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मानव का पोषण नाल

सूची मानव का पोषण नाल

मानव का पाचक तंत्र मानव का पाचक नाल या आहार नाल (Digestive or Alimentary Canal) 25 से 30 फुट लंबी नाल है जो मुँह से लेकर मलाशय या गुदा के अंत तक विस्तृत है। यह एक संतत लंबी नली है, जिसमें आहार मुँह में प्रविष्ट होने के पश्चात्‌ ग्रासनाल, आमाशय, ग्रहणी, क्षुद्रांत्र, बृहदांत्र, मलाशय और गुदा नामक अवयवों में होता हुआ गुदाद्वार से मल के रूप में बाहर निकल जाता है। .

29 संबंधों: चारा, चौलाई, एसिटिक अम्ल, परभक्षी, पाचन, पित्ताशय, प्रोबायोटिक, पैप्टिक अल्सर, पेचिश, बृहदान्त्र, मानव मल, मानव मुख, मानव का पाचक तंत्र, मुँह, मोम की पर्त, लैक्टोबैसिलस, समुद्री प्रदूषण, सहजीवन, जठरांत्र क्षेत्र, जठरांत्ररोगविज्ञान, वातरक्त, विटामिन सी, गुदा, आमाशय (पेट), आहारीय रेशा, कब्ज, अग्नि (आयुर्वेद), अग्न्याशय, अंग तंत्र

चारा

घास चर रही गाय सायकिल से हरा चारा घर लाया जा रहा है गाय, बैल, भैंस, बकरी, घोड़ा आदि पालतू पशुओं को खिलाये जाने योग्य सभी चीजें चारा या 'पशुचारा' या 'पशु आहार' कहलातीं हैं। पशु को 24 घंटों में खिलाया जाने वाला आहार (दाना व चारा) जिसमें उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भोज्य तत्व मौजूद हों, पशु आहार कहते हैं। जिस आहार में पशु के सभी आवश्यक पोषक तत्व उचित अनुपात तथा मात्रा में उपलव्ध हों, उसे संतुलित आहार कहते हैं। .

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चौलाई

चौलाई (अंग्रेज़ी: आमारान्थूस्), पौधों की एक जाति है जो पूरे विश्व में पायी जाती है। bhiअब तक इसकी लगभग ६० प्रजातियां पाई व पहचानी गई हैं, जिनके पुष्प पर्पल एवं लाल से सुनहरे होते हैं। गर्मी और बरसात के मौसम के लिए चौलाई बहुत ही उपयोगी पत्तेदार सब्जी होती है। अधिकांश साग और पत्तेदार सब्जियां शित ऋतु में उगाई जाती हैं, किन्तु चौलाई को गर्मी और वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है। इसे अर्ध-शुष्क वातावरण में भी उगाया जा सकता है पर गर्म वातावरण में अधिक उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए बिना कंकड़-पत्थर वाली मिट्टी सहित रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। इसकी खेती सीमांत भूमियों में भी की जा सकती है। .

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एसिटिक अम्ल

शुक्ताम्ल (एसिटिक अम्ल) CH3COOH जिसे एथेनोइक अम्ल के नाम से भी जाना जाता है, एक कार्बनिक अम्ल है जिसकी वजह से सिरका में खट्टा स्वाद और तीखी खुशबू आती है। यह इस मामले में एक कमज़ोर अम्ल है कि इसके जलीय विलयन में यह अम्ल केवल आंशिक रूप से विभाजित होता है। शुद्ध, जल रहित एसिटिक अम्ल (ठंडा एसिटिक अम्ल) एक रंगहीन तरल होता है, जो वातावरण (हाइग्रोस्कोपी) से जल सोख लेता है और 16.5 °C (62 °F) पर जमकर एक रंगहीन क्रिस्टलीय ठोस में बदल जाता है। शुद्ध अम्ल और उसका सघन विलयन खतरनाक संक्षारक होते हैं। एसिटिक अम्ल एक सरलतम कार्बोक्जिलिक अम्ल है। ये एक महत्वपूर्ण रासायनिक अभिकर्मक और औद्योगिक रसायन है, जिसे मुख्य रूप से शीतल पेय की बोतलों के लिए पोलिइथाइलीन टेरिफ्थेलेट; फोटोग्राफिक फिल्म के लिए सेलूलोज़ एसिटेट, लकड़ी के गोंद के लिए पोलिविनाइल एसिटेट और सिन्थेटिक फाइबर और कपड़े बनाने के काम में लिया जाता है। घरों में इसके तरल विलयन का उपयोग अक्सर एक डिस्केलिंग एजेंट के तौर पर किया जाता है। खाद्य उद्योग में एसिटिक अम्ल का उपयोग खाद्य संकलनी कोड E260 के तहत एक एसिडिटी नियामक और एक मसाले के तौर पर किया जाता है। एसिटिक अम्ल की वैश्विक मांग क़रीब 6.5 मिलियन टन प्रतिवर्ष (Mt/a) है, जिसमें से क़रीब 1.5 Mt/a प्रतिवर्ष पुनर्प्रयोग या रिसाइक्लिंग द्वारा और शेष पेट्रोरसायन फीडस्टोक्स या जैविक स्रोतों से बनाया जाता है। स्वाभाविक किण्वन द्वारा उत्पादित जलमिश्रित एसिटिक अम्ल को सिरका कहा जाता है। .

