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वल्लभाचार्य

सूची वल्लभाचार्य

श्रीवल्लभाचार्यजी (1479-1531) भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता थे। उनका प्रादुर्भाव विक्रम संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्टजी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ। यह स्थान वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के निकट चम्पारण्य है। उन्हें वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है। वे वेदशास्त्र में पारंगत थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1977 में एक रुपये मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था। .

31 संबंधों: चौरासी वैष्णवन की वार्ता, देवर्षि रमानाथ शास्त्री, नायक नायिका भेद, नागरीदास, पुष्टिमार्ग, बालकृष्ण शर्मा नवीन, भारतीय लोकनाट्य, भागवत पुराण, भक्ति आन्दोलन, भक्ति काल, रामभद्राचार्य, लीलावती (बहुविकल्पी), शिवानन्द गोस्वामी, शिक्षा दर्शन, शुद्धाद्वैत, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि, सूरदास, सोरों, हिन्दू दर्शन, हिन्दी साहित्य का इतिहास, वाराणसी, वाराणसी का इतिहास, विट्ठलनाथ, वेदान्त दर्शन, कामवन, कुम्भनदास, कृष्णदास, केशवराम काशीराम शास्त्री, अद्वैत वेदान्त, अष्टछाप

चौरासी वैष्णवन की वार्ता

चौरासी वैष्णवन की वार्ता, ब्रजभाषा में लिखित गद्य ग्रन्थ है। इसमें महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के पुष्टि सम्प्रदाय के शिष्यों की कथाएँ (जीवन चरित) संकलित हैं। इसके रचयिता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। यह ग्रन्थ तहा अन्य 'वार्ता ग्रन्थ' ('दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' तथा 'अष्ट सखान की वार्ता') ब्रजभाषा साहित्य के प्राचीन महाकवियों के जीवन वृत्तांत प्रकट करने के कारण तो महत्वपूर्ण हैं ही, किंतु उनका महत्व इसलिए और भी अधिक है कि वे ब्रजभाषा की आरंभिक गद्य रचनाएँ हैं। यदि ये पुस्तकें प्रामाणित हैं, तो इनसे सत्रहवीं शताब्दी के ब्रजभाषा गद्य का रूप ज्ञात हो सकता है। इन पुस्तकों में दी हुई वार्ताओं में उस समय की धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर भी बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है, इसलिए उनका ऐतिहासिक महत्व भी कुछ कम नहीं है। .

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देवर्षि रमानाथ शास्त्री

देवर्षि रमानाथ शास्त्री (1878 – 1943) संस्कृत भाषा के कवि तथा श्रीमद्वल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत पुष्टिमार्ग एवं शुद्धाद्वैत दर्शन के विद्वान् थे। उन्होने हिन्दी, ब्रजभाषा तथा संस्कृत में प्रचुर लेखन किया है। वे बाल्यावस्था से ही संस्कृत में कविता करने लग गए थे और उसी दौरान प्रसिद्ध मासिक पत्र ‘संस्कृत रत्नाकर’ में उनकी प्रारंभिक कविता ‘दुःखिनीबाला’ छपी थी। उनका जन्म आन्ध्र से जयपुर आये कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अध्येता वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के देवर्षि परिवार की विद्वत् परम्परा में सन् 1878 (विक्रम संवत् 1936, श्रावण शुक्ल पंचमी) को जयपुर में हुआ। उनके पिता का नाम श्री द्वारकानाथ तथा माता का नाम श्रीमती जानकी देवी था। इनके एकमात्र पुत्र पंडित ब्रजनाथ शास्त्री (1901-1954) थे, जो स्वयं शुद्धाद्वैत के मर्मज्ञ थे। वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् व युगपुरुष कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के अग्रज थे। .

