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मिथिला

सूची मिथिला

'''मिथिला''' मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। माना जाता है कि यह वर्तमान उत्तरी बिहार और नेपाल की तराई का इलाका है जिसे मिथिला के नाम से जाना जाता था। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये भारत और भारत के बाहर जानी जाती रही है। इस क्षेत्र की प्रमुख भाषा मैथिली है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका संकेत शतपथ ब्राह्मण में तथा स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिलता है। मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है। .

108 संबंधों: झा, झिझिया, तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य, तक्षशिला, तीर्थंकर, दरभंगा, दरभंगा राज, दरभंगा जिला, दायभाग, धनुषयज्ञ, धनुषा जिला, नमिनाथ, निमि, नवटोल, सरिसबपाही, नव्य न्याय, पटना, पद्मनाभदत्त, पश्चिमी चंपारण, पंजी (मिथिला), प्राचीन भारतीय शिक्षा, पूर्वी चंपारण, बनगाँव (बिहार ), बाघा कुसमार, बांसी नदी, बिहार, बिहार का मध्यकालीन इतिहास, ब्रजबुलि, भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ, भारत के क्षेत्र, भारतीय चित्रकला, भारतीय नैयायिक, भारतीय राजनय का इतिहास, भारतीय शिक्षा का इतिहास, भारतीय संगीत का इतिहास, भागवत पुराण, भृङ्गदूतम्, मधुबनी, मधुबनी चित्रकला, मधुसूदन ओझा, मधेपुरा जिला, महाभारत कालीन जनपद, मिथिला (प्राचीन), मिथिला के राजाओं की सूची, मुजफ्फरपुर, मैथिल ब्राह्मण, मैथिल संगीत, मैथिली चलचित्रपट, मैथिली भाषा, मैथिली साहित्य, मोतिहारी, ..., यशोवर्मन्, यज्ञफल, राम, राम कृष्ण महाविद्यालय, मधुबनी, रामायण, लिच्छवि, लिच्छवि (अधिराज्य), शिवहर, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीभार्गवराघवीयम्, श्रीसीतारामकेलिकौमुदी, समस्तीपुर, सहरसा, सुनयना, सुपौल, सौराठ सभा, सीता, सीता कुंड, सीतामढ़ी, सीतामढी, हाजीपुर, जनक, जनकपुर, जनकपुरधाम, जयस्थिति मल्ल, जैन धर्म का इतिहास, जैन धर्म के तीर्थंकर, वाचस्पति मिश्र, वाराणसी, वाराणसी का इतिहास, विद्यापति, विदेश्वरस्थान, विदेह वंश, वैदिक सभ्यता, वैशाली जिला, गणधर, गंगेश उपाध्याय, गौड़ सारस्वत ब्राह्मण, गौतम, गोरामानसिंह, गीतरामायणम्, आन्वीक्षिकी, आर्यावर्त, इक्ष्वाकु, कन्नौज, कापू (जाति), कामसूत्र, काशी का इतिहास, कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद, कैथी, कोहबर, अब्द, अरुन्धती (महाकाव्य), अष्टावक्र (महाकाव्य), अहिल्या स्थान, अक्रूर, उभयभारती, उर्वीजा सूचकांक विस्तार (58 अधिक) »

झा

एक भारतीय उपनाम। इसका प्रयोग मैथिल ब्राह्मण करते हैं। मैथिल ब्राह्मण पंचगौड़ ब्राह्मणों के अंतर्गत आते हैं और मूलतः मिथिला के निवासी होने के कारण मैथिल कहे जाते हैं। प्राचीन काल में मिथिला अलग राज्य था पर अब यह बिहार (उत्तरी) के अंतर्गत आता है। 'झा' शब्द संस्कृत भाषा के शब्द उपाध्याय का अपभ्रंश है। वैदिक काल में वैदिक शिक्षकों को उपाध्याय कहा जाता था। जिसे पालि में 'उवज्झा' कहा जाता था। यही 'उवज्झा' काल के उत्तरोत्तर प्रवाह में 'ओझा' से होते हुए घटकर केवल 'झा' रह गया। .

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झिझिया

झिझिया मिथिलांचल का एक प्रमुख लोक नृत्य है। दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। मिथिलांचल के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाली घड़ा को लेकर नाचती हैं। श्रेणी:बिहार के लोक नृत्य.

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तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य

तन्त्र साहित्य अत्यन्त विशाल है। प्राचीन समय के दुर्वासा, अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बृहस्पति, वशिष्ठ, नंदिकेश्वर, दत्तात्रेय आदि ऋषियों ने तन्त्र के अनेकों ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनका विवरण देना यहाँ अनावश्यक है। ऐतिहासिक युग में शंंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्य का नाम उल्लेखयोग्य है। उनके द्वारा रचित 'सुभगोदय स्तुति' एवं 'श्रीविद्यारत्न सूत्र' प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में तांत्रिक साधना एवं साहित्य रचना में जितने विद्वानों का प्रवेश हुआ था उनमें से कुछ विशिष्ट आचार्यो का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है- लक्ष्मणदेशिक: ये शादातिलक, ताराप्रदीप आदि ग्रथों के रचयिता थे। इनके विषय में यह परिचय मिलता है कि ये उत्पल के शिष्य थे। आदि शंकराचार्य: वेदांगमार्ग के संस्थापक सुप्रसिद्ध भगवान शंकराचार्य वैदिक संप्रदाय के अनुरूप तांत्रिक संप्रदाय के भी उपदेशक थे। ऐतिहासिक दृष्टि से पंडितों ने तांत्रिक शंकर के विषय में नाना प्रकार की आलोचनाएं की हैं। कोई दोनों को अभिन्न मानते हैं और कोई नहीं मानते हैं। उसकी आलोचना यहाँ अनावश्यक है। परंपरा से प्रसिद्ध तांत्रिक शंकराचार्य के रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं- किसी-किसी के मत में 'कालीकर्पूरस्तव' की टीका भी शंकराचार्य ने बनाई थी। पृथिवीधराचार्य अथवा 'पृथ्वीधराचार्य: यह शंकर के शिष्कोटि में थे। इन्होंने 'भुवनेश्वरी स्तोत्र' तथा 'भुवनेश्वरी रहस्य' की रचना की थी। भुवनेश्वरी स्तोत्र राजस्थान से प्रकाशित है। वेबर ने अपने कैलाग में इसका उल्लेख किया है। भुवनेश्वरी रहस्य वाराणसी में भी उपलब्ध है और उसका प्रकाशन भी हुआ है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी-अर्चन-पद्धति नाम से एक तीसरा ग्रंथ भी प्रसिद्ध है। चरणस्वामी: वेदांत के इतिहास में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। तंत्र में इन्होंने 'श्रीविद्यार्थदीपिका' की रचना की है। 'श्रीविद्यारत्न-सूत्र-दीपिका' नामक इनका ग्रंथ मद्रास लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इनका 'प्रपंच-सार-संग्रह' भी अति प्रसिद्ध ग्रंथ है। सरस्वती तीर्थ: परमहंस परिब्राजकाचार्य वेदांतिक थे। यह संन्यासी थे। इन्होंने भी 'प्रपंचसार' की विशिष्ट टीका की रचना की। राधव भट्ट: 'शादातिलक' की 'पदार्थ आदर्श' नाम्नी टीका बनाकर प्रसिद्ध हुए थे। इस टीका का रचनाकाल सं॰ 1550 है। यह ग्रंथ प्रकाशित है। राधव ने 'कालीतत्व' नाम से एक और ग्रंथ लिखा था, परंतु उसका अभी प्रकाशन नहीं हुआ। पुण्यानंद: हादी विद्या के उपासक आचार्य पुण्यानंद ने 'कामकला विलास' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उसकी टीका 'चिद्वल्ली' नाम से नटनानंद ने बनाई थी। पुण्यानंद का दूसरा ग्रंथ 'तत्वविमर्शिनी' है। यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। अमृतानंदनाथ: अमृतानदनाथ ने 'योगिनीहृदय' के ऊपर दीपिका नाम से टीकारचना की थी। इनका दूसरा ग्रंथ 'सौभाग्य सुभगोदय' विख्यात है। यह अमृतानंद पूर्ववर्णित पुणयानंद के शिष्य थे। त्रिपुरानंद नाथ: इस नाम से एक तांत्रिक आचार्य हुए थे जो ब्रह्मानंद परमहंस के गुरु थे। त्रिपुरानंद की व्यक्तिगत रचना का पता नहीं चलता। परंतु ब्रह्मानंद तथा उनके शिष्य पूर्णानंद के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। सुंदराचार्य या सच्चिदानंद: इस नाम से एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ था। यह जालंधर में रहते थे। इनके शिष्य थे विद्यानंदनाथ। सुंदराचार्य अर्थात् सच्चिदानंदनाथ की 'ललितार्चन चंद्रिका' एवं 'लधुचंद्रिका पद्धति' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। विद्यानंदनाथ का पूर्वनाम श्रीनिवास भट्ट गोस्वामी था। यह कांची (दक्षिण भारत) के निवासी थे। इनके पूर्वपुरुष समरपुंगव दीक्षित अत्यंत विख्यात महापुरुष थे। श्रीनिवास तीर्थयात्रा के निमित जालंधर गए थे और उन्होंने सच्चिदानंदनाथ से दीक्षा ग्रहण कर विद्यानंद का नाम धारण किया। गुरु के आदेश से काशी आकर रहने लगे। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- 'शिवार्चन चंद्रिका', 'क्रमरत्नावली', 'भैरवार्चापारिजात', 'द्वितीयार्चन कल्पवल्ली', 'काली-सपर्या-क्रम-कल्पवल्ली', 'पंचमेय क्रमकल्पलता', 'सौभाग्य रत्नाकर' (36 तरंग में),'सौभग्य सुभगोदय', 'ज्ञानदीपिका' और 'चतु:शती टीका अर्थरत्नावली'। सौभाग्यरत्नाकर, ज्ञानदीपिका और अर्थरत्नावली सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित हुई हैं। नित्यानंदनाथ: इनका पूर्वनाम नाराणय भट्ट है। उन्होंने दुर्वासा के 'देवीमहिम्न स्तोत्र' की टीका की थी। यह तन्त्रसंग्रह में प्रकाशित है। तन्त्रसंग्रह सम्पूर्णानन्दविश्वविद्यालय से प्रकाशित है। उनका 'ताराकल्पलता पद्धति' नामक ग्रंथ भी मिलता है। सर्वानंदनाथ: इनका नाम उल्लेखनीय है। यह 'सर्वोल्लासतंत्र' के रचयिता थे। इनका जन्मस्थान मेहर प्रदेश (बांग्लादेश) था। ये सर्वविद्या (दस महाविद्याओं) के एक ही समय में साक्षात् करने वाले थे। इनका जीवनचरित् इनके पुत्र के लिखे 'सर्वानंद तरंगिणी' में मिलता है। जीवन के अंतिम काल में ये काशी आकर रहने लगे थे। प्रसिद्ध है कि यह बंगाली टोला के गणेश मोहल्ला के राजगुरु मठ में रहे। यह असाधारण सिद्धिसंपन्न महात्मा थे। निजानंद प्रकाशानंद मल्लिकार्जुन योगीभद्र: इस नाम से एक महान सिद्ध पुरुष का पता चलता है। यह 'श्रीक्रमोत्तम' नामक एक चार उल्लास से पूर्ण प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। श्रीक्रमोत्तम श्रीविद्या की प्रासादपरा पद्धति है। ब्रह्मानंद: इनका नाम पहले आ चुका है। प्रसिद्ध है कि यह पूर्णनंद परमहंस के पालक पिता थे। शिक्ष एवं दीक्षागुरु भी थे। 'शाक्तानंद तरंगिणी' और'तारा रहस्य' इनकी कृतियाँ हैं। पूर्णानंद: 'श्रीतत्त्वचिंतामणि' प्रभृति कई ग्रंथों के रचयिता थे। श्रीतत्वचिन्तामणि का रचनाकाल 1577 ई॰ है। 'श्यामा अथवा कालिका रहस्य', 'शाक्त क्रम', 'तत्वानंद तरंगिणी', 'षटकर्मील्लास' प्रभृति इनकी रचनाएँ हैं। प्रसिद्ध 'षट्चक्र निरूपण', 'श्रीतत्वचितामणि' का षष्ठ अध्याय है। देवनाथ ठाकुर तर्कपंचानन: ये 16वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। इन्होंने 'कौमुदी' नाम से सात ग्रंथों की रचना की थी। ये पहले नैयायिक थे और इन्होंने 'तत्वचिंतामणि' की टीका आलोक पर परिशिष्ट लिखा था। यह कूचविहार के राजा मल्लदेव नारायण के सभापंडित थे। इनके रचित 'सप्तकौमुदी' में 'मंत्रकौमुदी' एवं 'तंत्र कौमुदी' तंत्रशास्त्र के ग्रंथ हैं। इन्होंने 'भुवनेश्वरी कल्पलता' नामक ग्रंथ की भी रचना की थी। गोरक्ष: प्रसिद्ध विद्वान् एवं सिद्ध महापुरुष थे। 'महार्थमंजरी' नामक ग्रंथरचना से इनकी ख्याति बढ़ गई थी। इनके ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं- "महार्थमंजरी' और उसकी टीका 'परिमल', 'संविदुल्लास', 'परास्तोत्र', 'पादुकोदय', 'महार्थोदय' इत्यादि। 'संवित्स्तोत्र' के नाम से गोरक्ष के गुरु का भी एक ग्रंथ था। गोरक्ष के गुरु ने 'ऋजु विमर्शिनी' और 'क्रमवासना' नामक ग्रंथों की भी रचना की थी। सुभगानंद नाथ और प्रकाशानंद नाथ: सुभगांनंद केरलीय थे। इनका पूर्वनाम श्रीकंठेश था। यह कश्मीर में जाकर वहाँ के राजगुरु बन गए थे। तीर्थ करने के लिये इन्होंने सेतुबंध की यात्रा भी की जहाँ कुछ समय नृसिंह राज्य के निकट तंत्र का अध्ययन किया। उसके बाद कादी मत का 'षोडशनित्या' अर्थात् तंत्रराज की मनोरमा टीका की रचना इन्होंने गुरु के आदेश से की। बाईस पटल तक रचना हो चुकी थी, बाकी चौदह पटल की टीका उनके शिष्य प्रकाशानंद नाथ ने पूरी की। यह सुभगानंद काशी में गंगातट पर वेद तथा तंत्र का अध्यापन करते थे। प्रकाशानंद का पहला ग्रंथ 'विद्योपास्तिमहानिधि' था। इसका रचनाकाल 1705 ई॰ है। इनका द्वितीय ग्रंथ गुरु कृत मनोरमा टीका की पूर्ति है। उसका काल 1730 ई॰ है। प्रकाशानंद का पूर्वनाम शिवराम था। उनका गोत्र 'कौशिक' था। पिता का नाम भट्टगोपाल था। ये त्र्यंबकेश्वर महादेव के मंदिर में प्राय: जाया करते थे। इन्होंने सुभगानंद से दीक्षा लेकर प्रकाशानंद नाम ग्रहण किया था। कृष्णानंद आगमबागीश: यह बंग देश के सुप्रसिद्ध तंत्र के विद्वान् थे जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'तंत्रसार' है। किसी किसी के मतानुसार ये पूर्णनंद के शिष्य थे परंतु यह सर्वथा उचित प्रतीत नहीं होता। ये पश्वाश्रयी तांत्रिक थे। कृष्णानंद का तंत्रसार आचार एवं उपासना की दृष्टि से तंत्र का श्रेष्ठ ग्रंथ है। महीधर: काशी में वेदभाष्यकार महीधर तंत्रशास्त्र के प्रख्यात पंडित हुए हैं। उनके ग्रंथ 'मन्त्रमहोदधि' और उसकी टीका अतिप्रसिद्ध हैं (रचनाकाल 1588 ई॰)। नीलकंठ: महाभारत के टीकाकार रूप से महाराष्ट्र के सिद्ध ब्रह्मण ग्रंथकार। ये तांत्रिक भी थे। इनकी बनाई 'शिवतत्वामृत' टीका प्रसिद्ध हैं। इसका रचनाकाल 1680 ई॰ है। आगमाचार्य गौड़ीय शंकर: आगमाचार्य गौड़ीय शंकर का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इनके पिता का नाम कमलाकर और पितामह का लंबोदर था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ तारा-रहस्य-वृत्ति और शिवार्च(र्ध)न माहात्म्य (सात अध्याय में) हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित और भी दो-तीन ग्रंथों का पता चलता है जिनकी प्रसिद्धि कम है। भास्कर राय: 18वीं शती में भास्कर राय एक सिद्ध पुरुष काशी में हो गए हैं जो सर्वतंत्र स्वतंत्र थे। इनकी अलौकिक शक्तियाँ थी। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- सौभाग्य भास्कर' (यह ललिता सहस्र-नाम की टीका है, रचनाकाल 1729 ई0) 'सौभाग्य चंद्रोदय' (यह सौभाग्यरत्नाकर की टीका है।) 'बरिबास्य रहस्य', 'बरिबास्यप्रकाश'; 'शांभवानंद कल्पलता'(भास्कर शाम्भवानन्दकल्पलता के अणुयायी थे - ऐसा भी मत है), 'सेतुबंध टीका' (यह नित्याषोडशिकार्णव पर टीका है, रचनाकाल 1733 ई॰); 'गुप्तवती टीका' (यह दुर्गा सप्तशती पर व्याख्यान है, रचनाकाल 1740 ई॰); 'रत्नालोक' (यह परशुराम 'कल्पसूत्र' पर टीका है); 'भावनोपनिषद्' पर भाष्य प्रसिद्ध है कि 'तंत्रराज' पर भी टीका लिखी थी। इसी प्रकार 'त्रिपुर उपनिषद्' पर भी उनकी टीका थी। भास्कर राय ने विभिन्न शास्त्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे थे। प्रेमनिधि पंथ: इनका निवास कूर्माचल (कूमायूँ) था। यह घर छोड़कर काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के उपासक थे। थोड़ी अवस्था में उनकी स्त्री का देहांत हुआ। काशी आकर उन्होंने बराबर विद्यासाधना की। उनकी 'शिवतांडव तंत्र' की टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ। उन्होने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी थीं। प्रसिद्व है कि प्राणमंजरी ने 'सुदर्शना' नाम से अपने पुत्र सुदर्शन के देहांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह तंत्रराज की टीका है। प्रेमनिधि ने 'शिवतांडव' टीका ' मल्लादर्श', 'पृथ्वीचंद्रोदय' और 'शारदातिलक' की टीकाएँ लिखी थीं। उनके नाम से 'भक्तितरंगिणी', 'दीक्षाप्रकाश' (सटीक) प्रसिद्ध है। कार्तवीर्य उपासना के विषय में उन्होंने 'दीपप्रकाश नामक' ग्रथ लिखा था। उनके 'पृथ्वीचंद्रोदय' का रचनाकाल 1736 ई॰ है। कार्तवीर्य पर 'प्रयोग रत्नाकर' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है। 'श्रीविद्या-नित्य-कर्मपद्धति-कमला' तंत्रराज से संबंध रखता है। वस्तुत: यह ग्रंथ भी प्राणमंजरी रचित है। उमानंद नाथ: यह भास्कर राय के शिष्य थे और चोलदेश के महाराष्ट्र राजा के सभापंडित थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 1.

