में चलाया गया। कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश सर एलिजाह इंपी वारेन हेस्टिंग्स का बचपन का मित्र था। नंदकुमार पर जालसाजी का इलजाम बिलकुल झूठा था, जिसको सिद्ध करने के लिये फर्जी गवाह खड़े किए गए थे। वस्तुत: अंग्रेज और विशेषतया हेस्टिंग्स नंदकुमार से चिढ़ते थे और उसे खत्म करने के लिये ही यह मुकदमा चलाया गया था। सात दिन इस मुकदमे की सुनवाई हुई और अंत में अँग्रेजी अदालत ने नंदकुमार को अपराधी करार देकर उसे फाँसी की सजा दे दी। 5 अगस्त सन्‌ 1776 को महाराज नंदकुमार को कलकत्ते में फाँसी पर लटका दिया गया। नंदकुमार ने शांति और अदम्य धैर्य के साथ मृत्यु का आलिंगन किया। .

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जिलाधिकारी

जिलाधिकारी भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक प्रमुख प्रशासनिक पद है। जिसे अंग्रेजी में "डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर" या फिर सिर्फ "कलेक्टर" के नाम से भी जाना जाता है भारत के प्रत्येक जिले का एक अपना उपायुक्त होता है। अंग्रेज शासन के दौरान सन 1772 में लोर्ड वॉरेन हेस्टिंग द्वारा बुनियादी रूप से नागरिक प्रशासन और 'भू राजस्व की वसूली' के लिए गठित 'जिलाधिकारी' का पद, अब राज्य के लोक-प्रशासन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदों में प्रमुख स्थान रखता है। 'जिलाधीश' और 'कलेक्टर' के रूप में जिले में राज्य सरकार का सर्वोच्च अधिकार संपन्न प्रतिनिधि या प्रथम लोक-सेवक होता है। जो मुख्य जिला विकास अधिकारी के रूप में सारे प्रमुख सरकारी विभागों- पंचायत एवं ग्रामीण विकास, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, आयुर्वेद, अल्पसंख्यक कल्याण, कृषि, भू-संरक्षण, शिक्षा, महिला अधिकारता, ऊर्जा, उद्योग, श्रम कल्याण, खनन, खेलकूद, पशुपालन, सहकारिता, परिवहन एवं यातायात, समाज कल्याण, सिंचाई, सार्वजनिक निर्माण विभाग, स्थानीय प्रशासन आदि के सारे कार्यक्रमों और नीतियों का प्रभावी क्रियान्वयन करवाने के लिए अपने जिले के लिए अकेले उत्तरदायी होता है। वह जिला मजिस्ट्रेट के रूप में पुलिस अधीक्षक के साथ प्रमुखतः जिले की संपूर्ण कानून-व्यवस्था का प्रभारी होता है और सभी तरह के चुनावों का मुख्य प्रबंधक भी। साथ ही वह जनगणना-आयोजक, प्राकृतिक-आपदा प्रबंधक, भू-राजस्व-वसूलीकर्ता, भूअभिलेख-संधारक, नागरिक खाद्य व रसद आपूर्ति-व्यस्थापक, ई-गतिविधि नियंत्रक, जनसमस्या-विवारणकर्ता, भी है। श्रेणी:नागरिक शास्त्र श्रेणी:भारतीय प्रशासनिक सेवा.