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नायक नायिका भेद

संस्कृत साहित्य में भरत के नाट्य शास्त्र में अधिकांशत: नाटकीय पात्रों के वर्गीकरण प्रस्तुत हुए हैं और वात्स्यायन के कामसूत्र में एतद्विषयक भेद प्रभेद किए गए हैं जिनका संबंध प्राय: स्त्री-पुरुष के यौन व्यापारों से है। "अग्निपुराण" में प्रथम बार नायक-नायिका का विवेचन शृंगार रस के आलंबन विभावों के रूप में किया गया है। संस्कृत और हिंदी के परवर्ती लेखकों ने "अग्निपुराण" का स्थिति स्वीकार करते हुए श्रृंगाररस की सीमाओं में ही इस विषय का विस्तार किया है। इन सीमाओं का, जिनका अतिक्रमण केवल अपवाद के रूप में किया गया है, इस प्रकार समझा जा सकता है.

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नागरीदास

नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले कवि एवं कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। इनका नाम सांवतसिंह था। नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह कृष्णगढ़ में आज भी विराजमालन हैं। नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता का नाम राजसिंह था। सावंतसिंह ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजसिंह के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इनको कृष्णगढ़ की गद्दी पर बिठाना चाहा परन्तु इनके भाई बहादुरसिंह जोधपुर नरेश की सहायता से पहले ही राज्य पर अधिकार कर बैठे थे। सावंतसिंह ने मरहठों से संधि कर ली, और बहादुरसिंह को हराकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। किंतु गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, और यह मत इन्होंने बना लिया कि 'सबै कलह इक राज में, राज कहल को मूल।' राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। कृष्णभक्त तो थे ही, राज्य की ओर से विरक्ति हो जाने के फलस्वरूप इनके मन में ब्रजवास करने की इच्छा प्रबल हो उठी- राजकाज छोड़कर नागरीदास वृन्दावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है - सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया- .

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पुष्टिमार्ग

भक्ति के क्षेत्र में महापुभु श्रीवल्‍लभाचार्य जी का साधन मार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता है। पुष्टिमार्ग के अनुसार सेवा दो प्रकार से होती है - नाम-सेवा और स्‍वरूप-सेवा। स्‍वरूप-सेवा भी तीन प्रकार की होती है -- तनुजा, वित्तजा और मानसी। मानसी सेवा के दो प्रकार होते हैं - मर्यादा-मार्गीय और पुष्टिमार्गीय। मर्यादा-मार्गीय मानसी-सेवा पद्धति का आचरण करने वाला साधक जहाँ अपनी ममता और अहं को देर करता है, वहाँ पुष्टि-मार्गीय मानसी-सेवा पद्धति वाला साधक अपने शुद्ध प्रेम के द्वारा श्रीकृष्‍ण भक्ति में लीन हो जाता है और उनके अनुग्रह से सहज में ही अपनी वांक्षित वस्‍तु प्राप्‍त कर लेता है। .

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बालकृष्ण शर्मा नवीन

बालकृष्ण शर्मा नवीन (१८९७ - १९६० ई०) हिन्दी कवि थे। वे परम्परा और समकालीनता के कवि हैं। उनकी कविता में स्वच्छन्दतावादी धारा के प्रतिनिधि स्वर के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना, गांधी दर्शन और संवेदनाओं की झंकृतियां समान ऊर्जा और उठान के साथ सुनी जा सकती हैं। आधुनिक हिन्दी कविता के विकास में उनका स्थान अविस्मरणीय है। वे जीवनभर पत्रकारिता और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े रहे। नवीन जी द्विवेदी युग के कवि हैं। इनकी कविताओं में भक्ति-भावना, राष्ट्र-प्रेम तथा विद्रोह का स्वर प्रमुखता से आया है। आपने ब्रजभाषा के प्रभाव से युक्त खड़ी बोली हिन्दी में काव्य रचना की। उन्हे साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६० में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। .