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तक्षशिला

तक्षशिला में प्राचीन बौद्ध मठ के भग्नावशेष तक्षशिला (पालि: तक्कसिला) प्राचीन भारत में गांधार देश की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ का विश्वविद्यालय विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में शामिल है। यह हिन्दू एवं बौद्ध दोनों के लिये महत्व का केन्द्र था। चाणक्य यहाँ पर आचार्य थे। ४०५ ई में फाह्यान यहाँ आया था। ऐतिहासिक रूप से यह तीन महान मार्गों के संगम पर स्थित था- (१) उत्तरापथ - वर्तमान ग्रैण्ड ट्रंक रोड, जो गंधार को मगध से जोड़ता था, (२) उत्तरपश्चिमी मार्ग - जो कापिश और पुष्कलावती आदि से होकर जाता था, (३) सिन्धु नदी मार्ग - श्रीनगर, मानसेरा, हरिपुर घाटी से होते हुए उत्तर में रेशम मार्ग और दक्षिण में हिन्द महासागर तक जाता था। वर्तमान समय में तक्षशिला, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील तथा महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है जो इस्लामाबाद और रावलपिंडी से लगभग ३२ किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। ग्रैंड ट्रंक रोड इसके बहुत पास से होकर जाता है। यह स्थल १९८० से यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में सम्मिलित है। वर्ष २०१० की एक रिपोर्ट में विश्व विरासत फण्ड ने इसे उन १२ स्थलों में शामिल किया है जो अपूरणीय क्षति होने के कगार पर हैं। इस रिपोर्ट में इसका प्रमुख कारण अपर्याप्त प्रबन्धन, विकास का दबाव, लूट, युद्ध और संघर्ष आदि बताये गये हैं। .

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तीर्थंकर

जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की हो)। तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे "तीर्थ" (पायाब), एक जैन समुदाय के संस्थापक हैं, जो "पायाब" के रूप में "मानव कष्ट की नदी" को पार कराता है। .

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दरभंगा

भारत प्रान्त के उत्तरी बिहार में बागमती नदी के किनारे बसा दरभंगा एक जिला एवं प्रमंडलीय मुख्यालय है। दरभंगा प्रमंडल के अंतर्गत तीन जिले दरभंगा, मधुबनी, एवं समस्तीपुर आते हैं। दरभंगा के उत्तर में मधुबनी, दक्षिण में समस्तीपुर, पूर्व में सहरसा एवं पश्चिम में मुजफ्फरपुर तथा सीतामढ़ी जिला है। दरभंगा शहर के बहुविध एवं आधुनिक स्वरुप का विकास सोलहवीं सदी में मुग़ल व्यापारियों तथा ओईनवार शासकों द्वारा विकसित किया गया। दरभंगा 16वीं सदी में स्थापित दरभंगा राज की राजधानी था। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर विख्यात रहा है। इसके अलावा यह जिला आम और मखाना के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। .

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दरभंगा राज

दरभंगा राज बिहार के मिथिला क्षेत्र में लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में था। इसका मुख्यालय दरभंगा शहर था। इस राज की स्थापना मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने 16वीं सदी की शुरुआत में की थी। ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। भारत के रजवाड़ों में दरभंगा राज का अपना खास ही स्थान रहा है। दरभंगा-महाराज खण्डवाल कुल के थे जिसके शासन-संस्थापक महेश ठाकुर थे। उनकी अपनी विद्वता, उनके शिष्य रघुनन्दन की विद्वता तथा महाराजा मानसिंह के सहयोग से अकबर द्वारा उन्हें राज्य की प्राप्ति हुई थी। दरभंगा दुर्ग का प्रवेश-द्वार 1.महेश ठाकुर - 1556-1569 ई. तक। इनकी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के भउर (भौर) ग्राम में थी, जो मधुबनी से करीब 10 मील पूरब लोहट चीनी मिल के पास है। 2.गोपाल ठाकुर - 1569-1581 तक। इनके काशी-वास ले लेने के कारण इनके अनुज परमानन्द ठाकुर गद्दी पर बैठे। 3.परमानन्द ठाकुर - (इनके पश्चात इनके सौतेले भाई शुभंकर ठाकुर सिंहासन पर बैठे।) 4.शुभंकर ठाकुर - (इन्होंने अपने नाम पर दरभंगा के निकट शुभंकरपुर नामक ग्राम बसाया।) इन्होंने अपनी राजधानी को मधुबनी के निकट भउआरा (भौआरा) में स्थानान्तरित किया। 5.पुरुषोत्तम ठाकुर - (शुभंकर ठाकुर के पुत्र) - 1617-1641 तक। 6.सुन्दर ठाकुर (शुभंकर ठाकुर के सातवें पुत्र) - 1641-1668 तक। 7.महिनाथ ठाकुर - 1668-1690 तक। ये पराक्रमी योद्धा थे। इन्होंने मिथिला की प्राचीन राजधानी सिमराओं परगने के अधीश्वर सुगाओं-नरेश गजसिंह पर आक्रमण कर हराया था। 8.नरपति ठाकुर (महिनाथ ठाकुर के भाई) - 1690-1700 तक। 9.राजा राघव सिंह - 1700-1739 तक। (इन्होंने 'सिंह' की उपाधि धारण की।) इन्होंने अपने प्रिय खवास वीरू कुर्मी को कोशी अंचल की व्यवस्था सौंप दी थी। शासन-मद में उसने अपने इस महाराज के प्रति ही विद्रोह कर दिया। महाराज ने वीरतापूर्वक विद्रोह का शमन किया तथा नेपाल तराई के पँचमहाल परगने के उपद्रवी राजा भूपसिंह को भी रण में मार डाला। इनके ही कुल के एक कुमार एकनाथ ठाकुर के द्वेषवश उभाड़ने से बंगाल-बिहार के नवाब अलीवर्दी खाँ इन्हें सपरिवार बन्दी बनाकर पटना ले गया तथा बाद में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को कर निर्धारित कर मुक्त कर दिया। माना गया है कि इसी कारण मिथिला में यह तिथि पर्व-तिथि बन गयी और इस तिथि को कलंकित होने के बावजूद चन्द्रमा की पूजा होने लगी। मिथिला के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र कहीं चौठ-चन्द्र नहीं मनाया जाता है। यदि कहीं है तो मिथिलावासी ही वहाँ रहने के कारण मनाते हैं। 10.राजा विसुन(विष्णु) सिंह - 1739-1743 तक। 11.राजा नरेन्द्र सिंह (राघव सिंह के द्वितीय पुत्र) - 1743-1770 तक। इनके द्वारा निश्चित समय पर राजस्व नहीं चुकाने के कारण अलीवर्दी खाँ ने पहले पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवाया। यह युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगदुआर घाट होते हुए झंझारपुर के पास कंदर्पी घाट के पास हुआ था। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। तब नरहण राज्य के द्रोणवार ब्राह्मण-वंशज राजा अजित नारायण ने महाराजा का साथ दिया था तथा लोमहर्षक युद्ध किया था। इन युद्धों में महाराज विजयी हुए पर आक्रमण फिर हुए। 12.रानी पद्मावती - 1770-1778 तक। 13.राजा प्रताप सिंह (नरेन्द्र सिंह का दत्तक पुत्र) - 1778-1785 तक। इन्होंने अपनी राजधानी को भौआरा से झंझारपुर में स्थानान्तरित किया। 14.राजा माधव सिंह (प्रताप सिंह का विमाता-पुत्र) - 1785-1807 तक। इन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से हटाकर दरभंगा में स्थापित की। लार्ड कार्नवालिस ने इनके शासनकाल में जमीन की दमामी बन्दोबस्ती करवायी थी। 15.महाराजा छत्र सिंह - 1807-1839 तक। इन्होंने 1814-15 के नेपाल-युद्ध में अंग्रेजों की सहायता की थी। हेस्टिंग्स ने इन्हें 'महाराजा' की उपाधि दी थी। 16.महाराजा रुद्र सिंह - 1839-1850 तक। 17.महाराजा महेश्वर सिंह - 1850-1860 तक। इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। कोलकाता के डलहौजी चौक पर '''लक्ष्मीश्वर सिंह''' की प्रतिमा 18.महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह - 1880-1898 तक। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रमेश्वर सिंह इनके अनुज थे। 19.महाराजाधिराज रमेश्वर सिंह - 1898-1929 तक। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से 'महाराजाधिराज' का विरुद दिया गया तथा और भी अनेक उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर में इन्होंने विशाल एवं भव्य राजप्रासाद तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। यहाँ का सबसे भव्य भवन (नौलखा) 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्चिटेक डाॅ.

