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रीति काल

सूची रीति काल

सन् १७०० ई. के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं। इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए। कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई। रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। केशवदास (ओरछा), प्रताप सिंह (चरखारी), बिहारी (जयपुर, आमेर), मतिराम (बूँदी), भूषण (पन्ना), चिंतामणि (नागपुर), देव (पिहानी), भिखारीदास (प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ (काशी), बेनी (किशनगढ़), गंग (दिल्ली), टीकाराम (बड़ौदा), ग्वाल (पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई (पटियाला), हरनाम (कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज (पन्ना), सुरति मिश्र (दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ (अमेठी), ऋषिनाथ (काशी), रतन कवि (श्रीनगर-गढ़वाल), बेनी बन्दीजन (अवध), बेनी प्रवीन (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), बोधा (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)। रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई। .

46 संबंधों: चिन्तामणि त्रिपाठी(रीतिग्रंथकार कवि), देव (कवि), दीनदयालु गिरि, नन्दराम, नायक नायिका भेद, नव्योत्तर काल, पद्माकर, पलायनवाद, पजनेस, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहारी (साहित्यकार), बेनी बंदीजन(रीतिग्रंथकार कवि), बोधा, भिखारीदास, भक्ति आन्दोलन, भक्ति काल, भूषण (हिन्दी कवि), मतिराम (बहुविकल्पी), मुक्तक, मैनेजर पाण्डेय, रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि), रसखान, रामचन्द्र चन्द्रिका, रूपसाहि(रीतिग्रंथकार कवि), रीति काल, रीतिमुक्त कवि, शिवराज भूषण, शिवानन्द गोस्वामी, सतसई, सवैया, सुंदरदास, सेनापति (कवि), हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक), होली, जीवनचरित, घनानन्द, गंग कवि, गंगा नदी, आदिकाल, आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास, आधुनिक काल, कामसूत्र, कवितावली, कविशिक्षा, केशव

चिन्तामणि त्रिपाठी(रीतिग्रंथकार कवि)

टिकमापुर, जन्म स्थान चिंतामणि त्रिपाठी हिन्दी के रीतिकाल के कवि हैं। ये यमुना के समीपवर्ती गाँव टिकमापुर या भूषण के अनुसार त्रिविक्रमपुर (जिला कानपुर) के निवासी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी ब्राह्मण थे। इनका जन्मकाल संo १६६६ विo और रचनाकाल संo १७०० विo माना जाता है। ये रतिनाथ अथवा रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र (भूषण के 'शिवभूषण' की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में इनके पिता के उक्त दो नामों का उल्लेख मिलता है) और कविवर भूषण, मतिराम तथा जटाशंकर (नीलकंठ) के ज्येष्ठ भ्राता थे। चिंतामणि कभी-कभी अपनी रचनाओं में अपना नाम 'मनिलाल' और 'लालमनि' भी रखते थे। इनका संबंध शाहजहाँ, चित्रकूटाधिपति रुद्रशाह सोलंकी, जैनुद्दीन अहमद और नागपुर के भोंसला राजा मकरदशाह के राजदरबारों से था, जहाँ से इन्हें पर्याप्त सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। नागपुर में उस समय कोई मकरदशाह संज्ञक भोंसला राजा नहीं था, इसलिये मकरंदशाह नामधारी इस कवि के आश्रयदाता संभवत: शिवाजी के पितामह ही थे, जो 'मालो जी' नाम से प्रख्यात हैं और भूषण ने जिनका स्मरण 'माल मकरद' कहकर किया है। .

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देव (कवि)