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भारतीय लोकनाट्य

भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने (ई.पू. तृतीय शताब्दी) अपने नाट्यशास्त्र में इस विषय का विशद वर्णन किया है। इसे अतिरिक्त धनंजयकृत 'दशरूपक' में तथा विश्वनाथ कविराजविरचित 'साहित्यदर्पण' में भी एतत्संबंधी बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध है, परंतु नाट्यशास्त्र ही नाट्यविद्या का सबसे मौलिक तथा स्रोतग्रंथ माना जाता है। .

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भागवत पुराण

सन १५०० में लिखित एक भागवत पुराण मे यशोदा कृष्ण को स्नान कराते हुए भागवत पुराण (Bhaagwat Puraana) हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् (Shrimadbhaagwatam) या केवल भागवतम् (Bhaagwatam) भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है। श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है। .

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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लीलावती (बहुविकल्पी)

'लीलावती' से निम्नलिखित का बोध होता है.

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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शिक्षा दर्शन

गाँधीजी महान शिक्षा-दार्शनिक भी थे। शिक्षा और दर्शन में गहरा सम्बन्ध है। अनेकों महान शिक्षाशास्त्री स्वयं महान दार्शनिक भी रहे हैं। इस सह-सम्बन्ध से दर्शन और शिक्षा दोनों का हित सम्पादित हुआ है। शैक्षिक समस्या के प्रत्येक क्षेत्र में उस विषय के दार्शनिक आधार की आवश्यकता अनुभव की जाती है। फिहते अपनी पुस्तक "एड्रेसेज टु दि जर्मन नेशन" में शिक्षा तथा दर्शन के अन्योन्याश्रय का समर्थन करते हुए लिखते हैं - "दर्शन के अभाव में ‘शिक्षण-कला’ कभी भी पूर्ण स्पष्टता नहीं प्राप्त कर सकती। दोनों के बीच एक अन्योन्य क्रिया चलती रहती है और एक के बिना दूसरा अपूर्ण तथा अनुपयोगी है।" डिवी शिक्षा तथा दर्शन के संबंध को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन की जो सबसे गहन परिभाषा हो सकती है, यह है कि "दर्शन शिक्षा-विषयक सिद्धान्त का अत्यधिक सामान्यीकृत रूप है।" दर्शन जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा उपाय प्रस्तुत करती है। दर्शन पर शिक्षा की निर्भरता इतनी स्पष्ट और कहीं नहीं दिखाई देती जितनी कि पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं के संबंध में। विशिष्ट पाठ्यक्रमीय समस्याओं के समाधान के लिए दर्शन की आवश्यकता होती है। पाठ्यक्रम से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ प्रश्न उपयुक्त पाठ्यपुस्तकों के चुनाव का है और इसमें भी दर्शन सन्निहित है। जो बात पाठ्यक्रम के संबंध में है, वही बात शिक्षण-विधि के संबंध में कही जा सकती है। लक्ष्य विधि का निर्धारण करते हैं, जबकि मानवीय लक्ष्य दर्शन का विषय हैं। शिक्षा के अन्य अंगों की तरह अनुशासन के विषय में भी दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका है। विद्यालय के अनुशासन निर्धारण में राजनीतिक कारणों से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कारण मनुष्य की प्रकृति के संबंध में हमारी अवधारणा होती है। प्रकृतिवादी दार्शनिक नैतिक सहज प्रवृत्तियों की वैधता को अस्वीकार करता है। अतः बालक की जन्मजात सहज प्रवृत्तियों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति के लिए छोड़ देता है; प्रयोजनवादी भी इस प्रकार के मापदण्ड को अस्वीकार करके बालक व्यवहार को सामाजिक मान्यता के आधार पर नियंत्रित करने में विश्वास करता है; दूसरी ओर आदर्शवादी नैतिक आदर्शों के सर्वोपरि प्रभाव को स्वीकार किए बिना मानव व्यवहार की व्याख्या अपूर्ण मानता है, इसलिए वह इसे अपना कर्त्तव्य मानता है कि बालक द्वारा इन नैतिक आधारों को मान्यता दिलवाई जाये तथा इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाए कि वह शनैःशनैः इन्हें अपने आचरण में उतार सके। शिक्षा का क्या प्रयोजन है और मानव जीवन के मूल उद्देश्य से इसका क्या संबंध है, यही शिक्षा दर्शन का विजिज्ञास्य प्रश्न है। चीन के दार्शनिक मानव को नीतिशास्त्र में दीक्षित कर उसे राज्य का विश्वासपात्र सेवक बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। प्राचीन भारत में सांसारिक अभ्युदय और पारलौकिक कर्मकांड तथा लौकिक विषयों का बोध होता था और परा विद्या से नि:श्रेयस की प्राप्ति ही विद्या के उद्देश्य थे। अपरा विद्या से अध्यात्म तथा रात्पर तत्व का ज्ञान होता था। परा विद्या मानव की विमुक्ति का साधन मान जाती थी। गुरुकुलों और आचार्यकुलों में अंतेवासियों के लिये ब्रह्मचर्य, तप, सत्य व्रत आदि श्रेयों की प्राप्ति परमाभीष्ट थी और तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय प्राकृतिक विषयों के सम्यक् ज्ञान के अतिरिक्त नैष्ठिक शीलपूर्ण जीवन के महान उपस्तंभक थे। भारतीय शिक्षा दर्शन का आध्यात्मिक धरातल विनय, नियम, आश्रममर्यादा आदि पर सदियों तक अवलंबित रहा। .

