लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
डाउनलोड
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

वामनावतार

सूची वामनावतार

वामन कुएँ से पानी निकालने जाते हुए वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। इसके साथ ही यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए — अलबत्ता बौने ब्राह्मण के रूप में। इनको दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। .

44 संबंधों: चंद्रगोमिन्‌, चंपू, चौबीस अवतार, एकादशी तिथि, त्रेतायुग, दशावतार, दशावतार (हाथीदांत निर्मित लघुमंदिर), बली, बाणभट्ट, बाबरी मस्जिद, भट्टनारायण, भास, महाबलि, माता-पिता, माध्यमिक तंत्र-साहित्य, मुगल रामायण, युग वर्णन, शुक्र (ज्योतिष), साहित्य दर्पण, संस्कृत साहित्य, संस्कृत व्याकरण का इतिहास, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, हिन्दू देवी देवताओं की सूची, हिन्दू धर्म, जयन्त विष्णु नार्लीकर, जयादित्य, जयापीड विनयादित्य, जाम्बवन्त, जांजगीर का विष्णु मंदिर, विश्वरूप, विष्णु, गुसांईजी, कश्मीरी साहित्य, काशिकावृत्ति, काव्य रीति, काव्यप्रकाश, काव्यशास्त्र, कविसमय, अदिति, अलंकार (साहित्य), अलंकार शास्त्र, अवतार

चंद्रगोमिन्‌

चंद्रगोमिन्‌ प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण थे। वे 'चांद्र व्याकरण' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के प्रवर्तक माने जाते र्हे। इनके अन्य प्रसिद्ध नाम थे 'चंद्र' और 'चंद्राचार्य'। इनका समय जयादित्य और वामन की 'काशिका' (वृत्तिसूत्र, समय 650 ई. के आसपास) तथा भर्तृहरि (या हरि) के 'वाक्यपदीय' से निश्चित रूप में पूर्ववर्ती है। काशिकासूत्रवृत्ति में इनके अनेक नियमसूत्र बिना नामोल्लेख के गृहीत हैं। वाक्य पदीय में बताया गया है कि पंतजलि को शिष्यपरंपरा में जो व्याकरण नष्टभ्रष्ट हो गया था उसे चंद्राचार्यादि ने अनेक शाखाओं में पुन-प्रणीत किया (य: पंतजलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागम:। सनीतो बहुशाखत्वं चंद्राचार्यादिभि: पुन: 2/489)। चांद्र व्याकरण में उद्घृत उदाहरण 'अजयद् गुप्तो हूणान्‌' के सन्दर्भवैशिष्ट्य से सूचित है कि गुप्त (स्कंदगुप्त 465 ई. अथवा यशोवर्मा 544 ई.) सम्राट् की विजयघटना ग्रंथकार चंद्राचार्य के जीवनकाल में ही घटित हुई थी। अत: सामान्य रूप से चंद्रगोमिन्‌ का समय 470 ई. के आसपास माना जाता है। इनका सर्वप्रथम नामोल्लेख संभवत: 'वाक्यपदीय' में है। .

नई!!: वामनावतार और चंद्रगोमिन्‌ · और देखें »

चंपू

चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य तथा पद्य मिश्रित काव्य को "चंपू" कहते हैं। काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पूकाव्य परंपरा का प्रारम्भ हमें अथर्व वेद से प्राप्त होता है। चम्पू नाम के प्रकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू', जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सुरि द्वारा रचित यशःतिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई। हिन्दी में यशोधरा (मैथिलीशरण गुप्त) को चम्पू-काव्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। गद्य और पद्य के इस मिश्रण का उचित विभाजन यह प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाय। परन्तु चंपूरचयिताओं ने इस मनोवैज्ञानिक वैशिष्ट्य पर विशेष ध्यान न देकर दोनों के संमिश्रण में अपनी स्वतंत्र इच्छा तथा वैयक्तिक अभिरुचि को ही महत्व दिया है। .

नई!!: वामनावतार और चंपू · और देखें »

चौबीस अवतार

चौबीस अवतार, दशम ग्रन्थ का एक भाग है जिसमें विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है। परम्परा से तथा ऐतिहासिक रूप से यह गुरु गोबिन्द सिंह की रचना मानी जाती है। यह रचना दशम ग्रन्थ का लगभग ३० प्रतिशत है जिसमें ५५७१ श्लोक हैं। इसमें कृष्ण अवतार तथा राम अवतार क्रमशः २४९२ श्लोक एवं ८६४ श्लोक हैं। कल्कि अवतार में ५८६ श्लोक हैं। .

नई!!: वामनावतार और चौबीस अवतार · और देखें »

एकादशी तिथि

हिंदू पंचांग की ग्यारहवी तिथि को एकादशी कहते हैं। यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के बाद आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं। इन दोने प्रकार की एकादशियों का भारतीय सनातन संप्रदाय में बहुत महत्त्व है। .

नई!!: वामनावतार और एकादशी तिथि · और देखें »

त्रेतायुग

हिन्दु काल सारणी त्रेतायुग हिंदू मान्यताओं के अनुसार चार युगों में से एक युग है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। इस युग में विष्णु के पाँचवे, छठे तथा सातवें अवतार प्रकट हुए थे। यह अवतार वामन, परशुराम और राम थे। यह मान्यता है कि इस युग में ॠषभ रूपी धर्म तीन पैरों में खड़े हुए थे। इससे पहले सतयुग में वह चारों पैरों में खड़े थे। इसके बाद द्वापर युग में वह दो पैरों में और आज के अनैतिक युग में, जिसे कलियुग कहते हैं, सिर्फ़ एक पैर पर ही खड़े रहे। यह काल राम के देहान्त से समाप्त होता है। त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष का था। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम सेन हनुमान जी से मिले तो हनुमान जी से कहा - की हे पवन कुमार आप तो युगों से प्रथ्वी पर निवास कर रहे हो आप महा ज्ञान के भण्डार हो बल बुधि में प्रवीण हो कृपया आप मेरे गुरु बनकर मुझे सिस्य रूप में स्वीकार कर के मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये तो हनुमान जी ने कहा - हे भीम सेन सबसे पहले सतयुग आया उसमे जो कामना मन में आती थी वो कृत (पूरी)हो जाती थी इसलिए इसे क्रेता युग (सत युग)कहते थे इसमें धर्म को कभी हानि नहीं होती थी उसके बाद त्रेता युग आया इस युग में यग करने की परवर्ती बन गयी थी इसलिए इसे त्रेता युग कहते थे त्रेता युग में लोग कर्म करके कर्म फल प्राप्त करते थे, हे भीम सेन फिर द्वापर युग आया इस युग में विदों के ४ भाग हो गये और लूग सत भ्रष्ट हो गए धर्म के मार्ग से भटकने लगे है अधर्म बढ़ने लगा, परन्तु हे भीम सेन अब जो युग आएगा वो है कलयूग इस युग में धर्म ख़त्म हो जायेगा मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा चारो और अधर्म ही अधर्म का साम्राज्य ही दिखाई देगा .