हिंदी के ब्रजभाषा काव्य के अंतर्गत देव को महाकवि का गौरव प्राप्त है। उनका पूरा नाम देवदत्त था। उनका आविर्भाव हिन्दी के रीतिकाल में हुआ था। यद्यपि ये प्रतिभा में बिहारी, भूषण, मतिराम आदि समकालीन कवियों से कम नहीं वरन् कुछ बढ़कर ही सिद्ध होते हैं, फिर भी इनका किसी एक विशिष्ट राजदरबार से संबंध न होने के कारण इनकी वैसी ख्याति और प्रसिद्धि नहीं हुई। देव को अत्यधिक प्रसिद्ध करनेवाले लेखकों में मिश्रबंधु हैं जिनके विचार से देव का स्थान हिंदी साहित्य में तुलसी के बाद आता है। देव और बिहारी में कौन अधिक श्रेष्ठ है इसको लेकर एक विवाद भी चला था। इसी संबंध में 'देव और बिहारी' नामक पुस्तक पंडित कृष्णबिहारी मिश्र ने लिखी और 'बिहारी और देव' की रचना लाला भगवानदीन ने की। इन दोनों में देव और बिहारी की काव्यप्रतिभा को स्पष्ट करने का प्रयत्न है। यद्यपि हिंदी साहित्य के अंतर्गत 'देव' नाम के छह-सात कवि मिलते हैं, तथापि प्रसिद्ध कवि देव को छोड़कर अन्य 'देव' नामधारी कवियों की कोई विशेष ख्याति नहीं हुई। .

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दीनदयालु गिरि

दीनदयालु गिरि। दीनदयालु गिरि (१८०२ - १८६५ ई.) हिंदी कवि थे। हिंदी के काव्यगमन में वे एक ऐसे नक्षत्र है जो अपने अन्योक्तिप्रकाश के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इनका आविर्भाव रीतिकाल के उत्तर भाग एवं आधुनिक काल के संधियुग में हुआ, अत: उनके काव्य में दोनों युगों की विशेषताएँ समाहित हैं। वे दशनामी संन्यासी और कृष्णभक्त थे तथा देहली विनायक पर रहते थे। .

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नन्दराम

नंदराम (लग. सं. 1894 - सं. 1944) हिन्दी कवि थे। नन्दराम जीवनकाल के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। वे सालेहनगर ग्राम (लखनऊ) के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इन्हें "शिवसिंहसरोज" में उल्लिखित नंदराम से भिन्न माना जाता है। इनका सर्वप्रसिद्ध रसग्रंथ "शृंगारदर्पण" है जो पद्माकरकृत "जगद्विनोद" की पद्धति पर लिखा गया है। यह ग्रंथ भारतजीवन यंत्रालय से प्रकाशित हुआ था। इसमें दोहा, सवैया, घनाक्षरी और कभी-कभी छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। भाव और भाषा दोनों की सहज, स्वाभाविक और सुकुमार अभिव्यक्ति ही कवि के काव्य की बड़ी विशेषता है, यद्यपि रीतिकाव्य में पाई जानेवाली अलंकारिकता, चमत्कार और कलात्मक आग्रह के प्रति मोह भी उसमें कम नहीं है। कवि ने प्राय: मधुर और निर्दोष भाषा का प्रयोग किया है। श्रेणी:हिन्दी साहित्यकार.

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नायक नायिका भेद

संस्कृत साहित्य में भरत के नाट्य शास्त्र में अधिकांशत: नाटकीय पात्रों के वर्गीकरण प्रस्तुत हुए हैं और वात्स्यायन के कामसूत्र में एतद्विषयक भेद प्रभेद किए गए हैं जिनका संबंध प्राय: स्त्री-पुरुष के यौन व्यापारों से है। "अग्निपुराण" में प्रथम बार नायक-नायिका का विवेचन शृंगार रस के आलंबन विभावों के रूप में किया गया है। संस्कृत और हिंदी के परवर्ती लेखकों ने "अग्निपुराण" का स्थिति स्वीकार करते हुए श्रृंगाररस की सीमाओं में ही इस विषय का विस्तार किया है। इन सीमाओं का, जिनका अतिक्रमण केवल अपवाद के रूप में किया गया है, इस प्रकार समझा जा सकता है.

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नव्योत्तर काल

हिन्दी साहित्य के नव्योत्तर काल (पोस्ट-माडर्न) की कई धाराएं हैं -.

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पद्माकर

रीति काल के ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर (1753-1833) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मूलतः हिन्दीभाषी न होते हुए भी पद्माकर जैसे आन्ध्र के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों ने हिन्दी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जितना योगदान दिया है वैसा अकादमिक उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। .

