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रामायण

सूची रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

370 संबंधों: चन्द्रशेखर वेंकटरमन, चन्दौली, चन्दौली जिला, चारण और भाट, चारसद्दा ज़िला, चित्रकला, चैत्य, चेरुशेरी नम्बूतिरी, चीन में हिन्दी, ताड़का, तारा (रामायण), तक्षशिला, तुलसी पीठ, तुलसीदास, तुंगभद्रा नदी, त्रिजटा, तोषमणि, तीर्थंकर, दरभंगा, दशरथ, दुंदुभि, दैवज्ञ, दूत, देहरादून जिला, दोहद, दीपावली, धनुषा जिला, धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान, धर्मपाल (रामायण), धर्मवीर भारती, धृष्टि, नथुराम विनायक गोडसे, नर्मदा नदी, नल-नील, नारायण प्रसाद 'बेताब', नागराज, नागराज (कॉमिक्स), निष्पादन कलाएँ, नुक्कड़ नाटक का इतिहास, न्यायशास्त्र (भारतीय), नृत्य, नेपाली साहित्य, नीति, नील (बहुविकल्पी), पत्तदकल स्मारक परिसर, पम्पा सरोवर, परशुराम, पर्णिन अश्व तारामंडल, पश्चिमी चंपारण, पह्लव, ..., पारस, पारसी रंगमंच, पालि भाषा, पाकिस्तान में हिन्दू धर्म, पितृमेध, पक्षीविज्ञान, पुराण, पुलिंद, पुष्पक विमान, पुष्कर, पुष्कलावती, प्रतापगढ़, राजस्थान, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, प्रतिमानाटक, प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन, प्राकृत साहित्य, पूर्णागिरी, फ़िजी, फ्र नखोन सी 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चन्द्रशेखर वेंकटरमन

सीवी रमन (तमिल: சந்திரசேகர வெங்கடராமன்) (७ नवंबर, १८८८ - २१ नवंबर, १९७०) भारतीय भौतिक-शास्त्री थे। प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य के लिये वर्ष १९३० में उन्हें भौतिकी का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिया गया। उनका आविष्कार उनके ही नाम पर रामन प्रभाव के नाम से जाना जाता है। १९५४ ई. में उन्हें भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया तथा १९५७ में लेनिन शान्ति पुरस्कार प्रदान किया था। .

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चन्दौली

चंदौली भारत के उत्तर प्रदेश का एक शहर और एक नगर पंचायत है। यह चंदौली जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है। .

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चन्दौली जिला

चंदौली भारत के एक राज्य उत्तर प्रदेश के वाराणसी मण्डल का एक जनपद है। यह जनपद उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में बिहार की सीमा से लगा हुआ है। .

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चारण और भाट

चारण .

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चारसद्दा ज़िला

ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत में चारसद्दा ज़िला (लाल रंग में) चारसद्दा का मशहूर चप्पल बाज़ार चारसद्दा (उर्दू:, पश्तो:, अंग्रेज़ी: Charsadda) पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत के मध्य भाग में स्थित एक ज़िला है। इस ज़िले की राजधानी चारसद्दा नाम का ही शहर है। यह ज़िला पहले पेशावर महानगर का हिस्सा हुआ करता था। माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीन नगरी पुष्कलावती, जिसका रामायण में भी ज़िक्र आता है, इसी चारसद्दा ज़िले में स्थित थी।, Raj Kumar Pruthi, APH Publishing, 2004, ISBN 978-81-7648-581-4,...

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चित्रकला

राजा रवि वर्मा कृत 'संगीकार दीर्घा' (गैलेक्सी ऑफ म्यूजिसियन्स) चित्रकला एक द्विविमीय (two-dimensional) कला है। भारत में चित्रकला का एक प्राचीन स्रोत विष्णुधर्मोत्तर पुराण है। .

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चैत्य

एलोरा (गुफा संख्या. १०) - अष्टभुजाकार स्तम्भों वाला चैत्य अजन्ता का चैत्य संख्या १९ अजन्ता गुफा संख्या २६ का चैत्य हाल एक चैत्य एक बौद्ध या जैन मंदिर है जिसमे एक स्तूप समाहित होता है। भारतीय वास्तुकला से संबंधित आधुनिक ग्रंथों में, शब्द चैत्यगृह उन पूजा या प्रार्थना स्थलों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जहाँ एक स्तूप उपस्थित होता है। चैत्य की वास्तुकला और स्तंभ और मेहराब वाली रोमन डिजाइन अवधारणा मे समानताएँ दिखती हैं। .

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चेरुशेरी नम्बूतिरी

चेरुशेरी नम्बूतिरी (१३७५-१४७५) कृष्ण गाधा के लेखक है। इस महाकाव्य को मलयालम महीने के दौरान कृष्ण की पूजा के एक अधिनियम के रूप में भारत में किया जाता है। चेरुशेरी नम्बूतिरी १३७५ और १४७५ ए.डी के बीच रहता करते है। चेरुशेरी उनका पैतृक इल्लम का नाम है।। उनका जन्म कन्नूर जिले उत्तर मलबार के कोलत्तुनाडु के कानत्तूर ग्राम में हुए। अनेक विद्वानों का राय यह है की वो पूनत्तिल नम्बूतिरी के अलावा अन्य कोई नही है। वह एक अदालत कवी और कोलत्तुनाडु की उदयवर्मा राजा के आश्रित थे। .

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चीन में हिन्दी

चीन की विभिन्न संस्थाओं में लगभग 80 विदेशी भाषाएँ पढ़ाई जा रही हैं।http://www.ibnlive.com/news/india/hindi-set-to-make-debut-in-south-china-481952.html इनमें हाल के कुछ वर्षों में हिन्दी यहाँ की एक लोकप्रिय भाषा बनकर उभरी है। .

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ताड़का

रामायण की एक पात्र। यह सुकेतु यक्ष की पुत्री थी जिसका विवाह सुड नामक राक्षस के साथ हुआ था। यह अयोध्या के समीप स्थित सुंदर वन में अपने पति और दो पुत्रों सुबाहु और मारीच के साथ रहती थी। उसके शरीर में हजार हाथियों का बल था। उसके प्रकोप से सुंदर वन का नाम ताड़का वन पड़ गया था। उसी वन में विश्वामित्र सहित अनेक ऋषि-मुनि भी रहते थे। उनके जप, तप और यज्ञ में ये राक्षस गण हमेशा बाधाएँ खड़ी करते थे। विश्वामित्र राजा दशरथ से अनुरोध कर राम और लक्ष्मण को अपने साथ सुंदर वन लाए। राम ने ताड़का का और विश्वामित्र के यज्ञ की पूर्णाहूति के दिन सुबाहु का भी वध कर दिया। मारीच उनके बाण से आहत होकर दूर दक्षिण में समुद्र तट पर जा गिरा। .

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तारा (रामायण)

लक्ष्मण तारा (सबसे बायें) से मिलते हुये, उसका दूसरा पति सुग्रीव (बायें से दूसरा) तथा हनुमान (सबसे दायें) किष्किन्धा के महल में तारा हिन्दू महाकाव्य रामायण में वानरराज वालि की पत्नी है। तारा की बुद्धिमता, प्रत्युत्पन्नमतित्वता, साहस तथा अपने पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को सभी पौराणिक ग्रन्थों में सराहा गया है। तारा को हिन्दू धर्म ने पंचकन्याओं में से एक माना है। पौराणिक ग्रन्थों में पंचकन्याओं के विषय में कहा गया है:- अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा। पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥ (अर्थात् अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं) हालांकि तारा को मुख्य भूमिका में वाल्मीकि रामायण में केवल तीन ही जगह दर्शाया गया है, लेकिन उसके चरित्र ने रामायण कथा को समझनेवालों के मन में एक अमिट छाप छोड़ दी है। जिन तीन जगह तारा का चरित्र मुख्य भूमिका में है, वह इस प्रकार हैं:-.

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तक्षशिला

तक्षशिला में प्राचीन बौद्ध मठ के भग्नावशेष तक्षशिला (पालि: तक्कसिला) प्राचीन भारत में गांधार देश की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ का विश्वविद्यालय विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में शामिल है। यह हिन्दू एवं बौद्ध दोनों के लिये महत्व का केन्द्र था। चाणक्य यहाँ पर आचार्य थे। ४०५ ई में फाह्यान यहाँ आया था। ऐतिहासिक रूप से यह तीन महान मार्गों के संगम पर स्थित था- (१) उत्तरापथ - वर्तमान ग्रैण्ड ट्रंक रोड, जो गंधार को मगध से जोड़ता था, (२) उत्तरपश्चिमी मार्ग - जो कापिश और पुष्कलावती आदि से होकर जाता था, (३) सिन्धु नदी मार्ग - श्रीनगर, मानसेरा, हरिपुर घाटी से होते हुए उत्तर में रेशम मार्ग और दक्षिण में हिन्द महासागर तक जाता था। वर्तमान समय में तक्षशिला, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील तथा महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी से लगभग ३२ किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। ग्रैंड ट्रंक रोड इसके बहुत पास से होकर जाता है। यह स्थल १९८० से यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में सम्मिलित है। वर्ष २०१० की एक रिपोर्ट में विश्व विरासत फण्ड ने इसे उन १२ स्थलों में शामिल किया है जो अपूरणीय क्षति होने के कगार पर हैं। इस रिपोर्ट में इसका प्रमुख कारण अपर्याप्त प्रबन्धन, विकास का दबाव, लूट, युद्ध और संघर्ष आदि बताये गये हैं। .

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तुलसी पीठ

तुलसी पीठ सेवा न्यास जानकी कुंड, चित्रकूट, मध्य प्रदेश में स्थित एक भारतीय धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्था है। इसे हिंदू धार्मिक नेता जगद्गुरु रामभद्राचार्य द्वारा २ अगस्त १९८७ को स्थापित किया गया था। रामभद्राचार्य का मानना है कि जहाँ पर यह पीठ स्थित है, उस जगह रामायण के अनुसार, राम ने अपने भाई भरत को अपनी चप्पले दी थी।नागर २००२, प्र.

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तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म राजापुर जिला बाँदा(वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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तुंगभद्रा नदी

तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत में बहने वाली एक पवित्र नदी हैं। यह कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश में बहती हुई आन्ध्र प्रदेश में एक बड़ी नदी कृष्णा नदी में मिल जाती है। रामायण में तुंगभद्रा को पंपा के नाम से जाना जाता था। तुंगभद्रा नदी का जन्म तुंगा एवं भद्रा नदियों के मिलन से हुआ है। ये पश्चिमी घाट के पूर्वा ढाल से होकर बहती है। पश्चिमी घाट के गंगामूला नामक स्थान से (उडुपी के पास) समुद्र तल से कोई ११९८ मीटर की ऊँचाई से तुंग तथा भद्रा नदियों का जन्म होता है जो शिमोगा के पास जाकर सम्मिलित होती हैं जहाँ से इसे तुंगभद्रा कहते हैं। उत्तर-पूर्व की ओर बहती हुई, आंध्रप्रदेश में महबूब नगर ज़िले में गोंडिमल्ला में जाकर ये कृष्णा नदी से मिल जाती है। इसके किनारों पर कई हिंदू धार्मिक स्थान हैं। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शृंगेरी मठ तुंगा नदी के बांई तट पर बना है और इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध है। चौदहवीं सदी में स्थापित दक्कनी विजयनगर साम्राज्य की राजधानी रही हंपी भी इसी के किनारे स्थित है। हंपी में बहती तुंगभद्रा नदी हम्पी के निकट तुंग नदी एवं भद्रा नदी के संगम से तुंगभद्रा नदी का उद्गम होता है। .

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त्रिजटा

त्रिजटा रामायण की एक पात्रा हैं। त्रिजटा मुख्य साध्वी, राक्षसी प्रमुख थी। मन्दोदरी ने सीताजी की देख-रेख के लिए उसे विशेष रूप से सुपुर्द किया था। वह राक्षसी होते हुए भी सीता की हितचिंतक थी। रावन के बाहर होने पर लंका की सत्ता मन्दोदरी के हाथ में थी तथा मन्दोदरी ने सीता के साथ रावन को महल में प्रवेष की अनुमति नहीं दिया। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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तोषमणि

तोषमणि हिन्दी कवि थे। .

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तीर्थंकर

जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की हो)। तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे "तीर्थ" (पायाब), एक जैन समुदाय के संस्थापक हैं, जो "पायाब" के रूप में "मानव कष्ट की नदी" को पार कराता है। .

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दरभंगा

भारत प्रान्त के उत्तरी बिहार में बागमती नदी के किनारे बसा दरभंगा एक जिला एवं प्रमंडलीय मुख्यालय है। दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत तीन जिले दरभंगा, मधुबनी, एवं समस्तीपुर आते हैं। दरभंगा के उत्तर में मधुबनी, दक्षिण में समस्तीपुर, पूर्व में सहरसा एवं पश्चिम में मुजफ्फरपुर तथा सीतामढ़ी जिला है। दरभंगा शहर के बहुविध एवं आधुनिक स्वरुप का विकास सोलहवीं सदी में मुग़ल व्यापारियों तथा ओईनवार शासकों द्वारा विकसित किया गया। दरभंगा 16वीं सदी में स्थापित दरभंगा राज की राजधानी था। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर विख्यात रहा है। इसके अलावा यह जिला आम और मखाना के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। .

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दशरथ

दशरथ ऋष्यश्रृंग को लेने के लिए जाते हुए दशरथ वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के रघुवंशी (सूर्यवंशी) राजा थे। वह इक्ष्वाकु कुल के थे तथा प्रभु श्रीराम, जो कि विष्णु का अवतार थे, के पिता थे। दशरथ के चरित्र में आदर्श महाराजा, पुत्रों को प्रेम करने वाले पिता और अपने वचनों के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति दर्शाया गया है। उनकी तीन पत्नियाँ थीं – कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी। अंगदेश के राजा रोमपाद या चित्ररथ की दत्तक पुत्री शान्ता महर्षि ऋष्यशृंग की पत्नी थीं। एक प्रसंग के अनुसार शान्ता दशरथ की पुत्री थीं तथा रोमपाद को गोद दी गयीं थीं। .

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दुंदुभि

दुंदुभि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में एक भैंसा रूपी असुर है। वह माया नाम की असुर का पुत्र तथा मायावी नामक असुर का छोटा भाई बताया गया है। दोनों भाइयों का वध बालि के हाथों हुआ था। .

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दैवज्ञ

जॉन विलियम वाटरहाउस द्वारा रचित "दैवज्ञ से परामर्श"; जिसमे आठ महिला पुरोहितों को भविष्यवाणी के एक मंदिर में दिखाया गया है प्राचीन पुरातनता में, दैवज्ञ एक व्यक्ति या एजेंसी को कहा जाता था जिसे ईश्वरप्रेरित बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह या भविष्यसूचक (पूर्वकथित) विचार, भविष्यवाणियों या पूर्व ज्ञान का एक स्रोत माना जाता था। इस प्रकार यह भविष्यवाणी का एक रूप है। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन क्रिया ōrāre (अर्थात "बोलना") से हुई है एवं यह सही-सही भविष्यवाणी करने वाले पुजारी या पुजारिन को संदर्भित करता है। विस्तृत प्रयोग में, दैवज्ञ अपने स्थल, एवं यूनानी भाषा में khrēsmoi (χρησμοί) कहे जाने वाले दैवीय कथनों को भी संदर्भित कर सकता है। देवज्ञों को ऐसा प्रवेश-द्वार माना जाता था जिसके माध्यम से ईश्वर मनुष्य से सीधे बात करते थे। इस अर्थ में, वे भविष्यद्रष्टाओं (manteis, μάντεις) से भिन्न होते थे जो पक्षियों के चिह्नों, पशु की अंतरियों एवं अन्य विभिन्न विधियों के माध्यम से ईश्वर के द्वारा भेजे गए प्रतीकों की व्याख्या करते थे।फ्लॉवर, माइकल एत्यह.

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दूत

मोहम्मद अली मुगल साम्राज्य में भेजे गये ईरान के शाह अब्बास के दूत थे। दूत संदेशा देने वाले को कहते हैं। दूत का कार्य बहुत महत्व का माना गया है। प्राचीन भारतीय साहित्य में अनेक ग्रन्थों में दूत के लिये आवश्यक गुणों का विस्तार से विवेचन किया गया है। रामायण में लक्ष्मण से हनुमान का परिचय कराते हुए श्रीराम कहते हैं - (अवश्य ही इन्होने सम्पूर्ण व्याकरण सुन लिया लिया है क्योंकि बहुत कुछ बोलने के बाद भी इनके भाषण में कोई त्रुटि नहीं मिली।। यह बहुत अधिक विस्तार से नहीं बोलते; असंदिग्ध बोलते हैं; न धीमी गति से बोलते हैं और न तेज गति से। इनके हृदय से निकलकर कंठ तक आने वाला वाक्य मध्यम स्वर में होता है। ये कयाणमयी वाणी बोलते हैं जो दुखी मन वाले और तलवार ताने हुए शत्रु के हृदय को छू जाती है। यदि ऐसा व्यक्ति किसी का दूत न हो तो उसके कार्य कैसे सिद्ध होंगे?) इसमें दूत के सभी गुणों का सुन्दर वर्णन है। .

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देहरादून जिला

यह लेख देहरादून जिले के विषय में है। नगर हेतु देखें देहरादून। देहरादून, भारत के उत्तराखंड राज्य की राजधानी है इसका मुख्यालय देहरादून नगर में है। इस जिले में ६ तहसीलें, ६ सामुदायिक विकास खंड, १७ शहर और ७६४ आबाद गाँव हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ १८ गाँव ऐसे भी हैं जहाँ कोई नहीं रहता। देश की राजधानी से २३० किलोमीटर दूर स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यह नगर अनेक प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों के कारण भी जाना जाता है। यहाँ तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग, सर्वे ऑफ इंडिया, भारतीय पेट्रोलियम संस्थान आदि जैसे कई राष्ट्रीय संस्थान स्थित हैं। देहरादून में वन अनुसंधान संस्थान, भारतीय राष्ट्रीय मिलिटरी कालेज और इंडियन मिलिटरी एकेडमी जैसे कई शिक्षण संस्थान हैं। यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। अपनी सुंदर दृश्यवाली के कारण देहरादून पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और विभिन्न क्षेत्र के उत्साही व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। विशिष्ट बासमती चावल, चाय और लीची के बाग इसकी प्रसिद्धि को और बढ़ाते हैं तथा शहर को सुंदरता प्रदान करते हैं। देहरादून दो शब्दों देहरा और दून से मिलकर बना है। इसमें देहरा शब्द को डेरा का अपभ्रंश माना गया है। जब सिख गुरु हर राय के पुत्र रामराय इस क्षेत्र में आए तो अपने तथा अनुयायियों के रहने के लिए उन्होंने यहाँ अपना डेरा स्थापित किया। www.sikhiwiki.org.

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दोहद

दोहद शब्द का अर्थ 'गर्भवती की इच्छा' है। संभवत: यह संस्कृत 'दौहृद' शब्द का प्राकृत रूप है जो संस्कृत में गृहीत अन्य प्राकृत शब्दों के समान स्वीकृत हो गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार गर्भिणी स्त्री का यह प्रिय आचरण है जिसे अवश्य पूरा करना चाहिए। यदि गभिणी स्त्री की इस प्रकार की आकांक्षाएँ पूर्ण न की जाएँ, उन्हें गर्भावस्था में जिन वस्तुओं की इच्छा होती है वे न दी जाएँ तो गर्भविकृति, मरण एवं अन्यान्य दोष होते हैं। सुश्रुत (शरीरस्थान) में 'दोहद' का विषयविवेचन इस प्रकार है - स्त्रियों के गर्भवती होने से चौथे महीने में गर्भ के अंग प्रत्यंग और चैतन्य शक्ति का विकास होता है तथा चेतना का आधार हृदय भी इसी महीने में उत्पन्न होता है। इसी समय इंद्रियों को कुछ न कुछ विषयभोग करने की इच्छा होती है। इसे अभिलाषपूरण अर्थात् ईपिसत वस्तु देना कहते हैं। इस काल में स्त्रियों का देह दो हृदयवाला अर्थात् एक अपना और दूसरा गर्भस्थ संतान का होता है। अत: इस तात्कालिक अभिलाषा को 'दोहद' कहते हैं। उनकी यह अभिलाषा अगर पूर्ण न की जाए तो गर्भस्थ संतान कुब्ज, कूणि, खंज, जड़, वामन, विकृताक्ष, अथवा अंध होती है तथा अन्यान्य गर्भपीड़ा की आशकों बनी रहती है। ईप्सित दोहद की पूर्ति होने पर गर्भिणी की संतान बलवान्, गुणवान् एवं दीर्घजीवी होती है। नहीं तो गर्भ के विषय में अथवा स्वयं गर्भिणी के लिए डर बना रहता है। विभिन्न इंद्रियों और वस्तुओं के आधार पर दोहद का विवेचन करते हुए कहा है कि गर्भिणी की जिस इंद्रिय की अभिलाषा पूरी नहीं होती, भावी संतान को भी अपने जीवन में उसी इंद्रिय की पीड़ा उत्पन्न होती है। गर्भिणी को यदि राजदर्शन की इच्छा हो तो संतान सुंदर और अलंकारप्रिय; आश्रयदर्शन की इच्छा हो तो धर्मशील और संयतात्मा; देवप्रतिमादर्शन की इच्छा हो तो संतान देवतुल्य; सर्पादि व्यालजातीय जंतु देखने की इच्छा हो तो हिंसांशील; गोह का मांस खाने की इच्छा हो तो शूर, रक्ताक्ष और लोमश अर्थात् अधिक रोएँवाला; हरिण का मांस खाने की इच्छा हो तो बनचर; वाराह का मांस खाने की इच्छा हो तो बनचर; वाराह का मांस खाने की इच्छा हो तो निहाल और शूर, सृप का मांस खाने की इच्छा हो तो उद्विग्न तथा तीतर का मांस खाने की इच्छा हो तो संतान भीरु होती है। इनके अतिरिक्त यदि अन्य जंतु का मांस खाने की इच्छा हो, तो वह जंतु जिस स्वभाव और आचरण का होगा, संतान भी उसी स्वभाव और आचरण की होगी, अत: गर्भिणी की अभिलाषा को अवश्य ही पूरा करना चाहिए। .

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दीपावली

दीपावली या दीवाली अर्थात "रोशनी का त्योहार" शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है।The New Oxford Dictionary of English (1998) ISBN 0-19-861263-X – p.540 "Diwali /dɪwɑːli/ (also Divali) noun a Hindu festival with lights...". दीवाली भारत के सबसे बड़े और प्रतिभाशाली त्योहारों में से एक है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है।Jean Mead, How and why Do Hindus Celebrate Divali?, ISBN 978-0-237-534-127 भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा कर सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं। दीवाली नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश है। .

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धनुषा जिला

जनकपुर में स्वयंबर के दौरान भगवान राम के द्वारा शिव धनुष तोड़ने से संबंधित रवी वर्मा की पेंटिंग यह नेपाल के जनकपुर प्रान्त का एक जिला है। यह हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। .

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धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान

धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान एक टेलीविजन कार्यक्रम था जो भारतीय टेलीविजन चैनल स्टार प्लस पर प्रसारित सागर आर्ट्स द्वारा प्रारंभ किया गया जिन्होंने पहले रामायण, महाभारत और हातिम टेलीविजन शृंखला शुरू किया है। यह हिंदी टीवी धारावाहिक मध्यकालीन भारतीय इतिहास के सबसे मशहूर हिन्दू राजाओं में से एक राजा पृथ्वीराज चौहान, उसका प्रारम्बिक जीवन, उसके साहसिक कार्य, राजकुमारी संयोगिता के लिए उसका प्रेम की कहानी को दर्शाता है। ज्यादातर यह प्रारम्बिक हिंदी/अपभ्रंश कवि चन्दवरदाई का महाकाव्य पृथ्वीराज रासो, से आता है लेकिन निर्माताओं ने इस प्रेम कथा को दर्शाने के लिए बहुत अधिक छुट ली है। यह मोहक गाथा मार्च 15, 2009 को दुखद अंत के साथ समाप्त हुआ। .

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धर्मपाल (रामायण)

धर्मपाल वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप तथा सुमन्त्र .

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धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती (२५ दिसंबर, १९२६- ४ सितंबर, १९९७) आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे। डॉ धर्मवीर भारती को १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास गुनाहों का देवता सदाबहार रचना मानी जाती है। सूरज का सातवां घोड़ा को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी, अंधा युग उनका प्रसिद्ध नाटक है।। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है। .

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धृष्टि

धृष्टि वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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नथुराम विनायक गोडसे

नथुराम विनायक गोडसे, या नथुराम गोडसे(१९ मई १९१० - १५ नवंबर १९४९) एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी समर्थक थे, जिसने ३० जनवरी १९४८ को नई दिल्ली में गोली मारकर मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या कर दी थी। गोडसे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुणे से पूर्व सदस्य थे। गोडसे का मानना था कि भारत विभाजन के समय गांधी ने भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों के पक्ष का समर्थन किया था। जबकि हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर अपनी आंखें मूंद ली थी। गोडसे ने नारायण आप्टे और ६ लोगों के साथ मिल कर इस हत्याकाण्ड की योजना बनाई थी। एक वर्ष से अधिक चले मुकद्दमे के बाद ८ नवम्बर १९४९ को उन्हें मृत्युदंड प्रदान किया गया। हालाँकि गांधी के पुत्र, मणिलाल गांधी और रामदास गांधी द्वारा विनिमय की दलीलें पेश की गई थीं, परंतु उन दलीलों को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, महाराज्यपाल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी एवं उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल, तीनों द्वारा ठुकरा दिया गया था। १५ नवम्बर १९४९ को गोडसे को अम्बाला जेल में फाँसी दे दी गई। .

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नर्मदा नदी

'''नर्मदा''' और भारत की अन्य नदियाँ नर्मदा नदी का प्रवाह क्षेत्र नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम से पश्चिम की ओर 1,221 किमी (815.2 मील) चल कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है। नर्मदा मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के किनारे बसा शहर जबलपुर उल्लेखनीय है। इस नदी के मुहाने पर डेल्टा नहीं है। जबलपुर के निकट भेड़ाघाट का नर्मदा जलप्रपात काफी प्रसिद्ध है। इस नदी के किनारे अमरकंटक, नेमावर, गुरुकृपा आश्रम झीकोली, शुक्लतीर्थ आदि प्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं जहाँ काफी दूर-दूर से यात्री आते रहते हैं। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है। .

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नल-नील

Volunteer monkeys building a bridge to Sri Lanka नल-नील रामायण के पात्र हैं। उन्होंने सागर के ऊपर सेतु का निर्माण किया था। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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नारायण प्रसाद 'बेताब'

नारायणप्रसाद 'बेताब' (१८७२ - १५ सितंबर, १९४५) प्रसिद्ध नाटककार थे। .

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नागराज

नागराज एक संस्कृत शब्द है जो कि नाग तथा राज (राजा) से मिलकर बना है अर्थात नागों का राजा। यह मुख्य रूप से तीन देवताओं हेतु प्रयुक्त होता है - अनन्त (शेषनाग), तक्षक तथा वासुकि। अनन्त, तक्षक तथा वासुकि तीनों भाई महर्षि कश्यप, तथा उनकी पत्नी कद्रु के पुत्र थे जो कि सभी साँपों के जनक माने जाते हैं। मान्यता के अनुसार नाग का वास पाताललोक में है। सबसे बड़े भाई अनन्त भगवान विष्णु के भक्त हैं एवं साँपों का मित्रतापूर्ण पहलू प्रस्तुत करते हैं क्योंकि वे चूहे आदि जीवों से खाद्यान्न की रक्षा करते हैं। भगवान विष्णु जब क्षीरसागर में योगनिद्रा में होते हैं तो अनन्त उनका आसन बनते हैं तथा उनकी यह मुद्रा अनन्तशयनम् कहलाती है। अनन्त ने अपने सिर पर पृथ्वी को धारण किया हुआ है। उन्होंने भगवान विष्णु के साथ रामायण काल में राम के छोटे भाई लक्ष्मण तथा महाभारत काल में कृष्ण के बड़े भाई बलराम के रूप में अवतार लिया। इसके अतिरिक्त रामानुज तथा नित्यानन्द भी उनके अवतार कहे जाते हैं। छोटे भाई वासुकि भगवान शिव के भक्त हैं, भगवान शिव हमेशा उन्हें गर्दन में पहने रहते हैं। तक्षक साँपों के खतरनाक पहलू को प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि उनके जहर के कारण सभी उनसे डरते हैं। गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले के थानगढ़ तहसील में नाग देवता वासुकि का एक प्राचीन मंदिर है। इस क्षेत्र में नाग वासुकि की पूजा ग्राम्य देवता के तौर पर की जाती है। यह भूमि सर्प भूमि भी कहलाती है। थानगढ़ के आस पास और भी अन्य नाग देवता के मंदिर मौजूद है। देवभूमि उत्तराखण्ड में नागराज के छोटे-बड़े अनेक मन्दिर हैं। वहाँ नागराज को आमतौर पर नागराजा कहा जाता है। सेममुखेम नागराज उत्तराखण्ड का सबसे प्रसिद्ध नागतीर्थ है। यह उत्तराकाशी जिले में है तथा श्रद्धालुओं में सेम नागराजा के नाम से प्रसिद्ध है। एक अन्य प्रसिद्ध मन्दिर डाण्डा नागराज पौड़ी जिले में है। तमिलनाडु के जिले के नागरकोइल में नागराज को समर्पित एक मन्दिर है। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रसिद्ध मन्दिर मान्नारशाला मन्दिर केरल के अलीप्पी जिले में है। इस मन्दिर में अनन्त तथा वासुकि दोनों के सम्मिलित रूप में देवता हैं। केरल के तिरुअनन्तपुरम् जिले के पूजाप्पुरा में एक नागराज को समर्पित एक मन्दिर है। यह पूजाप्पुरा नगरुकावु मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इस मन्दिर की अद्वितीयता यह है कि इसमें यहाँ नागराज का परिवार जिनमें नागरम्मा, नागों की रानी तथा नागकन्या, नाग राजशाही की राजकुमारी शामिल है, एक ही मन्दिर में रखे गये हैं। .

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नागराज (कॉमिक्स)

नागराज ("स्नेक-किंग") राज कॉमिक्स की पेशकश, एक भारतीय कॉमिक बुक किरदार है जिसे यक़ीनन लंबे समय से जीवित भारतीय एक्शन कॉमिक सुपर हीरो कहा जा सकता है। 1980 दशक के अंत में संजय गुप्ता द्वारा सृजित, नागराज अपने 25 वर्ष के जीवन काल में रूप-रंग और साथ ही कहानी, दोनों तरह से बहुत बदल गया है। इस तथ्य के बावजूद कि किसी समय भारत में कॉमिक संस्कृति लगभग ग़ायब हो गई थी, फिर भी उसके प्रशंसक आधार में वृद्धि हुई और उसकी पहली एनिमेटेड फ़िल्म के जारी होने के बाद इसमें ज़बरदस्त बढ़ोतरी की उम्मीद है। .

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निष्पादन कलाएँ

(परंपरागत शास्त्रीय सौंदर्य पर कोई समझौता समकालीन ध्यान मैच के लिए!) यह एक प्रवृत्ति किया गया है एक नहीं कर सकते हैं और भरतनाट्यम प्रशिक्षण और के माध्यम से ही "सामग्री" पेश प्रदर्शन और "समकालीन" भरतनाट्यम की बदल माध्यम के मार्ग की है कि उपेक्षा नहीं करता है। इस संदर्भ में, 'बदल मध्यम' भेजी जा करने के लिए संदेश को बदल सकते हैं, जो आंदोलनों, अभिव्यक्ति, सामान, वेशभूषा, संगीत, आदि में बदलाव शामिल कर सकते हैं। कलाकार या कोरियोग्राफर समकालीन चिंताओं-यह "नृत्य व्यक्त करने के लिए हैं और प्रभावित करने के लिए नहीं करने के लिए", कहा जाता है कि सूट करने के लिए अतीत की परंपरा के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए प्रयास करता है यह तथ्यात्मक रूप से भरतनाट्यम की प्रारंभिक मील के पत्थर सीधे "देवदासियों" ने प्रदर्शन किया नृत्य के साथ जुड़े थे कि गले लगा लिया गया है। नृत्य का यह रूप में बाद में भी भरतनाट्यम को कला के रूप में नाम दिया जो रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने "पुनर्जीवित किया और महिमा" किया गया था। इस विकास अच्छी तरह अवधारणा "भरतनाट्यम की कंनटेंपोरैजिंग " के साथ इकुएतटड जा सकता है। इसे बदलने की मांग को पूरा करने के लिए आदि वेशभूषा, संगीत, सामान, प्रस्तुतियों, की तरह अलग अलग रूप में आकार ले लिया है, और भी जनता के आकर्षण का फायदा हुआ। इस माध्यम से, " जुगलबंदी 'के विचार एक झलक के लायक है। जुगलबंदी आम तौर पर प्रदर्शन कला में दो या दो से अधिक अलग शैलियों का सहयोग करने के लिए संदर्भित करता है, "माया रावण" और "कृष्णा" (प्रदर्शन) में प्रसिद्ध प्रदर्शन कलाकार, शोभना, एक " जुगलबंदी " अनुमान है। अपने संगीत के लिए सम्मान के साथ, सहायक निष्पादन संग पारंपरिक लाइव पश्चिमी धड़कन के साथ कर्नाटक लय के एक संलयन द्वारा बदल दिया गया था। कोरियोग्राफी के बारे में, शास्त्रीय नृत्य आंदोलनों जुगलबंदी अर्ध शास्त्रीय रूप में जाना जाता नृत्य की बोलचाल की भाषा में कहा जाता शैली, को खत्म विभिन्न नृत्य रूपों.

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नुक्कड़ नाटक का इतिहास

विदेशों में नुक्कड़-नाटकसृष्टि का पहला नाटक तो कोई नुक्‍कड़vends tu ाक ही रहा होगाक ही रहा होगा। रंगशालाएँ और नाट्यगृह तो सभ्यता चरण पार करने के बाद बने होंगे। आदिम युग में सब लोग दिन भर शिकार करने के बाद शाम को अपने-अपने शिकार के साथ कही खुले में एकtu bordj घेरा बनाकर बैठ जाते थे और उस घेरे के बीचों-बीच ही उनका भोजन पकता रहता, खान-पान होता और वही बाद में नाचना-गाना होता। इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी - प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन। इसी का विकसित रूप हमें तब भी देखने को मिलता है जब आज से लगभग ढ़ाई-तीन हज़ार वर्ष पहले यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर, चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन किया करता था। भारत में इससे भी पूर्व से लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। ये लव-कुश राम के पुत्रों के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के समांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशीलव के नाम से ही जाना जाने लगा। संभवत: यही कारण है कि नाटकों के लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी अपने नाट्यशास्त्र में दशरूपक विवेचन के अंतर्गत 'वीथि' नामक रूपक का भी उल्लेख किया है। आज भी आंध्र प्रदेश में लोकनाट्य परंपरा की एक शैली का नाम की 'वीथि नाटकम' मिलता है और आधुनिक नुक्कड़ नाटक को भी इसी नाम से जाना जाता है। मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास भारत के विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में लोक नाटकों के रूप में हुआ। उसी के समांतर पश्चिम में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का प्रचलन शुरू हुआ जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते थे और मूलत: धर्म के प्रचार के लिए ही खेले जाते थे। ये नाटक भी खुले में, मैदानों और चौराहों और बाज़ारों में ही मंचित किए जाते थे और दिन की रोशनी में ही, जबकि हमारे यहां नाटक लगभग अपने आरंभ काल से ही ज़्यादातर रात में ही खेले जाते थे। इसके कारण भारतीय नाटकों में प्रकाश व्यवस्था का बहुत विकास हुआ। आधुनिक युग में जिस रूप में हम नुक्कड़ नाटकों को जानते है, उनका इतिहास भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है। इसी का एक विधिवत रूप इप्टा जैसी संस्था के जन्म के रूप में सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं सत्ता का विरोध आरंभ हुआ। इस प्रकार किसी भी गल़त व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है - यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी टिकी हुई है। कभी वह किस्से-कहानियों का प्रचार था, कभी धर्म और कभी राजनैतिक विचारधारा। किसी भी युग और काल में इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं। आज तो स्थिति यह हो गई है कि बड़ी-बड़ी व्यावसायिक-व्यापरिक कंपनियां अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं, सरकारी तंत्र अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई पड़ते है। .

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न्यायशास्त्र (भारतीय)

कृपया भ्रमित न हों, यह लेख न्यायशास्त्र (jurisprudence) के बारे में नहीं है। ---- वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है। भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है: आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है- न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।; विशेष "न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र) .

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नृत्य

भारतीय नृत्यनृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया। भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण कृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है। .

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नेपाली साहित्य

नेपाली साहित्य नेपाली भाषा का साहित्य है। यह साहित्य नेपाल, सिक्किम, दार्जिलिंग, भूटान, उत्तराखण्ड,असम आदि स्थानौं में प्रमुखतः लिखे जाते हैं। इस साहित्य में ज्यादातार पहाडी खस ब्राह्मण अर्थात बाहुन जाति के हैं। आदिकवि भानुभक्त आचार्य, महाकवि लक्ष्मी प्रसाद देवकोटा, कविशिरोमणि लेखनाथ पौड्याल, राष्ट्रकवि माधव प्रसाद घिमिरे, मोतीराम भट्ट, हास्यकार भैरव अर्याल, आदि श्रेष्ठतम नेपाली साहित्यकार बाहुन (पहाडी ब्राह्मण) समुदाय के थे। भारत का पड़ोसी देश होने के नाते नेपाल में भी भारत से चली खुलेपन की ताज़ी हवा बराबर पहुँचती रही है और उसके साहित्य पर भी समय-समय पर विभिन्न वादों और साहित्यिक आंदोलनों का पराभूत प्रभाव रहा है। हिन्दी कविता की तरह नेपाली कविता में भी छायावाद,रहस्यवाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की तमाम विशेषताएँ मिलती है। प्रकृति, सौन्दर्य, शृंगार और नारी-मन की सुकोमल अभिव्यक्ति के साथ ही जीवन-संघर्ष की आधुनिकतम समस्याओं को वाणी देने में भी नेपाली कवि किसी से पीछे नहीं रहे हैं। आज नेपाली कविता में समय-सापेक्षता, सामाजर्थिक दबाब तथा जीवन का व्यर्थता बोध आदि प्रबरीतियों को जो प्रमुखता मिली हुयी है, वह उसकी इसी शानदार विरासत का प्रतिफल है। .

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नीति

उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला को नीति (Policy) कहते हैं। नीति, सोचसमझकर बनाये गये सिद्धान्तों की प्रणाली है जो उचित निर्णय लेने और सम्यक परिणाम पाने में मदद करती है। नीति में अभिप्राय का स्पष्ट उल्लेख होता है। नीति को एक प्रक्रिया (procedure) या नयाचार (नय+आचार / protocol) की तरह लागू किया जाता है। .

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नील (बहुविकल्पी)

नील के कई अर्थ हो सकते हैं:-.

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पत्तदकल स्मारक परिसर

पत्तदकल स्मारक परिसर भारत के कर्नाटक राज्य में एक पत्तदकल नामक कस्बे में स्थित है। यह अपने पुरातात्विक महत्व के कारण प्रसिद्ध है। चालुक्य वंश के राजाओं ने सातवीं और आठवीं शताब्दी में यहाँ कई मंदिर बनवाए। एहोल को स्थापत्यकला का विद्यालय माना जाता है, बादामी को महाविद्यालय तो पत्तदकल को विश्वविद्यालय कहा जाता है। यहाँ कुल दस मंदिर हैं, जिनमें एक जैन धर्मशाला भी शामिल है। इन्हें घेरे हुए ढेरों चैत्य, पूजा स्थल एवं कई अपूर्ण आधारशिलाएं हैं। यहाँ चार मंदिर द्रविड़ शैली के हैं, चार नागर शैली के हैं एवं पापनाथ मंदिर मिश्रित शैली का है। पत्तदकल को १९८७ में युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था। विरुपाक्ष मंदिर यहाँ का सर्वश्रेष्ठ मंदिर है। इसे महाराज विक्रमादित्य द्वितीय की पत्नी लोकमहादेवी ने ७४५ ई. में अपने पति की कांची के पल्लव वंश पर विजय के स्मारक रूप में बनवाया था। यह मंदिर कांची के कैलाशनाथ मंदिर से बहुत मिलता जुलता है। वही मंदिर इस मंदिर की प्रेरणा है। यही विरुपाक्ष मंदिर एल्लोरा में राष्ट्रकूट वंश द्वारा बनवाये गये कैलाशनाथ मंदिर की प्रेरणा बना। इस मंदिर की शिल्पाकृतियों में कुछ प्रमुख हैं लिंगोद्भव, नटराज, रावाणानुग्रह, उग्रनृसिंह, आदि। इसके अलावा संगमेश्वर मंदिर भी काफी आकर्षक है। यह मंदिर अधूरा है। इसे महाराज विजयादित्य सत्याश्रय ने बनवाया था। यहाँ के काशी विश्वनाथ मंदिर को राष्ट्रकूट वंश ने आठवीं शताब्दी में बनवाया था। निकटस्थ ही मल्लिकार्जुन मंदिर है। इसे विक्रमादित्य की द्वितीय रानी त्रिलोकमहादेवी द्वारा ७४५ ई. में बनवाया गया था। यह विरुपाक्ष मंदिर का एक छोटा प्रतिरूप है। गल्गनाथ मंदिर में भगवान शिव को अंधकासुर का मर्दन करते हुए दिखाया गया है। कदासिद्धेश्वर मंदिर में शिव की त्रिशूल धारी मूर्ति है। जम्बुलिंग मंदिर में शिवलिंग स्थापित है। ये सभी नागर शैली में निर्मित हैं। यहां के जैन मंदिर पत्तदकल-बादामी मार्ग पर स्थित है। ये मयनाखेत के राष्ट्रकूटों द्वारा द्रविड़ शैली में निर्मित हैं। यहां नौवीं शताब्दी के कुछ बहुत ही सुंदर शिल्प के नमूने हैं। इन्हे अमोघवर्षा प्रथम या उसके पुत्र कृष्ण द्वितीय ने बनवाया था। यहां का पापनाथ मंदिर वेसारा शैली में निर्मित है। ६८० ई. में निर्मित यह मंदिर पहले नागर शैली में आरम्भ हुआ था, पर बाद में द्रविड़ शैली में बदला गया। यहां के शिल्प रामायण एवं महाभारत की घटनाओं के बारे में बताते हैं। इस मंदिर में आलमपुर, आंध्र प्रदेश के नवब्रह्म मंदिर की झलक दिखाई देती है। यह मंदिर भी इसी वंश ने बनवाया था। यहाँ के बहुत से शिल्प अवशेष यहाँ बने प्लेन्स के संग्रहालय तथा शिल्प दीर्घा में सुरक्षित रखे हैं। इन संग्रहालयों का अनुरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। ये भूतनाथ मंदिर मार्ग पर स्थित हैं। इनके अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण स्मारकों में, अखण्ड एकाश्म स्तंभ, नागनाथ मंदिर, चंद्रशेखर मंदिर एवं महाकुटेश्वर मंदिर भी हैं, जिनमें अनेक शिलालेख हैं। File:Kasivisvanatha_temple_at_Pattadakal.jpg|काशीविश्वनाथ मंदिर File:Temple_Pattadakal.JPG|पापनाथ मंदिर चित्र:Mallikarjuna_and_Kasivisvanatha_temples_at_Pattadakal.jpg|मल्लिकार्जुन एवं काशीविश्वनाथ मंदिर File:Jain_Narayana_temple_at_Pattadakal.JPG|जैन नारायण मंदिर .