नई!!: वामनावतार और त्रेतायुग · और देखें »

दशावतार

हिन्दू धर्म में विभिन्न देवताओं के अवतार की मान्यता है। प्रायः विष्णु के दस अवतार माने गये हैं जिन्हें दशावतार कहते हैं। इसी तरह शिव और अन्य देवी-देवताओं के भी कई अवतार माने गये हैं। .

नई!!: वामनावतार और दशावतार · और देखें »

दशावतार (हाथीदांत निर्मित लघुमंदिर)

हिन्‍दू धर्म में त्रिदेव की मान्‍यता है - ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश।। ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्‍णु पालक और शिव सृष्टि के संहारक माने जाते हैं। कहा जाता है कि विष्‍णु ने अलग-अलग युगों में भिन्‍न-भिन्‍न अवतार लिए। महाभारत, विष्‍णु पुराण, गरुड़ पुराण, श्रीमद्भागवत, वराहपुराण, अग्नि पुराण, मत्‍स्‍य पुराण, आदि जैसे प्राचीन ग्रंथों में विष्‍णु के दस अवतारों का उल्‍लेख मिलता है। मत्‍स्‍य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्‍ण्‍ा, बुद्ध और कल्कि विष्णु के दस अवतार हैं। कुछ विद्वानों ने इन दशावतारों में सृष्टि की उत्‍पति और विकास के क्रम को भी ढूंढने का प्रयास किया है। भारत की समृद्ध कलात्‍मक परंपरा का सुन्‍दर उदाहरण प्रस्‍तुत करने वाली विष्‍णु के दशावतारों को दर्शाती परवर्ती 18वीं शताब्‍दी की यह कलाकृति सीढ़ीदार लघुमंदिर है। इसका आधार तो चंदन का है किन्‍तु विष्‍णु के दशावतारों का अंकन हाथीदांत में किया गया है। सबसे ऊपर की सीढ़ी पर विष्णु के मत्स्‍य अवतार को दर्शाया गया है। यह आकृति चतुर्भुजी है। इसके नीचे की सीढ़ी पर कूर्म और वराह अवतार दिखलाई देते हैं। तीसरी सीढ़ी पर नृसिंह, वामन और परशुराम अवतारों को देखा जा सकता है। सबसे आगे की सीढ़ी पर राम, बलराम, कृष्‍ण और कल्कि अवतारों का निदर्शन है। ये सभी आकृतियां दोहरे कमल वाली पीठिका पर खड़ी हैं। अपने-अपने आयुध उठाए हुए इन आकृतियों को सुन्‍दर वस्‍त्राभूषणों से सजाया गया है। इस लघुमंदिर के पृष्‍ठभाग को सुन्‍दर जालीदार काम वाली हाथीदांत निर्मित स्‍क्रीन से सजाया गया है। विष्‍णु के दशावतारों को दर्शाती सभी आकृतियों सही-सही देहानुपात में उकेरी गई हैं। त्रिवेन्‍द्रम के नक्‍काश इस प्रकार के सूक्ष्‍म उत्‍कीर्णन करने में निपुण थे जबकि काले रंग से चित्रित स्‍क्रीन मैसूर के शिल्‍पकारों की कलात्‍मक कुशलता का उदाहरण प्रस्‍तुत करती है। .

नई!!: वामनावतार और दशावतार (हाथीदांत निर्मित लघुमंदिर) · और देखें »

बली

बली या मावेली विरोचन और देवाम्बा का पुत्र तथा प्रह्लाद का पौत्र था। वह एक दयालु असुर राजा था। तपस्या तथा बल के माध्यम से उसने देवताओं से अनेकों वरदान प्राप्त कर लिए थे तथा त्रिलोक का आधिपत्य हासिल कर लिया था। इस वजह से उसमें दंभ और अहंकार भर गया था। उसके इसी दंभ और अहंकार को शान्त करने के लिए भगवान विष्णु को वामनावतार का सहारा लेना पड़ा। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार दक्षिण भारत के केरल राज्य में आज भी वामनावतार (विष्णु के पाँचवे अवतार) द्वारा उसे पाताल लोक भेजे जाने के बाद उसके वापस धरती पर वार्षिक आगमन पर ओणम का त्योहार मनाया जाता है। .

नई!!: वामनावतार और बली · और देखें »

बाणभट्ट

बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है। .

नई!!: वामनावतार और बाणभट्ट · और देखें »

बाबरी मस्जिद

बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद ज़िले के अयोध्या शहर में रामकोट पहाड़ी ("राम का किला") पर एक मस्जिद थी। रैली के आयोजकों द्वारा मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाने देने की भारत के सर्वोच्च न्यायालय से वचनबद्धता के बावजूद, 1992 में 150,000 लोगों की एक हिंसक रैली.

नई!!: वामनावतार और बाबरी मस्जिद · और देखें »

भट्टनारायण

भट्ट नारायण संस्कृत के महान नाटककार थे। वे अपनी केवल एक कृति वेणीसंहार के द्वारा संस्कृत साहित्य में अमर हैं। संस्कृत वाङ्मय में समुपलब्ध नाटकों में इसका विशिष्ट स्थान है। विद्वज्जन इसे नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुकूल दृष्टिकोण से लिखा गया नाटक मानते हैं इसीलिए इसके उदाहरणों को अपने लक्षणग्रंथों में वामन, विश्वनाथ आदि ने विशेष रूप से उद्धृत किया है। .

नई!!: वामनावतार और भट्टनारायण · और देखें »

भास

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। .

नई!!: वामनावतार और भास · और देखें »

महाबलि

mahabali offer boon to vamana बाली, एक असुर, था के बेटे देवाम्बा और विरोचना.

