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राहु

सूची राहु

राहु (16px) हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है। इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है। दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (२४ मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है। समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं। सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया। इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया। परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था। यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है। इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है। ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से,उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं। .

20 संबंधों: नवग्रह, नक्षत्र, फलज्योतिष, भीष्मपर्व, मघा, लल्ल, शतभिषा, शनि (ज्योतिष), शुक्र (ज्योतिष), समुद्र मन्थन, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सूर्य देवता, हनुमान, वैदिक ज्योतिष, वैदूर्यरत्न, ग्रह, गीतरामायणम्, केतु, अष्टधातु, असुर

नवग्रह

ग्रह (संस्कृत के ग्रह से - पकड़ना, कब्जे में करना) माता भूमिदेवी (पृथ्वी) के प्राणियों पर एक 'ब्रह्मांडीय प्रभावकारी' है। हिन्दू ज्योतिष में नवग्रह (संस्कृत: नवग्रह, नौ ग्रह या नौ प्रभावकारी) इन प्रमुख प्रभावकारियों में से हैं। राशि चक्र में स्थिर सितारों की पृष्ठभूमि के संबंध में सभी नवग्रह की सापेक्ष गतिविधि होती है। इसमें ग्रह भी शामिल हैं: मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, और शनि, सूर्य, चंद्रमा, और साथ ही साथ आकाश में अवस्थितियां, राहू (उत्तर या आरोही चंद्र आसंधि) और केतु (दक्षिण या अवरोही चंद्र आसंधि).

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नक्षत्र

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुड़े हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र सूची अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। .

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फलज्योतिष

फलज्योतिष astrology का भारत की परम्परा में नाम है। .

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भीष्मपर्व

भीष्म पर्व के अन्तर्गत ४ उपपर्व हैं और इसमें कुल १२२ अध्याय हैं। .

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मघा

मघा मघा नक्षत्र सूर्य की सिंह राशि में आता है। नक्षत्र स्वामी केतु है, इसकी महादशा 7 वर्ष की होती है। केतु को राहु का धड़ माना गया है, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो केतु पृथ्वी का दक्षिण छोर है। केतु प्रधान होने से ऐसे जातक जिद्दी स्वभाव के होते हैं। इनसे आदेशात्मक दृष्टि से कार्य नहीं निकाला जा सकता है। इन्हें प्रेम से कहा जाए तो ये हर कार्य कर सकते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे जातकों पर सूर्य व केतु के साथ-साथ लग्नानुसार प्रभाव होता है। मेष लग्न हो तो रा‍शि पंचम भाव में होगी। राशि स्वामी सूर्य होगा। सूर्य के साथ केतु की युति यदि पंचम भाव में हो तो ऐसे जातक विद्या में तेज होते हैं। इनकी संतान जिद्दी स्वभाव की व ऑपरेशन से भी हो सकती है। ये जुबान के पक्के होते हैं। यदि सूर्य लग्न में हो व केतु भी लग्न में हो तो उत्तम सफलता पाते हैं। प्रशासक राज्यमंत्री भी बन जाते हैं। लेकिन दांपत्य सुख में कहीं ना कहीं बाधा रहती है। वृषभ लग्न में सूर्य की राशि सिंह चतुर्थ भाव में होने से यदि नक्षत्र स्वामी भी चतुर्थ में हुआ तो जनता के बीच प्रसिद्ध होते हैं, मकान भूमि, भवन, माता का सुख उत्तम मिलता है। स्थानीय राजनीति में अधिक सफल होते हैं। .

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लल्ल

लल्लाचार्य (७२०-७९० ई) भारत के ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। वे शाम्ब के पौत्र तथा भट्टत्रिविक्रम के पुत्र थे। उन्होने 'शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रम्' (.

