8 संबंधों: प्राणियों और वनस्पतियों का देशीकरण, लैमार्कवाद, सचोली, स्वयंपाठी, हरबर्ट स्पेंसर, जीव विज्ञान, विकासवाद का इतिहास, क्रम-विकास से परिचय।
प्राणियों और वनस्पतियों का देशीकरण
प्राणियों और वनस्पतियों को उनके मूल निवास के समकक्ष, या बिल्कुल भिन्न जलवायुवाले दूसरे प्रदेश में, कृत्रिम या प्राकृतिक तरीके से ले जाकर, सफलतापूर्वक उनका विस्तार किए जाने की पद्धति के लिए प्राणियों और वनस्पतियों का देशीकरण (Naturalization of Plants and Animals) - इस पद का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। व्यापक अर्थ में देशीकरण पारिस्थितिक अनुकूलन ही है, किंतु सीमित अर्थ में देशीकरण का तात्पर्य उस क्रिया से है जिसके द्वारा जीवधारी का, अपने ही अथवा अन्य प्रदेश में, इस प्रकार परिवर्तन किया जाता है जिससे वह वहाँ की जलवायु की नई दशाओं को सहन करने की क्षमता प्राप्त कर ले और वहाँ के अनुकूल बन जाए। इस अनुकूलता का प्रतिपादन कुछ लोग लामार्क (Lamarck) और कुछ डार्विन (Darwin) के सिद्धांत के अनुसार करते हैं। .
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लैमार्कवाद
180px.p1090470।फ्रांस के प्रसिद जीववैज्ञानिक लेमार्क्क का विकास सिदांत। लैमार्कवाद, फ्रांस के जीववैज्ञानिक लैमार्क द्वारा प्रतिपादित विकासका सिद्धान्त (विकासवाद) था जो किसी समय बहुत मान्य हुआ था किन्तु बाद में इसे अस्वीकार कर दिया गया। संक्षेप में लामार्क का विकासवाद (या, लैमार्कवाद) यह है - वातावरण के परिवर्तन के कारण जीव की उत्पत्ति, अंगों का व्यवहार या अव्यवहार, जीवनकाल में अर्जित गुणों का जीवों द्वारा अपनी संतति में पारेषण। इस मत और डार्विन के मत में यह अंतर है कि इस मत में डारविन के प्राकृतिक वरण के सिद्धांत का अभाव है। .
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सचोली
समुद्र का ट्युलिप- प्यूरा स्पिन्फेरा (Pyura spinifera) सचोली (Tunicata) एक प्रकार के समुद्री जीव है, जो अकेले, या समूह में, संसार के किसी भी महासागर की विभिन्न गहराइयों में पाए जाते हैं। इनके अधिकांश प्रकार स्थानबद्ध (sedentary) होते हैं एवं नाना प्रकार के पदार्थों के साथ जुड़े रहते हैं। इनका शरीर पारदर्शी, पारभासी या अपारदर्शी एवं कई प्रकार के रंगों का होता है। शरीर का आकार अनिश्चित एवं परिमाण एक इंच के सौवें भाग से लेकर एक फुट तक के व्यास का होता है। सारा शरीर एक पतले या मोटे चर्म सदृश आवरण में, जिसे चोल या कंचुक (Tunic or Test) कहते हैं लिपटा रहता है। चोल अधिकांश, ट्यूनिसिन (tunicine) नामक स्रवित पदार्थ का बना होता है। ट्यूनिसिन सेलुलोस के अनुरूप एक पदार्थ है। चोल में दो छिद्र या मार्ग होते हैं। एक मार्ग से जल भीतर प्रवेश करता है तथा दूसरे से बाहर निकल जाता है। .
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स्वयंपाठी
जब कोई विद्यार्थी बिना किसी विद्यालय तथा बिना किसी शिक्षक के द्वारा पढ़ाई करता है तथा स्वयंपाठी का फार्म भर कर पढ़ाई करता है तो उन्हें स्वयंपाठी कहा जाता है। .