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पम्पा सरोवर

पाम्पा सरोवर (Pampa Sarovar /ಪಂಪ ಸರೋವರ) भारतीय राज्य कर्नाटक के कोपल ज़िले में हम्पी,कर्नाटक के निकटतम स्थित एक झील है। यह झील दक्षिण में स्थित तुंगभद्रा नदी के अंतर्गत यह हिन्दुओं द्वारा पवित्र माना जाता है और भारत में पाँच पवित्र सरोवरों, या झीलों में से पम्पा सरोवर भी एक माना जाता है। हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार, पांच पवित्र झीलें हैं; जिसे सामूहिक रूप में पंच-सरोवर कहा जाता है; इसमें यह झीलें है मानसरोवर, बिन्दु सरोवर,नारायण सरोवर, पुष्कर सरोवर और इनमें एक पाम्पा सरोवर भी है। इनका भागवत पुराण में भी उल्लेख किया गया है। हिन्दू पौराणिक कथाओं में पम्पा सरोवर को भगवान शिव की भक्ति दिखाने का स्थल भी बताया गया है, जहाँ भगवान शिव के तपस्या करते थे। यह सरोवर में से उन सरोवरों में से है जिनका उल्लेख हिन्दू महाकाव्य मिलता है। एक उल्लेख यह भी मिलता है कि रामायण में भगवान राम की एक भक्तिनी शबरी उनके आने का इंतजार इसी सरोवर पर कर रही थी। Encyclopaedia of tourism resources in India, Volume 2 By Manohar Sajnani .

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परशुराम

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक ब्राह्मण थे। उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। .

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पर्णिन अश्व तारामंडल

पर्णिन अश्व तारामंडल पर्णिन अश्व या पॅगासस (अंग्रेज़ी: Pegasus) तारामंडल पृथ्वी के उत्तरी भाग से आकाश में नज़र आने वाला एक तारामंडल है। दूसरी शताब्दी ईसवी में टॉलमी ने जिन ४८ तारामंडलों की सूची बनाई थी यह उनमें से एक है और अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा जारी की गई ८८ तारामंडलों की सूची में भी यह शामिल है। पुरानी खगोलशास्त्रिय पुस्तकों में इसे अक्सर एक परों वाले घोड़े के रूप में दर्शाया जाता था। प्राचीन यूनानी कथाओं में पॅगासस एक पंखदार उड़ने वाला घोड़ा था। संस्कृत में "पर्ण" का मतलब "पंख" या "पत्ता" होता है, "पर्णिन" का मतलब "पंखवाला" होता है और "अश्व" का मतलब "घोड़ा" होता है। कुछ स्रोतों ने इस तारामंडल को "हयशिर" का भी नाम दिया है, जो रामायण में चर्चित एक दिव्यास्त्र का नाम था। .

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पश्चिमी चंपारण

चंपारण बिहार के तिरहुत प्रमंडल के अंतर्गत भोजपुरी भाषी जिला है। हिमालय के तराई प्रदेश में बसा यह ऐतिहासिक जिला जल एवं वनसंपदा से पूर्ण है। चंपारण का नाम चंपा + अरण्य से बना है जिसका अर्थ होता है- चम्‍पा के पेड़ों से आच्‍छादित जंगल। बेतिया जिले का मुख्यालय शहर हैं। बिहार का यह जिला अपनी भौगोलिक विशेषताओं और इतिहास के लिए विशिष्ट स्थान रखता है। महात्मा गाँधी ने यहीं से अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन से सत्याग्रह की मशाल जलायी थी। .

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पह्लव

इरानी पह्लव एक प्राचीन जाति। प्रायः प्राचीन पारसी या ईरानी। मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन पुस्तकों में जहाँ-जहाँ खस, यवन, शक, कांबोज, वाह्लीक, पारद आदि भारत के पश्चिम में बसनेवाली जातियों का उल्लेख है वहाँ-वहाँ पह्लवों का भी नाम आया है। उपर्युक्त तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में पह्लव शब्द सामान्य रीति से पारस निवासियों या ईरानियों के लिये व्यवहृत हुआ है मुसलमान ऐतिहासिकों ने भी इसको प्राचीन पारसीकों का नाम माना है। प्राचीन काल में फारस के सरदारों का 'पहृ- लवान' कहलाना भी इस बात का समर्थक है कि पह्लव पारसीकों का ही नाम है। शाशनीय सम्राटों के समय में पारस की प्रधान भाषा और लिपि का नाम पह्लवी पड़ चुका था। तथापि कुछ युरोपीय इतिहासविद् 'पह्लव' सारे पारस निवासियों की नहीं केवल पार्थिया निवासियों पारदों— की अपभ्रश संज्ञा मानते हैं। पारस के कुछ पहाड़ी स्थानो में प्राप्त शिलालेखों में 'पार्थव' नाम की एक जाति का उल्लेख है। डॉ॰ हाग आदि का कहना है कि यह 'पार्थव' पार्थियंस (पारदों) का ही नाम हो सकता है और 'पह्लव' इसी पार्थव का वैसा ही फालकी अपभ्रंश है जैसा अवेस्ता के मिध्र (वै० मित्र) का मिहिर। अपने मत की पुष्टि में ये लोग दो प्रमाण और भी देते हैं। एक यह कि अरमनी भाषा के ग्रंथों में लिखा है कि अरसक (पारद) राजाओं की राज-उपाधि 'पह्लव' थी। दूसरा यह कि पार्थियावासियों को अपनी शूर वीरता और युद्धप्रियता का बडा़ घमंड था और फारसी के 'पहलवान' और अरमनी के 'पहलवीय' शब्दों का अर्थ भी शूरवीर और युद्धप्रिय है। रही यह बात कि पारसवालों ने अपने आपके लिये यह संज्ञा क्यों स्वीकार की और आसपास वालों ने उनका इसी नाम से क्यों उल्लेख किया। इसका उत्तर उपर्युक्त ऐतिहासिक यह देते हैं कि पार्थियावालों ने पाँच सौ वर्ष तक पारस में राज्य किया और रोमनों आदि से युद्ध करके उन्हें हराया। ऐसी दशा में 'पह्लव' शब्द का पारस से इतना घनिष्ठ संबंध हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। संस्कृत पुस्तकों में सभी स्थलों पर 'पारद' औक 'पह्लव' को अलग अलग दो जातियाँ मानकर उनका उल्लेख किया गया है। हरिवंश पुराण में महाराज सगर के द्वारा दोनों की वेशभूषा अलग अलग निश्चित किए जाने का वर्णन है। पह्लव उनकी आज्ञा से 'श्मश्रुधारी' हुए और पारद 'मुक्तकेश' रहने लगे। मनुस्मृति के अनुसार 'पह्लव' भी पारद, शक आदि के समान आदिम क्षत्रिय थे और ब्राह्मणों के अदर्शन के कारण उन्हीं की तरह संस्कारभ्रष्ट हो शूद्र हो गए। हरिवंश पुराण के अनुसार महाराज सगर न इन्हें बलात् क्षत्रियधर्म से पतित कर म्लेच्छ बनाया। इसकी कथा यों है कि हैहयवंशी क्षत्रियों ने सगर के पिता बाहु का राज्य छीन लिया था। पारद, पह्लव, यवन, कांबोज आदि क्षत्रियों ने हैहयवंशियों की इस काम में सहायता की थी। सगर ने समर्थ होने परह हैहयवंशियों को हराकर पिता का राज्य वापस लिया। उनके सहायक होने के कारण 'पह्लव' आदि भी उनके कोपभाजन हुए। ये लोग राजा सगर के भय से भागकर उनके गुरु वशिष्ठ की शरण गए। वशिष्ठ ने इन्हें अभयदान दिया। गुरु का बचन रखने के लिये सगर ने इनके प्राण तो छोड़ दिए पर धर्म ले लिया, इन्हें छात्र धर्म से बहिष्कृत करके म्लेच्छत्व को प्राप्त करा दिया। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार 'पह्लवों' की उत्पत्ति वशिष्ठ की गौ शबला के हुंभारव (रँभाने) से हुई है। विश्वामित्र के द्वारा हरी जाने पर उसने वशिष्ठ की आज्ञा से लड़ने के लिये जिन अनेक क्षत्रिय जातियों को अपने शब्द से उत्पन्न किया 'पह्लव' उनमें पहले थे। .

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पारस

पारस (संस्कृत: पारस्य) हिंदुस्तान के पश्चिम सिन्धु नदी और अफगानिस्तान के आगे पड़नेवाला एक देश। यह प्राचीन कांबोज और वाह्लीक के पश्चिम का देश था जिसका प्रताप प्राचीन काल में बहुत दूर-दूर तक विस्तृत था और जो अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के लिये प्रसिद्ध चला आता है। अत्यंत प्राचीन काल से पारस देश आर्यों की एक शाखा का वासस्थान था जिसका भारतीय आर्यों से घनिष्ट संबंध था। अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा सरयू के किनारे तक की काली भूमि आर्यभूमि थी, जो अनेक प्रेदशों में विभक्त थी। इन प्रदेशों में भी कुछ के साथ आर्य शब्द लगा था। जिस प्रकार यहाँ आर्यांवर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वींय प्रदेश 'अरियान' या 'ऐर्यान' (यूनानी— एरियाना) कहलाता था जिससे ईरान शब्द बना है। ईरान शब्द आर्यावास के अर्थ में सारे देश के लिये प्रयुक्त होता था। शाशानवंशी सम्राटों ने भी अपने को 'ईरान के शाहंशाह' कहा है। पदाधिकारियों के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है।— जैसे 'ईरान-स्पाहपत' (ईरान के सिपाहपति या सेनापति), 'ईरान अंबारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ आर्य शब्द बडे़ गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट् दारयवहु (दारा) ने अपने को 'अरियपुत्र' लिखा है। सरदोरों के नामों में भी आर्य शब्द मिलता है, जैसे, अरियशम्न, अरियोवर्जनिस, इत्यादि। प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बँटा था उनमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़नेवाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पड़ा। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पार्सिपोलिस) थी, जहाँपर आगे चलकर 'इश्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम हखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिये व्यवहृत होने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता। पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में 'पारस्य' और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों में उपासना, कर्मकांड आदि में भेद नहीं था। वे अग्नि, सूर्य वायु आदि की उपासना और अग्निहोत्र करते थे। मिथ (मित्र .

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पारसी रंगमंच

; 'पारसी रंगमंच' से 'फारसी भाषा का रंगमंच' या 'इरान का रंगमंच' का अर्थ न समझें। यह अलग है जो भारत से संबन्धित है। ---- अंग्रेजों के शासनकाल में भारत की राजधानी जब कलकत्ता (1911) थी, वहां 1854 में पहली बार अंग्रेजी नाटक मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर नवशिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जगी। मंदिरों में होनेवाले नृत्य, गीत आदि आम आदमी के मनोरंजन के साधन थे। इनके अलावा रामायण तथा महाभारत जैसी धार्मिक कृतियों, पारंपरिक लोक नाटकों, हरिकथाओं, धार्मिक गीतों, जात्राओं जैसे पारंपरिक मंच प्रदर्शनों से भी लोग मनोरंजन करते थे। पारसी थियेटक से लोक रंगमंच का जन्म हुआ। एक समय में सम्पन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। इसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। पारसी रंगमंच, 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश रंगमंच के मॉडल पर आधारित था। इसे पारसी रंगमंच इसलिए कहा जाता था क्योंकि इससे पारसी व्यापारी जुड़े थे। वे इससे अपना धन लगाते थे। उन्होंने पारसी रंगमंच की अपनी पूरी तकनीक ब्रिटेन से मंगायी। इसमें प्रोसेनियम स्टेज से लेकर बैक स्टेज की जटिल मशीनरी भी थी। लेकिन लोक रंगमंच-गीतों, नृत्यों परंपरागत लोक हास-परिहास के कुछ आवश्यक तत्वों और इनकी प्रारंभ तथा अंत की रवाइतों को पारसी रंगमंच ने अपनी कथा कहने की शैली में शामिल कर लिया था। दो श्रेष्ठ परंपराओं का यह संगम था और तमाम मंचीय प्रदर्शन पौराणिक विषयों पर होते थे जिनमें परंपरागत गीतों और प्रभावी मंचीय युक्तियों का प्रयोग अधिक होता था। कथानक गढ़े हुए और मंचीय होते थे जिसमें भ्रमवश एक व्यक्ति को दूसरा समझा जाता था, घटनाओं में संयोग की भूमिका होती थी, जोशीले भाषण होते थे, चट्टानों से लटकने का रोमांच होता था और अंतिम क्षण में उनका बचाव किया जाता था, सच्चरित्र नायक की दुष्चरित्र खलनायक पर जीत दिखायी जाती थी और इन सभी को गीत-संगीत के साथ विश्वसनीय बनाया जाता था। औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फिल्मों की जगह आल्हा, कव्वाली मुख्य थे। लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पड़ी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी। बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फिल्मों में भी इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया। वर्ष 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे-धीरे एक 'चलित थियेटर' का रूप लेता चला गया और लोग घूम-घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे। पारसी थियेटर के अभिनय में ‘‘मेलोड्रामा’’ अहम तत्व था और संवाद अदायगी बड़े नाटकीय तरीके से होती थी। उन्होंने कहा कि आज भी फिल्मों के अभिनय में पारसी नाटक के तत्व दिखाई देते हैं। 80 वर्ष तक पारसी रंगमंच और इसके अनेक उपरूपों ने मनोरंजन के क्षेत्र में अपना सिक्का जमाए रखा। फिल्म के आगमन के बाद पारसी रंगमंच ने विधिवत् अपनी परंपरा सिनेमा को सौंप दी। पेशेवर रंगमंच के अनेक नायक, नायिकाएं सहयोगी कलाकार, गीतकार, निर्देशक, संगीतकार सिनेमा के क्षेत्र में आए। आर्देशिर ईरानी, वाजिया ब्रदर्स, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी और अनेक महान दिग्गज रंगमंचकी प्रतिभाएं थीं जिन्होंने शुरुआती तौर में भारतीय फिल्मों को समृद्ध किया। .

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पालि भाषा

ब्राह्मी तथा भाषा '''पालि''' है। पालि प्राचीन उत्तर भारत के लोगों की भाषा थी। जो पूर्व में बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश से दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी। भगवान बुद्ध भी इन्हीं प्रदेशो में विहरण करते हुए लोगों को धर्म समझाते रहे। आज इन्ही प्रदेशों में हिंदी बोली जाती है। इसलिए, पाली प्राचीन हिन्दी है। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में की एक बोली या प्राकृत है। इसको बौद्ध त्रिपिटक की भाषा के रूप में भी जाना जाता है। पाली, ब्राह्मी परिवार की लिपियों में लिखी जाती थी। .

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पाकिस्तान में हिन्दू धर्म

पाकिस्तान में हिंदु धर्म का अनुसरण करने वाले कुल जनसंख्या के लगभग 2% है। पूर्वतन जनगणना के समय पाकिस्तानी हिंदुओं को जाति (1.6%) और अनुसूचित जाति (0.25%) में विभाजित किया गया।  पाकिस्तान को ब्रिटेन से स्वतन्त्रता 14 अगस्त, 1947 मिली उसके बाद 44 लाख हिंदुओं और सिखों ने आज के भारत की ओर स्थानान्तरण किया, जबकि भारत से 4.1 करोड़ मुसलमानों ने पाकिस्तान में रहने के लिये स्थानातरण किया।Boyle, Paul; Halfacre, Keith H.; Robinson, Vaughan (2014).

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पितृमेध

पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। .

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पक्षीविज्ञान

पक्षी की आकृति का विधिवत मापन बहुत महत्व रखता है। पक्षीविज्ञान (Ornithology) जीवविज्ञान की एक शाखा है। इसके अंतर्गत पक्षियों की बाह्य और अंतररचना का वर्णन, उनका वर्गीकरण, विस्तार एवं विकास, उनकी दिनचर्या और मानव के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक उपयोगिता इत्यादि से संबंधित विषय आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या के अंतर्गत उनके आहार-विहार, प्रव्रजन, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरण, अनुरंजन (courtship), नीड़ निर्माण, मैथुन, प्रजनन, संतान का लालन पालन इत्यादि का वर्णन आता है। आधुनिक फोटोग्राफी द्वारा पक्षियों की दिनचर्याओं के अध्ययन में बड़ी सहायता मिली है। पक्षियों की बोली के फोनोग्राफ रेकार्ड भी अब तैयार कर लिए गए हैं। .

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पुराण

पुराण, हिंदुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत्का बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।Merriam-Webster's Encyclopedia of Literature (1995 Edition), Article on Puranas,, page 915 पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।Gregory Bailey (2003), The Study of Hinduism (Editor: Arvind Sharma), The University of South Carolina Press,, page 139 हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। John Cort (1993), Purana Perennis: Reciprocity and Transformation in Hindu and Jaina Texts (Editor: Wendy Doniger), State University of New York Press,, pages 185-204 पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताए जा सकते हैं। कर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं। पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंथ नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं। पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं। .

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पुलिंद

भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण-महाभारत से सम्बंधित स्थल: पुलिंदों के इलाक़े की तरफ़ ध्यान दें जो विंध्य पर्वत क्षेत्र के पास (नक़्शे के बीच में) स्थित है पुलिंद भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य भाग में स्थित विंध्य पर्वतों के क्षेत्र में बसने वाले एक प्राचीन क़बीले और जनजाति का नाम था। सन् २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व तक सम्राट अशोक द्वारा शिलाओं पर तराशे गए आदेशों में पुलिंदों का, उनकी पुलिंदनगर नामक राजधानी का और उनके पड़ोसी क़बीलों का ज़िक्र मिला है। इस से इतिहासकार यह अंदाज़ा लगते हैं कि संभवतः उनकी राजधानी भारत के आधुनिक मध्य प्रदेश राज्य के जबलपुर ज़िले के क्षेत्र में रही होगी। कुछ विद्वानों का समझना है कि वर्तमान बुंदेलखंड इलाक़े का नाम "पुलिंद" शब्द का परिवर्तित रूप है, हालांकि इस तर्क पर विवाद जारी है। ऐतिहासिक स्रोतों में पुलिंदों का विंध्य प्रदेश के साथ साफ़ सम्बन्ध दिखता है, लेकिन उनके कबीले की शाखाएँ हिमालय क्षेत्र और असम तक फैली हुई थीं। हिमालय के क्षेत्र में उन्हें किरात नामक जनजाति से सम्बंधित समझा जाता था। .

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पुष्पक विमान

पुष्पकविमान हिन्दू पौराणिक महाकाव्य रामायण में वर्णित वायु-वाहन था। इसमें लंका का राजा रावण आवागमन किया करता था। इसी विमान का उल्लेख सीता हरण प्रकरण में भी मिलता है। रामायण के अनुसार राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण तथा लंका के नवघोषित राजा विभीषण तथा अन्य बहुत लोगों सहित लंका से अयोध्या आये थे। यह विमान मूलतः धन के देवता, कुबेर के पास हुआ करता था, किन्तु रावण ने अपने इस छोटे भ्राता कुबेर से बलपूर्वक उसकी नगरी सुवर्णमण्डित लंकापुरी तथा इसे छीन लिया था। अन्य ग्रन्थों में उल्लेख अनुसार पुष्पक विमान का प्रारुप एवं निर्माण विधि अंगिरा ऋषि द्वारा एवं इसका निर्माण एवं साज-सज्जा देव-शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा की गयी थी। भारत के प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों एवं युद्धों में तथा उनके प्रयोग का विस्तृत वर्णन दिया है। इसमें बहुतायत में रावन के पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा अन्य सैनिक क्षमताओं वाले विमानों, उनके प्रयोग, विमानों की आपस में भिडंत, अदृश्य होना और पीछा करना, ऐसा उल्लेख मिलता है। यहां प्राचीन विमानों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ बताई गई हैं- प्रथम मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की भांति ही पंखों के सहायता से उडान भरते थे, एवं द्वितीय आश्चर्य जनक विमान, जो मानव द्वारा निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक उडन तशतरियों के अनुरूप हुआ करता था। .

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पुष्कर

पुष्कर राजस्थान में विख्यात तीर्थस्थान है जहाँ प्रतिवर्ष प्रसिद्ध 'पुष्कर मेला' लगता है। यह राजस्थान के अजमेर जिले में है। यहाँ ब्रह्मा का एक मन्दिर है। पुष्कर अजमेर शहर से १४ की.मी दूरी पर स्थित है। .

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पुष्कलावती

पुश्कलावती प्राचीनकाल में गन्धार की राजधानी हुआ करता था। मान्यता के अनुसार इस शहर की स्थापना रामायण के राम के भाई भरत के पुत्र पुश्कल ने की थी, जिनपर इस नगर का नाम पड़ा। आधुनिक काल में यह पाकिस्तान के उत्तरी भाग में ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रान्त के चारसद्दा ज़िले में स्थित है। .

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प्रतापगढ़, राजस्थान

प्रतापगढ़, क्षेत्रफल में भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के ३३वें जिले प्रतापगढ़ जिले का मुख्यालय है। प्राकृतिक संपदा का धनी कभी इसे 'कान्ठल प्रदेश' कहा गया। यह नया जिला अपने कुछ प्राचीन और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़े स्थानों के लिए दर्शनीय है, यद्यपि इसके सुविचारित विकास के लिए वन विभाग और पर्यटन विभाग ने कोई बहुत उल्लेखनीय योगदान अब तक नहीं किया है। .

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प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

प्रतापगढ़ भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है, इसे लोग बेल्हा भी कहते हैं, क्योंकि यहां बेल्हा देवी मंदिर है जो कि सई नदी के किनारे बना है। इस जिले को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी अहम माना जाता है। यहां के विधानसभा क्षेत्र पट्टी से ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पदयात्रा के माध्यम से अपना राजनैतिक करियर शुरू किया था। इस धरती को रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि आचार्य भिखारीदास और राष्ट्रीय कवि हरिवंश राय बच्चन की जन्मस्थली के नाम से भी जाना जाता है। यह जिला धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी कि जन्मभूमि और महात्मा बुद्ध की तपोस्थली है। .

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प्रतिमानाटक

प्रतिमानाटक, संस्कृत का प्रसिद्ध नाटक है। यह भास के सर्वोत्तम नाटकों में से एक है। सात अंकों के इस नाटक में भास की कला पर्याप्त ऊँचाईं को प्राप्त कर चुकी है। इसमें भास ने राम वनगमन से लेकर रावणवध तथा राम राज्याभिषेक तक की घटनाओं को स्थान दिया है। महाराज दशरथ की मृत्यु के उपरान्त ननिहाल से लौट रहे भरत अयोध्या के पास मार्ग में स्थित देवकुल में पूर्वजों की प्रतिमायें देखते हैं, वहाँ दशरथ की प्रतिमा देखकर वे उनकी मृत्यु का अनुमान कर लेते हैं। प्रतिमा दर्शन की घटना प्रधान होने से इसका नाम प्रतिमा नाटक रखा गया है। इस नाटक में भास ने पात्रों का चारित्रिक उत्कर्ष दिखाने का भरसक प्रयास किया है। इतिवृत्त तथा चरित्रचित्रण दोनों दृष्टियों से यह नाटक सफल हुआ है। भावों के अनुकूल भाषा तथा लघु विस्तारी वाक्य भास के नाटकों की अपनी विशेषताएँ हैं। यह करुण रस प्रधान नाटक है तथा अन्य रस इसी में सहायक बनकर आये हैं। प्रतिमा निर्माण की कथा भास की अपनी मौलिकता है। भास ने इस नाटक में मौलिकता लाने में प्रचलित रामचरित से पर्याप्त पार्थक्य ला दिया है। यद्यपि ये सारी घटनायें प्रचलित कथा से भिन्न हैं, पर नाटकीय दृष्टि से इनका महत्व सुतरां ऊँचा है और पाठक अथवा दर्शक की कौतुहल वृद्धि में ये घटनायें सहायक हुई हैं। इस नाटक में रामायणीय कथा से भिन्नतायें इस प्रकार हैं - प्रथम अंक में सीता द्वारा परिहास में वल्कल पहनना भास की मौलिकता है। तृतीय अंक में प्रतिमा का सम्पूर्ण प्रकरण ही कवि कल्पित है और यह कल्पना ही नाटक की आधारभूमि बनायी गयी है। पाँचवें अंक में सीता का हरण भी यहाँ नवीन ढंग से बताया गया है। यहाँ राम के उटज में वर्तमान रहने पर ही रावण वहाँ आता है और दशरथ के श्राद्ध के लिए उन्हें कांचनपार्श्व मृग लाने को कहता है तथा उन्हें कांचन मृग दिखाकर दूर हटाता है। यह सम्पूर्ण प्रसंग नाटककार द्वारा गढ़ा गया है। पांचवें अंक में सुमंत्र का वन में जाना तथा लौटकर भरत से सीताहरण बताना कवि कल्पना का प्रसाद है। कैकयी द्वारा यह कहना भी कि उसने ऋषिवचन सत्य करने के लिए राम को वन भेजा, भास की प्रसृति है। अन्ततः सप्तम अंक में राम का वन में ही राज्याभिषेक इस नाटक में मौलिक ही है। .

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प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं

सच होने के बावजूद यह तथ्य बहुत-से लोगों को चौंका सकता है कि प्राचीन भारत औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था। रामायण और महाभारत काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिकरूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था। रामायण के एक उल्लेख के अनुसार राम जब चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या वापस लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए आए प्रजाजनों में श्रेणि प्रमुख भी होते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर अरब और यूनान के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था। भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है। कात्यायन ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है। 1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है। 2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है। 3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है। 4 पाणिनिकाल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है- .

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प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन

यों तो भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं है। उनकी न्यूनता के कारण अति प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता है। फिर भी ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन एवं सर्वेक्षण से हमें भारत की प्राचीनता की कहानी की जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबंध की जानकारी करना भी असंभव है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं। साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार के हैं - ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ। ब्राह्मण ग्रन्थ दो प्रकार के हैं - श्रुति जिसमें वेद, ब्राह्मण, उपनिषद इत्यादि आते हैं और स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ आदि आती हैं। लौकिक साहित्य भी चार प्रकार के हैं - ऐतिहासिक साहित्य, विदेशी विवरण, जीवनी और कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य। पुरातात्विक सामग्रियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है - अभिलेख, मुद्राएं तथा भग्नावशेष स्मारक। अधोलिखित तालिका इन स्रोत साधनों को अधिक स्पष्ट करती है-.

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प्राकृत साहित्य

मध्ययुगीन प्राकृतों का गद्य-पद्यात्मक साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है। सबसे प्राचीन वह अर्धमागधी साहित्य है जिसमें जैन धार्मिक ग्रंथ रचे गए हैं तथा जिन्हें समष्टि रूप से जैनागम या जैनश्रुतांग कहा जाता है। इस साहित्य की प्राचीन परंपरा यह है कि अंतिम जैन तीर्थंकर महावीर का विदेह प्रदेश में जन्म लगभग 600 ई. पूर्व हुआ। उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में मुनि दीक्षा ले ली और 12 वर्ष तप और ध्यान करके कैवल्यज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होने अपना धर्मोपदेश सर्वप्रथम राजगृह में और फिर अन्य नाना स्थानों में देकर जैन धर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने 12 अंगों में संकलित किया। उनके नाम हैं- इन अंगों की भाषा वही अर्धमागधी प्राकृत है जिसमें महावीर ने अपने उपदेश दिए। संभवत: यह आगम उस समय लिपिबद्ध नहीं किया गया एवं गुरु-शिष्य परंपरा से मौखिक रूप में प्रचलित रहा और यही उसके श्रुतांग कहलाने की सार्थकता है। महावीर का निर्वाण 72 वर्ष की अवस्था में ई. पू.

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पूर्णागिरी

पूर्णागिरि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त के टनकपुर में अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह १०८ सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था। प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं। .

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फ़िजी

फ़िजी जो कि आधिकारिक रूप से फ़िजी द्वीप समूह गणराज्य (फ़िजीयाई: Matanitu Tu-Vaka-i-koya ko Viti) के नाम से जाना जाता है, दक्षिण प्रशान्त महासागर के मेलानेशिया मे एक द्वीप देश है। यह न्यू ज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड से करीब २००० किमी उत्तर-पूर्व मे स्थित है। इसके समीपवर्ती पड़ोसी राष्ट्रों मे पश्चिम की ओर वनुआतु, पूर्व में टोंगा और उत्तर मे तुवालु हैं। १७वीं और १८वीं शताब्दी के दौरान डच एवं अंग्रेजी खोजकर्तओं ने फ़िजी की खोज की थी। १९७० तक फ़िजी एक अंग्रेजी उपनिवेश था। प्रचुर मात्रा मे वन, खनिज एवं जलीय स्रोतों के कारण फ़िजी प्रशान्त महासागर के द्वीपों मे सबसे उन्नत राष्ट्र है। वर्तमान मे पर्यटन एवं चीनी का निर्यात इसके विदेशी मुद्रा के सबसे बड़े स्रोत हैं। यहाँ की मुद्रा फ़िजी डॉलर है। फ़िजी के अधिकांश द्वीप १५ करोड़ वर्ष पूर्व आरम्भ हुए ज्वालामुखीय गतिविधियों से गठित हुए। इस देश के द्वीपसमूह में कुल ३२२ द्वीप हैं, जिनमें से १०६ स्थायी रूप से बसे हुए हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ लगभग ५०० क्षुद्र द्वीप हैं जो कुल मिला कर १८,३०० वर्ग किमी के क्षेत्रफल का निर्माण करते हैं। द्वीपसमूह के दो प्रमुख द्वीप विती लेवु और वनुआ लेवु हैं जिन पर देश की लगभग ८,५०,००० आबादी का ८७% निवास करती है। .

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फ्र नखोन सी अयुथया प्रान्त

फ्र नखोन सी अयुथया थाईलैण्ड का एक प्रान्त है। यह मध्य थाईलैण्ड क्षेत्र में स्थित है। .

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फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान

फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान एक फूलों की घाटी का नाम है, जिसे अंग्रेजी में Valley of Flowers कहते हैं। यह भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में है। यह फूलों की घाटी विश्व संगठन, यूनेस्को द्वारा सन् 1982 में घोषित विश्व धरोहर स्थल नन्दा देवी अभयारण्य नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान का एक भाग है। .

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बर्मी साहित्य

अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है। बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है। .

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बल्ख़ प्रान्त

अफ़्ग़ानिस्तान का बल्ख़ प्रांत (नीले रंग में) बल्ख़ (फ़ारसी:, संस्कृत: वाह्लिका, अंग्रेजी: Balkh) अफ़्ग़ानिस्तान का एक प्रांत है जो उस देश के उत्तरी भाग में स्थित है। बल्ख़ की राजधानी प्रसिद्ध मज़ार-ए-शरीफ़ शहर है। इसका क्षेत्रफल १७,२४९ वर्ग किमी है और इसकी आबादी सन् २००६ में लगभग ११.२ लाख अनुमानित की गई थी।, Central Intelligence Agency (सी आइ ए), Accessed 27 दिसम्बर 2011 इस प्रान्त का नाम इसी नाम के एक शहर पर पड़ा है जो राजधानी से २५ किलोमीटर पश्चिम की ओर है और अठारहवीं सदी तक शासन का केन्द्र था। इस क्षेत्र को हिन्द-ईरानी पूर्व के आर्यों के आगमन का प्रमुख केन्द्र माना जाता है जहाँ वो क़रीब २००० ईसापूर्व में आए होंगे। ईसा के दो सदी पूर्व में यह इलाक़ा ऐतिहासिक बैक्ट्रिया संस्कृति के क्षेत्र का केन्द्र था और इसी के नाम को यवनों ने बदलकर बैक्ट्रा रखा था। .

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बालि

वालि वध वालि (संस्कृत) या बालि रामायण का एक पात्र है। वह सुग्रीव का बड़ा भाई था। वह किष्किन्धा का राजा था तथा इन्द्र का पुत्र बताया जाता है। विष्णु के अवतार राम ने उसका वध किया। हालाँकि रामायण की पुस्तक किष्किन्धाकाण्ड के ६७ अध्यायों में से अध्याय ५ से लेकर २६ तक ही वालि का वर्णन किया गया है, फिर भी रामायण में वालि की एक मुख्य भूमिका रही है, विशेषकर उसके वध को लेकर। .

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बालकाण्ड

Rama Killing Demon Tataka बालकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। अयोध्या नगरी में दशरथ नाम के राजा हुये जिनकी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा नामक पत्नियाँ थीं। संतान प्राप्ति हेतु अयोध्यापति दशरथ ने अपने गुरु श्री वशिष्ठ की आज्ञा से पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया जिसे कि ऋंगी ऋषि ने सम्पन्न किया। भक्तिपूर्ण आहुतियाँ पाकर अग्निदेव प्रसन्न हुये और उन्होंने स्वयं प्रकट होकर राजा दशरथ को हविष्यपात्र (खीर, पायस) दिया जिसे कि उन्होंने अपनी तीनों पत्नियों में बाँट दिया। खीर के सेवन के परिणामस्वरूप कौशल्या के गर्भ से राम का, कैकेयी के गर्भ से भरत का तथा सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। सीता स्वंयवर (चित्रकार: रवी वर्मा) राजकुमारों के बड़े होने पर आश्रम की राक्षसों से रक्षा हेतु ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग कर अपने साथ ले गये। राम ने ताड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों को मार डाला और मारीच को बिना फल वाले बाण से मार कर समुद्र के पार भेज दिया। उधर लक्ष्मण ने राक्षसों की सारी सेना का संहार कर डाला। धनुषयज्ञ हेतु राजा जनक के निमंत्रण मिलने पर विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ उनकी नगरी मिथिला (जनकपुर) आ गये। रास्ते में राम ने गौतम मुनि की स्त्री अहल्या का उद्धार किया। मिथिला में राजा जनक की पुत्री सीता जिन्हें कि जानकी के नाम से भी जाना जाता है का स्वयंवर का भी आयोजन था जहाँ कि जनकप्रतिज्ञा के अनुसार शिवधनुष को तोड़ कर राम ने सीता से विवाह किया। राम और सीता के विवाह के साथ ही साथ गुरु वशिष्ठ ने भरत का माण्डवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से और शत्रुघ्न का श्रुतकीर्ति से करवा दिया। .

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बालूचरी साड़ी

बालूचरी साड़ियां पश्चिम बंगाल के विष्णुपुर व मुर्शिदाबाद में बनती हैं। सन् १९६५ से बनारस में भी बालूचरी साड़ियों का निर्माण होने लगा। ये भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। एक बालूचरी साड़ी बनाने में कम से कम एक सप्ताह का वक्त लगता है। दो लोग मिल कर इसे बनाते हैं। .

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बंगाली साहित्य

बँगला भाषा का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है - 1.

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बुद्धचरित

बुद्धचरितम्, संस्कृत का महाकाव्य है। इसके रचयिता अश्वघोष हैं। इसमें गौतम बुद्ध का जीवनचरित वर्णित है। इसकी रचनाकाल दूसरी शताब्दी है। सन् ४२० में धर्मरक्षा ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया तथा ७वीं एवं ८वीं शती में इसका अत्यन्त शुद्ध तिब्बती अनुवाद किया गया। दुर्भाग्यवश यह महाकाव्य मूल रूप में अपूर्ण ही उपलब्ध है। 28 सर्गों में विरचित इस महाकाव्य के द्वितीय से लेकर त्रयोदश सर्ग तक तथा प्रथम एवं चतुर्दश सर्ग के कुछ अंश ही मिलते हैं। इस महाकाव्य के शेष सर्ग संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। इस महाकाव्य के पूरे 28 सर्गों का चीनी तथा तिब्बती अनुवाद अवश्य उपलब्ध है। .

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ब्यास नदी

चेनाब नदी ब्यास (Beas, ਬਿਆਸ, विपाशा) पंजाब (भारत) हिमाचल में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। नदी की लम्बाई 470 किलोमीटर है। पंजाब (भारत) की पांच प्रमुख नदियों में से एक है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में केवल एक बार है। बृहद्देवता में शतुद्री या सतलुज और विपाशा का एक साथ उल्लेख है। .

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ब्रज

शेठ लक्ष्मीचन्द मन्दिर का द्वार (१८६० के दशक का फोटो) वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर सहित वह भू-भाग, जो श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी विविध लीलाओं से सम्बधित है, ब्रज कहलाता है। इस प्रकार ब्रज वर्तमान मथुरा मंडल और प्राचीन शूरसेन प्रदेश का अपर नाम और उसका एक छोटा रूप है। इसमें मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगाँव, वरसाना, डीग और कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी लीला-स्थल सम्मिलित हैं। उक्त ब्रज की सीमा को चौरासी कोस माना गया है। सूरदास तथा अन्य व्रजभाषा के भक्त कवियों और वार्ताकारों ने भागवत पुराण के अनुकरण पर मथुरा के निकटवर्ती वन्य प्रदेश की गोप-बस्ती को ब्रज कहा है और उसे सर्वत्र 'मथुरा', 'मधुपुरी' या 'मधुवन' से पृथक वतलाया है। ब्रज क्षेत्र में आने वाले प्रमुख नगर ये हैं- मथुरा, जलेसर, भरतपुर, आगरा, हाथरस, धौलपुर, अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, एटा, कासगंज, और फिरोजाबाद। ब्रज शब्द संस्कृत धातु 'व्रज' से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का बाड़ा), मार्ग और वृंद (झुण्ड)। संस्कृत के व्रज शब्द से ही हिन्दी का ब्रज शब्द बना है। वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रूप में वर्णित है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है। शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। हरिवंश तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ व्थापित वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है। अतः यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है। वेदों से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवतकार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक हैं। भागवत के आधार पर सूरदास की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्राचीन काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चारागाहों, गोष्ठों और सुन्दर गायों के लिये प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा नगर में हुआ था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें जन्म लेते ही यमुना पार की गोप-वस्ती में भेज दिया गया था, उनकी वाल्यावस्था एक बड़े गोपालक के घर में गोप, गोपी और गो-वृंद के साथ बीती थी। उस काल में उनके पालक नंदादि गोप गण अपनी सुरक्षा और गोचर-भूमि की सुविधा के लिये अपने गोकुल के साथ मथुरा निकटवर्ती विस्तृत वन-खण्डों में घूमा करते थे। श्रीकृष्ण के कारण उन गोप-गोपियों, गायों और गोचर-भूमियों का महत्व बड़ गया था। पौराणिक काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक जैसे-जैसे कृश्णोपासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे श्रीकृष्ण के उक्त परिकरों तथा उनके लीला स्थलों के गौरव की भी वृद्धि होती गई। इस काल में यहां गो-पालन की प्रचुरता थी, जिसके कारण व्रजखण्डों की भी प्रचुरता हो गई थी। इसलिये श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से सम्वधित मथुरा के आस-पास का समस्त प्रदेश ही ब्रज अथवा ब्रजमण्डल कहा जाने लगा था। इस प्रकार ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। वेदों और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग 'गोष्ठ'-'गो-स्थान' जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां पौराणिक काल में 'गोप-बस्ती' जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी ही था। भागवत में 'ब्रज' क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें 'पुर' से छोटा 'ग्राम' और उससे भी छोटी बस्ती को 'ब्रज' कहा गया है। १६वीं शताब्दी में 'ब्रज' प्रदेशवायी होकर 'ब्रजमंडल' हो गया और तव उसका आकार ८४ कोस का माना जाने लगा था। उस समय मथुरा नगर 'ब्रज' में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य ब्रज-भाषा कवियों ने 'ब्रज' और मथुरा का पृथक् रूप में ही कथन किया है, जैसे पहिले अंकित किया जा चुका है। कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा जिले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामबन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त समस्त भू-भाग रे प्राचीन नाम, मधुबन, शुरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरामंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। .

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भट्टिकाव्य

भट्टिकाव्य महाकवि भट्टि द्वारा रचित महाकाव्य है। इसका वास्तविक नाम 'रावणवध' है। इसमें भगवान रामचंद्र की कथा जन्म से लगाकर लंकेश्वर रावण के संहार तक उपवर्णित है। यह महाकाव्य संस्कृत साहित्य के दो महान परम्पराओं - रामायण एवं पाणिनीय व्याकरण का मिश्रण होने के नाते कला और विज्ञान का समिश्रण जैसा है। अत: इसे साहित्य में एक नया और साहसपूर्ण प्रयोग माना जाता है। भट्टि ने स्वयं अपनी रचना का गौरव प्रकट करते हुए कहा है कि यह मेरी रचना व्याकरण के ज्ञान से हीन पाठकों के लिए नहीं है। यह काव्य टीका के सहारे ही समझा जा सकता है। यह मेधावी विद्वान के मनोविनोद के लिए रचा गया है, तथा सुबोध छात्र को प्रायोगिक पद्धति से व्याकरण के दुरूह नियमों से अवगत कराने के लिए। भट्टिकाव्य की प्रौढ़ता ने उसे कठिन होते हुए भी जनप्रिय एवं मान्य बनाया है। प्राचीन पठनपाठन की परिपाटी में भट्टिकाव्य को सुप्रसिद्ध पंचमहाकाव्य (रघुवंश, कुमारसंभव, किरातार्जुनीय, शिशुपालवध, नैषधचरित) के समान स्थान दिया गया है। लगभग 14 टीकाएँ जयमंगला, मल्लिनाथ की सर्वपथीन एवं जीवानंद कृत हैं। माधवीयधातुवृत्ति में आदि शंकराचार्य द्वारा भट्टिकाव्य पर प्रणीत टीका का उल्लेख मिलता है। .

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भानुभक्त आचार्य

भानुभक्त आचार्य (1814 – 1868), नेपाल के कवि थे जिन्होने नेपाली में रामायण की रचना की। उन्हें नेपाली भाषा का आदिकवि माना जाता है। नेपाली साहित्य के क्षेत्र में प्रथम महाकाव्य रामायण के रचनाकार भानुभक्त का उदय सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है। पूर्व से पश्चिम तक नेपाल का कोई ऐसा गाँव अथवा कस्वा नहीं है जहाँ उनकी रामायण की पहुँच नहीं हो। भानुभक्त कृत रामायण वस्तुत: नेपाल का 'रामचरित मानस' है। रम्घा ग्राम में भानुभक्त की प्रतिमा भानुभक्त का जन्म पश्चिमी नेपाल में चुँदी-व्याँसी क्षेत्र के रम्घा ग्राम में २९ आसाढ़ संवत १८७१ तदनुसार १८१४ ई. में हुआ था। संवत् १९१० तदनुसार १८५३ई.

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भानुभक्तीय रामायण

भानुभक्तीय रामायण नेपाल के भक्त कवि भानुभक्त आचार्य द्वारा नेपाली भाषा में रचित रामायण है। पूर्व से पश्चिम तक नेपाल का कोई ऐसा गाँव अथवा कस्वा नहीं है जहाँ भानुभक्त रामायण की रामायण की पहुँच न हो। भानुभक्त कृत रामायण वस्तुत: नेपाल का 'रामचरित मानस' है। संवत् १९१० तदनुसार १८५३ ई. में उनकी रामायण पूरी हो गयी थी, किंतु एक अन्य स्रोत के अनुसार युद्धकांड और उत्तर कांड की रचना १८५५ ई. में हुई थी। भानुभक्त कृत रामायण की कथा अध्यात्म रामायण पर आधारित है। इसमें उसी की तरह सात कांड हैं - बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर, युद्ध और उत्तर। .

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भारत में धर्म

तवांग में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा. बैंगलोर में शिव की एक प्रतिमा. कर्नाटक में जैन ईश्वरदूत (या जिन) बाहुबली की एक प्रतिमा. 2 में स्थित, भारत, दिल्ली में एक लोकप्रिय पूजा के बहाई हॉउस. भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज, दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है। भारत के पूर्ण इतिहास के दौरान धर्म का यहां की संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है - हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिक्ख धर्म.

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भारत में मधुमक्खी पालन

भारत में मधुमक्खी पालन का प्राचीन वेद और बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख किया गया हैं। मध्य प्रदेश में मध्यपाषाण काल की शिला चित्रकारी में मधु संग्रह गतिविधियों को दर्शाया गया हैं। हालांकि भारत में मधुमक्खी पालन की वैज्ञानिक पद्धतियां १९वीं सदी के अंत में ही शुरू हुईं, पर मधुमक्खियों को पालना और उनके युद्ध में इस्तेमाल करने के अभिलेख १९वीं शताब्दी की शुरुआत से देखे गए हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित किया गया। मधुमक्खी की पाँच प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं जो कि प्राकृतिक शहद और मोम उत्पादन के लिए व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। .

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भारत में हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म भारत का सबसे बड़ा और मूल धार्मिक समूह है और भारत की 79.8% जनसंख्या (96.8 करोड़) इस धर्म की अनुयाई है। भारत में वैदिक संस्कृति का उद्गम २००० से १५०० ईसा पूर्व में हुआ था। जिसके फलस्वरूप हिन्दू धर्म को, वैदिक धर्म का क्रमानुयायी माना जाता है, जिसका भारतीय इतिहास पर गहन प्रभाव रहा है। स्वयं इण्डिया नाम भी यूनानी के Ἰνδία (इण्डस) से निकला है, जो स्वयं भी प्राचीन फ़ारसी शब्द हिन्दू से निकला, जो संस्कृत से सिन्धु से निकला, जो इस क्षेत्र में बहने वाली सिन्धु नदी के लिए प्रयुक्त किया गया था। भारत का एक अन्य प्रचलित नाम हिन्दुस्तान है, अर्थात "हिन्दुओं की भूमि"। .

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भारत में ज्वैलरी डिजाइन

ज्वैलरी डिजाइन कला या डिजाइन और आभूषण बनाने का पेशा है। यह सभ्यता की सजावट की जल्द से जल्द रूपों में से एक है, मेसोपोटामिया और मिस्र का सबसे पुराना ज्ञात मानव समाज के लिए कम से कम सात हजार साल पहले डेटिंग। कला परिष्कृत धातु और मणि काटने आधुनिक दिन में ज्ञात करने के लिए प्राचीन काल की साधारण पोत का कारचोबी से सदियों भर में कई रूपों ले लिया है। इससे पहले कि आभूषणों के एक लेख बनाई गई है, डिजाइन अवधारणाओं विस्तृत तकनीकी एक आभूषण डिजाइनर, जो सामग्री, निर्माण तकनीक, संरचना, पहनने और बाजार के रुझान के स्थापत्य और कार्यात्मक ज्ञान में प्रशिक्षित किया जाता है एक पेशेवर द्वारा उत्पन्न चित्र द्वारा पीछा किया गाया जाता है। पारंपरिक हाथ ड्राइंग और मसौदा तैयार करने के तरीकों अभी भी विशेष रूप से वैचारिक स्तर पर, आभूषण डिजाइन में उपयोग किया जाता है। हालांकि, एक पारी गैंडा 3 डी और मैट्रिक्स की तरह कंप्यूटर एडेड डिजाइन कार्यक्रमों के लिए हो रही है। जबकि परंपरागत रूप से हाथ से सचित्र गहना आम तौर पर एक कुशल शिल्पकार द्वारा मोम या धातु सीधे में अनुवाद किया है, एक सीएडी मॉडल आम तौर पर रबर मोल्डिंग में इस्तेमाल किया है या मोम खो दिया जा एक सीएनसी कट या 3 डी मुद्रित 'मोम' पैटर्न के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है कास्टिंग प्रक्रियाओं। .

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भारत का पौराणिक इतिहास

भारत का पौराणिक इतिहास सृष्टि के आरंभ से लेकर कलियुग में हुए राजाओं एवं मुगल शासन तक का इतिहास है जिसका वर्णन वेद व्यास रचित विभिन्न पुराणों, रामायण आदि ग्रंथों में किया गया है। काल को सत्ययुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलियुग सहित चार भागों में विभाजित किया गया है। इस इतिहास में भूत, वर्तमान और भविष्य का गौरव किया गया है। पुराणिक इतिहास के अनुसार भारत का इतिहास करोड़ो वर्षो का है और अत्यंत ही गौरवपूर्ण था। भाषा, संस्कृति का उद्गम भारत से हुआ था और आध्यात्मिकता एवं उच्च आदर्शों के लिए भारत को जाना जाता है। भविष्य पुराण तथा अन्य कई पुराणों में महाभारत काल से गुप्त काल तक के समस्त राजाओं की सूचि दी गयी है, जिसके आधार पर कई विद्वानों ने भारत का पौराणिक इतिहास क्रम बनाया है। रामायण ग्रंथ में श्रीराम का इतिहास और महाभारत में भारत में हुए भीषण महायुद्ध का इतिहास लिखा गया है। दोनों ग्रंथो में उक्त काल में हुए राजा के वंश का भी वर्णन है और भविष्य पुराण में भारत में मुगल शासन काल और बादशाहों के वंश का भी वर्णन है। .

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भारत का सैन्य इतिहास

भरतीय योद्धा का चित्रण: गान्धर्व कला, प्रथम शताब्दी युद्ध के लिये प्रस्थान करते हुए रामचन्द्र भारत के इतिहास में 'सेना' का उल्लेख वेदों, रामायण तथा महाभारत में मिलता है। महाभारत में सर्वप्रथम सेना की इकाई 'अक्षौहिणी' उल्लिखित है। प्रत्येक 'अक्षौहिणी' सेना में पैदल, घुडसवार, हाथी, रथ आदि की संख्या निश्चित होती थी। .

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भारत की संस्कृति

कृष्णा के रूप में नृत्य करते है भारत उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक सीमाओं और क्षेत्रों की स्थिरता और ऐतिहासिक स्थायित्व को प्रदर्शित करता हुआ मानचित्र भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को भी बहुत प्रभावित किया है। .

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भारतीय महाकाव्य

भारत में संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में अनेक महाकाव्यों की रचना हुई है। भारत के महाकाव्यों में वाल्मीकि रामायण, व्यास द्वैपायन रचित महाभारत, तुलसीदासरचित रामचरितमानस, आदि ग्रन्थ परमुख हैं। .

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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भारतीय साहित्य

भारतीय साहित्य से तात्पर्य सन् १९४७ के पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप एवं तत्पश्चात् भारत गणराज्य में निर्मित वाचिक और लिखित साहित्य से होता है। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से सभी साहित्य का मूल स्रोत है। भारतीय गणराज्य में 22 आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाएँ है। जिनमें मात्र 2 आदिवासी भाषाओं - संथाली और बोड़ो - को ही शामिल किया गया है। .

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भारतीय साहित्य में कम्बोज

कम्बोजों का उल्लेख भारत के अनेकों संस्कृत एवं पालि ग्रन्थों में हुआ है, जैसे सामवेद, अथर्ववेद, रामायण, महाभारत, पुराण, कौटिल्य अर्थशास्त्र, निरुक्त, जातक कथाओं, जैन आगमों, प्राचीन व्याकरण ग्रन्थों, एवं नाटकों में। श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

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भारतीय सिनेमा

भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और भाषाओं में बनने वाली फिल्में आती हैं जिनमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और बॉलीवुड शामिल हैं। भारतीय सिनेमा ने २०वीं सदी की शुरुआत से ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक माध्यम(परिवर्तन) के रूप में सिनेमा ने देश में अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की और सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनी हैं। दादा साहेब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाते हैं। दादा साहब फाल्के के भारतीय सिनेमा में आजीवन योगदान के प्रतीक स्वरुप और 1969 में दादा साहब के जन्म शताब्दी वर्ष में भारत सरकार द्वारा दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना उनके सम्मान में की गयी। आज यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित और वांछित पुरस्कार हो गया है। २०वीं सदी में भारतीय सिनेमा, संयुक्त राज्य अमरीका का सिनेमा हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ एक वैश्विक उद्योग बन गया।Khanna, 155 2013 में भारत वार्षिक फिल्म निर्माण में पहले स्थान पर था इसके बाद नाइजीरिया सिनेमा, हॉलीवुड और चीन के सिनेमा का स्थान आता है। वर्ष 2012 में भारत में 1602 फ़िल्मों का निर्माण हुआ जिसमें तमिल सिनेमा अग्रणी रहा जिसके बाद तेलुगु और बॉलीवुड का स्थान आता है। भारतीय फ़िल्म उद्योग की वर्ष 2011 में कुल आय $1.86 अरब (₹ 93 अरब) की रही। जिसके वर्ष 2016 तक $3 अरब (₹ 150 अरब) तक पहुँचने का अनुमान है। बढ़ती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय सिनेमा का चेहरा बदला है। अब सुपर हीरो तथा विज्ञानं कल्प जैसी फ़िल्में न केवल बन रही हैं बल्कि ऐसी कई फिल्में एंथीरन, रा.वन, ईगा और कृष 3 ब्लॉकबस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है। भारतीय सिनेमा ने 90 से ज़्यादा देशों में बाजार पाया है जहाँ भारतीय फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। Khanna, 158 सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी सफलता पाई है। 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। Khanna, 156 एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और वितरण में सफलता पाई। मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी। 2003 तक फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से सम्बंधित 30 से ज़्यादा कम्पनियां भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी थी जो फिल्म माध्यम के बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का सबूत हैं। दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग दक्षिण भारत की चार फिल्म संस्कृतियों को एक इकाई के रूप में परिभाषित करता है। ये कन्नड़ सिनेमा, मलयालम सिनेमा, तेलुगू सिनेमा और तमिल सिनेमा हैं। हालाँकि ये स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं लेकिन इनमे फिल्म कलाकारों और तकनीशियनों के आदान-प्रदान और वैष्वीकरण ने इस नई पहचान के जन्म में मदद की। भारत से बाहर निवास कर रहे प्रवासी भारतीय जिनकी संख्या आज लाखों में हैं, उनके लिए भारतीय फिल्में डीवीडी या व्यावसायिक रूप से संभव जगहों में स्क्रीनिंग के माध्यम से प्रदर्शित होती हैं। Potts, 74 इस विदेशी बाजार का भारतीय फिल्मों की आय में 12% तक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इसके अलावा भारतीय सिनेमा में संगीत भी राजस्व का एक साधन है। फिल्मों के संगीत अधिकार एक फिल्म की 4 -5 % शुद्ध आय का साधन हो सकते हैं। .

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भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

3 मई 2013 (शुक्रवार) को भारतीय सिनेमा पूरे सौ साल का हो गया। किसी भी देश में बनने वाली फिल्में वहां के सामाजिक जीवन और रीति-रिवाज का दर्पण होती हैं। भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में हम भारतीय समाज के विभिन्न चरणों का अक्स देख सकते हैं।उल्लेखनीय है कि इसी तिथि को भारत की पहली फीचर फ़िल्म “राजा हरिश्चंद्र” का रुपहले परदे पर पदार्पण हुआ था। इस फ़िल्म के निर्माता भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके थे। एक सौ वर्षों की लम्बी यात्रा में हिन्दी सिनेमा ने न केवल बेशुमार कला प्रतिभाएं दीं बल्कि भारतीय समाज और चरित्र को गढ़ने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। .

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भारतीय संख्या प्रणाली

भारतीय संख्या प्रणाली भारतीय उपमहाद्वीप की परम्परागत गिनने की प्रणाली है जो भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल में आम इस्तेमाल होती है। जहाँ पश्चिमी प्रणाली में दशमलव के तीन स्थानों पर समूह बनते हैं वहाँ भारतीय प्रणाली में दो स्थानों पर बनते हैं। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भारतीय छन्दशास्त्र

छन्द शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छन्दस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेयव्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर छन्द का नाम दिया जाता है। छन्दशास्त्र इसलिये अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया। .

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भास

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। .

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भवभूति

भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में महावीरचरित्‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये विदर्भ देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। मालतीमाधव की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु कुमारिल थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के श्लोकवार्तिक की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। शंकरदिग्विजय से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता वाक्यपतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। .

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भगीरथ

भगीरथ इक्ष्वाकुवंशीय सम्राट् दिलीप के पुत्र थे जिन्होंने घोर तपस्या से गंगा को पृथ्वी पर अवतरित कर कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए ६० हजार सगरपुत्रों के उद्धारार्थ पीढ़ियों से चले प्रयत्नों को सफल किया था। गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय भगीरथ को है, इसलिए इनके नाम पर उन्हें 'भागीरथी' कहा गया। गंगावतरण की इस घटना का क्रमबद्ध वर्णन वायुपुराण (४७.३७), विष्णुपुराण (४.४.१७), हरवंश पुराण (१.१५), ब्रह्मवैवर्त पुराण(१.०), महाभारत (अनु. १२६.२६), भागवत (९.९) आदि पुराणों तथा वाल्मीकीय रामायण (बाल., १.४२-४४) में मिलता है। .

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भृङ्गदूतम्

भृंगदूतम् (२००४), (शब्दार्थ:भ्रमर दूत)) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा दूतकाव्य शैली में रचित एक संस्कृत खण्डकाव्य है। काव्य दो भागों में विभक्त है और इसमें मन्दाक्रान्ता छंद में रचित ५०१ श्लोक हैं। काव्य की कथा रामायण के किष्किन्धाकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें भगवान राम वर्षा ऋतु के चार महीने किष्किन्धा में स्थित प्रवर्षण पर्वत पर सीता के विरह में व्यतीत करते हैं। प्रस्तुत खण्डकाव्य में राम इस अवधि में अपनी पत्नी, सीता, जो की रावण द्वारा लंका में बंदी बना ली गई हैं, को स्मरण करते हुए एक भ्रमर (भौंरा) को दूत बनाकर सीता के लिए संदेश प्रेषित करते हैं। काव्य की एक प्रति स्वयं कवि द्वारा रचित "गुंजन" नामक हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अगस्त २००४ को किया गया था। .

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भूखी पीढ़ी

भूखी पीढ़ी (Hungry generation, बांग्ला: হাংরি আন্দোলন (हंगरी आन्दोलन)) मूलतः अमेरिकी साहित्य से प्रेरित बांग्ला साहित्य में उथलपुथल मचा देनेवाला एक आन्दोलन रहा है। यह साठ के दशक मे बिहार के पटना शहर मे कवि मलय रायचौधुरी के घर पर एकत्र देबी राय, शक्ति चट्टोपाध्याय और समीर रायचौधुरी के मस्तिष्क से उजागर होकर कोलकाता शहर जा पंहुचा जहाँ उनहोंने नवम्बर १९६१ को एक मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) के जरिये आन्दोलन की घोषणा की। बाद में आन्दोलन में योगदान देनेवाले कवि, लेखक एवं चित्रकार थे उतपलकुमार बसु, सन्दीपन चट्टोपाध्याय, बासुदेब दाशगुप्ता, सुबिमल बसाक, अनिल करनजय करुणानिधान मुखोपाध्याय्, सुबो आचारजा, विनय मजुमदार, फालगुनि राय, आलो मित्रा, प्रदीप चौधुरि और सुभाष घोष सहित तीस सदस्य। भुखी पीढी के मैनिफेस्टो गोष्ठी के सदस्यों ने साप्ताहिक बुलेटिन एवं पत्रिका के माध्यम से अपने नये नन्द्नतत्व प्रसारित किये एवं सारे भारत मे हलचल मचा दी। उन लोगों के नयेपन से कोलकाता के साहित्य प्रसाशकगण क्षुब्ध हुये। सितम्बर १९६४ को आन्दोलन के ११ सदस्यो के विरुद्ध अश्लीलता के आरोप मे मुकदमा दायर हुया। मलय रायचौधुरी के लिखे हुये कविता प्रचण्ड बैद्युतिक क्षुतार को निम्न अदालत ने अश्लील करार देक्रर एक माह का काराद्ण्ड का आदेश दिया। उच्च अदालत ने कविता को अश्लील नहीं पाया एवं मलय को बाइज्जत बरी किया। मुकदमे के कारण सारे जगत मे आन्दोलन को प्रचार मिला। भारत एवं बिश्व के प्रमुख सम्बाद तथा सहित्य पत्रिकाओं मे उनके कॄति के चर्चे हुये। वर्तमान में आन्दोलनकारीयो पर शोधकार्य हो रहे है। उनके मेनिफेस्टो आदि ढाका बांग्ला अकादेमि तथा अमरिका के विश्वविद्यालयों में सुरक्षित किये गये है। गिरफ़्तारी एवं आन्दोलन में भाग लेने वाले कवि और लेखकगण जो गिरफतार हुये थे वे लोग अपनी नौकरी से निकाले गये थे। गिरफ़्तारी के समय उन लोगों को रस्सी बांधकर, हाथों में हथकड़ी पहनाकर बीच बाजार से आदालत तक पैदल ले जाया गया था। अध्यापक उत्त्म दाश एवं डक्टर विष्णुच्र्ण दे, जिन्होंने इस आन्दोलन पर शोधकार्य किया है, उनका कहना है कि यह आन्दोलन भारत के उत्तर-उपनिवेशबादी समाज का प्रतिफलन है। आन्दोलन के कवि एवं लेखक भाषा में अनुप्रबेश किये हुये उपनिबेशिय मनन-चिन्तन को झकझोर देने में जुटे रहे। कोलकाता प्रशासन के लिये यह दुश्चिन्ता पैदा करने में कामियाब हो गया था। .

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भोई

भोई क्षत्रिय, भोई राजपूत, भोई आदिवासी भोई भारत की एक प्राचीन जाति है। यह एक आखेटक आदिवासी जाति है जिसका उल्लेख महाभारत और रामायणजैसे भारत के प्राचीनतम महाकाव्यों में मिलता है। भोई समाज शैव धर्म के अंग है। वर्णाश्रम व्यवस्था में वे निषाद अवर्ग रहे हैं। ये मूल रूप से आदिवासी हैं। उड़ीसा में भोई राजवंश के उल्लेख इतिहास में उल्लेखित हैं। से जल जंगल और ज़मीन पर आश्रित होकर अपना जीवन यापन प्राकृतिक संसाधनों की सहायता से करते चले आ रहे हैं। महाभारत के भिष्म पितामह की दुसरी माता सत्यवती एक धीवर(निषाद)पुत्री थी,जरासन्ध भी चंद्रवंशी क्षत्रिय कहार चन्देल राजपूत, व एकलव्य निषाद था...मगर कर्म संबोधन कहार जाति के उपजाति वंश की शाखा के ही भाग है बैसे कर्म संबोधन कहार जाति चंद्रवंशी समाज (रवानी) के लोग स्वयं को कश्यप नाम के एक अति प्राचीन हिन्दू ऋषि के गोत्र से उत्पन्न हुआ बतलाते हैं। इस कारण वे अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द कश्यप लगाने में गर्व अनुभव करते हैं।बैसे महाभारत के भिष्म पितामह की दुसरी माता सत्यवती एक धीवर(निषाद)पुत्री थी,मगध साम्राट बहुबली जरासंध महराज भी चंद्रवंशी क्षत्रिय ही थे!बिहार,झारखंड,पं.बंगाल,आसाम में इस समाज को चंद्रवंशी क्षत्रिय समाज कहते है!रवानी या रमानी चंद्रवंसी समाज या कहार जाति की उपजाति या शाखा है। यह भारत के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न नामों से पायी जाती है।और रामायण मे प्रभु श्रीरामचंद्र और केवट के संवाद का वर्णन है इस बात से यह साबित होता हे की भोई एक आदिम जाती है .

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मथुरा की मूर्तिकला

यक्षिणी- मथुरा चित्रकलामथुरा में लगभग तीसरी शती ई०पू० से बारहवीं शती ई० तक अर्थात डेढ़ हजार वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा कला की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान महत्त्वपूर्ण है। कुषाण काल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था। सबसे विशिष्ट कार्य जो इस काल के दौरान किया गया वह बुद्ध का सुनिचित मानक प्रतीक था। मथुरा के कलाकार गंधार कला में निर्मित बुद्ध के चित्रों से प्रभावित थे। जैन तीर्थंकरों और हिन्दू चित्रों का अभिलेख भी मथुरा में पाया जाता है। उनके प्रभावाशाली नमूने आज भी मथुरा, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद में उपस्थित हैं। इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि मधु नामक दैत्य ने जब मथुरा का निर्माण किया तो निश्चय ही यह नगरी बहुत सुन्दर और भव्य रही होगी। शत्रुघ्न के आक्रमण के समय इसका विध्वंस भी बहुत हुआ और वाल्मीकि रामायण तथा रघुवंश, दोनों के प्रसंगों से इसकी पुष्टि होती है कि उसने नगर का नवीनीकरण किया। लगभग पहली सहस्राब्दी से पाँचवीं शती ई० पूर्व के बीच के मृत्पात्रों पर काली रेखाएँ बनी मिलती हैं जो ब्रज संस्कृति की प्रागैतिहासिक कलाप्रियता का आभास देती है। उसके बाद मृण्मूर्तियाँ हैं जिनका आकार तो साधारण लोक शैली का है परन्तु स्वतंत्र रूप से चिपका कर लगाये आभूषण सुरुचि के परिचायक हैं। मौर्यकालीन मृण्मूर्तियों का केशपाश अलंकृत और सुव्यवस्थित है। सलेटी रंग की मातृदेवियों की मिट्टी की प्राचीन मूर्तियों के लिए मथुरा की पुरातात्विक प्रसिद्ध है। लगभग तीसरी शती के अन्त तक यक्ष और यक्षियों की प्रस्तर मूर्तियाँ उपलब्ध होने लगती हैं। मथुरा में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। महावीर की मूर्तियाँ भी बनीं। मथुरा कला में अनेक बेदिकास्तम्भ भी बनाये गये। यक्ष यक्षिणियों और धन के देवता कुबेर की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं। इसका उदाहरण मथुरा से कनिष्क की बिना सिर की एक खड़ी प्रतिमा है। मथुरा शैली की सबसे सुन्दर मूर्तियाँ पक्षियों की हैं जो एक स्तूप की वेष्टणी पर खुदी खुई थी। इन मूर्तियों की कामुकतापूर्ण भावभंगिमा सिन्धु में उपलब्ध नर्तकी की प्रतिमा से बहुत कुछ मिलती जुलती है। .

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मन्दोदरी

मंदोदरी रामायण के पात्र, पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा गया है। मंदोदरी मयदानव की पुत्री थी। उसका विवाह लंकापति रावण के साथ हुआ था। हेमा नामक अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाथ की माता तथा मयासुर की कन्या थी। अतिकाय व अक्षयकुमार इसके अन्य पुत्र थे। रावण को सदा यह अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसीने शतरंज के खेल का प्रारंभ किया था। इसकी गणना भी पंचकन्याओं में है सिंघलदीप की राजकन्या और एक मातृका का भी नाम मंदोदरी था। .

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मन्मथनाथ दत्त

मन्मथनाथ दत्त संस्कृत एवं पालि के विद्वान, बांग्ला लेखक, इतिहासविद तथा प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुवादक थे। 'शास्त्री' की उपाधि मिलने के पश्चात वे 'मन्मथनाथ शास्त्री' नाम से जाने जाते हैं। आज उनके जीवन के बारे में बहुत कम ज्ञात है। मन्मथनाथ दत्त ने एम ए तथा एम आर ए एस की शिक्षा पायी थी। कई वर्षों तक कोलकाता के केशव अकादमी के रेक्टर रहे। १८९५ से १९०५ के बीच वे श्रीरामपुर कॉलेज के रेक्टर रहे। वे भारत के महानतम अनुवादक कहे जा सकते हैं। उन्होने महाभारत का तीन खण्डों में अनुवाद किया और रामायण का पाँच खण्डों में। इसके अलावा उन्होने सायण के ऋग्वेद के भाष्य का अनुवाद किया। मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, गरुड पुराण, भागवतम्, महानिर्वाणतन्त्र, मनु स्मृति, हरिवंशम्, पराशर संहिता, गौतमसंहिता, कामन्दकीय नीतिसार का भी अनुवाद किया। वे 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' नामक एक मासिक पत्रिका भी निकालते थे। .

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मराठी साहित्य

मराठी साहित्य महाराष्ट्र के जीवन का अत्यंत संपन्न तथा सुदृढ़ उपांग है। .

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मलय रॉय चौधुरी

मलय रायचौधुरी (जन्म २९ अक्टूबर १९३९) (মলয় রায়চৌধুরী) बांग्ला साहित्य के प्रख्यात कवि एवम आलोचक है। वे साठ के दशक के सहित्य आन्दोलन भूखी पीढ़ी (हंगरी जनरेशन) के जन्मदाता माने जाते है। इस आन्दोलन ने बांग्ला साहित्य को एक नयी दिशा दी और पूरे भारत में उथलपुथल मचायी। आन्दोलन के सिलसिले में मलय को उनहे कविता लिखने के कारण कारावास का दण्ड मिला था। वे अब तक सत्तर से ज्यादा कविताग्रन्थ, नाटक, उपन्यास एवम अनुवद के पुस्तक लिख चुके हैं। साठ के दशक मे जो बदलाव बांगला कविता मे आये, उन में एक बड़ा योगदान मलय रायचौधुरी का रहा है। उनके काव्यग्रन्थो मे ख्याति प्राप्त हैं मेधार वतानुकूल घुन्गुर। २००३ में उन्हें अनुवाद के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। .

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मल्लाह

मल्लाह भारतवर्ष की यह एक आदिकालीन मछुआरा जाति है। मल्लाह जाति मूल रूप से हिन्दू धर्म से सम्बंधित है। यह आखेटक अर्थात शिकारी जाति है। इनका उल्लेख महाभारत एवं रामायण जैसे भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है। यह जाति प्राचीनकाल से जल जंगल और ज़मीन पर आश्रित है। वर्णव्यवस्थानुसार यह जाति वैश्य श्रेणी के अंतर्गत आती है। चूँकि यह जाति मुख्यत: जल से सम्बंधित व्यवसाय कर अपना जीवनयापन करते चले आए हैं, इस लिए मल्लाह, "मछुआरा",केवट\बिन्द,निषाद की ही कई उप-जातियों में से एक हैं।.

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मलूटी

300px मलूटी झारखण्ड राज्य के दुमका जिले में शिकारीपाड़ा के निकट एक छोटा सा कस्बा है। यहाँ ७२ पुराने मंदिर हैं जो बज बसन्त वंश के राज्यकाल में बने थे। इन मन्दिरों में रामायण तथा महाभारत और अन्य हिन्दू ग्रन्थों की विविध कथाओं के दृष्यों का चित्रण है। .

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महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वर्ष २००७ उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया।२७ अप्रैल १९८२ को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष २०१८ में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया । .

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महानदी

छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा अंचल की सबसे बड़ी नदी है। प्राचीनकाल में महानदी का नाम चित्रोत्पला था। महानन्दा एवं नीलोत्पला भी महानदी के ही नाम हैं। महानदी का उद्गम रायपुर के समीप धमतरी जिले में स्थित सिहावा नामक पर्वत श्रेणी से हुआ है। महानदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की तरफ है। सिहावा से निकलकर राजिम में यह जब पैरी और सोढुल नदियों के जल को ग्रहण करती है तब तक विशाल रूप धारण कर चुकी होती है। ऐतिहासिक नगरी आरंग और उसके बाद सिरपुर में वह विकसित होकर शिवरीनारायण में अपने नाम के अनुरुप महानदी बन जाती है। महानदी की धारा इस धार्मिक स्थल से मुड़ जाती है और दक्षिण से उत्तर के बजाय यह पूर्व दिशा में बहने लगती है। संबलपुर में जिले में प्रवेश लेकर महानदी छ्त्तीसगढ़ से बिदा ले लेती है। अपनी पूरी यात्रा का आधे से अधिक भाग वह छत्तीसगढ़ में बिताती है। सिहावा से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने तक महानदी लगभग ८५५ कि॰मी॰ की दूरी तय करती है। छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर धमतरी, कांकेर, चारामा, राजिम, चम्पारण, आरंग, सिरपुर, शिवरी नारायण और उड़ीसा में सम्बलपुर, बलांगीर, कटक आदि स्थान हैं तथा पैरी, सोंढुर, शिवनाथ, हसदेव, अरपा, जोंक, तेल आदि महानदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। महानदी का डेल्टा कटक नगर से लगभग सात मील पहले से शुरू होता है। यहाँ से यह कई धाराओं में विभक्त हो जाती है तथा बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस पर बने प्रमुख बाँध हैं- रुद्री, गंगरेल तथा हीराकुंड। यह नदी पूर्वी मध्यप्रदेश और उड़ीसा की सीमाओं को भी निर्धारित करती है। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महाभारततात्पर्यनिर्णय

महाभारततात्पर्यनिर्णय मध्वाचार्य द्वारा रचित एक टीका ग्रन्थ है। इसमें रामायण, महाभारत और वेदव्यास के जन्म आदि की समीक्षा की गयी है। यह ग्रन्थ महाभारत को एक कथा के रूप में न देखकर इसे 'निर्णायक ग्रन्थ' की संज्ञा देता है। इस ग्रन्थ में ५००० श्लोक तथा ३२ अध्याय हैं। इसका प्रथम अध्याय है- "सर्वशास्त्रार्थनिर्णयः"। .

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महाराष्ट्री प्राकृत

महाराष्ट्री प्राकृत उस प्राकृत शैली का नाम है जो मध्यकाल में महाराष्ट्र प्रदेश में विशेष रूप से प्रचलित हुई। प्राचीन प्राकृत व्याकरणों में - जैसे चंडकृत प्राकृतलक्षण, वररुचि कृत प्राकृतप्रकाश, हेमचंद्र कृत प्राकृत व्याकरण एवं त्रिविक्रम, शुभचँद्र आदि के व्याकरणों में - महाराष्ट्री का नामोल्लेख नहीं पाया जाता। इस नाम का सबसे प्राचीन उल्लेख दंडीकृत काव्यादर्श (6ठी शती ई) में हुआ है, जहाँ कहा गया है कि "महाराष्ट्रीयां भाषां प्रकृष्टं" प्राकृत विदु:, सागर: सूक्तिरत्नानां सेतुबंधादि, यन्मयम्।" अर्थात् महाराष्ट्र प्रदेश आश्रित भाषा प्रकृष्ट प्राकृत मानी गई, क्योंकि उसमें सूक्तियों के सागर सेतुबंधादि काव्यों की रचना हुई। दंडी के इस उल्लेख से दो बातें स्पष्ट ज्ञात होती हैं कि प्राकृत भाषा की एक विशेष शैली महाराष्ट्र प्रदेश में विकसित हो चुकी थी और उसमें सेतुबँध तथा अन्य भी कुछ काव्य रचे जा चुके थे। प्रवरसेन कृत "सेतुबंध" काव्य सुप्रसिद्ध है, जिसकी रचना अनुमानत: चौथी पाँचवीं शती की है। इसमें प्राकृत भाषा का जो स्वरूप दिखाई देता है उसकी प्रमुख विशेषता यह है कि शब्दों के मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् प् ब् य् इन अल्पप्राण वर्णों का लोप होकर केवल उनका संयोगी स्वर (उद्वृत्त स्वर) मात्र शेष रह जाता है। जैसे मकर ऊ मअर, नगर ऊ नअर, निचुल ऊ निउल, परिजन ऊ परिअण, नियम ऊ णिअम, इत्यादि। भाषा-विज्ञान-विशारदों का मत है कि प्राकृत भाषा में यह वर्ण लोप की विधि क्रमश: उत्पन्न हुई। आदि में क् च् त् इन अघोष वर्णों के स्थान में क्रमश: संघोष ग् ज् द् का आदेश होना प्रारंभ हुआ। यह प्रवृत्ति साहित्यिक शौ.

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महाराजा ईश्वरीसिंह

इनकी असामयिक मृत्यु मात्र ३० साल की उम्र में दिनांक 12.12.

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महाकाव्य

संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है .

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महाकाव्य (एपिक)

वृहद् आकार की तथा किसी महान कार्य का वर्णन करने वाली काव्यरचना को महाकाव्य (epic) कहते हैं। .

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माधव कंदलि

माधव कंदलि (असमिया:মাধৱ কন্দলী) असमी के प्रसिद्ध कवि थे। इनके कविताकाल के संबंध में इतिहासकारों तथा समालोचकों में अधिक मतभेद है। कनकलाल बरूवा के मतानुसार इनके आश्रयदाता वाराही नरेश कपिली उपत्यका के शासक थे और माधव कंदलि इन्हीं के राजकवि थे। इस प्रकार इनकी कविता का रचनाकाल 14वीं शती का उत्तरार्ध मालूम होता है। माधवचंद्र बरदलोई ने स्वसंपादित रामायण की भूमिका में इनकी कृति रामायण को 14वीं अथवा 15वीं शती की रचना और इन्हें नवगाँव का निवासी प्रमाणित किया है। शंकरदेव ने राम कथा के पदकर्ता माधव कंदलि की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उनकी तुलना गज से की है और कहा है कि वे स्वयं उनके सम्मुख शशक के समान लघु हैं। माधव कंदलि को लोग 'कविराज कंदलि' कहते थे। वर्तमान नवगाँव जिले के कंदलि नामक स्थान से अनेक प्रख्यात कंदलि ब्राह्मणों का संबंध था परंतु माधव कंदलि यहाँ के निवासी नहीं थे। 900px वाराहराज श्री महामणिक्य के अनुरोध पर माधव कंदलि ने सर्वसाधारण के लिये सुबोध शैली में रामायण का पयारबद्ध अनुवाद किया (रामायण सुपयार श्रीमहामणिक्य ये वाराह राजार अनुरोधे)। माधव कंदलि के रामायण की सभी प्रतियों में आदि तथा उत्तरकांड नहीं मिलते, यद्यपि उन्होंने लंकाकाड के अंत में रामायण के सात कांडों का उल्लेख किया है (सात कांडे रामायण पद बंधे निबंधिलो)। कंदलि ने वाल्मीकि कृत रामायण को वेदों के समकक्ष रखा है। मूल कथा को अधिक रोचक बनाने के लिये यत्रतत्र सुंदर काव्यकल्पना का सहारा लिया है। 'देवजित्‌' इनकी दूसरी रचना है किंतु प्रयोग एवं शैली की दृष्टि से यह किसी अन्य कवि की रचना प्रतीत होती है। .

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मानसरोवर (कथासंग्रह)

मानसरोवर कथासंग्रह मुरारी बापु द्वारा की हुई कथाओं का एक संग्रह ग्रन्थ है। इस प्रकारशन गुजरात के महुआ से होता है। रामायण को देश विदेश में जाकर सुनाने के क्रम में मानसरोवर में मुरारी बापु द्वारा जो रामकथा हुई वो इस ग्रन्थ में मुद्रित है। श्रेणी:हिन्दू ग्रन्थ श्रेणी:सभी आधार लेख श्रेणी:आधार.

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माया सीता

माया सीता (या छाया सीता) हिंदू महाकाव्य रामायण के कुछ रूपांतरों के अनुसार वास्तविक देवी सीता (ग्रन्थ की नायिका) का मिथ्य रूप था जिसका असल रूप से लंका के दानव राजा रावण द्वारा अपहरण किया गया था। रामायण में अयोध्या के राजकुमार और भगवान विष्णु के अवतार राम की पत्नी सीता का रावण द्वारा अपहरण कर लिया जाता है तथा वह उन्हें लंका में बंधी के तौर पर रखता है। सीता को राम उनके अपहरणकर्ता का वध कर के बचाते हैं। सीता को राम द्वारा पुनः स्वीकार करने से पहले उन्हें अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है जिसके द्वारा वह अपना सतीत्व अपने पति के समक्ष साबित करती हैं। महाकाव्य के कुछ संस्करणों के अनुसार अग्नि देवता माया सीता को बनाते हैं, जिनका असल रूप में रावण द्वारा अपहरण किया जाता है तथा जिन्हें उसके अत्याचार को सहना पड़ता है, जबकि असली सीता अग्नि में ही छिपी रहती हैं। अग्नि परीक्षा के दौरान माया सीता और असली सीता अपनी स्थितियाँ बदल लेती हैं। कुछ ग्रंथो के अनुसार माया सीता अग्नि परीक्षा के दौरान नष्ट हो जाती हैं, जबकि कुछ वर्णन करते हैं कि आर्शीवाद मिलने के पश्चात उनका महाकाव्य नायिका द्रौपदी या पद्मावती के रूप में पुनर्जन्म होता है। कुछ शास्त्रों के अनुसार माया सीता का पिछला जन्म वेदवती था, जिन्हें रावण उत्पीड़ित करने का प्रयास करता हैं। .

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मायावी

मायावी रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में एक भयानक असुर था। वह माया नाम की असुर स्त्री का पुत्र तथा दुंदुभि नामक असुर का बड़ा भाई बताया गया है। दोनों भाइयों का वध बालि के हाथों हुआ था। .

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मारीच

मारीच रामायण का एक दुष्ट पात्र है। मारीच ताड़का का पुत्र था तथा उसक पिता का नाम सुन्द था। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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मिथिला

'''मिथिला''' मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। माना जाता है कि यह वर्तमान उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाका है जिसे मिथिला के नाम से जाना जाता था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये भारत और भारत के बाहर जानी जाती रही है। इस क्षेत्र की प्रमुख भाषा मैथिली है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका संकेत शतपथ ब्राह्मण में तथा स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिलता है। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है। .

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मुगल रामायण

मुगल बादशाह अकबर द्वारा रामायण का फारसी अनुवाद करवाया था। उसके बाद हमीदाबानू बेगम, रहीम और जहाँगीर ने भी अपने लिये रामायण का अनुवाद करवाया था। .

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म्यान्मा की संस्कृति

पुगं (या बुगं) में लाख से बनी कुछ वस्तुएँ 300px म्यान्मा की संस्कृति पर बौद्ध धर्म तथा मोन लोगों का बहुत प्रभाव पड़ा है। म्यान्मा की संस्कृति पर भारत, । थाइलैण्ड और चीन आदि पड़ोसी देशों का भी बहुत प्रभाव पड़ा है। आधुनिक युग में ब्रिटेन ने बर्मा को अपना उपनिवेश बनाकर इस पर शासन किया, अतः पश्चिमी सभ्यता का भी इस पर प्रभाव पड़ा है। .

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मैथिली भाषा

मैथिली भारत के उत्तरी बिहार और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। यह हिन्द आर्य परिवार की सदस्य है। इसका प्रमुख स्रोत संस्कृत भाषा है जिसके शब्द "तत्सम" वा "तद्भव" रूप में मैथिली में प्रयुक्त होते हैं। यह भाषा बोलने और सुनने में बहुत ही मोहक लगता है। मैथिली भारत में मुख्य रूप से दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, शिवहर, भागलपुर, मधेपुरा, अररिया, सुपौल, वैशाली, सहरसा, रांची, बोकारो, जमशेदपुर, धनबाद और देवघर जिलों में बोली जाती है| नेपाल के आठ जिलों धनुषा,सिरहा,सुनसरी, सरलाही, सप्तरी, मोहतरी,मोरंग और रौतहट में भी यह बोली जाती है। बँगला, असमिया और ओड़िया के साथ साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में हिंदी से मिलती जुलती है। वर्ष २००३ में मैथिली भाषा को भारतीय संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया। सन २००७ में नेपाल के अन्तरिम संविधान में इसे एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में स्थान दिया गया है। .

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मैथिली साहित्य

मैथिली मुख्यतः भारत के उत्तर-पूर्व बिहार एवम् नेपाल के तराई क्षेत्र की भाषा है।Yadava, Y. P. (2013).

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मेरठ

मेरठ भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक शहर है। यहाँ नगर निगम कार्यरत है। यह प्राचीन नगर दिल्ली से ७२ कि॰मी॰ (४४ मील) उत्तर पूर्व में स्थित है। मेरठ राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (ऍन.सी.आर) का हिस्सा है। यहाँ भारतीय सेना की एक छावनी भी है। यह उत्तर प्रदेश के सबसे तेजी से विकसित और शिक्षित होते जिलों में से एक है। मेरठ जिले में 12 ब्लॉक,34 जिला पंचायत सदस्य,80 नगर निगम पार्षद है। मेरठ जिले में 4 लोक सभा क्षेत्र सम्मिलित हैं, सरधना विधानसभा, मुजफ्फरनगर लोकसभा में हस्तिनापुर विधानसभा, बिजनौर लोकसभा में,सिवाल खास बागपत लोकसभा क्षेत्र में और मेरठ कैंट,मेरठ दक्षिण,मेरठ शहर,किठौर मेरठ लोकसभा क्षेत्र में है .

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रमेशचन्द्र दत्त

रमेशचन्द्र दत्त रमेशचंद्र दत्त (13 अगस्त 1848 -- 30 नवम्बर 1909) भारत के प्रसिद्ध प्रशासक, आर्थिक इतिहासज्ञ तथा लेखक तथा रामायण व महाभारत के अनुवादक थे। भारतीय राष्ट्रवाद के पुरोधाओं में से एक रमेश चंद्र दत्त का आर्थिक विचारों के इतिहास में प्रमुख स्थान है। दादाभाई नौरोज़ी और मेजर बी. डी. बसु के साथ दत्त तीसरे आर्थिक चिंतक थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान के प्रामाणिक विवरण पेश किये और विख्यात ‘ड्रेन थियरी’ का प्रतिपादन किया। इसका मतलब यह था कि अंग्रेज अपने लाभ के लिए निरंतर निर्यात थोपने और अनावश्यक अधिभार वसूलने के जरिये भारतीय अर्थव्यवस्था को निचोड़ रहे हैं। .

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रशिफल्

रशिफल्-एक धारणा है पूरे आसमान के 360 डिग्री को जब 12 भागों में विभक्त किया जाता है, तो उससे 30-30 डिग्री की एक राशी निकलती है। इन्हीं राशियों को मेष, वृष—————-मीन कहा जाता है। किसी भी जन्मकुंडली में तीन राशियों को महत्वपूर्ण माना जाता है। राशी, जिसमें जातक का सूर्य स्थित हो, वह सूर्य-राशी के रूप में, जिसमें जातक का चंद्र स्थित हो, वह चंद्र-राशी के रूप में तथा जिस राशी का उदय जातक के जन्म के समय पूर्वी क्षितीज में हो रहा हो, वह लग्न-राशी के रूप में महत्वपूर्ण मानी जाती है। आजकल बाजार में लगभग सभी पति्रकाओं में राशी-फल की चर्चा रहती है, कुछ पत्रिकाओं में सूर्य-राशी के रूप में तथा कुछ में चंद्र-राशी के रूप में भविष्यफल का उल्लेख रहता है, किन्तु ये पूर्णतया अवैज्ञानिक होती हैं और व्यर्थ ही उसके जाल में लाखों लोग फंसे होते हैं। इसकी जगह लग्न-राशी फल निकालने से पाठकों को अत्यधिक लाभ पहुंच सकता है, क्योंकि जन्मसमय में लगभग दो घंटे का भी अंतर हो तो दो व्यक्ति के लग्न में परिवर्तन हो जाता है, जबकि चंद्रराशी के अंतर्गत ढाई दिन के अंदर तथा सूर्य राशी के अंतर्गत एक महीनें के अंदर जन्मलेनेवाले सभी व्यक्ति एक ही राशी में आ जाते हैं। लेकिन चूंकि पाठकों को अपने लग्न की जानकारी नहीं होती है, इसलिए ज्योतिषी लग्नफल की जगह राशी-फल निकालकर जनसाधारण के लिए सर्वसुलभ तो कर देते हें, पर इससे ज्योतिष की वैज्ञानिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। किसी प्रकार की सामयिक भविष्यवाणी किसी व्यक्ति के लग्न के आधार पर सटीक रूप में की जा सकती है, किन्तु इसकी तीव्रता में विभिन्न व्यक्ति के लिए अंतर हो सकता है। किसी विशेष महीनें का लिखा गया लग्न-फल उस लग्न के करोड़ों लोगों के लिए वैसा ही फल देगा, भले ही उसमें स्तर, वातावरण, परिस्थिति और उसके जन्मकालीन ग्रहों के सापेक्ष कुछ अंतर हो। जैसे किसी विशेष समय में किसी लग्न के लिए लाभ एक मजदूर को 25-50 रुपए का और एक व्यवसायी को लाखों का लाभ दे सकता है। इस प्रकार की भविष्यवाणी `गत्यात्मक गोचर प्रणाली´ के आधार पर की जा सकती है। इस महीनें से हर महीने विभिन्न लग्नवालों के लिए लग्न-राशी फल की चर्चा की जाएगी, जिन्हें अपने लग्न की जानकारी न हो, वे अपनी जन्म-तिथि, जन्म-समय और जन्मस्थान के साथ मुझसे संपर्क कर सकते हैं। उन्हें उनके लग्न की जानकारी दे दी जाएगी। .

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रहीम

अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या सिर्फ रहीम, एक मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न था। वे एक ही साथ कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे। जन्म से एक मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय देती हैं। हिंदू देवी-देवताओं, पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी आपके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। आप जीवन भर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवन व्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो भारतीय सांस्कृति की वर झलक को पेश करता है। .

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राधेश्याम कथावाचक

राधेश्याम कथावाचक (1890 - 1963) पारसी रंगमंच शैली के हिन्दी नाटककारों में एक प्रमुख नाम है। उनका जन्म 25 नवम्बर 1890 को उत्तर-प्रदेश राज्य के बरेली शहर में हुआ था। अल्फ्रेड कम्पनी से जुड़कर उन्होंने वीर अभिमन्यु, भक्त प्रहलाद, श्रीकृष्णावतार आदि अनेक नाटक लिखे। परन्तु सामान्य जनता में उनकी ख्याति राम कथा की एक विशिष्ट शैली के कारण फैली। लोक नाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में उन्होंने रामायण की कथा को 25 खण्डों में पद्यबद्ध किया। इस ग्रन्थ को राधेश्याम रामायण के रूप में जाना जाता है। आगे चलकर उनकी यह रामायण उत्तरप्रदेश में होने वाली रामलीलाओं का आधार ग्रन्थ बनी। 26 अगस्त 1963 को 73 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। 24 नवम्बर 2012 दैनिक ट्रिब्यून, अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर 2013 .

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राम

राम (रामचन्द्र) प्राचीन भारत में अवतार रूपी भगवान के रूप में मान्य हैं। हिन्दू धर्म में राम विष्णु के दस अवतारों में से सातवें अवतार हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य श्री रामचरितमानस की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं में अनेक रामायणों की रचना हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय हैं और हिन्दुओं के आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं) और इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के लंका के राजा रावण का वध किया। राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई की थी। श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदहारण देते हुए पति के साथ वन जाना उचित समझा। सौतेले भाई लक्ष्मण ने भी भाई के साथ चौदह वर्ष वन में बिताये। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आये। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। राम की पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। राम ने उस समय की एक जनजाति वानर के लोगों की मदद से सीता को ढूँढ़ा। समुद्र में पुल बना कर रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके पुत्र कुश व लव ने इन राज्यों को सँभाला। हिन्दू धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं। .

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राम तांडव स्तोत्र

श्रीराम तांडव स्तोत्रम् इंद्रादयो ऊचु: (इंद्र आदि ने कहा) जटासमूह से युक्त विशालमस्तक वाले श्रीहरि के क्रोधित हुए लाल आंखों की तिरछी नज़र से, विशाल जटाओं के बिखर जाने से रौद्र मुखाकृति एवं प्रचण्ड वेग से आक्रमण करने के कारण विचलित होती, इधर उधर भागती शत्रुसेना के मध्य तांडव (उद्धत विनाशक क्रियाकलाप) स्वरूप धारी भगवान् हरि शोभित हो रहे हैं। अब वो देखो !! महान् धनुष एवं तरकश धारण वाले प्रभु की अग्रेगामिनी, एवं पार्श्वरक्षिणी महान् सेना जिसमें हनुमान्, जाम्बवन्त, सुग्रीव, अंगद आदि वीर हैं, प्रचण्ड दानवसेना रूपी अग्नि के शमन के लिए समुद्रतुल्य जलराशि के समान नाशक हैं, ऐसे मृत्युरूपी दैत्यसेना के भक्षक के लिए मेरा प्रणाम है। शरीर में मुनियों के समान वल्कल वस्त्र एवं हाथ मे विशाल धनुष धारण करते हुए, बाणों से शत्रु के शरीर को विदीर्ण करने की इच्छा से दोनों पैरों को फैलाकर एवं गोलाई बनाकर, हृदय में रावण के द्वारा किये गए सीता हरण के घोर अपराध का चिन्तन करते हुए प्रभु राघव प्रचण्ड तांडवीय स्वरूप धारण करके राक्षसगण को विदीर्ण कर रहे हैं। अपने तीक्ष्ण बाणों से निंदित कर्म करने वाले असुरों के शरीर को वेध देने वाले, अधर्म की वृद्धि के लिए माया और असत्य का आश्रय लेने वाले प्रमत्त असुरों का मर्दन करने वाले, अपने पराक्रम एवं धनुष की डोर से, चातुर्य से एवं राक्षसों को प्रतिहत करने की इच्छा से प्रचण्ड संहारक, समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर जाने वाले राघव को मैं भजता हूँ। वानरों से घिरे, शरीर में रक्त की धार से नहाए हुए जिनके द्वारा बहुत बड़ी शक्ति, तलवार, दण्ड, पाश आदि धारण करने वाले राक्षसों के मांस, चर्बी, कलेजा, आंत, एवं टुकड़े टुकड़े हुए शवों के द्वारा सम्पूर्ण युद्धभूमि ढक दी गयी है....

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राम लीला

रामलीला का एक दृश्य। रामलीला उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से खेला जाने वाला राम के चरित पर आधारित नाटक है। यह प्रायः विजयादशमी के अवसर पर खेला जाता है। .

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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रामराज्य

हिन्दू संस्कृति में राम द्वारा किया गया आदर्थ शासन रामराज्य के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में रामराज्य का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट शासन या आदर्श शासन के रूपक (प्रतीक) के रूम में किया जाता है। रामराज्य, लोकतन्त्र का परिमार्जित रूप माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर रामराज्य की स्थापना गांधीजी की चाह थी। गांधीजी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम स्वराज के रूप में रामराज्य की कल्पना की थी। .

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रामसेतु

आकाश से रामसेतु का दृश्य रामसेतु (तमिल: இராமர் பாலம், मलयालम: രാമസേതു,, अंग्रेजी: Adam's Bridge; आदम का पुल), तमिलनाडु, भारत के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य चूना पत्थर से बनी एक शृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू मार्ग से आपस में जोड़ता था। हिन्दू पुराणों की मान्यताओं के अनुसार इस सेतु का निर्माण अयोध्या के राजा राम श्रीराम की सेना के दो सैनिक जो की वानर थे, जिनका वर्णन प्रमुखतः नल-निल नाम से रामायण में मिलता है, द्वारा किये गया था, यह पुल ४८ किलोमीटर (३० मील) लम्बा है तथा मन्नार की खाड़ी (दक्षिण पश्चिम) को पाक जलडमरूमध्य (उत्तर पूर्व) से अलग करता है। कुछ रेतीले तट शुष्क हैं तथा इस क्षेत्र में समुद्र बहुत उथला है, कुछ स्थानों पर केवल ३ फुट से ३० फुट (१ मीटर से १० मीटर) जो नौगमन को मुश्किल बनाता है। यह कथित रूप से १५ शताब्दी तक पैदल पार करने योग्य था जब तक कि तूफानों ने इस वाहिक को गहरा नहीं कर दिया। मन्दिर के अभिलेखों के अनुसार रामसेतु पूरी तरह से सागर के जल से ऊपर स्थित था, जब तक कि इसे १४८० ई० में एक चक्रवात ने तोड़ नहीं दिया। .

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रामानन्द सागर

रामानन्द सागर (29 दिसम्बर 1917 – 12 दिसम्बर 2005) हिन्दी फ़िल्मों के एक निर्देशक थे। दूरदर्शन पर रामायण नामक अति लोकप्रिय धारावाहिक के कारण वे बहुत प्रसिद्ध हुए। .

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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रामायण (टीवी धारावाहिक)

रामायण एक बहुत ही सफ़ल भारतीय टीवी श्रृंखला है, जिसका निर्माण, लेखन और निर्देशन रामानन्द सागर के द्वारा किया गया था। ७८-कड़ियों के इस धारावाहिक का मूल प्रसारण दूरदर्शन पर २५ जनवरी, १९८७ से ३१ जुलाई, १९८८ तक रविवार के दिन सुबह ९:३० किया जाता था। यह एक प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ रामायण का टीवी रूपांतरण है और मुख्यतः वाल्मीकि रामायण और तुलसीदासजी की रामचरितमानस पर आधारित है। इसका कुछ भाग कम्बन की कम्बरामायण और अन्य कार्यों से लिया गया है। .

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रामायण (बहुविकल्पी)

रामायण मूलतः वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित प्रसिद्ध महाकाव्य है। किन्तु अन्य भाषाओं में रचित अनेकानेक रामकथा काव्य इसी नाम से जाने जाते हैं-.

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रामायण (राजगोपालाचारी)

रामायाण चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा रचित पौराणिक कथा पुस्तक है। इसका प्रथम प्रकाशन १९५७ में भारतीय विद्या भवन में हुआ। यह पुस्तक वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का संक्षिप्त अंग्रेजी पुनर्लेखन है। इससे पहले उन्होंने कंब रामायण की रचना की। राज जी ने उनकी महाभारत और इस पुस्तक को देशसेवा के रूप में बड़े कार्य के रूप में देखा। २००१ के अनुसार पुस्तक की १० लाख प्रतियाँ विक्रय की जा चुकी हैं। .

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रामायण मेला

रामायण मेला, उत्तर प्रदेश के चित्रकूट और अयोध्या में लगता है। रामायण मेले में अनेक धर्माचार्य, संत महात्मा, देश-विदेश के रामकथा मर्मज्ञ तथा विद्धान भाग लेते हैं। इस अवसर पर रामलीला, प्रवचन तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। रामायण मेला के आयोजन की परिकल्पना डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने सन् 1961 में की थी। उसी के तहत 1973 में पहली बार उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने चित्रकूट में रामायण मेला आयोजित किया था, जबकि अयोध्या में इसकी शुरूआत 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र ने की थी जिसका उद्देश्य रामायण मेले को केन्द्र में रखकर अयोध्या का विकास करना था। आनन्द, प्रेम और शान्ति के आह्वान के मुख्य प्रयोजन के साथ राममनोहर लोहिया ने रामायण मेला आयोजित करने की संकल्पना की थी। उन्हें लगता था कि आयोजन से भारत की एकता जैसे लक्ष्य भी प्राप्त किए जाएँगे। लोहिया मानते थे कि कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण, कृत्तिबास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। उनका विचार था कि रामायण मेला में तुलसी की रामायण को केन्द्रित करके इन सभी रामायणों पर विचार किया जाएगा और बानगी के तौर पर उसका पाठ भी होगा। लोहिया का निजी मत था कि तुलसी एक रक्षक कवि थे। .

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रामायण और चित्रकला

जो कथा चित्रों में रुपायित होती है, उसे सब समझ सकते हैं। .

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रामायणकालीन छत्तीसगढ़

अंगकोर (कंबोडिया) में रामायण की वानरसेना का एक दृश्यऐसे अनेक तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता रामायण युग को स्पर्श करती है। उस काल में दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे इसीलिये दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये। राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश काव्य में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। यदि शरावती और श्रावस्ती को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कोशल के शासक बने। सम्भवतः उनकी राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये विन्ध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोशल में ही था। उपरोक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन तपोस्थल रहा है। प्रतीत होता है कि छोटा नागपुर से लेकर बस्तर तथा कटक से ले कर सतारा तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी.

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रामावतारम्

रामावतारम् रामावतारम्‌ (तमिल रामायण) के रचयिता कंवन चोल राजा कुलोतुंग तृतीय (११७८-१२०२ ई.) के दरबार में थे। उन्होंने रामायण की रचना अपने संरक्षक सदयप्पा वल्लाल के प्रोत्साहन से की। उनका जन्म तिरॅवेन्नैनलुर, जिला तंजौर (मद्रास) में हुआ। उनका संरक्षण कृपालु सदयप्पा ने किया जिनका उल्लेख कंबन की रचनाओं में बहुधा मिलता है। कंबन विरुतम काव्य में दक्ष थे। उनकी समृद्धि उस काल में हुई जब भक्तिपंथ नयनमरों तथा आलवरों द्वारा लोकप्रिय हे रहा था। उत्कट वैष्णव होते हुए भी कंबन का दृष्टिकोण यथेष्ट उदार था। उन्होंने भगवान्‌ शिव की प्रशंसा अपनी रामायण में की है। उनके युग में कई उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना हुई किंतु उनकी रचित रामायण उनमें सर्वोपरि है। कंबन कृत रामायण में एक हजार पद हैं। उन्होंने उत्तर कांड के विषय में कुछ नहीं लिखा और उनकी रामायण राम के राज्याभिषेक पर समाप्त हो जाती है। परंपरा के विरुद्ध रामायण की मुक्ति राजदरबार में न होकर श्रीरंगम के पावन स्थल पर होती है। कंबन ने अपनी रचना को रामावतानम्‌ तथा रामकथा की संज्ञा दी। स्मरण रहे कि नेपाली रामायण का नाम भी रामावतारम्‌ है। कंबन का काव्य उपमा तथा अर्थ की गूढ़ता में अतुलनीय है। यद्यपि कंबन ने वाल्मीकि रामायण का अनुसरण किया, तथापि यह कहना अनुचित होगा कि यह संस्कृत का अनुवाद मात्र है। रामायण के चरित्रों के चित्रण में कंबन ने तमिल संस्कृति, परंपरा तथा रीति रिवाज ग्रहण किया। एक तमिल परंपरा एंव रुचि को ग्रहण करने के कारण कंबन चरित्रचित्रण में वाल्मीकि रामायण से विलग हो गए हैं। उदाहरणार्थ वाल्मीकि के अनुसार सुग्रीव ने बालि की विधवा से विवाह किया जब कि कंबन के अनुसार रत्न तथा सौभाग्य के बिना वह माता जैसी लगती थी। वाल्मीकि के अनुसार रावण ने सीता का हरण पंचवटी से किया लेकिन कंबन का कथन है कि रावण ने संपूर्ण आश्रम पृथ्वी पर से उठा लिया था। ब्रह्मा के शाप के कारण उसने सीता का स्पर्श नहीं किया। वाल्मीकि ने कहा है कि राक्षस ने सीता को लंका में कैद किया। कंबन एक बात और जोड़ के कहते हैं कि सीता लंकेश के हृदय में भी कैद थीं। कंबन अंगद के शरणस्थल के विषय में भी लिखते हैं, जबकि इसका कोई उल्लेख वाल्मीकि ने नहीं किया। वाल्मीकि मौन हैं पर कंबन ने राम तथा सीता के प्रथम प्रेम के जन्म का भी वर्णन किया है जो राम सीता के प्रथम साक्षात्कार के समय हुआ जब राम विश्वामित्र और लक्ष्मण के साथ मिथिला की सड़क पर जा रहे थे। कंबन के राजनीतिक विचार, जो रामावतारम्‌ में पाए जाते हैं और भी महत्वपूर्ण हैं। वह दो प्रकार के शासन का वर्णन करते हैं। पहला न्याययुक्त शासन जो सत्कार्यों पर आधारित होता है। दूसरा शक्तिशासन जिसका आधार साहस होता है। अयोध्या में न्याययुक्त शासन था जबकि लंका में शक्तिशासन था। न्याययुक्त शासक अपने मंत्रियों की मंत्रणा मानता है जबकि शक्तिशासक उसकी उपेक्षा करता है। कंबन अनुभव करते हैं कि एक आदर्श शासक का उद्देश्य सर्वहित होना चाहिए। मुदालियर की कंबन रामायण व्याख्या उत्कृष्ठ है। कंबन की सर्वोत्तम रचनाओं के रचनाकाल के विषय में मतैक्य नहीं है। राघव आयंगर की बहुमूल्य खोजों के आधार पर यह मान लिया गया है कि रामवतारम्‌ ११७८ ई. में समाप्त हुआ और इसका प्रकाशन ११८५ में हुआ। महान्‌ तमिल विद्वान्‌ प्रो॰ सेल्वकेसवरयर ने ठीक ही कहा है कि "तमिल भाषा के केवल दो लौह स्तंभ हैं। वे है कंबन और तिरुवल्लुवर। .

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रामजात्तौ

बर्मी रामायण नृत्य (राम और सीता) रामजात्तौ (बर्मी लिपि में: ရာမဇာတ်တော်; बर्मी उच्चारण: यामज़ातो) बर्मी भाषा का रामायण है। अघोषित रूप से इसे म्यांमार का 'राष्ट्रीय महाकाव्य' माना जाता है। म्यांमार में रामजात्तौ की नौ प्रतियाँ उपलब्ध हैं। .

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रामकथा : उत्पत्ति और विकास

रामकथा: उत्पत्ति और विकास हिन्दी में एक शोधपत्र (थेसिस) है जिसे फादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डी-फिल के लिये डाॅ० माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में प्रस्तुत किया था। इसे रामकथा सम्बन्धी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है। सामग्री की पूर्णता के अतिरिक्त विद्वान लेखक ने अन्य विद्वानों के मत की यथास्थान परीक्षा की है तथा कथा के विकास के सम्बन्ध में अपना तर्कपूर्ण मत भी दिया है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। .

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रामेश्वर त्रिवेणी संगम

राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में स्थित तीन नदियों के संगम पर बना भगवान शिव का पवित्र स्थल राजस्थान का त्रिवेणी संगम नाम से प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। .

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रामेश्वरम तीर्थ

रामेश्वरम हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस ३० मील (४८ कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। .

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राल्फ थॉमस हॉचकिन ग्रिफ़िथ

राल्फ थॉमस हॉचकिन ग्रिफ़िथ (1826-1906) एक अंग्रेजी इंडोलोजिस्ट था। .

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राष्ट्रवर्धन

राष्ट्रवर्धन वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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रासबिहारी बोस

रासबिहारी बोस (बांग्ला: রাসবিহারী বসু, जन्म:२५ मई १८८६ - मृत्यु: २१ जनवरी १९४५) भारत के एक क्रान्तिकारी नेता थे जिन्होने ब्रिटिश राज के विरुद्ध गदर षडयंत्र एवं आजाद हिन्द फौज के संगठन का कार्य किया। इन्होंने न केवल भारत में कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, अपितु विदेश में रहकर भी वह भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे। दिल्ली में तत्कालीन वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने, गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौज की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यद्यपि देश को स्वतन्त्र कराने के लिये किये गये उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाये, तथापि स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी भूमिका का महत्व बहुत ऊँचा है। .

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राजनयिक दूत

राजनयिक दूत (Diplomatic Envoys) संप्रभु राज्य या देश द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि होते हैं, जो अन्य राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन अथवा अंतरराष्ट्रीय संस्था में अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। वर्तमान अंतरराष्ट्रीय विधि का प्रचलन आरंभ होने के बहुत पूर्व से ही रोम, चीन, यूनान और भारत आदि देशों में एक राज्य से दूसरे राज्य में दूत भेजने की प्रथा प्रचलित थी। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र और 'नीतिवाक्यामृत' में प्राचीन भारत में प्रचलित दूतव्यवस्था का विवरण मिलता है। इस काल में दूत अधिकांशत: अवसरविशेष पर अथवा कार्यविशेष के लिए ही भेजे जाते थे। यूरोप में रोमन साम्राज्य के पतन के उपरांत छिन्न भिन्न दूतव्यवस्था का पुनरारंभ चौदहवीं शताब्दी में इटली के स्वतंत्र राज्यों एवं पोप द्वारा दूत भेजने से हुआ। स्थायी राजदूत को भेजने की नियमित प्रथा का श्रीगणेश इटली के गणतंत्रों एवं फ्रांस के सम्राट् लुई ग्यारहवें ने किया। सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक दूतव्यवस्था यूरोप के अधिकांश देशों में प्रचलित हो गई थी। .

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राजनयिक इतिहास

हारुन अल रशीद, शारलेमेन के एक प्रतिनिधिमंडल से बगदाद में मिलते हुए (जूलिअस कोकर्ट द्वारा १८६४ में चित्रित) राजनयिक इतिहास (Diplomatic history) से आशय राज्यों के बीच अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास से है। किन्तु राजनयिक इतिहास अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध से इस अर्थ में भिन्न है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के अन्तर्गत दो या दो से अधिक राज्यों के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन होता है जबकि राजनयिक इतिहास किसी एक राज्य की विदेश नीति से सम्बन्धित हो सकता है। राजनयिक इतिहास का झुकाव अधिकांशतः राजनय के इतिहास (history of diplomacy) की ओर होता है जबकि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध समसामयिक घटनाओं पर अधिक ध्यान देता है। राजनय एक कला है जिसे अपना कर दुनिया के राज्य अपने पारस्परिक सम्बन्धों को बढ़ाते हुए अपनी हित साधना करते हैं। राजनय के सुपरिभाषित लक्ष्य तथा उनकी सिद्धि के लिए स्थापित कुशल यंत्र के बाद इसके वांछनीय परिणामों की उपलब्धि उन साधनों एवं तरीकों पर निर्भर करती है जिन्हें एक राज्य द्वारा अपनाने का निर्णय लिया जाता है। दूसरे राज्य इन साधनों के आधार पर ही राजनय के वास्तविक लक्ष्यों का अनुमान लगाते हैं। यदि राजनय के साधन तथा लक्ष्यों के बीच असंगति रहती है तो इससे देश कमजोर होता है, बदनाम होता है तथा उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा गिर जाती है। इस दृष्टि्र से प्रत्येक राज्य को ऐसे साधन अपनाने चाहिये जो दूसरे राज्यों में उसके प्रति सद्भावना और विश्वास पैदा कर सकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि राज्य अपनी नीतियों को स्पष्ट रूप से समझाये, दूसरे राज्यों के न्यायोचित दावों को मान्यता दे तथा ईमानदारीपूर्ण व्यवहार करे। बेईमानी तथा चालबाजी से काम करने वाले राजनयज्ञ अल्पकालीन लक्ष्यों में सफलता पा लेते हैं किन्तु कुल मिलाकर वे नुकसान में ही रहते हैं। दूसरे राज्यों में उनके प्रति अविश्वास पैदा होता है तथा वे सजग हो जाते हैं। अतः राजनय के तरीकों का महत्व है। राजनय के साधनों का निर्णय लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि इसका मुख्य उद्देश्य राज्य के प्रमुख हितों की रक्षा करना है। ठीक यही उद्देश्य अन्य राज्यों के राजनय का भी है। अतः प्रत्येक राजनय को पारस्परिक आदान-प्रदान की नीति अपनानी चाहिये। प्रत्येक राज्य के राजनयज्ञों की कम से कम त्याग द्वारा अधिक से अधिक प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिये विरोधी हितों के बीच समझौता करना जरूरी है। समझौते तथा सौदेबाजी का यह नियम है कि कुछ भी प्राप्त करने के लिए कुछ न कुछ देना पड़ता है। यह आदान-प्रदान राजनय का एक व्यावहारिक सत्य है। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जबकि एक शक्तिशाली बड़े राज्य ने दूसरे कमजोर राज्य को अपनी मनमानी शर्तें मानने के लिए बाध्य किया तथा समझौतापूर्ण आदान-प्रदान की प्रक्रिया न अपना कर एक पक्षीय बाध्यता का मार्ग अपनाया। इस प्रकार लादी गई शर्तों का पालन सम्बन्धित राज्य केवल तभी तक करता है जब तक कि वह ऐसा करने के लिए मजबूर हो और अवसर पाते ही वह उनके भार से मुक्त हो जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मित्र राष्ट्रोंं ने जर्मनी को सैनिक, आर्थिक, व्यापारिक एवं प्रादेशिक दृष्टि्र से बुरी तरह दबाया। क्षतिपूर्ति की राशि अदा करने के लिए उनसे खाली चैक पर हस्ताक्षर करा लिये गये तब जर्मनी एक पराजित और दबा हुआ राज्य था। अतः उसने यह शोषण मजबूरी में स्वीकार कर लिया किन्तु कुछ समय बाद हिटलर के नेतृत्व में जब वह समर्थ बना तो उसने इन सभी शर्तों को अमान्य घोषित कर दिया। स्पष्ट है कि पारस्परिक आदान-प्रदान ही स्थायी राजनय का आधार बन सकता है। बाध्यता, बेईमानी, धूर्तता, छल-कपट एवं केवल ताकत पर आधारित सम्बन्ध अल्पकालीन होते हैं तथा दूसरे पक्ष पर विरोधी प्रभाव डालते हैं।फलतः उनके भावी सम्बन्धों में कटुता आ जाती है। राजनय के साधन और तरीकों का विकास राज्यों के आपसी सम्बन्धों के लम्बे इतिहास से जुड़ा हुआ है। इन पर देश-काल की परिस्थितियों ने भी प्रभाव डाला है। तदनुसार राजनीतिक व्यवहार भी बदलता रहा है। विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनयिक आचार का तरीका प्रत्येक देश का अपना विशिष्ट रहा है। यहाँ हम यूनान, रोम, इटली, फ्रांस तथा भारत में अपनाए राजनयिक आचार के तरीकों का अध्ययन करेंगे। .

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राजशेखर

राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं। .

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राजसूय

राजसूय वैदिक काल का विख्यात यज्ञ है। इसे कोई भी राजा चक्रवती सम्राट बनने के लिए किया करते थे। यह एक वैदिक यज्ञ है जिसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। इस यज्ञ की विधी यह है की जिस किसी भी राजा को चक्रचती सम्राट बनना होता था वह राजसूय यज्ञ संपन्न कराकर एक अश्व (घोड़ा) छोड़ दिया करता था। वह घोड़ा अलग-अलग राज्यों और प्रदेशों में फिरता रहता था। उस अश्व के पीछे-पीछे गुप्त रूप से राजसूय यज्ञ कराने वाले राजा के कुछ सैनिक भी हुआ करते थे। जब वह अश्व किसी राज्य से होकर जाता और उस राज्य का राजा उस अश्व को पकड़ लेता था तो उसे उस अश्व के राजा से युद्ध करना होता था और अपनी वीरता प्रदर्शित करनी होती थी और यदि कोई राजा उस अश्व को नहीं पकड़ता था तो इसका अर्थ यह था की वह राजा उस राजसूय अश्व के राजा को नमन करता है और उस राज्य के राजा की छत्रछाया में रहना स्वीकार करता है। रामायण काल में श्रीराम और महाभारत काल में महाराज युधिष्ठिर द्वारा यह यज्ञ किया गया था। .

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राजेन्द्र प्रसाद

राजेन्द्र प्रसाद (3 दिसम्बर 1884 – 28 फरवरी 1963) भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना योगदान दिया था जिसकी परिणति २६ जनवरी १९५० को भारत के एक गणतंत्र के रूप में हुई थी। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मन्त्री के रूप में भी कुछ समय के लिए काम किया था। पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या देशरत्न कहकर पुकारा जाता था। .

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रावण

त्रिंकोमली के कोणेश्वरम मन्दिर में रावण की प्रतिमा रावण रामायण का एक प्रमुख प्रतिचरित्र है। रावण लंका का राजा था। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था, जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश .

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रावण हत्था

रावण हत्था एक भारतीय वाद्य यंत्र है। यह एक प्राचीन मुड़ा हुआ वायलिन है, जो भारत और श्रीलंका के साथ-साथ आसपास के क्षेत्रों में लोकप्रिय है। यह एक प्राचीन भारतीय तानेवाला संगीत वाद्ययंत्र है जिस पर पश्चिमी वाद्य संगीत वाद्य जैसे वायलिन और वायला बाद में आधारित थे। .

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रज़्मनामा

रज़्मनामा (फ़ारसी: رزم نامہ, जंग की किताब) महाभारत का फ़ारसी अनुवाद है जो कि मुग़ल बादशाह अकबर के समय में करवाया गया था। 1574 में अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी में मकतबख़ाना (अनुवादघर) शुरू किया। इसके साथ अकबर ने राजतरंगिणी, रामायण, वग़ैरा जैसे संस्कृत ग्रंथों को फ़ारसी में अनुवाद करने के लिए हिमायत दी। रज़्मनामा की तीन प्रतियाँ है प्रथम जयपुर अजायबघर में, दुसरी 1599 में तैयार जो वर्तमान समय में विविध संग्रहालय में रखी गई है और अंतिम रज़्मनामा रहीम का है जो 1616 में पुरा हुआ था। रज़्मनामा अपने चित्रों के कारण महत्त्वपूर्ण है। जयपुर प्रत के मुख्य चित्रकार दशवंत, वशावंत और लाल है। ई.स. 1599 की प्रत के मुख्य चित्रकार असी, धनु और फटु है। .

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रघुविलास

रघुविलास एक संस्कृत नाटक है जिसके रचयिता जैन नाट्यकार रामचन्द्र सूरि थे। वे आचार्य हेमचंद्र के शिष्य थे। रामचन्द्र सूरि का समय संवत ११४५ से १२३० का है। उन्होंने संस्कृत में ११ नाटक लिखे है। उनके अनुसार यह उनकी चार सर्वोतम कृतियों में से एक है। .

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रघुवंशम्

रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं। आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परंतु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति ‘रघुवंश’ में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरांत उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है। रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है। किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई - 1450 ई) द्वारा रचित 'संजीवनी' है। .

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रंगनाथ रामायण

श्री रंगनाथ रामायण (శ్రీ రంగనాథ రామాయణం) तेलुगु में रचित रामायण है। इसकी कथा वाल्मीकि रामायण के अनुरूप है। यद्यपि तेलुगु में ४० से अधिक रामायण हैं जो वाल्मीकि रामायण पर आधारित हैं, किन्तु इनमें से केवल चार में ही मूल महाकाव्य की सम्पूर्ण कथा कही गयी है। ये चार ये हैं- रंगनाथ रामायण, भास्कर रामायण, मोल्ल रामायण, और रामायण कल्पवृक्षम्। श्रेणी:रामायण.

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रंगमंच

न्यूयॉर्क स्टेट थिएटर के अन्दर का दृष्य रंगमंच (थिएटर) वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है। .

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रंगोली

अधिक विकल्पों के लिए यहाँ जाएँ - रंगोली (बहुविकल्पी) रंगोली पर जलते दीप। रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केंद्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है। .

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रक्षक राम

यह उपन्यास रामायण को एक नए अवतार में पेश करती है। जहाँ श्री राम एक साधारण मनुष्य की तरह संघर्ष करते हुए एक महान इंसान बनते है.

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रूमा

रूमा वाल्मीकि रामायण में सुग्रीव की पत्नी बताई गई है। रामायण के कुछ क्षेत्रीय रूपांतरणों में रूमा को तारा की छोटी बहन भी बताया गया है।.

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लंका

सोने की लंका का कलात्मक चित्रण लंका एक पौराणिक द्वीप है जिसका उल्लेख रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रन्थों में हुआ है। इसका राजा रावण था। यह 'त्रिकुट' नामक तीन पर्वतों से घिरी थी। रामायण के अनुसार, जब रावण ने हनुमान को दण्ड देने के लिए उनकी पूँछ में कपड़े लपेटकर उसको तेल में भिगोकर आग लगा दी थी तब हनुमान ने पूरी लंका में कूद-कूदकर उसे जला दिया था। जब राम ने रावण का वध किया तब उसके भाई विभीषण को लंका का राजा बनाया। आज का श्री लंका ही पौराणिक लंका माना जाता है। पाण्डवों के समय रावण के वंशज ही लंका पर राज्य कर रहे थे। महाभारत के अनुसार, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की पूर्ति के लिए सहदेव अश्व लेकर लंका गये थे। .

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लंका दहन

लंका दहन १९१७ कि भारतीय मूक फ़िल्म है जिसे दादासाहब फालके ने निर्देशित किया था। ऋषि वाल्मीकि द्वारा लिखित हिंदू महाकाव्य रामायण के एक प्रकरण पर आधारित इस फ़िल्म का लेखन भी फालके ने किया था। १९१३ कि फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्र, जो पहली पूर्ण रूप से भारतीय फीचर फ़िल्म थी, के बाद फालके की यह दूसरी फीचर फ़िल्म थी। फालके ने बीच में विभिन्न लघु फिल्मों का निर्देशन किया था। अण्णा सालुंके ने इस फिल्म में दो भूमिका निभाई थी। उन्होंने पहले फालके के राजा हरिश्चन्द्र में रानी तारामती की भूमिका निभाई थी। चूंकि उस जमानेमे प्रदर्शनकारी कलाओं में भाग लेने से महिलाओं को निषिद्ध किया जाता था, पुरुष ही महिला पात्रों को निभाते थे। सालुंके ने इस फ़िल्म में राम के पुरुष चरित्र और साथ ही उनकी पत्नी सीता का महिला चरित्र भी निभाया है। इस प्रकार उन्हें भारतीय सिनेमा में पहली बार दोहरी भूमिका निभाने का श्रेय दिया जाता है। .

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लंकाकाण्ड

लंका जाने के लिए रामसेतु का निर्माण करते हुई वानर सेना लंकाकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। जाम्बवन्त के आदेश से नल-नील दोनों भाइयों ने वानर सेना की सहायता से समुद्र पर पुल बांध दिया। श्री राम ने श्री रामेश्वर की स्थापना करके भगवान शंकर की पूजा की और सेना सहित समुद्र के पार उतर गये। समुद्र के पार जाकर राम ने डेरा डाला। पुल बंध जाने और राम के समुद्र के पार उतर जाने के समाचार से रावण मन में अत्यंत व्याकुल हुआ। मन्दोदरी के राम से बैर न लेने के लिये समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया। इधर राम अपनी वानरसेना के साथ सुबेल पर्वत पर निवास करने लगे। अंगद राम के दूत बन कर लंका में रावण के पास गये और उसे राम के शरण में आने का संदेश दिया किन्तु रावण ने नहीं माना। शांति के सारे प्रयास असफल हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया। लक्ष्मण और मेघनाद के मध्य घोर युद्ध हुआ। शक्तिबाण के वार से लक्ष्मण मूर्छित हो गये। उनके उपचार के लिये हनुमान सुषेण वैद्य को ले आये और संजीवनी लाने के लिये चले गये। गुप्तचर से समाचार मिलने पर रावण ने हनुमान के कार्य में बाधा के लिये कालनेमि को भेजा जिसका हनुमान ने वध कर दिया। औषधि की पहचान न होने के कारण हनुमान पूरे पर्वत को ही उठा कर वापस चले। मार्ग में हनुमान को राक्षस होने के सन्देह में भरत ने बाण मार कर मूर्छित कर दिया परन्तु यथार्थ जानने पर अपने बाण पर बिठा कर वापस लंका भेज दिया। इधर औषधि आने में विलम्ब देख कर राम प्रलाप करने लगे। सही समय पर हनुमान औषधि लेकर आ गये और सुषेण के उपचार से लक्ष्मण स्वस्थ हो गये। बालासाहेब पंत प्रतिनिधि द्वारा चित्र जिसमे रावण वध दर्शाया गया है रावण ने युद्ध के लिये कुम्भकर्ण को जगाया। कुम्भकर्ण ने भी राम के शरण में जाने की असफल मन्त्रणा दी। युद्ध में कुम्भकर्ण ने राम के हाथों परमगति प्राप्त की। लक्ष्मण ने मेघनाद से युद्ध करके उसका वध कर दिया। राम और रावण के मध्य अनेकों घोर युद्ध हुये और अन्त में रावण राम के हाथों मारा गया। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर राम सीता और लक्ष्मण के साथ पुष्पकविमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थान किया। .

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लक्ष्मण

लक्ष्मण रामायण के एक आदर्श पात्र हैं। इनको शेषनाग का अवतार माना जाता है। रामायण के अनुसार, राजा दशरथ के तीसरे पुत्र थे, उनकी माता सुमित्रा थी। वे राम के भाई थे, इन दोनों भाईयों में अपार प्रेम था। उन्होंने राम-सीता के साथ १४ वर्षो का वनवास किया। मंदिरों में अक्सर ही राम-सीता के साथ उनकी भी पूजा होती है। उनके अन्य भाई भरत और शत्रुघ्न थे। लक्ष्मण हर कला में निपुण थे, चाहे वो मल्लयुद्ध हो या धनुर्विद्या। .

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लक्ष्मणरेखा

रामायण के एक प्रसिद्ध प्रसंग के अनुसार वनवास के समय सीता के आग्रह के कारण राम मायावी स्वर्ण म्रग के आखेट हेतु उसके पीछे गये। थोड़ी देर में सहायता के लिए राम की पुकार सुनाई दी, तो सीता ने लक्ष्मण से जाने को कहा। लक्ष्मण ने बहुत समझाया कि यह सब किसी की माया है, पर सीता न मानी। तब विवश होकर जाते हुए लक्ष्मण ने कुटी के चारों ओर अपने धनुष से एक रेखा खींच दी कि किसी भी दशा में इस रेखा से बाहर न आना। तपस्वी के वेश में आए रावण के झाँसे में आकर सीता ने लक्ष्मण की खींची हुई रेखा से बाहर पैर रखा ही था कि रावण उसका अपहरण कर ले गया। उस रेखा से भीतर रावण सीता का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। तभी से आज तक लक्ष्मणरेखा नामक उक्ति इस आशय से प्रयुक्त होती है कि, किसी भी मामले में निश्चित हद को पार नही करना है, वरना बहुत हानि उठानी होगी। श्रेणी:हिन्दू पुराण आधार श्रेणी:रामायण.

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शत्रुघ्न

शत्रुघ्न, रामायण के अनुसार, राजा दशरथ के चौथे पुत्र थे, उनकी माता सुमित्रा थी। वे राम के भाई थे, उनके अन्य भाई थे भरत और लक्ष्मण। ये और लक्ष्मण जुड़वे भाई थे। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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शबरी

श्रीराम को फल अर्पण करते हुए शबरी शबरी एक भिलनी थी.

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शबरी धाम

शबरी धाम दक्षिण-पश्चिम गुजरात के डांग जिले के आहवा से 33 किलोमीटर और सापुतारा से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर सुबीर गांव के पास स्थित है। माना जाता है कि शबरी धाम वही जगह है जहां शबरी और भगवान राम की मुलाकात हुई थी। शबरी धाम अब एक धार्मिक पर्यटन स्थल में परिवर्तित होता जा रहा है। यहां से कुछ ही किलोमाटर की दूरी पर पम्पा सरोवर है। ऐसा माना जाता है कि यह वही स्थान है जहां हनुमान की तरह शबरी ने भी स्नान किया था। घने जंगल को वही दण्डकारण्य माना जाता है जहां से 14 साल के वनवास के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता गुजरे थे। यहाँ के जनजातीय लोगों की लोककथाएं भगवान राम, सीता और लक्ष्मण से भरी हुई हैं। रामायण के अनुसार शबरी ने भगवान राम को जंगली बेर खिलाए थे लेकिन इससे पहले उन्होंने इन बेरों को चखकर यह सुनिश्चित कर लिया था कि ये मीठे हैं या नहीं। यहां एक छोटी सी पहाड़ी पर एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है और लोगों का मानना है कि शबरी यहीं रहती थीं। यहां मंदिर के आसपास छोटे-छोटे बेर के पेड़ दिखते हैं। मंदिर में रामायण से जुड़ी और खासतौर पर रामायण के शबरी प्रसंग से जुड़ी तस्वीरें बनी हुई हैं। यहां 'शबरी कुम्भ' आयोजित होत है। .

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शरभंग

शरभंग दक्षिण भारत के गौतम कुलोत्पन्न एक प्रसिद्ध महर्षि थे जिनका उल्लेख रामायण में है। इनकी गणना उन महर्षियों में है जिन्होंने दंडकारण्य में गोदावरीतट पर अपना आश्रम बनाया, उत्तर की आर्य सभ्यता का प्रचार तथा विस्तार दक्षिण के जंगली प्रांत में किया और अंत में अग्नि में आत्माहुति देकर स्वर्ग प्राप्त किया था। वनवास के समय रामचंद्र इनका दर्शन करने गए थे। श्रेणी:रामायण के पात्र श्रेणी:ऋषि मुनि.

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शास्त्रीय नृत्य

भारत में नृत्‍य की जड़ें प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्‍यों की विभिन्‍न विधाओं ने जन्‍म लिया है। प्रत्‍येक विधा ने विशिष्‍ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया है। राष्‍ट्र शास्‍त्रीय नृत्‍य की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्‍येक का संबंध देश के विभिन्‍न भागों से है। प्रत्‍येक विधा किसी विशिष्‍ट क्षेत्र अथवा व्‍यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्‍व करती है। भारत के कुछ प्रसिद्ध शास्‍त्रीय नृत्‍य हैं - .

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शिवधनुष (पिनाक)

शिवधनुष (संस्कृत: शिवधनुष) या पिनाक (संस्कृत: पिनाक) भगवान शिव का धनुष है। हिंदू महाकाव्य रामायण में इस धनुष का उल्लेख है, जब श्री राम इसे जनक की पुत्री सीता को अपनी पत्नी के रूप में जीतने के लिए भंग करते हैं। भगवान राम, सीता को पत्नी रूप में प्राप्त करने हेतु शिवधनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए .

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शिवराज आचार्य कौण्डिन्न्यायन

शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन (जन्म २ फरवरी १९४१) विशिष्ट संस्कृत विद्वान्, वैदिक (शुक्लयजुर्वेदी), शिक्षाशास्त्री, कल्पशास्त्रमर्मज्ञ, उत्कृष्ट भाषाशास्त्री, वैयाकरण, काेषकार, वेदांगज्याेतिषविद्, मीमांसक, वेदान्तज्ञ हैं। इन्हाेंने संस्कृत शिक्षा के सुधार के लिए लम्बा संघर्ष किया। संस्कृतशिक्षा काे कैसे सन्तुलित अाैर सर्वजनाेपयाेगी बनाया जा सकता है, इसका निदर्शन प्रस्तुत किया। धार्मिक, शास्त्रीय, वैज्ञानिक अथवा साधारण शिक्षा के रूप में संस्कृतशिक्षा संचालित की जा सकती है, इसका नवीन स्वरूप निर्माण किया है। .

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शकुन

शकुन समाज में प्रचलित एक अवधारणा है जिसमें यह माना जाता है कि कुछ विशेष प्रकार की परिघटनाएँ हमारे भविष्य का संकेत देती हैं। अनुकूल भविष्यवाणी करने वाले शकुन को शुभ शकुन तथा प्रतिकूल भविष्यवाणी करने वाले शकुनों को अपशकुन कहा जाता है। न केवल भारत में अपितु विश्व भर में ये शकुन प्रचलित हैं। भारतीय संस्कृति में शकुन का संकेत वेदों, पुराणों व धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। महाभारत व रामायण जैसे महाकाव्यों में भी कई जगह शकुनों की बात कही गई है। ज्योतिष में भी शकुनों पर विशेष विचार किया जाता है। प्रश्न कुंडली की विवेचना में शकुनों का महत्व विशेष है। प्राचीन काल में ये शकुन लोकवार्ता के द्वारा ही पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचते रहे हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इन शकुनों को बहुधा अंधविश्वास ही माना जाता हैं। शुभ शकुनों में पूछे गये प्रश्न सफल व अपशकुनों में पूछे गये प्रश्न असफल होते देखे गये हैं। शकुन पृथ्वी से, आकाश से, स्वप्नों से व शरीर के अंगों से संबंधित हो सकते हैं। किसी भी कार्य के वक्त घटित होने वाले प्राकृतिक व अप्राकृतिक तथ्य अच्छे व बुरे फल की भविष्यवाणी करने में सक्षम होते है॥ शुभ शकुन ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, न्योला, बाज, मोर। दूध, फल, फूल व वेद ध्वनि का सोर॥ अन्न, सिंहासन, जल, कलश, पशु एक बधन्त। न्योला चापा, मछली और अग्नि प्रज्वलंत॥ छाता, वैश्या, पगड़ी, अंजन, ऐना, शस्त्र। कन्या, रत्न, स्त्री, धोबी धोया वस्त्र॥ घृत मिट्टी अस्त्र शहद, मदिरा वस्त्र श्वेत। गोरोचन सरसों अमिष, गन्ना खज्जन भेद॥ बिन रोदन मुर्दा मिले, पालकी भरदुल गीत। ध्वज अकुंश बकरा पडे़, सम्मुख अपना गीत॥ बालक संग स्त्री मिले, नौ बेटा बैल सफेद। साधु सुधा सुरतर-पड़े, सम्मुख चारों वेद ॥ कूड़ा से भरी टोकरी जो सम्मुख पडंत। पाछे घट खाली पड़े, निश्चय काज बनंत।। प्रिय वाणी कानों पड़े, सम्मुख वाहन भार। कह कवि ये शुभ शकुन यात्रा चलती बार॥ अर्थात् ब्राह्मण, घोड़ा, हाथी, न्योला, बाज, मोर, दूध, दही, फल, फूल, कमल, वेदध्वनि, अन्न, सिंहासन, जल से भरा कलश, बंधा हुआ एक पशु, न्योला, चापा (चाहा पक्ष) मछली, प्रज्वलित अग्नि, छाता, वैश्या, पनाली, अंजन, ऐना, शस्त्र, रत्न, स्त्री, कन्या, धुले हुए वस्त्र सहित धोबी, घी, मिट्टी, सरसों, मांस, गन्ना, खज्जन पक्ष, रोदन रहित मुर्दा, पालकी, भारद्वाज पक्षी, ध्वजा, अंकुश, बकरा, अपना प्रिय मित्र, बच्चे के सहित स्त्री, गाय या गोह के सहित बछड़ा, सफेद बैल, साधु, अमृत, कल्पवृक्ष चारों वेद, शहद, शराब, गोरोचन आदि में से कुछ भी सम्मुख पड़े या कूड़े से भरी टोकरी, प्रिय वाणी या सामान से लदा वाहन यदि यात्रा के वक्त सम्मुख पड़ जाए तो निश्चय ही इच्छा पूर्ति का संकेत करते हैं। खाली घड़ा पीठ पीछे हो तो अच्छा है। ये शुभ शकुन हैं। नीलकण्ठ छिक्कर-पिक्कर वानर कौवी भालु। जै कुकर दाएं पड़े तो सिद्ध होय सब काजु॥ अर्थात् नीलकण्ठ छिक्कर नामक विशेष मृग, पिक्कर पक्षी, कौवी (स्त्री संज्ञक) भालू व कुत्ता यदि दाएं हाथ पर पड़े तो कार्य सिद्ध होता है। मृग बाएं ते दाहिने जो आवे तत्काल। बाएं गर्दभ रेकंजा सिद्धि होय सब काज॥ अर्थात् यदि हिरण बायीं तरफ से रास्ता काटकर दायीं तरफ आ जाए या बायीं तरफ गधा बोलना प्रारंभ कर दे तो शुभ शकुन है। खड़ा कोबरा, सूकरा, जाहक, कछुआ, गोह। ये शब्द कानों पड़े निश्चय कारज होय॥ पर दर्शन हो जाएं तो महाअशुभ होय। अतिहि कु शकुन जानिये काट सके ना कोय॥ अर्थात् यदि खरगोश, सर्प, सूअर, जाहक, पशु, कछुआ व गोह के शब्द कानों में पड़े तो अत्यंत शुभ शकुन समझें। परंतु यदि ये प्रत्यक्ष सामने पड़ जाएं तो महा अशुभ हैं। बानर, भालु दर्शन भले, नाम के सुनते हानि। कह कवि विचार के तब आगे करौ पदान॥ अर्थात् यदि वानर भालू यात्रा आरंभ वक्त आगे जाए तो उत्तम शकुन है परंतु यदि इनका नाम कानों में पड़े तो अपशकुन का द्योतक है। अपशकुनुन विचार दांए गर्दभ शब्द हो, सम्मुख काला धान्य। टूटी खाट आगे मिले तो बहुत हानि॥ कूकूर लोटे भुम्म पर, अथवा मारे कान। पांच भैंस सम्मुख पड़ें, निश्चय होवे धन॥ एक अजाः नौ स्त्री, बिल्ली दो लड़न्त। छह कुत्ता आगे पड़ें, नहीं बात में तंत॥ तीन गाय दो बानिया, एक बछड़ा एक शूद्र। हाथी सात सम्मुख पडं़े, निश्चय बिगड़े बुद्धि॥ भैंसा पर बैठा हुआ, मनुष्य सम्मुख होय। निश्चय हानि होयेगी, बचा सके ना कोय ॥ जननी का तिरस्कार होय या हो अकाल वृष्टि। क्षत्री चार सम्मुख पडं़े, निश्चय महाअनिष्ट ॥ तीन विप्र बैरागिया, संन्यासी केश खुलंत। भगवा व स्त्री सम्मुख पड़े, निश्चय कारण अंत॥ बंध्या, रजः, रजस्वला, भूसा हड्डी चामं। अंधा, बहरा, कूबड़ा विधवा लगड़ा पांव ॥ ईंधन लक्कड़ उन्मादिया, भैंसा दो लड़ंत। गुंड, मट्ठा, कीचड़ पड़े सम्मुख छींक हुवंत ॥ हिजड़ा विष्ठा तेल जो, मालिश तेल मनुष्य। अंग भंग नंगा पतित रोगी पूरा सुस्त॥ गंजा भिजे वस्त्र सों, चर्बी शत्रु सांप। नमक औषधि गिरगिरा कुटंबी झगड़े आप ॥ कटु बचन सम्मुख पड़े, जौ यात्रा चलती बार। कह कवि हानि महा बिगड़े सारे काज॥ अर्थात् यदि यात्रा के समय गधा दायीं तरफ बोले या कोई सामने से टूटी खाट लाता हुआ मिले कारज भंग होता है। यदि कुत्ता भूमि पर लेटे या कान फड़फड़ाये, पांच भैंस सामने आये, एक बकरी नौ स्त्री, दो बिल्ली लड़ती हुई, छः कुत्ते, तीन गाय, दो वैश्य, एक बैल एक शूद्र, सात हाथी, या भैंसे पर बैठा हुआ व्यक्ति यदि सम्मुख पड़े तो अपशकुन का सूचक है। यात्रा में चलते समय जननी का तिरस्कार करे या अकाल वर्षा हो, चार क्षत्रिय, तीन ब्राह्मण बैरागी, सन्यासी, खुले केशों वाला गेरूरा वस्त्र धारण करने वाला सम्मुख पड़ जाए तो अपशकुन है। इसी प्रकार बांझ औरत, स्त्री का रज, रजोवती स्त्री, भूसा, हड्डी, चमड़ा, अंधा, बहरा, कूबड़ा, विधवा स्त्री, जलाने वाली लकड़ी, उपला, पागल, गुड़, मट्ठा कीचड़ सामने आये, दो भैंसे लड़ते हुए, नपुसंक, विष्ठा, तेल मालिश किये आदमी, अंग भंग, नंगा नीच पुरुष, दीर्घ रोगी, गंजा भीगे वस्त्रों में, चर्बी, सर्प, शत्रु, नमक, औषधि, गिरगिट सामने आ जाए, अपने ही कुटुंबी सामने लड़ते हों, सामने कोई छींक दे या यात्रा के वक्त अप्रिय बचन सुनाई पड़ें तो अपशकुन का सूचक है। कुुछ अन्य शकुुन अपशकुुन जो पशु पक्षियों द्वारा होते हैैं शकुनों में कौवा, छिपकली व अन्य पशु पक्षियों का विचार किया जाता है। काक स्पर्श व छिपकली के गिरने को अशुभ समझा गया है। यदि कौआ अचानक शोरगुल करे या किसी के सिर पर बैठे तो आर्थिक हानि दर्शाता है। यदि स्त्री के सिर पर बैठे तो पति को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। संध्या के समय मुर्गों की ध्वनियां महामारी दर्शाती हैं। जब मछलियां जल की सतह पर छलांग मारें, मेढक टर्र-टर्र करे, बिल्ली भूमि खोदे, चीटियां अपने अंडों को स्थानांतरित करें, सांपों का जोड़ा व पशु आकाश की ओर देखे, पालतू पशु बाहर जाने से घबराएं तो तुरंत ही वर्षा होती है। ये वर्षा के लिए शुभ शकुन है। यदि रात्रि में दीपकीट दिखाई दे, कीड़े या सरीसृप घास के ऊपर बैठें तो भी तत्काल वर्षा होती है। यदि वर्षा ऋतु के दौरान सायंकाल में गीदड़ों की चिल्लाहट सुनाई दे तो बिल्कुल वर्षा नहीं होती। मांसभक्षी पशु-पक्षी, का दिखाई देना अशुभ व शाकाहारी पशु, पक्षी प्रायः शुभ शकुन का संकेत देते हैं। ज्योतिष में शकुनों अपशकुनों का विशेष विचार प्रश्न आदि में किया जाता है। साथ ही साथ मेदिनीय ज्योतिष में भी शकुन अपना विशेष महत्व रखते हैं -वर्षा होगी या नहीं होगी, कम होगी या अधिक होगी इस प्रकार की भविष्य वाणियां भी शकुनों के आधार पर की जाती हैं कुछ उदाहरण निम्न हैं- _यदि आसमान बादलों से घिरा हो व पालतू कुत्ता घर से बाहर न जाए, तो वर्षा का सूचक है। _यदि आसमान में चील 400 फुट की ऊंचाई पर उड़ रही हो, तो भी वर्षा होने वाली होती है। _यदि मकड़ी घर के बाहर जाला बनाए तो वर्षा ऋतु जाने का सूचक है। _मेढकों की टर्रराहट वर्षा का संकेत है। _मोर का नृत्य तथा शोर भी वर्षा का सूचक है। .

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श्यामलाल गुप्त 'पार्षद'

इसी झण्डे पर गीत लिखा था श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' ने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी, पत्रकार, समाजसेवी एवं अध्यापक थे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान उत्प्रेरक झण्डा गीत (विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा) की रचना के लिये वे इतिहास में सदैव याद किये जायेंगे। .

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श्रवणकुमार

श्रवण कुमार हिन्दू धर्म ग्रंथ रामायण में उल्लेखित पात्र है, ये अपने माता पिता से अतुलनीय प्रेम के लिए जाने जाते हैं। श्रवण कुमार का वध राजा दशरथ से भूलवश हो गया था, जिस कारण इनके माता पिता ने राजा दशरथ को पुत्र वियोग का शाप दे दिया था इसी के फलस्वरूप राम को वनवास हुआ और राजा दशरथ ने पुत्र वियोग में राम को याद करते हुए प्राण त्यागेश्रवण अथवा श्रवण कुमार संस्कृत काव्य रामायण के एक पात्र का नाम है। इसमें श्रवण की उल्लेखनीयता उसकी अपने माता-पिता की भक्ति के कारण है। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीरामचरितमानस

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस का आवरण श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रन्थ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है। श्री रामचरित मानस के नायक राम हैं जिनको एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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श्रीलंका का इतिहास

इतिहासकारों में इस बात की आम धारणा थी कि श्रीलंका के आदिम निवासी और दक्षिण भारत के आदिम मानव एक ही थे। पर अभी ताजा खुदाई से पता चला है कि श्रीलंका के शुरुआती मानव का सम्बंध उत्तर भारत के लोगों से था। भाषिक विश्लेषणों से पता चलता है कि सिंहली भाषा, गुजराती और सिंधी से जुड़ी है। प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहला वंश का शासन रहा है। समय समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इसपर होता रहा है। तीसरी सदी इसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ। इब्नबतूता ने चौदहवीं सदी में द्वीप का भ्रमण किया। .

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श्रीसीतारामकेलिकौमुदी

श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८), शब्दार्थ: सीता और राम की (बाल) लीलाओं की चन्द्रिका, हिन्दी साहित्य की रीतिकाव्य परम्परा में ब्रजभाषा (कुछ पद मैथिली में भी) में रचित एक मुक्तक काव्य है। इसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००७ एवं २००८ में की गई थी।रामभद्राचार्य २००८, पृष्ठ "क"–"ड़"काव्यकृति वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है और सीता तथा राम के बाल्यकाल की मधुर केलिओं (लीलाओं) एवं मुख्य प्रसंगों का वर्णन करने वाले मुक्तक पदों से युक्त है। श्रीसीतारामकेलिकौमुदी में ३२४ पद हैं, जो १०८ पदों वाले तीन भागों में विभक्त हैं। पदों की रचना अमात्रिका, कवित्त, गीत, घनाक्षरी, चौपैया, द्रुमिल एवं मत्तगयन्द नामक सात प्राकृत छन्दों में हुई है। ग्रन्थ की एक प्रति हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अक्टूबर २००८ को किया गया था। .

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श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि

(देवर्षि) श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि (1675-1761) सवाई जयसिंह के समकालीन, बूंदी और जयपुर के राजदरबारों से सम्मानित, आन्ध्र-तैलंग-भट्ट, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि थे। "सवाई जयसिंह द्वितीय (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743) ने अपने समय में जिन विद्वत्परिवारों को बाहर से ला कर अपने राज्य में जागीर तथा संरक्षण दिया उनमें आन्ध्र प्रदेश से आया यह तैलंग ब्राह्मण परिवार प्रमुख स्थान रखता है। इस परिवार में में ही उत्पन्न हुए थे (देवर्षि) कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट जी, जिन्होंने 'ईश्वर विलास', 'पद्यमुक्तावली', 'राघव गीत' आदि अनेक ग्रंथों की रचना कर राज्य का गौरव बढ़ाया। इन्होंने सवाई जयसिंह से सम्मान प्राप्त किया था, (उनके द्वारा जयपुर में आयोजित) अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया था, जयपुर को बसते हुए देखा था और उसका एक ऐतिहासिक महाकाव्य में वर्णन किया था। देवर्षि-कुल के इस प्रकांड विद्वान ने अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन-काल में पर्याप्त प्रसिद्धि, समृद्धि एवं सम्मान प्राप्त किया था।" भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने इन पूर्वज कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था- तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः। भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:।। .

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शूर्पणखा

वार्विक गोब्ले द्वारा चित्रित '''शूर्पणखा का अपमान''' राम से प्रेमयाचना करती हुई '''शूर्पणखा''' शूर्पणखा (.

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सतलुज नदी

सतलुज (पंजाबी: ਸਤਲੁਜ, अँग्रेजी:Sutlej River, उर्दू: درياۓ ستلُج) उत्तरी भारत में बहनेवाली एक सदानीरा नदी है। इसका पौराणिक नाम शतद्रु है। जिसकी लम्बाई पंजाब में बहने वाली पाँचों नदियों में सबसे अधिक है। यह पाकिस्तान में होकर बहती है। .

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सनातन धर्म

सनातन धर्म: (हिन्दू धर्म, वैदिक धर्म) अपने मूल रूप हिन्दू धर्म के वैकल्पिक नाम से जाना जाता है।वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नदी के पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। .

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सन्त एकनाथ

सन्त एकनाथ एकनाथ (१५३३-१५९९ ई.) प्रसिद्ध मराठी सन्त जिनका जन्म पैठण में संत भानुदास के कुल में हुआ था। इन्होंने संत ज्ञानेश्वर द्वारा प्रवृत्त साहित्यिक तथा धार्मिक कार्य का सब प्रकार से उत्कर्ष किया। ये संत भानुदास के पौत्र थे। गोस्वामी तुलसीदास के समान मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण ऐसा विश्वास है कि कुछ महीनों के बाद ही इनके माता पिता की मृत्यु हो गई थी। बालक एकनाथ स्वभावत: श्रद्धावान तथा बुद्धिमान थे। देवगढ़ के हाकिम जनार्दन स्वामी की ब्रह्मनिष्ठा, विद्वत्ता, सदाचार और भक्ति देखकर भावुक एकनाथ उनकी ओर आकृष्ट हुए और उनके शिष्य हो गए। एकनाथ ने अपने गुरु से ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का अध्ययन किया और उनका आत्मबोध जाग्रत हुआ। गुरु की आज्ञा से ये गृहस्थ बने। एकनाथ अपूर्व संत थे। प्रवृत्ति और निवृत्ति का ऐसा अनूठा समन्वय कदाचित् ही किसी अन्य संत में दिखाई देता है। आज से ४०० वर्ष पूर्व इन्होंने मानवता की उदार भावना से प्रेरित होकर अछूतोद्धार का प्रयत्न किया। ये जितने ऊँचे संत थे उतने ही ऊँचे कवि भी थे। इनकी टक्कर का बहुमुखी सर्जनशील प्रतिभा का कवि महाराष्ट्र में इनसे पहले पैदा नहीं हुआ था। महाराष्ट्र की अत्यंत विषम अवस्था में इनको साहित्यसृष्टि करनी पड़ी। मराठी भाषा, उर्दू-फारसी से दब गई थी। दूसरी ओर संस्कृत के पंडित देशभाषा मराठी का विरोध करते थे। इन्होंने मराठी के माध्यम से ही जनता को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया। .

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सप्तकाण्ड रामायण

सप्तकाण्ड रामायण असमी भाषा का रामायण है। इसकी रचना १४वीं शताब्दी में असमी के भक्तकवि माधव कंदलि ने की थी। संस्कृत से किसी आधुनिक भारतीय भाषा में अनूदित यह प्रथम रामायण है। इसके साथ ही यह कृति असमी भाषा की सबसे प्राचीन रचनाओं में से एक है। सप्तकाण्ड रामायण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें राम, सीता तथा अन्य लोगों का चित्रण नायक के रूप में नहीं किया गया है। श्रेणी:रामायण श्रेणी:असमी साहित्य.

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सरयू

सरयू नदी (अन्य नाम घाघरा, सरजू, शारदा) हिमालय से निकलकर उत्तरी भारत के गंगा मैदान में बहने वाली नदी है जो बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है। अपने ऊपरी भाग में, जहाँ इसे काली नदी के नाम से जाना जाता है, यह काफ़ी दूरी तक भारत (उत्तराखण्ड राज्य) और नेपाल के बीच सीमा बनाती है। सरयू नदी की प्रमुख सहायक नदी राप्ती है जो इसमें उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर मिलती है। इस क्षेत्र का प्रमुख नगर गोरखपुर इसी राप्ती नदी के तट पर स्थित है और राप्ती तंत्र की अन्य नदियाँ आमी, जाह्नवी इत्यादि हैं जिनका जल अंततः सरयू में जाता है। बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टान्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट, बलिया आदि शहर इस नदी के तट पर स्थित हैं। .

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सरस्वती नदी

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। कहते हैं, यह नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकार यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। .

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सारस (पक्षी)

सारस विश्व का सबसे विशाल उड़ने वाला पक्षी है। इस पक्षी को क्रौंच के नाम से भी जानते हैं। पूरे विश्व में भारतवर्ष में इस पक्षी की सबसे अधिक संख्या पाई जाती है। सबसे बड़ा पक्षी होने के अतिरिक्त इस पक्षी की कुछ अन्य विशेषताएं इसे विशेष महत्व देती हैं। उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पक्षी को मुख्यतः गंगा के मैदानी भागों और भारत के उत्तरी और उत्तर पूर्वी और इसी प्रकार के समान जलवायु वाले अन्य भागों में देखा जा सकता है। भारत में पाये जाने वाला सारस पक्षी यहां के स्थाई प्रवासी होते हैं और एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहना पसंद करते हैं। सारस पक्षी का अपना विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व भी है। विश्व के प्रथम ग्रंथ रामायण की प्रथम कविता का श्रेय सारस पक्षी को जाता है। रामायण का आरंभ एक प्रणयरत सारस-युगल के वर्णन से होता है। प्रातःकाल की बेला में महर्षि वाल्मीकि इसके द्रष्टा हैं तभी एक आखेटक द्वारा इस जोड़े में से एक की हत्या कर दी जाती है। जोड़े का दूसरा पक्षी इसके वियोग में प्राण दे देता है। ऋषि उस आखेटक को श्राप देते हैं। अर्थात्, हे निषाद! तुझे निरंतर कभी शांति न मिले। तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के हत्या कर डाली। .

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साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

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सांख्य दर्शन

भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कि ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति पर्व 301.109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शान्ति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है। .

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सिद्धिदास महाजु

सिद्धिदास महाजु (सिद्धिदास अमात्य) नेपालभाषा के महाकवि है। उन्हे नेपालभाषा पुनर्जागरण का चार स्तम्भ मै एक के रूप मै भी लेते है। नेपालभाषा मै आधुनिक कविता एवम्‌ आधुनिक कथा लेखन के सुरुवात मै इनका बडा हात था। उन्हौंने रामायण को नेपालभाषा मै अनुवाद किया था। .

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संस्कृत नाटक

संस्कृत नाटक (कोडियट्टम) में सुग्रीव की भूमिका संस्कृत नाटक रसप्रधान होते हैं। इनमें समय और स्थान की अन्विति नही पाई जाती। अपनी रचना-प्रक्रिया में नाटक मूलतः काव्य का ही एक प्रकार है। सूसन के लैंगर के अनुसार भी नाटक रंगमंच का काव्य ही नहीं, रंगमंच में काव्य भी है। संस्कृत नाट्यपरम्परा में भी नाटक काव्य है और एक विशेष प्रकार का काव्य है,..दृश्यकाव्य। ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’ कहकर उसकी विशिष्टता ही रेखांकित की गयी है। लेखन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक नाटक में कई कलाओं का संश्लिष्ट रूप होता है-तब कहीं वह अखण्ड सत्य और काव्यात्मक सौन्दर्य की विलक्षण सृष्टि कर पाता है। रंगमंच पर भी एक काव्य की सृष्टि होती है विभिन्न माध्यमों से, कलाओं से जिससे रंगमंच एक कार्य का, कृति का रूप लेता है। आस्वादन और सम्प्रेषण दोनों साथ-साथ चलते हैं। अनेक प्रकार के भावों, अवस्थाओं से युक्त, रस भाव, क्रियाओं के अभिनय, कर्म द्वारा संसार को सुख-शान्ति देने वाला यह नाट्य इसीलिए हमारे यहाँ विलक्षण कृति माना गया है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाट्य को तीनों लोकों के विशाल भावों का अनुकीर्तन कहा है तथा इसे सार्ववर्णिक पंचम वेद बतलाया है। भरत के अनुसार ऐसा कोई ज्ञान शिल्प, विद्या, योग एवं कर्म नहीं है जो नाटक में दिखाई न पड़े - .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

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संकट मोचन हनुमान मंदिर

संकट मोचन हनुमान मंदिर हिन्दू भगवन हनुमान के पवित्र मंदिरों में से एक हैं। यह वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत में स्थित है। यह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय कॆ नजदीक दुर्गा मंदिर और नयॆ विश्वनाथ मंदिर के रास्ते में स्थित हैं। संकट मोचन का अर्थ है परेशानियों अथवा दुखों को हरने वाला। इस मंदिर की रचना बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापक श्री मदन मोहन मालवीय जी द्वारा १९०० ई० में हुई थी। यहाँ हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनायी जाती है, इस दौरान एक विशेष शोभा यात्रा निकाली जाती है जो दुर्गाकुंड से सटे ऐतिहासिक दुर्गा मंदिर से लेकर संकट मोचन तक चलायी जाती है। भगवान हनुमान को प्रसाद के रूप में शुद्ध घी के बेसन के लड्डू चढ़ाये जाते हैं। भगवान हनुमान के गले में गेंदे के फूलों की माला सुशोभित रहती हैं। इस मंदिर की एक अद्भुत विशेषता यह हैं कि भगवान हनुमान की मूर्ति की स्थापना इस प्रकार हुई हैं कि वह भगवान राम की ओर ही देख रहे हैं, जिनकी वे निःस्वार्थ श्रद्धा से पूजा किया करते थे। भगवान हनुमान की मूर्ति की विशेषता यह भी है कि मूर्ति मिट्टी की बनी है।संकट मोचन महराज कि मूर्ति के हृदय के ठीक सीध में श्री राम लला की मूर्ति विद्यमान है, ऐसा प्रतीत होता है संकट मोचन महराज के हृदय में श्री राम सीता जी विराज मान है। .

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सुनयना

सुनयना रामायण की एक प्रमुख पात्रा हैं। वे मिथिला के राजा जनक की पत्नी तथा सीता की माता थीं। सुनयना का नाम वाल्मीकि रामायण मे नहीं मिलता, यह नाम तुलसीदास की रामचरितमानस मे प्रयोगिक किया है। जैन ग्रंथ 'पौम्यचरित्र' मे उनका नाम विदेह हैं और 'वासुदेवहिंदी' मे उनका नाम धारिणी दिया गया हैं। महाभारत के शांतिपर्व मे जनक की पत्नी को कौशल्या कहा गया है। कुछ संस्करण मे उन्हें सुनेत्रा कहा गया है। बौद्ध धर्म की महाजनक जातक मे उनका नाम शिव्वली बताया गया है। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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सुन्दरकाण्ड

सुंदरकाण्ड मूलतः वाल्मीकि कृत रामायण का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस तथा अन्य भाषाओं के रामायण में भी सुन्दरकाण्ड उपस्थित है। सुन्दरकाण्ड में हनुमान द्वारा किये गये महान कार्यों का वर्णन है। रामायण पाठ में सुन्दरकाण्ड के पाठ का विशेष महत्व माना जाता है। सुंदरकाण्ड में हनुमान का लंका प्रस्थान, लंका दहन से लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं। इस सोपान के मुख्य घटनाक्रम है – हनुमानजी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से भेंट करके उन्हें श्री राम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसी। रामायण में सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामायण कथा श्रीराम के गुणों और उनके पुरुषार्थ को दर्शाती है किन्तु सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है, जो सिर्फ हनुमानजी की शक्ति और विजय का कांड है। .

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सुबाहु

सुबाहु एक राक्षस का नाम है जो रामायण का एक दुष्ट पात्र है। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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सुमन्त्र

सुमन्त्र वाल्मीकि रामायण में अयोध्या के महाराज दशरथ के आठ कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे और रामायण में सबसे मुख्य मंत्री थे जो राजा को सर्वदा उचित सलाह देते हैं। वह राजा के दरबार में सात मंत्रियों के बाद में आठवें मंत्री थे फिर भी राजा दशरथ उन्हीं से सलाह लेते थे। उनसे पहले जो मुख्य सात मंत्री थे वह इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप तथा धर्मपाल। वह सुमन्त्र ही थे जो राम, सीता तथा लक्ष्मण को वनगमन के दौरान अपने रथ में अयोध्या से गंगा के तट तक छोड़ने आये। .

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सुमित्रा

सुमित्रा रामायण की एक प्रमुख पात्र हैं। वे अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी थीं तथा उन्हें को लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न की माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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सुराष्ट्र

सुराष्ट्र वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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सुग्रीव

सुग्रीव रामायण का एक प्रमुख पात्र है। वह वालि का अनुज है। हनुमान के कारण राम से उसकी मित्रता हुयी। वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड तथा युद्धकाण्ड में सुग्रीव का वर्णन वानरराज के रूप में किया गया है। जब राम से उसकी मित्रता हुयी तब वह अपने अग्रज वालि के भय से ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान तथा कुछ अन्य वफ़ादार रीछ (ॠक्ष) (जामवंत) तथा वानर सेनापतियों के साथ रह रहा था। लंका पर चढ़ाई के लिए सुग्रीव ने ही वानर तथा ॠक्ष सेना का प्रबन्ध किया था। .

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स्वयंवर

दमयन्ती के स्वयंवर के दृष्य का चित्रण स्वयंवर प्राचीन काल से प्रचलित एक हिन्दू परंपरा है जिसमे कन्या स्वयं अपना वर चुनती थी और उससे उसका विवाह होता था। इस बात के प्रमाण हैं कि वैदिक काल में यह प्रथा समाज के चारों वर्णों में प्रचलित और विवाह का प्रारूप था। रामायण और महाभारत काल में भी यह प्रथा राजन्य वर्ग में प्रचलित थी, परन्तु इसका रूप कुछ संकुचित हो गया था। राजन्य कन्या पति का वरण स्वयंवर में करती थी परंतु यह समाज द्वारा मान्यता प्रदान करने के हेतु थी। कन्या को पति के वरण में स्वतंत्रता न थी। पिता की शर्तों के अनुसार पूर्ण योग्यता प्राप्त व्यक्ति ही चुना जा सकता था। पूर्वमध्यकाल में भी इस प्रथा के प्रचलित रहने के प्रमाण मिले हैं, जैसा संयोगिता के स्वयंवर से स्पष्ट है। .

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स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द(স্বামী বিবেকানন্দ) (जन्म: १२ जनवरी,१८६३ - मृत्यु: ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं बहनों" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था। कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं; इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का पहले हाथ ज्ञान हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए कूच की। विवेकानंद के संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया, सैकड़ों सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में, विवेकानंद को एक देशभक्त संत के रूप में माना जाता है और इनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। .

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स्कन्द पुराण

विभिन्न विषयों के विस्तृत विवेचन की दृष्टि से स्कन्दपुराण सबसे बड़ा पुराण है। भगवान स्कन्द के द्वारा कथित होने के कारण इसका नाम 'स्कन्दपुराण' है। इसमें बद्रिकाश्रम, अयोध्या, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, कन्याकुमारी, प्रभास, द्वारका, काशी, कांची आदि तीर्थों की महिमा; गंगा, नर्मदा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों के उद्गम की मनोरथ कथाएँ; रामायण, भागवतादि ग्रन्थों का माहात्म्य, विभिन्न महीनों के व्रत-पर्व का माहात्म्य तथा शिवरात्रि, सत्यनारायण आदि व्रत-कथाएँ अत्यन्त रोचक शैली में प्रस्तुत की गयी हैं। विचित्र कथाओं के माध्यम से भौगोलिक ज्ञान तथा प्राचीन इतिहास की ललित प्रस्तुति इस पुराण की अपनी विशेषता है। आज भी इसमें वर्णित विभिन्न व्रत-त्योहारों के दर्शन भारत के घर-घर में किये जा सकते हैं। इसमें लौकिक और पारलौकिक ज्ञानके अनन्त उपदेश भरे हैं। इसमें धर्म, सदाचार, योग, ज्ञान तथा भक्ति के सुन्दर विवेचनके साथ अनेकों साधु-महात्माओं के सुन्दर चरित्र पिरोये गये हैं। आज भी इसमें वर्णित आचारों, पद्धतियोंके दर्शन हिन्दू समाज के घर-घरमें किये जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें भगवान शिव की महिमा, सती-चरित्र, शिव-पार्वती-विवाह, कार्तिकेय-जन्म, तारकासुर-वध आदि का मनोहर वर्णन है। इस पुराण के माहेश्वरखण्ड के कौमारिकाखण्ड के अध्याय २३ में एक कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है- यह खण्डात्मक और संहितात्मक दो स्वरूपों में उपलब्ध है। दोनों स्वरूपों में ८१-८१ हजार श्लोक परंपरागत रूप से माने गये हैं। खण्डात्मक स्कन्द पुराण में क्रमशः माहेश्वर, वैष्णव, ब्राह्म, काशी, अवन्ती (ताप्ती और रेवाखण्ड) नागर तथा प्रभास -- ये सात खण्ड हैं। संहितात्मक स्कन्दपुराण में सनत्कुमार, शंकर, ब्राह्म, सौर, वैष्णव और सूत -- छः संहिताएँ हैं। .

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सूरसागर

सूरसागर, ब्रजभाषा में महाकवि सूरदास द्वारा रचे गए कीर्तनों-पदों का एक सुंदर संकलन है जो शब्दार्थ की दृष्टि से उपयुक्त और आदरणीय है। इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग "कृष्ण की बाल-लीला' और "भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् १६५८ वि० से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के सरस्वती भण्डार में सुरक्षित पायी गई हैं। दार्शनिक विचारों की दृष्टि से "भागवत' और "सूरसागर' में पर्याप्त अन्तर है। सूरसागर की सराहना करते हुए डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - .

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सूर्यवंश

सूर्यवंश,अर्कवंश पुराणों के अनुसार एक प्राचीन भारतीय वंश है जिसकी उत्पत्ति सूर्य देव से मानी गयी है। ये ब्राह्मण एवं राजपूत होते हें। इसी वंश परम्परा में से जैन एवं बुद्ध (बौद्ध) पंथ का प्रर्दुभाव हुआ है। .

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सीता

सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य रामायण ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, की मुख्य पात्र है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थी। इनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इनकी स्त्री व पतिव्रता धर्म के कारण इनका नाम आदर से लिया जाता है। त्रेतायुग में इन्हे सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं। .

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सीता कुंड

पूनौरा धाम मंदिर स्थित सीता कुंड सीता-कुंड सीतामढ़ी के पुनौरा ग्राम स्थित एक हिन्दू तीर्थ स्थल है। यहाँ एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है। सीतामढ़ी से ५ किलोमीटर दूर यह स्थल पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है। पुनौरा और जानकी कुंड:यह स्थान पौराणिक काल में पुंडरिक ऋषि के आश्रम के रूप में विख्यात था। सीतामढी से ५ किलोमीटर पश्चिम स्थित पुनौरा में हीं देवी सीता का जन्म हुआ था। मिथिला नरेश जनक ने इंद्र देव को खुश करने के लिए अपने हाथों से यहाँ हल चलाया था। इसी दौरान एक मृदापात्र में देवी सीता बालिका रूप में उन्हें मिली। मंदिर के अलावे यहाँ पवित्र कुंड है। .

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सीतामढ़ी

सीतामढ़ी (अंग्रेज़ी: Sitamarhi,उर्दू: سيتامارهى) भारत के मिथिला का प्रमुख शहर है जो पौराणिक आख्यानों में सीता की जन्मस्थली के रूप में उल्लिखित है। त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिंदू तीर्थ-स्थल बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। सीता के जन्म के कारण इस नगर का नाम पहले सीतामड़ई, फिर सीतामही और कालांतर में सीतामढ़ी पड़ा। यह शहर लक्षमना (वर्तमान में लखनदेई) नदी के तट पर अवस्थित है। रामायण काल में यह मिथिला राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था। १९०८ ईस्वी में यह मुजफ्फरपुर जिला का हिस्सा बना। स्वतंत्रता के पश्चात ११ दिसम्बर १९७२ को इसे स्वतंत्र जिला का दर्जा प्राप्त हुआ। त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिंदू तीर्थ-स्थल बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। वर्तमान समय में यह तिरहुत कमिश्नरी के अंतर्गत बिहार राज्य का एक जिला मुख्यालय और प्रमुख पर्यटन स्थल है। .

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सीतामढी

सीतामढी भारत गणराज्य के बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल मे स्थित एक शहर एवं जिला है। 1972 में मुजफ्फरपुर से अलग होकर यह स्वतंत्र जिला बना। बिहार के उत्तरी गंगा के मैदान में स्थित यह जिला नेपाल की सीमा पर होने के कारण संवेदनशील है। बज्जिका यहाँ की बोली है लेकिन हिंदी और उर्दू राजकाज़ की भाषा और शिक्षा का माध्यम है। यहाँ की स्थानीय संस्कृति, रामायणकालीन परंपरा तथा धार्मिकता नेपाल के तराई प्रदेश तथा मिथिला के समान है। .

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हनुमान

हनुमान (संस्कृत: हनुमान्, आंजनेय और मारुति भी) परमेश्वर की भक्ति (हिंदू धर्म में भगवान की भक्ति) की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान हैं। वह कुछ विचारों के अनुसार भगवान शिवजी के ११वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। रामायण के अनुसार वे जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमान जी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमान जी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है। ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले तथा लोकमान्यता के अनुसार त्रेतायुग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे भारत देश में आज के झारखंड राज्य के गुमला जिले के आंजन नाम के छोटे से पहाड़ी गाँव के एक गुफ़ा में हुआ था। इन्हें बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि इनका शरीर एक वज्र की तरह था। वे पवन-पुत्र के रूप में जाने जाते हैं। वायु अथवा पवन (हवा के देवता) ने हनुमान को पालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मारुत (संस्कृत: मरुत्) का अर्थ हवा है। नंदन का अर्थ बेटा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार हनुमान "मारुति" अर्थात "मारुत-नंदन" (हवा का बेटा) हैं। हनुमान प्रतिमा .

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हनुमान लंगूर में पूँछ वहन

हनुमान लंगूर में पूँछ वहन एक सहज व्यवहार है और जैव वैज्ञानिक रूनवाल के अनुसार भारत के लंगूरों में इसकी कई शैलियाँ हैं। पूँछ वहन की इन शैलियों के आधार पर लंगूरों को समूहों में बांटा जा सकता है। पुरानी दुनिया का हनुमान लंगूर लगभग पूरे भारत में पाया जाता है, और हिन्दू इसे भगवन हनुमान का अवतार मानते हैं। फिलिप का कहना है कि भाषा और साहित्य में यह काले मूंह और लम्बी पूंछ वाला बंदर लांगुल का पर्याय है। प्राणी विज्ञान में लंगूर नरवानर गण में आता है, पहले इसका नाम प्रेसबाईटेस एंटेलस था और इसकी १६ किसमों का वर्णन है, किन्तु लगभग २००० के बाद इसका नाम सेमनोपीथेकस, और इसकी ज़्यादातर किस्मों को प्रजातियों में बदल दिया गया। अर्थात हनुमान लंगूर या प्रेसबाईटेस, जिसकी पूंछ की बात यहाँ हो रही है, उसे अब सेमनोपीथेकस कहते हैं। इस लेख के पहले भाग में लंगूरों में पूँछ वहन की चार मुख्य शैलियों का वर्णन, दूसरे भाग में हनुमान और लंगूर की पूँछ वहन शैलियों की तुलना, और अंत में बंदर की कुछ अन्य प्रजातियों की अनोखी पूँछों से परिचय है। .

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हनुमान जयंती

हनुमान जयंती एक हिन्दू पर्व है। यह चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन हनुमानजी का जन्म हुआ माना जाता है। .

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

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हिन्दू धर्म ग्रंथ

वैदिक सनातन वर्णाश्रम व्यक्ति प्रवर्तित धर्म नहीं है। इसका आधार वेदादि धर्मग्रन्थ है, जिनकी संख्या बहुत बड़ी है। ये सब दो विभागों में विभक्त हैं-.

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हिन्दू धर्म का इतिहास

हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ 2000 ई.पू.

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हिन्दू धर्मग्रन्थों का कालक्रम

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हिन्दू धर्मग्रन्थों की सूची

हिन्दूओं के धर्मग्रंथ मुख्यतः संस्कृत में हैं। बाद के काल में आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी अनेक धर्मग्रन्थों की रचना हुई। .

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हिन्दू पौराणिक कथाएँ

हिंदू पौराणिक कथाएँ धर्म से संबन्धित पारंपरिक विवरणों का एक विशाल संग्र्ह् है। यह संस्कृत-महाभारत, रामायण, पुराण आदि, तमिल-संगम साहित्य एवं पेरिय पुराणम, अनेक अन्य कृतियाँ जिनमें सबसे उल्लेखनीय है। भागवद् पुराण; जिसे पंचम वेद का पद भी दिया गया है तथा दक्षिण के अन्य प्रांतीय धार्मिक साहित्य में निहित है।इनके मूल में स्मृति ग्रंथ और स्मार्त परंपरा है। यह भारतीय एवं नेपाली संस्कृति का अंग है। एकभूत विशालकाय क्रति होने की जगह यह विविध परंपराओं का मंडल है जिसे विविध संप्रदायों, व्यक्तियों, दश्न् श्रन्खला, विभिन्न प्रांतों, भिन्न कालावधि में विकसित किया गया। ऐसा आवश्यक नहीं कि इन्हें ऐतिहासिक `टनाओं का यथा शब्द्, वस्तविक विवरण होने की मान्यता सभी हिंदुओं से प्राप्त हो, पर गूढ़, अधिकाशत्:सांकेतिक अर्थयुक्त अवशय् माना गया है। वेद देवगाथाओं के मूल, जो प्राचीन हिंदू धर्म से विकसित हुए, वैदिक सभ्यता एवं वैदिक धर्म के समय से जन्में हैं। चतुर्वेदों में उनेक विषयवस्तु के लक्षण मिलतें हैं। प्राचीन वैदिक कथाओं के पात्र, उनके वि’वास तथा मूलकथा का हिंदू दर्शन् से अटूट संबंध है। वेद चार हैं यथा रिगवेद्, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद। कुछ अवतरण ऐसी तात्विक अवधारणा तथा यंत्रों का उल्लेख करते हैं जो आधुनिक काल के वैज्ञानिक सिद्धांतों से बहुत मिलते-जुलते हैं। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/य

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हिंदू साहित्य

हिन्दुओं के प्रमुख ग्रंथ .

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होमर

ब्रिटिश संग्रहालय में होमर की प्रतिकृति होमर यूनान के ऐसे प्राचीनतम कवियों में से हैं जिनकी रचनाएँ आज भी उपलब्ध हैं और जो बहुमत से यूरोप के सबसे महान कवि स्वीकार किए जाते हैं। वे अपने समय की सभ्यता तथा संस्कृति की अभिव्यक्ति का प्रबल माध्यम माने जाते हैं। अन्धे होने के बावजूद उन्होंने दो महाकाव्यों की रचना की - इलियड और ओडिसी। इनका कार्यकाल ईसा से लगभग १००० वर्ष पूर्व था। हालाँकि इसके विषय में प्राचीन काल में जितना विवाद था आज भी उतना ही है। कुछ लोग उनके समय को ट्रोजन युद्ध के समय से जोड़ते है पर इतना तो तय है कि यूनानी इतिहास का एक पूरा काल होमर युग के नाम से विख्यात है, जो ८५० ईसा पूर्व से ट्रोजन युद्ध की तारीख ११९४-११८४ ईसा पूर्व तक फैला हुआ है। इलियड में ट्राय राज्य के साथ ग्रीक लोगों के युद्ध का वर्णन है। इस महाकाव्य में ट्राय की विजय और ध्वंस की कहानी तथा यूनानी वीर एकलिस की वीरता की गाथाएँ हैं। होमर के महाकाव्यों की भाषा प्राचीन यूनानी या हेल्लिकी है। जिस प्रकार हिंदू रामायण में लंका विजय की कहानी पढ़कर आनंदित होते हैं। उसी प्रकार ओडिसी में यूनान वीर यूलीसिस की कथा का वर्णन है। ट्राय का राजकुमार स्पार्टा की रानी हेलेन का अपहरण कर ट्राय नगर ले गया। इस अपमान का बदला लेने के लिए ही ग्रीस के सभी राजाओं और वीरों ने मिलकर ट्राय पर आक्रमण किया। ट्राय से लौटते समय उनका जहाज तूफान में फँस गया। वह बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकता रहा। इसके बाद अपने देश लौटा। यूनान (ग्रीस) के तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक तथ्यों की जानकारी का एकमात्र भरोसेमंद साधन के रूप में इनके ये दो महाकाव्य ही उपलब्ध हैं- इलियड और ओडेसी। इसके अतिरिक्त बहुत सी धार्मिक काव्य रचनाएँ भी जिन्हें बाद में परवर्ती कवियों की रचनाएँ माना गया। यह भी कहा जाता है कि इलियड और ओडेसी का प्रारंभिक स्वरूप मौखिक था और इन्हें प्राचीन ग्रीस के गायक गाया करते थे। गाते हुए वे बहुत से स्वरचित पद इसमें मिला देते। इस कारण इन्हें पूर्ण रूप से होमर की रचनाएँ मानना ठीक नहीं है। इस आधार पर वे होमर किसी एक व्यक्ति को नहीं बल्कि समष्टि रूप से इलियड और ओडेसी के रचनाकारों को मानते हैं। .

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जटायु

Killing of Jatayu Bird Painting by Balasaheb Pant Pratinidhi राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित सीता, रावण तथा जटायु जटायु रामायण का एक प्रसिद्ध पात्र है। जब रावण सीता का हरण करके लंका ले जा रहा था तो जटायु ने सीता को रावण से छुड़ाने का प्रयत्न किया था। इससे क्रोधित होकर रावण ने उसके पंख काट दिये थे जिससे वह भूमि पर जा गिरा। जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते-खोजते वहाँ पहुँचे तो जटायु से ही सीता हरण का पूरा विवरण उन्हें पता चला। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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जनक

जनक नाम से अनेक व्यक्ति हुए हैं। पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकुपुत्र निमि ने विदेह के सूर्यवंशी राज्य की स्थापना की, जिसकी राजधानी मिथिला हुई। मिथिला में जनक नाम का एक अत्यंत प्राचीन तथा प्रसिद्ध राजवंश था जिसके मूल पुरुष कोई जनक थे। मूल जनक के बाद मिथिला के उस राजवंश का ही नाम 'जनक' हो गया जो उनकी प्रसिद्धि और शक्ति का द्योतक है। जनक के पुत्र उदावयु, पौत्र नंदिवर्धन् और कई पीढ़ी पश्चात् ह्रस्वरोमा हुए। ह्रस्वरोमा के दो पुत्र सीरध्वज तथा कुशध्वज हुए। जनक नामक एक अथवा अनेक राजाओं के उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत और पुराणों में हुए हैं। इतना निश्चित प्रतीत होता है कि जनक नाम के कम से कम दो प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए; एक तो वैदिक साहित्य के दार्शनिक और तत्वज्ञानी जनक विदेह और दूसरे राम के ससुर जनक, जिन्हें वायुपुराण और पद्मपुराण में सीरध्वज कहा गया है। असंभव नहीं, और भी जनक हुए हों और यही कारण है, कुछ विद्वान् वशिष्ठ और विश्वामित्र की भाँति 'जनक' को भी कुलनाम मानते हैं। सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा उर्मिला हुईं जिनका विवाह, राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए। श्रीमद्भागवत में दी हुई जनकवंश की सूची कुछ भिन्न है, परंतु सीरध्वज के योगिराज होने में सभी ग्रंथ एकमत हैं। इनके अन्य नाम 'विदेह' अथवा 'वैदेह' तथा 'मिथिलेश' आदि हैं। मिथिला राज्य तथा नगरी इनके पूर्वज निमि के नाम पर प्रसिद्ध हुए। .

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जनकपुर

जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे। जो सीता माता के पिता थे। यह शहर भगवान राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। यथा: जनकपुरादक्षिणान्शे सप्तकोश-व्यतिक्रमें। महाग्रामे गहश्च जनकस्य वै।। जनकपुर की ख्याति कैसे बढ़ी और उसे राजा जनक की राजधानी लोग कैसे समझने लगे, इसके संवन्ध में एक अनुश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पवित्र जनक वंश का कराल जनक के समय में नैतिक अद्य:पतन हो गया। कौटिल्य ने प्रसंगवश अपनेअर्थशास्त्र में लिखा है कि कराल जनक ने कामान्ध होकर ब्राह्मण कन्या का अभिगमन किया। इसी कारण वह वनधु-बंधवों के साथ मारा गया। अश्वघोष ने भी अपने ग्रंथ बुद्ध चरित्र में इसकी पुष्टि की है। कराल जनक के बढ़ के पश्चात जनक वंश में जो लोग बच गए, वे निकटवारती तराई के जंगलों में जा छुपे। जहां वे लोग छिपे थे, वह स्थान जनक के वंशजों के रहने के कारण जनकपुर कहलाने लगा। .

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जनकपुर अंचल

जनकपुर अंचल मध्य नेपाल में पड़ता हे, इस अंचल के पुर्व में सगरमाथा अंचल, दक्षिणमे भारतीय राज्य विहार पस्चिम में नारायणी अंचल व बागमती अंचल उत्तरमे चिनके स्वसासीत क्षेत्र तिब्बत पड़ता है। इस अंचल में पडने वाला हिम शिखर गौरी शंकर के रेफरेन्स में नेपाल का राष्ट्रीय समय निर्धारण कियागया है। रामायण की पात्र सीता का जन्म जनकपुर में हुआ था इस अंचलका नाम इस ही "जनकपुर" नामक स्थान के नाम से रखा गया है। इस अन्चल में दोलखा जिला, रामेछाप जिला, सिन्धुली जिला, धनुषा जिला, मोहोत्तरी जिला व सर्लाही जिला कर के छ:ह जिले पडते हैं। .

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जनकपुरधाम

हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रंथ रामायण के अनुसार रामायण की मुख्य पात्रा सीता का जन्म प्राचीन मिथिला की इसी नगरी में हुआ था। ग्रन्थों के अनुसार प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुरधाम ही थी। जनकपुरधाम नेपालमें स्थित है। जनकपुरधाम महत्वपूर्ण कुन्ड एवं सागरों के लिए प्रख्यात है।.

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जयन्त

जयन्त, देवराज इन्द्र के पुत्र थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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जलपरी

जलपरी (Mermaid) एक म्रिथक जलीय जीव है जिसका सिर एवं धड़ औरत का होता है और निचले भाग में पैरों के स्थान पर मछली की दुम होती है। जलपरियां कईं कहानियों व दंत कथाओं में पाई जाती है। .

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जाम्बवन्त

जाम्बवन्त रामायण के एक प्रमुख पात्र हैं। वे ऋक्ष प्रजाति के थे। उनका सन्दर्भ महाभारतसे भी है। स्यमंतक मणि के लिये श्री कृष्ण एवं जामवंत में नंदिवर्धन पर्वत (तत्कालीन नाँदिया, सिरोही, राजस्थान) पर २८ दिनो तक युध्द चला। जामवंत को श्री कृष्ण के अवतार का पता चलने पर अपनी पुत्री जामवन्ती का विवाह श्री कृष्ण द्वारा स्थापित शिवलिंग (रिचेश्वर महादेव मंदिर नांदिया) की शाक्शी में करवाया .

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जागर

जागर का मतलब होता है जगाना। उत्तराखण्ड तथा नेपाल के पश्चिमी क्षेत्रोँ में कुछ ग्राम देवताओँ की पूजा कि जाती है, जैसे गंगनाथ, गोलु, भनरीया, काल्सण आदि। बहुत देवताओँ को स्थानीय भाषा में 'ग्राम देवता' कहा जाता है। ग्राम देवता का अर्थ गांव का देवता है। अत: उत्तराखण्ड और डोटी के लोग देवताओँ को जगाने हेतु जागर लगाते हैँ। जागर मन्दिर अथवा घर में कहीं भी किया जाता है। जागर "बाइसी" तथा "चौरास" दो प्रकार के होते हैँ.

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जांजगीर का विष्णु मंदिर

छत्तीसगढ़ के इस दक्षिण कोशल क्षेत्र में कल्चुरी नरेश जाज्वल्य देव प्रथम ने भीमा तालाब के किनारे ११ वीं शताब्दी में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। यह मंदिर भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। मंदिर पूर्वाभिमुखी है, तथा सप्तरथ योजना से बना हुआ है। मंदिर में शिखर हीन विमान मात्र है। गर्भगृह के दोनो ओर दो कलात्मक स्तंभ है जिन्हे देखकर यह आभास होता है कि पुराने समय में मंदिर के सामने महामंडप निर्मित था। परन्तु कालांतर में नहीं रहा। मंदिर का निर्माण एक ऊँची जगती पर हुआ है। .

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जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य (जगद्गुरु रामभद्राचार्य अथवा स्वामी रामभद्राचार्य के रूप में अधिक प्रसिद्ध) चित्रकूट धाम, भारत के एक हिंदू धार्मिकनेता, शिक्षाविद्, संस्कृतविद्वान, बहुभाषाविद, कवि, लेखक, टीकाकार, दार्शनिक, संगीतकार, गायक, नाटककार और कथाकलाकार हैं। उनकी रचनाओं में कविताएँ, नाटक, शोध-निबंध, टीकाएँ, प्रवचन और अपने ग्रंथों पर स्वयं सृजित संगीतबद्ध प्रस्तुतियाँ सम्मिलित हैं। वे ९० से अधिक साहित्यिक कृतियों की रचना कर चुके हैं, जिनमें प्रकाशित पुस्तकें और अप्रकाशित पांडुलिपियां, चार महाकाव्य,संस्कृत और हिंदी में दो प्रत्येक। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर एक हिंदी भाष्य,अष्टाध्यायी पर पद्यरूप में संस्कृत भाष्य और प्रस्थानत्रयी शास्त्रों पर संस्कृत टीकाएँ शामिल हैं।दिनकर २००८, प्रप्र.

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जैन धर्म में राम

रामायण के नायक श्रीराम जैन ग्रन्थों में ६३ शलाकापुरुषों में से एक हैं। वह विष्णु के अवतार नहीँ है बल्कि वह वलभद्र है जो सिद्धक्षेत्र माँगी तुंगि महाराष्ट्र भारत से मोक्ष गये।जैन धर्मानुसार रावण का वध श्रीराम ने नहीं लक्ष्मण ने किया था। श्रेणी:जैन धर्म.

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वनस्थली विद्यापीठ

वनस्थली विद्यापीठ महिला शिक्षा की राष्ट्रीय संस्था है जो राजस्थान के टोंक जिले की निवाई में स्थित है। जहॉ शिशु कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर शिक्षण एंव अनुसंधान कार्य हो रहा है। विद्यापीठ को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम की धारा 3 के अधीन भारत सरकार द्वारा समविश्वविद्यालय घोषित किया गया है। विद्यापीठ भारतीय विश्वविद्यालय संघ तथा एसोसिएशन ऑफ कॉमनवेल्थ यूनिवर्सिटीज का सदस्य है। वनस्थली का वातावरण स्वतंत्रता का वातावरण है। छात्राओं को अधिकतम स्वतन्त्रता दी जाती है और उनके व्यक्तित्व के निर्माण का प्रयास किया जाता है। जो छात्रा दो-चार वर्ष वनस्थली में पढ़ लेती है उसके व्यक्तित्व मे वनस्थली की झलक देखी जा सकती है। वनस्थली के विशाल पुस्तकालय में लगभग एक लाख पुस्तकें हैं जिनमें उच्चकोटि के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ भी हैं। लगभग 750 पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती हैं जिनमें उच्च स्तर की विदेशी पत्रिकाएँ भी हैं। क्षेत्रीय स्तर पर, राज्य के स्तर पर, तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी वनस्थली की छात्राएँ खेलकूद के विभिन्न कार्यक्रमों में पुरस्कृत होती है। घुड़सवारी के प्रशिक्षण की यहाँ जो व्यवस्था है वह यही का एक विशिष्ट और सराहनीय पक्ष है। लगभग प्रतिवर्ष ही राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड तथा राजस्थान विश्वविद्यालय की मेरिट लिस्ट में यहाँ की छात्राएँ भी स्थान पाती हैं। वनस्थली का उच्च माध्यमिक विद्यालय देश का प्रथम 'गर्ल्स ऑटोनॉमस स्कूल' है। .

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वनवास

वनवास का शाब्दिक अर्थ 'वन में रहना' है। कुछ लोग स्वेच्छा से वनवास करते हैं जबकि कुछ स्थितियों में यह एक बाध्यकारी आदेश (या दण्ड) होता था। रामायण में राम को चौदह वर्ष का वनवास मिला था जबकि महाभारत में वर्णित है कि पाण्डवों को १२ वर्ष का वनवास तथा १ वर्ष का अज्ञातवास मिला था। श्रेणी:हिन्दू संस्कृति.

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वानर

हनुमान, द्रोणगिरि पर्वत उठाते हुए वानर हिन्दू गाथा रामायण में वर्णित मानवनुमा कपियों की एक जाति थी जिसके सदस्य साहस, शक्ति, बुद्धि और जिज्ञासा के गुण रखते थे। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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वाराणसी का इतिहास

वाराणसी का मूल नगर काशी था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग ५००० वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कंद पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतः वाराणसी शहर को कम से कम ३००० वर्ष प्राचीन तो माना ही जाता है। नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दाँत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक लिखा है। .

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वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीक (संस्कृत: महर्षि वाल्मीक) प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है।http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmeki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। वाल्मीकि एक आदि कवि थे पर उनकी विशेषता यह थी कि वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि केवट थे।। .

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वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकीय रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरम्भिक महाकाव्य है जो संस्कृत भाषा में अनुष्टुप छन्दों में रचित है। इसमें श्रीराम के चरित्र का उत्तम एवं वृहद् विवरण काव्य रूप में उपस्थापित हुआ है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित होने के कारण इसे 'वाल्मीकीय रामायण' कहा जाता है। वर्तमान में राम के चरित्र पर आधारित जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं उन सभी का मूल महर्षि वाल्मीकि कृत 'वाल्मीकीय रामायण' ही है। 'वाल्मीकीय रामायण' के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' माना जाता है और इसीलिए यह महाकाव्य 'आदिकाव्य' माना गया है। यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आयामों को प्रतिबिम्बित करने वाला होने से साहित्य रूप में अक्षय निधि है। .

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विभिन्न भाषाओं में रामायण

म्यांमार के रामायण (रामजात्तौ) पर आधारित नृत्य भिन्न-भिन्न प्रकार से गिनने पर रामायण तीन सौ से लेकर एक हजार तक की संख्या में विविध रूपों में मिलती हैं। इनमें से संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण (आर्ष रामायण) सबसे प्राचीन मानी जाती है। साहित्यिक शोध के क्षेत्र में भगवान राम के बारे में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम-कथा केवल वाल्मीकीय रामायण तक सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी 'रामोपाख्यान' के रूप में आरण्यकपर्व (वन पर्व) में यह कथा वर्णित हुई है। इसके अतिरिक्त 'द्रोण पर्व' तथा 'शांतिपर्व' में रामकथा के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। बौद्ध परंपरा में श्रीराम से संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। रामायण से थोड़ा भिन्न होते हुए भी ये ग्रन्थ इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा संबंधी कई ग्रंथ लिखे गये, जिनमें मुख्य हैं- विमलसूरि कृत 'पउमचरियं' (प्राकृत), आचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण' (संस्कृत), स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्र पुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परंपरा के अनुसार राम का मूल नाम 'पद्म' था। अन्य अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गयीं। हिन्दी में कम से कम 11, मराठी में 8, बाङ्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी। महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, गुरु गोविंद सिंह, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओं की रचना की है। धर्मसम्राट स्वामी करपात्री ने 'रामायण मीमांसा' की रचना करके उसमें रामगाथा को एक वैज्ञानिक आयामाधारित विवेचन दिया। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितम्, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकम्, जानकीहरणम् आदि मुख्य हैं। विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम के अलावा किसी और चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन न किया गया। .

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विभीषण

Vibhishana Meets Rama विभीषण रामायण के एक प्रमुख पात्र हैं। वे रावण के भाई थे।विभीषण बहुत ही बड़े राम भक्त थे। उन्होंने लंका में रहते हुए भी राम भक्ति की, जहाँ भगवान श्री राम का शत्रु रावण का राज था। विभीषण की माता का नाम कौशिल्या है जब रावण को इस बात की जानकारी हुई की कौशिल्या का पुत्र उसकी और उसके परिवार की मृत्यु का कारण बनेगा तब उसने अपने सैनिको से कहकर कौशिक प्रदेश के राजा कौशिक की पुत्री कौशिल्या का अपहरण करवा कर उन्हें लंका के समुद्र तट पर छुपाया था और उन्हें छोड़ने की कीमत उनका पहला पुत्र माँगा था जिसका ही नाम विभीषण था और यही कारण था की विभीषण ने बिना किसी विवाद के रावण को छोड़ कर राम का साथ देने चला गया था, ऐसी कथा श्री लंका में प्रचलित है। श्रेणी:रावण श्रेणी:रामायण के पात्र.

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विमान

विमान शब्द भारतीय साहित्य (मुख्यतः वेद, रामायण, महाभारत एवं जैन साहित्य में) में एक उड़ाने वाली युक्ति को इंगित करता है। कहीं-कहीं पर यह 'मंदिर', 'स्थान' आदि का भी अर्थ रखता है। समरांगणसूत्रधार तथा वैमानिक शास्त्र आदि कई ग्रन्थों में इनका विशद तकनीकी वर्णन भी मिलता है। .

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विमानन

विमानन किसी विमान — विशेषकर हवा से भारी विमान — के प्रारूप, विकास, उत्पादन, परिचालन तथा उसके उपयोग को कहते हैं। .

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विश्रवा

विश्रवा महान ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। उनकी माता का नाम हविर्भुवा था। विश्रवा स्वयं अपने पिता के समान वेद्‍‍विद और धर्मात्मा थे। रामायण का प्रख्यात पात्र रावण विश्रवा ऋषि का ही पुत्र था। श्रेणी:ऋषि मुनि.

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विष्णुपुर (पश्चिम बंगाल)

विष्णुपुर भारत के पश्चिम बंगाल प्रदेश का एक एक प्रसिद्ध शहर है। कभी मल्ल राजाओं की राजधानी रहा बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) का विष्णुपुर शहर टेराकोटा के मंदिरों, बालूचरी साड़ियों व पीतल की सजावटी वस्तुओं के अलावा हर साल दिसंबर के आखिरी सप्ताह में लगने वाले मेले के लिए भी मशहूर है। यह मेला कला व संस्कृति का अनोखा संगम है। यहां दूर-दूर से अपना हुनर दिखाने कलाकार आते हैं तो उनकी कला के पारखी पर्यटक भी आते हैं। साल के आखिरी सप्ताह के दौरान पूरा शहर उत्सव के रंगों में रंग जाता है। मल्ल राजाओं के नाम पर इसे 'मल्लभूमि' भी कहा जाता था। यहां लगभग एक हजार वर्षों तक इन राजाओं का शासन रहा। उस दौरान विष्णुपुर में टेराकोटा व हस्तकला को तो बढ़ावा मिला ही, भारतीय शास्त्रीय संगीत का विष्णुपुर घराना भी काफी फला-फूला। वैष्णव धर्म के अनुयायी इन मल्ल राजाओं ने 17वीं व 18वीं सदी में जो मशहूर टेराकोटा मंदिर बनवाए थे, वे आज भी शान से सिर उठाए खड़े हैं। यहां के मंदिर बंगाल की वास्तुकला की जीती-जागती मिसाल हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से कोई दो सौ किमी दूर बसा यह शहर राज्य के प्रमुख पर्यटनस्थलों में शामिल है। खासकर मेले के दौरान तो यहां काफी भीड़ जुटती है। मल्ल राजा वीर हंबीर और उनके उत्तराधिकारियों- राजा रघुनाथ सिंघा व वीर सिंघा ने विष्णुपुर को तत्कालीन बंगाल का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। शहर के ज्यादातर मंदिर भी उसी दौरान बनवाए गए। यहां स्थित रासमंच पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। उस समय रास उत्सव के दौरान पूरे शहर की मूर्तियां इसी मंदिर में लाकर रख दी जाती थीं और दूर-दूर से लोग इनको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। इसी तरह 17वीं सदी में राजा रघुनाथ सिंघा के बनवाए जोरबंगला मंदिर में भी टेराकोटा की खुदाई की गई है। शहर में इस तरह के इतने मंदिर हैं कि इसे मंदिरों का शहर भी कहा जा सकता है। टेराकोटा विष्णुपुर की पहचान है। यहां इससे बने बर्तनों के अलावा सजावट की चीजें भी मिलती हैं। मेले में तो एक सिरे से यही दुकानें नजर आती हैं। इसके अलावा पीतल के बने सामान भी यहां खूब बनते व बिकते हैं। इन चीजों के अलावा यहां बनी बालूचरी साड़ियां देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। बालूचरी साड़ियां किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। .

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विजय (रामायण)

विजय वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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विजय स्तम्भ

मोटे अक्षरचित्तौड़गढ़ का विजय स्तम्भ विजय स्तम्भ भारत के राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित एक स्तम्भ या टॉवर है। इसे मेवाड़ नरेश राणा कुम्भा ने महमूद खिलजी के नेतृत्व वाली मालवा और गुजरात की सेनाओं पर विजय के स्मारक के रूप में सन् १४४२ और १४४९ के मध्य बनवाया था। यह राजस्थान पुलिस ओर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिन्ह है। इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोश और हिन्दू देवी देवताओं का अजायबघर कहते हैं। वास्तुकार:- जैता व उसके पुत्र नापा,पुंजा । .

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विजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य - १५वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य (1336-1646) मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक साम्राज्य था। इसके राजाओं ने ३१० वर्ष राज किया। इसका वास्तविक नाम कर्णाटक साम्राज्य था। इसकी स्थापना हरिहर और बुक्का राय नामक दो भाइयों ने की थी। पुर्तगाली इसे बिसनागा राज्य के नाम से जानते थे। इस राज्य की १५६५ में भारी पराजय हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण रूप में यह और ८० वर्ष चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है। .

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विक्रमशिला का इतिहास

विक्रमशिला का इतिहासलेखक परशुराम ठाकुर ब्रह्मवादी द्वारा शोधित एवं लिखित ऐतिहासिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है। इस ग्रंथ में विक्रमशिला विश्वविद्यालय सहित प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का प्रमाणिक वर्णन देखने को मिलता है। ग्रंथ के मुख्य पृष्ठ पर यह कहा गया है कि " पुरातत्व की खोज और पहचान विश्व इतिहास को आश्चर्यचकित कर सकते है। विक्रमशिला के पुरावशेषों का ऐतिहासिक, भौगोलिक, भूगर्भिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन करने से अरबों वर्षों का इतिहास सामने आया है जो हड़प्पा, सिंधु,सुमेरु, सुर,असुर, देव, गंधर्व, नाग, कोलविंध्वंशी, शिव, इंद्र, राम, कृष्ण, आर्या देवी सभ्यताओं एवं संस्कृति के साथ साथ विश्व विकास के मूल इतिहास का प्रमाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। विक्रमशिला खुदाई स्थल से प्राप्त पुरातात्विक सामाग्रियों में कांस्य मूर्तियां, मृदभांड,स्तंभ, मुहरें, मृण मूर्तियां, आदि के अतिरिक्त हजारों किस्म की प्रस्तर कला भवन निर्माण कला,लोहा, तांबा, सोना, चांदी, विभिन्न पशुओं की अस्थियां, नवरत्न की माला, मातृदेवी, शिवयोगी के विभिन्न रुप, विष्णु, वरुण, ब्रह्मा, कृष्ण, राम, संदीपनी मुनि, आदि बुद्ध, तारा, वृहस्पति, पुरुरवा, उर्वशी आदि की प्रतिमाएं मिली हैं जो हिमयुग की सभ्यता संस्कृति से लेकर वैदिक युग, रामायण युग,महाभारत युग, सिद्धार्थ बुद्ध तक के साक्ष्य प्रस्तुत करती है। विक्रमादित्य की राजधानी का ऐतिहासिक दस्तावेज "बत्तीसी आसन" अभी भी यहां अवशेष के रूप में मौजूद है। ग्रंथ विक्रमशिला का इतिहास प्राचीन बिहार की सभ्यता संस्कृति का इतिहास ही नहीं है, बल्कि विश्व इतिहास को भी एक नई दृष्टि देने में समर्थ है। .

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वृहद भारत

'''वृहद भारत''': केसरिया - भारतीय उपमहाद्वीप; हल्का केसरिया: वे क्षेत्र जहाँ हिन्दू धर्म फैला; पीला - वे क्षेत्र जिनमें बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ वृहद भारत (Greater India) से अभिप्राय भारत सहित उन अन्य देशों से है जिनमें ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। इसमें दक्षिणपूर्व एशिया के भारतीकृत राज्य मुख्य रूप से शामिल है जिनमें ५वीं से १५वीं सदी तक हिन्दू धर्म का प्रसार हुआ था। वृहद भारत में मध्य एशिया एवं चीन के वे वे भूभाग भी सम्मिलित किये जा सकते हैं जिनमे भारत में उद्भूत बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ था। इस प्रकार पश्चिम में वृहद भारत कीघा सीमा वृहद फारस की सीमा में हिन्दुकुश एवं पामीर पर्वतों तक जायेगी। भारत का सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र .

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वैदिक धर्म

वैदिक रीति से होता यज्ञ वैदिक धर्म वैदिक सभ्यता का मूल धर्म था, जो भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया में हज़ारों वर्षों से चलता आ रहा है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म अथवा आधुनिक हिन्दू धर्म इसी धार्मिक व्यवस्था पर आधारित हैं। वैदिक संस्कृत में लिखे चार वेद इसकी धार्मिक किताबें हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार ऋग्वेद और अन्य वेदों के मन्त्र ईश्वर द्वारा ऋषियों को प्रकट किये गए थे। इसलिए वेदों को 'श्रुति' (यानि, 'जो सुना गया है') कहा जाता है, जबकि श्रुतिग्रन्थौके अनुशरण कर वेदज्ञद्वारा रचा गया वेदांगादि सूत्र ग्रन्थ स्मृति कहलाता है। वेदांग अन्तर्गत के धर्मसूत्र पर ही आधार करके वेदज्ञ मनु,अत्रि,याज्ञावल्क्य आदि द्वारा रचित अनुस्मतिृको भी स्मृति ही माना जाता है।ईसके वाद वेद-वेदांगौंके व्याखाके रुपमे रामायण महाभारतरुपमे ईतिहासखण्ड और पुराणखण्डको वाल्मीकि और वेदव्यासद्वारा रचागया जिसके नीब पर वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म,विभिन्न वैष्णवादि मतसम्बद्ध हिन्दूधर्म,और अर्वाचीन वैदिक मत आर्यसमाजी,आदि सभीका व्यवहार का आधार रहा है। कहा जाता है। वेदों को 'अपौरुषय' (यानि 'जीवपुरुषकृत नहीं') भी कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है कि उनकी कृति दिव्य है। अतःश्रुति मानवसम्बद्ध प्रमादादि दोषमुक्त है।"प्राचीन वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म"का सारा धार्मिक व्यवहार विभन्न वेद शाखा सम्बद्ध कल्पसूत्र,श्रौतसूत्र,गृह्यसूत्र,धर्मसूत्र आदि ग्रन्थौंके आधारमे चलता है। इसके अलावा अर्वाचीन वैदिक (आर्य समाज) केवल वेदौंके संहिताखण्डको ही वेद स्वीकारते है। यही इन् दोनोमें विसंगति है। वैदिक धर्म और सभ्यता की जड़ में सन्सारके सभी सभ्यता किसी न किसी रूपमे दिखाई देता है। आदिम हिन्द-ईरानी धर्म और उस से भी प्राचीन आदिम हिन्द-यूरोपीय धर्म तक पहुँचती हैं, जिनके कारण बहुत से वैदिक देवी-देवता यूरोप, मध्य एशिया और ईरान के प्राचीन धर्मों में भी किसी-न-किसी रूप में मान्य थे, जैसे ब्रह्मयज्ञमे जिनका आदर कीया जाता है उन ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र,सविता,मित्र, वरुण,और बृहस्पति (द्यौस-पितृ), वायु-वात, सरस्वती,आदि। इसी तरह बहुत से वैदिकशब्दों के प्रभाव सजातीय शब्द पारसी धर्म और प्राचीन यूरोपीय धर्मों में पाए जाते हैं, जैसे कि सोम (फ़ारसी: होम), यज्ञ (फ़ारसी: यस्न), पितर- फादर,मातर-मादर,भ्रातर-ब्रदर स्वासार-स्विष्टर नक्त-नाइट् इत्यादि।, Forgotten Books, ISBN 978-1-4400-8579-6 .

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वैदिक व्याकरण

संस्कृत का सबसे प्राचीन (वेदकालीन) व्याकरण 'वैदिक व्याकरण' कहलाता है। यह पाणिनीय व्याकरण से कुछ भिन्न था। .

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वैष्णो देवी

वैष्णो देवी मंदिर (वैष्णोदेवी मन्दिर), शक्ति को समर्पित एक पवित्रतम हिंदू मंदिर है, जो भारत के जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी की पहाड़ी पर स्थित है। हिंदू धर्म में वैष्णो देवी, जो माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं, देवी मां का अवतार हैं। मदिर, जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में कटरा नगर के समीप अवस्थित है। यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है। मंदिर, 5,200 फ़ीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर (7.45 मील) की दूरी पर स्थित है। हर साल मंदिर का दर्शन करते हैं और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है। इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल द्वारा की जाती है। तीर्थ-यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए उधमपुर से कटरा तक एक रेल संपर्क बनाया गया है। .

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वेश्यावृत्ति

टियुआना, मेक्सिको में वेश्या अर्थलाभ के लिए स्थापित संकर यौन संबंध वेश्यावृत्ति कहलाता है। इसमें उस भावनात्मक तत्व का अभाव होता है जो अधिकांश यौनसंबंधों का एक प्रमुख अंग है। विधान एवं परंपरा के अनुसार वेश्यावृत्ति उपस्त्री सहवास, परस्त्रीगमन एवं अन्य अनियमित वासनापूर्ण संबंधों से भिन्न होती है। संस्कृत कोशों में यह वृत्ति अपनाने वाले स्त्रियों के लिए विभिन्न संज्ञाएँ दी गई हैं। वेश्या, रूपाजीवा, पण्यस्त्री, गणिका, वारवधू, लोकांगना, नर्तकी आदि की गुण एवं व्यवसायपरक अमिघा है - 'वेशं (बाजार) आजोवो यस्या: सा वेश्या' (जिसकी आजीविका में बाजार हेतु हो, 'गणयति इति गणिका' (रुपया गिननेवाली), 'रूपं आजीवो यस्या: सा रूपाजीवा' (सौंदर्य ही जिसकी आजीविका का कारण हो); पण्यस्त्री - 'पण्यै: क्रोता स्त्री' (जिसे रुपया देकर आत्मतुष्टि के लिए क्रय कर लिया गया हो)। .

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वीर लोरिक

वीर लोरिक, पूर्वी उत्तर प्रदेश की अहीर जाति की दंतकथा का एक दिव्य चरित्र है। एस॰एम॰ पांडे ने इसे भारत के अहीर कृषक वर्ग का राष्ट्रीय महाकाव्य कहा है। लोरिकायन, या लोरिक की कथा, भोजपुरी भाषा की एक नीति कथा है। इसे अहीर जाति की रामायण का दर्जा दिया जाता है। .

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वी० ओ० चिदम्बरम पिल्लै

'''वी ओ चिदम्बरम पिल्लै''' वल्लियप्पन उलगनाथन चिदम्बरम पिल्लै (1872–1936) तमिलनाडु के एक राजनेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे बालगंगाधर तिलक के शिष्य थे। वे 'वी.

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खरगोन

कोई विवरण नहीं।

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खरगोन ज़िला

खरगोन भारत देश में मध्य प्रदेश राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय खारगोन है। .

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खाप

खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा राजस्थान, हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके अनुरूप अन्य प्रचलित संस्थाएं हैं पाल, गण, गणसंघ, सभा, समिति, जनपद अथवा गणतंत्र। समाज में सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाये रखने के लिए मनमर्जी से काम करने वालों अथवा असामाजिक कार्य करने वालों को नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता होती है, यदि ऐसा न किया जावे तो स्थापित मान्यताये, विश्वास, परम्पराए और मर्यादाएं ख़त्म हो जावेंगी और जंगल राज स्थापित हो जायेगा। मनु ने समाज पर नियंत्रण के लिए एक व्यवस्था दी। इस व्यवस्था में परिवार के मुखिया को सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसकी सहायता से प्रबुद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। जाट समाज में यह न्याय व्यवस्था आज भी प्रचलन में है। इसी अधार पर बाद में ग्राम पंचायत का जन्म हुआ।डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया: जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ.

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खोतानी रामायण

खोतानी रामायण मध्य एशिया के खोतान प्रदेश में प्रचलित रामकथा जिसकी रचना संभवत: 9वीं शती ई. में हुई थी। कदाचित यह तिब्बत में प्रचलित किसी रामायण का प्रतिसंस्करण है। एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को 'खोतान' कहा जाता है जिसकी भाषा 'खोतानी' है। इसमें गौतम बुद्ध की आत्मकथा के रूप में कथा आरंभ होती है। इसमें राम की बुद्ध और लक्ष्मण को मैत्रेय बताया गया है और सीता, राम और लक्ष्मण दोनों की पत्नी हैं। यह कदाचित मध्य एशिया की कतिपय प्राचीन जातियों में प्रचलित बहुपति प्रथा से प्रभावित है। इसमें रावण के वध का कोई प्रसंग नहीं है। सहस्रबाहु (सहस्रार्जुन) को दशरथ का पुत्र कहा गया है। राम-लक्ष्मण इस सहस्रबाहु के पुत्र थे। उनकी माँ ने उन्हें बारह वर्ष तक भूमि में छिपा कर रखा था। परशुराम के पिता की गाय का सहस्रबाहु ने अपहरण कर लिया था। इस कारण परशुराम ने सहस्रबाहु का वध किया। राम ने पृथ्वी से वर प्राप्त कर परशुराम को मारा। .

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गया

बोधगया का महाबोधि मन्दिर गया, झारखंड और बिहार की सीमा और फल्गु नदी के तट पर बसा भारत प्रान्त के बिहार राज्य का दूसरा बड़ा शहर है। वाराणसी की तरह गया की प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक नगरी के रूप में है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ हजारों श्रद्धालु पिंडदान के लिये जुटते हैं। गया सड़क, रेल और वायु मार्ग द्वारा पूरे भारत से जुड़ा है। नवनिर्मित गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा द्वारा यह थाइलैंड से भी सीधे जुड़ा हुआ है। गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। गया बिहार के महत्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर खासकर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है। यहां का विष्णुपद मंदिर पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। दंतकथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। हिन्दू धर्म में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। गया, मध्य बिहार का एक महत्वपूर्ण शहर है, जो गंगा की सहायक नदी फल्गु के पश्चिमी तट पर स्थित है। यह बोधगया से 13 किलोमीटर उत्तर तथा राजधानी पटना से 100 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहां का मौसम मिलाजुला है। गर्मी के दिनों में यहां काफी गर्मी पड़ती है और ठंड के दिनों में औसत सर्दी होती है। मानसून का भी यहां के मौसम पर व्यापक असर होता है। लेकिन वर्षा ऋतु में यहां का दृश्य काफी रोचक होता है। कहा जाता है कि गयासुर नामक दैत्य का बध करते समय भगवान विष्णु के पद चिह्न यहां पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते है। .

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गरुड़

गरुड़ हिंदू मान्यताओं के अनुसार गरुड़ पक्षियों के राजा और भगवान विष्णु के वाहन हैं। गरुड़ कश्यप ऋषि और उनकी दूसरी पत्नी विनता की सन्तान हैं। .

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गायत्री रामायण

वाल्मिकि रामायण में २४०० श्लोक हैं। वाल्मिकि जी ने गायत्री मंत्र के २४ बीजाक्षरों को इन श्लोकों में पाणित्यपूर्ण ढंग से जड़ दिया है। (१००० श्लोकों पर एक बीजाक्षर) इन २४ बीजाक्षरों से आरम्भ होने वाले श्लोकों के समूह को 'गायरी रामायण' कहते हैं। कहा जाता है कि इन २४ श्लोकों के पाठ से वही फल प्राप्त होता है जो सम्पूर्ण रामायण के पाठ से मिलता है। .

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गिरिव्रज

गिरिव्रज महाभारतकाल और बिंबिसार तक के परवर्ती काल की मगध की राजधानी थी। समझा जाता है कि यह आधुनिक राजगिर से दस किलोमीटर पूर्व और गया से प्राय: ५० किमी पूर्व-उत्तर पंचना नदी के तीर स्थित था। बार्हद्रथ राजकुल की राजधानी होने के कारण महाभारत के अनुसार इसका दूसरा नाम 'बार्हद्रथपुर' था। महाभारत ने गिरिब्रज और बार्हद्रथ के अतिरिक्त उसका एक तीसरा नाम 'मागधपुर' दिया है। 'महावग्ग' में उसी को 'गिरिब्बज' कहा गया है। रामायण में गिरिव्रज को 'वसुमति' नाम से अभिहित किया गया है और बौद्धग्रथों में कहीं कहीं उसका नाम 'कुशाग्रपुरी' भी मिलता है। गिरिव्रज, जैसा नाम से ही प्रकट है, पहाड़ों से घिरा था और वैहार, वराल (विपुल), वृषभ, ऋषिगिरि और सोमगिरि की पाँच पहाड़ियों के परकोटे से सुरक्षित था। बाद में हर्यक कुल के राजा बिंबिसार ने गिरिव्रज को छोड़ नगर के बाहर अपने राजप्रासाद बनवाए जिससे गिरिव्रज उजड़ गया और मगध की नई राजधानी बिंबिसार के प्रासाद के चतुर्दिक् बसी जो राजगृह कहलाई। राजगृह का परकोटा अब भी राजगिर की पहाड़ियों पर खड़ा है। श्रेणी:भारत के प्राचीन नगर श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

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गंगा नदी

गंगा (गङ्गा; গঙ্গা) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर २,५१० किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी ही जाती हैं, मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाये जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है। .

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गुप्त राजवंश

गुप्त राज्य लगभग ५०० ई इस काल की अजन्ता चित्रकला गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। गुप्त वंश पर सबसे ज्यादा रिसर्च करने वाले इतिहासकार डॉ जयसवाल ने इन्हें जाट बताया है।इसके अलावा तेजराम शर्माhttps://books.google.co.in/books?id.

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गुप्तचर

गुप्त रूप से राजनीतिक या अन्य प्रकार की सूचना देनेवाले व्यक्ति को गुप्तचर (spy) या जासूस कहते हैं। गुप्तचर अति प्राचीन काल से ही शासन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता माना जाता रहा है। भारतवर्ष में गुप्तचरों का उल्लेख मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों के उपयोग और उनकी श्रेणियों का विशद वर्णन किया है। राज्याधिपति को राज्य के अधिकारियों और जनता की गतिविधियों एवं समीपवर्ती शासकों की नीतियों के संबंध में सूचनाएँ देने का महत्वपूर्ण कार्य उनके गुप्तचरों द्वारा संपन्न होता था। रामायण में वर्णित दुर्मुख ऐसा ही एक गुप्तचर था जिसने रामचंद्र को सीता के विषय में (लंका प्रवास के बाद) जनापवाद की जानकरी दी थी। .

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गुरुकुल

अंगूठाकार ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल के पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-.

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गुजराती साहित्य

गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है। गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-.

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गौतम

संस्कृत साहित्य में गौतम का नाम अनेक विद्याओं से संबंधित है। वास्तव में गौतम ऋषि के गोत्र में उत्पन्न किसी व्यक्ति को 'गौतम' कहा जा सकता है अत: यह व्यक्ति का नाम न होकर गोत्रनाम है। वेदों में गौतम मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। एक मेधातिथि गौतम, धर्मशास्त्र के आचार्य हो गए हैं। बुद्ध को भी 'गौतम' अथवा (पाली में 'गोतम') कहा गया है। न्यायसूत्रों के रचयिता भी गौतम माने जाते हैं। उपनिषदों में भी गौतम नामधारी अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों, महाभारत तथा रामायण में भी गौतम की चर्चा है। यह कहना कठिन है कि ये सभी गौतम एक ही है। रामायण में ऋषि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या की कथा मिलती है। अहल्या के शाप का उद्धार राम ने मिथिला के रास्ते में किया था। अत: गौतम का निवास मिथिला में ही होना चाहिए और यह बात मिथिला में 'गौतमस्थान' तथा 'अहल्यास्थान' नाम से प्रसिद्ध स्थानों से भी पुष्ट होती है। चूँकि न्यायशास्त्र के लिये मिथिला विख्यात रही है अत: गौतम (नैयायिक) का मैथिल होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। .

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गौरा देवी

चिपको आंदोलन को शुरू करने मे गौरा देवी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। गौरा देवी (अंग्रेजी: Gaura Devi) जिनका जन्म १९२५ में उत्तराखंड के लाता गाॅंव में हुआ था। इन्हें चिपको आन्दोलन की जननी माना जाता है। उस वक़्त गाॅंव में काफी बड़े-बड़े पेड़ -पौधे थे जो कि पूरे क्षेत्र को घेरे हुए थे। इनकी शादी मात्र १२ वर्ष की उम्र में मेहरबान सिंह के साथ कर दी थीं, जो कि नज़दीकी गांव रेणी के निवासी थे। मेहरबान सिंह जो कि एक किसान था और भेड़ों को पालता और उनकी ऊन का व्यापार किया करता था। शादी के १० वर्ष उपरांत मेहरबान की मृत्यु हो जाने के कारण गौरा देवी को अपने बच्चे का लालन - पालन करने में काफी दिक्कतें आई थीं। कुछ समय बाद गौरा महिला मण्डल की अध्यक्ष भी बन गई थी। अलाकांडा में चंडी प्रसाद भट्ट तथा गोविंद सिंह रावत नामक लोगों ने अभियान चलाते हुए सन् १९७४ में २५०० देवदार वृक्षों को काटने के लिए चिन्हित किया गया था लेकिन गौरा देवी ने इनका विरोध किया और पेड़ों की रक्षा करने का अभियान चलाया, इसी कारण गौरा देवी चिपको वूमन के नाम से जानी जाती है। दस साल बाद देवी ने एक साक्षात्कार में कहा था की भाइयों ये जंगल हमारा माता का घर जैसा है यहां से हमें फल,फूल,सब्जियां मिलती अगर यहां के पेड़ - पौधे काटोगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी। गौरा देवी अपने जीवन काल में कभी विद्यालय नहीं जा सकी थीं लेकिन इन्हें प्राचीन वेद,पुराण,रामायण,भगवतगीता,महाभारत तथा ऋषि - मुनियों की सारी जानकारी थी। चिपको वूमन के नाम से जाने वाली गौरा देवी का निधन ६६ वर्ष की उम्र में ०४ जुलाई १९९१ में हो गया था। .

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गोरखपुर

300px गोरखपुर उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग में नेपाल के साथ सीमा के पास स्थित भारत का एक प्रसिद्ध शहर है। यह गोरखपुर जिले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। यह एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मशहूर है जो बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली रहा। किन्तु मध्ययुगीन सर्वमान्य सन्त गोरखनाथ के बाद उनके ही नाम पर इसका वर्तमान नाम गोरखपुर रखा गया। यहाँ का प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर अभी भी नाथ सम्प्रदाय की पीठ है। यह महान सन्त परमहंस योगानन्द का जन्म स्थान भी है। इस शहर में और भी कई ऐतिहासिक स्थल हैं जैसे, बौद्धों के घर, इमामबाड़ा, 18वीं सदी की दरगाह और हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का प्रमुख प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस। 20वीं सदी में, गोरखपुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक केन्द्र बिन्दु था और आज यह शहर एक प्रमुख व्यापार केन्द्र बन चुका है। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय, जो ब्रिटिश काल में 'बंगाल नागपुर रेलवे' के रूप में जाना जाता था, यहीं स्थित है। अब इसे एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करने के लिये गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा/GIDA) की स्थापना पुराने शहर से 15 किमी दूर की गयी है। .

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गीतरामायण

गीतरामायण रामायण के प्रसंगों पर आधारित ५६ मराठी गीतों का संग्रह है। यह आकाशवाणी पुणे से सन् १९५५-५६ में प्रसारित किया गया था। इसके लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार गजानन दिगंबर माडगूलकर थे तथा इसे सुधीर फड़के ने संगीतबद्ध किया था। यह अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ था और बाद में इसके पाँच हिन्दी अनुवाद एवं एक-एक बंगला, अंग्रेजी, गुजराती, कन्नड, कोंकणी, संस्कृत, सिन्धी तथा तेलुगू अनुवाद भी आए। यह ब्रेल लिपि में भी लिप्यन्तरित किया गया है। .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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गीतावली

गीतावली गोस्वामी तुलसीदास की काव्य कृति है। गीतावली तुलसीदास की प्रमाणित रचनाओं में मानी जाती है। यह ब्रजभाषा में रचित गीतों वाली रचना है जिसमें राम के चरित की अपेक्षा कुछ घटनाएँ, झाँकियाँ, मार्मिक भावबिन्दु, ललित रस स्थल, करुणदशा आदि को प्रगीतात्मक भाव के एकसूत्र में पिरोया गया है। ब्रजभाषा यहाँ काव्यभाषा के रूप में ही प्रयुक्त है बल्कि यह कहा जा सकता है कि गीतावली की भाषा सर्वनाम और क्रियापदों को छोड़कर प्रायः अवधी ही है। 'गीतावली' नामकरण जयदेव के गीतगोविन्द, विद्यापति की पदावली की परम्परा में ही है जो नामकरण मात्र से अपने विषयवस्तु को प्रकट करती है। गीतावली में संस्कृतवत तत्सम पदावली का प्रयोग सूरदास की लोकोन्मुखी ब्रजभाषा की तुलना में न केवल अधिक है बल्कि तुलसी के भावावेगों के व्यक्त करने में वह सहायक सिद्ध हुई है। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हृदय के त्रिविध भावों की व्यंजना गीतावाली के मधुर पदों में देखने में आती है। रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है ‘गीतावली’ की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास के अनुकरण पर ही की है। बाललीला के कई पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अन्तर है। लंकाकाण्ड तक तो मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथाअनुरूप है। पर उत्तरकाण्ड में जाकर सूरपद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित सा हो गया है, जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। सूरदास में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाये गये हैं। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की ओर पूज्य भाव ही प्रकट होता है। राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली में बहुत से पदों में लगातार चला गया है। ‘गीतावली’ मूलतः कृष्ण काव्य परम्परा की गीत पद्धति पर लिखी गयी रामायण ही है। गीतावली का वस्तु-विभाजन सात काण्डों में हुआ है। किन्तु इसका उत्तरकाण्द अन्य ग्रन्थों के उत्तरकाण्ड से बहुत भिन्न है। उसमें रामरूपवर्णन, राम-हिण्डोला, अयोध्या की रमणीयता, दीपमालिका, वसन्त-बिहार, अयोध्या का आनन्द, रामराज्य आदि के वर्णन में माधुर्य एवं विलास की रमणीय झाँकियाँ प्रस्तुत की गयीं हैं। .

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गीति रामायण

गीति रामायण असमिया भाषा का प्रसिद्ध रामकाव्य जिसकी रचना दुर्गाधर कायस्थ ने की है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें राम और सीता दैवी न होकर पूर्णत: मानवीय हैं। मनुष्य के सामान्य विचार और विकार दोनों को कवि ने उनमें देखा है, इस कारण यह काफी लोकप्रिय हुआ है। इस रामायण को ओझापाली गीत परंपरा में लोग गाते हैं। इसमें एक प्रमुख गायक मुख्य कथागीत गाता है और शेष लोग पिछले पद को दुहराते हैं। असम में यह गान पद्धति विशेष प्रचलित है। .

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ओड़िया साहित्य

१५०० इसवी तक उड़िया साहित्य में धर्म, देव-देवी के चित्रण ही मुख्य ध्येय हुआ करता था पर साहित्य तो सम्पूर्ण रूप से काव्य पर ही आधारित था। उड़िया भाषा के प्रथम महान कवि झंकड़ के सारला दास रहे जिन्हें 'उड़िशा के व्यास' के रूप में जाना जाता है। इन्होने देवी की स्तुति में चंडी पुराण व विलंका रामायण की रचना की थी। 'सारला महाभारत' आज भी घर-घर में पढ़ा जाता है। अर्जुन दास द्वारा लिखित 'राम-विभा' को उड़िया भाषा की प्रथम गीतकाव्य या महाकाव्य माना जाता है। उड़िया साहित्य को काल और प्रकृति के अनुसार निम्नलिखित प्रकार से बाँटा जा सकता है.

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ओडिशा

ओड़िशा, (ओड़िआ: ଓଡ଼ିଶା) जिसे पहले उड़ीसा के नाम से जाना जाता था, भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक राज्य है। ओड़िशा उत्तर में झारखंड, उत्तर पूर्व में पश्चिम बंगाल दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में छत्तीसगढ से घिरा है तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। यह उसी प्राचीन राष्ट्र कलिंग का आधुनिक नाम है जिसपर 261 ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक ने आक्रमण किया था और युद्ध में हुये भयानक रक्तपात से व्यथित हो अंतत: बौद्ध धर्म अंगीकार किया था। आधुनिक ओड़िशा राज्य की स्थापना 1 अप्रैल 1936 को कटक के कनिका पैलेस में भारत के एक राज्य के रूप में हुई थी और इस नये राज्य के अधिकांश नागरिक ओड़िआ भाषी थे। राज्य में 1 अप्रैल को उत्कल दिवस (ओड़िशा दिवस) के रूप में मनाया जाता है। क्षेत्रफल के अनुसार ओड़िशा भारत का नौवां और जनसंख्या के हिसाब से ग्यारहवां सबसे बड़ा राज्य है। ओड़िआ भाषा राज्य की अधिकारिक और सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भाषाई सर्वेक्षण के अनुसार ओड़िशा की 93.33% जनसंख्या ओड़िआ भाषी है। पाराद्वीप को छोड़कर राज्य की अपेक्षाकृत सपाट तटरेखा (लगभग 480 किमी लंबी) के कारण अच्छे बंदरगाहों का अभाव है। संकीर्ण और अपेक्षाकृत समतल तटीय पट्टी जिसमें महानदी का डेल्टा क्षेत्र शामिल है, राज्य की अधिकांश जनसंख्या का घर है। भौगोलिक लिहाज से इसके उत्तर में छोटानागपुर का पठार है जो अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है लेकिन दक्षिण में महानदी, ब्राह्मणी, सालंदी और बैतरणी नदियों का उपजाऊ मैदान है। यह पूरा क्षेत्र मुख्य रूप से चावल उत्पादक क्षेत्र है। राज्य के आंतरिक भाग और कम आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्र हैं। 1672 मीटर ऊँचा देवमाली, राज्य का सबसे ऊँचा स्थान है। ओड़िशा में तीव्र चक्रवात आते रहते हैं और सबसे तीव्र चक्रवात उष्णकटिबंधीय चक्रवात 05बी, 1 अक्टूबर 1999 को आया था, जिसके कारण जानमाल का गंभीर नुकसान हुआ और लगभग 10000 लोग मृत्यु का शिकार बन गये। ओड़िशा के संबलपुर के पास स्थित हीराकुंड बांध विश्व का सबसे लंबा मिट्टी का बांध है। ओड़िशा में कई लोकप्रिय पर्यटक स्थल स्थित हैं जिनमें, पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर सबसे प्रमुख हैं और जिन्हें पूर्वी भारत का सुनहरा त्रिकोण पुकारा जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर जिसकी रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है और कोणार्क के सूर्य मंदिर को देखने प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक आते हैं। ब्रह्मपुर के पास जौगदा में स्थित अशोक का प्रसिद्ध शिलालेख और कटक का बारबाटी किला भारत के पुरातात्विक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं। .

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ओदिसी

ओडेसी का प्राचीन ज़ूनानी निदर्श चित्र ओदिसी (प्राचीन यूनानी भाषा: Ὀδυσσεία Odusseia), होमरकृत दो प्रख्यात यूनानी महाकाव्यों में से एक है। इलियड में होमर ने ट्रोजन युद्ध तथा उसके बाद की घटनाओं का वर्णन किया है जबकि ओदिसी में ट्राय के पतन के बाद ईथाका के राजा ओदिसियस की, जिसे यूलिसीज़ नाम से भी जाना जाता है, उस रोमांचक यात्रा का वर्णन है जिसमें वह अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, 10 वर्ष बाद अपने घर पहुँचता है। ओडेसी ई.पू.

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आदित्यहृदयम्

आदित्यहृदयम, आदित्य (सूर्य) की स्तुति के मंत्र हैं। आदित्यहृदयम् सूर्य की स्तुति के मंत्र है। ये मंत्र वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड (काण्ड - ६) में आये हैं। जब राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में खड़े हैं उस समय अगस्त्य ऋषि ने राम को सूर्य की स्तुति करने की सलाह देते हुए ये मंत्र कहे हैं। रावण के विभिन्न योद्धाओं से लड़ते हुए राम थके हुए हैं और फिर रावण के सम्मुख युद्ध के लिये उद्यत हैं तब अगस्त्य ऋषि उन्हें सूर्य की उपासना करने की शिक्षा देते हैं और कहते हैं कि आप सूर्य की उपासना करें जिससे आप सभी शत्रुओं का नाश कर पायेंगे और सभी प्रकार का मंगल होगा। .

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आर्नोस पादरे

आर्नोस पादरे, जिन्हें फ़ादर हेंक्स्लेदेन के नाम से भी जाना जाता है, एक ईसाई मिशनरी थे। उनका जन्म ऑस्टरकप्पेल्न (अंग्रेज़ी:Ostercappeln) के निकट हुआ जो जर्मनी के हैनोवर के निकट ऑस्नाब्रूक (अंग्रेज़ी:Ostercappeln) में आता है। ईसाई धर्म का प्रचार करने वह भारत 1700 ईस्वी में आए थे। .

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आख्यान

आख्यान या अनुश्रुति शब्द आरंभ से ही सामान्यत: कथा अथवा कहानी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। तारानाथकृत "वाचस्पत्यम्" नामक कोश के प्रथम भाग में, इसकी व्युत्पत्ति "आख्यायते अनेनेति आख्यानम्" दी है। साहित्यदर्पण में आख्यान को "पुरावृत कथन" (आख्यानं पूर्ववृतोक्ति) कहा गया है। डॉ॰ एस.के.

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इतिहास (हिन्दू धर्म)

इतिहास (हिन्दू धर्म).

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इन्द्रजाल

जादू का खेल ही इंद्रजाल कहलाता है। कहा जाता है, इसमें दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके उनमें भ्रांति उत्पन्न की जाती है। फिर जो ऐंद्रजालिक चाहता है वही दर्शकों को दिखाई देता है। अपनी मंत्रमाया से वह दर्शकों के वास्ते दूसरा ही संसार खड़ा कर देता है। मदारी भी बहुधा ऐसा ही काम दिखाता है, परंतु उसकी क्रियाएँ हाथ की सफाई पर निर्भर रहती हैं और उसका क्रियाक्षेत्र परिमित तथा संकुचित होता है। इंद्रजाल के दर्शक हजारों होते हैं और दृश्य का आकार प्रकार बहुत बड़ा होता है। वर्षा का वैभव इंद्र का जाल मालूम होता है। ऐंद्रजालिक भी छोटे पैमाने पर कुछ क्षण के लिए ऐसे या इनसे मिलते जुलते दृश्य उत्पन्न कर देता है। शायद इसीलिए उसका खेल इंद्रजाल कहलाता है। प्राचीन समय में ऐसे खेल राजाओं के सामने किए जाते थे। बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों तक कुछ लोग ऐसे खेल करना जानते थे, परंतु अब यह विद्या नष्ट सी हो चुकी है। कुछ संस्कृत नाटकों और गाथाओं में इन खेलों का रोचक वर्णन मिलता है। जादूगर दर्शकों के मन और कल्पनाओं को अपने अभीष्ट दृश्य पर केंद्रीभूत कर देता है। अपनी चेष्टाओं और माया से उनको मुग्ध कर देता है। जब उनकी मनोदशा ओर कल्पना केंद्रित हो जाती है तब यह उपयुक्त ध्वनि करता है। दर्शक प्रतीक्षा करने लगता है कि अमुक दृश्य आनेवाला है या अमुक घटना घटनेवाली है। इसी क्षण वह ध्वनिसंकेत और चेष्टा के योग से सूचना देता है कि दृश्य आ गया या घटना घट रही है। कुछ क्षण लोगों को वैसा ही दीख पड़ता है। तदनंतर इंद्रजाल समाप्त हो जाता है। .

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इलाहाबाद का इतिहास

प्रयाग का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। जान पड़ता है जिस प्रकार सरस्वती नदी के तट पर प्राचीन काल में बहुत से यज्ञादि होते थे उसी प्रकार आगे चलकर गंगा-यमुना के संगम पर भी हुए थे। इसी लिये 'प्रयाग' नाम पड़ा। यह तीर्थ बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है और यहाँ के जल से प्राचीन राजाओं का अभिषेक होता था। इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। वन जाते समय श्री राम प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर होते हुए गए थे। प्रयाग बहुत दिनों तक कोशल राज्य के अंतर्गत था। अशोक आदि बौद्ध राजाओं के समय यहाँ बौद्धों के अनेक मठ और विहार थे। अशोक का स्तंभ अबतक किले के भीतर खड़ा है जिसमें समुद्रगुप्त की प्रशस्ति खुदी हुई है। फाहियान नामक चीनी यात्री सन् ४१४ ई० में आया था। उस समय प्रयाग कोशल राज्य में ही लगता था। प्रयाग के उस पार ही प्रतिष्ठान नामक प्रसिद्ध दुर्ग था जिसे समुद्रगुप्त ने बहुत द्दढ़ किया था। प्रयाग का अक्षयवट बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध चला आता है। चीनी यात्री हुएन्सांग ईसा की सातवीं शताब्दी में भारतवर्ष में आया था। उसने अक्षयवट को देखा था। आज भी लाखों यात्री प्रयाग आकर इस वट का दर्शन करते है जो सृष्टि के आदि से माना जाता है। वर्तमान रूप में जो पुराण में मिलते हैं उनमें मत्स्यपुराण बहुत प्राचीन और प्रामाणिक माना जाता है। इस पुराण के १०२ अध्याय से लेकर १०७ अध्याय तक में इस तीर्थ के माहात्म्य का वर्णन है। उसमें लिखा है कि प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है जहाँ गंगा और यमुना बहती हैं। साठ सहस्त्र वीर गंगा की और स्वयं सूर्य जमुना की रक्षा करते हैं। यहाँ जो वट है उसकी रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं। पाँच कुंड हैं जिनमें से होकर जाह्नवी बहती है। माघ महीने में यहाँ सब तीर्थ आकर वास करते हैं। इससे उस महीने में इस तीर्थवास का बहुत फल है। संगम पर जो लोग अग्नि द्वारा देह विसर्जित करेत हैं वे जितने रोम हैं उतने सहस्र वर्ष स्वर्ग लोक में वास करते हैं। मत्स्य पुराण के उक्त वर्णन में ध्यान देने की बात यह है कि उसमें सरस्वती का कहीं उल्लेख नहीं है जिसे पीछे से लोगों ने 'त्रिवेणी' के भ्रम में मिलाया है। वास्तव में गंगा और जमुना की दो ओर से आई हुई धाराओं और एक दोनों की संमिलित धारा से ही त्रिवेणी हो जाती है। .

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इंदिरा रायसम गोस्वामी

इंदिरा गोस्वामी (१४ नवम्बर १९४२ - नवम्बर, २०१०) असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती गोस्वामी असम की चरमपंथी संगठन उल्फा यानि युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और भारत सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की राजनैतिक पहल करने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास मामरे धरा तरोवाल अरु दुखन उपन्यास के लिये उन्हें सन् १९८२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) से सम्मानित किया गया। .

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इक्ष्वाकु वंश

इक्ष्वाकु वंश प्राचीन भारत के शासकों का एक वंश है। इनकी उत्पत्ति में से हुई थी। ये प्राचीन कोशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी। रामायण और महाभारत में इन दोनों वंशों के अनेक प्रसिद्ध शासकों का उल्लेख है। ब्रह्मा जी के 10 मानस पुत्रो मे से एक मरीचि हैं।.

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कठ

कठ नाम पाणिनि के अष्टाध्यायी में प्राप्त होता है। एक मुनिविशेष का भी नाम 'कठ' था। यह वेद की कठ शाखा के प्रवर्तक थे। पतंजलि के महाभाष्य के मत से कठ वैशंपायन के शिष्य थे। इनकी प्रवर्तित शाखा 'काठक' नाम से भी प्रसिद्ध है। आजकल इस शाखा की वेदसंहिता नहीं प्राप्त होती। काठक शाखाध्यायी भी 'कठ' कहलाते हैं। इनसे सामवेद के कालाप और कौथुम शाखीय लोगों का मिश्रण हुआ। वाल्मीकि रामायण के कठकालाप एक स्थान प्रयुक्त हैं (ये चेम कठकालापा बहवो दण्डमानवा:, अयो. 32। 18)। कठोपनिषद् से भी इनका संबध है। यह कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा के अंतर्गत आता है। सिकंदर के विजयाभियान के इतिहासकारों ने भी इनका 'कथोई' नाम से उल्लेख किया है। कठ जाति के लोग इरावती (रावी) नदी के पूर्वी भाग में बसे हुए थे जिसे आजकल पंजाब में 'माझा' कहा जाता है। सिकंदर के आने पर कठों ने अपनी राजधानी संगल (अथवा साँकल) के चारों ओर रथों के तीन चक्कर लगाकर शकटव्यूह का निर्माण किया और यूनानी आक्रमणकारी से डटकर लोहा लिया। पीछे से पुरु की कुमक प्राप्त होने पर ही विदेशी साँकल पर अधिकार कर सका। इसयुद्ध में कठों का विनाश हुआ, किंतु इस अवसर पर सिंकंदर इतना खीझ उठा कि साँकल को जीतने के बाद उसने उसे मिट्टी में मिला दिया। कठों के संघ के प्रत्येक बच्चा संघ माना जाता था। संघ की ओर से वहाँ गृहस्थों की संतान के निरीक्षक नियत हाते थे। सुंदरता के वे विकट रूप से पोषक थे। इनकी चर्चा करते हुए ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि इस दृष्टि से कट स्पार्त नगर के निवासियों से बहुत मिलते थे। एक महीने की अवस्था के भीतर वे जिस बच्चे को दुर्बल अथवा कुरूप पाते उसे मरवा डालते थे। युद्ध कौशल में उनकी ख्याति सभी जातियों में अधिक थी। ओनेसिक्रितोज़ के अनुसार जाति में सर्वांगसुंदर व्यक्ति को राजा बनाते थे। .

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कडपा

कडपा भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के दक्षिण-मध्य में स्थित एक शहर है। यह कडपा जिला का जिला मुख्यालय भी है। कड़पा शब्द की उत्पत्ति तेलुगु शब्द गडपा से हुई है जिसका अर्थ द्वार होता है। पहले ये कड़प्पा नाम से जाना जाता था बाद में कड़पा हो गया। मध्यकाल कड़पा अनेक महापुरूषों के लिए जाना जाता था। वेमना, पोतुलूरी वीराब्रह्मम, अन्नमाचार्य, पेम्मसानी तिम्मा नायुडु जैसे महापुरूष यहीं पैदा हुए। कड़पा आंध्रप्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र का मशहूर शहर है। यह आंध्रप्रदेश के दक्षिण मध्य में स्थित है। यह पेन्ना नदी से आठ किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह शहर तीन ओर से नल्लमला और पालकोंडा पहाड़ियों से घिरा है। इस शहर को द्वार भी कहा जाता है। दरअसल यह उत्तर से तिरूपती स्थित भगवान श्री वेंकटेश्वर की पवित्र पहाड़ी पगोडा आने वाले लोगों के लिए द्वार जैसा है। रामायण के सात कांडों में एक किष्किंधकांड, कडपा के वोंटिमिट्टा में हुई घटना माना जाता है। वोंतमित्ता कड़पा शहर से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां का आंजनेय स्वामी गांडी भी रामायण का हिस्सा माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री राम ने अपने बाण से गांडी पर आंजनेय स्वामी विग्रहम बनाया था, जो श्री सीता की खोज में आंजनेय हनुमान से सहायता मांगने का प्रतीक है। कडपा अपने इतिहास में विभिन्न शासकों के अधीन रहा है, जिनमें निजाम और चोला, विजयनगर साम्राज्य और मैसूर साम्राज्य शामिल हैं। यह अपने मसालेदार व्यंजन के लिए भी जाना जाता है। .

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कन्नड़ भाषा

कन्नड़ (ಕನ್ನಡ) भारत के कर्नाटक राज्य में बोली जानेवाली भाषा तथा कर्नाटक की राजभाषा है। यह भारत की उन २२ भाषाओं में से एक है जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में साम्मिलित हैं। name.

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कन्नड़ साहित्य

प्राचीन कन्नड शिलालेख (578 ई; बदामी चालुक्य राजवंश; बदामी गुफा मंदिर संख्या-३) कन्नड साहित्य का इतिहास लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराना है। R.S. Mugali (2006), The Heritage of Karnataka, pp.

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कन्नौज

कन्नौज, भारत में उत्तर प्रदेश प्रांत के कन्नौज जिले का मुख्यालय एवं प्रमुख नगरपालिका है। शहर का नाम संस्कृत के कान्यकुब्ज शब्द से बना है। कन्नौज एक प्राचीन नगरी है एवं कभी हिंदू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के हैं। विन्ध्योत्तर निवासी एक ब्राह्मणौंकी समुह है जिनको पंचगौड कहते हैं। उनमें गौड, सारस्वत, औत्कल, मैथिल,और कान्यकुब्ज है। उनकी ऐसी प्रसिद्ध लोकोक्ति प्रचलित है- ""सर्वे द्विजाः कान्यकुब्जाःमागधीं माथुरीं विना"" कान्यकुब्जी ब्राह्मण अपनी इतिहासको बचाये रखें | वर्तमान कन्नौज शहर अपने इत्र व्यवसाय के अलावा तंबाकू के व्यापार के लिए मशहूर है। कन्नौज की जनसंख्या २००१ की जनगणना के अनुसार ७१,५३० आंकी गयी थी। यहाँ मुख्य रूप से कन्नौजी भाषा/ कनउजी भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। यहाँ के किसानों की मुख्य फसल आलू है। .

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कन्नौजी भाषा

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कम्बन

एक मध्ययुगीन तमिल कवि और कंब रामायण के लेखक थे कंबन तमिल रामायण के रचयिता थे। .

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काण्ड

काण्ड प्रायः किसी अनुचित या बुरे कृत्यों की संज्ञा का काम करती है। किसी प्राकृतिक अप्रिय घचना को काण्ड नहीं कहते है। .

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कामरूप

प्राचीन कामरुप कामरुप, (प्राग्ज्योतिच्हा पौराणिक कथा मे), असम का पहला ऐतिहासिक राज्य है जो कि लगभग 800 वर्षों के लिए- 350 और 1140 CE के बीच अस्तित्व में था। वर्तमान दिन गुवाहाटी और तेजपुर में उनकी राजधानियों से तीन राजवंशों द्वारा शासित थे। यह पूरे ब्रह्मपुत्र नदी घाटी में और उत्तरी बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में व्याप्त था। हालाँकि यह ऐतिहासिक राज्य 12 वीं सदी मे गायब हो कर छोटे राजनीतिक संस्थाओं मे बदल गया। कामरूप की धारणा बनी और प्राचीन और मध्ययुगीन इतिवृत्त इस नाम से इस क्षेत्र को संदर्भित करना जारी रखा। अलाउद्दीन हुसैन शाह, जो काम्ता राज्य पर 15 वीं सदी मे आक्रमण किया, उसके सिक्के इस क्षेत्र को कम्रु या कम्रुद् कहा। कामरूप आज असम का एक जीला मात्र रह गया है। .

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कालनेमि

कालनेमि रामायण में एक मायावी राक्षस एवं लंकेश्वर रावण का मामा था। कालनेमि का उल्लेख सनातन धर्म से संबंधित रामायण काव्य में अता है जब लंका युद्ध के समय रावण के पुत्र मेघनाद द्वारा छोड़े गए शक्तिबाण से लक्ष्मण मूर्छित हो गये तो सुषेन वैद्य ने इसका उपचार संजीवनी बूटी बताया जो कि हिमालय पर्वत पर उपलब्ध था। हनुमान ने तुरंत हिमालय के लिये प्रस्थान किया। रावण ने हनुमान को रोकने हेतु मायावी कालनेमि राक्षस को आज्ञा दी। कालनेमि ने माया की रचना की तथा हनुमान को मार्ग में रोक लिया। हनुमान को मायावी कालनेमि का कुटिल उद्देश्य ज्ञात हुआ तो उन्होने उसका वध कर दिया। हनुमान जी ने कालनेमि दानव का वध जिस जगह पर किया आज वह स्थान सुल्तानपुर जिले के कादीपुर तहसील में विजेथुवा महावीरन नाम से सुविख्यात है एवं इस स्थान पर "भगवान हनुमान" को समर्पित एक सुप्रसिद्ध पौराणिक मंदिर भी स्थापित है। .

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कालिंजर दुर्ग

कालिंजर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। .

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कालीघाट चित्रकला

कालीघाट चित्रकला, कलाम पटुवा कालीघाट चित्रकला का उद्गम् लगभग १९वीं सदी में कोलकाता के कालीघाट मंदिर में हुआ माना जाता है। इस चित्रकला में मुख्यतः हिन्दू देवी-देवताओं तथा उस समय पारम्परिक किमवदंतियों के पात्रों के चित्रण विशेषतः देखने को मिलते हैं। प्राचीन समय में इस कला के चित्रकार विभिन्न देवी-देवताओं का चित्रण इस कला द्वारा लोगों को पट चित्र में गा-गाकर सुनाया करते थे। यह चित्र वे कपड़ों एवं ताड़ के पत्तों पर बनाकर करते थे। इन चित्रों की विशेषता यह थी कि इसमें रामायण, महाभारत आदि भारत से लिए गए चित्रण पुराने समय से होता आया है। इस चित्रकला में बंगाल में समय-समय में समाज के विभिन्न वर्गों यथा स्त्री, उद्यमी, मज़दूर आदि का चित्रण मुख्यत: मिलता है। पश्चिम बंगाल की पटुवा चित्रकला भी इसी श्रंखला की एक कड़ी है। इस शैली की चित्रकला में चित्रकार लम्बे-लम्बे कागजों में रामायण, महाभारत व अन्य किम्वदन्तियों पर आधारित दृश्यों का चित्रण करते हैं व गाकर उस चित्रण का व्याख्यान करते हैं। कालीघाट चित्रकला .

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काशी

काशी जैनों का मुख्य तीर्थ है यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ एवम श्री समन्तभद्र स्वामी ने अतिशय दिखाया जैसे ही लोगों ने नमस्कार करने को कहा पिंडी फट गई और उसमे से श्री चंद्रप्रभु की प्रतिमा जी निकली जो पिन्डि आज भी फटे शंकर के नाम से प्रसिद्ध है काशी विश्वनाथ मंदिर (१९१५) काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते..

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काशीनाथ त्र्यंबक तेलंग

बंबई उच्च न्यायालय काशीनाथ त्र्यंबक तेलंग (20 अगस्त 1850 - 01 sitambara, 1893) भारत के एक न्यायधीश एवं भारतविद थे। .

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काशीराम दास

काशीराम दास (अनुमानतः १६वीं-१७वीं शताब्दी में जन्म) मध्यकालीन बांग्ला के प्रसिद्ध कवि थे। उन्हें 'काशीरामदास' या 'काशीराम देव' भी कहते हैं। उन्होने महाभारत का संस्कृत से बांग्ला में पद्यानुवाद किया। उनके द्वारा रचित यह ग्रन्थ 'भारत पाँचाली' या 'काशीदास महाभारत' के नाम से जाना जाता है। उनके द्वारा अनूदित महाभारत ही बांग्ला भाषा में सबसे अधिक लोकप्रिय है। बंगला रामायण के रचयिता कृत्तिवास ओझा के समान ही इनकी ख्याति बंगाल के जनकवि के रूप में है। .

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काव्य

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। अर्थात् वहजिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं- कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। .

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कांच

स्वच्छ पारदर्शी कांच का बना प्रकाश बल्ब काच, काँच या कांच (glass) एक अक्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है। कांच आमतौर भंगुर और अक्सर प्रकाशीय रूप से पारदर्शी होते हैं। काच अथव शीशा अकार्बनिक पदार्थों से बना हुआ वह पारदर्शक अथवा अपारदर्शक पदार्थ है जिससे शीशी बोतल आदि बनती हैं। काच का आविष्कार संसार के लिए बहुत बड़ी घटना थी और आज की वैज्ञानिक उन्नति में काच का बहुत अधिक महत्व है। किन्तु विज्ञान की दृष्टि से 'कांच' की परिभाषा बहुत व्यापक है। इस दृष्टि से उन सभी ठोसों को कांच कहते हैं जो द्रव अवस्था से ठण्डा होकर ठोस अवस्था में आने पर क्रिस्टलीय संरचना नहीं प्राप्त करते। सबसे आम काच सोडा-लाइम काच है जो शताब्दियों से खिड़कियाँ और गिलास आदि बनाने के काम में आ रहा है। सोडा-लाइम कांच में लगभग 75% सिलिका (SiO2), सोडियम आक्साइड (Na2O) और चूना (CaO) और अनेकों अन्य चीजें कम मात्रा में मिली होती हैं। काँच यानी SiO2 जो कि रेत का अभिन्न अंग है। रेत और कुछ अन्य सामग्री को एक भट्टी में लगभग 1500 डिग्री सैल्सियस पर पिघलाया जाता है और फिर इस पिघले काँच को उन खाँचों में बूंद-बूंद करके उंडेला जाता है जिससे मनचाही चीज़ बनाई जा सके। मान लीजिए, बोतल बनाई जा रही है तो खाँचे में पिघला काँच डालने के बाद बोतल की सतह पर और काम किया जाता है और उसे फिर एक भट्टी से गुज़ारा जाता है। .

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काकविन

काकविन प्राचीन जावा और बाली के कावी भाषा में लिखे काव्य को कहते हैं। काकविन ८वीं से १९वीं शताब्दी तक लिखे गये। यह वेद, पुराण, इतिहास की कथाओं से सम्बन्धित हैं। इनमें इंदोनेशिया के रामायण और महाभारत के भी रूपान्तर मिलते हैं। इनमें संस्कृत काव्य के छन्दों का प्रयोग होता है। .

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किशोर काबरा

डॉ॰ किशोर काबरा (जन्म: २६ दिसम्बर १९३४) हिन्दी कवि हैं। साठोत्तरी हिन्दी-कविता के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। काबरा जी मूलत: कवि हैं, साथ ही निबन्धकार, आलोचक, कहानीकार, शब्द-चित्रकार, अनुवादक एवं संपादक भी हैं। आपक की गद्य-प्रतिभा लघुकथाओं और प्रबंध-काव्यों तक व्याप्त है। आपका कवित्व कवि-सम्मेलनों के श्रोताओं से लेकर पाठकों की हृदयभूमि तक प्रतिष्ठित है। .

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किष्किन्धा

किष्किन्धा| आज जो हम्पीहै, वाल्मीकि रामायण में पहले वालि का तथा उसके पश्चात् सुग्रीव का राज्य बताया गया है। आज के संदर्भ में यह राज्य तुंगभद्रा नदी के किनारे वाले कर्नाटक के हम्पी शहर के आस-पास के इलाके में माना गया है। रामायण के काल में विन्ध्याचल पर्वत माला से लेकर पूरे भारतीय प्रायद्वीप में एक घना वन फैला हुआ था जिसका नाम था दण्डक वन। उसी वन में यह राज्य था। अतः यहाँ के निवासियों को वानर कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है वन में रहने वाले लोग। रामायण में किष्किन्धा के पास जिस ऋष्यमूक पर्वत की बात कही गयी है वह आज भी उसी नाम से तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है। किष्किन्धा का विहंगम दृश्य श्रेणी:रामायण में स्थान श्रेणी:हिन्दू पुराण आधार.

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किष्किन्धाकाण्ड

Rama Meets Sugreeva किष्किन्धाकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। राम ऋष्यमूक पर्वत के निकट आ गये। उस पर्वत पर अपने मंत्रियों सहित सुग्रीव रहता था। सुग्रीव ने, इस आशंका में कि कहीं बालि ने उसे मारने के लिये उन दोनों वीरों को न भेजा हो, हनुमान को राम और लक्ष्मण के विषय में जानकारी लेने के लिये ब्राह्मण के रूप में भेजा। यह जानने के बाद कि उन्हें बालि ने नहीं भेजा है हनुमान ने राम और सुग्रीव में मित्रता करवा दी। सुग्रीव ने राम को सान्त्वना दी कि जानकी जी मिल जायेंगीं और उन्हें खोजने में वह सहायता देगा साथ ही अपने भाई बालि के अपने ऊपर किये गये अत्याचार के विषय में बताया। राम ने बालि का वध कर के सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य तथा बालि के पुत्र अंगद को युवराज का पद दे दिया। Rama gives his ring to Maruti, so Sita can recognize him as a messenger राज्य प्राप्ति के बाद सुग्रीव विलास में लिप्त हो गया और वर्षा तथा शरद् ऋतु व्यतीत हो गई। राम के नाराजगी पर सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज के लिये भेजा। सीता की खोज में गये वानरों को एक गुफा में एक तपस्विनी के दर्शन हुये। तपस्विनी ने खोज दल को योगशक्ति से समुद्रतट पर पहुँचा दिया जहाँ पर उनकी भेंट सम्पाती से हुई। सम्पाती ने वानरों को बताया कि रावण ने सीता को लंका अशोकवाटिका में रखा है। जाम्बवन्त ने हनुमान को समुद्र लांघने के लिये उत्साहित किया। .

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कंपिला

कंपिला उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले का एक नगर है। यह फर्रुखाबाद से ४५ किमी दूरी पर स्थित है। इसकी गणना भारत के प्रचीनतम नगरों में है। इसका प्राचीन नाम 'काम्पिल्य' था। काम्पिल्य उत्तर प्रदेश के बदायूँ और फर्रुखाबाद के बीच गंगा तट पर स्थित एक प्राचीन कालीन ऐतिहासिक नगर है। वर्तमान समय में यह कम्पिल के नाम से जाना जाता है। यह उत्तर पूर्व रेलवे लाइन पर कायमगंज रेलवे स्टेशन से लगभग २० किलोमीटर दूर है। कम्पिल फर्रुखाबाद जिले में फतेहगढ़ से उत्तर-पश्चिम दिशा में ४५ किलो मीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका उल्लेख रामायण, महाभारत में भी मिलता है। महाभारत में इसका उल्लेख द्रौपदी के स्वयंवर के समय किया गया है कि राजा द्रुपद ने द्रौपदी स्वयंवर यहाँ आयोजित किया था। कम्पिल पांचाल देश की राजधानी थी। यहाँ कपिल मुनि का आश्रम है जिसके अनुरुप यह नामकरण प्रसिद्ध हुआ। यह स्थान हिन्दू व जैन दोनों ही के लिए पवित्र है। कम्पिल जैन धर्म का प्रसिद्ध पवित्र तीर्थ स्थल है। जैन धर्मग्रन्थों के अनुसार प्रथम तीर्थकर श्री ॠषभदेव ने इस नगर को बसाया तथा अपना पहला उपदेश दिया। इसे तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ जी का जन्मस्थल भी बताया गया है। तेरहवें तीर्थकर बिमलदेव ने अपना सम्पूर्ण जीवन यहीं पर व्यतीत किया। कम्पिल पर अनेक प्रसिद्ध राजाओं ने शासन किया। महाभारत की द्रोपदी के पिता राजा द्रुपद ने यहाँ पर शासन किया। काम्पिल्य नरेश धर्मरुचि बहुत ही पवित्रात्मा माना गया है। रामायण में इसे इन्द्रपुरी अमरावती की भाँति भव्य और सुन्दर कहा गया है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रसिद्ध ज्योतिषी वाराहमिहिर इसी नगर में जन्मे थे। द्रोपदी का स्वयंवर यहीं हुआ था। कम्पिल में अनेक वैभवशाली मंदिर हैं। वर्तमान कम्पिल में दो प्रसिद्ध जैन मन्दिर है। .

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कंबोज

200px कंबोज प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था। इसका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी में १५ शक्तिशाली जनपदों में से एक के रूप में भी मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, महावस्तु मे १६ महाजनपदों में भी कम्बोज का कई बार उल्लेख हुआ है - ये गांधारों के समीपवर्ती थे। इनमें कभी निकट संबंध भी रहा होगा, क्योंकि अनेक स्थानों पर गांधार और कांबोज का नाम साथ साथ आता है। इसका क्षेत्र आधुनुक उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मिलता है। राजपुर, द्वारका तथा Kapishi इनके प्रमुख नगर थे। इसका उल्लेख इरानी प्राचीन लेखों में भी मिलता है जिसमें इसे राजा कम्बीजेस के प्रदेश से जोड़ा जाता है।.

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कुन्दमाला

कुन्दमाला राम के उत्तर जीवन पर आधारित है जहां वे लोक अपवाद के कारण राम सीता का त्याग कर देते हैं। दिंनाग संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि थे। वे रामकथा पर आश्रित कुन्दमाला नामक नाटक के रचयिता माने जाते हैं। कुन्दमाला में प्राप्त आन्तरिक प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि कुन्दमाला के रचयिता कवि (दिंनाग) दक्षिण भारत अथवा श्रीलंका के निवासी थे। .

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कुब्जा

कुब्जा के नाम से भारतीय साहित्य में दो पात्र मशहूर हैं।.

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कुबेर

कुबेर एक हिन्दू पौराणिक पात्र हैं जो धन के स्वामी (धनेश) माने जाते हैं। वे यक्षों के राजा भी हैं। वे उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं और लोकपाल (संसार के रक्षक) भी हैं। रामायण में कुबेर भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बायें नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहां से उठकर दूसरे स्थान पर चला गया। वह घोर तप या तो शिव ने किया था या फिर कुबेर ने किया, अन्य कोई भी देवता उसे पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया था। कुबेर से प्रसन्न होकर शिव ने कहा-'तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम एकाक्षीपिंगल कहलाओंगे। कुबेर ने रावण के अनेक अत्याचारों के विषय में जाना तो अपने एक दूत को रावण के पास भेजा। दूत ने कुबेर का संदेश दिया कि रावण अधर्म के क्रूर कार्यों को छोड़ दे। रावण के नंदनवन उजाड़ने के कारण सब देवता उसके शत्रु बन गये हैं। रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को अपनी खड्ग से काटकर राक्षसों को भक्षणार्थ दे दिया। कुबेर का यह सब जानकर बहुत बुरा लगा। रावण तथा राक्षसों का कुबेर तथा यक्षों से युद्ध हुआ। यक्ष बल से लड़ते थे और राक्षस माया से, अत: राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से अनेक रूप धारण किये तथा कुबेर के सिर पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया और बलात उसका पुष्पक विमान ले लिया। विश्वश्रवा की दो पत्नियां थीं। पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। शेष रावण, कुंभकर्ण और विभीषण सौतेले भाई थे। उन्होंने अपनी मां से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान लेकर लंका पुरी तथा समस्त संपत्ति छीन ली। कुबेर अपने पितामह के पास गये। उनकी प्रेरणा से कुबेर ने शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें 'धनपाल' की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। गौतमी के तट का वह स्थल धनदतीर्थ नाम से विख्यात है। श्रेणी:हिन्दू देवता.

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कुलपति

प्राचीन भारत में गुरुकुल आश्रमों के प्रधान 'कुलपति' कहलाते थे। रामायण काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था। इस प्रकार का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था। कालिदास ने वसिष्ठ तथा कण्व ऋषि को (रघुवंश, प्रथम, 95 तथा अभि. शा., प्रथम अंक) 'कुलपति' की संज्ञा दी है। गुप्तकाल में संस्थापित तथा हर्षवर्धन के समय में अपनी चरमोन्नति को प्राप्त होनेवाले नालंदा महाविहार नामक विश्वविद्यालय के कुछ प्रसिद्ध तथा विद्वान कुलपतियों के नाम ह्वेन्सांग के यात्राविवरण से ज्ञात होता हैं। बौद्ध भिक्षु धर्मपाल तथा शीलभद्र उनमें प्रमुख थे। प्राचीन भारतीय काल में अध्ययन अध्यापन के प्रधान केंद्र गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ दूर दूर से ब्रह्मचारी विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े सभी प्रकार के होते थे। परंतु उन सभी गुरुकुलों को न तो आधुनिक शब्दावली में विश्वविद्यालय ही कहा जा सकता है और न उन सबके प्रधान गुरुओं को कुलपति ही कहा जाता था। स्मृतिवचनों के अनुसार स्पष्ट है, जो ब्राह्मण ऋषि दस हजार मुनि विद्यार्थियों को अन्नादि द्वारा पोषण करता हुआ उन्हें विद्या पढ़ाता था, उसे ही 'कुलपति' कहते थे। ऊपर उद्धृत 'स्मृतः' शब्द के प्रयोग से यह साफ दिखाई देता है कि कुलपति के इस विशिष्टार्थग्रहण की परंपरा बड़ी पुरानी थी। कुलपति का साधारण अर्थ किसी कुल का स्वामी होता था। वह कुल या तो एक छोटा और अविभक्त परिवार हो सकता था अथवा एक बड़ा और कई छोटे छोटे परिवारों का समान उद्गम वंशकुल भी। अंतेवासी विद्यार्थी कुलपति के महान विद्यापरिवार का सदस्य होता था और उसके मानसिक और बौद्धिक विकास का उत्तरदायित्व कुलपति पर होता था; वह छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और सुख की भी चिंता करता था। आजकल 'कुलपति' शब्द का प्रयोग विश्वविद्यालय के 'वाइसचांसलर' के लिए किया जाता है। .

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कुश (बहुविकल्पी)

कोई विवरण नहीं।

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क्लासिक

क्लासिक मूलत: प्राचीन यूनान और रोम के लेखकों और उनकी कृतियों, किंतु अब, किसी भी देश और युग के कालजित्‌ कीर्तिलब्ध, सर्वमान्य या प्रतिष्ठित लेखकों और उनकी कृतियों के लिये प्रयुक्त शब्द। वर्तमान अर्थ में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा की दूसरी सदी में रोमन लेखक औलस गेलियस ने किया। उसके अनुसार लेखक दो कोटि के होते हैं। 1.

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क्षत्रिय

क्षत्रिय (पाली रूप: क्खत्रिय), (बांग्ला रुप:ক্ষত্রিয়), क्षत्र, राजन्य - ये चारों शब्द सामान्यतः हिंदू समाज के द्वितीय वर्ण और जाति के अर्थ में व्यवहृत होते हैं किंतु विशिष्ठ एतिहासिक अथवा सामाजिक प्रसंग में पारिपाश्वों से संबंध होने के कारण इनके अपने विशेष अर्थ और ध्वनियाँ हैं। 'क्षेत्र' का अर्थ मूलतः 'वीर्य' अथवा 'परित्राण शक्ति' था। किंतु बाद में यह शब्द उस वर्ग को अभिहित करने लगा जो शास्त्रास्त्रों के द्वारा अन्य वर्णों का परिरक्षण करता था। वेदों तथा ब्राह्मणों में क्षत्रीय शब्द राजवर्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जातकों और रामायण, महाभारत में क्षत्रीय शब्द से सामंत वर्ग और अनेक युद्धरत जन अभिहित हुए हैं। संस्कृत शब्द "क्षस दस्यों हो पूरा क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र नामक चार वर्गों में विभक्त था। स्मृतियों में कुछ युद्धपरक जनजातियाँ जैसे कि किरात, द्रविड़, आभीर, सबर, मालव, सिवी, त्रिगर्त, यौद्धेय, खस तथा तंगण आदि, व्रात्य क्षत्रीय वर्ग के अंतर्गत अनुसूचित की गई। पारंपरिक रूप से शासक व सैनिक क्षत्रिय वर्ग का हिस्सा होते थे, जिनका कार्य युद्ध काल में समाज की रक्षा हेतु युद्ध करना व शांति काल में सुशासन प्रदान करना था। पाली भाषा में "खत्रिय" क्षत्रिय शब्द का पर्याय है। वर्तमान समय में राजपूत और कुशवाहा जाति की गणना क्षत्रिय के रूप में की जाती है, जो सुर्यवंश के राजा श्रीरामचन्द्र के वंशज माने जाते हैं। .

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क्षेमेंद्र

क्षेमेन्द्र (जन्म लगभग 1025-1066) संस्कृत के प्रतिभासंपन्न काश्मीरी महाकवि थे। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। ये सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंतरशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव (कथा) जोड़कर पूरा किया था। .

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कौशल्या

कौशल्या रामायण की एक प्रमुख पात्र हैं। वे कौशल प्रदेश (छत्तीसगढ़) की राजकुमारी तथा अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी थीं। कौशल्या को राम की माता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। .

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कृत्तिवास रामायण

'''अकाल-बंधन''': राम द्वारा शक्ति-पूजा का सर्वप्रथम चित्रण कृतिवास रामायण में ही आता है। कृत्तिवास रामायण (बांग्ला: কৃত্তিবাসি রামায়ণ / कृतिबासी रामायण) या 'श्रीराम पाँचाली' (बांग्ला: শ্রীরাম পাঁচালী), की रचना पन्द्रहवीं शती के बांग्ला कवि कृत्तिवास ओझा ने की थी। यह संस्कृत के अतिरिक्त अन्य उत्तर-भारतीय भाषाओं का पहला रामायण है। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस के रचनाकाल से लगभग सौ वर्ष पूर्व कृत्तिवास रामायण का आविर्भाव हुआ था। इसके रचयिता संत कृत्तिवास बंग-भाषा के आदिकवि माने जाते हैं। वह छंद, व्याकरण, ज्योतिष, धर्म और नीतिशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। और राम-नाम में उनकी परम आस्था थी। यह ग्रंथ मूल रामायण का शब्दानुवाद नहीं है बल्कि इसमें मध्यकालीन बंगाली समाज और संस्कृति का विविध चित्रण भी है। बंग-भाषा के इस महाकाव्य में छः काण्ड (आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड और लंका काण्ड) हैं। .

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कृत्तिवास ओझा

नादिया जिले के फुलिया में बना ''''कृत्तिवास स्मारक'''' कृत्तिवास ओझा (बांग्ला: কৄত্তিবাস ওঝা) या 'कीर्तिवास ओझा'Sen, Sukumar (1991, reprint 2007).

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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कृष्णदेवराय

कृष्णदेवराय की कांस्य प्रतिमा संगीतमय स्तम्भों से युक्त हम्पी स्थित विट्ठल मन्दिर; इसके होयसला शैली के बहुभुजाकार आधार पर ध्यान दीजिए। कृष्णदेवराय (1509-1529 ई.; राज्यकाल 1509-1529 ई) विजयनगर के सर्वाधिक कीर्तिवान राजा थे। वे स्वयं कवि और कवियों के संरक्षक थे। तेलुगु भाषा में उनका काव्य अमुक्तमाल्यद साहित्य का एक रत्न है। इनकी भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित पुस्तक वंशचरितावली तेलुगू  के साथ—साथ संस्कृत में भी मिलती है। संभवत तेलुगू का अनुवाद ही संस्कृत में हुआ है। प्रख्यात इतिहासकार तेजपाल सिंह धामा ने हिन्दी में इनके जीवन पर प्रामाणिक उपन्यास आंध्रभोज लिखा है। तेलुगु भाषा के आठ प्रसिद्ध कवि इनके दरबार में थे जो अष्टदिग्गज के नाम से प्रसिद्ध थे। स्वयं कृष्णदेवराय भी आंध्रभोज के नाम से विख्यात थे। .

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कैथल

कैथल हरियाणा प्रान्त का एक महाभारत कालीन ऐतिहासिक शहर है। इसकी सीमा करनाल, कुरुक्षेत्र, जीन्द और पंजाब के पटियाला जिले से मिली हुई है। पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना युधिष्ठिर ने की थी। इसे वानर राज हनुमान का जन्म स्थान भी माना जाता है। इसीलिए पहले इसे कपिस्थल के नाम से जाना जाता था। आधुनिक कैथल पहले करनाल जिले का भाग था। लेकिन 1973 ई. में यह कुरूक्षेत्र में चला गया। बाद में हरियाणा सरकार ने इसे कुरूक्षेत्र से अलग कर 1 नवम्बर 1989 ई. को स्वतंत्र जिला घोषित कर दिया। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर स्थित है। .

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कैकसी

कैकसी लंका के राजा रावण की माता थी। उन्हें निकषा और केशिनी के नाम से भी जाना जाता है। .

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केवट (रामायण)

कोई विवरण नहीं।

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केकय

केकय (जिसे कैकेय, कैकस या कैकेयस नाम से भी जाना जाता है) एक प्राचीन राज्य था, जो अविभाजित पंजाब से उत्तर पश्चिम दिशा में गांधा और व्यास नदी के बसा था। यहां के अधिकांश निवासी केकय जनपद के क्षत्रीय थे। अतः कैकेयस कहलाते थे। कैकेय लोग प्रायः मद्र देश, उशीनर देश या शिवि प्रदेश के लोगों के संबंध में रहते थे और सभी संयुक्त रूप से वाहिका देश में आते थे। ये वर्णन पाणिनि के अनुसार है। केकय देश का उल्लेख रामायण में भी आता है। राजा दशरथ की सबसे छोटी रानी कैकेयी और उसकी दासी मंथरा केकय देश की ही थी। .

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अध्यात्म रामायण

सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्वजन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह राम कथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होने यह कथा अपने शिष्यों सुनाया। इस प्रकार राम कथा का प्रचार प्रसार हुआ। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का प्रथम रामायण माना जाता है। रामायण, अध्यात्म श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अनुष्टुप छंद

अनुष्टुप छन्द संस्कृत काव्य में सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द है, इसका वेदों में भी प्रयोग हुआ है।। रामायण, महाभारत तथा गीता के अधिकांश श्लोक अनुष्टुप छन्द में ही हैं।इसमें कुल - ३२ वर्ण होते हैं - आठ वर्णों के चार पाद। हिन्दी में जो लोकप्रियता और सरलता दोहा की है वही संस्कृत में अनुष्टुप की है। प्राचीन काल से ही सभी ने इसे बहुत आसानी के साथ प्रयोग किया है। गीता के श्लोक अनुष्टुप छन्द में हैं। आदि कवि वाल्मिकी द्वारा उच्चारित प्रथम श्लोक (मा निषाद प्रतिष्ठा) भी अनुष्टुप छन्द में है। .

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अन्तरराष्ट्रीय विधि

अन्तर्राष्ट्रीय विधि (International law) से आशय उन नियमों से है जो स्वतंत्र देशों के बीच परस्पर सम्बन्धों (विवादों) के निपटारे के लिये लागू होते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानून किसी देश के अपने कानून से इस अर्थ में भिन्न है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून दो देशों के सम्बन्धों के लिए लागू होता है न कि दो या अधिक नागरिकों के बीच। .

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अयोध्या

अयोध्या भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक अति प्राचीन धार्मिक नगर है। यह फैजाबाद जिला के अन्तर्गत आता है। यह सरयू नदी (घाघरा नदी) के दाएं तट पर बसा है। प्राचीन काल में इसे 'कौशल देश' कहा जाता था। अयोध्या हिन्दुओं का प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। .

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अयोध्याकाण्ड

Kaikeyi demands that Dasaratha banquish Rama from Ayodhya अयोध्याकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। राम के विवाह के कुछ समय पश्चात् राजा दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करना चाहा। इस पर देवता लोगों को चिंता हुई कि राम को राज्य मिल जाने पर रावण का वध असम्भव हो जायेगा। व्याकुल होकर उन्होंने देवी सरस्वती से किसी प्रकार के उपाय करने की प्रार्थना की। सरस्वती नें मन्थरा, जो कि कैकेयी की दासी थी, की बुद्धि को फेर दिया। मन्थरा की सलाह से कैकेयी कोपभवन में चली गई। दशरथ जब मनाने आये तो कैकेयी ने उनसे वरदान मांगे कि भरत को राजा बनाया जाये और राम को चौदह वर्षों के लिये वनवास में भेज दिया जाये। राम के साथ सीता और लक्ष्मण भी वन चले गये। ऋंगवेरपुर में निषादराज गुह ने तीनों की बहुत सेवा की। कुछ आनाकानी करने के बाद केवट ने तीनों को गंगा नदी के पार उतारा| प्रयाग पहुँच कर राम ने भरद्वाज मुनि से भेंट की। वहाँ से राम यमुना स्नान करते हुये वाल्मीकि ऋषि के आश्रम पहुँचे। वाल्मीकि से हुई मन्त्रणा के अनुसार राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में निवास करने लगे। Rama Crosses Saryu अयोध्या में पुत्र के वियोग के कारण दशरथ का स्वर्गवास हो गया। वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को उनके ननिहाल से बुलवा लिया। वापस आने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी की, उसकी कुटिलता के लिये, बहुत भर्तस्ना की और गुरुजनों के आज्ञानुसार दशरथ की अन्त्येष्टि क्रिया कर दिया। भरत ने अयोध्या के राज्य को अस्वीकार कर दिया और राम को मना कर वापस लाने के लिये समस्त स्नेहीजनों के साथ चित्रकूट चले गये। कैकेयी को भी अपने किये पर अत्यंत पश्चाताप हुआ। सीता के माता-पिता सुनयना एवं जनक भी चित्रकूट पहुँचे। भरत तथा अन्य सभी लोगों ने राम के वापस अयोध्या जाकर राज्य करने का प्रस्ताव रखा जिसे कि राम ने, पिता की आज्ञा पालन करने और रघुवंश की रीति निभाने के लिये, अमान्य कर दिया। भरत अपने स्नेही जनों के साथ राम की पादुका को साथ लेकर वापस अयोध्या आ गये। उन्होंने राम की पादुका को राज सिंहासन पर विराजित कर दिया स्वयं नन्दिग्राम में निवास करने लगे। .

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अरण्यकाण्ड

Rama Fights the Demons अरण्यकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। कुछ काल के पश्चात राम ने चित्रकूट से प्रयाण किया तथा वे अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे। अत्रि ने राम की स्तुति की और उनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पातिव्रत धर्म के मर्म समझाये। वहाँ से फिर राम ने आगे प्रस्थान किया और शरभंग मुनि से भेंट की। शरभंग मुनि केवल राम के दर्शन की कामना से वहाँ निवास कर रहे थे अतः राम के दर्शनों की अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और ब्रह्मलोक को गमन किया। और आगे बढ़ने पर राम को स्थान स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़े जिनके विषय में मुनियों ने राम को बताया कि राक्षसों ने अनेक मुनियों को खा डाला है और उन्हीं मुनियों की हड्डियाँ हैं। इस पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे समस्त राक्षसों का वध करके पृथ्वी को राक्षस विहीन कर देंगे। राम और आगे बढ़े और पथ में सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि ऋषियों से भेंट करते हुये दण्डक वन में प्रवेश किया जहाँ पर उनकी मुलाकात जटायु से हुई। राम ने पंचवटी को अपना निवास स्थान बनाया। सीता हरण (चित्रकार: रवि वर्मा) पंचवटी में रावण की बहन शूर्पणखा ने आकर राम से प्रणय निवेदन-किया। राम ने यह कह कर कि वे अपनी पत्नी के साथ हैं और उनका छोटा भाई अकेला है उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने उसके प्रणय-निवेदन को अस्वीकार करते हुये शत्रु की बहन जान कर उसके नाक और कान काट लिये। शूर्पणखा ने खर-दूषण से सहायता की मांग की और वह अपनी सेना के साथ लड़ने के लिये आ गया। लड़ाई में राम ने खर-दूषण और उसकी सेना का संहार कर डाला। शूर्पणखा ने जाकर अपने भाई रावण से शिकायत की। रावण ने बदला लेने के लिये मारीच को स्वर्णमृग बना कर भेजा जिसकी छाल की मांग सीता ने राम से की। लक्ष्मण को सीता के रक्षा की आज्ञा दे कर राम स्वर्णमृग रूपी मारीच को मारने के लिये उसके पीछे चले गये। मारीच के हाथों मारा गया पर मरते मरते मारीच ने राम की आवाज बना कर 'हा लक्ष्मण' का क्रन्दन किया जिसे सुन कर सीता ने आशंकावश होकर लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। लक्ष्मण के जाने के बाद अकेली सीता का रावण ने छलपूर्वक हरण कर लिया और अपने साथ लंका ले गया। रास्ते में जटायु ने सीता को बचाने के लिये रावण से युद्ध किया और रावण ने उसके पंख काटकर उसे अधमरा कर दिया। सीता को न पा कर राम अत्यंत दुखी हुये और विलाप करने लगे। रास्ते में जटायु से भेंट होने पर उसने राम को रावण के द्वारा अपनी दुर्दशा होने व सीता को हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले जाने की बात बताई। ये सब बताने के बाद जटायु ने अपने प्राण त्याग दिये और राम उसका अंतिम संस्कार करके सीता की खोज में सघन वन के भीतर आगे बढ़े। रास्ते में राम ने दुर्वासा के शाप के कारण राक्षस बने गन्धर्व कबन्ध का वध करके उसका उद्धार किया और शबरी के आश्रम जा पहुँचे जहाँ पर कि उसके द्वारा दिये गये झूठे बेरों को उसके भक्ति के वश में होकर खाया| इस प्रकार राम सीता की खोज में सघन वन के अंदर आगे बढ़ते गये। .

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अरुण

अरुण प्रजापति कश्यप और विनता के पुत्र हैं। इनके ज्येष्ठ भ्राता गरुड़ हैं, जो कि पक्षियों के राजा हैं। अरुण को भगवान सूर्य देव का सारथी माना जाता है। रामायण में प्रसिद्ध सम्पाती और जटायु इन्हीं के पुत्र थे। .

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अष्टावक्र (महाकाव्य)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग। .

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असमिया भाषा

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की शृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को असमी, असमिया अथवा आसामी कहा जाता है। असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है। भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है और बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है, पर सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से भी हुई है। यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। शंकर देव (१४४९-१५६८) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा। सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है। अपने प्रदेश में भी असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है। .

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असमिया साहित्य

यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति १७वीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन १३वीं शताब्दी में कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। शंकर देव (१४४९-१५६८) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा। असमिया के शिष्ट और लिखित साहित्य का इतिहास पाँच कालों में विभक्त किया जाता है.

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अहल्या

अहल्या - राजा रवि वर्मा का बनाया गया चित्र अहल्या भारतीय महाकाव्य रामायण का एक पात्र है, जो गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री थी। ब्रह्मा ने अहल्या को सबसे सुंदर स्त्री बनाया। सभी देवता उनसे विवाह करना चाहते थे। ब्रह्मा ने एक शर्त रखी जो सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आएगा वही अहल्या का वरण करेगा। इंद्र अपनी सभी चमत्कारी शक्ति द्वारा सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आये। लेकिन तभी नारद ने ब्रह्माजी को बताया की ऋषि गौतम ने इंद्र से पहले किया है। नारदजी ने ब्रह्माजी को बताया की अपने दैनिक पूजा क्रम में ऋषि गौतम ने गाय माता का परिक्रमा करते समय बछडे को जन्म दिया। वेदानुसार इस अवस्था में गाय की परिक्रमा करना त्रिलोक परिक्रमा समान होता है। इस तरह माता अहल्या की शादी अत्रि ऋषि के पुत्र ऋषि गौतम से हुआ। इंद्र के गलती की वजह ऋषि गौतम ने माता अहिल्या श्राप देकर पत्थर बना दिया। कालांतर में प्रभु श्रीराम के चरणस्पर्श द्वारा वे पुन: स्त्री बनी। .

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अहिल्या

अहल्या अथवा अहिल्या हिन्दू मिथकों में वर्णित एक स्त्री पात्र हैं, जो गौतम ऋषि की पत्नी थीं। ब्राह्मणों और पुराणों में इनकी कथा छिटपुट रूप से कई जगह प्राप्त होती है और रामायण और बाद की रामकथाओं में विस्तार से इनकी कथा वर्णित है। ब्रह्मा द्वारा रचित विश्व की सुन्दरतम स्त्रियों में से एक अहल्या की कथा मुख्य रूप से इन्द्र द्वारा इनके शीलहरण और इसके परिणामस्वरूप गौतम द्वारा दिये गए शाप का भाजन बनना तथा राम के चरणस्पर्श से शापमुक्ति के रूप में है। हिन्दू परम्परा में इन्हें, सृष्टि की पवित्रतम पाँच कन्याओं, पंचकन्याओं में से एक गिना जाता है और इन्हें प्रातः स्मरणीय माना जाता है। मान्यता अनुसार प्रातःकाल इन पंचकन्याओं का नाम स्मरण सभी पापों का विनाश करता है। .

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अहिल्या स्थान

दरभंगा जिले सदर अनुमंडल के अंतर्गत अहियारी गाँव है, जो अहिल्या स्थान के नाम से विख्यात है। कमतौल रेलवे स्टेशन से उतरकर यहाँ पहुंचा जाता है। यह स्थान सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी से 40 कि॰मी॰ पूर्व में स्थित है। कहा जाता है कि ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से इसी स्थान पर राम ने अहिल्या का उद्धार किया था। डॉ राम प्रकाश शर्मा के अनुसार "इसमें कोई संदेह नहीं है कि अहिल्या-नगरी अथवा गौतम आश्रम मिथिला में ही था। भोजपुर में राम ने ताड़का -बध किया था। वहाँ सानुज राम ने ऋषि विश्वामित्र की यज्ञ की रक्षा उत्पाती राक्षसों का अपनी शक्ति से दमन कर की थी। मिथिला राज्य में प्रवेश कर पहले राम ने अहिल्या का उद्धार किया, और तत्पश्चात वहाँ से प्राग उत्तर दिशा (ईशान कोण) में चलकर वे ऋषि विश्वामित्र के साथ विदेह नागरी जनकपुर पहुंचे। अहिल्या का उद्धार, चित्र: रवि वर्मा रामायण में वर्णित कथा के अनुसार राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले तो उन्होंने एक उपवन में एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "भगवन्! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दिखाई नहीं देते?" विश्वामित्र जी ने बताया, यह स्थान कभी महर्षि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी के साथ यहाँ रह कर तपस्या करते थे। एक दिन जब गौतम ऋषि आश्रम के बाहर गये हुये थे तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या से प्रणय याचना की। यद्यपि अहिल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह विचार करके कि मैं इतनी सुन्दर हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी। जब इन्द्र अपने लोक लौट रहे थे तभी अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी जो उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। वे सब कुछ समझ गये और उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को शाप दिया कि रे दुराचारिणी! तू हजारों वर्षों तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहाँ राख में पड़ी रहे। जब राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी। यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने लगे। इसलिये विश्वामित्र जी ने कहा "हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहिल्या का उद्धार करो।" विश्वामित्र जी की बात सुनकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहाँ तपस्या में निरत अहिल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। जब अहिल्या की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके पवित्र दर्शन पाकर एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में दिखाई देने लगी। नारी रूप में अहिल्या को सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उनके चरण स्पर्श किये।उससे उचित आदर सत्कार ग्रहण कर वे मुनिराज के साथ पुनः मिथिला पुरी को लौट आये। .

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अगस्त्य

अगस्त्य (तमिल:அகத்தியர், अगतियार) एक वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। इनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (तदनुसार ३००० ई.पू.) को काशी में हुआ था। वर्तमान में वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे। वैज्ञानिक ऋषियों के क्रम में महर्षि अगस्त्य भी एक वैदिक ऋषि थे। निश्चित ही आधुनिक युग में बिजली का आविष्कार माइकल फैराडे ने किया था। बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे बल्ब बनाने में मदद मिली। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को मं‍त्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। साथ ही इनके पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे। महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया, जो विद्वान और वेदज्ञ थीं। दक्षिण भारत में इसे मलयध्वज नाम के पांड्य राजा की पुत्री बताया जाता है। वहां इसका नाम कृष्णेक्षणा है। इनका इध्मवाहन नाम का पुत्र था। अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि एक बार इन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया था, विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। इन्होंने अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी। 'सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥ दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं। यह कवि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे इसलिए यह 'शूद्र वैयाकरण' के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह ऋषि अगस्त्य के ही अवतार माने जाते हैं। ग्रंथकार के नाम परुनका यह व्याकरण 'अगस्त्य व्याकरण' के नाम से प्रख्यात है। तमिल विद्वानों का कहना है कि यह ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान ही मान्य, प्राचीन तथा स्वतंत्र कृति है जिससे ग्रंथकार की शास्त्रीय विद्वता का पूर्ण परिचय उपलब्ध होता है। भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है। महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं। इन्होंने आवश्यकता पड़ने पर कभी ऋषियों को उदरस्थ कर लिया था तो कभी समुद्र भी पी गये थे। इन मूर्तियों में से बायीं वाली अगस्त्य ऋषि की है। ये इंडोनेशिया में प्रंबनम संग्रहालय, जावा में रखी हैं और ९वीं शताब्दी की हैं। .

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अग्निपुराण

अग्निपुराण पुराण साहित्य में अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण विशिष्ट स्थान रखता है। विषय की विविधता एवं लोकोपयोगिता की दृष्टि से इस पुराण का विशेष महत्त्व है। अनेक विद्वानों ने विषयवस्‍तु के आधार पर इसे 'भारतीय संस्‍कृति का विश्‍वकोश' कहा है। अग्निपुराण में त्रिदेवों – ब्रह्मा, विष्‍णु एवं शिव तथा सूर्य की पूजा-उपासना का वर्णन किया गया है। इसमें परा-अपरा विद्याओं का वर्णन, महाभारत के सभी पर्वों की संक्षिप्त कथा, रामायण की संक्षिप्त कथा, मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों की कथाएँ, सृष्टि-वर्णन, दीक्षा-विधि, वास्तु-पूजा, विभिन्न देवताओं के मन्त्र आदि अनेक उपयोगी विषयों का अत्यन्त सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। इस पुराण के वक्‍ता भगवान अग्निदेव हैं, अतः यह 'अग्निपुराण' कहलाता है। अत्‍यंत लघु आकार होने पर भी इस पुराण में सभी विद्याओं का समावेश किया गया है। इस दृष्टि से अन्‍य पुराणों की अपेक्षा यह और भी विशिष्‍ट तथा महत्‍वपूर्ण हो जाता है। पद्म पुराण में भगवान् विष्‍णु के पुराणमय स्‍वरूप का वर्णन किया गया है और अठारह पुराण भगवान के 18 अंग कहे गए हैं। उसी पुराणमय वर्णन के अनुसार ‘अग्नि पुराण’ को भगवान विष्‍णु का बायां चरण कहा गया है। .

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अंजनगिरि

अंजनगिरि इसका उल्लेख रामायण और मार्कण्डेय पुराण में मिलता है। यह महावन में स्थित था। श्रेणी:प्राचीन भारत के नगर श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अंगद

अंगद रामायण का एक पात्र, पंचकन्या में से एक तारा तथा किष्किंधा के राजा बाली का पुत्र और सुग्रीव का भतीजा, रावण की लंका को ध्वस्त करने वाली राम सेना का एक प्रमुख योद्धा था। बाली की मृत्यु के उपरांत सुग्रीव किष्किंधा का राजा और अंगद युवराज बना। तारा तथा अंगद अपने दूत-कर्म के कारण बहुत प्रसिद्ध हुए। राम ने उसे रावण के पास दूत बनाकर भेजा था। वहां की राजसभा का कोइ भी योद्धा उनका पैर तक नहीं डिगा सका। अंगद संबंधी प्राचीन आख्यानों में केवल वाल्मीकि रामायण ही प्रमाण है। यद्यपि वाल्मीकि के अंगद में हनुमान के समान बल, साहस, बुद्धि और विवेक है। परंतु उनमें हनुमान जैसी हृदय की सरलता और पवित्रता नहीं है। सीता शोध में विफल होने पर जब वानर प्राण दंड की संभावना से भयभीत होकर विद्रोह करने पर तत्पर दिखाई पड़ते हैं तब अंगद भी विचलित हो जाते हैं। यदि वे अंततोगत्वा कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहते हैं तो इसका कारण हनुमान के विरोध की आशंका ही है। श्रेणी:पौराणिक/साहित्यिक चरित्र श्रेणी:रामायण के पात्र श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अंकोरवाट मंदिर

अंकोरवाट (खमेर भाषा: អង្គរវត្ត) कंबोडिया में एक मंदिर परिसर और दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक है, 162.6 हेक्टेयर (1,626,000 एम 2; 402 एकड़) को मापने वाले एक साइट पर। यह मूल रूप से खमेर साम्राज्य के लिए भगवान विष्णु के एक हिंदू मंदिर के रूप में बनाया गया था, जो धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के अंत में बौद्ध मंदिर में परिवर्तित हो गया था। यह कंबोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय (१११२-५३ई.) के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिवमंदिरों का निर्माण किया था। मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है। राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को १९८३ से कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। यह मन्दिर मेरु पर्वत का भी प्रतीक है। इसकी दीवारों पर भारतीय धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। इन प्रसंगों में अप्सराएं बहुत सुंदर चित्रित की गई हैं, असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है। विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है। पर्यटक यहाँ केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं। सनातनी लोग इसे पवित्र तीर्थस्थान मानते हैं। .

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अक्षयकुमार

अक्षयकुमार रामायण का एक पात्र है। वह रावण का सबसे छोटा पुत्र था। श्रेणी:रामायण के पात्र श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अकोप

अकोप वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्या के महाराज दशरथ के कूटनीतिक मंत्रियों में से एक थे। उनके अन्य मंत्रियों के नाम इस प्रकार थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, धर्मपाल तथा सुमन्त्र .

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उत्तर प्रदेश का इतिहास

उत्तर प्रदेश का भारतीय एवं हिन्दू धर्म के इतिहास मे अहम योगदान रहा है। उत्तर प्रदेश आधुनिक भारत के इतिहास और राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहा है और यहाँ के निवासियों ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभायी। उत्तर प्रदेश के इतिहास को निम्नलिखित पाँच भागों में बाटकर अध्ययन किया जा सकता है- (1) प्रागैतिहासिक एवं पूर्ववैदिक काल (६०० ईसा पूर्व तक), (2) हिन्दू-बौद्ध काल (६०० ईसा पूर्व से १२०० ई तक), (3) मध्य काल (सन् १२०० से १८५७ तक), (4) ब्रिटिश काल (१८५७ से १९४७ तक) और (5) स्वातंत्रोत्तर काल (1947 से अब तक)। .

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उत्तरकाण्ड

उत्तरकाण्ड वाल्मीकि कृत रामायण और गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस का एक भाग (काण्ड या सोपान) है। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। सीता, लक्ष्मण और समस्त वानर सेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक हुआ। वानरों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये। रामराज्य एक आदर्श बन गया। .

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उदय शंकर

उदय शंकर (8 दिसम्बर 1900 - 26 सितंबर 1977) (উদয় শংকর) भारत में आधुनिक नृत्य के जन्मदाता और एक विश्व प्रसिद्ध भारतीय नर्तक एवं नृत्य-निर्देशक (कोरियोग्राफर) थे जिन्हें अधिकतर भारतीय शास्त्रीय, लोक और जनजातीय नृत्य के तत्वों में पिरोये गए पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय नृत्य में पश्चिमी रंगमंचीय तकनीकों को अपनाने के लिए जाना जाता है; इस प्रकार उन्होंने आधुनिक भारतीय नृत्य की नींव रखी और बाद में 1920 और 1930 के दशक में उसे भारत, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में लोकप्रिय बनाया और भारतीय नृत्य को दुनिया के मानचित्र पर प्रभावशाली ढंग से स्थापित किया। न्यूयॉर्क टाइम्स, 6 अक्टूबर 1985.

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उन्नाव

उन्नाव उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला है। यह लखनऊ तथा कानपुर के बीच में स्थत है,लखनऊ लगभग ६० किलोमीटर तथा कानपुर से १८ किलोमीटर दूर है।यह दो शहरों को जोड़ता हुआ एक कस्बा है जो दोनों शहरों के रोडवेज या रेलवे मार्ग को जोड़ता है। नगर को अभी तक अनेक देशभक्त, हिंदी साहित्य के नाम से जाना जाता है। ह्वेन त्सांग ने जनपद के बांगरमऊ स्थल का जिक्र ना-फो-टु-पो-कु-लो नाम से किया है। जहाँ गौतम बुद्ध ने 16 वाँ वर्षावास व्यतीत किया था । .

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ऋषिकेश

ऋषिकेश (संस्कृत: हृषीकेश) उत्तराखण्ड के देहरादून जिले का एक नगर, हिन्दू तीर्थस्थल, नगरपालिका तथा तहसील है। यह गढ़वाल हिमालय का प्रवेश्द्वार एवं योग की वैश्विक राजधानी है। ऋषिकेश, हरिद्वार से २५ किमी उत्तर में तथा देहरादून से ४३ किमी दक्षिण-पूर्व में स्थित है। हिमालय का प्रवेश द्वार, ऋषिकेश जहाँ पहुँचकर गंगा पर्वतमालाओं को पीछे छोड़ समतल धरातल की तरफ आगे बढ़ जाती है। ऋषिकेश का शांत वातावरण कई विख्यात आश्रमों का घर है। उत्तराखण्ड में समुद्र तल से 1360 फीट की ऊंचाई पर स्थित ऋषिकेश भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। हिमालय की निचली पहाड़ियों और प्राकृतिक सुन्दरता से घिरे इस धार्मिक स्थान से बहती गंगा नदी इसे अतुल्य बनाती है। ऋषिकेश को केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री का प्रवेशद्वार माना जाता है। कहा जाता है कि इस स्थान पर ध्यान लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है। हर साल यहाँ के आश्रमों के बड़ी संख्या में तीर्थयात्री ध्यान लगाने और मन की शान्ति के लिए आते हैं। विदेशी पर्यटक भी यहाँ आध्यात्मिक सुख की चाह में नियमित रूप से आते रहते हैं। .

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ऋष्यमूक

ऋष्यमूक वाल्मीकि रामायण में एक पर्वत का नाम है। रामायण के अनुसार ऋष्यमूक पर्वत में ऋषि मतंग का आश्रम था। वालि ने दुंदुभि असुर का वध करने के पश्चात् दोनों हाथों से उसका मृत शरीर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। हवा में उड़ते हुए मृत दुंदुभि के मुँह से रक्तस्राव हो रहा था जिसकी कुछ बूंदें मतंग ऋषि के आश्रम पर भी पड़ गयीं। मतंग यह जानने के लिए कि यह किसकी करतूत है, अपने आश्रम से बाहर निकले। उन्होंने अपने दिव्य तप से सारा हाल जान लिया। कुपित मतंग ने वालि को शाप दे डाला कि यदि वह कभी भी ऋष्यमूक पर्वत के एक योजन के पास भी आयेगा तो अपने प्राणों से हाथ धो देगा। यह बात उसके छोटे भाई सुग्रीव को ज्ञात थी और इसी कारण से जब वालि ने सुग्रीव को देश-निकाला दिया तो उसने वालि के भय से अपने अनुयायियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत में जाकर शरण ली। .

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ऋष्यशृंग

"ऋष्यश्रृंग" या श्रृंगी ऋषि वाल्मीकि रामायण में एक पात्र हैं जिन्होंने राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराये थे। वह विभण्डक ऋषि के पुत्र तथा कश्यप ऋषि के पौत्र बताये जाते हैं। उनके नाम को लेकर यह उल्लेख है कि उनके माथे पर सींग (संस्कृत में ऋंग) जैसा उभार होने की वजह से उनका यह नाम पड़ा था। उनका विवाह अंगदेश के राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री शान्ता से सम्पन्न हुआ जो कि वास्तव में दशरथ की पुत्री थीं। पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋष्यशृंग विभण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशि को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था अतः उनका यह नाम पड़ा। ऋष्यशृंग के पैदा होने के तुरन्त बाद उर्वशी का धरती का काम समाप्त हो गया तथा वह स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई। इस धोखे से विभण्डक इतने आहत हुये कि उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई तथा उन्होंने अपने पुत्र ऋष्यशृंग पर नारी का साया भी न पड़ने देने की ठान ली। इसी उद्देश्य से वह ऋष्यशृंग का पालन-पोषण एक अरण्य में करने लगे। वह अरण्य अंगदेश की सीमा से लग के था। उनके घोर तप तथा क्रोध के परिणाम अंगदेश को भुगतने पड़े जहाँ भयंकर अकाल छा गया। अंगराज रोमपाद (चित्ररथ) ने ऋषियों तथा मंत्रियों से मंत्रणा की तथा इस निष्कर्ष में पहुँचे कि यदि किसी भी तरह से ऋष्यशृंग को अंगदेश की धरती में ले आया जाता है तो उनकी यह विपदा दूर हो जायेगी। अतः राजा ने ऋष्यशृंग को रिझाने के लिए देवदासियों का सहारा लिया क्योंकि ऋष्यशृंग ने जन्म लेने के पश्चात् कभी नारी का अवलोकन नहीं किया था। और ऐसा ही हुआ भी। ऋष्यशृंग का अंगदेश में बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया। उनके पिता के क्रोध के भय से रोमपाद ने तुरन्त अपनी पुत्री शान्ता का हाथ ऋष्यशृंग को सौंप दिया। बाद में ऋष्यशृंग ने दशरथ की पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वह अयोध्या से लगभग ३८ कि॰मी॰ पूर्व में था और वहाँ आज भी उनका आश्रम है और उनकी तथा उनकी पत्नी की समाधियाँ हैं। .

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छतरी (स्मारक)

राजाओं के मरणोंपरान्त उनकी याद में स्थापत्य की दृष्टि से विशिष्ट स्मारक बनाये गए, जिन्हें छतरियां तथा देवल के नाम से जाना जाता है। छतरियां ज्यादातर भारतीय राज्य राजस्थान में देखने को मिलती है। जिसमें जयपुर की गैटोर, जोधपुर की जसवंत थड़ा,कोटा का छत्र विलास बाग़, जैसलमेर का बड़ा बाग़ तो इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। जैसलमेर के पीले पत्थर से बनी छतरियां सुंदर है। छतरियों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों शैलियों का मिश्रण पाया जाता है। सबसे नीचे चौकोर अथवा आठ कोनों का चबूतरा बनाया जाता है। इन चबूतरों के ऊपर दूसरा गोल चबूतरा बनाया जाता है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

RAMAYAN, वाल्मिकी रामायण, आदिकाव्य

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