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पलायनवाद

पलायनवाद (Escapism) का कोशगत अर्थ है ऐसा साहित्य जो जीवनसंघर्ष से कुछ समय के लिए हमें दूर ले जा सके; जैसे जासूसी उपन्यास, संगीतात्मक सुखांत नाटक, चित्रपट आदि। किंतु यह अर्थ समझाने के पश्चात् शिपले न अपने अंगरेजी साहित्य कोश में यह भी लिखा है कि पलायनवादी साहित्य में जीवन से पलायन ही हो यह अनिवार्य नहीं है। पलायनवादी-साहित्य द्वारा जीवन का अनुसंधान भी होता है क्योंकि ऐसे साहित्य द्वारा हम जीवन की नीरस पुनरावृत्ति से कुछ क्षणों के लिए हटकर पुन: अधिक उत्साह से जीवनसंघर्ष में भाग ले सकते हैं। इस प्रकार पलायनवाद को प्रचलित अर्थ विवादास्पद है। .

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पजनेस

पजनेस हिन्दी के रीतिकाल के अंतिम दौर के समर्थ कवि थे। .

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प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

प्रतापगढ़ भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है, इसे लोग बेल्हा भी कहते हैं, क्योंकि यहां बेल्हा देवी मंदिर है जो कि सई नदी के किनारे बना है। इस जिले को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी अहम माना जाता है। यहां के विधानसभा क्षेत्र पट्टी से ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पदयात्रा के माध्यम से अपना राजनैतिक करियर शुरू किया था। इस धरती को रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि आचार्य भिखारीदास और राष्ट्रीय कवि हरिवंश राय बच्चन की जन्मस्थली के नाम से भी जाना जाता है। यह जिला धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी कि जन्मभूमि और महात्मा बुद्ध की तपोस्थली है। .

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बिहारी (साहित्यकार)

बिहारीलाल या बिहारी हिंदी के रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। .

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बेनी बंदीजन(रीतिग्रंथकार कवि)

बेनी बंदीजन रीतिकाल के हिन्दी कवि थे। बेनी बंदीजन रायबरेली जिले के बेंती नामक स्थान के निवासी और अवध के वजीर महाराज टिकैतराय के दरबारी कवि थे। शिवसिंह सेंगर के मतानुसार ये सं.

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बोधा

बोधा (जन्म: 1767, मृत्यु: 1806) हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवि थे। उन्हें विप्रलम्भ (वियोग) शृंगार रस की कविताओं के लिये जाना जाता है। वर्तमान उत्तर प्रदेश में बाँदा जिले के राजापुर ग्राम में जन्मे कवि बोधा का पूरा नाम बुद्धिसेन था। वर्तमान मध्य प्रदेश स्थित तत्कालीन पन्ना रियासत में बुद्धिसेन के कुछ सम्बंधी उच्च पदों पर आसीन थे। इस कारण बोधा को राजकवि का दर्ज़ा प्राप्त था। हिंदी साहित्य का इतिहास नामक हिन्दी ग्रन्थ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बोधा के नीति सम्बन्धी अनेक छन्दों का उल्लेख किया है। नकछेदी तिवारी द्वारा सम्पादित पुस्तक बोधा कवि का इश्कनामा में इनकी शृंगारपरक कविताओं को देखा जा सकता है। .

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भिखारीदास

भिखारीदास रीतिकाल के श्रेष्ठ हिन्दी थे। कवि और आचार्य भिखारीदास का जन्म प्रतापगढ़ के निकट टेंउगा नामक स्थान में सन् १७२१ ई० में हुआ था। इनकी मृत्यु बिहार में आरा के निकट भभुआ नामक स्थान पर हुई। भिखारीदास द्वारा लिखित सात कृतियाँ प्रामाणिक मानी गईं हैं- रस सारांश, काव्य निर्णय, शृंगार निर्णय, छन्दोर्णव पिंगल, अमरकोश या शब्दनाम प्रकाश, विष्णु पुराण भाषा और सतरंज शासिका हैं।.

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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भूषण (हिन्दी कवि)

भूषण (१६१३-१७१५) रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक हैं, अन्य दो कवि हैं बिहारी तथा केशव। रीति काल में जब सब कवि शृंगार रस में रचना कर रहे थे, वीर रस में प्रमुखता से रचना कर भूषण ने अपने को सबसे अलग साबित किया। 'भूषण' की उपाधि उन्हें चित्रकूट के राजा रूद्रसाह के पुत्र हृदयराम ने प्रदान की थी। ये मोरंग, कुमायूँ, श्रीनगर, जयपुर, जोधपुर, रीवाँ, शिवाजी और छत्रसाल आदि के आश्रय में रहे, परन्तु इनके पसंदीदा नरेश शिवाजी और बुंदेला थे। .

