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राग

सूची राग

'''वसन्त रागिनी''' वसन्त का राग है। इस चित्र में कृष्ण गोपियों के साथ नृत्य करते दिख रहे हैं। राग सुरों के आरोहण और अवतरण का ऐसा नियम है जिससे संगीत की रचना की जाती है। पाश्चात्य संगीत में "improvisation" इसी प्रकार की पद्धति है। .

57 संबंधों: एम. बालामुरलीकृष्ण, ठाट, ठुमरी, डी.वी. पलुस्कर, देश राग, पकड़, बिहाग, बंदिश, बृहद्देशी, भारत में संगीत-शिक्षण, भारत की संस्कृति, भारतीय संगीत का इतिहास, भैरव, भैरव राग, भीमपलासी, मतङ्ग मुनि, मालकोश, मुत्तुस्वामी दीक्षित, मेलकर्ता, रसिकप्रिया (राग), राधा कृष्ण, राग ललित, राग हंसध्वनि, राग गौड़सारङ्ग, राग-रागिनी पद्धति, रागिनी (बहुविकल्पी), लालगुडी जयरामन, हिंदी चलचित्र, १९६० दशक, होली, जयजयवन्ती, जाति (संगीत), जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची, विश्वनाथ राव रिंगे, वैदिक व्याकरण, वैराग्य, खट, खमाच, खोकर, गन्धर्व वेद, गम्मक, गायन, गीत बैठकी, गीतरामायण, गीतरामायणम्, आबिदा परवीन, आशवरी, कटपयादि संख्या, कर्नाटक संगीत, काफ़ी राग, काफी राग, ..., कुमाऊँनी होली, कुरमाली लोक-गीत, केतकी, केदार राग, अन्नामाचार्य, अल्हैयाबिलावल, ऋग्वैदिक भाषा सूचकांक विस्तार (7 अधिक) »

एम. बालामुरलीकृष्ण

मंगलमपल्ली बालामुरली कृष्णा (మంగళంపల్లి బాలమురళీకృష్ణ) (6 जुलाई 1930 को जन्मे 2016 22 november) एक कर्नाटक गायक, बहुवाद्ययंत्र-वादक और एक पार्श्वगायक हैं। एक कवि, संगीतकार के रूप में उनकी प्रशंसा की जाती है और कर्नाटक संगीत के ज्ञान के लिए उन्हें सम्मान दिया जाता है। .

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ठाट

थाट अथवा ठाट हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में रागों के विभाजन की पद्धति है। सप्तक के १२ स्वरों में से ७ क्रमानुसार मुख्य स्वरों के उस समुदाय को ठाट या थाट कहते हैं जिससे राग की उत्पत्ति होती है। थाट को मेल भी कहा जाता है। इसका प्रचलन पं॰ भातखंडे जी ने प्रारम्भ किया। हिन्दी में 'ठाट' और मराठी में इसे 'थाट' कहते हैं। उन्होंने दस थाटों के अन्तर्गत प्रचलित सभी रागों को सम्मिलित किया। वर्तमान समय में राग वर्गीकरण की यही पद्धति प्रचलित है। थाट के कुछ लक्षण माने गये हैं-.

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ठुमरी

ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है। इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। अर्थात जिसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। यह विविध भावों को प्रकट करने वाली शैली है जिसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है साथ ही यह रागों के मिश्रण की शैली भी है जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है और रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति इसका मूल मंतव्य होता है। इसी वज़ह से इसे अर्ध-शास्त्रीय गायन के अंतर्गत रखा जाता है। .

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डी.वी. पलुस्कर

पंडित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर (28 मई 28, 1921 – 25 अक्टूबर 25, 1955), हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गायक थे। उन्हें एक विलक्षण बालक के तौर पर जाना जाता था। .

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देश राग

यह राग खमाज थाट से निकलता है। इसके आरोह में ः?ग"' और ः?ध"' नहीं लगाते और अवरोह में सब स्वर लगाये जाते हैं, इस प्रकार इसकी जाति औडव सम्पूर्ण होनी चाहिये पर इसे सम्पूर्ण जाति का राग संगीतज्ञ मानते हैं आरोह में शुद्ध ः?नी"' अवरोह में कोमल ः?नी"' का प्रयोग होता है। वादी स्वर ः?रे"' और सम्वादी स्वर ः?प"' माना जाता है। गाने बजाने का समय रात का दूसरा प्रहर माना जाता है। आरोह--स रे म प नी सं। अवरोह--सं ड ध प, म ग रे ग स। पकड़--रे म प, ड ध प, प ध प म, ग रे ग स। श्रेणी:राग.

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पकड़

पकड़ वह छोटा सा स्वर समुदाय है जिसे गाने-बजाने से किसी राग विशेष का बोध हो जाये। उदाहरणार्थ- प रे ग रे,.नि रे सा गाने से कल्याण राग का बोध होता है। श्रेणी:संगीत.

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बिहाग

यह राग बिलावल थाट से निकलता है। इसके आरोह में ः?रे"' और ः?ध"' नहीं लगता और अवरोह में सातों स्वर लगते हैं, इसलिये इसकी जाति औडव-सम्पूर्ण मानी जाती है। इसमें सब स्वर शुद्ध लगते है। कुशल संगीतज्ञ बड़ी कुशलता से इस राग में तीव्र ः?श"' का भी प्रयोग करते हैं। वादी स्वर ः?ग"' और सम्वादी स्वर ः?नी"' माना जाता है। गाने-बजाने का समय रात का दूसरा प्रहर माना जाता है। आरोह--स ग म प नी सं। अवरोह--सं नी ध प, म ग रे स। पकड़--ःनी स, ग म प, ग म ग रे स। .

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बंदिश

हिन्दुस्तानी गायन या वादन में बंदिश से तात्पर्य एक निश्चित सुरसहित रचना से है। बंदिश किसी विशेष राग में निर्मित होती है। इसे गाने/बजाने के साथ तबला या पखावज द्वारा ताल मिलाया जाता है और सारंगी, वायलिन अथवा हारमोनियम द्वारा सुस्वरता प्रदान की जाती है। बंदिश मानक संरचित गायन हेतु संगीत को साहित्यिकता प्रदान करती है। भूतकाल में कई घरानों ने अपनी बंदिशों को अपने घराने से बाहर जाने से रोकने के उपाय किए। गायन में 'बंदिश' को 'चीज़' कहते हैं। हिन्‍दुस्‍तानी शास्‍त्रीय संगीत में राग संरक्षण हेतु पारम्‍पारिक बन्दिशो की महत्‍वूपर्ण भूमिका रही है। भारतीय रागदारी संगीत में रागों को निर्धारित नियमावली के अन्‍तर्गत गाया जाता है, जिनको राग के सर्वसाधारण नियम कहते है। तथा यह पारम्‍पारिक शास्‍त्रीय बन्दिशों में अत्‍यन्‍त सुव्‍यवस्थित एवं सुगठीत रूप में विद्यमान है। इन बन्दिशों के माध्‍यम से राग को सहजतापूर्वक पहचाना भी जा सकता है और राग विस्‍तार करने हेतु बन्दिश मार्गदर्शक का भी कार्य करती है। ए‍क-एक बन्दिश के अन्‍तर्गत राग का संपूर्ण शास्‍त्र समाहित है, जो गेय स्‍वरुप में जल्‍दही कंठस्‍थ हो जाता है। रागो के नियमों का निर्वाह इन बन्दिशों द्वारा किया जाता है। उन नियमों को बन्दिश द्वारा गेय रूप में निबद्ध करके रागों को कैसे सुराक्षित किया गया है। इनमें सदारंग-अदारंग इनकी कुछ पारम्‍पारिक बन्दिशों का उदाहरण स्‍वरुप कुछ विलंबित तथा मध्‍यलय के ख्‍याल बन्दिशपर विचार प्रस्‍तुत किये जायेंगे। श्रेणी:भारतीय संगीत.

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बृहद्देशी

बृहद्देशी संगीत से संबन्धित संस्कृत ग्रंथ है। इसके रचयिता मतंग मुनि (६वीं शती) थे। वैदिक, ऋषिप्रोक्त तथा आगम पुराण से प्रवाहित, भारतीय संगीत की त्रिवेणी में सामवेदीय परम्परा से जुड़े आचार्य भरत की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा के साथ तत्कालीन संगीत के शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप का सर्वांगीण विवेचन करने वाले पाँचवीं-छठी शती के आचार्यो में आचार्य मतंग प्रमुख हैं। समकालीन अन्य परम्पराओं के तुलनात्मक विवेचन में संगीत-शास्त्र के सिद्धान्तों की बृहत चर्चा के साथ मतंग का यह कथन कि जाति-गायन, गीति-गायन, अथवा राग-गायन को नाट्य के विभिन्न अंको में अनेकविध प्रयुक्त करना चाहिये, आज के नाट्य दिग्दर्शकों के लिए विचारणीय बिन्दु हैं। मतंग के समय में प्रचलित प्रबंधों में संस्कृत के अलावा तत्कालीन अन्य भाषाओं में गेय रचनाओं का वर्गीकरण तत्कालीन संगीतज्ञों की लोकाभिमुख दृष्टि का परिचायक है। संगीत के सर्वग्राही स्वरूप का प्रतिपादन शार्ंगदेवकृत संगीतरत्नाकर से पूर्व भी अनेक बार किया गया है। आचार्य मतंग ने अपने ग्रंथ ‘बृहद्देशी' के ‘देशी-उत्‍पत्ति-प्रकरण' में नाद की व्‍याख्‍या करते हुये बताया है कि नाद के बिना कोई संगीत या संगीत सृजन नहीं। .

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भारत में संगीत-शिक्षण

१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत-शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु ब्रिटिश शासनकाल का आविर्भाव होने पर घरानों की रूपरेखा कुछ शिथिल होने लगी क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के व्यवस्थापक कला की अपेक्षा वैज्ञानिक प्रगति को अधिक मान्यता देते थे और आध्यात्म की अपेक्षा इस संस्कृति में भौतिकवाद प्रबल था। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत कला को जो पवित्रता एवं आस्था का स्थान प्राप्त था तथा जिसे कुछ मुसलमान शासकों ने भी प्रश्रय दिया और संगीत को मनोरंजन का उपकरण मानते हुए भी इसके साधना पक्ष को विस्मृत न करते हुए संगीतज्ञों तथा शास्त्रकारों को राज्य अथवा रियासतों की ओर से सहायता दे कर संगीत के विकासात्मक पक्ष को विस्मृत नहीं किया। परन्तु ब्रिटिश राज्य के व्यस्थापकों ने संगीत कला के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण अपना कर उसे यद्यपि व्यक्तित्व के विकास का अंग माना परन्तु यह दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के धरातल पर स्थित न था। उन्होंने अन्य विषयों के समान ही एक विषय के रूप में ही इसे स्वीकार किया, परन्तु वैज्ञानिक प्रगति की प्रभावशीलता के कारण यह विषय अन्य पाठ्य विषयों के बीच लगभग उपेक्षित ही रहा। .

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भारत की संस्कृति

कृष्णा के रूप में नृत्य करते है भारत उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक सीमाओं और क्षेत्रों की स्थिरता और ऐतिहासिक स्थायित्व को प्रदर्शित करता हुआ मानचित्र भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को भी बहुत प्रभावित किया है। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भैरव

ब्रिटिश संग्रहालय में रखी '''भैरव''' की प्रतिमा १४वीं शताब्दी में निर्मित राजा आदित्यवर्मन की मूर्ति जो भैरव रूप में है। (इण्डोनेशिया राष्ट्रीय संग्रहालय) भैरव (शाब्दिक अर्थ- भयानक) हिन्दुओं के एक देवता हैं जो शिव के रूप हैं। इनकी पूजा भारत और नेपाल में होती है। हिन्दू और जैन दोनों भैरव की पूजा करते हैं। भैरवों की संख्या ६४ है। ये ६४ भैरव भी ८ भागों में विभक्त हैं। .

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भैरव राग

यह राग भैरव थाट से निकलता है। इस राग में सातों स्वर लगते हैं, इसलिये इसकी जाति सम्पूर्ण मानी जाती है। ः?रे"' और ः?ध"' इस राग में कोमल लगते हैं। वादी स्वर ः?ध"' और सम्वादी स्वर ः?रे"' माना जाता है। गाने बजाने का समय सुबह का माना जाता है। आरोह--स रे ग म प ध नी सं। अवरोह--सं नी ध प म ग रे स। पकड़--स ग म प प। .

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भीमपलासी

यह राग काफी थाट से निकलता है। आरोह में ः?रे"' और ः?ध"' नहीं लगता और अवरोह में सब स्वर लगते हैं, इसलिये इस की जाति औडव-सम्पूर्ण मानी जाती है। इसमें ः?ग"' और ः?नी"' कोमल लगते हैं। वादी स्वर ः?म"' और सम्वादी स्वर ः?स"' माना जाता है। गाने-बजाने का समय दिन का तीसरा प्रहर है। आरोह--ड, स, ज्ञ, म प ड सं। अवरोह--सं, ड, ध प, म ज्ञ रे स। पकड़--ड स म, म ज्ञ, प म, ज्ञ म ज्ञ रे स। .

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मतङ्ग मुनि

मतंग मुनि (५वीं शती) संगीतशास्त्री थे। उन्होंने बृहद्देशी नामक ग्रन्थ लिखा। पाँचवीं शताब्दी के आसपास मतंग मुनि द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘वृहददेशी’ से पता चलता है कि उस समय तक लोग रागों के बारे में जानने लगे थे। लोगों द्वारा गाये-बजाये जाने वाले रागों को मतंग मुनि ने 'देशी राग' कहा और देशी रागों के नियमों को समझाने हेतु ‘वृहद्देशी’ ग्रन्थ की रचना की। मतंग ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अच्छी तरह से सोच-विचार कर पाया कि चार या पाँच स्वरों से कम में राग बन ही नहीं सकता। .

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मालकोश

यह राग भैरवी थाट से निकलता है। इसमें ऋषभ और पंचम स्वर नहीं लगते इसलिये इसकी जाति औडव मानी जाती है। इसमें गंधार धैवत और निषाद कोमल लगते है। इसका वादी स्वर मध्यम तथा सम्वादी स्वर षड्ज माना जाता है। गाने का समय रात्रि का तीसरा प्रहर है। आरोह--ड स ज्ञ म z ड सं। अवरोह--सं ड z म ज्ञ म ज्ञ सा। पकड़--म ज्ञ म z ड z म ज्ञ स। .

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मुत्तुस्वामी दीक्षित

मुत्तुस्वामी दीक्षितर् या मुत्तुस्वामी दीक्षित (1775-1835) दक्षिण भारत के महान् कवि व रचनाकार थे। वे कर्नाटक संगीत के तीन प्रमुख व लोकप्रिय हस्तियों में से एक हैं। उन्होने 500 से अधिक संगीत रचनाएँ की। कर्नाटक संगीत की गोष्ठियों में उनकी रचनाऐं बहुतायत में गायी व बजायी जातीं हैं। वे रामस्वामी दीक्षित के पुत्र थे। उनके दादा का नाम गोविन्द दीक्षितर् था। उनका जन्म तिरुवारूर या तिरुवरूर् या तिरुवैय्यारु (जो अब तमिलनाडु में है) में हुआ था। मुत्तुस्वामि का जन्म मन्मथ वर्ष (ये भी तमिल पंचांग अनुसार), तमिल पंचांग अनुसार पंगुनि मास (हिन्दु पंचांग अनुसार फाल्गुन मास; यद्यपि वास्तविकता तो यह है उनके जन्म का महिना अगर हिन्दु पंचांग के अनुसार देखा जाए तो भिन्न होगा, हिन्दू व दक्षिण भारतीय पंचांगों में कुछ भिन्नता अवश्य होती है), कृत्तिका नक्षत्र (तमिल पंचांग अनुसार) में हुआ था। मुत्तुस्वामी का नाम वैद्येश्वरन मन्दिर में स्थित सेल्वमुत्तु कुमारस्वामी के नाम पर रखा था। ऐसी मान्यता है कि मुत्तुस्वामी का जन्म उनके माता और पिता के भगवान् वैद्येश्वरन (या वैद्येश) की प्रार्थना करने से हुआ था। मुत्तुस्वामी के दो छोटे भाई, बालुस्वामी और चिन्नस्वामी थे, और उनकी बहन का नाम बालाम्बाल था। मुत्तुस्वामी के पिता रामस्वामी दीक्षित ने ही राग हंसध्वनि का उद्भव किया था। मुत्तुस्वामी ने बचपन से ही धर्म, साहित्य, अलंकार और मन्त्र ज्ञान की शिक्षा आरम्भ की और उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने पिता से ली थी। मुत्तुस्वामी के किशोरावस्था में ही, उनके पिता ने उन्हें चिदंबरनथ योगी नामक एक भिक्षु के साथ तीर्थयात्रा पर संगीत और दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेज दिया था। इस तीर्थयात्रा के दौरान, उन्होंने उत्तर भारत के कई स्थानों का दौरा किया और धर्म और संगीत पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्राप्त किया जो उनकी कई रचनाओं में परिलक्षित होती थी। काशी (वाराणसी) में अपने प्रवास के दौरान, उनके गुरु चिदंबरनाथ योगी ने मुत्तुस्वामी को एक अद्वितीय वीणा प्रदान की और उसके शीघ्र बाद ही उनका निधन हो गया। चिदंबरनाथ योगी की समाधि अब भी वाराणसी के हनुमान घाट क्षेत्र में श्रीचक्र लिंगेश्वर मंदिर में देखा जा सकता है। .

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मेलकर्ता

मेलकर्ता राग कर्नाटक संगीत के मूल रागों का समूह है। मेलकर्ता राग, 'जनक राग' कहलाते हैं जिनसे अन्य राग उत्पन्न किये जा सकते हैं। मेलकर्ता रागों की संख्या बहत्तर (७२) मानी जाती है। मेलकर्ता को 'मेल', 'कर्ता' या 'सम्पूर्ण' भी कहते हैं। राग व्यवस्था राममात्य ने "स्वरमेलकलानिधि" में १५५० में प्रस्तुत की। हिन्दुस्तानी संगीत का ठाट या पाश्चात्य संगीत का 'स्केल' इसके तुल्य समझे जा सकते हैं। हिन्दुस्तानी संगीत में दस ठाट हैं।; पल्लवि (रागं - श्री) प्रणतार्तिहर प्रभो पुरारे प्रणव रूप संपदे पदे प्रणमामि श्री प्रकृति प्रेरक प्रमथ गणपते पदे पदे; अनुपल्लवि/चरणं) --- (७२ मेळ राग मालिका);शुद्ध मध्यमं (१ - ३६) कनकांग्या रमया पूजित सनकादि प्रिय कृपालय रत्नांग्या धर्मसंवर्धन्या रमण मां परिपालय गानमूर्ति रिति धनशास्त्र मानमूर्धन्यैर-गदितोऽसि श्रीवनस्पति दळ समर्चनेन पावन भक्तैर विदितोऽसि मानव्ती भिः स्मृतिभिरुक्त कर्म कृन- मानव पापं वारयसि तानरूपि णं त्वां भजन्ति ये तारमुपदिशं स्तारयसि देवसेनापति जनक नील- ग्रीव सेवक जन पोष्हण हनुमतोडि ण्डिमभवं स्तुवथह सुतनुमतो ददा-भूति भूषण भानु कोटि संकाश महेश धेनुका सुर मारक वाहन अनन्दनाटकप्रिया मर वर श्रीनन्दनाटवी-हव्यवाहन कोकिलप्रिया म्र किसलयांग गोकुलपालन पटु भय भंजन बहुरूपवती ह भवन मां मुहुर- मुहुरूर्जित भक्त जन रंजन धीरभद्राख्य गायक प्रिय वीरभद्रादि पालित शरण देवकुळाभरणो द्धारक श्री- वसुदेव कुलाभरण नत चरण जितमाया मळव गौळा न्तर- गत माहेशाः त्वां विन्दन्ति चक्रवाक कुचार्धांग त्वत्कृपया शुक्र वाक्पति सुराः नन्दन्ति तेजसा जितसूर्यकन्त्या गौर्या ओजसातुल प्रताप शुभकर हातकाम्बरि शर अब्ज निभ कर हत भक्त परिताप झंकारध्वनि युत माला धर टं कार ध्वनि युत चाप महानटभैरवी मारुति भारती सहाय देवैर-नत कोप शिव नतकीरवणी वशग भवन इव वस मे मनसि खरहरप्रिय ं आलोक्य परात्पर हर दयया पालितवानसि गौरीमनॉ हरि दम्बर सततं गौरिव वत्से रमते भवति योसौ-(व) अरुणप्रिया दित्यः तं त्वा सा श्रुतिरानता भवति मार रंजनी वरद निरहंकार जना मुक्तैस-त्वां स्तुवन्ति चरु के शिव लिंगं अनार्च्य मेरु धन्वन सुखमाप्नुवन्ति सरसां गी तिं कीर्तिं दिश मे तरसा अंगीकृत हत मदन हरिकाम्भोधि संभवामर दुरित निवारक स्मित वदन धीर शण्कराभरण समं त्वां घोर शंकया नो जाने ज्ञानगानं कृतवतां वरद श्रीनगानन्दिनी जाने यागप्रिया मर त्यागप्रियं विधिं द्रागप्रियेण शिक्षितवानसि सदानन्दे त्वयि रागवर्धनी ं मुदा पुनितवतीं रक्षितवानसि श्रित गज वदनगांगेय भूषणी - कृत भुजण्ग नत सुर कदम्ब वागदीश्वरी -श्रियौ यदंग संभवे भोग मोक्षदा जगदम्बा शूलिनी तया धर्म वर्धन्या खेलसि दयया सुर वरिष्ठ कैलासाचल नात कृद-भुज शैल दण\d दक चरणांगुष्ठ (प्रणतार्तिहर प्रभो पुरारे); प्रति मध्यमं (३७ - ७२) प्रतिबिंब रसालग फलसमा विषया इति बिम्बाधराः संत्यजन्ति ये भवझलार्णवं संतरितुं ते भवदंघ्रि नौकां भजन्ति झलं झल वराळि गीतमाला धर झलंधरासुर मारक सुरदानव नीता मृत विमुख वर दान निरत तारक भोः पावनी पिष्टास्वदन रसिक- भूप अव नी पवन सुन्दर रघुप्रिया र्चित राजीव चरण मघ प्रणाशन भुज मन्दर गवाम्भोदिह तीर्ण इव मया भवाम्भोधिः तव दयया ईह प्रसन्नो भव प्रिय तमया सह प्रमथप द्रागुमया सर्वशुभापन्तु वराळि कताक्षं जुर्वनुग्रहं त्वां वन्देहं सदय षद्विध मार्गिणि मनुजे हृदयग न कुर्वे संदेहं सुवर्णां गीति ं समुपदिश प्रथम वर्णांगीकृत वैकुन्ठ सुबलारि मुखामर प्रपूजित धवळाम्बरी पतेर-दुर्दर्श सुरूपनाम नारायणी सह चर स्वरूप भासकादर्श धर्म कामवर्धनी विलसित निर्मलांग शुभ दायक णितरां अप्रिय वादिनी विमुख नत राम अग्नि सायक चिदंबरगमन श्रमा पहरणं कदंब रमण प्रदीयतां विश्वम भरि तं त्वयाऽष्तमूर्त्या शश्वद-धनमाधीयतां श्यामळांगी कृत वामभाग कोमळांगज शर भंग षन्मुख प्रिया ंगु प्रिय जनक हिरण्यांग नत शरभंग ईह सिम्हेन्द्र मध्यमा ंग नरसिम्ह अजिनाम्बर पुरहर हैमवती मनोहर हर रक्षित सुर निकर विदितधर्मौ- अति कायजिद-रामौ मुदित मनाः त्वं रक्षितवान णीतिमति इह जनोऽतिप्रियोऽसि प्रीतिमति रहितान शिक्षितवान श्रियोऽधिकां तां अणिमाधिकां पयोधि कान्तामणि सेवितां धर्म वर्धनीम सुर-ऋषभ प्रिया ं निर्मल भक्तैर-भावितां मनन शीलतां गी र्वाणपतेह जनन वर्जितामुक्तवतीं भूमिषु वाचस्पति संबन्ध स्वामिने ज्ञानं दत्तवतीं मे च कल्याणी ं वाचं दिशतीं मोचक दायिनीं रमसे विचित्राम्बरी ष वरद भाग स चित्रगुप्त यमागः क्षमसे सुचरित्र मुख संगीत सुचरित्र मुखरित वाद्य ज्योति स्वरूपिणि त्वयि प्रसन्ने भाति स्वरूपं किं नाद्य धातुवर्धनी ं तवाभिधासुधां पातु कामिनी मम रसना सुखेनासिका भूषणं हि सतां मुखे नासिकेव विवसन कोसल पः त्वऽऽ पूज्याघं हित्वा सभापते मुमुदे हि भक्तापदान रसिक प्रिय त्यक्तापदानन्दं मम देहि (प्रणतार्तिहर प्रभो पुरारे) .

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रसिकप्रिया (राग)

रसिकप्रिया कर्नाटक संगीत का एक राग है। यह कर्नाटक संगीत का अंतिम (७२वाँ) मेलापक राग है। मुतुस्वामी दीक्षितार के संगीत घराने में इसे रसमंजरी कहा गया है। .

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राधा कृष्ण

राधा कृष्ण (IAST, संस्कृत राधा कृष्ण) एक हिंदू देवता हैं। कृष्ण को गौड़ीय वैष्णव धर्मशास्त्र में अक्सर स्वयं भगवान के रूप में सन्दर्भित किया गया है और राधा एक युवा नारी हैं, एक गोपी जो कृष्ण की सर्वोच्च प्रेयसी हैं। कृष्ण के साथ, राधा को सर्वोच्च देवी स्वीकार किया जाता है और यह कहा जाता है कि वह अपने प्रेम से कृष्ण को नियंत्रित करती हैं। यह माना जाता है कि कृष्ण संसार को मोहित करते हैं, लेकिन राधा "उन्हें भी मोहित कर लेती हैं। इसलिए वे सभी की सर्वोच्च देवी हैं। राधा कृष्ण".

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राग ललित

राग बसंत या राग वसंत शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। राग ललित सन्धिप्रकाश रागो के अन्तर्गत आता है। यह एक गम्भी्र प्रकृति का उत्तरांग प्रधान राग है। इसे गाते व बजाते समय इसका विस्तार मन्द्र व मध्य सप्तकों में अधिक होता है। राग ललित दो मतों से गाया जाता है शुद्ध धैवत व कोमल धैवत परन्तु शु्द्ध धैवत से यह राग अधिक प्रचार में है। .

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राग हंसध्वनि

राग हंसध्वनि कनार्टक पद्धति का राग है परन्तु आजकल इसका उत्तर भारत मे भी काफी प्रचार है। इसके थाट के विषय में दो मत हैं कुछ विद्वान इसे बिलावल थाट तो कुछ कल्याण थाट जन्य भी मानते हैं। इस राग में मध्यम तथा धैवत स्वर वर्जित हैं अत: इसकी जाति औडव-औडव मानी जाती है। सभी शुद्ध स्वरों के प्रयोग के साथ ही पंचम रिषभ,रिषभ निषाद एवम षडज पंचम की स्वर संगतियाँ बार बार प्रयुक्त होती हैं। इसके निकट के रागो में राग शंकरा का नाम लिया जाता है। गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है। .

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राग गौड़सारङ्ग

गौड़ सारंग, भारतीय संगीत का एक राग है। इसके गायन का समय दोपहर (मध्याह्न काल) है। ठाठ - कल्याण (मतान्तर में कई लोग इसे विलावल ठाठ से उत्पन्न भी मानते हैं) वादी - ग संवादी- ध जाति- सम्पूर्ण (*वक्र सम्पूर्ण- अर्थात आरोह व अवरोह में सभी स्वरों का प्रयोग *वक्र होता है);विशेषताएं -.

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राग-रागिनी पद्धति

रागों के वर्गीकरण की यह परंपरागत पद्धति है। १९वीं सदी तक रागों का वर्गीकरण इसी पद्धति के अनुसार किया जाता था। हर एक राग का परिवार होता था। सब छः राग ही मानते थे, पर अनेक मतों के अनुसार उनके नामों में अन्तर होता था। इस पद्धति को मानने वालों के चार मत थे। .

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रागिनी (बहुविकल्पी)

रागिनी से इनमें से किसी का बोध होता है:-.

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लालगुडी जयरामन

लालगुडी जयराम अय्यर (லால்குடி ஜயராம ஐயர்) (जन्म - 17 सितम्बर 1930, भारत) एक प्रसिद्ध कर्नाटिक वायलिनवादक, गायक और संगीतकार हैं। .

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हिंदी चलचित्र, १९६० दशक

1960 दशक के हिंदी चलचित्र .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जयजयवन्ती

जयजयवन्ती, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग है। गुरु ग्रन्थ साहिब के अनुसार यह राग, बिलवाल और सोरठ नामक दो अन्य रागों का मिश्रण है। यह राग, गुरबानी के उत्तरार्ध में आया है। नौवें गुरु तेग बहादुर जी ने जयजयवन्ती में ४ पदों की रचना की है। श्रेणी:राग.

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जाति (संगीत)

किसी भी संगीत की जाति मुख्यत: तीन तरह की मानी जाती है। १) औडव - जिस राग मॆं ५ स्वर लगें २) षाडव- राग में ६ स्वरों का प्रयोग हो ३) संपूर्ण- राग में सभी सात स्वरों का प्रयोग होता हो इसे आगे और विभाजित किया जा सकता है। जैसे- औडव-संपूर्ण अर्थात किसी राग विशेष में अगर आरोह में ५ मगर अवरोह में सातों स्वर लगें तो उसे औडव-संपूर्ण कहा जायेगा। इसी तरह, औडव-षाडव, षाडव-षाडव, षाडव-संपूर्ण, संपूर्ण-षाडव आदि रागों की जातियाँ हो सकती हैं। श्रेणी:संगीत.

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जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य (जगद्गुरु रामभद्राचार्य अथवा स्वामी रामभद्राचार्य के रूप में अधिक प्रसिद्ध) चित्रकूट धाम, भारत के एक हिंदू धार्मिकनेता, शिक्षाविद्, संस्कृतविद्वान, बहुभाषाविद, कवि, लेखक, टीकाकार, दार्शनिक, संगीतकार, गायक, नाटककार और कथाकलाकार हैं। उनकी रचनाओं में कविताएँ, नाटक, शोध-निबंध, टीकाएँ, प्रवचन और अपने ग्रंथों पर स्वयं सृजित संगीतबद्ध प्रस्तुतियाँ सम्मिलित हैं। वे ९० से अधिक साहित्यिक कृतियों की रचना कर चुके हैं, जिनमें प्रकाशित पुस्तकें और अप्रकाशित पांडुलिपियां, चार महाकाव्य,संस्कृत और हिंदी में दो प्रत्येक। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर एक हिंदी भाष्य,अष्टाध्यायी पर पद्यरूप में संस्कृत भाष्य और प्रस्थानत्रयी शास्त्रों पर संस्कृत टीकाएँ शामिल हैं।दिनकर २००८, प्रप्र.

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विश्वनाथ राव रिंगे

विश्वनाथ राव रिंगे 'तनरंग' (6 दिसम्बर 1922-) हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक तथा निर्मता थे। वे ग्वालियर घराने से सम्बन्धित थे। उन्होने लगभग २०० रागों में २००० से भी अधिक बन्दिशों की रचना की जिसके लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में लिखा गया है। उन्होने 'संगीतांजलि' और 'स्वरांजलि' आदि कुछ पुस्तकों की रचना की। हाल ही में उनकी पुस्तक ाचार्य तनरंग की बंदिशें' प्रकाशित हुई है। .

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वैदिक व्याकरण

संस्कृत का सबसे प्राचीन (वेदकालीन) व्याकरण 'वैदिक व्याकरण' कहलाता है। यह पाणिनीय व्याकरण से कुछ भिन्न था। .

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वैराग्य

वैराग्य, हिन्दू, बौद्ध तथा जैन आदि दर्शनों में प्रचलित प्रसिद्ध अवधारणा है जिसका मोटा अर्थ संसार की उन वस्तुओं एवं कर्मों से विरत होना है जिसमें सामान्य लोग लगे रहते हैं। 'वैराग्य', वि+राग से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ राग से विलग होना है। वैराग्य का अर्थ है, खिंचाव का अभाव। वैराग्य के सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि ने कहा है— .

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खट

खट भारतीय संगीत के एक राग का नाम है। इस राग में ऋषभ, धैवत, निषाद और शुद्ध और कोमल दोनों ही लगते हैं। गंधार केवल कोमल लगता है। षड्ज व पंचम ये दोनों स्वर अचल हैं। तीसरा स्वर मध्यम और शुद्ध लगता है। इसका वादी स्वर पंचम और संवादी षड्ज है। इसमें आसावरी, सुहा, कानड़ा, सारंग, देशी, गांधारी व सुघराई राग रागिनियों का मिश्रण भी है। इस कारण इसका गान सहज नहीं कहा जाता। इसे भैरव राग का पुत्र कहा गया है और प्रात: काल गेय है। .

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खमाच

खमाच भारतीय संगीत का एक राग है। यह संपूर्ण षाडव है। इसका वादी स्वर गांधार और संवादी निषाद है। आरोह में ऋषभ वर्जित है। निषाद शुद्ध, अवरोह कोमल और अन्य सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। यह राग शृंगारप्रधान है। इसके गाने का समय रात्रि का द्वितीय पहर बताया गया है। श्रेणी:भारतीय संगीत.

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खोकर

खोकर भारतीय संगीत का एक राग है। इसमें खमाच, बिहाग और बिलावल, तीन रागों का मिश्रण है। यह निषाद और कोमल मध्यम दोनों में ही गाया जाता है। श्रेणी:भारतीय संगीत.

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गन्धर्व वेद

गंधर्व वेद चार उपवेदों में से एक उपवेद है। अन्य तीन उपवेद हैं - आयुर्वेद, शिल्पवेद और धनुर्वेद। गन्धर्ववेद के अन्तर्गत भारतीय संगीत, शास्त्रीय संगीत, राग, सुर, गायन तथा वाद्य यन्त्र आते हैं। .

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गम्मक

गम्मक का मतलब है 'आलंकरण'। गम्मक का उप्योग भरतीय शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन मे पाया जाता है। गम्मक को 'गम्मका' और 'गम्मकम' के नाम से भी जाना जाता है। गम्मक हर उस संगीत स्वर को कहा जाता है जिस मे कोइ एक स्वर या स्वर समूह को गाते हुए या बजाते हुए एक सुन्दर पल्टा या वक्रता दिया जाता है, जो किसी राग के व्यक्तित्व को बढावा देता है। हर राग के अद्वितीय चरित्र के पीछे, उस मे प्रयोग किये गये गम्मकों का हाथ होता है। इसिलिये गम्मक केवल संगीत मे सजावट के लिये हि नहि है, वे भारतिय शास्त्र स्ंगीत मे अधिक आवश्यक भी है। लगभग हर एक संगीत निबन्ध मे गम्मकों के वर्णन के लिये एक अलग अनुभाग लिखा जाता है। .

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गायन

हैरी बेलाफोन्ट 1954 गायन एक ऐसी क्रिया है जिससे स्वर की सहायता से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न की जाती है और जो सामान्य बोलचाल की गुणवत्ता को राग और ताल दोनों के प्रयोग से बढाती है। जो व्यक्ति गाता है उसे गायक या गवैया कहा जाता है। गायक गीत गाते हैं जो एकल हो सकते हैं यानी बिना किसी और साज या संगीत के साथ या फिर संगीतज्ञों व एक साज से लेकर पूरे आर्केस्ट्रा या बड़े बैंड के साथ गाए जा सकते हैं। गायन अकसर अन्य संगीतकारों के समूह में किया जाता है, जैसे भिन्न प्रकार के स्वरों वाले कई गायकों के साथ या विभिन्न प्रकार के साज बजाने वाले कलाकारों के साथ, जैसे किसी रॉक समूह या बैरोक संगठन के साथ। हर वह व्यक्ति जो बोल सकता है वह गा भी सकता है, क्योंकि गायन बोली का ही एक परिष्कृत रूप है। गायन अनौपचारिक हो सकता है और संतोष या खुशी के लिये किया जा सकता है, जैसे नहाते समय या कैराओके में; या यह बहुत औपचारिक भी हो सकता है जैसे किसी धार्मिक अनुष्ठान के समय या मंच पर या रिकार्डिंग के स्टुडियो में पेशेवर गायन के समय। ऊंचे दर्जे के पेशेवर या नौसीखिये गायन के लिये सामान्यतः निर्देशन और नियमित अभ्यास आवश्यकता होती है। पेशेवर गायक सामान्यतः किसी एक प्रकार के संगीत में अपने पेशे का निर्माण करते हैं जैसे शास्त्रीय या रॉक और आदर्श रूप से वे अपने सारे करियर के दौरान किसी स्वर-अध्यापक या स्वर-प्रशिक्षक की सहायता से स्वर-प्रशिक्षण लेते हैं। .

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गीत बैठकी

गीत बैठकी खड़ी होली या गीत बैठकी उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में होली के अवसर पर आयोजित की जाती हैं। यहाँ नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं। इस रंग में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बरसाने की लठमार होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। वसंत के आगमन पर हर ओर खिले फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम दर्शनीय होता है। शाम के समय कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। गीत बैठकी में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। गीत बैठकी में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये परंपरा मात्र संगीत सम्मेलन नहीं बल्कि एक संस्कार भी है। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी...या ऐसी होली खेले जनाब अली...जैसी ठुमरियाँ गई जाती हैं। गीत बैठकी की महिला महफ़िलें भी होती हैं। पुरूष महफिलों में जहाँ ठुमरी और ख़याल गाए जाते हैं वहीं महिलाओं की महफिलों का रुझान लोक गीतों की ओर होता है। इनमें नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े गी तो होते ही हैं राजनीति और प्रशासन पर व्यंग्य भी होता है। होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है।” इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने होली बैठकी के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है। वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है। राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियाँ यहाँ ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहाँ के रीति रिवाज भी साथ लाईं। ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं। यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ पाए जाते हैं।” .

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गीतरामायण

गीतरामायण रामायण के प्रसंगों पर आधारित ५६ मराठी गीतों का संग्रह है। यह आकाशवाणी पुणे से सन् १९५५-५६ में प्रसारित किया गया था। इसके लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार गजानन दिगंबर माडगूलकर थे तथा इसे सुधीर फड़के ने संगीतबद्ध किया था। यह अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ था और बाद में इसके पाँच हिन्दी अनुवाद एवं एक-एक बंगला, अंग्रेजी, गुजराती, कन्नड, कोंकणी, संस्कृत, सिन्धी तथा तेलुगू अनुवाद भी आए। यह ब्रेल लिपि में भी लिप्यन्तरित किया गया है। .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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आबिदा परवीन

आबिदा परवीन (जन्म 20 फ़रवरी 1954), पाकिस्तान से दुनिया के सबसे बड़े सूफी गायकों में से एक, संगीतकार, चित्रकार और उद्यमी है। उसे अक्सर 'सूफी संगीत की रानी' कहा जाता है। सार्क द्वारा उन्हें 'शांति राजदूत' बनाया जा रहा है। वह लार्काणा में एक सिंधी सूफी परिवार में पैदा हुई और पली। उनके पिता गुलाम हैदर, एक प्रसिद्ध गायक और संगीत शिक्षक थे। उन्होंने उसे प्रशिक्षित किया। वह पंप आर्गन, कीबोर्ड और सितार बजाती है।1970 के दशक के शुरूआत में परवीन ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया और 1990 के दशक में वैश्विक प्रमुखता में आई। 1993 से, परवीन ने विश्व स्तर पर दौरे करना शुरू किया, जब उसने कैलिफ़ोर्निया के ब्यूना पार्क में अपना पहला अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यक्रम किया। परवीन पाकिस्तान के लोकप्रिय संगीत शो कोक स्टूडियो में भी आती हैं और वह दक्षिण एशिया प्रतियोगिता में सुर क्षेत्र पर एक जज रही हैं, जिसमें रूणा लैला और आशा भोसले के साथ आयशा टाकिया द्वारा होस्ट किया गया है। इसमें आतिफ असलम और हिमेश रेशमिया भी शामिल हैं। वह कई भारतीय और पाकिस्तानी संगीत रियलिटी शो में प्रकाशित हुई थी जिसमें पाकिस्तान आइडोल, छोटे उस्ताद और स्टार वॉयस ऑफ इंडिया शामिल हैं। सूफी सनसनी होने के कारण वह दुनिया के 500 सबसे प्रभावशाली मुसलमानों में से एक है। अपने दर्शकों में हिस्टीरिया को प्रेरित करने की शक्ति के साथ परवीन एक "ग्लोबल मिस्टिक सूफी एंबेसडर" है। परवीन को दुनिया के सबसे महान रहस्यवादी गायकों में से एक के रूप में जाना जाता है। वह, मुख्य रूप से गजल, ठुमरी, ख़याल, कव्वाली, राग, सूफी रॉक, शास्त्रीय, अर्द्ध-शास्त्रीय संगीत ख़याल गाती है और एक एकल शैली के साथ तबला और हारमोनियम का उपयोग कर सूफी कवियों की शाइरी को लेकर काफ़ी गायन उस की ख़ास ख़ास ताकत है। परवीन उर्दू, सिंधी, सरायकी, पंजाबी, अरबी और फारसी में गाती है। नेपाल में काठमांडू में एक संगीत कार्यक्रम जिसमें गोविंदा ने भाग लिया था, में नेपाली गायक तारा देवी के नेपाली भाषा में एक प्रसिद्ध गीत "उकली ओरारी हारुमा" को भी उसने गाया था। परवीन को अपने गीतों  एल्बम राक-ए-बिस्मिल से यार को हमने, बुलेह शाह की कविता तेरे इश्क नाचाया  का गायन बेहद ज़ोर की आवाज से करने के लिए सबसे बिहतर जाना जाता है।  पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक पुरस्कार हिलाल-ए-इम्तियाज़ उसको 2012 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया। .

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आशवरी

आशवरी रागिनी, १६१० ई (रागमाला पेंटिंग्स) आसावरी (या, आसावरी) प्राचीन भारतीय संगीताचार्यों के अनुसार राग 'श्री' की एक प्रमुख रागिनी। ऋतु, समय और भावादि का वैज्ञानिक विश्लेषण करके प्रमुख 132 प्रकार के राग-रागिनियों की कल्पना की गई थी किंतु आधुनिक विद्वानों ने यह विभेद हटाकर सबको राग की ही संज्ञा दी है। आशावरी वियोगशृंगार की रागिनी (राग) है और इसके गायन का समय दिन का द्वितीय प्रहर है। इसका लक्षण 'रागप्रकाशिका' नामक ग्रंथ (सन्‌ 1899 ई.) में यों दिया है:;पीतम के बिरहा भरी, इत उत डोलत धाय।;ढूंढ़त भूतल शैल बन, कर मल मल पछिताय॥ अशावरी रागिनी के जो चित्र उपलब्ध हैं उनमें अपना जातीय परिधान पहने एक युवती बैठी सर्पों से खेल रही है और सामने दो बीनकार बैठे बीन बजा रहे हैं। .

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कटपयादि संख्या

कटपयादि संख्या कर्नाटक संगीत में मेलापक राग की संख्या ज्ञात करने के काम आती है। इसके लिये राग के नाम के प्रथम दो सिलैबल्स के संगत कटपयादि संख्या निकालनी पड़ती है। .

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कर्नाटक संगीत

300px कर्नाटक संगीत या संस्कृत में कर्णाटक संगीतं भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है, जो उत्तरी भारत की शैली हिन्दुस्तानी संगीत से काफी अलग है। कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है। जैसा कि आमतौर पर भारतीय संगीत मे होता है, कर्नाटक संगीत के भी दो मुख्य तत्व राग और ताल होता है। कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिंदुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की 'त्रिमूर्ति' कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं। .

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काफ़ी राग

यह राग काफी थाट से निकलता है। इसमें ः?ग"' और ः?नी"' कोमल वाकी सब शुद्ध स्वर लगते हैं। वादी स्वर ः?प"' और सम्वादी ः?स"' माना जाता है। इसकी जाति सम्पूर्ण मानी जाती है। इस राग में होली के गीत बहुत गाये जाते हैं। ठुमरी भी गाई जाती है। गाने बजाने का समय रात का दूसरा प्रहर, कुछ संगीतज्ञ मध्य रात्रि भी मानते हैं। आरोह--स रे ज्ञ म प ध ड सं। अवरोह--सं ड ध प म ज्ञ रे सा। पकड़--स स रे रे, ज्ञ ज्ञ, म म प। .

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काफी राग

काफी राग हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग हैं। पंडित विष्णू नारायण भातखंडे के वर्गीकरण में, यह राग काफी थाट में है। .

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कुमाऊँनी होली

उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग तरह से मनाया जाता है, जिसे कुमाऊँनी होली कहते हैं। कुमाऊँनी होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह कुमाऊँनी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है, क्योंकि यह केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का ही नहीं, बल्कि पहाड़ी सर्दियों के अंत का और नए बुआई के मौसम की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो इस उत्तर भारतीय कृषि समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। होली का त्यौहार कुमाऊँ में बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है। कुमाऊँनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली। इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह उत्सव लगभग २ महीनों तक चलता है। .

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कुरमाली लोक-गीत

कुरमाली समाज में लोकगीतों का बाहुल्य है। आज भी ये गीत लोक-मुख में जीवित हैं। कुरमाली गीतों की परंपरा अति प्राचीन है। कोई भी अनुष्ठान गीत एवं नृत्य के बिना संपन्न नहीं होता। अधिकांश गीत नृत्यगीत हैं। गीत अत्यंत सरस और मर्मस्पर्शी है। राग के द्वारा ही गीतों के पार्थक्य और वैशिष्ट्य को समझा जा सकता है। कुरमाली जीवन के हरेक पहलू, विविध दृष्टिकोण और बहुआयामी विचार-धाराओं को कुरमाली लोकगीत संस्पर्श करता है। कुरमाली लोक-गीतों की प्रमुख विशेषता यह है कि अधिकांश गीत प्रश्नोत्तर के रूप में हैं। ये छंद-विधान के नियम से पूर्णतः मुक्त हैं। इसके अपने छंद हैं जो गेय हैं। गीतों के लय द्वारा ही शैलीगत तत्व को पहचाना जा सकता है। कहीं-कहीं स्वतः अलंकारो का प्रयोग हुआ है। कुरमाली लोकगीतों को कई वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:- (क) संस्कार-गीत, (ख) ऋतु-गीत, (ग) देवी-देवताओं के गीत, (घ) श्रम-गीत, (ड) खेल-गीत, (च) जाती-गीत, (छ) प्रबंध गीत आदि। .

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केतकी

केतकी का झाड़ केतकी एक छोटा सुवासित झाड़। इसकी पत्तियाँ लंबी, नुकीली, चपटी, कोमल और चिकनी होती हैं जिसके किनारे और पीठ पर छोटे छोटे काँटे होते हैं। यह दो प्रकार की होती है। एक सफेद, दूसरी पीली। सफेद केतकी को लोग प्राय: 'केवड़ा' के नाम से जानते और पहचानते हैं और पीली अर्थात्‌ सुवर्ण केतकी को ही केतकी कहते हैं। बरसात में इसमें फूल लगते हैं जो लंबे और सफेद होते है और उसमें तीव्र सुगंध होती है। इसका फूल बाल की तरह होता है और ऊपर से लंबी पत्तियों से ढका रहता है। इसके फूल से इत्र बनाया और जल सुगंधित किया जाता है। इससे कत्थे को भी सुवासित करते हैं। केवड़े का प्रयोग केशों के दुर्गंध दूर करने के लिए किया जाता है। प्रवाद है कि इसके फूल पर भ्रमर नहीं बैठते और शिव पर नहीं चढ़ाया जाता। इसकी पत्तियों की चटाइयाँ, छाते और टोपियाँ बनती हैं। इसके तने से बोतल बंद करने वाला काग बनाए जाते हैं। कहीं कहीं लोग इसकी नरम पत्तियों का साग भी बनाकर खाते हैं। वैद्यक में इसके शाक को कफनाशक बताया गया है। ---- (2) संगीत से संबंधित एक रागिनी का नाम। .

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केदार राग

यह राग कल्याण थाट से निकलता है। इसमें शुद्ध व तीव्र दोनों ः?म"' लगाये जाते है। इसके आरोह में ः?रे"' और ः?ग"' को नहीं लगाते और अवरोह में ः?ग"' नहीं लगाते इसलिये इसकी जाति औडव-षाडव मानी जाती है। वादी स्वर ः?म"' और सम्वादी स्वर ः?स"' माना जाता है। गाने बजाने का समय रात का पहला प्रहर है। आरोह - स म म प ध प नी ध सं। अवरोह--सं नी ध प श प ध प म ग म रे स। पकड़--स म म प ध प म रे स। .

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अन्नामाचार्य

श्री तल्लापाका अन्नामाचार्य (శ్రీ తాళ్ళపాక అన్నమాచార్య) या सीधे अन्नामाचार्य (मई 9, 1408- फरवरी 23, 1503) एक तेलुगु संत कवि और कर्नाटक संगीत रचयिता थे। वे दक्षिण भारत के पहले संगीतज्ञ थे जिन्होंने ''संकीर्तन'' की रचना की। उन्होंने तिरूमाला सात पर्वतों के देवता भगवान वेंकटेश्वर की स्तुति में अनेक भजनों की रचना की। तेलुगु भाषा भाषी उनको पद-कविता का पितामह मानते हैं।.

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अल्हैयाबिलावल

यह राग बिलावल थाट से निकलता है। इसमें सब स्वर शुद्ध लगते हैं। केवल अवरोह में थोड़ा कोमल ः?नी"' लगाया जाता है। आरोह में ः?म"' छोड़ देते हैं, इसलिये इस राग की जाति षाडव-संपूर्ण मानी जाती है। वादी ः?ध'" और सम्वादी ः?ग"' माना जाता है। गाने-बजाने का समय सुबह का पहला प्रहर माना जाता है। आरोह--स रे ग रे ग प ध नी ध, नी सं। अवरोह--सं नी ध, प, ध ड ध प, म ग म रे, स। पकड़--ग रे, ग प, ध नी सं। .

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ऋग्वैदिक भाषा

उत्तर वैदिक काल से पहले का वह काल जिसमें ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना हुई थी इन ऋचाओं की जो भाषा थी वो ऋग्वैदिक भाषा कहलाती है। ऋग्वैदिक भाषा हिंद यूरोपीय भाषा परिवार की एक भाषा है। इसकी परवर्ती पुत्री भाषाएँ अवेस्ता पुरानी फ़ारसी पालि प्राकृत और संस्कृत हैँ। .

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