नई!!: वामनावतार और महाबलि · और देखें »

माता-पिता

माता-पिता या जनक का अंग्रेजी अनुवाद अधिक प्रयोग में आता है, जिसे  parent शब्द से उल्लिखित किया जाता है। भारतीय सभ्यता में माता-पिता का एक विशिष्ट स्थान है उन्हें गुरु व भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया गया है। इसे अति सरल शब्दो में समझनें के लिये बस इतना ही पर्याप्त है कि भारत में जितने भी अवतार आज तक हुए हैं, उन में से अधिकतर ने किसी न किसी माता के गर्भ से ही जन्म लिया है। चाहे भगवान श्री राम चन्द्र हो, श्री कृष्ण हो, श्री वामन अवतार हो, परशुराम अवतार हो या फिर संकट मोचन हनुमान हो। ये अवतार चाहे किसी भी भगवान ने लिया हो सब को किसी न किसी माता के गर्भ से जन्म लेना ही पड़ा है। अर्थात् हर अवतार को परिपूर्ण रूप से माता-पिता की स्नेह रूपी छाया में रह कर प्राम्भिक शिक्षा, संस्कार व आचार विहार सब कुछ ग्रहण करना पड़ता है। इस श्रेणी में पालक माता-पिता और पालक सम्बन्धी भी अन्तर्भूत होते हैं। जिसका सन्दर्भ श्रीकृष्ण की पालक/अभिभावक माता यशोदा और नन्द हैं। भारतीय सभ्यता का मूल रूप व आचरण सर्व प्र्थम माता-पिता द्वारा दी गई प्रारम्भिक शिक्षा पर ही निर्भर करता है। जिसके लिये भारतवर्ष पूर्णतय शक्ष्म है लेकिन इन्ही सस्कांरो,आचरणो व आचार विहार को खण्डित करने में उन सभी बाहरी ताकतो ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी जिन्होने इस पावन धरती पर हजारों साल राज किया और हमारी धरोहर संस्कृति को तार-२ करने में कोई कसर नहीं छोडी। ये सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पूर्वज कितने गुणवान,सभ्य व स्ंस्कारी थे और भारत का इतिहास व स्ंरचना तो ऐसे कर्मठ योगियों,साधु-सन्तो व ऋषि-मुनियों द्वारा रचित की गई है जो अपने आप में उस समय के पुर्ण विज्ञानिक थे उनके एक-२ शोध वेदों व विज्ञानिक दृषिट से सम्पुर्ण थे। भारतीय संस्कृति में माता-पिता का आदर करना,उनके द्वारा दी गई शिक्षा का पालन करना बच्चो का प्र्मुख कर्त्तव्य रहता है भारतीय समाज निर्माण में भी माता-पिता का एक विशिष्ठ स्थान है यह एक ऐसा सत्य है जिसके बीसीयों परिमाण हमारे देश में मौज़ूद है माता-पिता के आदर्शो पर चलने वाले असख्य्ं ऐसे महापुरषों के उदाहरण है जेसे:- आदर्श पुरुष श्री राम चन्द्र जी, श्रवण कुमार, महाराजा रण्जीत सिंह, शिवाजी महाराजा, शहिद भगत सिंह व अन्य कितनी विडम्बना है कि आज के परिपेक्ष में हम लोग ही अपनी धरोहर संस्कृति से दूर होते जा रहें है इन सब के अनेक कारण है जेसे:- संयुक्त परिवार चित्र:गुणराज अवस्थीको परिवार.jpg|संयुक्त परिवार संयुक्त परिवार का विघटन, हजारों साल की गुलामी,पाश्चात्य संस्कृति का बिना सोचे समझे अनुसरण,कार्य की अत्यधिक व्यस्तता, बडों के प्र्ति आदर-सम्मान की कमी व मोबाईल और नेट के अत्य्धिक प्रचलन ने भी हमें अपनो से ही दूर होने पर मजबुर कर दिया है इस का एक और अत्यधिक सवेदनशील् ज्जवलंत कारण है पेसा कमाने की होड में आज के परिपेक्ष में माता-पिता दोनो का नौकरी करना जिसकी वजह से आज के युग में भारतीय बच्चे अपने माता-पिता के सुख व उनके द्वारा दिये जाने वाले संस्कारो से वंचित रह रहे हैं दूसरे एकाकी परिवारवाद ने भी हमें अपने बजुर्गो के आशिर्वाद से हमें वंचित कर दिया है परन्तुं अभी भी आधुनिक् भारतीय परिपेक्ष में हमनें अपने वैदिक संस्कारों को नहीं भुला है माता-पिता जितना भी हो सके अपने बच्चों में भरतीय संस्कार देना नहीं भुलते। .

नई!!: वामनावतार और माता-पिता · और देखें »

माध्यमिक तंत्र-साहित्य

प्राचीन आगमों या तंत्रों का नामनिर्देश अन्यत्र किया गया है। यहाँ माध्यमिक तंत्र साहित्य के विषय में बताया गया है। ----; तन्त्र का भेदनिरूपण देवताओं के उपासनासंबंध से तंत्र का भेदनिरूपण संक्षेप में कुछ इस प्रकार होगा-.

नई!!: वामनावतार और माध्यमिक तंत्र-साहित्य · और देखें »

मुगल रामायण

मुगल बादशाह अकबर द्वारा रामायण का फारसी अनुवाद करवाया था। उसके बाद हमीदाबानू बेगम, रहीम और जहाँगीर ने भी अपने लिये रामायण का अनुवाद करवाया था। .

नई!!: वामनावतार और मुगल रामायण · और देखें »

युग वर्णन

युग का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। उदाहरणः कलियुग, द्वापर, सत्ययुग, त्रेतायुग आदि। युग वर्णन का अर्थ होता है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई होती है एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय दे। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है: .

नई!!: वामनावतार और युग वर्णन · और देखें »

शुक्र (ज्योतिष)

शुक्र (शुक्र, ശുക്രൻ, ಶುಕ್ರ, சுக்ரன், IAST Śukra), जिसका संस्कृत भाषा में एक अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ, भृगु ऋषि के पुत्र एवं दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का प्रतीक शुक्र ग्रह है। भारतीय ज्योतिष में इसकी नवग्रह में भी गिनती होती है। यह सप्तवारों में शुक्रवार का स्वामी होता है। यह श्वेत वर्णी, मध्यवयः, सहमति वाली मुखाकृति के होते हैं। इनको ऊंट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार दिखाया जाता है। ये हाथों में दण्ड, कमल, माला और कभी-कभार धनुष-बाण भी लिये रहते हैं। उषानस एक वैदिक ऋषि हुए हैं जिनका पारिवारिक उपनाम था काव्य (कवि के वंशज, अथर्व वेद अनुसार जिन्हें बाद में उषानस शुक्र कहा गया। .