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शतभिषा

शतभिषा शतभिषा, नक्षत्रों में 24वाँ नक्षत्र है। इस नक्षत्र का स्वामी राहु है, इसकी दशा में 18 वर्ष है व कुंभ राशि के अंतर्गत आता है। जहाँ नक्षत्र स्वामी राहु है वहीं राशि स्वामी शनि है। राहु का प्रभाव लगभग शनि वृत ही पड़ता है। कुछ ज्योतिषियों ने इसकी दृष्टि मानी है, लेकिन जब आकाश मंडल में इसका अस्तित्व ही नहीं है तो दृष्टि कैसी? यदि राहु मेष लग्न में उच्च का हो तो इसके परिणाम भी शुभ मिलते हैं। मेष का राहु हो तो ऐसे जातक प्रबल रूप से शत्रुहंता होता है। गुप्त विद्या में सफलता मिलती है। संतान के मामलों में बाधा भी आती है। राहु मेष लग्न में षष्ठभाव में हो तो शत्रुहंता होगा। वृषभ लग्न में राहु हो तो ऐसे जातक पर स्त्री गामी भी होते हैं। द्वितीय भाव में होता वाणी में चतुरता होती है। सिंह, कन्या, मकर, कुंभ में हो तो उत्तम परिणाम देता है। अष्टम में हो तो गुप्त विद्या का जानकार बना देता है। वही ऐसे जातक भी सेक्सी होते हैं। यदि शनि का उच्च का स्वराशि का या मित्र राशि का हो तो ऐसे जातक निश्चित अपनी विद्या के बल पर उच्च सफलता पाते हैं। मिथुन लग्न में नक्षत्र स्वामी राहु लग्न में ऐसे हो तो राजनीति में उत्तम सफलता पाते हैं। वकालत में भी सफल होते हैं। चतुर्थ भाव में हो तो स्थानीय राजनीति में उत्तम सफलता मिलती है। तृतीय भाव में हो तो शत्रुहंता होगा। शनि की स्थिति में शनि में लग्न, चतुर्थ, नवम, पंचम में हो तो उत्तम सफलता पाने वाला होगा। कर्क लग्न में नक्षत्र स्वामी दशम में हो तो ऐसे राजनीतिक गु्रु विद्या में सफल होते हैं। राहु की स्थिति तृतीय, एकादश, सप्तम में ठीक रहेगी। राशि स्वामी भी यदि मित्र स्वराशि का हो तो परिणाम भी शुभ मिलेंगे। सिंह लग्न में राहु लग्न में हो तो चतुर्थ एकादश में हो तो दशम, द्वितीय, षष्ठ में शुभ रहेगा। कन्या लग्न में राहु दशम भाव में सफल राजनीतिज्ञ बना देता है। लग्न, पंचम, नवम में भी शुभ फल देगा। स्वामी शनि पंचम, नवम, एकादश, दशम लग्न में होतो उत्तम रहेगा। शनि चतुर्थ, पंचम, नवम में शुभ रहेगा। वृश्चिक लग्न में राहु दशम, एकादश, चतुर्थ, तृतीय भाव में शुभफलदायी रहेगा। वहीं शनि की स्थिति सप्तम, एकादश, तृतीय भाव में नवम में हो तो ठीक रहेगा वहीं शनि दशम में सप्तम, द्वितीय, तृतीय, एकादश में शुभफलदायी रहेगा। मकर लग्न में राहु षष्ठ, पंचम, लग्न, नवम में शनि दशम लग्न नवम षष्ठ में शुभफलदायी रहेगा। कुंभ लग्न में राहु चतुर्थ, पंचम, लग्न, नवम, षष्ठ में शुभफलदायी रहेगा। कुंभ लग्न में राहु चतुर्थ, पंचम, सप्तम में शुभफलदायी रहेगा। शनि लग्न, चतुर्थ, पंचम, नवम में ठीक फल देगा। .

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शनि (ज्योतिष)

बण्णंजी, उडुपी में शनि महाराज की २३ फ़ीट ऊंची प्रतिमा शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं।शनिदेव को सूर्य पुत्र एवं कर्मफल दाता माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है।मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ उचित न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को दण्डिंत (प्रताडित) करते हैं। वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:। अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥ भावार्थ:-शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं। .

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शुक्र (ज्योतिष)

शुक्र (शुक्र, ശുക്രൻ, ಶುಕ್ರ, சுக்ரன், IAST Śukra), जिसका संस्कृत भाषा में एक अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ, भृगु ऋषि के पुत्र एवं दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का प्रतीक शुक्र ग्रह है। भारतीय ज्योतिष में इसकी नवग्रह में भी गिनती होती है। यह सप्तवारों में शुक्रवार का स्वामी होता है। यह श्वेत वर्णी, मध्यवयः, सहमति वाली मुखाकृति के होते हैं। इनको ऊंट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार दिखाया जाता है। ये हाथों में दण्ड, कमल, माला और कभी-कभार धनुष-बाण भी लिये रहते हैं। उषानस एक वैदिक ऋषि हुए हैं जिनका पारिवारिक उपनाम था काव्य (कवि के वंशज, अथर्व वेद अनुसार जिन्हें बाद में उषानस शुक्र कहा गया। .

