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मनुस्मृति

सूची मनुस्मृति

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस 'भार्गवीया मनुस्मृति' की तरह 'नारदीया मनुस्मृति' भी प्रचलित है। मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। मनुस्मृति में चार वर्णों का व्याख्यान मिलता है वहीं पर शूद्रों को अति नीच का दर्जा दिया गया और शूद्रों का जीवन नर्क से भी बदतर कर दिया गया मनुस्मृति के आधार पर ही शूद्रों को तरह तरह की यातनाएं मनुवादियों द्वारा दी जाने लगी जो कि इसकी थोड़ी सी झलक फिल्म तीसरी आजादी में भी दिखाई गई है आगे चलकर बाबासाहेब आंबेडकर ने सर्वजन हिताय संविधान का निर्माण किया और मनु स्मृति में आग लगा दी गई जो कि समाज के लिए कल्याणकारी साबित हुई और छुआछूत ऊंच-नीच का आडंबर समाप्त हो गया। .

72 संबंधों: चीन, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर (फ़िल्म), तप, तमिल, दण्डी (दण्डधारी संयासी), दंड, देवल ऋषि, धर्मसूत्र, नारद मुनि, नियोग, पह्लव, पारद (प्राचीन जाति), पितृमेध, पक्षीविज्ञान, पुराण, प्राचीन भारतीय शिक्षा, पृथ्वीराज चौहान, बर्मी साहित्य, ब्रह्मसूत्र, बैंक, बीज, भारत में मापन प्रणालियों का इतिहास, भारतीय राजनय का इतिहास, भारुचि, भीमराव आम्बेडकर, मनु, मल्ल (कुलनाम), मंगलसूत्र, मेधातिथि, याज्ञवल्क्य स्मृति, यज्ञफल, युगधर्म, रस (काव्य शास्त्र), राजधर्म, राजनयिक दूत, राजवीर शास्त्री, लिच्छवि, शिवराज आचार्य कौण्डिन्न्यायन, श्राद्ध पक्ष, श्रीधर व्यंकटेश केतकर, सामाजिक संविदा, सिद्धि, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, सुभाषित, स्मृति, स्वायम्भूव मनु, सैन्य विज्ञान, सैंथवार, हारीत धर्मसूत्र, हिन्दू धर्म, ..., हिन्दू लम्बाई गणना, ज़मींदारी प्रथा, जैन धर्म, जेम्स मिल, वाराणसी, विदेश्वरस्थान, विधि का इतिहास, विधिसंहिता का इतिहास, विधिकार, विवाह, वैश्य, वैखानस, गुप्तचर, गौतम धर्मसूत्र, आचार्य, आर्यावर्त, कलवार, कामसूत्र, किला, कुल्लूक भट्ट, अम्बष्ठ, अंगुल सूचकांक विस्तार (22 अधिक) »

चीन

---- right चीन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है जो एशियाई महाद्वीप के पू‍र्व में स्थित है। चीन की सभ्यता एवं संस्कृति छठी शताब्दी से भी पुरानी है। चीन की लिखित भाषा प्रणाली विश्व की सबसे पुरानी है जो आज तक उपयोग में लायी जा रही है और जो कई आविष्कारों का स्रोत भी है। ब्रिटिश विद्वान और जीव-रसायन शास्त्री जोसफ नीधम ने प्राचीन चीन के चार महान अविष्कार बताये जो हैं:- कागज़, कम्पास, बारूद और मुद्रण। ऐतिहासिक रूप से चीनी संस्कृति का प्रभाव पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों पर रहा है और चीनी धर्म, रिवाज़ और लेखन प्रणाली को इन देशों में अलग-अलग स्तर तक अपनाया गया है। चीन में प्रथम मानवीय उपस्थिति के प्रमाण झोऊ कोऊ दियन गुफा के समीप मिलते हैं और जो होमो इरेक्टस के प्रथम नमूने भी है जिसे हम 'पेकिंग मानव' के नाम से जानते हैं। अनुमान है कि ये इस क्षेत्र में ३,००,००० से ५,००,००० वर्ष पूर्व यहाँ रहते थे और कुछ शोधों से ये महत्वपूर्ण जानकारी भी मिली है कि पेकिंग मानव आग जलाने की और उसे नियंत्रित करने की कला जानते थे। चीन के गृह युद्ध के कारण इसके दो भाग हो गये - (१) जनवादी गणराज्य चीन जो मुख्य चीनी भूभाग पर स्थापित समाजवादी सरकार द्वारा शासित क्षेत्रों को कहते हैं। इसके अन्तर्गत चीन का बहुतायत भाग आता है। (२) चीनी गणराज्य - जो मुख्य भूमि से हटकर ताईवान सहित कुछ अन्य द्वीपों से बना देश है। इसका मुख्यालय ताइवान है। चीन की आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। प्राचीन चीन मानव सभ्यता के सबसे पुरानी शरणस्थलियों में से एक है। वैज्ञानिक कार्बन डेटिंग के अनुसार यहाँ पर मानव २२ लाख से २५ लाख वर्ष पहले आये थे। .

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डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर (फ़िल्म)

डॉ.

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तप

जैन तपस्वी तपस् या तप का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। .