नई!!: वामनावतार और शुक्र (ज्योतिष) · और देखें »

साहित्य दर्पण

साहित्य दर्पण संस्कृत भाषा में लिखा गया साहित्य विषयक ग्रन्थ है जिसके लेखक पण्डित विश्वनाथ हैं। विश्वनाथ का समय 14वीं शताब्दी ठहराया जाता है। मम्मट के काव्यप्रकाश के समान ही साहित्यदर्पण भी साहित्यालोचना का एक प्रमुख ग्रन्थ है। काव्य के श्रव्य एवं दृश्य दोनों प्रभेदों के संबंध में इस ग्रन्थ में विचारों की विस्तृत अभिव्यक्ति हुई है। इसक विभाजन 10 परिच्छेदों में है। .

नई!!: वामनावतार और साहित्य दर्पण · और देखें »

संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

नई!!: वामनावतार और संस्कृत साहित्य · और देखें »

संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है। व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है किन्तु महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु हैं। पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित किया जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्त्व हैं। इन नियमों की पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने बनाये। सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना की। बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की। इन्हीं तीनों आचार्यों को 'त्रिमुनि' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अधययन किया जाता है। नव्य व्याकरण के अन्तर्गत प्रक्रिया क्रम के अनुसार शास्त्रों का अधययन किया जाता है जिसमें भट्टोजीदीक्षित, नागेश भट्ट आदि आचार्यों के ग्रन्थों का अधययन मुख्य है। प्राचीन व्याकरण एवं नव्य व्याकरण दो स्वतंत्र विषय हैं। .

नई!!: वामनावतार और संस्कृत व्याकरण का इतिहास · और देखें »

संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

नई!!: वामनावतार और संस्कृत ग्रन्थों की सूची · और देखें »

संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास

संस्कृत साहित्य में काव्यशास्त्र के लिए अलंकारशास्त्र, काव्यालंकार, साहित्यविद्या, क्रियाकल्प आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। इनमें अलंकारशास्त्र शब्द सर्वाधिक प्रचलित माना जाता है। भामह, वामन तथा उद्भट आदि प्राचीन आचार्यों ने काव्यविवेचन से सम्बद्ध ग्रन्थों के नाम में काव्यालंकार शब्द का प्रयोग किया है। इसे अलंकारशास्त्र कहने के दो कारण हो सकते हैं। एक तो प्राचीन आचार्यों ने समस्त सौन्दर्यजनक धर्मों का अलंकार शब्द से ग्रहण किया है। दूसरे प्राचीन आचार्यों की धारणा थी कि अलंकार ही काव्य में प्रधान है। इसी कारण काव्यविवेचना का नाम अलंकारशास्त्र रख दिया गया। आचार्य भामह के 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' इस काव्यलक्षण से आचार्यों को पश्चात् काल में साहित्य शब्द की प्रेरणा मिली। इन सब नामों से भिन्न इस शास्त्र के लिए एक नाम और प्रयुक्त हुआ है वह है - ‘क्रियाकल्प’ इसका निर्देश वात्स्यायन के कामशास्त्र में गिनायी गयी चौसठ कलाओं में आता है। इसके टीकाकार जयमंगलार्क ने क्रियाकल्प शब्द को क्रियाकल्प इति ‘‘काव्याकरणविधिः काव्यालंकार इत्यर्थः’’ इस अर्थ में किया है। इससे प्रतीत होता है कि कलाओं के अन्तर्गत प्रयुक्त हुआ क्रियाकल्प शब्द काव्यशास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है किन्तु यह नाम अत्यधिक प्रचलित नहीं हुआ। आचार्य वात्स्यायन ने साधारण अधिकरण में प्रस्तुत विद्यासमुद्देश प्रकरण में क्रियाकल्प का उल्लेख किया। क्रियाकल्प अर्थात् काव्यालंकारशास्त्र के ज्ञान की कला। काव्य के शास्त्र विषयक विचार के प्रवर्तन के सन्दर्भ में काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने अपने काव्यशास्त्रीय प्रौढ़ ग्रन्थ काव्यमीमांसा में पौराणिक आधार का आश्रय लिया है। इस वर्णन के अनुसार भगवान श्रीकण्ठ ने काव्यविद्या का सर्वप्रथम उपदेश परमेष्ठी और वैकुण्ठ इत्यादि अपने चौसठ शिष्यों को दिया। इस विद्या का द्वितीय बार उपदेश भगवान परमेष्ठी द्वारा उनके इच्छाजन्य शिष्यों को दिया गया जिनमें देववन्ध सरस्वती का पुत्र काव्यपुरुष भी एक था। काव्यपुरुष को त्रिकालज्ञ और दिव्यदृष्टि से सम्पन्न जानकर ब्रह्म ने उसे आज्ञा दी कि वह सर्वजनहित की कामना से भू-भुवः और स्वर्ग निवासनी प्रजा में काव्यविद्या का प्रचार करे। काव्यपुरुष ने काव्यविद्या को अट्ठारह भागों में विभक्त कर सहस्त्राक्ष आदि दिव्य स्नातकों को उपदिष्ट किया। उन शिष्यों ने काव्यविद्या को पृथक्-पृथक् भागों में विशेष योग्यता प्राप्त कर पृथक् पृथक् ग्रन्थों की रचना की। इन स्नातकों में सहस्त्राक्ष ने कविरहस्य, उक्तिगर्भ ने औक्तिक, सुवर्णनाभ ने रीतिनिर्णय, प्रचेता ने आनुप्रासिक, यम ने यमक, चित्रांगद ने चित्र, शेष ने शब्दश्लेष, पुलत्स्य ने वास्तव, औपकायन ने औपम्य, पराशर ने अतिशय, उत्थ्य ने अर्थश्लेष, कुबेर ने उभयालंकारकारिका, कामदेव ने वैनोदिक, भरत ने रूपक निर्णय, उपमन्यु ने गुणौपादानिक तथा कुचुमार ने औपनिषदिक नामक पृथक् पृथक् ग्रन्थ लिखे। इस प्रकार राजशेखर ने काव्यशास्त्र के उद्गम के ऊपर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया। इस आख्यान में काव्यशास्त्र की दैवी उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। काव्यमीमांसा में वर्णित काव्यशास्त्र की उत्पत्ति का आख्यान पौराणिक काव्यात्मक कल्पनाओं की सृष्टि है।;(क) काव्यशास्त्रीय वैदिक परम्परा प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार वेद सभी विद्याओं की उत्पत्ति के मूल हैं। इसी दृष्टि से काव्यशास्त्र के मूल सिद्धान्तों का वेद में अन्वेषण करने का प्रयत्न किया गया है। साक्षात् काव्यशास्त्र का वेदों से कोई सम्बन्ध नहीं है। वेदागें में भी शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष इन छः विद्याओं की गणना है पर काव्यशास्त्र की नहीं परन्तु वेद को देव का अमर काव्य कहा गया है। देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति। वेदों में अनेक स्थानों पर कवि शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए वेद स्वयं काव्यरूप है और उसमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है। ऋग्वेद के सप्तम मण्डल में ‘अरंकृतिः’ शब्द का प्रयोग मिलता है। महर्षि वसिष्ठ इन्द्र से कहते हैं - काव्यशास्त्र में काव्यसौन्दर्य के आधायक जिन गुण, रीति, अलंकार, ध्वनि आदि तत्त्वों का विवेचन किया गया है वे सभी तत्त्व का प्रायोगिक अथवा व्यावहारिक रूप से वेद में पाये जाते है। डा0 काणे का मत है कि ऋग्वैदिक कवियों ने उपमा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का केवल प्रयोग नहीं किया वरन् काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का भी उन्हें कुछ ज्ञान था। प्रस्तुत मन्त्र में मन्त्रदृष्टा ऋषि द्वारा किया गया उपमा का प्रयोग भी प्रशंसनीय है- इसी प्रकार ‘उषा हस्नेव निर्णीते अप्सः’ में उत्प्रेक्षा का सुन्दर प्रयोग है। इसी प्रकार यह मन्त्र भी सुन्दर उदाहरण है यथा- प्रस्तुत मंत्र में पीपल पर रहने वाले दो पक्षियों का वर्णन है जिनमें एक तो पीपल के मीठे फल खा रहा है दूसरा बिना फल भक्षण के आनन्दमग्न है। इन पक्षियों के माध्यम से जीवात्मा तथा परमात्मा का चित्रण किया गया है। जीव इन्द्रिय सुखों का भोग करता है तथा परमात्मा फलों का भोग न करता हुआ संसार में चारों ओर अपने सौन्दर्य को प्रकाशित करता है। यहाँ विभावना का सुन्दर उदाहरण है। इसके अतिरिक्त रूपक, अनुप्रास, विशेषोक्ति का प्रयोग सुस्पष्ट है। अन्य संहिताओं, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में भी काव्यशास्त्र का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं प्राप्त होता है। परवर्ती काल में छः वेदांगों का विकास हुआ उनमें काव्यशास्त्र से सम्बद्ध विषयों का न्यूनाधिक प्रतिपादन दृष्टिगत होता है। निरुक्त में यास्क ने उपमा के पाँच भेदों-भूतोपमा, सिद्धोपमा, कर्मोपमा, लुप्तोपमा का उल्लेख किया है। साथ ही अपने पूर्ववर्ती आचार्य गर्ग के उपमानिरूपक लक्षण को उद्धृत किया है। आचार्य यास्क ने ‘अथाप्युपमार्थे भवित’ की व्याख्या करते हुए इव, यथा, न, चित्, नु तथा आ के प्रयोगों की सार्थकता सिद्ध की है। निरुक्त में पारिभाषिक अर्थ में अलंकार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु यास्क ने ‘‘अलंरिष्णु’ शब्द को अलंकृत करने के स्वभाववाला के सामान्य अर्थ में प्रयुक्त किया है। पाणिनि के युग तक उपमा का प्रयोग स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। यथा, वा, इव का प्रयोग तत्र तस्येव, तेन तुल्यं क्रिया चेद्धति आदि सूत्रों में व्याख्यायित हुआ है। ‘चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः व्याकरणशास्त्र की देन है। अभिधा, लक्षणा शब्दशक्तियों को सर्वप्रथम वैयाकरणों ने परिभाषित किया। व्य०जना शक्ति भी स्फोटसिद्धान्त पर आधारित है। उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वेदाग् निरुक्त तथा व्याकरण में काव्यशास्त्र का सम्बन्ध है। इस प्रकार वेद तथा वेदांगों में काव्यशास्त्र के मौलिक तत्त्वों के बीज पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।;(ख) काव्यशास्त्रीय लौकिक परम्परा ईस्वी सन् से शताब्दियों पूर्व उत्तम प्रकार की काव्य रचना हुई इसके पर्याप्त प्रमाण है। रामायण और महाभारत इन दोनों महाकाव्यों में उत्तम प्रकार की काव्यरचना मिलती है। महाभारत काव्य की अपेक्षा धर्मशास्त्र है फिर भी यह अनेक कवियों का उपजीव्य रहा है। रामायण अपने उद्देश्य, स्वरूप, विषय की दृष्टि से वास्तव में काव्य है। जहाँ तक काव्य रचना और काव्य समीक्षा के सामान्य सिद्धान्तों के विकास का प्रश्न है वाल्मीकीय रामायण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे आदि काव्य और इसके रचयिता को आदि कवि होने का सम्मान प्राप्त है। उदात्त शैली के ऐसे महान काव्यात्मक प्रयास के साथ काव्य विवेचन के सिद्धान्तों के निर्माण का प्रयास स्वभाविक है। रामायण में इस दिशा का कुछ संकेत उपलब्ध हैं। रामायण तथा महाभारत के रूप में काव्यत्व का समृद्ध रूप सामने होने पर काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की स्थापना का मार्ग बड़ी स्पष्टता के साथ प्रशस्त हुआ होगा ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। यद्यपि इस समय संस्कृत काव्यशास्त्र की स्वतन्त्र रचना नहीं हुयी फिर भी कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल में भी पर्याप्त काव्यरचना हुयी थी। महाकाव्य का स्वरूप निरूपण ‘वाल्मीकि रामायण’ के आधार पर किया गया। रूद्रट के टीकाकार नामिसाधु ने पाणिनि के नाम से ‘पातालविजय’ नामक महाकाव्य का उल्लेख किया है- तथाहि पाणिनेः पतालविजये महाकाव्ये-‘‘सन्ध्यावधूंगृह्यकरेण’’। जबकि राजशेखर उन्हीं नाम से जाम्बवतीजय काव्य को उद्धृत करते है। सुवृत्ततिलक में क्षेमेन्द्र ने उपजाति में पाणिनि के वैशिष्ट्य प्राप्ति की चर्चा की है। कात्यायन के वार्तिक में आख्यायिका शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि आख्यायिका नामक काव्यांग कात्यायन से पूर्व प्रचलित हो चुका था। महाभाष्य में ‘वारुरुचं काव्यम्’ का उल्लेख आता है। साथ ही वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा भैमरथी नामक आख्यायिकाओं का भी उल्लेख है। पतंजलि ने कंसवध तथा बलिबन्धन की कथाओं पर दो कृतियों तथा उसके नाटकीय प्रदर्शन की चर्चा की है। इन तथ्यों से यह सूचित होता है कि पतंजलि से पूर्व पर्याप्त मात्रा में काव्य-आख्यायिका तथा नाटकों का निर्माण हुआ था। भरत का नाट्यशास्त्र वर्तमान काल में काव्यशास्त्र का प्राचीनतम् ग्रन्थ उपलब्ध है। किन्तु ऐसे साक्ष्य प्राप्त हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि नाट्यशास्त्र भारतीय काव्यशास्त्र का आदि ग्रन्थ नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि काव्यशास्त्र के मौलिक तत्त्वों का पर्याप्त मात्रा में उल्लेख होते हुए उसका समुचित शास्त्रीय निरूपण भरत कृत नाट्यशास्त्र से पहले प्राप्त नहीं होता है। नाट्शास्त्र के पश्चात् काव्यविवेचन सम्बन्धित ग्रन्थों के प्रणयन की परम्परा प्राप्त होती है और काव्यशास्त्रीय धारणाओं का विकास उपलब्ध होता है। विवेचन की दृष्टि से इसको तीन भागों में विभक्त कर उसके विकास का अध्ययन किया जा सकता है-.