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परभक्षी

भारतीय अजगर एक चीतल को मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य, केरल में निगलता हुआ परभक्षी (predator) वह वन्य जीव होता है जो अन्य प्राणियों का शिकार करके उन्हें खाकर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरता है।Begon, M., Townsend, C., Harper, J. (1996).

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पाचन

पाचन वह क्रिया है जिसमें भोजन को यांत्रि‍कीय और रासायनिक रूप से छोटे छोटे घटकों में विभाजित कर दिया जाता है ताकि उन्हें, उदाहरण के लिए, रक्तधारा में अवशोषित किया जा सके.

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पित्ताशय

पित्ताशय एक लघु ग़ैर-महत्वपूर्ण अंग है जो पाचन क्रिया में सहायता करता है और यकृत में उत्पन्न पित्त का भंडारण करता है। .

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प्रोबायोटिक

लैक्टोबैसिलस जीवाणु प्रोबायोटिक जीवाणु है, जो दूध को दही में बदलता है। प्रोबायोटिक एक प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, जिसमें जीवित जीवाणु या सूक्ष्मजीव शामिल होते हैं। प्रोबायोटिक विधि रूसी वैज्ञानिक एली मैस्निकोफ ने २०वीं शताब्दी में प्रस्तुत की थी। इसके लिए उन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।। हिन्दुस्तान लाइव। १ दिसम्बर २००९ विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रोबायोटिक वे जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं जिसका सेवन करने पर मानव शरीर में जरूरी तत्व सुनिश्चित हो जाते हैं।। बिज़नेस भास्कर। २४ मई २००९। डॉ॰ रतन सागर खन्ना ये शरीर में अच्छे जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि कर पाचन क्रिया को बेहतर बनाते हैं।। बिज्नेस स्टैण्डर्ड। नेहा भारद्वाज। १८ सितंबर २००८ इस विधि के अनुसार शरीर में दो तरह के जीवाणु होते हैं, एक मित्र और एक शत्रु। भोजन के द्वारा यदि मित्र जीवाणुओं को भीतर लें तो वे धीरे-धीरे शरीर में उपलब्ध शत्रु जीवाणुओं को नष्ट करने में कारगर सिद्ध होते हैं। मित्र जीवाणु प्राकृतिक स्रोतों और भोजन से प्राप्त होते हैं, जैसे दूध, दही और कुछ पौंधों से भी मिलते हैं। अभी तक मात्र तीन-चार ही ऐसे जीवाणु ज्ञात हैं जिनका प्रयोग प्रोबायोटिक रूप में किया जाता है। इनमें लैक्टोबेसिलस, बिफीडो, यीस्ट और बेसिल्ली हैं। इन्हें एकत्र करके प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थ में डाला जाता है। वैज्ञानिकों के अब तक के अध्ययन के अनुसार इस तरह से शरीर में पहुंचने वाले जीवाणु किसी प्रकार की हानि भी नहीं पहुंचाते हैं। शोधों में रोगों के रोकथाम में इनकी भूमिका सकारात्मक पाई गई है तथा इनके कोई दुष्प्रभाव भी ज्ञात नहीं हैं। .

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पैप्टिक अल्सर

गैस्ट्रेक्टोमी प्रक्रिया द्वारा एक गैस्ट्रिक अल्सर का चित्र गैस्ट्रिक अल्सर पाचन तंत्र के अस्तर पर घावों को कहा जाता है। ये अम्ल (एसिड) की अधिकता के कारण आमाशय या आंत में होने वाले घाव के कारण होते हैं। अल्सर अधिकतर ड्यूडेनम (आंत का पहला भाग) में होता है। दूसरा सबसे आम भाग पेट है (आमाशय अल्सर)। पैप्टिक अल्सर के कई कारण हो सकते हैं.

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पेचिश

पेचिश (Dysentery) या प्रवाहिका, पाचन तंत्र का रोग है जिसमें गम्भीर अतिसार (डायरिया) की शिकायत होती है और मल में रक्त एवं श्लेष्मा (mucus) आता है। यदि इसकी चिकित्सा नहीं की गयी तो यह जानलेवा भी हो सकता है। .

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बृहदान्त्र

बृहदान्त्र (large intestine या large bowel), जठरांत्र क्षेत्र तथा पाचन तंत्र का अंतिम भाग है। इस भाग में जल का शोषण करके बचे हुए अपशिष्ट को मल के रूप में भण्डारित किया जाता है जो मल विसर्जन द्वारा गुदा मार्ग से बाहर आता है। .

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मानव मल

मानव मल मानव के पाचन तंत्र के अन्तिम भाग (गुदा द्वार) से निकलने वाले पदार्थ को मानव मल कहते हैं। आकार, रंग, मात्रा आदि की दृष्टि से मानव मल में बहुत अधिक भिन्नता पायी जाती है जो ग्रहण किये गये भोजन, पाचन तंत्र के स्वास्थ्य की स्थिति एवं सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति पर निर्भर करता है। .

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मानव मुख

मानव मुख के अन्दर मानव शरीररचना के सन्दर्भ में मुख, पोषण नाल का प्रथम अंग है।.

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मानव का पाचक तंत्र

मानव का पाचन-तन्त्र मानव के पाचन तंत्र में एक आहार-नाल और सहयोगी ग्रंथियाँ (यकृत, अग्न्याशय आदि) होती हैं। आहार-नाल, मुखगुहा, ग्रसनी, ग्रसिका, आमाशय, छोटी आंत, बड़ी आंत, मलाशय और मलद्वार से बनी होती है। सहायक पाचन ग्रंथियों में लार ग्रंथि, यकृत, पित्ताशय और अग्नाशय हैं। .

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मुँह

मुँह जंतुओं की आहार नली का प्रथम भाग होता है जिसको आहार और लार मिलता है। ओरल म्यूकोसा मुँह के अन्दर की उपकला में श्लेष्म झिल्ली होती है। अपनी मुख्य क्रिया यानि पाचक तंत्र की पहली कड़ी के अतिरिक्त मनुष्यों में मुँह एक और अहम कार्य करता है जो कि है एक दूसरे के साथ वार्तालाप के द्वारा संपर्क करना। हालांकि ध्वनि का मुख्य स्रोत गला होता लेकिन इस ध्वनि को भाषा का रूप जीभ, होंठ, जबड़ा और ऊपरी मुँह का तालु देते हैं। मुँह का अन्दरुनी भाग अमूमन लार की वजह से गीला रहता है और होंठ से मुँह के अन्दर की श्लेष्म झिल्ली त्वचा-जो कि बाकी शरीर को ढँकती है- में परिवर्तित हो जाती है। .

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मोम की पर्त

वैक्स कोटिंग वाले फल चमकदार होने से मन लुभाते हैं मोम की पर्त (अंग्रेज़ी:वैक्स कोटिंग) फलों और सब्जियों को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखने का आधुनिक तरीका है, किंतु इसे प्रेज़र्वेशन से भिन्न समझें।।हिन्दुस्तान लाइव।।३ अक्टूबर,२००९। सौरभ सुमन इसका प्रयोग विशेषकर परिवहन के समय फलों और सब्जियों को सड़ने और गलने से बचाने के लिए किया जाता है। इसमें एक प्रकार का खाद्य मोम (एडीबल वैक्स) का प्रयोग होता है। इस खाद्य मोम की एक महीन पर्त फलों और सब्जियों के छिलके के ऊपर चढ़ाई जाती है। इससे ये फल, इत्यादि आठ से बारह दिनों तक मौसम के प्रभाव से बचे रहते हैं व सड़ते या गलते नहीं हैं।।। बिज़नेस भास्कर।२१ सितंबर, २००९। डॉ॰ एस मुखर्जी, कृषि अनुसंधान केंद्र दुर्गापुरा, जयपुर यह मोम स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है, यदि खाद्य मोम ही प्रयोग किया गया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार कृषि उत्पादों का लगभग ६५ प्रतिशत ही बाजारों तक पहुंच पाता है, बाकी परिवहन के दौरान खराब होकर बेकार हो जाता है। इस प्रकार किसानों के लाभ में भी फर्क पड़ता है, व दूसरी ओर ये फलों के मूल्व की वृद्धि करता है। इस प्रक्रिया के लिए प्रयोग होने वाला के खाद्य श्रेणी का मोम सेंपरफ्रेश है, जिससे फलों और सब्जियों पर कोटिंग करने से इनकी ताजगी कई दिनों तक बनी रहती है। फलों और सब्जियों पर पर्त चढ़ाने का यह बहुत सस्ता तरीका है। साधारण मोम की पर्त मात्र उन फलों व सब्जियों पर चढ़ायी जाती थीं, जिनके छिलके मोटे होते थे, जैसे लौकी, तुरई आदि, किंतु बाजारों में उपलब्ध नये मोम सेंपरफ्रेश को किसी भी तरह के छिलके (मोटे हों या पतले) वाले फलों और सब्जियों पर चढ़ाई जा सकती है। सेंपरफ्रेश से पर्त चढ़ाने के लिए उसमें ओलिक एसिड और ट्राईइथेलॉल एमाइन का मिश्रण बनाते हैं। फिर इस घोल से फलों और सब्जियों पर छिड़काव किया जाता है। अन्य खाद्य मोम की पर्त चढ़ाने के लिए सब्जियों को मोम के पिछले घोल में डुबाकर निकाल लिया जाता है और इसे छाया में सूखा लिया जाता है। इस प्रक्रिया से सब्जियों पर जल्दी फफूंद नहीं लगती। यहां ये ध्यानयोग्य है, कि सेंपरफ्रेश की पर्त चढ़ाने के बाद भी फलों और सब्जियों को छाया में सुखाना उतना ही आवश्यक होता है। इस प्रकार रखरखाव व परिवहन की असुविधा के कारण किसानों को होने वाले भारी नुकसान से बचने का यह बेहतर तरीका है। सेंपरफ्रेश एवं अन्य खाद्य मोम आसानी से बाजार में उपलब्ध होते हैं। फलों और सब्जियों पर इस मोम की पर्त चढ़ाने का खर्च लगभग १५-१५ पैसे प्रति किलो आता है। इसके अलावा इस पर्त को चढ़ाने के बाद फलों में चमक भी आ जाती है, जो ग्राहकों को लुभाती हैं। कृषि अनुसंधानों में यह पाया गया है कि कानरेवा वैक्स की पर्त चढ़ाने से सब्जियों की चमक तो बढ़ती ही है, साथ ही नमी बरकरार रहने से लंबी अवधि तक इनको भंडारगृह में रख कर किसान इनको ओने-पौने दामों पर बेचने की मजबूरी से बच सकते हैं। मानक मोम की पर्त के अलावा अन्य सस्ते उपलब्ध मोम स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकते हैं। इनमें खासकर विदेशों से आने वाले फलों आदि से सावधाण रहना चाहिये। छत्रपति शाहूजी महराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के औषधि विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो॰ सी.जी.

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लैक्टोबैसिलस

लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया लैक्टोबैसिलस (Lactobacillus) एक जीवाणु है जो स्त्रियों की योनि में तथा मानवों के आहार नाल में पाया जाता है। इनका आकार दण्ड (रॉड) जैसा होता है। श्रेणी:जीवाणु.

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समुद्री प्रदूषण

अक्सर प्रदूषण के कारण ज्यादातर नुकसान को देखा नहीं जा सकता है, जबकि समुद्री प्रदूषण को स्पष्ट किया जा सकता है जैसा कि समुद्र के ऊपर दिखाए गए मलबे को देखा जा सकता है। समुद्री प्रदूषण तब होता है जब रसायन, कण, औद्योगिक, कृषि और रिहायशी कचरा, शोर या आक्रामक जीव महासागर में प्रवेश करते हैं और हानिकारक प्रभाव, या संभवतः हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। समुंद्री प्रदूषण के ज्यादातर स्रोत थल आधारित होते हैं। प्रदूषण अक्सर कृषि अपवाह या वायु प्रवाह से पैदा हुए कचरे जैसे अस्पष्ट स्रोतों से होता है। कई सामर्थ्य ज़हरीले रसायन सूक्ष्म कणों से चिपक जाते हैं जिनका सेवन प्लवक और नितल जीवसमूह जन्तु करते हैं, जिनमें से ज्यादातर तलछट या फिल्टर फीडर होते हैं। इस तरह ज़हरीले तत्व समुद्री पदार्थ क्रम में अधिक गाढ़े हो जाते हैं। कई कण, भारी ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हुई रसायनिक प्रक्रिया के ज़रिए मिश्रित होते हैं और इससे खाड़ियां ऑक्सीजन रहित हो जाती हैं। जब कीटनाशक समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में शामिल होते हैं तो वो समुद्री फूड वेब में बहुत जल्दी सोख लिए जाते हैं। एक बार फूड वेब में शामिल होने पर ये कीटनाशक उत्परिवर्तन और बीमारियों को अंजाम दे सकते हैं, जो इंसानों के लिए हानिकारक हो सकते हैं और समूचे फूड वेब के लिए भी.