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दरभंगा जिला

उत्तरी बिहार में दरभंगा प्रमंडल के अन्तर्गत दरभंगा एक जिला है। जिले तथा प्रमंडल का मुख्यालय दरभंगा शहर में है। समझा जाता है कि दरभंगा शब्द फारसी भाषा के दर-ए-बंग यानि बंगाल का दरवाजा का मैथिली में कई सालों तक चलनेवाले स्थानीयकरण का परिणाम है। सन 1875 में तिरहुत से अलग कर दरभंगा को जिला बनाया गया था। मिथिला क्षेत्र का यह जिला अपनी प्राचीन संस्कृति, संस्कृत और बौद्धिक परंपरा के लिये विख्यात रहा है। मिथिला संस्कृति का केंद्र रहा यह जिला आम, मखाना मछली तथा मिथिला पेंटिंग के लिए भी प्रसिद्ध है। .

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दायभाग

दायभाग जीमूतवाहनकृत एक प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ है जिसके मत का प्रचार बंगाल में है। 'दायभाग' शाब्दिक अर्थ है, पैतृक धन का विभाग अर्थात् बाप दादे या संबंधी की संपत्ति के पुत्रों, पौत्रों या संबंधियों में बाँटे जाने की व्यवस्था। बपौती या वरासत की मिलाकियत को वारिसों या हकदारों में बाँटने का कायदा कानून। .

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धनुषयज्ञ

धनुषयज्ञ का आयोजन मिथिला के नरेश जनक ने अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर के हेतु किया था। श्रेणी:रामायण श्रेणी:यज्ञ.

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धनुषा जिला

जनकपुर में स्वयंबर के दौरान भगवान राम के द्वारा शिव धनुष तोड़ने से संबंधित रवी वर्मा की पेंटिंग यह नेपाल के जनकपुर प्रान्त का एक जिला है। यह हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। .

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नमिनाथ

नमिनाथ जी जैन धर्म के इक्कीसवें तीर्थंकर हैं। उनका जन्म मिथिला के इक्ष्वाकु वंश में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अश्विनी नक्षत्र में हुआ था। इनकी माता का नाम विप्रा रानी देवी और पिता का राजा विजय था। .

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निमि

निमि, मिथिला के प्रथम राजा थे। वे मनु के पौत्र तथा इक्ष्वाकु के पुत्र थे। निमि ने वसिष्ठ को ऋत्विक बनाना चाहा पर वसिष्ठ खाली नहीं थे। अत: दूसरों के आचार्यत्व में यज्ञ कराना आरंभ किया। वसिष्ठ ने इससे क्रुद्ध होकर निमि के देह का पात होने का शाप दे दिया। इस देह के मंथन से जनक की उत्पत्ति हुई और निमि स्वयं विदेह (देह रहित) होकर प्राणियों की पलकों में निवास करने लगे। संस्कृत में 'निमि' का अर्थ 'पलक' होता है। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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नवटोल, सरिसबपाही

नवटोल, सरिसब-पाही (पश्चिमी) पंचायत, भारतीय राज्य बिहार के मधुबनी जिले में पंडौल प्रखंड में स्थित एक छोटा सा गाँव है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 57 गंगौली चौक से 1.5 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। यह गाँव 26° 14'13.43" N 86° 09'12.59" E पर स्थित है। इसकी कुल जनसंख्या लगभग 9000 से 10,000 के बीच है। इस गाँव में मैथिली, हिन्दी, अंग्रेजी जानने वाले व लिखने-पढ़ने वाले लोग और मैथिली यहाँ की मुख्य भाषा है। यहाँ की लिपि, देवनागरी एव्ं मिथिलाक्षर(तिरहुता) है। यहाँ एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय है, यह एक संकुल संसाधन केन्द्र भी है। इस गाँव में होने वाले प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र का आयोजन काफी प्राचीन है। नवटोल में दुर्गा पूजा १८४० ई० से प्रतिवर्ष आश्विन में मनाया जाता है। आरती के समय होने वाले विशिष्ट श्रृंगार .

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नव्य न्याय

नव्य न्याय, भारतीय दर्शन का एक सम्प्रदाय (school) है जो मिथिला के दार्शनिक गंगेश उपाध्याय द्वारा तेरहवीं शती में प्रतिपादित किया गया। इसमें पुराने न्याय दर्शन को ही आगे बढ़ाया गया है। वाचस्पति मिश्र तथा उदयन (१०वीं शती की अन्तिम बेला) आदि का भी इस दर्शन के विकास में प्रभाव है। गंगेश उपाध्याय ने श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्यम् नामक पुस्तक के विचारों के विरोध में अपनी पुस्तक तत्वचिन्तामणि की रचना की। खण्डनखण्डखाद्यम् में अद्वैत वेदान्त का समर्थन एवं न्याय दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों का खण्डन किया गया था। .

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पटना

पटना (पटनम्) या पाटलिपुत्र भारत के बिहार राज्य की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। अपने आप में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। पटना बिहार राज्य की राजधानी है और गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है। जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला यह शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है। प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यंत ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के १०वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोबिंद सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमंदिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। एतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केंद्र है। दीवालों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, जिसे पटना सिटी के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र है। .

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पद्मनाभदत्त

आचार्य पद्मनाभदत्त एक वैयाकरण थे। पाणिनि के उत्तरवर्ती वैयाकरणों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा रचित 'सुपद्मव्याकरण' का व्याकरण ग्रन्थों में स्थान महत्त्वपूर्ण है। सुपद्मव्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुकरण पर रचित एक लक्षण ग्रन्थ है। यह व्याकरण बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में, विशेषकर बंगाल निवासियों के भाषाज्ञान के लिए लिखा है। पद्मनाभदत्त ने बंग प्रान्तीयों के लिए संस्कृत व्याकरण की जटिलता को दूर करके, सुगम्य बनाने के लिए बंगाली लिपि में सुपद्मव्याकरण की रचना की। इन्हों ने केवल व्याकरणिक ग्रन्थों का ही प्रणयन नहीं किया बल्कि साहित्यिक ग्रन्थों की भी रचना की। पद्मनाभदत्त का प्रमुख उद्देश्य संस्कृत व्याकरण का स्पष्ट तथा सरलतम ढंग से ज्ञान कराना तथा भाषा के विकास में आए नए-नए शब्दों का संस्कृतिकरण करना था, जो आज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। .

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पश्चिमी चंपारण

चंपारण बिहार के तिरहुत प्रमंडल के अंतर्गत भोजपुरी भाषी जिला है। हिमालय के तराई प्रदेश में बसा यह ऐतिहासिक जिला जल एवं वनसंपदा से पूर्ण है। चंपारण का नाम चंपा + अरण्य से बना है जिसका अर्थ होता है- चम्‍पा के पेड़ों से आच्‍छादित जंगल। बेतिया जिले का मुख्यालय शहर हैं। बिहार का यह जिला अपनी भौगोलिक विशेषताओं और इतिहास के लिए विशिष्ट स्थान रखता है। महात्मा गाँधी ने यहीं से अंग्रेजों के खिलाफ नील आंदोलन से सत्याग्रह की मशाल जलायी थी। .

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पंजी (मिथिला)

मिथिला (भारत और नेपाल दोनों में) के ब्राह्मण एवं कर्ण कायस्थ समुदायों की लिखित वंशावली को पंजी या पंजी प्रबन्ध कहते हैं। यह हरिद्वार में प्रचलित हिन्दू वंशावली जैसी ही है। पंजीप्रथा का आरम्भ सातवीं सदी में हुआ। इसके अंतर्गत लोगों का वंशवृक्ष रखा जाता था। विवाह के समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वर पक्ष से सात पीढ़ी और वधू पक्ष से छह पीढ़ी तक उत्पत्ति एक हो। प्रारंभ में यह कंठस्थ था। बाद में स्थानीय स्तर पर कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने इसका विवरण रखना शुरू किया। प्रारंभिक छह-सात सौ वर्षों तक यह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हुआ था। 1326 ई. में मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के शासनकाल में इसे औपचारिक रूप से लिपिबद्ध और संग्रहित किया गया। इसके लिए उन्होंने रघुनंदन राय नामक एक ब्राह्मण काे गांव-गांव भेजा। उन्होंने स्थानीय लोगों से बात कर उनके वंशवृक्ष के बारे में जानकारी एकत्र की और उसे लिपिबद्ध किया। बाद में भी इसे पीढ़ी दर पीढ़ी अद्यतन किया जाता रहा और अब तक यह कार्य चल रहा है। पंजी में 1700 गांवों की चर्चा है। इसमें 180 मूल वास स्थान हैं, जहां आदि पूर्वजों का जन्म हुआ। 1520 मूलक ग्रामों का उल्लेख है, जहां मूल वास स्थान से स्थानांतरित होने के बाद उनके पूर्वज जाकर बसे। मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के समय मैथिल ब्राह्मणों के साथ साथ उस क्षेत्र में रहनेवाले कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, वैश्य वर्ण में शामिल कुछ जातियों के भी पंजी बनने का उल्लेख मिलता है। बाद में अद्यतन नहीं करने के कारण विवाह में इनका उपयोग नहीं हो पाता था जिससे अधिकांश पंजियां नष्ट हो गईं। अब केवल मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थ उपजाति की पंजी मिलती है। इन दोनों जातियों में वैवाहिक संबंध तय करते समय अभी भी पंजी के सहारे वंशवृक्ष मिलाना आवश्यक माना जाता है। मिलान के बिना विवाह पर हंगामा होने लगता है। .

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प्राचीन भारतीय शिक्षा

भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में हमें अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक केन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। औपचारिक शिक्षा मन्दिर, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी। ये ही उच्च शिक्षा के केन्द्र भी थे। जबकि परिवार, पुरोहित, पण्डित, सन्यासी और त्यौहार प्रसंग आदि के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी। विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु है। कुछ विद्वानों ने पिता को बच्चे के शिक्षक के रुप में स्वीकार किया है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित होने लगी। वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों का स्थापन हो गया था, लेकिन व्यवस्थित शिक्षण संस्थाएं सार्वजनिक स्तर पर बौद्धों द्वारा प्रारम्भ की गई थी। गुरुकुलों की स्थापना प्रायः वनों, उपवनों तथा ग्रामों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य निर्जन वनों में निवास, अध्ययन तथा चिन्तन पसन्द करते थे। वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र भी पढ़ाये जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिला में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। मनु के अनुसार `ब्रह्मचारों को गुरु के कुल में, अपनी जाति वालों में तथा कुल बान्धवों के यहां से भिक्षा याचना नहीं करनी चाहिए, यदि भिक्षा योग्य दूसरा घर नहीं मिले, तो पूर्व-पूर्व गृहों का त्याग करके भिक्षा याचना करनी चाहिये। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। स्वजातियों से भिक्षा याचना करने में उनके पक्षपात तथा ब्रह्मचारी के गृह की ओर आकर्षण का भय भी रहता था अतएव स्वजातियों से भिक्षा-याचना का पूर्ण निषेध कर दिया गया था। बहुधा राजा तथा सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान् पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी विद्वान् आकृष्ट होते थे। फलत: काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। कभी-कभी राजा भी अनेक विद्वानों को आमंत्रित करके दान में भूमि आदि देकर तथा जीविका निश्चित करके उन्हें बसा लेते थे। उनके बसने से वहां एक नया गांव बन जाता था। इन गांवों को `अग्रहार' कहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं। भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इस संस्थाओं में धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (३०० ई. पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी। कुछ समय पश्चात् ये विद्या के महान केन्द्र बन गये। ये वस्तुत: गुरुकुलों के ही समान थे। किन्तु इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (४५० ई.), वल्लभी (७०० ई.), विक्रमशिला (८०० ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये। .