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मतिराम (बहुविकल्पी)

'मतिराम' से निम्नलिखित व्यक्तियों का बोध होता है.

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मुक्तक

मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। मुक्तक शब्द का अर्थ है ‘अपने आप में सम्पूर्ण’ अथवा ‘अन्य निरपेक्ष वस्तु’ होना.

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मैनेजर पाण्डेय

मैनेजर पाण्डेय (जन्म:23 सितंबर 1941 गोपालगंज, बिहार) हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना के प्रमुख हस्‍ताक्षरों में से एक हैं। उन्हें गम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचनात्मक लेखन के लिए पूरे देश में जाना जाता है। .

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रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि)

रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि) रसिक गोविन्द रीतिकाल के कवि थे। वे निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यास जी की शिष्य परंपरा में 'सर्वेश्वरशरण देव' जी बड़े भारी भक्त हुए हैं। रसिक गोविंद उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम 'शालिग्राम', माता का 'गुमाना' और बड़े भाई का नाम 'बालमुकुंद' था। इनका कविता काल संवत 1850 से 1890 तक अर्थात विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक प्रतीत होता है। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है - रामायण सूचनिका, रसिक गोविंदानंद घन, लछिमन चंद्रिका, अष्टदेशभाषा, पिंगल, समयप्रबंध, कलियुगरासो, रसिक गोविंद और युगलरस माधुरी। इनका असली नाम 'गोविन्द' था और ये जयपुर के रहनेवाले नटाणी जाति के वैश्य थे। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनका काव्यकाल संवत्.

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रसखान

रसखान (जन्म: १५४८ ई) कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है। .

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रामचन्द्र चन्द्रिका

रामचंद्रिका के नाम से विख्यात रामचंद्र चंद्रिका (रचनाकाल सन् १६०१ ई०) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के आरंभ के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास रचित महाकाव्य है। उनचालीस प्रकाशों (सर्गों) में विभाजित इस महाकाव्य में कुल १७१७ छंद हैं। इसमें सुविदित भगवान राम की कथा ही वर्णित है, फिर भी यह अन्य रामायणों की तरह भक्तिप्रधान ग्रन्थ न होकर काव्य ग्रन्थ ही है। .

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रूपसाहि(रीतिग्रंथकार कवि)

रूपसाहि रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। ये बागमहल पन्ना (बुंदेलखंड) के रहनेवाले और जाति के गुनियार कायस्थ थे। इनके पिता का नाम कमलनैन तथा पितामह का शिवराम था। इनके आश्रयदाता थे छत्रसालवंशीय महाराज हिंदूपति सिंह (सं. 1815-1834 वि.)। कवि ने इन्हीं के प्रीत्यर्थ अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'रूपविलास' की रचना की, जिसकी समाप्ति 4 सितंबर सन्‌ 1756 ई. को हुई थी। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के याज्ञिक संग्रहालय में इसकी एक हस्तलिखित प्रति वर्तमान है। पूरे ग्रंथ में 900 दोहे हैं और वह 14 'विलासों' में विभक्त है। यह रीतिग्रंथ काव्य के सर्वांग (विविधांग) पर विचार करता है- काव्यलक्षण, छंद (पिंगल), नौ रस, नायक नायिका, अलंकार और षड्ऋतु, आदि आदि। अलंकारों के वर्णन में कवि ने, 'भाषाभूषण' की परिपाटी को ग्रहण कर लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में दिए है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्होंने अनेक काव्यवृत्तियों को विभिन्न रसों का समर्वाय माना है। इस प्रकार, कवि का कृतित्व जितना काव्यशास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से महत्व का है उतना कवित्व के विचार से नहीं। .