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शुद्धाद्वैत

शुद्धाद्वैत वल्लभाचार्य (1479-1531 ई) द्वारा प्रतिपादित दर्शन है वे पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं। यह एक वैष्णव सम्प्रदाय है जो श्रीकृष्ण की पूजा अर्चना करता है। शुद्धाद्वैत दर्शन अद्वैतवाद से भिन्न है। श्रेणी:भारतीय दर्शन.

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श्रीमद्भगवद्गीता

कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग ८वीं सदी के अंत में शंकराचार्य (७८८-८२०) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। १०वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है। गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। .

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श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि

(देवर्षि) श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि (1675-1761) सवाई जयसिंह के समकालीन, बूंदी और जयपुर के राजदरबारों से सम्मानित, आन्ध्र-तैलंग-भट्ट, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि थे। "सवाई जयसिंह द्वितीय (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743) ने अपने समय में जिन विद्वत्परिवारों को बाहर से ला कर अपने राज्य में जागीर तथा संरक्षण दिया उनमें आन्ध्र प्रदेश से आया यह तैलंग ब्राह्मण परिवार प्रमुख स्थान रखता है। इस परिवार में में ही उत्पन्न हुए थे (देवर्षि) कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट जी, जिन्होंने 'ईश्वर विलास', 'पद्यमुक्तावली', 'राघव गीत' आदि अनेक ग्रंथों की रचना कर राज्य का गौरव बढ़ाया। इन्होंने सवाई जयसिंह से सम्मान प्राप्त किया था, (उनके द्वारा जयपुर में आयोजित) अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया था, जयपुर को बसते हुए देखा था और उसका एक ऐतिहासिक महाकाव्य में वर्णन किया था। देवर्षि-कुल के इस प्रकांड विद्वान ने अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन-काल में पर्याप्त प्रसिद्धि, समृद्धि एवं सम्मान प्राप्त किया था।" भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने इन पूर्वज कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था- तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः। भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:।। .

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सूरदास

सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है। सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं। .