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सहजीवन

क्लाउनफिश रीढीविहीन जंतुओं पर निर्भर रहती है सहजीवन (Symbiosis) को 'सहोपकारिता' (Mutualism) भी कहते हैं। यह दो प्राणियों में पारस्परिक, लाभजनक, आंतरिक साझेदारी है। यह सहभागिता के (partnership) दो पौधों या दो जंतुओं के बीच, या पौधे और जंतु के पारस्परिक संबंध में हो सकती है। यह संभव है कि कुछ सहजीवियों (symbionts) ने अपना जीवन परजीवी (parasite) के रूप में शुरू किया हो और कुछ प्राणी जो अभी परजीवी हैं, वे पहले सहजीवी रहे हों। सहजीवन का एक अच्छा उदाहरण लाइकेन (lichen) है, जिसमें शैवाल (algae) और कवक के (fungus) के बीच पारस्परिक कल्याणकारक सहजीविता होती है। बहुत से कवक बांज (oaks), चीड़ इत्यादि पेड़ों की जड़ों के साथ सहजीवी होकर रहते हैं। बैसिलस रैडिसिकोला के (Bacillus radicicola) और शिंबी के (leguminous) पौधों की जड़ों के बीच का अंतरंग संबंध भी सहजीविता का उदाहरण है। ये जीवाणु शिंबी पौधों को जड़ों में पाए जाते हैं, जहाँ वे गुलिकाएँ (tubercles) बनाते हैं और वायुमंडलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करते हैं। सहजीविता का दूसरा रूप हाइड्रा विरिडिस (Hydra viridis) और एक हरे शैवाल का पारस्परिक संबंध है। हाइड्रा (Hydra) जूक्लोरेली (Zoochlorellae) शैवाल को आश्रय देता है। हाइड्रा की श्वसन क्रिया में जो कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलता है, वह जूक्लोरेली के प्रकाश संश्लेषण में प्रयुक्त होता है और जूक्लोरेली द्वारा उच्छ्‌वसित ऑक्सीजन हाइड्रा की श्वसन क्रिया में काम आती है। जूक्लोरेली द्वारा बनाए गए कार्बनिक यौगिक का भी उपयोग हाइड्रा करता है। कुछ हाइड्रा तो बहुत समय तक, बिना बाहर का भोजन किए, केवल जूक्लोरेली द्वारा बनाए गए कार्बनिक यौगिक के सहारे ही, जीवन व्यतीत कर सकते हैं। सहजीविता का एक और अत्यंत रोचक उदाहरण कंबोल्यूटा रोजिओफेंसिस (Convoluta roseoffensis) नामक एक टर्बेलेरिया क्रिमि (Turbellaria) और क्लैमिडोमॉनाडेसिई (Chlamydomonadaceae) वर्ग के शैवाल के बीच का पारस्परिक संयोग है। कंबोल्यूटा के जीवनचक्र में चार अध्याय होते हैं। अपने जीवन के प्राथमिक भाग में कंबोल्यूटा स्वतंत्र रूप से बाहर का भोजन करता है। कुछ दिनों बाद शैवाल से संयोग होता है और फिर इस कृमि का पोषण, इसके शरीर में रहने वाले शैवाल द्वारा बनाए गए कार्बनिक यौगिक और बाहर के भोजन दोनों से होता है। तीसरी अवस्था में कंबोल्यूटा बाहर का भोजन ग्रहण करना बंद कर देता है और अपने पोषण के लिए केवल शैवाल के प्रकाश संश्लेषण द्वारा बनाए गए कार्बनिक यौगिक पर ही निर्भर रहता है। अंत में कृमि अपने सहजीवी शैवाल को ही पचा लेता है और स्वयं मर जाता है। बहुत से सहजीची जीवाणु और अंतरकोशिक यीस्ट (yeast) आहार नली की कोशिकाओं में रहते हैं और पाचन क्रिया में सहायता करते हैं। दीमक की आहार नली में बहुत से इंफ्यूसोरिया (Infusoria) होते हैं, जिनका काम काष्ठ का पाचन करना होता है और इनके बिना दीमक जीवित नहीं रह सकती। .

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जठरांत्र क्षेत्र

जठरांत्र क्षेत्र (gastrointestinal tract या digestive tract (पाचन क्षेत्र) या alimentary canal) मनुष्य एवं अन्य जन्तुओं के अन्दर पाया जाने वाला अंग तंत्र है जो भोजन को ग्रहण करता है, इसका पाचन करता है, उसमें से ऊर्जा एवं पोषक पदार्थों का शोषण करता है, और अन्त में बचे हुए अपशिष्ट (वेस्ट) को मल एवं मूत्र के रूप में बाहर निकालता है। मानव के जठरान्त्र क्षेत्र में, मुख, आमाशय, छोटी आँत, बडी आँत होते हैं। .

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जठरांत्ररोगविज्ञान

जठरांत्ररोगविज्ञान (Gastroenterology) चिकित्सा शास्त्र का वह विभाग है जो पाचन तंत्र तथा उससे सम्बन्धित रोगों पर केंद्रित है। इस शब्द की उत्पत्ति प्राचीन ग्रीक शब्द gastros (उदर), enteron (आँत) एवं logos (शास्त्र) से हुई है। जठरांत्ररोगविज्ञान पोषण नाल (alimentary canal) से सम्बन्धित मुख से गुदाद्वार तक के सारे अंगों और उनके रोगों पर केन्द्रित है। इससे सम्बन्धित चिकित्सक जठरांत्ररोगविज्ञानी (gastroenterologists) कहलाते हैं। .

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वातरक्त

---- वातरक्त या गाउट (Gout) होने पर रोगी को तीव्र प्रदाह संधिशोथ (acute inflammatory arthritis) का बार-बार दर्द उठता है। गाउट के अधिकांश मामलों में पैर के अंगूठे के आधार पर स्थित प्रपदिक-अंगुल्यस्थि (metatarsal-phalangeal) प्रभावित होती है। लगभग आधे मामले इसी के होते हैं, जिसे पादग्रा (podagra) कहते हैं। किन्तु यह गुर्दे की पथरी, यूरेट वृक्कविकृति (urate nephropathy) या टोफी (tophi) के रूप में भी सामने आ सकती है। यह रोग रक्त में यूरिक अम्ल की मात्रा बढ़ जाने के कारण होता है। यूरिक अम्ल की बढ़ी हुई मात्रा क्रिस्टल के रूप में जोड़ों, कंडरा (tendons) तथा आसपास के ऊत्तकों पर जमा हो जाता है। यह रोग पाचन क्रिया से संबंधित है। इसके संबंध खून में मूत्रीय अम्ल का अत्यधिक उच्च मात्रा में पाए जाने से होता है। इसके कारण जोड़ों (प्रायः पादांगुष्ठ (ग्रेट टो)) में तथा कभी-कभी गुर्दे में भी क्रिस्टल भारी मात्रा में बढ़ता है। गठिया का रोग मसालेदार भोजन और शराब पीने से संबद्ध है। यूरिक अम्ल मूत्र की खराबी से उत्पन्न होता है। यह प्रायः गुर्दे से बाहर आता है। जब कभी गुर्दे से मूत्र कम आने (यह सामान्य कारण है) अथवा मूत्र अधिक बनने से सामान्य स्तर भंग होता है, तो यूरिक अम्ल का रक्त स्तर बढ़ जाता है और यूरिक अम्ल के क्रिस्टल भिन्न-भिन्न जोड़ों पर जमा (जोड़ों के स्थल) हो जाते है। रक्षात्मक कोशिकाएं इन क्रिस्टलों को ग्रहण कर लेते हैं जिसके कारण जोड़ों वाली जगहों पर दर्द देने वाले पदार्थ निर्मुक्त हो जाते हैं। इसी से प्रभावित जोड़ खराब होते हैं। .

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विटामिन सी

विटामिन सी या एल-एस्कॉर्बिक अम्ल मानव एवं विभिन्न अन्य पशु प्रजातियों के लिये अत्यंत आवश्यक पोषक तत्त्व है। ये विटामिन रूप में कार्य करता है। कई प्रकार की उपापचयी अभिक्रियाओं हेतु एस्कॉर्बेट (एस्कॉर्बिक अम्ल का एक आयन) सभी पादपों व पशुओं में आवश्यक होता है। ये लगभग सभी जीवों द्वारा आंतरिक प्रणाली द्वारा निर्मित किया जाता है (सिवाय कुछ विशेष प्रजातियों के) जिनमें स्तनपायी समूह जैसे चमगादड़, एक या दो प्रधान प्राइमेट सबऑर्डर, ऐन्थ्रोपोएडिया (वानर, वनमानुष एवं मानव) आते हैं। इसका निर्माण गिनी शूकर एवं पक्षियों एवं मछलियों की कुछ प्रजातियों में नहीं होता है। जो भी प्रजातियां इसका निर्माण आंतरिक रूप से नहीं कर पातीं, उन्हें ये आहार रूप में वांछित होता है। इस विटामिन की कमी से मानवों में स्कर्वी नामक रोग हो जाता है।। हिन्दुस्ताण लाइव। २८ मार्च २०१० इसे व्यापक रूप से खाद्य पूर्क रूप में प्रयोग किया जाता है। .

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गुदा

पुरुष की गुदा मलाशय एवं गुदा जीवों के पाचन तंत्र के अन्तिम छोर के द्वार (छेद) को गुदा (anus) कहते हैं। इसका कार्य मल निष्कासन का नियंत्रण करना है। .

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आमाशय (पेट)

कशेरुकी, एकाइनोडर्मेटा वंशीय जंतु, कीट (आद्यमध्यांत्र) और मोलस्क सहित, कुछ जंतुओं में, आमाशय एक पेशीय, खोखला, पोषण नली का फैला हुआ भाग है जो पाचन नली के प्रमुख अंग के रूप में कार्य करता है। यह चर्वण (चबाना) के बाद, पाचन के दूसरे चरण में शामिल होता है। आमाशय, ग्रास नली और छोटी आंत के बीच में स्थित होता है। यह छोटी आंतों में आंशिक रूप से पचे भोजन (अम्लान्न) को भेजने से पहले, अबाध पेशी ऐंठन के माध्यम से भोजन के पाचन में सहायता के लिए प्रोटीन-पाचक प्रकिण्व(एन्ज़ाइम) और तेज़ अम्लों को स्रावित करता है (जो ग्रासनलीय पुरःसरण के ज़रिए भेजा जाता है).

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आहारीय रेशा

लेग्यूम्स में आहारीय रेशा भरपूर मात्रा में उपस्थित होता है आहारीय रेशा, आहार में उपस्थित रेशे तत्त्व को कहते हैं। ये पौधों से मिलने वाले ऐसे तत्व हैं जो स्वयं तो अपाच्य होते हैं, किन्तु मूल रूप से पाचन क्रिया को सुचारू बनाने का अत्यावश्यक योगदान करते हैं। रेशे शरीर की कोशिकाओं की दीवार का निर्माण करते हैं। इनको एन्ज़ाइम भंग नहीं कर पाते हैं। अतः ये अपाच्य होते हैं।।। हेल्थ एण्ड थेराप्यूटिक। अभिगमन तिथि:११ अक्टूबर, २००९ कुछ समय पूर्व तक इन्हें आहार के संबंध में बेकार समझा जाता था, किन्तु बाद की शोधों से ज्ञात हुआ कि इनमें अनेक यांत्रिक एवं अन्य विशेषतायें होती हैं, जैसे ये शरीर में जल को रोक कर रखते हैं, जिससे अवशिष्ट (मल) में पानी की कमी नहीं हो पाती है और कब्ज की स्थिति से बचे रहते हैं। रेशे वाले भोजन स्रोतों को प्रायः उनके घुलनशीलता के आधार पर भी बांटा जाता है। ये रेशे घुलनशील और अघुलनशील होते हैं। ये दोनों तत्व पौधों से मिलने वाले रेशों में पाए जाते हैं। सब्जियां, गेहू और अधिकतर अनाजों में घुलनशील रेशे की अपेक्षा अघुलनशील रेशा होता है। स्वास्थ्य में योगदान की दृष्टि से दोनों तरह के रेशे अपने-अपने ढंग से काम करते हैं। जहां घुलनशील रेशे से संपूर्ण स्वास्थय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, वहीं अघुलनशील रेशे से मोटापा संबंधी समस्या भी बढ़ सकती है। अघुलनशील रेशे पाचन में मदद करते है और कब्ज कम करते है। घुलनशील रेशे सीरम कोलेस्ट्राल कम करते है और अच्छे कोलेस्ट्राल (एच.डी.एल) का अनुपात बढाते है। भोजन में उच्च रेशे वाले आहार से वजन नियंत्रित होता है। ऐसे भोजन को अधिक चबाना पड़ता है एवं अधिक ऊर्जा व्यय होती है। इसके साथ ही रेशा इन्सुलिन के स्तर कोप भी गिराता है, जिससे भूख पर नियंत्रण रहता है, तथा उच्च रेशा आहार पेट में अधिक समय तक रहते हैं, जिससे पेट भरे होने का अहसास भी रहता है। रेशा मल निर्माण को भी प्रभावित करता है और इसे अधिक भारी बनाता है। मल जितना भारी होगा, आंतों से निकलने में उसे उतना ही समय लगेगा। गेहू की चोकर उच्च रेशे से परिपूर्ण होने के कारण मल का भार बढाने में मदद करती है। उसी मात्रा के गाजर या बन्दगोभी के रेशे से दूगनी प्रभावशील है। हिप्पोक्रेटज के अनुसार सम्पूर्ण अनाज की डबल रोटी आंत को साफ़ कर देती है। आहारीय रेशे सभी पौधों में पाए जाते हैं। जिन पौधों में रेशा अधिक मात्र में पाया जाता है, अधिकतर उनसे ही इन्हें प्राप्त किया जाता है। अधिक मात्र वाले फाइबर पौधों को सीधे तौर पर भी आहार में ग्रहण किया जा सकता है या इन्हें उचित विधि से पकाकर भोजन के तौर पर भी खाया जा सकता है। घुलनशील रेशे कई पौधों में पाए जाते हैं जिनसे मिलने वाले खाद्य पदार्थो में जौ, केला, सेब, मूली, आलू, प्याज आदि प्रमुख हैं। अघुलनशील रेशे मक्का, आलू के छिलके, मूंगफली, गोभी और टमाटर में से प्राप्त होते हैं। रसभरी जैसे फल में भी रेशा होता है। घुलनशील रेशे से शरीर को अधिक ऊर्जा मिलती है, जबकि अघुलनशील रेशे से शरीर को ऊर्जा प्राप्त नहीं करनी चाहिए। यह भी ध्यान योग्य है कि दोनों तरीके से शरीर में प्रति ग्राम फाइबर से चार कैलोरी भी जाती है। .