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हरबर्ट स्पेंसर
अन्य व्यक्तियों के लिये हरबर्ट स्पेंसर (बहुविकल्पी) देखें। ---- हरबर्ट स्पेंसर (27 अप्रैल 1820-8 दिसम्बर 1903) विक्टोरियाई काल के एक अंग्रेज़ दार्शनिक, जीव-विज्ञानी, समाजशास्री और प्रसिद्ध पारंपरिक उदारवादी राजनैतिक सिद्धांतकार थे। स्पेंसर ने भौतिक विश्व, जैविक सजीवों, मानव मन, तथा मानवीय संस्कृ्ति व समाजों की क्रमिक विकास के रूप में उत्पत्ति की एक सर्व-समावेशक अवधारणा विकसित की.
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जीव विज्ञान
जीवविज्ञान भांति-भांति के जीवों का अध्ययन करता है। जीवविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस विज्ञान में हम जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान एक बहुत विस्तृत विज्ञान है, जिसकी कई शाखाएँ हैं। 'बायलोजी' (जीवविज्ञान) शब्द का प्रयोग सबसे पहले लैमार्क और ट्रविरेनस नाम के वैज्ञानिको ने १८०२ ई० में किया। जिन वस्तुओं की उत्पत्ति किसी विशेष अकृत्रिम जातीय प्रक्रिया के फलस्वरूप होती है, जीव कहलाती हैं। इनका एक परिमित जीवनचक्र होता है। हम सभी जीव हैं। जीवों में कुछ मौलिक प्रक्रियाऐं होती हैं.
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विकासवाद का इतिहास
अर्न्स्ट हैकेल द्वारा प्रतिपादित "जीवन वृक्ष"; इससे स्पष्ट होता है कि १९वीं शती में यह विचार आगे आने लगा था कि जीवों का क्रमिक विकास होकर मनुष्य बना है। विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं। इस सिद्धान्त के विकास का लम्बा इतिहास है। १८वीं शती तक पश्चिमी जीववैज्ञानिक चिन्तन में यह विश्वास जड़ जमाये था कि प्रत्येक जीव में कुछ विलक्षण गुण हैं जो बदले नहीं जा सकते। इसे इशेंसियलिज्म (essentialism) कहा जाता है। पुनर्जागरण काल में यह धारणा बदलने लगी। १९वीं शती के आरम्भ में लैमार्क ने अपना विकासवाद का सिद्धान्त दिया जो क्रम-विकास (evolution) से सम्बन्धित प्रथम पूर्णत: निर्मित वैज्ञानिक सिद्धान्त था। .
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क्रम-विकास से परिचय
क्रम-विकास किसी जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ियों के साथ परिवर्तन को कहते हैं। जैविक आबादियों में जैनेटिक परिवर्तन के कारण अवलोकन योग्य लक्षणों में परिवर्तन होता है। जैसे-जैसे जैनेटिक विविधता पीढ़ियों के साथ बदलती है, प्राकृतिक वरण से वो लक्षण ज्यादा सामान्य हो जाते हैं जो उत्तरजीवन और प्रजनन में ज्यादा सफलता प्रदान करते हैं। पृथ्वी की उम्र लगभग ४.५४ अरब वर्ष है। जीवन के सबसे पुराने निर्विवादित सबूत ३.५ अरब वर्ष पुराने हैं। ये सबूत पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में ३.५ वर्ष पुराने बलुआ पत्थर में मिले माइक्रोबियल चटाई के जीवाश्म हैं। जीवन के इस से पुराने, पर विवादित सबूत ये हैं: १) ग्रीनलैंड में मिला ३.७ अरब वर्ष पुराना ग्रेफाइट, जो की एक बायोजेनिक पदार्थ है और २) २०१५ में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में ४.