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सोरों

सोरों सूकरक्षेत्र भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में कासगंज जनपद का एक नगर है। यहाँ प्रत्येक अमावस्या, सोमवती अमावस्या, पूर्णिमा, रामनवमी, मोक्षदा एकादशी आदि अवसरों पर तीर्थयात्रियों का बड़ी संख्या में आवागमन होता है और गंगा में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं। यहाँ अस्थि विसर्जन का विशेष महत्त्व है। यहाँ स्थित कुण्ड में विसर्जित की गईं अस्थियाँ तीन दिन के अन्त में रेणुरूप धारण कर लेती हैं। यह महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि है। सोरों सूकरक्षेत्र के तीर्थपुरोहित जगत् विख्यात हैं। इनके पास प्रत्येक परिवार के पूर्वजों का इतिहास हैं। .

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हिन्दू दर्शन

हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। .

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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वाराणसी का इतिहास

वाराणसी का मूल नगर काशी था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग ५००० वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कंद पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतः वाराणसी शहर को कम से कम ३००० वर्ष प्राचीन तो माना ही जाता है। नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दाँत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक लिखा है। .

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विट्ठलनाथ

विट्टलनाथ के पिता वल्लभचार्य की तस्वीर विट्ठलनाथ वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे। गुसाईं विट्ठलनाथ का जन्म काशी के निकट चरणाट ग्राम में पौष कृष्ण नवमी को संवत्‌ १५७२ (सन्‌ १५१५ ई.) में हुआ। इनका शैशव काशी तथा प्रयाग के निकट अरैल नामक स्थान में व्यतीत हुआ। काशी में रहकर इन्होंने अपने शास्त्रगुरु श्री माधव सरस्वती से वेदांत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने ज्येष्ठ भ्राता गोपीनाथ जी के अकाल कवलित हो जाने पर संवत्‌ १५९५ में संप्रदाय की गद्दी के स्वामी बनकर उसे नया रूप देने में लीन हो गए। धर्मप्रचार के लिए इन्होंने दो बार गुजरात की यात्रा की और अनेक धर्मप्रेमियों का वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। वल्लभ संप्रदाय को सुसंगठित एवं व्यवस्थित रूप देने में विट्ठलनाथ का विशेष योगदान है। श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा की नूतन विधि, वार्षिक उत्सव, व्रतोपवास आदि की व्यवस्था कर उन्हें अत्यंत आकर्षक बनाने का श्रेय इन्हीं को है। संगीत, साहित्य, कला आदि के सम्मिश्रण द्वारा इन्होंने भक्तों के लिए अद्भुत आकर्षण की सामग्री श्रीनाथ जी के मंदिर में जुटा दी थी। अपने पिता के चार शिष्य कुंभनदास, परमानंददास तथा कृष्णदास के साथ अपने चार शिष्य चतुर्भुजदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर इन्होंने अष्टछाप की स्थापना की। इन्हीं आठ सखाओं के पद श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा के समय गाए जाते थे। भक्तमाल में नाभादास ने लिखा है - विट्ठलनाथ का अपने समय में अत्यधिक प्रभाव था। अकबर बादशाह ने इनके अनुरोध से गोकुल में वानर, मयूर, गौ आदि के वध पर प्रतिबंध लगाया था और गोकुल की भूमि अपने फरमान से माफी में प्रदान की थी। विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे जिन्हें गुसाइर्ं जी ने सात स्थानों में भेजकर संप्रदाय की सात गद्दियाँ स्थापित कर दीं। अपनी संपत्ति का भी उन्होंने अपने जीवनकाल में ही विभाजन कर दिया था। सात पुत्रों को पृथक्‌ स्थानों पर भेजने से संप्रदाय का व्यापक रूप से प्रचार संभव हुआ। इनके चौथे पुत्र गुसाई गोकुलनाथ ने चौरासी वैष्णवन की बार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता का प्रणयन किया। कुछ विद्वान्‌ मानते हैं कि ये वार्ताएँ प्रारंभ में मौखिक रूप में कही गई थीं, बाद में इन्हें लिखित रूप मिला। विट्ठलनाथ जी के लिखे ग्रंथों में अणुभाष्य, यमुनाष्टक, सुबोधिनी की टीका, विद्वन्मंडल, भक्तिनिर्णय और शृंगाररसमंडन प्रसिद्ध हैं। शृंगाररसमंडन ग्रंथ द्वारा माधुर्य भक्ति की स्थापना में बहुत योग मिला। संवत्‌ १६४२ वि.