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जेम्स ऑगस्टस हिक्की

जेम्स ऑगस्टस हिक्की (James Augustus Hickey) भारत में आधुनिक पत्रकारिता की नींव डालने वाले पत्रकार थे। वे अपनी निष्पक्ष लेखनी के लिये जाने जाते हैं। जेम्स ऑगस्टस हिक्की ईस्‍ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम के रूप में भारत आये थे और कलकत्‍ता से उन्‍हों ने अंग्रेजी में बंगाल गजट समाचार पत्र प्रकाशित किया था। अपनी निष्‍पक्ष लेखनी से उन्‍हों ने किसी को भी नहीं बख्‍शा, यहां तक कि वायसराय जैसे ताकतवर औहदेदार वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा किये गये स्‍वैच्‍छाचार और कंपनी के धन का निजी हित में उपयोग किया जाना भी उनकी कलम से नहीं बचा। इन्‍हीं सुर्खियों के कारण अंग्रेज होने के बाबजूद उन्‍हें कई बार कंपनी की जेल में भी रहना पडा। हिक्‍की अब तो बीते जमाने की कहानी हैं किंतु इसकी सच्‍चाई बयान करने के लिये अब भी कल्‍लकत्‍ता स्थित नेशनल लाइब्रेरी में उनके प्रकाशन की एक प्रति अब भी सुरक्षित है, जिसे देख भारत या अंग्रेज पत्रकार ही नही दुनियां भरके पत्रकार अपने लिये प्रेरणाप्रद मानते हैं। श्रेणी:पत्रकारिता.

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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गंगागोविन्द सिंह

गंगागोविंद सिंह पाइकपाड़ा (बंगाल) के राजवंश के एक प्रख्यात व्यक्ति जो वारेन हेस्टिंग्स के दीवान थे। कोई अपनी सत्कीर्ति से ख्याति प्राप्त करता है, गंगागोविंद सिंह ने अपने काले कारनामों से ही भारतीय इतिहास में स्थान बना रखा है। वे उत्तर राठीय कायस्थ समाज के मान्य लक्ष्मीधर के वंशज थे। उनके पिता का नाम गौरांग था। आरंभ में वे बंगाल के रायब सूबेदार मुहम्मद रजा खाँ के अधीन कानूनगो पद पर थे। किंतु जब रजा खाँ पदच्युत कर दिए गए तो इनकी नौकरी छूट गई और 1769 ई. में वे कलकत्ता चले आए। वहां कंपनी में नौकर हो गए। कुछ ही दिनों में इनकी कार्यदक्षता और चातुरी के कारण हेस्टिंग्स की दृष्टि उनपर पड़ी और उसने उन्हें दीवान नियुक्त कर दिया। राजस्व विभाग का सारा उत्तरदायित्व उन्हें मिला। इस पद पर रहकर वे स्वयं तो उत्कोच प्राप्त करते ही थे, वारेन हेस्टिंग्स को भी उनके माध्यम से उत्कोच मिलता था। मई 1775 ई. में उत्कोच (घूस) लेने के अपराध में पकड़े गए और नौकरी से निकाल दिए गए। किंतु जब मानसन की मृत्यु के पश्चात् हेस्टिंग्स को शासन का एकछत्र अधिकार प्राप्त हुआ तो वे पुन: 8 नवम्बर 1776 ई. को दीवान के पद पर बहाल कर दिए गए। हेस्टिंग्स उनके हाथों मे खेलता था। बिना उनकी सलाह के हेस्टिंग्स कुछ नहीं करता था। इस प्रकार जब तक हेस्टिंग्स भारत में रहा, गंगागोविंद सिंह ही कंपनी सरकार के सर्वेसर्वा थे। राजस्व विभाग में उनकी तूती बोलती थी। जब वारेन हेस्टिंग्स स्वदेश लौट गया तब इनका भी पतन हुआ और ये नौकरी से निकाल दिए गए। तब तक वे इतने संपन्न हो गए थे कि इन्होंने अपनी माँ के श्राद्ध में बारह लाख रूपए खर्च किए थे। जब पार्लियामेंट में हेस्टिंग्स के विरूद्ध अभियोग लगा उस समय एडमंड बर्क ने अभियोग उपस्थित करते हुए जो भाषण किया वह गंगागोविंद सिंह के उल्लेखों से भरा है। .