नई!!: वामनावतार और संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास · और देखें »

संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

नई!!: वामनावतार और संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द · और देखें »

हिन्दू देवी देवताओं की सूची

यह हिन्दू देवी देवताओं की सूची है। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस कोटि (कोटि के अर्थ-प्रकार और करोड़) देवी-देवता बताये गये हैं। इनमें स्थानीय व क्षेत्रीय देवी-देवता भी शामिल हैं)। वे सभी तो यहां सम्मिलित नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी इस सूची में तीन सौ से अधिक संख्या सम्मिलित है। .

नई!!: वामनावतार और हिन्दू देवी देवताओं की सूची · और देखें »

हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

नई!!: वामनावतार और हिन्दू धर्म · और देखें »

जयन्त विष्णु नार्लीकर

जयन्त विष्णु नार्लीकर जयन्त विष्णु नार्लीकर (मराठी: जयन्त विष्णु नारळीकर; जन्म 19 जुलाई 1938) प्रसिद्ध भारतीय भौतिकीय वैज्ञानिक हैं जिन्होंने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए अंग्रेजी, हिन्दी और मराठी में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। ये ब्रह्माण्ड के स्थिर अवस्था सिद्धान्त के विशेषज्ञ हैं और फ्रेड हॉयल के साथ भौतिकी के हॉयल-नार्लीकर सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं। .

नई!!: वामनावतार और जयन्त विष्णु नार्लीकर · और देखें »

जयादित्य

जयादित्य संस्कृत के वैयाकरण थे। काशिकावृत्ति जयादित्य और वामन की सम्मिलित रचना है। हेमचंद्र (११४५ वि.) ने अपने 'शब्दानुशासन' में व्याख्याकार जयादित्य को बहुत ही रुचिपूर्ण ढंग से स्मरण किया है। चीनी यात्री इत्सिंग ने अपनी भारत यात्रा के प्रसंग में जयादित्य का प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णन किया है। जयादित्य के जनम मरण आदि वृत्तांत के बारे में कोई भी परिमार्जित एवं पुष्कल ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती। इत्सिंग की भारतयात्रा एवं विवरण से कुछ जानकारी मिलती है। तदनुसार जयादित्य का देहावसान सं.

नई!!: वामनावतार और जयादित्य · और देखें »