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रीति काल

सन् १७०० ई. के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं। इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए। कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई। रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। केशवदास (ओरछा), प्रताप सिंह (चरखारी), बिहारी (जयपुर, आमेर), मतिराम (बूँदी), भूषण (पन्ना), चिंतामणि (नागपुर), देव (पिहानी), भिखारीदास (प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ (काशी), बेनी (किशनगढ़), गंग (दिल्ली), टीकाराम (बड़ौदा), ग्वाल (पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई (पटियाला), हरनाम (कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज (पन्ना), सुरति मिश्र (दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ (अमेठी), ऋषिनाथ (काशी), रतन कवि (श्रीनगर-गढ़वाल), बेनी बन्दीजन (अवध), बेनी प्रवीन (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), बोधा (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)। रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई। .

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रीतिमुक्त कवि

रीतिमुक्त कवि वे हैं जिन्होंने न तो लक्षण ग्रंथों की रचना की न ही लक्षण ग्रंथों की रीति से बँधकर अपनी रचनाएँ कीं। इस प्राकर रीतिकालीन कविता के दौर में भी ये लोग परंपरागत शैली से हट कर स्वच्छंद रूप से रचना करते रहे। रीतिकाल में एक ओर तो रीति का अनुपालन करने वाले कवि थे जो लक्षणों के अनुसार नख-शिख वर्णन में लगे हुए थे वहीं इसके विपरीत रीतिमुक्त कवियों ने संस्कृत साहित्य से सुन्दरी के लक्षण न लेकर प्रेम और श्रृंगार की की अभिव्यक्ति के लौकिक रूप को महत्व दिया जो भारतीय पद्धति में एक नई चीज के रूप में देखा जा सकता है। .

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शिवराज भूषण

शिवराज भूषण, कवि भूषण की प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल ३८५ पद्य हैं। भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि ज्येष्ठ वदी त्रयोदशी, रविवार, संम्वत् 1730 (29 अप्रैल, 1673 ई.) को दी है। इस ग्रन्थ में उल्लिखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है तथा साथ में शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में ३८५ छन्द हैं। रीतिकाल के कवि होने के कारण भूषण ने अपना प्रधान ग्रंथ 'शिवराजभूषण' अलंकार के ग्रंथ के रूप में बनाया। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा कवित्त एवं सवैया छन्दों में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्यकलापों का वर्णन किया गया है। शिवराज भूषण की एक बानगी देखिये- xxxx .

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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सतसई

सत्सैई सतसई, मुक्तक काव्य की एक विशिष्ट विधा है। इसके अंतर्गत कविगण 700 या 700 से अधिक दोहे लिखकर एक ग्रंथ के रूप में संकलित करते रहे हैं। "सतसई" शब्द "सत" और "सई" से बना है, "सत" का अर्थ सात और सई का अर्थ "सौ" है। इस प्रकार सतसई काव्य वह काव्य है जिसमें सात सौ छंद होते हैं। .

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सवैया

सवैया एक छन्द है। यह चार चरणों का समपाद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। इस प्रकार सामान्य जाति-वृत्तों से बड़े और वर्णिक दण्डकों से छोटे छन्द को सवैया समझा जा सकता है। कवित्त - घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं। .

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सुंदरदास

सुन्दरदास (चैत्र शुक्ल ९, सं. १६५३ वि. - कार्तिक शुक्ल ८, सं. १७४६ वि.) भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि थे। वे निर्गुण भक्त कवियों में सबसे अधिक शास्त्र निष्णात और सुशिक्षित संत कवि थे। सास्त्रज्ञानसंपन्न और काव्य कला निपुण कवि के रूप में सुंदरदास का हिंदी संत-काव्य-धारा के कवियों में विशिष्ट स्थान है। .

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सेनापति (कवि)