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कब्ज

कब्ज पाचन तंत्र की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति (या जानवर) का मल बहुत कड़ा हो जाता है तथा मलत्याग में कठिनाई होती है। कब्ज अमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य आवृति और अमाशय की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। (एक सप्ताह में 3 से 12 बार मल निष्कासन की प्रक्रिया सामान्य मानी जाती है। करने के लिए कई नुस्खे व उपाय यहां जोड़ें गए हैं। पेट में शुष्क मल का जमा होना ही कब्ज है। यदि कब्ज का शीघ्र ही उपचार नहीं किया जाये तो शरीर में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। कब्जियत का मतलब ही प्रतिदिन पेट साफ न होने से है। एक स्वस्थ व्यक्ति को दिन में दो बार यानी सुबह और शाम को तो मल त्याग के लिये जाना ही चाहिये। दो बार नहीं तो कम से कम एक बार तो जाना आवश्यक है। नित्य कम से कम सुबह मल त्याग न कर पाना अस्वस्थता की निशानी है। .

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अग्नि (आयुर्वेद)

आयुर्वेद के अनुसार पाचन एवं उपापचय की सभी क्रियाएं अग्नि के द्वारा सम्पन्न होतीं हैं। इसको 'पक्वाग्नि' कहते हैं। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में समझा जा सकता है। अग्नि चार प्रकार की होती है.

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अग्न्याशय

अग्न्याशय कशेरुकी जीवों की पाचन व अंतःस्रावी प्रणाली का एक ग्रंथि अंग है। ये इंसुलिन, ग्लुकागोन, व सोमाटोस्टाटिन जैसे कई ज़रूरी हार्मोन बनाने वाली अंतःस्रावी ग्रंथि है और साथ ही यह अग्न्याशयी रस निकालने वाली एक बहिःस्रावी ग्रंथि भी है, इस रस में पाचक किण्वक होते हैं जो लघ्वांत्र में जाते हैं। ये किण्वक अम्लान्न में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, व वसा का और भंजन करते हैं। .

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अंग तंत्र

तंत्र का एक उदाहरण - तंत्रिका तंत्र; इस चित्र में दिखाया गया है कि यह तंत्र मूलत: चार अंगों से मिलकर बना है: मस्तिष्क, प्रमस्तिष्क (cerebellum), मेरुदण्ड (spinal cord) तथा तंत्रिकाएं (nerve) नाना प्रकार के ऊतक (tissue) मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों (organs) का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, एक प्रकार के कार्य करनेवाले विभिन्न अंग मिलकर एक अंग तंत्र (organ system) का निर्माण करते हैं। कई अंग तंत्र मिलकर जीव (जैसे, मानव शरीर) की रचना करते हैं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

पाचन तंत्र, पाचन प्रणाली, पाचन क्रिया, पोषण नाल, मानव का आहार नाल, आहार नली

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