जयापीड विनयादित्य

कशिमर, जन्मस्थाल जयापीड विनयादित्य (लगभग 770-801 ई.) कश्मीर के कार्कोटवंश के ललितादित्य मुक्तापीड का पौत्र और व्रजादित्य बप्पियक का पुत्र जयापीड विनयादित्य के नाम से भी प्रसिद्ध था। वह अपने पितामह ललितादित्य की भाँति ही कुशल सेनानायक था। कल्हण के अनुसार उसने अपने राज्य के प्रारंभिक वर्षों में ही पूर्व की ओर अभियान किया, पंच गौड़ों को पराजित करके पुंड्रवर्धन् के नरेश जयंत को उनका अधीश्वर बनाया और कश्मीर को लौटते हुए कान्यकुब्ज के नरेश (संभवत: इंद्रराज) को पराजित किया। उत्तरी भारत की अव्यवस्थित राजनीतिक स्थिति में ऐसी विजय असंभव नहीं थी। कुछ विद्वान् इसके समर्थन में मध्यदेश के कुछ स्थानों से प्राप्त श्री ज. प्रताप के सिक्कों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे जयापीड के सिक्के मानते हैं। किंतु कल्हण के विवरण में कुछ बातें अद्भुत और कथा जैसी हैं। जयापीड की अनुपस्थिति में उसके बहनोई जज ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया था किंतु जयपीड के लौटने पर उसके साथ युद्ध में जज्ज मारा गया। कल्हण का कथन है कि कुछ समय बाद जयापीड फिर विजय के लिए निकला। उसका संघर्ष पूर्वी भारत के नरेश भीमसेन और नेपाल के शासक अरमुडि से हुआ। उसका अंतिम युद्ध स्त्रीराज्य के साथ था। ये नाम और ये युद्ध ऐतिहासिक जैसे नहीं लगते किंतु लेवी नाम के विद्वान् इनका नितांत निराधार नहीं मानते। राज्यकाल के अंत की ओर अपने उत्पीड़क करों के कारण जयापीड जनसाधारण में अप्रिय हो गया था। ब्राह्मणों के एक षड्यंत्र के फलस्वरूप शासन के 31वें वर्ष में उसका अंत हुआ। जयापीड स्वयं कवि था। उसकी रचना के उद्धरण सुभाषित ग्रंथों में मिलते हैं। उसका शासनकाल उसका संरक्षण पानेवाले कवियों के कारण प्रसिद्ध हैं। इनके नाम हैं मनोरथ, शंखदत्त, चटक, संधिमत् और कुट्टनीमतम् के रचयिता दामोदरगुप्त। काव्यशास्त्र में अलंकार परंपरा के सर्वप्रसिद्ध समर्थक उद्भट जयापीड के सभारत्न थे। रीति को काव्य की आत्मा माननेवाले दूसरे प्रसिद्ध काव्यशास्त्री वामन भी जयापीड के ही दरबार में थे। जयापीड ने दो नए शासनविभाग बनाए - न्याय के लिए धर्माधिकरण और अभियान के कारण राजधानी से दूर रहने पर सुविधा के लिए एक गतिशील कोष अथवा चलगंज। जयापीड ने जयपुर और द्वारवती नाम के दो नगरों की स्थापना की। जयपुर में उसने बुद्ध की तीन प्रतिमाएँ, एक विशाल विहार एवं जयादेवी तथा चतुरात्मन् केशव के मंदिर बनवाए। श्रेणी:भारत के राजा श्रेणी:भारत का इतिहास.

नई!!: वामनावतार और जयापीड विनयादित्य · और देखें »

जाम्बवन्त

जाम्बवन्त रामायण के एक प्रमुख पात्र हैं। वे ऋक्ष प्रजाति के थे। उनका सन्दर्भ महाभारतसे भी है। स्यमंतक मणि के लिये श्री कृष्ण एवं जामवंत में नंदिवर्धन पर्वत (तत्कालीन नाँदिया, सिरोही, राजस्थान) पर २८ दिनो तक युध्द चला। जामवंत को श्री कृष्ण के अवतार का पता चलने पर अपनी पुत्री जामवन्ती का विवाह श्री कृष्ण द्वारा स्थापित शिवलिंग (रिचेश्वर महादेव मंदिर नांदिया) की शाक्शी में करवाया .

नई!!: वामनावतार और जाम्बवन्त · और देखें »

जांजगीर का विष्णु मंदिर

छत्तीसगढ़ के इस दक्षिण कोशल क्षेत्र में कल्चुरी नरेश जाज्वल्य देव प्रथम ने भीमा तालाब के किनारे ११ वीं शताब्दी में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। यह मंदिर भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। मंदिर पूर्वाभिमुखी है, तथा सप्तरथ योजना से बना हुआ है। मंदिर में शिखर हीन विमान मात्र है। गर्भगृह के दोनो ओर दो कलात्मक स्तंभ है जिन्हे देखकर यह आभास होता है कि पुराने समय में मंदिर के सामने महामंडप निर्मित था। परन्तु कालांतर में नहीं रहा। मंदिर का निर्माण एक ऊँची जगती पर हुआ है। .

नई!!: वामनावतार और जांजगीर का विष्णु मंदिर · और देखें »

विश्वरूप

विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप है। इस रूप का प्रचलित कथा भगवद्गीता के अध्याय ११ पर है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं। यह युद्ध कौरवों तथा पाण्डवों के बीच राज्य को लेकर हुआ था। इसके संदर्भ में वेदव्यास कृत महाभारत ग्रंथ प्रचलित है। परंतु विश्वरूप दर्शन राजा बलि आदि ने भी किया है। भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है-- पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।। अर्थात् हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो। मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ। कुरुक्षेत्र में कृष्ण और अर्जुन युद्ध के लिये तत्पर। विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप। अपने विश्वरूप में भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं। जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा। .

नई!!: वामनावतार और विश्वरूप · और देखें »

विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

नई!!: वामनावतार और विष्णु · और देखें »

गुसांईजी

नागौर जिले के जुन्जाला गाँव में स्थित गुसाईंजी मंदिर गुसाईंजी हिन्दुओं के देवता हैं। इनका एक प्रासिद्ध मंदिर नागौर जिले के जुन्जाला गाँव में स्थित है। यद्यपि गुसाईंजी हिन्दुओं के देवता हैं परन्तु मुसलमान भी इनको मानते हैं। एक समय राजा बलि इस धरती पर राज करता था। राजा बलि ने अश्वमेघ यग्य और अग्नि होम किए। उसने इस तरह ९९ यज्ञ संपन्न कर दिए। राजा बलि का यश चारों और फैलने लगा और वह इन्द्रलोक का राजा बनने की सोचने लगा। राजा बलि ने १०० वें यज्ञ का आयोजन रखा और इसके लिए निमंन्त्रण भेजे.

नई!!: वामनावतार और गुसांईजी · और देखें »

कश्मीरी साहित्य

परम्परागत रूप से कश्मीर का साहित्य संस्कृत में था। नीचे काश्मीर के संस्कृत के प्रमुख साहित्यकारों के नाम दिये गये हैं-.

नई!!: वामनावतार और कश्मीरी साहित्य · और देखें »

काशिकावृत्ति

संस्कृत व्याकरण के अध्ययन की दो शाखाएँ हैं - नव्य व्याकरण, तथा प्राचीनव्याकरण। काशिकावृत्ति प्राचीन व्याकरण शाखा का ग्रन्थ है। इसमें पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के सूत्रों की वृत्ति (संस्कृत: अर्थ) लिखी गयी है। इसके सम्मिलित लेखक जयादित्य और वामन हैं। सिद्धान्तकौमुदी से पहले काशिकावृत्ति बहुत लोकप्रिय थी, फिर इसका स्थान सिद्धान्तकौमुदी ने ले लिया। आज भी आर्यसमाज के गुरुकुलों मे इसी के माध्यम से अध्ययन होता है। .