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समुद्र मन्थन

अंगकोर वाट में समुद्र मंथन का भित्ति चित्र। समुद्र मन्थन एक प्रसिद्ध हपौराणिक katha है। यह कथा भागवत पुराण, महाभारत तथा विष्णु पुराण में आती है। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सूर्य देवता

कोई विवरण नहीं।

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हनुमान

हनुमान (संस्कृत: हनुमान्, आंजनेय और मारुति भी) परमेश्वर की भक्ति (हिंदू धर्म में भगवान की भक्ति) की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान हैं। वह कुछ विचारों के अनुसार भगवान शिवजी के ११वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। रामायण के अनुसार वे जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमान जी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमान जी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है। ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले तथा लोकमान्यता के अनुसार त्रेतायुग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे भारत देश में आज के झारखंड राज्य के गुमला जिले के आंजन नाम के छोटे से पहाड़ी गाँव के एक गुफ़ा में हुआ था। इन्हें बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि इनका शरीर एक वज्र की तरह था। वे पवन-पुत्र के रूप में जाने जाते हैं। वायु अथवा पवन (हवा के देवता) ने हनुमान को पालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मारुत (संस्कृत: मरुत्) का अर्थ हवा है। नंदन का अर्थ बेटा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार हनुमान "मारुति" अर्थात "मारुत-नंदन" (हवा का बेटा) हैं। हनुमान प्रतिमा .

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वैदिक ज्योतिष

भारतीय संस्कृति का आधार वेद को माना जाता है। वेद धार्मिक ग्रंथ ही नहीं है बल्कि विज्ञान की पहली पुस्तक है जिसमें चिकित्सा विज्ञान, भौतिक, विज्ञान, रसायन और खगोल विज्ञान का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। भारतीय ज्योतिष विद्या का जन्म भी वेद से हुआ है। वेद से जन्म लेने के कारण इसे वैदिक ज्योतिष के नाम से जाना जाता है। वैदिक ज्योतिष की परिभाषा वैदिक ज्योतिष को परिभाषित किया जाए तो कहेंगे कि वैदिक ज्योतिष ऐसा विज्ञान या शास्त्र है जो आकाश मंडल में विचरने वाले ग्रहों जैसे सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध के साथ राशियों एवं नक्षत्रों का अध्ययन करता है और इन आकाशीय तत्वों से पृथ्वी एवं पृथ्वी पर रहने वाले लोग किस प्रकार प्रभावित होते हैं उनका विश्लेषण करता है। वैदिक ज्योतिष में गणना के क्रम में राशिचक्र, नवग्रह, जन्म राशि को महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा जाता है। राशि और राशिचक्र राशि और राशिचक्र को समझने के लिए नक्षत्रों को को समझना आवश्यक है क्योकि राशि नक्षत्रों से ही निर्मित होते हैं। वैदिक ज्योतिष में राशि और राशिचक्र निर्धारण के लिए 360 डिग्री का एक आभाषीय पथ निर्धारित किया गया है। इस पथ में आने वाले तारा समूहों को 27 भागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक तारा समूह नक्षत्र कहलाते हैं। नक्षत्रो की कुल संख्या 27 है। 27 नक्षत्रो को 360 डिग्री के आभाषीय पथ पर विभाजित करने से प्रत्येक भाग 13 डिग्री 20 मिनट का होता है। इस तरह प्रत्येक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनट का होता है। वैदिक ज्योतिष में राशियो को 360 डिग्री को 12 भागो में बांटा गया है जिसे भचक्र कहते हैं। भचक्र में कुल 12 राशियां होती हैं। राशिचक्र में प्रत्येक राशि 30 डिग्री होती है। राशिचक्र में सबसे पहला नक्षत्र है अश्विनी इसलिए इसे पहला तारा माना जाता है। इसके बाद है भरणी फिर कृतिका इस प्रकार क्रमवार 27 नक्षत्र आते हैं। पहले दो नक्षत्र हैं अश्विनी और भरणी हैं जिनसे पहली राशि यानी मेष का निर्माण होता हैं इसी क्रम में शेष नक्षत्र भी राशियों का निर्माण करते हैं। '''नवग्रह''' वैदिक ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि और राहु केतु को नवग्रह के रूप में मान्यता प्राप्त है। सभी ग्रह अपने गोचर मे भ्रमण करते हुए राशिचक्र में कुछ समय के लिए ठहरते हैं और अपना अपना राशिफल प्रदान करते हैं। राहु और केतु आभाषीय ग्रह है, नक्षत्र मंडल में इनका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। ये दोनों राशिमंडल में गणीतीय बिन्दु के रूप में स्थित होते हैं। '''लग्न और जन्म राशि''' पृथ्वी अपने अक्ष पर 24 घंटे में एक बार पश्चिम से पूरब घूमती है। इस कारण से सभी ग्रह नक्षत्र व राशियां 24 घंटे में एक बार पूरब से पश्चिम दिशा में घूमती हुई प्रतीत होती है। इस प्रक्रिया में सभी राशियां और तारे 24 घंटे में एक बार पूर्वी क्षितिज पर उदित और पश्चिमी क्षितिज पर अस्त होते हुए नज़र आते हैं। यही कारण है कि एक निश्चित बिन्दु और काल में राशिचक्र में एक विशेष राशि पूर्वी क्षितिज पर उदित होती है। जब कोई व्यक्ति जन्म लेता है उस समय उस अक्षांश और देशांतर में जो राशि पूर्व दिशा में उदित होती है वह राशि व्यक्ति का जन्म लग्न कहलाता है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि में बैठा होता है उस राशि को जन्म राशि या चन्द्र लग्न के नाम से जाना जाता है। श्रेणी:भारतीय ज्योतिष श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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वैदूर्यरत्न