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आसफ़ुद्दौला

आसफ़ुद्दौला (२३ सितंबर १७४८-२१ सितंबर १७९७) १७७५ से १७९७ के बीच अवध के नवाब वज़ीर और शुजाउद्दौला के बेटे थे, उनकी माँ और दादी अवध की बेग़में थी। अवध की लूट ही वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ़ इल्ज़ामों में से प्रमुख था। .

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कंपनी राज

कंपनी राज का अर्थ है ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर शासन। यह 1773 में शुरू किया है, जब कंपनी कोलकाता में एक राजधानी की स्थापना की है, अपनी पहली गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स नियुक्त किया और संधि का एक परिणाम के रूप में बक्सर का युद्ध के बाद सीधे प्रशासन, में शामिल हो गया है लिया जाता है1765 में, जब बंगाल के नवाब कंपनी से हार गया था, और दीवानी प्रदान की गई थी, या बंगाल और बिहार में राजस्व एकत्रित करने का अधिकार हैशा सन १८५८ से,१८५७ जब तक चला और फलस्वरूप भारत सरकार के अधिनियम १८५८ के भारतीय विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार सीधे नए ब्रिटिश राज में भारत के प्रशासन के कार्य ग्रहण किया। .

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कोलकाता

बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तट से १८० किलोमीटर दूर हुगली नदी के बायें किनारे पर स्थित कोलकाता (बंगाली: কলকাতা, पूर्व नाम: कलकत्ता) पश्चिम बंगाल की राजधानी है। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर तथा पाँचवा सबसे बड़ा बन्दरगाह है। यहाँ की जनसंख्या २ करोड २९ लाख है। इस शहर का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसके आधुनिक स्वरूप का विकास अंग्रेजो एवं फ्रांस के उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा है। आज का कोलकाता आधुनिक भारत के इतिहास की कई गाथाएँ अपने आप में समेटे हुए है। शहर को जहाँ भारत के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रारम्भिक केन्द्र बिन्दु के रूप में पहचान मिली है वहीं दूसरी ओर इसे भारत में साम्यवाद आंदोलन के गढ़ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। महलों के इस शहर को 'सिटी ऑफ़ जॉय' के नाम से भी जाना जाता है। अपनी उत्तम अवस्थिति के कारण कोलकाता को 'पूर्वी भारत का प्रवेश द्वार' भी कहा जाता है। यह रेलमार्गों, वायुमार्गों तथा सड़क मार्गों द्वारा देश के विभिन्न भागों से जुड़ा हुआ है। यह प्रमुख यातायात का केन्द्र, विस्तृत बाजार वितरण केन्द्र, शिक्षा केन्द्र, औद्योगिक केन्द्र तथा व्यापार का केन्द्र है। अजायबघर, चिड़ियाखाना, बिरला तारमंडल, हावड़ा पुल, कालीघाट, फोर्ट विलियम, विक्टोरिया मेमोरियल, विज्ञान नगरी आदि मुख्य दर्शनीय स्थान हैं। कोलकाता के निकट हुगली नदी के दोनों किनारों पर भारतवर्ष के प्रायः अधिकांश जूट के कारखाने अवस्थित हैं। इसके अलावा मोटरगाड़ी तैयार करने का कारखाना, सूती-वस्त्र उद्योग, कागज-उद्योग, विभिन्न प्रकार के इंजीनियरिंग उद्योग, जूता तैयार करने का कारखाना, होजरी उद्योग एवं चाय विक्रय केन्द्र आदि अवस्थित हैं। पूर्वांचल एवं सम्पूर्ण भारतवर्ष का प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में कोलकाता का महत्त्व अधिक है। .

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अंग्रेज़ी शासन

ब्रिटेन का साम्राज्य जिसका भारत एक भाग था। इस राज्य को दो भागो मे बांटा जाता है १ कम्पनी का राज २ ताज का राज .

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१८१८

1818 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२२ अगस्त

22 अगस्त ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 234वॉ (लीप वर्ष मे 235 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 131 दिन बाकी है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

वार्रन हास्टिंग्स, वॉरेन हेस्टिंग

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