सेनापति भक्ति काल एवं रीति काल के सन्धियुग के कवि हैं। इनकी रचनाओं में हिन्दी साहित्य की दोनों धाराओं का प्रभाव पड़ा है जिनमें भक्ति और शृंगार दोनों का मिश्रण है। इनके ऋतु वर्णन में सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण पाया जाता है जो साहित्य में अद्वितीय है। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति सेनापति का जीवनवृत संदिग्ध है इनकी जानकारी भी कम प्राप्त है। कवित्त रत्नाकर के छन्द के आधार पर इतना ही ज्ञात है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तथा इनके पिता का नाम गंगाधर तथा पितामह का नाम परशुराम दीक्षित था। इनके एक पद 'गंगा तीर वसति अनूप जिन पाई है के अनुसार ये बुलंदशहर जिले के अनूप शहर के माने जाते हैं। सेनापति मुसलमानी दरबारों में भी रह चुके थे। सेनापति के दो मुख्य ग्रंथ हैं- 'काव्य-कल्पद्रुम तथा 'कवित्त-रत्नाकर। जिसकी उपमाएँ अनूठी हैं। सेनापति राम के विशेष भक्त थे। शिव तथा कृष्ण विषयक कविता लिखते हुए भी रूचि राम की ओर अधिक थी। उत्तर प्रदेश के अनूप शहर के रहने वाले थे परन्तु बाद के दिनों में वे वृन्दावन में क्षेत्र सन्यास लेकर वहीं सारा जीवन व्यतीत किए। सेनापति के काव्य में रीतिकालीन काव्य-परम्परा की झलक अधिकांश छन्दों में स्पष्ट रूप से विद्यमान है। चमत्कार प्रियता नायिका भेद के उदाहरण भी उनकी कृतियों में उपलब्ध है। .

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हिंदी साहित्य

चंद्रकांता का मुखपृष्ठ हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से जो कि ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई।हिंदी का आरंभिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है। गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। .

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हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक)

हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखे गए हिन्दी साहित्य का इतिहास को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में १९२९ ई० में प्रकाशित कराया गया। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जीवनचरित

प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और जीवनी-लेखक टामस कारलाइल ने अत्यंत सीधी सादी और संक्षिप्त परिभाषा में इसे "एक व्यक्ति का जीवन" कहा है। इस तरह किसी व्यक्ति के जीवन वृत्तांतों को सचेत और कलात्मक ढंग से लिख डालना जीवनचरित कहा जा सकता है। यद्यपि इतिहास कुछ हद तक, कुछ लोगों की राय में, महापुरुषों का जीवनवृत्त है तथापि जीवनचरित उससे एक अर्थ में भिन्न हो जाता है। जीवनचरित में किसी एक व्यक्ति के यथार्थ जीवन के इतिहास का आलेखन होता है, अनेक व्यक्तियों के जीवन का नहीं। फिर भी जीवनचरित का लेखक इतिहासकार और कलाकार के कर्त्तव्य के कुछ समीप आए बिना नहीं रह सकता। जीवनचरितकार एक ओर तो व्यक्ति के जीवन की घटनाओं की यथार्थता इतिहासकार की भाँति स्थापित करता है; दूसरी ओर वह साहित्यकार की प्रतिभा और रागात्मकता का तथ्यनिरूपण में उपयोग करता है। उसकी यह स्थिति संभवत: उसे उपन्यासकार के निकट भी ला देती है। जीवनचरित की सीमा का यदि विस्तार किया जाय तो उसके अंतर्गत आत्मकथा भी आ जायगी। यद्यपि दोनों के लेखक पारस्परिक रुचि और संबद्ध विषय की भिन्नता के कारण घटनाओं के यथार्थ आलेखन में सत्य का निर्वाह समान रूप से नहीं कर पाते। आत्मकथा के लेखक में सतर्कता के बावजूद वह आलोचनात्मक तर्कना चरित्र विश्लेषण और स्पष्टचारिता नहीं आ पाती जो जीवनचरित के लेखक विशिष्टता होती है। इस भिन्नता के लिये किसी को दोषी नहीं माना जा सकता। ऐसा होना पूर्णत: स्वाभाविक है। .

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घनानन्द

घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं.

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गंग कवि

कवि गंग या 'गंग कवि' (1538 -1625 ई.) हिन्दी के कवि थे। उनका वास्तविक नाम गंगाधर था। वे अकबर के दरबारी कवि थे। जन्म, निधनतिथि तथा जन्मस्थान विवादास्पद है। वैसे ये इकनौर (जिला इटावा) के ब्रह्मभट्ट(चंडिसा राव) कहे जाते हैं। शिवसिंह सेंगर के आधार पर मिश्रबंधु इनका जन्म सं.

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गंगा नदी

गंगा (गङ्गा; গঙ্গা) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर २,५१० किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी ही जाती हैं, मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाये जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है। .