नई!!: वामनावतार और काशिकावृत्ति · और देखें »

काव्य रीति

काव्य रीति से अभिप्राय मोटे तौर पर काव्य रचना की शैली से है। यद्यपि संस्कृत काव्यशास्त्र में यह एक व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है। काव्य रीति को काव्य की आत्मा मानकर काव्य पर विचार करने वाला एक संप्रदाय रीति संप्रदाय के नाम से विख्यात है जिसके प्रवर्तक आचार्य वामन हैं। उन्होंने काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में रीति को काव्य की आत्मा घओषित किया है। रीतिरात्मा काव्यस्य। वे रिती को पदरचना की विशिष्ट रीति मानते हैं। विशिष्ट पदरचना रितिः। विशिष्ट शब्द को स्पष्ट करते हुये वे कहते हैं विशेषो गुणात्मा। वामन ने गुण को विशेष महत्व दिया है। रीति काव्य की आत्मा है और गुण रीति के कारणभूत वैशिष्ट्य की आत्मा है। श्रेणी:काव्य शास्त्र.

नई!!: वामनावतार और काव्य रीति · और देखें »

काव्यप्रकाश

काव्यप्रकाश (संस्कृत में काव्यप्रकाशः), आचार्य मम्मट द्वारा रचित काव्य की परख कैसे की जाय इस विषय पर उदाहरण सहित लिखा गया एक विस्तृत एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ का अध्ययन आज भी विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में पढ़ने वाले साहित्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। .

नई!!: वामनावतार और काव्यप्रकाश · और देखें »

काव्यशास्त्र

काव्यशास्त्र काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर उद्भावित सिद्धांतों की ज्ञानराशि है। युगानुरूप परिस्थितियों के अनुसार काव्य और साहित्य का कथ्य और शिल्प बदलता रहता है; फलत: काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों में भी निरंतर परिवर्तन होता रहा है। भारत में भरत के सिद्धांतों से लेकर आज तक और पश्चिम में सुकरात और उसके शिष्य प्लेटो से लेकर अद्यतन "नवआलोचना' (नियो-क्रिटिसिज्म़) तक के सिद्धांतों के ऐतिहासिक अनुशीलन से यह बात साफ हो जाती है। भारत में काव्य नाटकादि कृतियों को 'लक्ष्य ग्रंथ' तथा सैद्धांतिक ग्रंथों को 'लक्षण ग्रंथ' कहा जाता है। ये लक्षण ग्रंथ सदा लक्ष्य ग्रंथ के पश्चाद्भावनी तथा अनुगामी है और महान्‌ कवि इनकी लीक को चुनौती देते देखे जाते हैं। काव्यशास्त्र के लिए पुराने नाम 'साहित्यशास्त्र' तथा 'अलंकारशास्त्र' हैं और साहित्य के व्यापक रचनात्मक वाङमय को समेटने पर इसे 'समीक्षाशास्त्र' भी कहा जाने लगा। मूलत: काव्यशास्त्रीय चिंतन शब्दकाव्य (महाकाव्य एवं मुक्तक) तथा दृश्यकाव्य (नाटक) के ही सम्बंध में सिद्धांत स्थिर करता देखा जाता है। अरस्तू के "पोयटिक्स" में कामेडी, ट्रैजेडी, तथा एपिक की समीक्षात्मक कसौटी का आकलन है और भरत का नाट्यशास्त्र केवल रूपक या दृश्यकाव्य की ही समीक्षा के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। भारत और पश्चिम में यह चिंतन ई.पू.

नई!!: वामनावतार और काव्यशास्त्र · और देखें »

कविसमय

कविसमय (poetic convention) से तात्पर्य है - कवि समुदाय में प्रचलित मान्यताएँ जो प्राचीन परंपरा के अनुसार प्रयोजनविशेष के लिए काव्य में प्रयुक्त होती आई हैं। .

नई!!: वामनावतार और कविसमय · और देखें »

अदिति

अदिति कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी थीं। इनके बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाए (अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः)। उन्हें देवता भी कहा जाता है। अतः अदिति को देवमाता कहा जाता है। संस्कृत शब्द अदिति का अर्थ होता है 'असीम'। .

नई!!: वामनावतार और अदिति · और देखें »

अलंकार (साहित्य)

अलंकार अलंकृति; अलंकार: अलम् अर्थात् भूषण। जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं। इस कारण व्युत्पत्ति से उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं। उपमा आदि के लिए अलंकार शब्द का संकुचित अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है। (काव्यं ग्राह्ममलंकारात्। सौंदर्यमलंकार: - वामन)। चारुत्व को भी अलंकार कहते हैं। (टीका, व्यक्तिविवेक)। भामह के विचार से वक्रार्थविजा एक शब्दोक्ति अथवा शब्दार्थवैचित्र्य का नाम अलंकार है। (वक्राभिधेतशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलं-कृति:।) रुद्रट अभिधानप्रकारविशेष को ही अलंकार कहते हैं। (अभिधानप्रकाशविशेषा एव चालंकारा)। दंडी के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म हैं (काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते)। सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के अनुप्रासोपमादि अलंकारों के संकुचित अर्थ में। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्व के रूप में ग्रहीत हैं और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में। .

नई!!: वामनावतार और अलंकार (साहित्य) · और देखें »

अलंकार शास्त्र

संस्कृत आलोचना के अनेक अभिधानों में अलंकारशास्त्र ही नितांत लोकप्रिय अभिधान है। इसके प्राचीन नामों में क्रियाकलाप (क्रिया काव्यग्रंथ; कल्प विधान) वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट 64 कलाओं में से अन्यतम है। राजशेखर द्वारा उल्लिखित "साहित्य विद्या" नामकरण काव्य की भारतीय कल्पना के ऊपर आश्रित है, परंतु ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सके। "अलंकारशास्त्र" में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में समझना चाहिए। अलंकार के दो अर्थ मान्य हैं -.

नई!!: वामनावतार और अलंकार शास्त्र · और देखें »

अवतार

अवतार का अर्थ अवतरित होना या उतरना है। हिंदू मान्यता के अनुसार जब-जब दुष्टों का भार पृथ्वी पर बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब-तब पापियों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने के लिये भगवान अपने अंश अथवा पूर्णांश से पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं। .

नई!!: वामनावतार और अवतार · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

भगवान् वामन, वामन, वामन अवतार, वामन् अवतार

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »