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राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान

सूची राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान

राजस्थान स्थापना। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (Rajasthan Oriental Research Institute / RORI) राजस्थान सरकार द्वारा स्थापित एक संस्थान है जो राजस्थानी संस्कृति एवं विरासत को संरक्षित रखने एवं उसकी उन्नति करने के उद्देश्य से स्थापित किया है। इसकी स्थापना १९५४ में मुनि जिनविजय के मार्गदर्शन में की गयी थी। मुनि जिनविजय रॉयल एशियाटिक सोसायटी के सदस्य थे। भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने १९५५ में इसकी आधारशिला रखी। १४ सितम्बर १९५८ को इसका उद्घाटन हुआ। इसका मुख्यालय जोधपुर में है। पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और अन्य भाषाओँ में लिखे गए विभिन्न अप्रकाशित पांडुलिपियों और प्राचीन ग्रंथों की खोज और उनके प्रकाशन के लिए उत्तरदायी राजस्थान शासन द्वारा जोधपुर में सन १९५० में संस्थापित एक पंजीकृत स्वायत्तशासी समिति (सांस्कृतिक संस्थान) है जिसके संस्थापक निदेशक पद्मश्री मुनि जिनविजय थे। यहाँ संरक्षित कुछ पांडुलिपियाँ इस लिंक पर देखी जा सकती हैं- .

10 संबंधों: दशरथ शर्मा, पृथ्वीराज तोमर, मुनि जिनविजय, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, राजस्थान की महत्वपूर्ण कला-संस्कृति इकाइयां, लक्ष्मीनारायण गोस्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि, ईश्वर विलास

दशरथ शर्मा

दशरथ शर्मा (१९०३, चूरु, राजस्थान - १९७६) एक भारतविद् एवं भारत के राजस्थान क्षेत्र के इतिहास पर जाने-माने विद्वान थे। आप भाष्याचार्य हरनामदत्त शास्त्री के पौत्र तथा विद्यावाचस्पति विद्याधर शास्त्री के अनुज थे। .

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पृथ्वीराज तोमर

पृथ्वीराज तोमर (1167-1189 ई.) दिल्ली का तोमर शासक था। पृथ्वीराज तोमर अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान के समकालीन राजा था, नाम में समानताएं होने के कारण जनता समझने लगी की चौहानो का राज्य दिल्ली पर भी है। मदनपाल तोमर के पश्चात दिल्ली के राजसिंहासन पर पृथ्वीराज तोमर बैढे।महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर, तंवर (तोमर) राजवंश का राजनीतिक एवम सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ-74 अबुल फजल द्वारा दी गई वंशावली के अनुसार पृथ्वीराज तोमर का राज्य 1189 ई. तक रहा और उसने 22 वर्ष 2 माह 16 दिन तक शासन किया। इसके विपरीत इन्द्रप्रस्थ प्रबंध का लेखक उसे 24 वर्ष 3 माह 6 दिन 17 घडी शासन करना बतलाता है। इन्द्रप्रस्थ प्रबंध के अनुसार पृथ्वीराज तोमर का राज्य 1191 तक होता है परन्तु उसका उत्तराअधिकार चाहड़पाल जिसकी मुद्रायें प्राप्त होती है उसका केवल 1 वर्ष का राज्यकाल मिलता है जो ठिक प्रतित नहीं होता। द्विवेदी के अनुसार पृथ्वीराज तोमर ने 1167 ई. में दिल्ली का शासन ग्रहण किया तथा 1189 ई. तक वे शासन करते रहे। पृथ्वीराज तोमर की मुद्राए प्राप्त होती है जिनके एक ओर भाले सहित अश्वारोही के साथ 'पृथ्वीराज देव ' और दुसरी तरफ नन्दी के ऊपर 'असावरी सामन्तदेव' लिखा प्राप्त होता है। इसका उल्लेख ढक्कर फेरू की द्रव्य परीक्षा और कनिंगम ने भी किया है। यह तो सर्वविदित है कि मदनपाल के पश्चात दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर थे जो कि अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान के समकालीन थे। पृथ्वीराज के राज्य रोहण के समय शाकम्भरी पर उसका भांजा अपरगांगेय शासन कर रहा था। इसी बीच विग्रहराज के भाई जगदेव का पुत्र पृथ्वीभट्ट जिसने अपने मामा चित्तोड के राजा गुहिलोत किल्लण के सहयोग से हांसी पे हमला कर दिया और 1167 ई. में उस पे अधिकार कर लिया और उस गढ पर अपने मामा किल्लण को छोडकर स्वयं शाकम्भरी पर आक्रमण कर दिया। उस समय दिल्ली के तोमर राजा पृथ्वीराज ने उसे रोकने का प्रयास किया और पृथ्वीराज तोमर के सामंत हांसी के राजा वास्तुपाल से पृथ्वीभट्ट का युद्ध हुआ था। वास्तुपाल पराजित हुआ और पृथ्वीभट्ट ने शाकम्भरी पे हमला कर अपरगांगेय को मार डाला और 1168 ई. में शाकम्भरी का राजा बना।महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर, तंवर (तोमर) राजवंश का राजनीतिक एवम सांस्कृतिक इतिहास, पृष्ठ-75 अपरगांगेय का छोटा भाई नागार्जुन भागकर दिल्ली आ गया। पृथ्वीभट्ट की मृत्यु के बाद सोमेश्वर शाकम्भरी का राजा बना और उसकी मृत्यु के बाद अबुल फजल के अनुसार दिल्ली के राजा पृथ्वीराज तोमर का भांजा नागार्जुन कुछ समय के लिए शाकम्भरी के राज सिंहासन बैढा था, इसलिए 1177 ई. में पृथ्वीराज चौहान और नागार्जुन के बीच संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में पृथ्वीराज तोमर ने नागार्जुन की सहायता के लिए अपने सामन्त देव भट्ट को भेजा। नागार्जुन ने गुडपुर के गढ में अपनी सेना एकत्र की और वहाँ से अभयगढ पर आक्रमण किया। राय पिथोरा की माता कर्पुरीदेवी के नेतृत्व में भुवनैकमल्ल ओर कैमास सहित चौहान सेना ने गुडपुर (गुडगाँव) को घेर लिया और नागार्जुन किसी तरह बचकर दिल्ली भाग गये और तोमर सामंत देवभट्ट और उसके समस्त सैनिक युद्ध में मारे गए। सन् 1189 ई. में पृथ्वीराज तोमर की मृत्यु हो गई। उन्होंने जीवन पर्यन्त अपरगांगेय और नागार्जुन के उत्तराअधिकारी के प्रश्न को लेकर पृथ्वीभट्ट, सोमेश्वर, कर्पुरीदेवी, कैमास और भुवनैकमल्ल से अनेक वर्षों तक संघर्ष किया। संभवत: वे इसमें असफल रहे। उनकी इस असफलता का प्रभाव तोमर साम्राज्य की दृढता पर पढा। इससे पूर्व 1177 ई. के पश्चात उत्तर-पश्चिम भारत विश्रृंखल राजाओं का संघ रह गया था, जो दिल्ली के तोमर राजा को अपना मुखिया मानता था। पृथ्वीराज तोमर के चौहानो के साथ लम्बे संघर्ष के परीणाम स्वरुप यह नियन्त्रण शिथिल अवश्य दिखाई देता है। पृथ्वीराज तोमर की मृत्यु के पश्चात 1189 ई. में दिल्ली के राजसिंहासन पर उनका पुत्र चहाडपाल तोमर बैठा। .