हीरा,मोती और जवाहरात में यह भी एक रत्न होता है, इसकी बनावट दुरंगा पत्थर की भांति होती है, अंग्रेजी में केट्स आई भी कहते है।शनि के दो शिष्य राहु और केतु माने जाते हैं,राहु शनि का मुख औरकेतु शनि की पूंछ मानी जाती है, जब जातक को साधारण कष्ट देना होता है, तो शनि केतु को जातक को प्रताडित करने का आदेश देता है, और बुराई या बुराई करने वाले जातक को खत्म करने का शनि मानस बनाता है तो यह राहु को आदेश देता है। श्रेणी:ज्योतिष श्रेणी:शनि देव.

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ग्रह

हमारे सौरमण्डल के ग्रह - दायें से बाएं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून सौर मंडल के ग्रहों, सूर्य और अन्य पिंडों के तुलनात्मक चित्र सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ के अनुसार हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह हैं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून। इनके अतिरिक्त तीन बौने ग्रह और हैं - सीरीस, प्लूटो और एरीस। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अन्तर इस तरह किया- रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिण्ड हमेशा पूरब की दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति प्राप्त करते हैं और पश्चिम की दिशा में अस्त होते हैं। इन पिण्डों का आपस में एक दूसरे के सापेक्ष भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन पिण्डों को तारा कहा गया। पर कुछ ऐसे भी पिण्ड हैं जो बाकी पिण्डों के सापेक्ष में कभी आगे जाते थे और कभी पीछे - यानी कि वे घुमक्कड़ थे। Planet एक लैटिन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है इधर-उधर घूमने वाला। इसलिये इन पिण्डों का नाम Planet और हिन्दी में ग्रह रख दिया गया। शनि के परे के ग्रह दूरबीन के बिना नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों को केवल पाँच ग्रहों का ज्ञान था, पृथ्वी को उस समय ग्रह नहीं माना जाता था। ज्योतिष के अनुसार ग्रह की परिभाषा अलग है। भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु। .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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केतु

केतु (16px) भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है। केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है। यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था। यह एक छाया ग्रह है। धर्म डेस्क- दैनिक भास्कर। उज्जैन। ०६ जून २०१२। अभिगमन तिथि: ०४ अक्टूबर २०१२ माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है। कुछ मनुष्यों के लिये ये ग्रह ख्याति पाने का अत्यंत सहायक रहता है। केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है। .

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अष्टधातु

अष्टधातु, (शाब्दिक अर्थ .

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असुर

मैसूर में महिषासुर की प्रतिमा हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, अर्धदेवों के रूप में चित्रित किया गया है। ये अच्छे और बुरे दोनों गुणों वाले हैं। अच्छे गुणों वाले असुरों को 'अदित्य' तथा बुरे गुणों से युक्त असुरों को 'दानव' कहा गया है। 'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु)। पतंजलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। .

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