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वेदान्त दर्शन

वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .

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कामवन

कामां या कामवन राजस्थान के भरतपुर जिले का एक उपखंड और तहसील मुख्यालय है। इसका वर्तमान नाम 'कामां' है। कामां एक बड़ा ही प्राचीन और ऐतिहासिक क़स्बा है। आसपास के क़स्बे/ शहर हैं: नगर, नंदगाँव, बरसाना, डीग, पलवल और अलवर आदि। इसके ध्रुवीय निर्देशांक हैं: 27°39'13"N 77°16'11"E .

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कुम्भनदास

कुम्भनदास(१४६८-१५८३) अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। ये परमानंददास जी के समकालीन थे। कुम्भनदास का चरित "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" के अनुसार संकलित किया जाता है। कुम्भनदास ब्रज में गोवर्धन पर्वत से कुछ दूर "जमुनावतौ" नामक गाँव में रहा करते थे। उनके घर में खेती-बाड़ी होती थी। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म गौरवा क्षत्रिय कुल में हुआ था। कुम्भनदास के सात पुत्र थे, जिनमें चतुर्भजदास को छोड़कर अन्य सभी कृषि कर्म में लगे रहते थे। उन्होंने १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। वे पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इनके इस पद से व्यंजित होता है- .

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कृष्णदास

कृष्णदास हिन्दी के भक्तिकाल के अष्टछाप के कवि थे। उनका जन्म १४९५ ई. के आसपास गुजरात में चिलोतरा ग्राम के एक कुनबी पाटिल परिवार में हुआ था। बचपन से ही प्रकृत्ति बड़ी सात्विक थी। जब वे १२-१३ वर्ष के थे तो उन्होंने अपने पिता को चोरी करते देखा और उन्हें गिरफ्तार करा दिया फलत: वे पाटिल पद से हटा दिए गए। इस कारण पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। वे भ्रमण करते हुए ब्रज पहुँचे। उन्हीं दिनों नवीन मंदिर में श्रीनाथ जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करने की तैयारी हो रही थी। श्रीनाथ जी के दर्शन से वे बहुत प्रभावित हुए और वल्लभाचार्य से उनके संप्रदाय की दीक्षा ली। उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता, व्यवहार कुशलता और संघटन योयता से प्रभावित होकर वल्लभाचार्य ने उन्हें भेटिया (भेंट संग्रह करनेवाला) के पद पर नियुक्त किया और फिर शीघ्र उन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर का अधिकारी बना दिया। उन्होंने अपने इस उत्तरदायित्व का बड़ी योग्यता से निर्वाह किया। कृष्णदास को सांप्रदायिक सिद्धांतों का अच्छा ज्ञान था जिसके कारण वे अपने संप्रदाय के अग्रगण्य लोगों में माने जाते थे। उन्होंने समय-समय पर कृष्ण लीला प्रसंगों पर पद रचना की जिनकी संख्या लगभग २५० है जो राग कल्पद्रुम, राग रत्नाकर तथा संप्रदाय के कीर्तन संग्रहों में उपलब्ध हैं। १५७५ और १५८१ ई. के बची किसी समय उनका देहावासन हुआ। श्रेणी:गुजरात के लोग.

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केशवराम काशीराम शास्त्री

केशवराम काशीराम शास्त्री (जन्म:28 जुलाई 1905; मृत्यु:9 सितम्बर 2006) विश्व हिन्दू परिषद के वह संस्थापक सदस्य थे। वे एक जानमाने साहित्यकार और इतिहासकार थे। महामहर्षि पू.

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अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। .

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अष्टछाप

अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित ८ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना १५६५ ई० में हुई थी। .

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