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पूर्वी चंपारण

पूर्वी चंपारण बिहार के तिरहुत प्रमंडल का एक जिला है। चंपारण को विभाजित कर 1971 में बनाए गए पूर्वी चंपारण का मुख्यालय मोतिहारी है। चंपारण का नाम चंपा + अरण्य से बना है जिसका अर्थ होता है- चम्‍पा के पेड़ों से आच्‍छादित जंगल। पूर्वी चम्‍पारण के उत्‍तर में एक ओर जहाँ नेपाल तथा दक्षिण में मुजफ्फरपुर स्थित है, वहीं दूसरी ओर इसके पूर्व में शिवहर और सीतामढ़ी तथा पश्चिम में पश्चिमी चम्‍पारण जिला है। .

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बनगाँव (बिहार )

बनगाँव भारत के बिहार राज्य के सहरसा जिले के पश्चिम मे अवस्थित एक गाँव है जिसकी पहचान सदियों से रही है। जनसँख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से ये गाँव ना सिर्फ राज्य के बल्कि देश के सबसे बड़े गांवों मे एक हैं। २००१ की जनगणना के मुताबिक़ इस गाँव की आबादी ६०००० है हालांकि पिछले दशक जनसख्या मे बढोत्तरी को ध्यान मे रखते हुए ये संख्या वर्तमान मे ७००००-७५००० के मध्य मे हो सकती है। यह गाँव कोसी प्रमंडल के कहरा प्रखंड के अंतर्गत आता है। इस गाँव से तीन किलोमीटर पूर्व मे बरियाही बाजार, आठ किलोमीटर पश्चिम मे माँ उग्रतारा की पावन भूमि महिषी और उत्तर मे बिहरा गाँव अवस्थित है। इस गाँव मे तीन पंचायतें हैं। हर पंचायत के एक मुखिया हैं। सरकार द्वारा समय समय पर पंचायती चुनाव कराये जातें है। इन्ही चुनावों से हर पंचायत के सदस्यों का चुनाव किया जाता है। वक्त के हर पड़ाव पर इस गाँव का योगदान अपनी आंचलिक सीमा के पार राज्य, देश और दुनिया को मिलता रहा है। इन योगदानों मे लोक शासन, समाज सेवा, साहित्य, पत्रकारिता, राजनीति, देशसेवा और भक्ति मे योगदान प्रमुख हैं। भक्ति और समाजसेवा के ऐसे की एक स्तंभ, संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं, जिन्होंने इस गाँव को अपनी कर्मभूमि बनाई, को लोग भगवान की तरह पूजते है। उनका मंदिर गाँव के प्रमुख दार्शनिक स्थलों मे से एक है। गाँव के बोलचाल की भाषा मैथिली है और यहाँ हिंदू तथा इस्लाम धर्मों को माननेवाले सदियों से आपसी सामंजस्य और धार्मिक सहिष्णुता से साथ रहते हैं। .

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बाघा कुसमार

बाघा कुसमार(अंग्रेजी Bagha Kusmar मैथिलि বাঘা কুসমাৰ) एक छोट नगर (शहर) है, जो भारत देश के बिहार राज्य के उतरी भागके मधुबनी जिलामे अवस्थित है। ये फुलपरास अनुमडंलमे तथा खुटौना प्रखण्ड में परता है। .

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बांसी नदी

कोई विवरण नहीं।

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बिहार

बिहार भारत का एक राज्य है। बिहार की राजधानी पटना है। बिहार के उत्तर में नेपाल, पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और दक्षिण में झारखण्ड स्थित है। बिहार नाम का प्रादुर्भाव बौद्ध सन्यासियों के ठहरने के स्थान विहार शब्द से हुआ, जिसे विहार के स्थान पर इसके अपभ्रंश रूप बिहार से संबोधित किया जाता है। यह क्षेत्र गंगा नदी तथा उसकी सहायक नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। प्राचीन काल के विशाल साम्राज्यों का गढ़ रहा यह प्रदेश, वर्तमान में देश की अर्थव्यवस्था के सबसे पिछड़े योगदाताओं में से एक बनकर रह गया है। .

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बिहार का मध्यकालीन इतिहास

बिहार का मध्यकालीन इतिहास का प्रारम्भ उत्तर-पश्‍चिम सीमा पर तुर्कों के आक्रमण से होता है। मध्यकालीन काल में भारत में किसी की भी मजबूत केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। पूरे देश में सामन्तवादी व्यवस्था चल रही थी। सभी शासक छोटे-छोटे क्षेत्रीय शासन में विभक्‍त थे। मध्यकालीन बिहार की इतिहास की जानकारी के स्त्रोतों में अभिलेख, नुहानी राज्य के स्त्रोत, विभिन्न राजाओं एवं जमींदारों के राजनीतिक जीवन एवं अन्य सत्ताओं से उनके संघर्ष, दस्तावेज, मिथिला क्षेत्र में लिखे गये ग्रन्थ, यूरोपीय यात्रियों द्वारा दिये गये विवरण इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।.

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ब्रजबुलि

ब्रजबुलि उस काव्यभाषा का नाम है जिसका उपयोग उत्तर भारत के पूर्वी प्रदेशों अर्थात् मिथिला, बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा के भक्त कवि प्रधान रूप से कृष्ण की लीलाओं के वर्णन के लिए करते रहे हैं। नेपाल में भी ब्रजबुलि में लिखे कुछ काव्य तथा नाटकग्रंथ मिले हैं। इस काव्यभाषा का उपयोग शताब्दियों तक होता रहा है। ईसवी सन् की 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक इस काव्यभाषा में लिखे पद मिलते हैं। यद्यपि "ब्रजबुलि साहित्य" की लंबी परंपरा रही हैं, फिर भी "ब्रजबुलि" शब्द का प्रयोग ईसवी सन् की 19वीं शताब्दी में मिलता है। इस शब्द का प्रयोग अभी तक केवल बंगाली कवि ईश्वरचंद्र गुप्त की रचना में ही मिला है। .

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भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ

भारत अनादि काल से संस्कृति, आस्था, आस्तिकता और धर्म का महादेश रहा है। इसके हर भाग और प्रान्त में विभिन्न देवी-देवताओं से सम्बद्ध कुछ ऐसे अनेकानेक प्राचीन और (अपेक्षाकृत नए) धार्मिक स्थान (तीर्थ) हैं, जिनकी यात्रा के प्रति एक आम भारतीय नागरिक पर्यटन और धर्म-अध्यात्म दोनों ही आकर्षणों से बंधा इन तीर्थस्थलों की यात्रा के लिए सदैव से उत्सुक रहा है। .

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भारत के क्षेत्र

भारत में सास्कृतिक, भौगोलिक तथा प्रशासनिक आधार कई प्रदेश हैं जिनकी अन्य क्षेत्रों से अलग पहचान है। इनमें से कई क्षेत्र भारत की प्रशासनिक सीमाओं के बाहर भी है - जैसे कश्मीर, पंजाब तथा बंगाल। .

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भारतीय चित्रकला

'''भीमवेटका''': पुरापाषाण काल की भारतीय गुफा चित्रकला भारत मैं चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना रहा हैं। पाषाण काल में ही मानव ने गुफा चित्रण करना शुरु कर दिया था। होशंगाबाद और भीमबेटका क्षेत्रों में कंदराओं और गुफाओं में मानव चित्रण के प्रमाण मिले हैं। इन चित्रों में शिकार, शिकार करते मानव समूहों, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के चित्र मिले हैं। अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैय्यार हुई थी, इसकी सबसे प्राचिन चित्रकारी ई.पू.

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भारतीय नैयायिक

न्याय दर्शन के विद्वान नैयायिक कहलाते हैं। ब्राह्मण न्याय (वैदिक न्याय), जैन न्याय और बौद्ध न्याय के अत्यंत सुप्रसिद्ध नैयायिक विद्वानों में निम्नलिखित हैं: .

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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भारतीय शिक्षा का इतिहास

शिक्षा का केन्द्र: तक्षशिला का बौद्ध मठ भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है। १८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मकोले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अंत हुआ और भारत में कई गुरुकुल तोड़े गए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भागवत पुराण

सन १५०० में लिखित एक भागवत पुराण मे यशोदा कृष्ण को स्नान कराते हुए भागवत पुराण (Bhaagwat Puraana) हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् (Shrimadbhaagwatam) या केवल भागवतम् (Bhaagwatam) भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है। श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है। .

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भृङ्गदूतम्

भृंगदूतम् (२००४), (शब्दार्थ:भ्रमर दूत)) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा दूतकाव्य शैली में रचित एक संस्कृत खण्डकाव्य है। काव्य दो भागों में विभक्त है और इसमें मन्दाक्रान्ता छंद में रचित ५०१ श्लोक हैं। काव्य की कथा रामायण के किष्किन्धाकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें भगवान राम वर्षा ऋतु के चार महीने किष्किन्धा में स्थित प्रवर्षण पर्वत पर सीता के विरह में व्यतीत करते हैं। प्रस्तुत खण्डकाव्य में राम इस अवधि में अपनी पत्नी, सीता, जो की रावण द्वारा लंका में बंदी बना ली गई हैं, को स्मरण करते हुए एक भ्रमर (भौंरा) को दूत बनाकर सीता के लिए संदेश प्रेषित करते हैं। काव्य की एक प्रति स्वयं कवि द्वारा रचित "गुंजन" नामक हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अगस्त २००४ को किया गया था। .

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मधुबनी

मधुबनी भारत के बिहार प्रान्त में दरभंगा प्रमंडल अंतर्गत एक प्रमुख शहर एवं जिला है। दरभंगा एवं मधुबनी को मिथिला संस्कृति का द्विध्रुव माना जाता है। मैथिली तथा हिंदी यहाँ की प्रमुख भाषा है। विश्वप्रसिद्ध मिथिला पेंटिंग एवं मखाना के पैदावार की वजह से मधुबनी को विश्वभर में जाना जाता है। इस जिला का गठन १९७२ में दरभंगा जिले के विभाजन के उपरांत हुआ था।मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है। वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया। उनकी ये पहल निःशुल्क अर्थात श्रमदान के रूप में किया गया। श्रमदान स्वरूप किये गए इस अदभुत कलाकृतियों को विदेशी पर्यटकों व सैनानियों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है। .

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मधुबनी चित्रकला

मधुबनी चित्रकला चित्र बनाती कलाकार मधुबनी चित्रकला मिथिलांचल क्षेत्र जैसे बिहार के दरभंगा, मधुबनी एवं नेपाल के कुछ क्षेत्रों की प्रमुख चित्रकला है। प्रारम्भ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ो, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की औरतों द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पुरुषों ने भी अपना लिया है। वर्तमान में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी व मिथिला पेंटिंग के सम्मान को और बढ़ाये जाने को लेकर तकरीबन 10,000 sq/ft में मधुबनी रेलवे स्टेशन के दीवारों को मिथिला पेंटिंग की कलाकृतियों से सरोबार किया। उनकी ये पहल निःशुल्क अर्थात श्रमदान के रूप में किया गया। श्रमदान स्वरूप किये गए इस अदभुत कलाकृतियों को विदेशी पर्यटकों व सैनानियों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है। .

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मधुसूदन ओझा

पण्डित मधुसूदन ओझा (1866-1939) संस्कृत के विद्वान एवं लगभग दो सौ पुस्तकों के रचयिता थे। वे जयपुर के महाराजा कॉलेज में संस्कृत के अध्यक्ष थे। .

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मधेपुरा जिला

मधेपुरा भारत के बिहार राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय मधेपुरा शहर है। सहरसा जिले के एक अनुमंडल के रूप में रहने के उपरांत ९ मई १९८१ को उदाकिशुनगंज अनुमंडल को मिलाकर इसे जिला का दर्जा दे दिया गया। यह जिला उत्तर में अररिया और सुपौल, दक्षिण में खगड़िया और भागलपुर जिला, पूर्व में पूर्णिया तथा पश्चिम में सहरसा जिले से घिरा हुआ है। वर्तमान में इसके दो अनुमंडल तथा ११ प्रखंड हैं। मधेपुरा धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध जिला है। चंडी स्थान, सिंघेश्‍वर स्थान, श्रीनगर, रामनगर, बसन्तपुर, बिराटपुर और बाबा करु खिरहर आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से हैं। .