१ अरब वर्ष पुराने पत्थरों में मिले "बायोटिक जीवन के अवशेष"। Early edition, published online before print. क्रम-विकास जीवन की उत्पत्ति को समझाने की कोशिश नहीं करता है (इसे अबायोजेनेसिस समझाता है)। पर क्रम-विकास यह समझाता है कि प्राचीन सरल जीवन से आज का जटिल जीवन कैसे विकसित हुआ है। आज की सभी जातियों के बीच समानता देख कर यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। आज की सभी जातियाँ क्रम-विकास की प्रक्रिया के द्वारा इस से उत्पन्न हुई हैं। सभी शख़्सों के पास जीन्स के रूप में आनुवांशिक पदार्थ होता है। सभी शख़्स इसे अपने माता-पिता से ग्रहण करते हैं और अपनी संतान को देते हैं। संतानों के जीन्स में थोड़ी भिन्नता होती है। इसका कारण उत्परिवर्तन (यादृच्छिक परिवर्तनों के माध्यम से नए जीन्स का प्रतिस्थापन) और लैंगिक जनन के दौरान मौजूदा जीन्स में फेरबदल है। इसके कारण संताने माता-पिता और एक दूसरे से थोड़ी भिन्न होती हैं। अगर वो भिन्नताएँ उपयोगी होती हैं तो संतान के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना ज्यादा होती है। इसके कारण अगली पीढ़ी के विभिन्न शख्सों के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना समान नहीं होती है। फलस्वरूप जो लक्षण जीवों को अपनी परिस्थितियों के ज्यादा अनुकूलित बनाते हैं, अगली पीढ़ियों में वो ज्यादा सामान्य हो जाते हैं। ये भिन्नताएँ धीरे-धीरे बढ़ती रहती हैं। आज देखी जाने वाली जीव विविधता के लिए यही प्रक्रिया जिम्मेदार है। अधिकांश जैनेटिक उत्परिवर्तन शख़्सों को न कोई सहायता प्रदान करते हैं, न उनकी दिखावट को बदलते हैं और न ही उन्हें कोई हानि पहुँचाते हैं। जैनेटिक ड्रिफ्ट के माध्यम से ये निष्पक्ष जैनेटिक उत्परिवर्तन केवल संयोग से आबादियों में स्थापित हो जाते हैं और बहुत पीढ़ियों तक जीवित रहते हैं। इसके विपरीत, प्राकृतिक वरण एक यादृच्छिक प्रक्रिया नहीं है क्योंकि यह उन लक्षणों को बचाती है जो जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जरुरी हैं। प्राकृतिक वरण और जैनेटिक ड्रिफ्ट जीवन के नित्य और गतिशील अंग हैं। अरबों वर्षों में इन प्रक्रियाओं ने जीवन के वंश वृक्ष की शाखाओं की रचना की है। क्रम-विकास की आधुनिक सोच १८५९ में प्रकाशित चार्ल्स डार्विन की किताब जीवजातियों का उद्भव से शुरू हुई। इसके साथ ग्रेगर मेंडल द्वारा पादपों पर किये गए अध्ययन ने अनुवांशिकी को समझने में मदद की। जीवाश्मों की खोज, जनसंख्या आनुवांशिकी में प्रगति और वैज्ञानिक अनुसंधान के वैश्विक नैटवर्क ने क्रम-विकास की क्रियाविधि की और अधिक विस्तृत जानकारी प्रदान की है। वैज्ञानिकों को अब नयी जातियों के उद्गम (प्रजातीकरण) की ज्यादा समझ है और उन्होंने अब प्रजातीकरण की प्रक्रिया का अवलोकन प्रयोगशाला और प्रकृति में कर लिया है। क्रम-विकास वह मूल वैज्ञानिक सिद्धांत है जिसे जीववैज्ञानिक जीवन को समझने के लिए प्रयोग करते हैं। यह कई विषयों में प्रयोग होता है जैसे आयुर्विज्ञान, मानस शास्त्र, जैव संरक्षण, मानवशास्त्र, फॉरेंसिक विज्ञान, कृषि और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक विषय। .
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