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मुनि जिनविजय

मुनि जिनविजय (१८८८-१९७६) ने अपने जीवनकाल में अनेक अमूल्य ग्रंथों का अध्ययन, संपादन तथा प्रकाशन किया। पुरातत्वचार्य मुनि जिनविजय ने साहित्य तथा संस्कृति के प्रोत्साहन हेतु कई शोध संस्थानों का संस्थापन तथा संचालन किया। भारत सरकार ने आपको पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया। .

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राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान

कोई विवरण नहीं।

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राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर

राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर.

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राजस्थान की महत्वपूर्ण कला-संस्कृति इकाइयां

नाम, स्थान, स्थापना राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर 25 जनवरी 1983 राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी, जयपुर, 19 जनवरी 1986 राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 15 जुलाई 1969 राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुर 1981 अरबी फारसी शोध संस्थान, टोंक दिसम्बर, 1978 राजस्थान सिन्धी अकादमी जयपुर 1979 विद्या भवन संस्थान उदयपुर 1931 राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर 23 जनवरी 1958 राजस्थान अभिलेखागार बीकानेर 1955 रुपायन संस्थान बोरुंदा (जोधपुर) 1960 रवीन्द्र रंगमंच जयपुर 15 अगस्त 1963 जयपुर कथक केन्द्र जयपुर 1978 राजस्थान संगीत नाटक अकादमी जोधपुर पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग जयपुर राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स जयपुर 1866 राजस्थान ललित कला अकादमी जयपुर 1957 राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर 1950 जवाहर कला केंद्र, जयपुर 8 अप्रैल 1983 राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर 1 सितम्बर 1976 श्रेणी:राजस्थान.

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लक्ष्मीनारायण गोस्वामी

लक्ष्मीनारायण गोस्वामी मूलतः बीकानेर के निवासी थे जो प्राच्यविद्या विशेषज्ञ- और एक परिश्रमी संपादक थे तथा अपने सेवाकाल के दौरान राजस्थान के नगर जोधपुर में रह कर जिन्होंने शिवानन्द गोस्वामी के विशालकाय ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु के अलावा कई महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों का संपादन राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के माध्यम से किया। इनका निधन कुछ दशक पूर्व अपने पुश्तैनी नगर बीकानेर में हुआ। श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:राजस्थान के लोग.

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि

(देवर्षि) श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि (1675-1761) सवाई जयसिंह के समकालीन, बूंदी और जयपुर के राजदरबारों से सम्मानित, आन्ध्र-तैलंग-भट्ट, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि थे। "सवाई जयसिंह द्वितीय (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743) ने अपने समय में जिन विद्वत्परिवारों को बाहर से ला कर अपने राज्य में जागीर तथा संरक्षण दिया उनमें आन्ध्र प्रदेश से आया यह तैलंग ब्राह्मण परिवार प्रमुख स्थान रखता है। इस परिवार में में ही उत्पन्न हुए थे (देवर्षि) कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट जी, जिन्होंने 'ईश्वर विलास', 'पद्यमुक्तावली', 'राघव गीत' आदि अनेक ग्रंथों की रचना कर राज्य का गौरव बढ़ाया। इन्होंने सवाई जयसिंह से सम्मान प्राप्त किया था, (उनके द्वारा जयपुर में आयोजित) अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया था, जयपुर को बसते हुए देखा था और उसका एक ऐतिहासिक महाकाव्य में वर्णन किया था। देवर्षि-कुल के इस प्रकांड विद्वान ने अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन-काल में पर्याप्त प्रसिद्धि, समृद्धि एवं सम्मान प्राप्त किया था।" भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने इन पूर्वज कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था- तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः। भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:।। .

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ईश्वर विलास

320px। महाकाव्य ईश्वर विलास। https://commons.wikimedia.org/wiki/ .

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