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महाभारत कालीन जनपद

महाभारत कालीन जनपद .

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मिथिला (प्राचीन)

कोई विवरण नहीं।

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मिथिला के राजाओं की सूची

भारतीय साहित्यिक स्रोतों में अत्यन्त प्राचीन काल तक के मिथिला के शासकों के नाम प्राप्त होते हैं। इनमें से विदेह (जनक) वंशीय राजाओं के लिए तो वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों पर निर्भर रहना पड़ता है, परन्तु इनके बाद के शासकों के विवरण के लिए बहुत-कुछ प्रामाणिक ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं। .

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मुजफ्फरपुर

मुज़फ्फरपुर उत्तरी बिहार राज्य के तिरहुत प्रमंडल का मुख्यालय तथा मुज़फ्फरपुर ज़िले का प्रमुख शहर एवं मुख्यालय है। अपने सूती वस्त्र उद्योग, लोहे की चूड़ियों, शहद तथा आम और लीची जैसे फलों के उम्दा उत्पादन के लिये यह जिला पूरे विश्व में जाना जाता है, खासकर यहाँ की शाही लीची का कोई जोड़ नहीं है। यहाँ तक कि भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भी यहाँ से लीची भेजी जाती है। 2017 मे मुजफ्फरपुर स्मार्ट सिटी के लिये चयनित हुआ है। अपने उर्वरक भूमि और स्वादिष्ट फलों के स्वाद के लिये मुजफ्फरपुर देश विदेश मे "स्वीटसिटी" के नाम से जाना जाता है। मुजफ्फरपुर थर्मल पावर प्लांट देशभर के सबसे महत्वपूर्ण बिजली उत्पादन केंद्रो मे से एक है। .

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मैथिल ब्राह्मण

मैथिल ब्राह्मणों का नाम मिथिला के नाम पर पड़ा है। मिथिला के ब्राह्मणो को मैथिल ब्राह्मण कहा जाता है। मिथिला प्राचीन काल में भारत का एक राज्य था| मिथिला वर्तमान में एक सांस्कृतिक क्षेत्र है जिसमे बिहार के तिरहुत, दरभंगा, मुंगेर, कोसी, पूर्णिया और भागलपुर के आधुनिक प्रमंडलों के साथ साथ नेपाल और झारखंड के कुछ भाग भी शामिल हैं। जनकपुर, दरभंगा और मधुबनी मैथिल ब्राह्मणो का प्रमुख सांस्कृत केंन्द्र है। मैथिल ब्राह्मण बिहार, नेपाल, ब्रज उत्तर प्रदेश व झारखण्ड के देवघर में अधिक हैं। पंच गौड़ ब्राह्मणो के अंतर्गत मैथिल ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, सारस्वत ब्राह्मण, गौड़ ब्राह्मण, उत्कल ब्राह्मण हैं | .

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मैथिल संगीत

मैथिल संगीत, भारत और दक्षिण एशिया के सबसे प्राचीन संगीत में से है। इसकी उत्पत्ति मैथिल क्षेत्र से हुई। .

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मैथिली चलचित्रपट

मैथिली चलचित्रपट या मैथिली सिनेमा मिथिला क्षेत्र का चलचित्रोध्योग है। जो मुख्य रूप से बिहार एवं नेपाल की तराई वाले कुछ क्षेत्रों में सक्रिय है। .

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मैथिली भाषा

मैथिली भारत के उत्तरी बिहार और नेपाल के तराई क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। यह हिन्द आर्य परिवार की सदस्य है। इसका प्रमुख स्रोत संस्कृत भाषा है जिसके शब्द "तत्सम" वा "तद्भव" रूप में मैथिली में प्रयुक्त होते हैं। यह भाषा बोलने और सुनने में बहुत ही मोहक लगता है। मैथिली भारत में मुख्य रूप से दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मुंगेर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज, शिवहर, भागलपुर, मधेपुरा, अररिया, सुपौल, वैशाली, सहरसा, रांची, बोकारो, जमशेदपुर, धनबाद और देवघर जिलों में बोली जाती है| नेपाल के आठ जिलों धनुषा,सिरहा,सुनसरी, सरलाही, सप्तरी, मोहतरी,मोरंग और रौतहट में भी यह बोली जाती है। बँगला, असमिया और ओड़िया के साथ साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है। कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में हिंदी से मिलती जुलती है। वर्ष २००३ में मैथिली भाषा को भारतीय संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित किया गया। सन २००७ में नेपाल के अन्तरिम संविधान में इसे एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में स्थान दिया गया है। .

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मैथिली साहित्य

मैथिली मुख्यतः भारत के उत्तर-पूर्व बिहार एवम् नेपाल के तराई क्षेत्र की भाषा है।Yadava, Y. P. (2013).

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मोतिहारी

मोतीहारी बिहार राज्‍य के पूर्वी चंपारण जिले का मुख्‍यालय है। बिहार की राजधानी पटना से 170 किमी दूर पूर्वी चम्‍पारण बिल्‍कुल नेपाल की सीमा पर बसा है। इसे मोतिहारी के नाम से भी लोग जानते है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस जिले को काफी महत्‍वपूर्ण माना जाता है। किसी समय में चम्‍पारण, राजा जनक के मिथिला राज्य का अभिन्‍न भाग था। स्‍वतंत्रता संग्राम में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महात्‍मा गांधी ने तो अपने राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत यही से की थी। पर्यटन की दृष्टि यहां सीताकुंड, अरेराज, केसरिया, चंडी स्‍थान जैसे जगह घूमने लायक है। .

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यशोवर्मन्

यशोवर्मन नाम से निम्नलिखित व्यक्ति प्रसिद्ध हैं: .

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यज्ञफल

कोई विवरण नहीं।

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राम

राम (रामचन्द्र) प्राचीन भारत में अवतार रूपी भगवान के रूप में मान्य हैं। हिन्दू धर्म में राम विष्णु के दस अवतारों में से सातवें अवतार हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य श्री रामचरितमानस की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं में अनेक रामायणों की रचना हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय हैं और हिन्दुओं के आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं) और इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के लंका के राजा रावण का वध किया। राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई की थी। श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदहारण देते हुए पति के साथ वन जाना उचित समझा। सौतेले भाई लक्ष्मण ने भी भाई के साथ चौदह वर्ष वन में बिताये। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आये। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। राम की पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। राम ने उस समय की एक जनजाति वानर के लोगों की मदद से सीता को ढूँढ़ा। समुद्र में पुल बना कर रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके पुत्र कुश व लव ने इन राज्यों को सँभाला। हिन्दू धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं। .

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राम कृष्ण महाविद्यालय, मधुबनी

राम कृष्ण महाविद्यालय (आर के कोलेज), बिहार के मिथिलांचल की हृदयस्थली मधुबनी में स्थित एक महाविद्यालय है। १९४० को स्थापित यह महाविद्यालय मिथिला में ही नहीं अपितु बिहार से दूर पूरे भारत सही नेपाल में भी अपनी शिक्षा और प्रसाशन के लिए एक पहचान रखता है। चाहे विज्ञान कि पढाई हो या कॉमर्स की; चाहे स्नातकोत्तर की; ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में यह अपनी वर्चस्वता और श्रेष्ठता रखने वाला महाविद्यालय है। श्रेणी:बिहार के महाविद्यालय en:Ram Krishna College.

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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लिच्छवि

लिच्छवि नामक जाति ईसा पूर्व छठी सदी में बिहार प्रदेश के उत्तरी भाग यानी मुजफ्फरपुर जिले के वैशाली नगर में निवास करती थी। लिच्छ नामक महापुरुष के वंशज होने के करण इनका नाम लिच्छवि पड़ा अथवा किसी प्रकार के चिह्न (लिक्ष) धारण करने के कारण ये इस नाम से प्रसिद्ध हुए। लिच्छवि राजवंश इतिहासप्रसिद्ध है जिसका राज्य किसी समय में नेपाल, मगध और कौशल मे था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में क्षत्रियों की इस शाखा का नाम 'निच्छवि' या 'निच्छिवि' मिलता है। पाली रूप 'लिच्छवि' है। मनुस्मृति के अनुसार लिच्छवि लोग व्रात्य क्षत्रिय थे। उसमें इनकी गणना झल्ल, मल्ल, नट, करण, खश और द्रविड़ के साथ की गई है। ये 'लिच्छवि' लोग वैदिक धर्म के विरोधी थे। इनकी कई शाखाएँ दूर दूर तक फैली थीं। वैशालीवाली शाखा में जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी हुए और कोशल की शाक्य शाखा में गौतम बुद्ध प्रादुर्भूत हुए। किसी समय मिथिला से लेकर मगध और कोशल तक इस वंश का राज्य था। जिस प्रकार हिंदुओं के संस्कृत ग्रंथों में यह वंश हीन कहा गया है, उसी प्रकार बौद्धों और जैनों के पालि और प्राकृत ग्रंथों मे यह वंश उच्च कहा गया है। गौतम बुद्ध के समसामयिक मगध के राजा बिंबसार ने वैशाली के लिच्छवि लोगों के यहाँ संबंध किया था। पीछे गुप्त सम्राट् ने भी लिच्छवि कन्या से विवाह किया था। .

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लिच्छवि (अधिराज्य)

प्राचीन नेपाल में, लिच्छवि नामक एक अधिराज्य था, जो काठमांडू घाटी में था लगभग 400 से 750 ई० में। लिच्छवी वर्तमान भारत के उत्तरी बिहार के प्राचीन वैशाली नगर से थें जिन्होंने काठमांडू पर आक्रमण कर विजय प्राप्त कर ली थी। शिलालेखों पर लिच्छवियों कि लिपि संस्कृत थी और गुप्त लिपि लगभग आधिकारिक लिपि थी, जो बताता है कि मध्य भारत के अन्य प्रमुख अधिराज्य से लेकर दक्षिण तक इसका महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रभाव था। यह संभवतः मिथिला क्षेत्र से (जो वर्तमान में मुख्यतः भारत मे स्थित है और जिसका छोटा भाग नेपाल में है) होते हुए गया होगा। कुछ लिच्छवी शिलालेखों पर गुप्त वर्णों के क्रमागत उन्नति के प्रयोग कि एक सारणी जिसे तैयार किया है गौतमावज्र वज्राचार्य जी ने आप ऑनलाइन देख सकते हैं। .

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शिवहर

शिवहर बिहार के तिरहुत प्रमंडल का एक नवगठित जिला है। इस जिले के पूरब एवं उत्तर में सीतामढी, पश्चिम में पूर्वी चंपारण तथा दक्षिण में मुजफ्फरपुर जिला है। शिवहर बिहार का सबसे छोटा एवं आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत ही पिछडा हुआ जिला है। वर्षा एवं बाढ़ के दिनों में इसका संपर्क अपने पडोसी जिलों से भी पूरी तरह कट जाता है। बज्जिका एवं हिन्दी यहाँ की मुख्य भाषाएँ है। .

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीसीतारामकेलिकौमुदी

श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८), शब्दार्थ: सीता और राम की (बाल) लीलाओं की चन्द्रिका, हिन्दी साहित्य की रीतिकाव्य परम्परा में ब्रजभाषा (कुछ पद मैथिली में भी) में रचित एक मुक्तक काव्य है। इसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००७ एवं २००८ में की गई थी।रामभद्राचार्य २००८, पृष्ठ "क"–"ड़"काव्यकृति वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है और सीता तथा राम के बाल्यकाल की मधुर केलिओं (लीलाओं) एवं मुख्य प्रसंगों का वर्णन करने वाले मुक्तक पदों से युक्त है। श्रीसीतारामकेलिकौमुदी में ३२४ पद हैं, जो १०८ पदों वाले तीन भागों में विभक्त हैं। पदों की रचना अमात्रिका, कवित्त, गीत, घनाक्षरी, चौपैया, द्रुमिल एवं मत्तगयन्द नामक सात प्राकृत छन्दों में हुई है। ग्रन्थ की एक प्रति हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अक्टूबर २००८ को किया गया था। .

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समस्तीपुर

समस्तीपुर भारत गणराज्य के बिहार प्रान्त में दरभंगा प्रमंडल स्थित एक शहर एवं जिला है। समस्तीपुर के उत्तर में दरभंगा, दक्षिण में गंगा नदी और पटना जिला, पश्चिम में मुजफ्फरपुर एवं वैशाली, तथा पूर्व में बेगूसराय एवं खगड़िया जिले है। यहाँ शिक्षा का माध्यम हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी है लेकिन बोल-चाल में बज्जिका और मैथिली बोली जाती है। मिथिला क्षेत्र के परिधि पर स्थित यह जिला उपजाऊ कृषि प्रदेश है। समस्तीपुर पूर्व मध्य रेलवे का मंडल भी है। समस्तीपुर को मिथिला का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है। .