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आदिकाल

आदिकाल सन 1000 से 1325 तक हिंदी साहित्य के इस युग को यह नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्लने वीरगाथा काल तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे वीरकाल नाम दिया है। इस काल की समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम प्रारंभिक काल किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल। डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको चारण-काल कहा है और राहुल संकृत्यायन ने सिद्ध-सामंत काल। इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है.

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आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास

आधुनिक काल १८५० से हिंदी साहित्य के इस युग को भारत में राष्ट्रीयता के बीज अंकुरित होने लगे थे। स्वतंत्रता संग्राम लड़ा और जीता गया। छापेखाने का आविष्कार हुआ, आवागमन के साधन आम आदमी के जीवन का हिस्सा बने, जन संचार के विभिन्न साधनों का विकास हुआ, रेडिओ, टी वी व समाचार पत्र हर घर का हिस्सा बने और शिक्षा हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार। इन सब परिस्थितियों का प्रभाव हिंदी साहित्य पर अनिवार्यतः पड़ा। आधुनिक काल का हिंदी पद्य साहित्य पिछली सदी में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा। जिसमें अनेक विचार धाराओं का बहुत तेज़ी से विकास हुआ। जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग,नयी कविता युग और साठोत्तरी कविता इन नामों से जाना गया, छायावाद से पहले के पद्य को भारतेंदु हरिश्चंद्र युग और महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के दो और युगों में बांटा गया। इसके विशेष कारण भी हैं। .

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आधुनिक काल

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हुआ। इसको हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है, जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। सं 1800 वि.

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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कवितावली

कवितावली गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित काव्य है। .

