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मनोविश्लेषण

सूची मनोविश्लेषण

मनोविश्लेषण (Psychoanalysis), आस्ट्रिया के मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड द्वारा विकसित कुछ मनोवैज्ञानिक विचारों (उपायों) का समुच्चय है जिसमें कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी आगे योगदान किया। मनोविश्लेषण मुख्यत: मानव के मानसिक क्रियाओं एवं व्यवहारों के अध्ययन से सम्बन्धित है किन्तु इसे समाजों के ऊपर भी लागू किया जा सकता है। मनोविश्लेषण के तीन उपयोग हैं.

25 संबंधों: पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन, प्रतीक, मन, मनोचिकित्सा, मनोरोग विज्ञान, मनोविज्ञान, मनोविज्ञान का इतिहास तथा शाखाएँ, मनोविकार, मानस शास्त्र, मानसिक संघर्ष, मानवतावादी मनोविज्ञान, सिगार, सिग्मुंड फ़्रोइड, स्वप्न व्याख्या, जूलिया क्रिस्टेवा, ईदिपस मनोग्रंथि, घटनाविज्ञान, व्यवहारवाद, व्यक्ति-केन्द्रित चिकित्सा, वेटिंग फ़ॉर गोडोट, गिरीन्द्रशेखर बोस, इदम्, अहम् तथा पराहम्, अभिव्यंजनावाद, अरस्तु का विरेचन सिद्धांत, अंतराबंध

पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन

पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन मानव जीवन और धर्म के मधुर सम्बंधों पर नयी खोजों का संक्षेप में परिचय है। वैज्ञानिकों का मानना है कि पराप्राकृतिक विश्वास का लोगों के जीवन में लम्बे समय से महत्त्व रहा है, शामन या ओझा के पुनःनिर्मित इतिहास के आधार पर यह अवधि ६५००० वर्ष होगी। सभ्यता के विकास के साथ-साथ पराप्राकृतिक विश्वास ने धर्म का रूप लिया, और साहित्य, कला तथा समाज को प्रभावित किया। अनुमान है कि पूरे विश्व में लगभग १०००० धर्म हैं, और प्रत्येक धर्म में अनेकों अलौकिक तत्व (देव और असुर)। वैज्ञानिकों की सोच है कि, अधिकतर देवी-देवता छोटे-छोटे समुदायों (गाँव) तक सीमित हैं, परन्तु कुछ देवता लगभग १२००० वर्ष पहले से बड़े धर्मों में विकसित होना शुरू हुए होंगे और विश्व में फ़ैल गए। पिछले कुछ दशकों में, पराप्राकृतिक विश्वास के जैविक और सांस्कृतिक उद्विकास पर नई खोजों में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि उनका आशय किसी अलौकिक तत्व की भौतिक सत्ता से नहीं था, उन्होंने पाया कि देवी-देवताओं में विश्वास समूह के सदस्यों में सहयोग, मानसिक स्वास्थ्य तथा स्नेह की भावना के विकास में सहायक है। साहित्य और कला में हुई खोज से पता चलता है कि इनके अन्दर भी पराप्राकृतिक विश्वास की गहरी पैठ है, और अलौकिक तत्वों का अनोखा समावेश है, जैसे, रसल की चायदानी, उड़न तश्तरी, स्पाइडर-मैन, आदि। देवी-देवताओं में विश्वास पर हुए इन अध्ययनों के चार मुख्य पहलू ग्रामीण परिवेश, मानसिक स्वास्थ्य, सहयोग, और स्नेह की भावना हैं। .

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प्रतीक

प्रतीक; किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ट चिह्न को कहते हैं जो संबंध, सादृश्यता या परंपरा द्वारा किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, एक लाल अष्टकोण (औक्टागोन) "रुकिए" (स्टॉप) का प्रतीक हो सकता है। नक्शों पर दो तलवारें युद्ध क्षेत्र का संकेत हो सकती हैं। अंक, संख्या (राशि) के प्रतीक होते हैं। सभी भाषाओं में प्रतीक होते हैं। व्यक्तिगत नाम, व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीक होते हैं। .

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मन

मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।Dictionary.com, "mind": "1.

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मनोचिकित्सा

किसी मनोचिकित्सक द्वारा किसी मानसिक रोगी के साथ सम्बन्धपूर्वक बातचीत एवं सलाह मनोचिकित्सा या मनश्चिकित्सा (Psychotherapy) कहलाती है। यह लोगों की व्यवहार सम्बन्धी विविध समस्याओं में बहुत उपयोगी होती है। मनोचिकित्सक कई तरह की तकनीकें प्रयोग करते हैं, जैसे- प्रायोगिक सम्बन्ध-निर्माण, संवाद, संचार तथा व्यवहार-परिवर्तन आदि। इनसे रोगी का मानसिक-स्वास्थ्य एवं सामूहिक-सम्बन्ध (group relationships) सुधरते हैं। डॉ॰ विक्टर फ्रैंकलिन ने गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि पूरा मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा की पद्धति जीवन की सार्थकता के विचार पर ही आधारित होती हैं। मनोचिकित्सा शास्त्र में किसी रोगी की बुनियादी दिक्कतों को समझने की कोशिश की जाती है। आधुनिक समाज में हम वास्तविक खुशियों से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता का सही मतलब हम नहीं समझते हैं। जीवन के लिए क्या और कितना जरूरी है। क्या गैर-जरूरी है। आंख मूंद कर, तर्क किए बगैर हम चीजों का अनुसरण करने लग जाते हैं। जीवन का लुत्फ उठाना और पीड़ा की उपेक्षा करना ही केवल मनुष्य को प्रेरित नहीं करती है। मनोचिकित्सा या एक मनोचिकित्सक के साथ व्यक्तिगत परामर्श, एक साभिप्राय अंतर्वैयक्तिक सम्बन्ध होता है, जिसका प्रयोग प्रशिक्षित मनोचिकित्सक एक ग्राहक या रोगी की जीवनयापन संबंधी समस्याओं के निवारण में सहायता के लिए करते हैं। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति में अपने कल्याण के प्रति भावना को बढाना होता है। मनोचिकित्सक अनुभवजनित सम्बन्ध निर्माण, संवाद, संचार और व्यवहार पर आधारित तकनीकों की एक विस्तृत श्रंखला का प्रयोग करते हैं, इन तकनीकों की संरचना ग्राहक या रोगी के मानसिक स्वास्थ अथवा समूह के साथ उसके व्यवहार में सुधार करने वाली होती है, (जैसे परिवार में रोगी का व्यवहार).

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मनोरोग विज्ञान

मनोरोग विज्ञान या मनोरोग विद्या (Psychiatry) चिकित्सा क्षेत्र की एक विशेषज्ञता (specialty) है जो मनोविकारों का अध्ययन करती है। .

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मनोविज्ञान

मनोविज्ञान (Psychology) वह शैक्षिक व अनुप्रयोगात्मक विद्या है जो प्राणी (मनुष्य, पशु आदि) के मानसिक प्रक्रियाओं (mental processes), अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दाेनाें प्रकार के व्यवहाराें का एक क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन करती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो क्रमबद्ध रूप से (systematically) प्रेक्षणीय व्यवहार (observable behaviour) का अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं जैसे - चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है। 'व्यवहार' में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत संवेदन (Sensation), अवधान (attention), प्रत्यक्षण (Perception), सीखना (अधिगम), स्मृति, चिन्तन आदि आते हैं। मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है। .

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मनोविज्ञान का इतिहास तथा शाखाएँ

आधुनिक मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके दो सुनिश्चित रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक तो वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा आविष्कारों द्वारा प्रभावित वैज्ञानिक मनोविज्ञान तथा दूसरा दर्शनशास्त्र द्वारा प्रभावित दर्शन मनोविज्ञान। वैज्ञानिक मनोविज्ञान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ है। सन् 1860 ई में फेक्नर (1801-1887) ने जर्मन भाषा में "एलिमेंट्स आव साइकोफ़िज़िक्स" (इसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है) नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक पद्धति के परिवेश में अध्ययन करने की तीन विशेष प्रणालियों का विधिवत् वर्णन किया: मध्य त्रुटि विधि, न्यूनतम परिवर्तन विधि तथा स्थिर उत्तेजक भेद विधि। आज भी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इन्हीं प्रणालियों के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जाते हैं। वैज्ञानिक मनोविज्ञान में फेक्नर के बाद दो अन्य महत्वपूर्ण नाम है: हेल्मोलत्स (1821-1894) तथा विल्हेम वुण्ट (1832-1920) हेल्मोलत्स ने अनेक प्रयोगों द्वारा दृष्टीर्द्रिय विषयक महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रत्यक्षीकरण पर अनुसंधान कार्य द्वारा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अस्तित्व ऊपर उठाया। वुंट का नाम मनोविज्ञान में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने सन् 1879 ई में लाइपज़िग (जर्मनी) में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला स्थापित की। मनोविज्ञान का औपचारिक रूप परिभाषित किया। मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है। लाइपज़िग की प्रयोगशाला में वुंट तथा उनके सहयोगियों ने मनोविज्ञान की विभिन्न समस्याओं पर उल्लेखनीय प्रयोग किए, जिसमें समयअभिक्रिया विषयक प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। क्रियाविज्ञान के विद्वान् हेरिंग (1834-1918), भौतिकी के विद्वान् मैख (1838-1916) तथा जी ई. म्यूलर (1850 से 1934) के नाम भी उल्लेखनीय हैं। हेरिंग घटना-क्रिया-विज्ञान के प्रमुख प्रवर्तकों में से थे और इस प्रवृत्ति का मनोविज्ञान पर प्रभाव डालने का काफी श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। मैख ने शारीरिक परिभ्रमण के प्रत्यक्षीकरण पर अत्यंत प्रभावशाली प्रयोगात्मक अनुसंधान किए। उन्होंने साथ ही साथ आधुनिक प्रत्यक्षवाद की बुनियाद भी डाली। जीदृ ई. म्यूलर वास्तव में दर्शन तथा इतिहास के विद्यार्थी थे किंतु फेक्नर के साथ पत्रव्यवहार के फलस्वरूप उनका ध्यान मनोदैहिक समस्याओं की ओर गया। उन्होंने स्मृति तथा दृष्टींद्रिय के क्षेत्र में मनोदैहिकी विधियों द्वारा अनुसंधान कार्य किया। इसी संदर्भ में उन्होंने "जास्ट नियम" का भी पता लगाया अर्थात् अगर समान शक्ति के दो साहचर्य हों तो दुहराने के फलस्वरूप पुराना साहचर्य नए की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो जाएगा ("जास्ट नियम" म्यूलर के एक विद्यार्थी एडाल्फ जास्ट के नाम पर है)। मनोविज्ञान पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के साथ साथ दर्शनशास्त्र का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में वैज्ञानिक परंपरा बाद में आरंभ हुई। पहले तो प्रयोग या पर्यवेक्षण के स्थान पर विचारविनिमय तथा चिंतन समस्याओं को सुलझाने की सर्वमान्य विधियाँ थीं। मनोवैज्ञानिक समस्याओं को दर्शन के परिवेश में प्रतिपादित करनेवाले विद्वानों में से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं। डेकार्ट (1596-1650) ने मनुष्य तथा पशुओं में भेद करते हुए बताया कि मनुष्यों में आत्मा होती है जबकि पशु केवल मशीन की भाँति काम करते हैं। आत्मा के कारण मनुष्य में इच्छाशक्ति होती है। पिट्यूटरी ग्रंथि पर शरीर तथा आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। डेकार्ट के मतानुसार मनुष्य के कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे जन्मजात कहा जा सकता है। उनका अनुभव से कोई संबंध नहीं होता। लायबनीत्स (1646-1716) के मतानुसार संपूर्ण पदार्थ "मोनैड" इकाई से मिलकर बना है। उन्होंने चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित करके लगभग दो सौ वर्ष बाद आनेवाले फ्रायड के विचारों के लिये एक बुनियाद तैयार की। लॉक (1632-1704) का अनुमान था कि मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिये विचारों के स्रोत के विषय में जानना आवश्यक है। उन्होंने विचारों के परस्पर संबंध विषयक सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए बताया कि विचार एक तत्व की तरह होते हैं और मस्तिष्क उनका विश्लेषण करता है। उनका कहना था कि प्रत्येक वस्तु में प्राथमिक गुण स्वयं वस्तु में निहित होते हैं। गौण गुण वस्तु में निहित नहीं होते वरन् वस्तु विशेष के द्वारा उनका बोध अवश्य होता है। बर्कले (1685-1753) ने कहा कि वास्तविकता की अनुभूति पदार्थ के रूप में नहीं वरन् प्रत्यय के रूप में होती है। उन्होंने दूरी की संवेदनाके विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अभिबिंदुता धुँधलेपन तथा स्वत: समायोजन की सहायता से हमें दूरी की संवेदना होती है। मस्तिष्क और पदार्थ के परस्पर संबंध के विषय में लॉक का कथन था कि पदार्थ द्वारा मस्तिष्क का बोध होता है। ह्यूम (1711-1776) ने मुख्य रूप से "विचार" तथा "अनुमान" में भेद करते हुए कहा कि विचारों की तुलना में अनुमान अधिक उत्तेजनापूर्ण तथा प्रभावशाली होते हैं। विचारों को अनुमान की प्रतिलिपि माना जा सकता है। ह्यूम ने कार्य-कारण-सिद्धांत के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए आधुनिक मनोविज्ञान को वैज्ञानिक पद्धति के निकट पहुँचाने में उल्लेखनीय सहायता प्रदान की। हार्टले (1705-1757) का नाम दैहिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों में रखा जा सकता है। उनके अनुसार स्नायु-तंतुओं में हुए कंपन के आधार पर संवेदना होती है। इस विचार की पृष्ठभूमि में न्यूटन के द्वारा प्रतिपादित तथ्य थे जिनमें कहा गया था कि उत्तेजक के हटा लेने के बाद भी संवेदना होती रहती है। हार्टले ने साहचर्य विषयक नियम बताते हुए सान्निध्य के सिद्धांत पर अधिक जोर दिया। हार्टले के बाद लगभग 70 वर्ष तक साहचर्यवाद के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। इस बीच स्काटलैंड में रीड (1710-1796) ने वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण का वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना में भेद करना आवश्यक है। किसी वस्तु विशेष के गुणों की संवेदना होती है जबकि उस संपूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना केवल किसी वस्तु के गुणों तक ही सीमित रहती है, किंतु प्रत्यक्षीकरण द्वारा हमें उस पूरी वस्तु का ज्ञान होता है। इसी बीच फ्रांस में कांडिलैक (1715-1780) ने अनुभववाद तथा ला मेट्री ने भौतिकवाद की प्रवृत्तियों की बुनियाद डाली। कांडिलैंक का कहना था कि संवेदन ही संपूर्ण ज्ञान का "मूल स्त्रोत" है। उन्होंने लॉक द्वारा बताए गए विचारों अथवा अनुभवों को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझा। ला मेट्री (1709-1751) ने कहा कि विचार की उत्पत्ति मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल के परस्पर प्रभाव के फलस्वरूप होती है। डेकार्ट की ही भाँति उन्होंने भी मनुष्य को एक मशीन की तरह माना। उनका कहना था कि शरीर तथा मस्तिष्क की भाँति आत्मा भी नाशवान् है। आधुनिक मनोविज्ञान में प्रेरकों की बुनियाद डालते हुए ला मेट्री ने बताया कि सुखप्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। जेम्स मिल (1773-1836) तथा बाद में उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873) ने मानसिक रसायनी का विकास किया। इन दोनों विद्वानों ने साहचर्यवाद की प्रवृत्ति को औपचारिक रूप प्रदान किया और वुंट के लिये उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की। बेन (1818-1903) के बारे में यही बात लागू होती है। कांट समस्याओं के समाधान में व्यक्तिनिष्ठावाद की विधि अपनाई कि बाह्य जगत् के प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत में जन्मजातवाद का समर्थन किया। हरबार्ट (1776-1841) ने मनोविज्ञान को एक स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूण्र योगदान किया। उनके मतानुसार मनोविज्ञान अनुभववाद पर आधारित एक तात्विक, मात्रात्मक तथा विश्लेषात्मक विज्ञान है। उन्होंने मनोविज्ञान को तात्विक के स्थान पर भौतिक आधार प्रदान किया और लॉत्से (1817-1881) ने इसी दिशा में ओर आगे प्रगति की। मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन् 1834 में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। सन् 1831 में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा विद्युत् के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे। कुछ वर्षों बाद सन् 1847 में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने रखा। इसके बाद सन् 1856 ई., 1860 ई. तथा 1866 ई. में उन्होंने "आप्टिक" नामक पुस्तक तीन भागों में प्रकाशित की। सन् 1851 ई. तथा सन् 1860 ई. में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ ('ज़ेंड आवेस्टा' तथा 'एलिमेंटे डेयर साईकोफ़िजिक') प्रकाशित किए। सन् 1858 ई में वुंट हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में डाक्टर की उपधि प्राप्त कर चुके थे और सहकारी पद पर क्रियाविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे थे। उसी वर्ष वहाँ बॉन से हेल्मोल्त्स भी आ गए। वुंट के लिये यह संपर्क अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी के बाद उन्होंने क्रियाविज्ञान छोड़कर मनोविज्ञान को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वुंट ने अनगिनत वैज्ञानिक लेख तथा अनेक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करके मनोविज्ञान को एक धुँधले एवं अस्पष्ट दार्शनिक वातावरण से बाहर निकाला। उसने केवल मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक परिवेश में रखा और उनपर नए दृष्टिकोण से विचार एवं प्रयोग करने की प्रवृत्ति का उद्घाटन किया। उसके बाद से मनोविज्ञान को एक विज्ञान माना जाने लगा। तदनंतर जैसे जैसे मरीज वैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर प्रयोग किए गए वैसे वैसे नई नई समस्याएँ सामने आईं। व्यवहार विषयक नियमों की खोज ही मनोविज्ञान का मुख्य ध्येय था। सैद्धांतिक स्तर पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। सन् 1912 ई. के आसपास मनोविज्ञान के क्षेत्र में संरचनावाद, क्रियावाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषण आदि मुख्य मुख्य शाखाओं का विकास हुआ। इन सभी वादों के प्रवर्तक इस विषय में एकमत थे कि मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन ही मनोविज्ञान का उद्देश्य है। उनमें परस्पर मतभेद का विषय था कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे अच्छा ढंग कौन सा है। सरंचनावाद के अनुयायियों का मत था कि व्यवहार की व्याख्या के लिये उन शारीरिक संरचनाओं को समझना आवश्यक है जिनके द्वारा व्यवहार संभव होता है। क्रियावाद के माननेवालों का कहना था कि शारीरिक संरचना के स्थान पर प्रेक्षण योग्य तथा दृश्यमान व्यवहार पर अधिक जोर होना चाहिए। इसी आधार पर बाद में वाटसन ने व्यवहारवाद की स्थापना की। गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण को व्यवहारविषयक समस्याओं का मूल आधार माना। व्यवहार में सुसंगठित रूप से व्यवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति मुख्य है, ऐसा उनका मत था। फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद की स्थापना द्वारा यह बताने का प्रयास किया कि हमारे व्यवहार के अधिकांश कारण अचेतन प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन सभी "वादों" का अब एकमात्र ऐतिहासिक महत्व रह गया है। इनके स्थान पर मनोविज्ञान में अध्ययन की सुविधा के लिये विभिन्न शाखाओं का विभाजन हो गया है। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्हीं समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाने लगा जिन्हें दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचारविमर्श द्वारा सुलझाते थे। अर्थात् संवेदन तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन भी होने लगा। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान आधुनिक मनोविज्ञान की प्राचीनतम शाखा है। मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में रखा जा सकता है, साथ ही साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भाँति जटिल नहीं होती। पशुओं पर प्रयोग करके व्यवहार संबंधी नियमों का ज्ञान सुगमता से हो सकता है। सन् 1912 ई. के लगभग थॉर्नडाइक ने पशुओं पर प्रयोग करके तुलनात्मक अथवा पशु मनोविज्ञान का विकास किया। किंतु पशुओं पर प्राप्त किए गए परिणाम कहाँ तक मनुष्यों के विषय में लागू हो सकते हैं, यह जानने के लिये विकासात्मक क्रम का ज्ञान भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन उसी दशा में संभव हो सकता है जब कि मनुष्य अथवा पशुओं के विकास का पूर्ण एवं उचित ज्ञान हो। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक मनोविज्ञान का जन्म हुआ। सन् 1912 ई. के कुछ ही बाद मैक्डूगल (1871-1938) के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज मनोविज्ञान की स्थापना हुई, यद्यपि इसकी बुनियाद समाज वैज्ञानिक हरबर्ट स्पेंसर (1820-1903) द्वारा बहुत पहले रखी जा चुकी थी। धीरे-धीरे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर मनोविज्ञान का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा। आशा व्यक्त की गई कि मनोविज्ञान अन्य विषयों की समस्याएँ सुलझाने में उपयोगी हो सकता है। साथ ही साथ, अध्ययन की जानेवाली समस्याओं के विभिन्न पक्ष सामने आए। परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की नई नई शाखाओं का विकास होता गया। आज मनोविज्ञान की लगभग 12 शाखाएँ हैं। इनमें से कुछ ने अभी हाल में ही जन्म लिया है, जिनमें प्रेरक मनोविज्ञान, सत्तात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आजकल रूस में अनुकूलन तथा अंतरिक्ष मनोविज्ञान में काफी काम हो रहा है। अमरीका में लगभग सभी क्षेत्रों में शोधकार्य हो रहा है। संमोहन तथा प्रेरक मनोविज्ञान में अपेक्षाकृत कुछ अधिक काम किया जा रहा है। परा-इंद्रीय प्रत्यक्षीकरण की तरफ मनोवैज्ञानिकों के सामान्य दृष्टिकोण में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी इस क्षेत्र में पर्याप्त वैज्ञानिक तथ्यों एवं प्रमाणों का अभाव है। किंतु ड्यूक विश्वविद्यालय (अमरीका) में डा राईन के निदेशन में इस क्षेत्र में बराबर काम हो रहा है। एशिया में जापान मनोविज्ञान के क्षेत्र में सबसे आगे बढ़ा हुआ है। समाज मनोविज्ञान तथा प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के साथ साथ वहाँ ज़ेन बुद्धवाद का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। .

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मनोविकार

मनोविकार (Mental disorder) किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की वह स्थिति है जिसे किसी स्वस्थ व्यक्ति से तुलना करने पर 'सामान्य' नहीं कहा जाता। स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में मनोरोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का व्यवहार असामान्‍य अथवा दुरनुकूली (मैल एडेप्टिव) निर्धारित किया जाता है और जिसमें महत्‍वपूर्ण व्‍यथा अथवा असमर्थता अन्‍तर्ग्रस्‍त होती है। इन्हें मनोरोग, मानसिक रोग, मानसिक बीमारी अथवा मानसिक विकार भी कहते हैं। मनोरोग मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन की वजह से पैदा होते हैं तथा इनके उपचार के लिए मनोरोग चिकित्सा की जरूरत होती है। .

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मानस शास्त्र

साइकोलोजी या मनोविज्ञान (ग्रीक: Ψυχολογία, लिट."मस्तिष्क का अध्ययन",ψυχήसाइके"शवसन, आत्मा, जीव" और -λογία-लोजिया (-logia) "का अध्ययन ") एक अकादमिक (academic) और प्रयुक्त अनुशासन है जिसमें मानव के मानसिक कार्यों और व्यवहार (mental function) का वैज्ञानिक अध्ययन (behavior) शामिल है कभी कभी यह प्रतीकात्मक (symbol) व्याख्या (interpretation) और जटिल विश्लेषण (critical analysis) पर भी निर्भर करता है, हालाँकि ये परम्पराएँ अन्य सामाजिक विज्ञान (social science) जैसे समाजशास्त्र (sociology) की तुलना में कम स्पष्ट हैं। मनोवैज्ञानिक ऐसी घटनाओं को धारणा (perception), अनुभूति (cognition), भावना (emotion), व्यक्तित्व (personality), व्यवहार (behavior) और पारस्परिक संबंध (interpersonal relationships) के रूप में अध्ययन करते हैं। कुछ विशेष रूप से गहरे मनोवैज्ञानिक (depth psychologists) अचेत मस्तिष्क (unconscious mind) का भी अध्ययन करते हैं। मनोवैज्ञानिक ज्ञान मानव क्रिया (human activity) के भिन्न क्षेत्रों पर लागू होता है, जिसमें दैनिक जीवन के मुद्दे शामिल हैं और -; जैसे परिवार, शिक्षा (education) और रोजगार और - और मानसिक स्वास्थ्य (treatment) समस्याओं का उपचार (mental health).

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मानसिक संघर्ष

मनुष्य का मन और बाहरी जगत्‌ एक दूसरे के समान और सापेक्ष हैं। जो कुछ और जैसी बाहरी जगत्‌ में घटनाएँ होती हैं, उन्हीं के समान और अनुरूप मनुष्य के मानसिक जगत्‌ में घटनाएँ घटित होती हैं। कभी कभी बाहरी जगत्‌ की घटनाएँ मानसिक जगत्‌ की घटनाओं का कारण बन जाती है। मानसिक जगत्‌ में सदा संघर्ष होते रहते हैं। जिस प्रकार बाहरी भौतिक जगत्‌ में जीव में आत्मरक्षा और आत्मप्रसार के लिये संघर्ष होता है, उसी प्रकार मनुष्य के मानसिक जगत्‌ में उसके विभिन्न प्रकार के विचारो में संघर्ष होता है। जो विचार अधिक प्रबल होता है और जिसका आंतरिक प्रवृत्ति से अधिक समन्वय स्थापित हो जाता है, वहीं विचार जीवित रहता है। यह विचार उसी के अनुरूप अनेक विचारों को जन्म देता है, जिसके कारण मनुष्य का विशेष प्रकार का चरित्र, स्वभाव अथवा व्यक्तित्व निर्मित हो जाता है। मानसिक संघर्ष एक बड़ी ही दुखदायी मन: स्थिति है। यह संघर्ष मनुष्य के दो प्रबल विचारों अथवा भावनाओं में होता है। जब तक यह संघर्ष चलता है, मनुष्य बड़ा ही बेचैन रहता है। मानसिक संघर्ष दुखदायी भले ही हो, परंतु यह मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिये नितांत आवश्यक है। दो प्रबल भावनाओं के संघर्ष को शांत तथा समाप्त करने के लिये ऐसे सिद्धांत की आवश्यकता होती है जो संघर्ष करने वाले विचारों अथवा भावनाओं में समन्वय स्थापित कर सके, अथवा जो एक विचार को पदस्थ कर दे और दूसरे को चेतना से हटा दे। विकसित व्यक्तित्व का पुरुष वही है जिसके जीवन में सुदृढ़, सुनिश्चित कुछ मौलिक सिद्धांतों का विकास हुआ है, जो इन सिद्धांतों की कसौटी पर सभी नए विचारों तथा नई भावनाओं को कसता है और उनमें जो खरा उतरता है उसे ही अपने व्यक्तित्व में स्थान देता है, उसके अनुसार आचरण करता है और जो खोटा निकलता है उसे हटा देता है। इस प्रकार की क्रियाप्रणाली से कर्तव्य शास्त्र और दर्शन का आविर्भाव होता है। यदि मनुष्य को मानसिक संघर्ष की अनुभूति न हो, तो ने कर्त्तव्यशास्त्र और न दर्शन का ही जन्म हो। पशुओं को मानसिक संघर्ष का अनुभव कम से कम होता है। उनमें वह मानसिक विकास संभव ही नहीं है जो मनुष्य में होता है। मानसिक संघर्ष की चर्चा प्राचीन काल से होती चली आई है। इस प्रकार के एक संघर्ष का चित्र हम भगवद्गीता में पाते हैं। महाभारत के समय कौरव और पांडवों के बीच जो भौतिक संघर्ष हो रहा था, उससे कहीं अधिक महत्व का संघर्ष वह था, जो, अर्जुन के मस्तिष्क में चल रहा था। पहले संघर्ष का परिणाम केवल उसी देश और काल के लिये महत्व का था जिसमें महाभारत युद्ध हुआ। दूसरे संघर्ष का परिणाम आज भी अपना महत्व रखता है। वह इस देश और काल के लोगों के लिये पथप्रदर्शक बन गया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप एक नये दर्शन का जन्म हुआ, जिसका महत्व सारे संसार के लिये है। उपर्युक्त संघर्ष की चर्चा संसार के सभी देशों के विद्वानों ने की है और उन्होंने अपने अपने दृष्टिबिंदु से यह बताने की चेष्टा की है कि ऐसे संघर्ष का अंत किस प्रकार किया जाय। आधुनिक मनोविज्ञान ने एक नए प्रकार के संघर्ष की ओर ध्यान आकर्षित किया है। यह संघर्ष ऐसा है जिसका ज्ञान ही हमें नहीं हो पाता। पहले प्रकार का संघर्ष उन विचारो अथवा भावनाओं के बीच होता है जिनका हमें ज्ञान है अथवा जिन्हें हम ज्ञात कर सकते हैं, अतएव ऐसे संघर्ष का हम अंत भी कर सकते हैं। यदि हम स्वयं इस संघर्ष का अपनी ही क्षमता से अंत नहीं कर सकते, तो दूसरे ज्ञानी व्यक्ति या व्यक्तियों की सहायता लेकर हम उसे दूर कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति को हम गुरु, ऋषि अथवा दार्शनिक मानते हैं। इस तरह भगवान्‌ कृष्ण अर्जुन के ग्रुरु थे। वे एक ऋषि और दार्शनिक थे। अज्ञात मन के संघर्ष का अंत करना ज्ञात मन के संघर्ष का अंत करने से कहीं अधिक कठिन कार्य है। हम उन दो विरोधी पक्षों में समन्वय स्थापित कैसे कर सकते हैं जिन्हें हम जान ही नहीं पाते? फिर गुरु की भी यहाँ उपयोगिता क्या हो सकती है? जब कोई व्यक्ति यह जाने कि उसके मन में संघर्ष है, तभी तो गुरु के पास जाएगा और उससे प्रकाश पाने का प्रयत्न करेगा। कितने ही लोग, जिनके मन में प्रबल अज्ञात संघर्ष चलते रहते हैं, प्राय: यह जानते ही नहीं हैं कि उनके मन में संघर्ष की स्थिति है। ऐसे अनेक लोग इस अज्ञात, अथवा अचेतन मन के, संघर्ष की उपस्थिति को ही निकम्मा सिद्धांत मानते हैं। इस अज्ञात मन के संघर्ष के प्रमाण क्या है? संसार के विद्वानों ने यह कैसे जाना कि कोई अचेतन मन का भी संघर्ष है? आधुनिक काल में इस संघर्ष की खोज पहल पहल डॉ॰ फ्रायड ने की। उसी ने इस सिद्धांत का प्रवर्तन किया कि मनुष्य के मन के दो भाग हैं-- एक चेतन और दूसरा अचेतन। इसमें मनुष्य का चेतन मन अचेतन मन की अपेक्षा बहुत ही छोटा है। चेतन मन संपूर्ण मन का आठवाँ भाग है। बाकी सब भाग अचेतन है। हमें चेतन मन की घटनाओं का ही ज्ञान होता है; अचेतन मन की घटनाओं का ज्ञान साधारणत: नहीं रहता। हमारे अचेतन मन में वे सभी इच्छाएँ, भाव और विचार उपस्थित रहते हैं जिन्हें हम बरबस अपनी चेतना से हटा देते हैं और जिनकी स्मृति दबाने की प्रबल चेष्टा करते हैैं। ये इच्छाएँ, भाव अथवा विचार अनेक प्रकार के होते हैं। वे आपस में उसी प्रकार प्रतिद्वंद्व करते हैं जिस प्रकार वे चेतनावस्था में करते हैं, परंतु उनके इन संघर्षों का हमें ज्ञान नहीं होता। जिस प्रकार हमारी चेतना के समक्ष न केवल विभिन्न विषम स्वभाव की इच्छाओं, भावों और विचारों में आपसी संघर्ष होता है, सभी का संघर्ष हमारे जीवन के प्रमुख सिद्धांत से होता है, उसी प्रकार अचेतन मन की इन शक्तियों में भी न केवल अपसी संघर्ष होता है, वरन्‌ सभी का संघर्ष मनुष्य के उस नैतिक स्वत्व से भी होता है, जो मनुष्य की चेतना के नीचे, अर्थात्‌ उसके अनजाने ही, इस संघर्ष को चेतना के स्तर पर आने से रोके रहता है। यह नैतिक स्वत्व सरकार के उस गुप्तचर विभाग के समान है, जो राजा के अनजाने ही राज्य में अनेक प्रकार के अनर्थ पैदा करनेवाले बदमाशों का दमन करता रहता है। जिस प्रकार राज्य के चोर और डाकू सरकार के खुफिया विभाग से डरते हैं और उसकी आँख बचाकर ही समाज में विचरण करते हैं उसी प्रकार मनुष्य के अनेक अनैतिक, दमित भाव उसके नैतिक स्वत्व की नजर बचाकर चेतना के स्तर पर आते हैं। इसके लिये वे अनेक प्रकार के स्वांग रचते हैं तथौ अनेक प्रकार के षड्यंत्र करते हैं। डॉ॰ फ्रायड ने इन षड़यंत्रकारी विधियों, अथवा धोखा देनेवाले तरीकों, को मनोरचनाएँ कहा है। ये मनोरचनाएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। इनका प्रत्यक्ष रूप मनुष्य के स्वप्नों में देखा जाता है। मनुष्य के स्वप्न प्राय: उसकी दमित इच्छाओं, भावनाओं और विचारों के द्वारा ही रचित होते हैं। मनुष्य का स्वप्नसंसार एक विलक्षण संसार है। मनोविज्ञान की दृष्टि से मनुष्य का कोई भी स्वप्न निरर्थक नहीं हाता, परंतु स्वप्न का अर्थ जानने के लिये मनोरचनाओं की विधि को और स्वप्न की भाषा को समझना नितांत आवश्यक है। स्वप्न में कभी वासना उलट करके तृप्त होती है, जैसे किसी स्त्री की प्रबल कामवासना बलात्कार के स्वप्न पैदा करती है। जिस व्यक्ति से हम घृणा करते हैं, उसकी मृत्यु का स्वप्न देखते हैं, परंतु यह घृणा का भाव हमें ज्ञात न रहने के कारण उसके लिये हम रोते हैं। पिता की मृत्यु का स्वप्न बहुत से किशोर बालक देखते हैं। कौन किशोर बालक कहेगा कि हम अपने पिता से घृणा करते हैं। छोटा सा भाव लंबी चौड़ी घटना बनकर प्रकाशित हो जाता है। कटु भाव मीठा हो जाता है और मीठा भाव कटु। स्वप्न में अधिक बातें प्रतीक के रूप में प्रकाशित होती हैं। हवा में उड़ना, सीढ़ी पर चढ़ना और पानी में तैरना प्रतीक रूप से कामतृप्ति हैं। दंगे के स्वप्न बलात्कार के स्वप्न हैं। भैंस, साँड़, सर्प, माला, चाकू सभी कामवासना के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के द्वारा दमित वासना प्रकाशित होती है। दमित वासना प्रतिदिन की भूलों तथा अकारण भय और चिंताओं से सभी प्रकट होती है। इसी के कारण मनुष्य को अनेक प्रकार की झक और इल्लतें लग जाती हैं। बार बार हाथ धोना, नाक फुसकारना, सर खुजलाना, बटन टोना, छाती पर हाथ रखना, किसी अंग को सदा हिलाते रहना - सभी दमित भावों के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के द्वारा दमित भाव प्रकाशित होता है और मनुष्य साम्य स्थिति की ओर जाता है। अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग भी मानसिक संघर्ष के परिणाम होते हैं। ये भी दमित भावों के बाहर निकलने के यत्न परिणाम हैं। मानसिक रोग स्वयं यह दर्शाता है कि व्यक्ति के मन में मानसिक संघर्ष उपस्थित है। मानसिक रोग के द्वारा दमित भाव की शक्ति क्षीण क्षीण होती है। हिस्टीरिया, न्यूरेस्थिनिया, मेलैंकोलिया आदि अनेक मानसिक रोग दमित भाव को बाहर निकालते हैं। आधुनिक मनोविश्लेषण विज्ञान हमें अनेक प्रकार के मानसिक रोगियों से परिचित कराता है। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, मानसिक रोगों की वृद्धि होती जाती है। जब मानसिक रोग का दमन होता है, तब वह शारीरिक रोग का रूप ले लेता है। इस प्रकार अनेक प्रकार के मनेजात शारीरिक रोग मानसिक संघर्ष की उपस्थिति के परिणाम हैं। दमा, एक्जेमा, कोलाइटीज, हृदय की धड़कन, लकवा तथा लगातार सिर की पीड़ा, ये सभी रोग दमित भावों के कारण हो जाते हैं। मनोजात शारीरिक रोगी का उपचार भौतिक ओषधियों से नहीं होता। इस प्रकार के उपचार से वे प्राय: बढ़ जाते हैं। .

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मानवतावादी मनोविज्ञान

मानवतावादी मनोविज्ञान (Humanistic psychology) एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है २०वीं शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध हुआ। यह सिद्धान्त सिग्मुंड फ़्रोइड के मनोविश्लेषण सिद्धान्त तथा बी एफ स्किनर के व्यवहारवाद के जवाब में सामने आया। .

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सिगार

विभिन्न ब्रांडों के चार सिगार (ऊपर से: एच. अपमैन, मोंटेक्रिस्टो, माकानुडो, रोमियो वाय जुलिएट) एक -सेमीएयरटाईट सिगार संग्रहण ट्यूब और एक डबल गिलोटिन-स्टाइल कटर सिगार सूखे और किण्वित तम्बाकू का कसकर-लपेटा गया एक बंडल होता है जिसको जलाकर उसके धुंए का कश मुंह के अंदर खींचा जाता है। सिगार का तम्बाकू ब्राज़ील, कैमरून, क्यूबा, डोमिनिकन गणराज्य, होंडुरास, इंडोनेशिया, मैक्सिको, निकारागुआ, फिलीपींस और पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में काफी मात्रा में उगाया जाता है। .

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सिग्मुंड फ़्रोइड

सिग्मण्ड फ्रायड सिगमंड फ्रायड (6 मई 1856 -- 23 सितम्बर 1939) आस्ट्रिया के तंत्रिकाविज्ञानी (neurologist) तथा मनोविश्लेषण के संस्थापक थे। .

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स्वप्न व्याख्या

टॉम पेन सोये हुए एक बुरा स्वप्न देख रहे हैं स्वप्न व्याख्या सपनों को अर्थ देने की प्रक्रिया है। मिस्र और ग्रीस जैसे कई प्राचीन समाजों में, स्वप्न देखने को एक अलौकिक संचार या ईश्वरीय हस्तक्षेप माना जाता था जिसे वे ही सुलझा सकते थे जिनके पास निश्चित शक्तियां होती थीं। आधुनिक समय में, मनोविज्ञान की विभिन्न विचारधाराओं ने सपनों के अर्थ के बारे में सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। .

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जूलिया क्रिस्टेवा

जूलिया क्रिस्टेवा (Юлия Кръстева; जन्म 24 जून 1941) एक बल्गेरियाई-फ्रेंच दार्शनिक, साहित्यिक आलोचक, मनोविश्लेषक, नारीवादी, और, सबसे हाल ही में, उपन्यासकार है 1960 के दशक के मध्य से फ्रांस में रह रही है। वह अब विश्वविद्यालय पेरिस डिडरोट में प्रोफेसर हैं। क्रिस्टेवा 1969 में अपनी पहली पुस्तक, सेमियोटिक्स प्रकाशित करने के बाद अंतर्राष्ट्रीय आलोचनात्मक विश्लेषण, सांस्कृतिक अध्ययन और नारीवाद में प्रभावशाली बनीं। उनके काम का बड़ा हिस्सा किताबों और निबंधों में शामिल होता है, जो भाषाविज्ञान, साहित्यिक सिद्धांतों और आलोचना के क्षेत्र में इंटर टेक्स्ट्युलिटी, सांकेतिकता, और अपकर्षन, मनोविश्लेषण, जीवनी और आत्मकथा, राजनीतिक और सांस्कृतिक विश्लेषण, कला और कला इतिहास को संबोधित करता है। वह संरचनावाद और उत्तर संरचनावाद चिन्तन में प्रमुख हैं। क्रिस्टेवा सिमोन डी बेउओवर पुरस्कार समिति की संस्थापक और प्रमुख भी हैं। .

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ईदिपस मनोग्रंथि

मनोविश्लेषण के जन्मदाता डाक्टर सिगमंड फ्रायड ने पुत्र की अपनी माता के प्रति कामवासना (सेक्स) की ग्रंथि को ईदिपस ग्रंथि (Oedipus complex) की संज्ञा दी। फ्रायड के अनुसार ईदिपस की यह कथा हर मनुष्य के अंतर में छिपी हुई कामवासना की एक ग्रंथि का सांकेतिक प्रतिनिधान करती है। मनुष्य की प्रथम कामवासना का लक्ष्य माता और प्रथम हिंसा और घृणा के भाव का लक्ष्य पिता होता है। इसी कामवासना की भावग्रंथि को इन्होंने ईदिपस ग्रंथि के नाम से संबोधित किया। मनुष्य के जीवन पर इसके प्रभावों की चर्चा करते हुए इन्होंने कहा कि यही ग्रंथि हमारे नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियमों तथा प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में कार्यरत है। पाप और अपराध की भावना का जन्म इसी से हुआ। अपने को किसी प्रकार का स्वत: आघात पहुँचाने, आत्महत्या करने या अपने को स्वत: दंडित करने के भाव इसी के कारणवश उत्पन्न होते हैं। इनके अनुसार मनुष्य के विकास की जड़ में यह ग्रंथि ही है क्योंकि विकास के प्रारंभ में मनुष्यों ने सर्वप्रथम अपने ऊपर केवल दो प्रतिबंध लगाए। पहला, अपने जन्मदाता या पिता की हत्या न करना और दूसरा, अपनी जननी या माता से विवाह न करना। यही दो प्रथम नैतिक और धार्मिक नियम हैं। .

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घटनाविज्ञान

व्यक्‍तिनिष्‍ठ अनुभवों और चेतना के संरचनाओं का दार्शनिक अध्ययन घटनाविज्ञान या प्रतिभासवाद (Phenomenology) कहलाता है। इसकी स्थापना २०वीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों में एडमुंड हसेर्ल (Edmund Husserl) ने की थी। .

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व्यवहारवाद

व्यवहारवाद (बिहेवियरिज़म) के अनुसार मनोविज्ञान केवल तभी सच्ची वैज्ञानिकता का वाहक हो सकता है जब वह अपने अध्ययन का आधार व्यक्ति की मांसपेशीय और ग्रंथिमूलक अनुक्रियाओं को बनाये। मनोविज्ञान में व्यवहारवाद (बिहेवियरिज़म) की शुरुआत बीसवीं सदी के पहले दशक में जे.बी. वाटसन द्वारा 1913 में जॉन हॉपीकन्स विश्वविद्यालय में की गयी। उन दिनों मनोवैज्ञानिकों से माँग की जा रही थी कि वे आत्म-विश्लेषण की तकनीक विकसित करें। वाटसन का कहना था कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि किसी व्यक्ति का व्यवहार उसकी भीतरी और निजी अनुभूतियों पर आधारित नहीं होता। वह अपने माहौल से निर्देशित होता है। मानसिक स्थिति का पता लगाने के लिए किसी बाह्य उत्प्रेरक के प्रति व्यक्ति की अनुक्रिया का प्रेक्षण करना ही काफ़ी है। वाटसन के इस सूत्रीकरण के बाद व्यवहारवाद अमेरिकी मनोविज्ञान में प्रमुखता प्राप्त करता चला गया। एडवर्ड हुदरी, क्लार्क हुल और बी.एफ़.

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व्यक्ति-केन्द्रित चिकित्सा

उपचारार्थी केंद्रित मनश्चिकित्सा या व्यक्ति-केन्द्रित चिकित्सा (Person-centered therapy) या अनिर्देशात्मक चिकित्सा (नॉन-डायरेक्टिव थेरेपी) मानसिक उपचार की एक विधि है जिसमें रोगी को लगातार सक्रिय रखा जाता है और बिना कोई निर्देश दिए उसे निरोग बनाने का प्रयत्न किया जाता है। प्रकारांतर से यह स्वसंरक्षण है जिसमें न तो रोगी को चिकित्सक पर निर्भर रखा जाता है और न ही उसके सम्मुख परिस्थितियों को व्याख्या की जाती है इसके विपरीत रोगी को परोक्ष रूप से सहायता देकर उसके ज्ञानात्मक एवं संवेगात्मक क्षेत्र को परिपक्व बनाने की चेष्टा की जाती है ताकि वह अपने को वर्तमान तथा भविष्य की परिस्थितियों से समायोजित कर सके। इसमें चिकित्सक का दायित्व मात्र इतना होता है कि वह रोगी के लिए "स्वसंरक्षण"की व्यवस्था का उचित प्रबंध करता रहे क्योंकि रोगी के संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन लाने के लिए चिकित्सक का सहयोग वांछित ही नहीं, आवश्यक भी है। अनिर्देशात्मक चिकित्साविधि मनोविश्लेषण से काफी मिलती-जुलती है। दोनों में ही चेतन-अवचेतन-स्तर पर प्रस्तुत भावना इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए पूरी आजादी रहती है। अंतर केवल यह है कि अनिर्देशात्मक उपचार में रोगी को वर्तमान की समस्याओं से परिचित रखा जाता है, जबकि मनोविश्लेषण में उसे अतीत की स्मृतियों अनुभूतियों की ओर ले जाया जाता है। मानसिक उपचार की यह विधि सफल रही है क्योंकि जैसे ही रोगी में एक विशिष्ट सूझ पैदा होती है, वह स्वस्थ हो जाता है। निर्देशात्मक चिकित्सा में कतिपय दोष भी हैं: (1) कुछ व्यक्तियों और रोगों पर इसका प्रभाव नहीं होता। (2) उच्च बौद्धिक स्तर वालों पर ही यह विधि सफल होती है। (3) वर्तमान परिस्थितियों से संबद्ध समस्याएँ ही इससे सुलझ सकती हैं, अतीत में विकसित मनोग्रंथियों पर इसका प्रभाव नहीं होता। .

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वेटिंग फ़ॉर गोडोट

वेटिंग फॉर गोडोट शमूएल बेकेट द्वारा रचित एक बेतुका नाटक है, जिसमें दो मुख्य पात्र व्लादिमीर और एस्ट्रागन एक अन्य काल्पनिक पात्र गोडोट के आने की अंतहीन व निष्फल प्रतीक्षा करते हैं। इस नाटक के प्रीमियर से अब तक गोडोट की अनुपस्थिति व अन्य पहलुओं को लेकर अनेक व्याख्यायें की जा चुकी हैं। इसे "बीसवीं सदी का सबसे प्रभावशाली अंग्रेजी भाषा का नाटक" भी बुलाया जा चुका है। असल में वेटिंग फॉर गोडोट बेकेट के ही फ्रेंच नाटक एन अटेंडेंट गोडोट का उनके स्वयं के द्वारा ही किया गया अंग्रेजी अनुवाद है तथा अंग्रेजी में इसे दो भागों की त्रासदी-कॉमेडी का उप-शीर्षक दिया गया है".

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गिरीन्द्रशेखर बोस

गिरीन्द्रशेखर बोस गिरीन्द्रशेखर बोस (30 जनवरी 1887 – 3 जून 1953) दक्षिण एशिया के मनोविश्लेषक थे। वे भारतीय मनोविश्लेषण सोसायटी के प्रथम अध्यक्ष थे (1922 से 1953)। उन्होने सिग्मुंड फ़्रोइड के साथ २० वर्षों तक वार्ता की। फ्रायड के कुछ सिद्धान्तों पर विवाद खड़ा करने के लिये वे प्रसिद्ध हैं। .

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इदम्, अहम् तथा पराहम्

कोई विवरण नहीं।

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अभिव्यंजनावाद

'''मैके''': रूसी बैलेट (१९१२) अभिव्यंजनावाद इटली,जर्मनी और आस्ट्रिया से प्रादुर्भूत प्रधानत: मध्य यूरोप की एक चित्र-मूर्ति-शैली है जिसका प्रयोग साहित्य, नृत्य और सिनेमा के क्षेत्र में भी हुआ है। सिद्धांत रूप में इसका साहित्यिक प्रतिपादन इटली के विचारक बेनेदितो क्रोचे ने किया। क्रोचे के अनुसार "अंतःप्रज्ञा के क्षणों में आत्मा की सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है"। कला के क्षेत्र में इसे आवाँ गार्द (हिरावल दस्ते) के रूप में जाना जाता है। अभिव्यंजनावाद की मूल संकल्पना है कि कला का अनुभव बिजली की कौंध की तरह होता है, अतः यह शैली वर्णनात्मक अथवा चाक्षुष न होकर विश्लेषणात्मक और आभ्यंतरिक होती है। उस भाववादी (इंप्रेशनिस्टिक) शैली के विपरीत जिसमें कलाकार की अभिरुचि प्रकाश और गति में ही केंद्रित होती है। यहीं तक सीमित न होकर अभिव्यंजनावादी प्रकाश का प्रयोग बाह्म रूप को भेद भीतर का तथ्य प्राप्त कर लेने, आंतरिक सत्य से साक्षात्कार करने और गति के भावप्रक्षेपण आत्मान्वेषण के लिए करता है। वह रूप, रंगादि के विरूपण द्वारा वस्तुओं का स्वाभाविक आकार नष्ट कर अनेक आंतरिक आवेगात्मक सत्य को ढूँढ़ता है। .

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अरस्तु का विरेचन सिद्धांत

विरेचन सिद्धांत (Catharsis / कैथार्सिस) द्वारा अरस्तु ने प्रतिपादित किया कि कला और साहित्य के द्वारा हमारे दूषित मनोविकारों का उचित रूप से विरेचन हो जाता है। सफल त्रासदी विरेचन द्वारा करुणा और त्रास के भावों को उद्बुद करती है, उनका सामंजन करती है और इस प्रकार आनंद की भूमिका प्रस्तुत करती है। विरेचन से भावात्मक विश्रांति ही नहीं होती, भावात्मक परिष्कार भी होता है। इस तरह अरस्तु ने कला और काव्य को प्रशंसनीय, ग्राह्य और सायास रक्षनीय सिद्ध किया है। अरस्तु ने इस सिद्धांत के द्वारा कला और काव्य की महत्ता को पुनर्प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया। अरस्तु के गुरु प्लेटो ने कवियों और कलाकारों को अपने आदर्श राज्य के बाहर रखने की सिफारिश की थी। उनका मानना था कि काव्य हमारी वासनाओं को पोषित करने और भड़काने में सहायक है इसलिए निंदनीय और त्याज्य है। धार्मिक और उच्च कोटि का नैतिक साहित्य इसका अपवाद है किंतु अधिकांश साहित्य इस आदर्श श्रेणी में नहीं आता है। विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व बहुविध है। प्रथम तो यह है कि उसने प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आक्षेप का निराकरण किया और दूसरा यह कि उसने गत कितने ही वर्षों के काव्यशास्त्रीय चिन्तन को किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित किया। .

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अंतराबंध

मनोविदलिता या अंतराबंध (स्किज़ोफ़्रीनीया / Schizophrenia) कई मानसिक रोगों का समूह है जिनमें बाह्य परिस्थितियों से व्यक्ति का संबंध असाधारण हो जाता है। कुछ समय पूर्व लक्षणों के थोड़ा-बहुत विभिन्न होते हुए भी रोग का मौलिक कारण एक ही माना जाता था। किंतु अब प्रायः सभी सहमत हैं कि अंतराबंध जीवन की दशाओं की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुए कई प्रकार के मानसिक विकारों का समूह है। अंतराबंध को अंग्रेजी में डिमेंशिया प्रीकॉक्स (Dementia praecox) भी कहते हैं। अंतराबंध की गणना बड़े मनोविकारों में की जाती है। मानसिक रोगों के अस्पतालों में 55 प्रतिशत इस रोग के रोगी पाए जाते हैं और प्रथम बार आने वालों में ऐसे रोगी 25 प्रतिशत से कम नहीं होते। इस रोग की चिकित्सा में बहुत समय लगने से इस रोग के रोगियों की संख्या अस्पतालों में उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। यह अनुमान लगाया गया है कि साधारण जनता में से दो से तीन प्रतिशत व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त होते हैं। पुरुषों में 20 से 24 वर्ष तक और स्त्रियों में 35 से 39 वर्ष तक की आयु में यह रोग सबसे अधिक होता है। अस्पतालों में भर्ती हुए रोगियों में से 40 प्रतिशत शीघ्र ही नीरोग हो जाते हैं। शेष 60 को जीवनपर्यंत या बहुत वर्षों तक अस्पताल ही में रहना पड़ता है। .

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फ्रायडवाद

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