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सहरसा

सहरसा भारत के बिहार प्रान्त का एक जिला एवं शहर है। जिले के रूप में सहरसा की स्थापना 1 अप्रैल 1954 को हुई थी जबकि २ अक्टुबर 1972 से यह कोशी प्रमण्डल का मुख्यालय है। नेपाल से आने वाली कोशी नदी के मैदानों में फ़ैला हुआ कोशी प्रमण्डल इतिहास के पन्नों में तो एक समृ‍द्ध प्रदेश माना जाता रहा है किन्तु वर्तमान में यह अति पिछड़े क्षेत्रों में आता है। यहाँ कन्दाहा में सूर्य मंदिर एवं प्रसिद्ध माँ तारा स्थान महिषी ग्राम में स्थित है। प्राचीन काल से यह स्थान आदि शंकराचार्य तथा यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ के लिए भी विख्यात रहा है। .

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सुनयना

सुनयना रामायण की एक प्रमुख पात्रा हैं। वे मिथिला के राजा जनक की पत्नी तथा सीता की माता थीं। सुनयना का नाम वाल्मीकि रामायण मे नहीं मिलता, यह नाम तुलसीदास की रामचरितमानस मे प्रयोगिक किया है। जैन ग्रंथ 'पौम्यचरित्र' मे उनका नाम विदेह हैं और 'वासुदेवहिंदी' मे उनका नाम धारिणी दिया गया हैं। महाभारत के शांतिपर्व मे जनक की पत्नी को कौशल्या कहा गया है। कुछ संस्करण मे उन्हें सुनेत्रा कहा गया है। बौद्ध धर्म की महाजनक जातक मे उनका नाम शिव्वली बताया गया है। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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सुपौल

सुपौल बिहार का एक जिला है। सुपौल जिला वर्तमान सहरसा जिले से 14 मार्च 1991 में विभाजित होकर अस्तित्व में आया।सहरसा फारबिसगंज रेलखंड पर सुपौल स्थित है। सांस्कृतिक रूप से यह काफी समृद्ध जिला है नेपाल से करीब होने के कारण यह सामरिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण है। क्षेत्रफल के अनुसार यह कोसी प्रमंडल का सबसे बड़ा जिला है, वीरपुर,त्रिवेणीगंज,निर्मली,सुपौल आदि इसके अनुमंडल है। पर्यटन स्थलों में गणपतगंज का विष्णु मंदिर,धरहारा का महादेव मंदिर,वीरपुर में कोसी बैराज,हुलास का दुर्गा महादेव मंदिर आदि प्रमुख हैं।धान,गेहूं,मूंग,पटसन आदि की पैदावार ज्यादा की जाती है। लोकगायिका शारदा सिन्हा एवं स्व.

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सौराठ सभा

सौराठ सभा बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगने वाला एक विशाल सभा है जिसमें योग्य वर का चुनाव वहाँ आए कन्याओंके पिता करते हैं। चुनाव से पहले सौराठ सभागाछीमें उपस्थित लोगोंके बीच बहुत प्रकारके चर्चाओं जिसमें मुख्य रूप से कुल, मूल और पाँजिका होता है; जिनके जितने बड़े कुल-मूल-पाँजि होते हैं उनका पूछ उतना ही अधिक होता है। हालांकि इस आधुनिकता के चमक-दमक ने अब लोगोंको केवल कुल-मूल-पाँजि से कहीं ऊपर लड़कोंका व्यक्तिगत गुण, आचरण और रोजगार को मुख्य जाँचका विषय बना दिया है। परंपरानुसार यहाँ पहले (साबिक जमाने से) गुरुकुल से सीधे योग्य युवकोंको सौराठ सभागाछी में लाया जाता था और मैथिल ब्राह्मणों एवं कायस्थों के लिए शुरु किया गया इस सभामें लोग लाखोंके तादाद में पहुँचते थे और गुरुकुलोंके उन योग्य शिक्षित युवकोंके प्रतिभाको जाँच-बुझकर अपने स्वजनोंके लायक उचित वर समझकर गुरुजनोंसे आज्ञा लेते थे और फिर विवाह कराने से पूर्व लड़कोंके पैतृक परिवार के सात पुश्तोंमें और मातृक परिवारके पाँच पुश्तोंमें पहले कभी सीधा रक्त सम्बन्ध नहीं बने होने पर मात्र अधिकार निर्णय करबाते थे, ऐसे अधिकार निर्णय को एक तारके पत्तेपर मिथिलाक्षरमें लाल स्याही से लिखबाया जाता था जिसे सिद्धान्त कहा जाता है और यह परंपरा आज भी अनेकों मैथिलोंमें कायम है। इस समूचे संसार में शायद मैथिलोंका यह वैवाहिक परंपरा सर्वोत्तम माना जाता है क्योंकि अधिकार निर्णय की अनूठी रीतिको बादमें विभिन्न वैज्ञानिकोंने अपने-अपने ढंगोंसे समुचित करार दिया है। .

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सीता

सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य रामायण ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, की मुख्य पात्र है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थी। इनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इनकी स्त्री व पतिव्रता धर्म के कारण इनका नाम आदर से लिया जाता है। त्रेतायुग में इन्हे सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं। .

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सीता कुंड

पूनौरा धाम मंदिर स्थित सीता कुंड सीता-कुंड सीतामढ़ी के पुनौरा ग्राम स्थित एक हिन्दू तीर्थ स्थल है। यहाँ एक प्राचीन हिन्दू मंदिर है। सीतामढ़ी से ५ किलोमीटर दूर यह स्थल पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है। पुनौरा और जानकी कुंड:यह स्थान पौराणिक काल में पुंडरिक ऋषि के आश्रम के रूप में विख्यात था। सीतामढी से ५ किलोमीटर पश्चिम स्थित पुनौरा में हीं देवी सीता का जन्म हुआ था। मिथिला नरेश जनक ने इंद्र देव को खुश करने के लिए अपने हाथों से यहाँ हल चलाया था। इसी दौरान एक मृदापात्र में देवी सीता बालिका रूप में उन्हें मिली। मंदिर के अलावे यहाँ पवित्र कुंड है। .

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सीतामढ़ी

सीतामढ़ी (अंग्रेज़ी: Sitamarhi,उर्दू: سيتامارهى) भारत के मिथिला का प्रमुख शहर है जो पौराणिक आख्यानों में सीता की जन्मस्थली के रूप में उल्लिखित है। त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिंदू तीर्थ-स्थल बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। सीता के जन्म के कारण इस नगर का नाम पहले सीतामड़ई, फिर सीतामही और कालांतर में सीतामढ़ी पड़ा। यह शहर लक्षमना (वर्तमान में लखनदेई) नदी के तट पर अवस्थित है। रामायण काल में यह मिथिला राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग था। १९०८ ईस्वी में यह मुजफ्फरपुर जिला का हिस्सा बना। स्वतंत्रता के पश्चात ११ दिसम्बर १९७२ को इसे स्वतंत्र जिला का दर्जा प्राप्त हुआ। त्रेतायुगीन आख्यानों में दर्ज यह हिंदू तीर्थ-स्थल बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। वर्तमान समय में यह तिरहुत कमिश्नरी के अंतर्गत बिहार राज्य का एक जिला मुख्यालय और प्रमुख पर्यटन स्थल है। .

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सीतामढी

सीतामढी भारत गणराज्य के बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल मे स्थित एक शहर एवं जिला है। 1972 में मुजफ्फरपुर से अलग होकर यह स्वतंत्र जिला बना। बिहार के उत्तरी गंगा के मैदान में स्थित यह जिला नेपाल की सीमा पर होने के कारण संवेदनशील है। बज्जिका यहाँ की बोली है लेकिन हिंदी और उर्दू राजकाज़ की भाषा और शिक्षा का माध्यम है। यहाँ की स्थानीय संस्कृति, रामायणकालीन परंपरा तथा धार्मिकता नेपाल के तराई प्रदेश तथा मिथिला के समान है। .

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हाजीपुर

हाजीपुर (Hajipur) भारत गणराज्य के बिहार प्रान्त के वैशाली जिला का मुख्यालय है। हाजीपुर भारत की संसदीय व्यवस्था के अन्तर्गत एक लोकसभा क्षेत्र भी है। 12 अक्टुबर 1972 को मुजफ्फरपुर से अलग होकर वैशाली के स्वतंत्र जिला बनने के बाद हाजीपुर इसका मुख्यालय बना। ऐतिहासिक महत्त्व के होने के अलावा आज यह शहर भारतीय रेल के पूर्व-मध्य रेलवे मुख्यालय है, इसकी स्थापना 8 सितम्बर 1996 को हुई थी।, राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों तथा केले, आम और लीची के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। .

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जनक

जनक नाम से अनेक व्यक्ति हुए हैं। पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकुपुत्र निमि ने विदेह के सूर्यवंशी राज्य की स्थापना की, जिसकी राजधानी मिथिला हुई। मिथिला में जनक नाम का एक अत्यंत प्राचीन तथा प्रसिद्ध राजवंश था जिसके मूल पुरुष कोई जनक थे। मूल जनक के बाद मिथिला के उस राजवंश का ही नाम 'जनक' हो गया जो उनकी प्रसिद्धि और शक्ति का द्योतक है। जनक के पुत्र उदावयु, पौत्र नंदिवर्धन् और कई पीढ़ी पश्चात् ह्रस्वरोमा हुए। ह्रस्वरोमा के दो पुत्र सीरध्वज तथा कुशध्वज हुए। जनक नामक एक अथवा अनेक राजाओं के उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत और पुराणों में हुए हैं। इतना निश्चित प्रतीत होता है कि जनक नाम के कम से कम दो प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए; एक तो वैदिक साहित्य के दार्शनिक और तत्वज्ञानी जनक विदेह और दूसरे राम के ससुर जनक, जिन्हें वायुपुराण और पद्मपुराण में सीरध्वज कहा गया है। असंभव नहीं, और भी जनक हुए हों और यही कारण है, कुछ विद्वान् वशिष्ठ और विश्वामित्र की भाँति 'जनक' को भी कुलनाम मानते हैं। सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा उर्मिला हुईं जिनका विवाह, राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए। श्रीमद्भागवत में दी हुई जनकवंश की सूची कुछ भिन्न है, परंतु सीरध्वज के योगिराज होने में सभी ग्रंथ एकमत हैं। इनके अन्य नाम 'विदेह' अथवा 'वैदेह' तथा 'मिथिलेश' आदि हैं। मिथिला राज्य तथा नगरी इनके पूर्वज निमि के नाम पर प्रसिद्ध हुए। .

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जनकपुर

जनकपुर नेपाल का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है ये नगर प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध राजा जनक थे। जो सीता माता के पिता थे। यह शहर भगवान राम की ससुराल के रूप में विख्यात है। यथा: जनकपुरादक्षिणान्शे सप्तकोश-व्यतिक्रमें। महाग्रामे गहश्च जनकस्य वै।। जनकपुर की ख्याति कैसे बढ़ी और उसे राजा जनक की राजधानी लोग कैसे समझने लगे, इसके संवन्ध में एक अनुश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पवित्र जनक वंश का कराल जनक के समय में नैतिक अद्य:पतन हो गया। कौटिल्य ने प्रसंगवश अपनेअर्थशास्त्र में लिखा है कि कराल जनक ने कामान्ध होकर ब्राह्मण कन्या का अभिगमन किया। इसी कारण वह वनधु-बंधवों के साथ मारा गया। अश्वघोष ने भी अपने ग्रंथ बुद्ध चरित्र में इसकी पुष्टि की है। कराल जनक के बढ़ के पश्चात जनक वंश में जो लोग बच गए, वे निकटवारती तराई के जंगलों में जा छुपे। जहां वे लोग छिपे थे, वह स्थान जनक के वंशजों के रहने के कारण जनकपुर कहलाने लगा। .

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जनकपुरधाम

हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रंथ रामायण के अनुसार रामायण की मुख्य पात्रा सीता का जन्म प्राचीन मिथिला की इसी नगरी में हुआ था। ग्रन्थों के अनुसार प्राचीन मिथिला की राजधानी जनकपुरधाम ही थी। जनकपुरधाम नेपालमें स्थित है। जनकपुरधाम महत्वपूर्ण कुन्ड एवं सागरों के लिए प्रख्यात है।.

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जयस्थिति मल्ल

जयस्थिति मल्ल जयस्थिति मल्ल, नेपाल के मल्ल राजवंश के प्रतापी एवं समाजसुधारक राजा थे जिन्होने १४वीं शताब्दी में शासन किया। मूलतः उनका वंश मिथिला से सम्बन्धित था। उन्होने देवलदेवी की पौत्री से विवाह किया। श्रेणी:मल्ल राजवंश श्रेणी:नेपाल के शासक.

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जैन धर्म का इतिहास

उदयगिरि की रानी गुम्फा जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले 'जिन भगवान' के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है। http://www.umich.edu/~umjains/jainismsimplified/chapter20.html  संभेद्रिखर, राजगिर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुंजय, श्रवणबेलगोला आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। पर्यूषण या दशलाक्षणी, दिवाली और रक्षाबंधन इनके मुख्य त्योहार हैं। अहमदाबाद, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बंगाल आदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं। जैन धर्म का उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा Helmuth von Glasenapp,Shridhar B. Shrotri.