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कविशिक्षा

काव्यरचना संबंधी विधिविधान अथवा रीति की शिक्षा को कविशिक्षा कहते हैं। काव्यसर्जना की प्रतिभा यद्यपि प्राचीन काल से नैसर्गिक किंवा जन्मजात मानी जाती रही है, तथापि संस्कृत काव्यशास्त्र के लगभग सभी प्रमुख आचार्यों ने कवि के लिए सुशिक्षित एवं बहुश्रुत होना आवश्यक बताया है। भामह (काव्यलंकार, १.१०) ने ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी में कवियों के लिए शब्दार्थज्ञान की प्राप्ति, शब्दार्थवेत्ताओं की सेवा तथा अन्य कवियों के निबंधों का मनन कर लेने के पश्चात्‌ ही कविकर्म में प्रवृत्त होना उचित माना है। ८०० ई. के लगभग वामन (काव्यालंकारसूत्र, १:३ तथा ११) ने लोकव्यवहार, शब्दशास्त्र, अभिधान, कोश, छंदशास्त्र, कामशास्त्र कला तथा दंडनीति का ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त कवियों के लिए काव्यशास्त्र का उपदेश करनेवाले गुरुओं की सेवा भी जरूरी बताई है। ९०० ई. के लगभग राजशेखर ने "काव्यमीमांसा' के १८ अध्यायों में शास्त्रपरिचय, पदवाक्य, विवेक, पाठप्रतिष्ठा, काव्य के स्रोत, अर्थव्याप्ति, कविचर्या, राजचर्या, काव्यहरण, कविसमय, देशविभाग, कालविभाग, आदि विविध कविशिक्षोपयोगी विषयों का निरूपण किया है। वस्तुत: कविशिक्षा संबंधी सामग्री के लिए राजशेखरकृत "काव्यमीमांसा' मानक ग्रंथ है। इसीलिए राजशेखर के परवर्ती आचार्यों के कविशिक्षा पर लिखते समय "काव्यमीमांसा' में उपलब्ध सामग्री का जमकर उपयोग किया है। क्षेमेंद्र ने १०५० ई. के समीप अपने ग्रंथ कविकंठाभरण (संधि १: २) में काव्यरचना में रुचि रखनेवाले व्यक्तियों को निर्देश दिया है कि वे नाटक, शिल्पकौशल, सुंदर चित्र, मानवस्वभाव, समुद्र, नदी, पर्वत आदि विभिन्न स्थानों का निरीक्षण करने के साथ-साथ साहित्यमर्मज्ञ गुरुओं की सेवा तथा वाक्यार्थशून्य पदों के संनिवेश से काव्यसर्जना का अभ्यास आरंभ करें। वाग्भट (वाग्भटालंकार, १: २, ७ १६ तथा २६) ने ईसा की १२वीं शती के पूर्वार्ध में काव्यरचना के लिए विविध शास्त्रों, कविसमयों आदि के ज्ञान के अतिरिक्त कवि का छंदयोजना तथा अलंकारप्रयोग पर अधिकार होना भी आवश्यक माना है। इतना ही नहीं, वाग्भट ने तो यह भी कहा है कि कवि तभी काव्यरचना करे जब उसका मन प्रसन्न हो। हेमचंद्र (१०८८-११७२) के "काव्यानुशासन" अमरचंद्र (१३वीं शती ई.) के "काव्यकल्पलता', देवेश्वर (१४वीं शती ई.) के "कविकल्पलता' तथा केशव मिश्र (१६वीं शती ई.) के "अलंकारशेखर' इत्यादि ग्रंथों में कविशिक्षा संबंधी पर्याप्त विवरण उपलब्ध हैं जो अधिकांशत: राजशेखर के अनुसार हैं। हिंदी काव्यशास्त्र में कविशिक्षा संबंधी ग्रंथ बहुत कम हैं, तो भी रीतिकाल का पूरा काव्य संस्कृत के उपर्युक्त ग्रंथों से प्रभावित है और इस काल में संस्कृत ग्रंथों की मान्यताओं का परंपरा के रूप में अनुसरण भी किया गया है। आचार्य केशवदास (१५५५-१६१७ ई.) ने "कविप्रिया' में कविता के विषय, काव्यरचना के तरीके, कविनियम (कविसमय) तथा वर्णन परिपाटी को प्रस्तुत किया है। लेकिन उक्त ग्रंथ की अधिकांश सामग्री "अलंकारशेखर' और "काव्यकल्पलता' पर आधृत है। जगन्नाथप्रसाद "भानु' कृत "काव्यप्रभाकर' (१९१० ई. में प्रकाशित) में भी कविशिक्षा संबंधी प्रामाणिक सामग्री मिलती है। उर्दू साहित्य में नए कवि पुराने या प्रतिष्ठित कवियों के संमुख अपनी रचनाएँ इस्लाह (संशोधन) के लिए प्रस्तुत करते रहे हैं। यह भी एक प्रकार की कविशिक्षा ही है। आधुनिक हिंदी साहित्य (१९०० ई. से प्रारंभ) में न केवल साहित्य एवं काव्य संबंधी मान्यताएँ बदली हैं अपितु कविता के प्रतिमान भी परिवर्तित हो गए हैं। आज का कवि रूढ़ परिपाटियों से मुक्त होकर स्वंतत्रचेता होने का प्रयास कर रहा है। प्रकृति, व्यक्ति और समसामयिक सामाजिक परिवेश को वह नए ढंग से नवीन बिंबविधान एवं स्वप्रसूत सरलीकृत छंदों के माध्यम से रूपायित करने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। अत: काव्यरचना संबंधी पुराने विधिविधान उसे यथावत्‌ ग्राह्य नहीं हैं। परंतु कविता के स्वरूप तथा शक्ति को बनाए रखने के लिए प्राचीन काल की तरह आज भी यह आवश्यक है कि कवि काव्यरचना आरंभ करने के पूर्व काव्यभाषा, छंद, सामाजिक व्यवहार एवं परिवेश आदि से पूरी तरह परिचित हो जाए। .

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केशव

केशव का स्वचित्रण (१५७० ई) केशव या केशवदास (जन्म (अनुमानत) 1555 विक्रमी और मृत्यु (अनुमानत) 1618 विक्रमी) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं। वे संस्कृत काव्यशास्त्र का सम्यक् परिचय कराने वाले हिंदी के प्राचीन आचार्य और कवि हैं। इनका जन्म सनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीराम था जो ओड़छानरेश मधुकरशाह के विशेष स्नेहभाजन थे। मधुकरशाह के पुत्र महाराज इन्द्रजीत सिंह इनके मुख्य आश्रयदाता थे। वे केशव को अपना गुरु मानते थे। रसिकप्रिया के अनुसार केशव ओड़छा राज्यातर्गत तुंगारराय के निकट बेतवा नदी के किनारे स्थित ओड़छा नगर में रहते थे। .

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