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जैन धर्म के तीर्थंकर

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वाचस्पति मिश्र

वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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वाराणसी का इतिहास

वाराणसी का मूल नगर काशी था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग ५००० वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कंद पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतः वाराणसी शहर को कम से कम ३००० वर्ष प्राचीन तो माना ही जाता है। नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दाँत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक लिखा है। .

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विद्यापति

विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के भी प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की शृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं। .

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विदेश्वरस्थान

विदेश्वरस्थान बिहार राज्य के मधुबनी जिला के अन्तर्गत झंझारपुर प्रखंड का एक अतिप्राचीन तीर्थस्थान है। यह मंडन मिश्र रेलवे हाल्ट से २ किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित है। विदेश्वरस्थान राष्ट्रीय राजमार्ग 57, लोहना चौक से 1.5 किलोमीटर दक्षिण दिशा में स्थित है। यह मंदिर झंझारपुर से 5 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। विदेश्वरस्थान में प्रतिवर्ष होने वाले मकर एवं शिवरात्री का मेला प्रार्ंभ से ही विशिष्टता के लिये प्रसिद्ध है। शिव भक्त हजारों लाखों की संख्या में पूजा -आराधना करते है। .

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विदेह वंश

प्राचीन काल में आर्यजन अपने गणराज्य का नामकरण राजन्य वर्ग के किसी विशिष्ट व्यक्‍ति के नाम पर किया करते थे जिसे विदेह कहा गया। ये जन का नाम था। कालान्तर में विदेध ही विदेह हो गया। विदेह राजवंश का आरम्भ इक्ष्‍वाकु के पुत्र निमि विदेह के मानी जाती है। यह सूर्यवंशी थे। इसी वंश का दूसरा राजा मिथि जनक विदेह ने मिथिलांचल की स्थापना की। इस वंश के २५वें राजा सिरध्वज जनक थे जो कौशल के राजा दशरथ के समकालीन थे।.

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वैदिक सभ्यता

प्राचीन भारत वैदिक सभ्यता प्राचीन भारत की सभ्यता है जिसमें वेदों की रचना हुई। भारतीय विद्वान् तो इस सभ्यता को अनादि परम्परा आया हुआ मानते हैं | पश्चिमी विद्वानो के अनुसार आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग 1500 इस्वी ईसा पूर्व आया और उनके आगमन के साथ ही यह सभ्यता आरंभ हुई थी। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 1500 इस्वी ईसा पूर्व से 500 इस्वी ईसा पूर्व के बीच मे मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननो से मिले अवशेषों मे वैदिक सभ्यता के कई अवशेष मिले हैं जिससे आधुनिक विद्वान जैसे डेविड फ्राले, तेलगिरी, बी बी लाल, एस र राव, सुभाष काक, अरविन्दो यह मानने लगे है कि वैदिक सभ्यता भारत मे ही शुरु हुई थी और ऋग्वेद का रचना शुंग काल में हुयी, क्योंकि आर्यो के भारत मे आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननो से प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से कोई प्रमाण मिला है इस काल में वर्तमान हिंदू धर्म के स्वरूप की नींव पड़ी थी जो आज भी अस्तित्व में है। वेदों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य कई ग्रंथो की रचना भी इसी काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना मन्त्र ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौं को व्यवस्थित करने मे हुआ है | अनन्तर रामायण, महाभारत,और पुराणौंकी रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत मानागया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं,बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ | इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यतः उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था। .

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वैशाली जिला

वैशाली (Vaishali) बिहार प्रान्त के तिरहुत प्रमंडल का एक जिला है। मुजफ्फरपुर से अलग होकर १२ अक्टुबर १९७२ को वैशाली एक अलग जिला बना। वैशाली जिले का मुख्यालय हाजीपुर में है। बज्जिका तथा हिन्दी यहाँ की मुख्य भाषा है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार वैशाली में ही विश्व का सबसे पहला गणतंत्र यानि "रिपब्लिक" कायम किया गया था। वैशाली जिला भगवान महावीर की जन्म स्थली होने के कारण जैन धर्म के मतावलम्बियों के लिए एक पवित्र नगरी है। भगवान बुद्ध का इस धरती पर तीन बार आगमन हुआ। भगवान बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। ऐतिहासिक महत्त्व के होने के अलावे आज यह जिला राष्ट्रीय स्तर के कई संस्थानों तथा केले, आम और लीची के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। .

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गणधर

गणधर जैन दर्शन में प्रचलित एक उपाधि है। जो अनुत्तर, ज्ञान और दर्शन आदि धर्म के गण को धारण करता है वह गणधर कहा जाता है। इसको तीर्थंकर के शिष्यों के अर्थ में ही विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। गणधर को द्वादश अंगों में पारंगत होना आवश्यक है। प्रत्येक तीर्थंकर के अनेक गणधर कहे गए हैं। महावीर स्वामी के 11 गणधर थे। उनके नाम, गोत्र और निवासस्थान इस प्रकार हैं: १इंद्रभुति गौतम (गोर्वरग्राम) २.अग्निभूति गोतम (गोर्वरग्राम) ३.वायुभूति गोतम (गोर्वरग्राम) ४.व्यक्त भारद्वाज कोल्लक (सन्निवेश) ५.सुधर्म अग्निवेश्यायन कोल्लक (सन्निवेश) ६.मंडिकपुत्र वाशिष्ठ मौर्य (सन्निवेश) ७.भौमपुत्र कासव मौर्य (सन्निवेश) ८. अकंपित गोतम (मिथिला) ९.अचलभ्राता हरिभाण (कोसल) १०.मेतार्य कौंडिन्य तुंगिक (सन्निवेश) ११.प्रभास कौंडिन्य (राजगृह)। .

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गंगेश उपाध्याय

गंगेश उपाध्याय भारत के १३वी शती के गणितज्ञ एवं नव्य-न्याय दर्शन परम्परा के प्रणेता प्रख्यात नैयायिक थे। उन्होंने वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८०) की विचारधारा को बढ़ाया। .

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गौड़ सारस्वत ब्राह्मण

कोई विवरण नहीं।

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गौतम

संस्कृत साहित्य में गौतम का नाम अनेक विद्याओं से संबंधित है। वास्तव में गौतम ऋषि के गोत्र में उत्पन्न किसी व्यक्ति को 'गौतम' कहा जा सकता है अत: यह व्यक्ति का नाम न होकर गोत्रनाम है। वेदों में गौतम मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। एक मेधातिथि गौतम, धर्मशास्त्र के आचार्य हो गए हैं। बुद्ध को भी 'गौतम' अथवा (पाली में 'गोतम') कहा गया है। न्यायसूत्रों के रचयिता भी गौतम माने जाते हैं। उपनिषदों में भी गौतम नामधारी अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों, महाभारत तथा रामायण में भी गौतम की चर्चा है। यह कहना कठिन है कि ये सभी गौतम एक ही है। रामायण में ऋषि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या की कथा मिलती है। अहल्या के शाप का उद्धार राम ने मिथिला के रास्ते में किया था। अत: गौतम का निवास मिथिला में ही होना चाहिए और यह बात मिथिला में 'गौतमस्थान' तथा 'अहल्यास्थान' नाम से प्रसिद्ध स्थानों से भी पुष्ट होती है। चूँकि न्यायशास्त्र के लिये मिथिला विख्यात रही है अत: गौतम (नैयायिक) का मैथिल होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। .

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गोरामानसिंह

गोरमानसिंह एक छोटा गांव है जो बिहार प्रान्त के दरभंगा जिलान्तर्गत आता है। यह गांव जिला मुख्यालय से लगभग ६० कि॰मी॰ दूर कमला-बलान नदी के किनारे बसा है। प्रत्येक वर्ष कमला बलान के उमड्ने से प्रायः जुलाई में यंहा बाढ आ जाती है। बाढग्रसित क्षेत्र से पानी निर्गत होने में काफी समय लगता है जिससे जानमाल, फसल एवं द्रव्य की काफी क्षति होती है। नियमित बाढ आगमन से इस क्षेत्र में अभी तक पक्की सड्क एवं बिजली का अभाव है। इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। यहां का मुख्य व्यवसायिक केन्द्र सुपौल बाजार है जहां दूर-दूर से लोग पैदल या नौका यात्रा करके अपने सामानों की खरीद-विक्री के लिये आते हैं। दिसंबर से मार्च महीने तक लगातार जल-जमाव रहने से इस गांव के चौर क्षेत्र में विभिन्न देशों से कुछ प्रवासी पक्षी भी आतें हैं। प्रवासी पक्षीयों में लालसर, दिघौंच, सिल्ली, अधनी, चाहा, नक्ता, मैल, हरियाल, कारण, रतवा, इत्यादि प्रमुख है। ये पक्षीयां मुलतः नेपाल, तिब्बत, भुटान, चीन, पाकिस्तान, मंगोलिया, साइबेरिया इत्यादि देशों से आतें है। बाढ के पानी में डुबी हुई धान की फसलें बाढ के दिनों मे नौका यात्रा करते लोग प्रवासी पक्षीयां .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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आन्वीक्षिकी

आन्वीक्षिकी, न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी, विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी (आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतवः) जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा "आन्वीक्षिकी" पड़ गई। आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्व को सर्वप्रथम चाणक्य ने प्रतिपादित किया है। उनका कहना है- 'अन्वीक्षा' के दो अर्थ हैं.

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आर्यावर्त

आर्यावर्त प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'उत्तरी भारत' को आर्यावर्त (शाब्दिक अर्थ: आर्यों का निवासस्थान) कहा गया है। .

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इक्ष्वाकु

इक्ष्वाकु, प्राचीन भारत के इक्ष्वाकु वंश के प्रथम राजा थे। 'इक्ष्वाकु' शब्द 'इक्षु' से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ ईख होता है। पौराणिक परंपरा के अनुसार इक्ष्वाकु, विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु के पुत्र थे। पौराणिक कथा इक्ष्वाकु को अमैथुनी सृष्टि द्वारा मनु की छींक से उत्पन्न बताती है। वे सूर्यवंशी राजाओं में पहले माने जाते हैं। उनकी राजधानी कोसल (अयोध्या) थी। उनके १०० पुत्र बताए जाते हैं जिनमें ज्येष्ठ विकुक्षि था। इक्ष्वाकु के एक दूसरे पुत्र निमि ने मिथिला राजकुल स्थापित किया। साधारणत: बहुवचनांतक इक्ष्वाकुओं का तात्पर्य इक्ष्वाकु से उत्पन्न सूर्यवंशी राजाओं से होता है, परंतु प्राचीन साहित्य में उससे एक इक्ष्वाकु जाति का भी बोध होता है। इक्ष्वाकु का नाम, केवल एक बार, ऋग्वेद में भी प्रयुक्त हुआ है जिसे मैक्समूलर ने राजा की नहीं, बल्कि जातिवाचक संज्ञा माना है। इक्ष्वाकुओं की जाति जनपद में उत्तरी भागीरथी की घाटी में संभवत: कभी बसी थी। कुछ विद्वानों के मत से उत्तर पश्चिम के जनपदों में भी उनका संबंध था। सूर्यवंश की शुद्ध अशुद्ध सभी प्रकार की वंशावलियाँ देश के अनेक राजकुलों में प्रचलित हैं। उनमें वैयक्तिक राजाओं के नाम अथवा स्थान में चाहे जितने भेद हों, उनका आदि राजा इक्ष्वाकु ही है। इससे कुछ अजब नहीं, जो वह सुदूर पूर्वकाल में कोई ऐतिहासिक व्यक्ति रहे हों। .

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कन्नौज

कन्नौज, भारत में उत्तर प्रदेश प्रांत के कन्नौज जिले का मुख्यालय एवं प्रमुख नगरपालिका है। शहर का नाम संस्कृत के कान्यकुब्ज शब्द से बना है। कन्नौज एक प्राचीन नगरी है एवं कभी हिंदू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के हैं। विन्ध्योत्तर निवासी एक ब्राह्मणौंकी समुह है जिनको पंचगौड कहते हैं। उनमें गौड, सारस्वत, औत्कल, मैथिल,और कान्यकुब्ज है। उनकी ऐसी प्रसिद्ध लोकोक्ति प्रचलित है- ""सर्वे द्विजाः कान्यकुब्जाःमागधीं माथुरीं विना"" कान्यकुब्जी ब्राह्मण अपनी इतिहासको बचाये रखें | वर्तमान कन्नौज शहर अपने इत्र व्यवसाय के अलावा तंबाकू के व्यापार के लिए मशहूर है। कन्नौज की जनसंख्या २००१ की जनगणना के अनुसार ७१,५३० आंकी गयी थी। यहाँ मुख्य रूप से कन्नौजी भाषा/ कनउजी भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। यहाँ के किसानों की मुख्य फसल आलू है। .

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कापू (जाति)

कापू (तेलुगु కాపు) मुख्यतः आंध्र प्रदेश तथा तेलंगण निवासी एक जाति है। तेलुगु में कपू या कापू शब्द का मतलब 'किसान' या संरक्षक है। कापू लोग तेलुगु बोलते हैं और मुख्यतः खेती करते हैं। इन्हें कुलनाम नायडू से भी जाना जाता है जिसका अर्थ नेता है। हालांकि कई अन्य कृषि समुदायों द्वारा भी नायडू/नायक/नायकर का प्रयोग किया जाता है। मुन्नुरु कापू, तेलगा, बलीजा, तुर्पू कापू और ओंटारी आदि इसकी उपजातियाँ हैं। आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय मुख्यतः तटीय जिलों, उत्तरी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र में केंद्रित है। ये तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और कुछ अन्य भारतीय राज्यों के साथ-साथ श्रीलंका में भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। कापू की उपजातियों में बलीजा, तेलगा, मुन्नुरु कापू, तुर्पू कापू और ओंटारी उपजातियां आंध्र प्रदेश की आबादी का लगभग 28 प्रतिशत हिस्सा हैं, अतः वे इस राज्य में सबसे बड़ा जातिसमूह हैं। 20वीं सदी के अंतिम दशक में उनमें से कुछ लोग विदेशों में, विशेष तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, बोनेयर, न्यूजीलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, सिंगापुर, कनाडा, त्रिनिदाद, नीदरलैंड, जिम्बाब्वे, कुराकाओ, चीन, गुयाना, मॉरीशस और आस्ट्रेलिया में जाकर बस गए। .

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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काशी का इतिहास

वाराणसी (बनारस), १९२२ ई गंगा तट पर बसी काशी बड़ी पुरानी नगरी है। इतने प्राचीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास ही अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश। काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का देश अपवित्र माना जाता था।Chandravanshee .

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कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद कौषीतकि उपनिषद का पूरा नाम है। यह एक ऋग्वेदीय उपनिषद है।कौषीतकि उपनिषद ॠग्वेद के कौषीतकि ब्राह्मण का अंश है। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इस उपनिषद में जीवात्मा और ब्रह्मलोक, प्राणोपासना, अग्निहोत्र, विविध उपासनाएं, प्राणतत्व की महिमा तथा सूर्य, चन्द्र, विद्युत मेघ, आकाश, वायु, अग्नि, जल, दर्पण और प्रतिध्वनि में विद्यमान चैतन्य तत्व की उपासना पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में 'आत्मतत्त्व' के स्वरूप और उसकी उपासना से प्राप्त फल पर विचार किया गया है। .

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कैथी

कैथी लिपि का प्रिन्ट रूप (१९वीं शताब्दी के मध्य) कैथी लिपि का हस्तलिखित रूप कैथी एक ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था। खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं ।। इसे "कयथी" या "कायस्थी", के नाम से भी जाना जाता है। पूर्ववर्ती उत्तर-पश्चिम प्रांत, मिथिला, बंगाल, उड़ीसा और अवध में। इसका प्रयोग खासकर न्यायिक, प्रशासनिक एवं निजी आँकड़ों के संग्रहण में किया जाता था। .

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कोहबर

कोहबर (कौतुकगृह, कोष्ठवर) उत्तरी-मध्य भारत (अवध, पूर्वांचल और मिथिला क्षेत्र) और इससे संलग्न नेपाल के तराई क्षेत्र (विशेषकर जनकपुर अंचल) में प्रचलित चित्रकारी की एक विधा है। विवाह के समय, घर के किसी एक कमरे में पूर्वी दीवाल पर गोबर से लीप कर, पिसी हल्दी (ऐपन) और पिसे चावल (चौरठ) से चित्रकारी की जाती है; इसके ठीक नीचे जमीन पर गोबर से लीप कर विविध पूजन सामग्रियाँ रखी जाती हैं। वर एवं वधू पक्ष दोनों के घर में, विवाह की विविध रस्मों में से एक कार्यक्रम कोहबर पूजन का भी होता है जिसमें भीत पर बने इस कोहबर का पूजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों के दौरान कुछ विशेष संस्कार-गीत भी गाये जाते हैं जिन्हें कोहबर गीत कहते हैं और इनमें वर-वधू के बीच प्रेम भाव बढ़ाने की भावना होती है। कोहबर घर के उस कमरे को भी कहते हैं जहाँ यह चित्रांकन किया जाता है। वधू के आगमन पर उसे इसी कक्ष में रहना होता है। .

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अब्द

अब्द का अर्थ वर्ष है। यह वर्ष, संवत्‌ एवं सन्‌ के अर्थ में आजकल प्रचलित है क्योंकि हिंदी में इस शब्द का प्रयोग सापेक्षिक दृष्टि से कम हो गया है। शताब्दी, सहस्राब्दी, ख्रिष्टाब्द आदि शब्द इसी से बने हैं। अनेक वीरों, महापुरुषों, संप्रदायों एवं घटनाओं के जीवन और इतिहास के आरंभ की स्मृति में अनेक अब्द या संवत्‌ या सन्‌ संसार में चलाए गए हैं, यथा, १. सप्तर्षि संवत् - सप्तर्षि (सात तारों) की कल्पित गति के साथ इसका संबंध माना गया है। इसे लौकिक, शास्त्र, पहाड़ी या कच्चा संवत्‌ भी कहते हैं। इसमें २४ वर्ष जोड़ने से सप्तर्षि-संवत्‌-चक्र का वर्तमान वर्ष आता है। २. कलियुग संवत् - इसे 'महाभारत सम्वत' या 'युधिष्ठिर संवत्‌' कहते हैं। ज्योतिष ग्रंथों में इसका उपयोग होता है। शिलालेखों में भी इसका उपयोग हुआ है। ई.॰ईपू॰ ३१०२ से इसका आरंभ होता है। वि॰सं॰ में ३०४४ एवं श.सं.

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अरुन्धती (महाकाव्य)

अरुन्धती हिन्दी भाषा का एक महाकाव्य है, जिसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) ने १९९४ में की थी। यह महाकाव्य १५ सर्गों और १२७९ पदों में विरचित है। महाकाव्य की कथावस्तु ऋषिदम्पती अरुन्धती और वसिष्ठ का जीवनचरित्र है, जोकि विविध हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित है। महाकवि के अनुसार महाकाव्य की कथावस्तु का मानव की मनोवैज्ञानिक विकास परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।रामभद्राचार्य १९९४, पृष्ठ iii—vi। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन श्री राघव साहित्य प्रकाशन निधि, हरिद्वार, उत्तर प्रदेश द्वारा १९९९४ में किया गया था। पुस्तक का विमोचन तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा जुलाई ७, १९९४ के दिन किया गया था। .

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अष्टावक्र (महाकाव्य)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग। .

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अहिल्या स्थान

दरभंगा जिले सदर अनुमंडल के अंतर्गत अहियारी गाँव है, जो अहिल्या स्थान के नाम से विख्यात है। कमतौल रेलवे स्टेशन से उतरकर यहाँ पहुंचा जाता है। यह स्थान सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी से 40 कि॰मी॰ पूर्व में स्थित है। कहा जाता है कि ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से इसी स्थान पर राम ने अहिल्या का उद्धार किया था। डॉ राम प्रकाश शर्मा के अनुसार "इसमें कोई संदेह नहीं है कि अहिल्या-नगरी अथवा गौतम आश्रम मिथिला में ही था। भोजपुर में राम ने ताड़का -बध किया था। वहाँ सानुज राम ने ऋषि विश्वामित्र की यज्ञ की रक्षा उत्पाती राक्षसों का अपनी शक्ति से दमन कर की थी। मिथिला राज्य में प्रवेश कर पहले राम ने अहिल्या का उद्धार किया, और तत्पश्चात वहाँ से प्राग उत्तर दिशा (ईशान कोण) में चलकर वे ऋषि विश्वामित्र के साथ विदेह नागरी जनकपुर पहुंचे। अहिल्या का उद्धार, चित्र: रवि वर्मा रामायण में वर्णित कथा के अनुसार राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले तो उन्होंने एक उपवन में एक निर्जन स्थान देखा। राम बोले, "भगवन्! यह स्थान देखने में तो आश्रम जैसा दिखाई देता है किन्तु क्या कारण है कि यहाँ कोई ऋषि या मुनि दिखाई नहीं देते?" विश्वामित्र जी ने बताया, यह स्थान कभी महर्षि गौतम का आश्रम था। वे अपनी पत्नी के साथ यहाँ रह कर तपस्या करते थे। एक दिन जब गौतम ऋषि आश्रम के बाहर गये हुये थे तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या से प्रणय याचना की। यद्यपि अहिल्या ने इन्द्र को पहचान लिया था तो भी यह विचार करके कि मैं इतनी सुन्दर हूँ कि देवराज इन्द्र स्वयं मुझ से प्रणय याचना कर रहे हैं, अपनी स्वीकृति दे दी। जब इन्द्र अपने लोक लौट रहे थे तभी अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ी जो उन्हीं का वेश धारण किये हुये था। वे सब कुछ समझ गये और उन्होंने इन्द्र को शाप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी को शाप दिया कि रे दुराचारिणी! तू हजारों वर्षों तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहाँ राख में पड़ी रहे। जब राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी। यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने लगे। इसलिये विश्वामित्र जी ने कहा "हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहिल्या का उद्धार करो।" विश्वामित्र जी की बात सुनकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। वहाँ तपस्या में निरत अहिल्या कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, केवल उसका तेज सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो रहा था। जब अहिल्या की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके पवित्र दर्शन पाकर एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में दिखाई देने लगी। नारी रूप में अहिल्या को सम्मुख पाकर राम और लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उनके चरण स्पर्श किये।उससे उचित आदर सत्कार ग्रहण कर वे मुनिराज के साथ पुनः मिथिला पुरी को लौट आये। .

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अक्रूर

अक्रूर कृष्णकालीन एक यादववंशी मान्य व्यक्ति थे। ये सात्वत वंश में उत्पन्न वृष्णि के पौत्र थे। इनके पिता का नाम श्वफल्क था जिनके साथ काशी के राजा अपनी पुत्री गांदिनी का विवाह किया था। इन्हीं दोनों की संतान होने से अक्रूर श्वाफल्कि तथा गांदिनीनंदन के नाम से भी प्रसिद्ध थे। मथुरा के राजा कंस की सलाह पर बलराम तथा कृष्ण को वृन्दावन से मथुरा लाए (भागवत १०.४०)। स्यमंतक मणि से भी इनका बहुत संबंध था। अक्रूर तथा कृतवर्मा द्वारा प्रोत्साहित होने पर शतधन्वा ने कृष्ण के श्वसुर तथा सत्यभामा के पिता सत्राजित का वध कर दिया। फलतः क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मिथिला तक पीछा कर मार डाला, पर मणि उसके पास नहीं निकली। वह मणि अक्रूर के ही पास थी जो डरकर द्वारिका से बाहर चले गए थे। उन्हें मनाकर कृष्ण मथुरा लाए तथा अपने बंधु वर्गों में बढ़ने वाले कलह को उन्होंने शांत किया (भागवत १०.५७)। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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उभयभारती

उभयभारती मंडन मिश्र की पत्नी। इनके 'शारदा' तथा 'सरसवाणी' नाम भी मिलते हैं। अपनी दिग्विजय यात्रा के बीच शंकराचार्य मिथिला पहुँचे और वहाँ उन्होंने शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र को पराजित कर दिया। इसपर मंडन मिश्र की भार्या उभयभारती ने शंकराचार्य को कामशास्त्र पर शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा। शंकराचार्य उस समय तक कामशास्त्र के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। अत: तत्काल वे उभयभारती की चुनौती स्वीकार न कर सके। पश्चात्‌ कामशास्त्र का सम्यक्‌ अध्ययन करने के उपरांत उन्होंने उभयभारती से शास्त्रार्थ किया और उन्हें पराजित भी किया। परिणामस्वरूप मंडन मिश्र और उनकी पत्नी दोनों को ही शंकराचार्य का अनुयायी बनना पड़ा। श्रेणी:भारतीय दार्शनिक.

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उर्वीजा

उर्वीजा सीता का एक और नाम है। मिथिला नरेश जनक के हल-कर्षण-यज्ञ के फलस्वरूप पृथ्वी से उत्पन्न होने के कारण सीता का यह नाम पड़ा। "ऊर्वी" का अभिप्राय "पृथ्वी" से है और "जा" प्रत्यय का अभिप्राय है जन्मना अर्थात जन्म लेना। यानि उर्बीजा का मतलब है पृथ्वी से जन्मना। यद्यपि सीता पृथवी से उत्पन्न हुयी थी, इसलिए उन्हें उर्वीजा भी कहा जाता है। वे जनकपुर के राजा जनक की पुत्री,राम की पत्नी तथा अयोध्या के राजा दशरथ की पुत्रवधू थीं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

मिथिलांचल, मिथिलांचल क्षेत्र, मैथिल

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