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तमिल

एक तमिल परिवार श्रीलंका में तमिल बच्चे भरतनाट्यम तमिल एक मानमूल है, जिनका मुख्य निवास भारत के तमिलनाडु तथा उत्तरी श्री लंका में है। तमिल समुदाय से जुड़ी चीजों को भी तमिल कहते हैं जैसे, तमिल तथा तमिलनाडु के वासियों को भी तमिल कहा जाता है। तामिल, द्रविड़ जाति की ही एक शाखा है। बहुत से विद्वानों की राय है कि 'तामिल' शब्द संस्कृत 'द्राविड' से निकला है। मनुसंहिता, महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में द्रविड देश और द्रविड जाति का उल्लेख है। मागधी प्राकृत या पाली में इसी 'द्राविड' शब्द का रूप 'दामिलो' हो गया। तामिल वर्णमाला में त, ष, द आदि के एक ही उच्चारण के कारण 'दामिलो' का 'तामिलो' या 'तामिल' हो गया। शंकराचार्य के शारीरक भाष्य में 'द्रमिल' शब्द आया है। हुएनसांग नामक चीनी यात्री ने भी द्रविड देश को 'चि—मो—लो' करके लिखा है। तमिल व्याकरण के अनुसार द्रमिल शब्द का रूप 'तिरमिड़' होता है। आजकल कुछ विद्वानों की राय हो रही है कि यह 'तिरमिड़' शब्द ही प्राचीन है जिससे संस्कृतवालों ने 'द्रविड' शब्द बना लिया। जैनों के 'शत्रुंजय माहात्म्य' नामक एक ग्रंथ में 'द्रविड' शब्द पर एक विलक्षण कल्पना की गई है। उक्त पुस्तक के मत से आदि तीर्थकर ऋषभदेव को 'द्रविड' नामक एक पुत्र जिस भूभाग में हुआ, उसका नाम 'द्रविड' पड़ गया। पर भारत, मनुसंहिता आदि प्राचीन ग्रंथों से विदित होता है कि द्रविड जाति के निवास के ही कारण देश का नाम द्रविड पड़ा। तामिल जाति अत्यंत प्राचीन हे। पुरातत्वविदों का मत है कि यह जाति अनार्य है और आर्यों के आगमन से पूर्व ही भारत के अनेक भागों में निवास करती थी। रामचंद्र ने दक्षिण में जाकर जिन लोगों की सहायता से लंका पर चढ़ाई की थी और जिन्हें वाल्मीकि ने बंदर लिखा है, वे इसी जाति के थे। उनके काले वर्ण, भिन्न आकृति तथा विकट भाषा आदि के कारण ही आर्यों ने उन्हें बंदर कहा होगा। पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि तामिल जाति आर्यों के संसर्ग के पूर्व ही बहुत कुछ सभ्यता प्राप्त कर चुकी थी। तामिल लोगों के राजा होते थे जो किले बनाकर रहते थे। वे हजार तक गिन लेते थे। वे नाव, छोटे मोटे जहाज, धनुष, बाण, तलवार इत्यादि बना लेते थे और एक प्रकार का कपड़ा बुनना भी जानते थे। राँगे, सीसे और जस्ते को छोड़ और सब धातुओं का ज्ञान भी उन्हें था। आर्यों के संसर्ग के उपरांत उन्होंने आर्यों की सभ्यता पूर्ण रूप से ग्रहण की। दक्षिण देश में ऐसी जनश्रुति है कि अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण में जाकर वहाँ के निवासियों को बहुत सी विद्याएँ सिखाई। बारह-तेरह सौ वर्ष पहले दक्षिण में जैन धर्म का बड़ा प्रचार था। चीनी यात्री हुएनसांग जिस समय दक्षिण में गया था, उसने वहाँ दिगंबर जैनों की प्रधानता देखी थी। तमिल भाषा का साहित्य भी अत्यंत प्राचीन है। दो हजार वर्ष पूर्व तक के काव्य तामिल भाषा में विद्यमान हैं। पर वर्णमाला नागरी लिपि की तुलना में अपूर्ण है। अनुनासिक पंचम वर्ण को छोड़ व्यंजन के एक एक वर्ग का उच्चारण एक ही सा है। क, ख, ग, घ, चारों का उच्चारण एक ही है। व्यंजनों के इस अभाव के कारण जो संस्कृत शब्द प्रयुक्त होते हैं, वे विकृत्त हो जाते हैं; जैसे, 'कृष्ण' शब्द तामिल में 'किट्टिनन' हो जाता है। तामिल भाषा का प्रधान ग्रंथ कवि तिरुवल्लुवर रचित कुराल काव्य है। .

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दण्डी (दण्डधारी संयासी)

संस्कृत के महान रचनाकार दण्डी के लिये उस पृष्ठ पर जाँय। ---- दंडी - दंड धारण करनेवाले सन्यासी का रूढ़ार्थ। मनुस्मृति (षष्ठ, 41-58) जैसे धर्मशस्त्र ग्रंथों में दंडियों के लक्षण तथा उनकी तपश्चर्या के नियम दिए गए हैं। यों तो अपनी अंतिम अवस्थाओं में वर्णाश्रम धर्मानुसार सभी द्विजों को तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ) में रह चुकने के बाद संन्यस्त होने का विधान और अधिकार था, किंतु दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण ही हो सकता था। उसे भी माता पिता और पत्नी के न रहने पर ही दंडी होने की अनुमति थी। वास्तविक संन्यास संसार के सभी बंधनों और संबंधों को तोड़ देने से ही संभव था और दंडी संन्यासी उसका प्रतीक होता था। संन्यास का लक्ष्य था मोक्ष और आध्यात्मिक मोक्ष की प्राप्ति के लिये सांसारिक मोक्ष अत्यावश्यक था। यही कारण था कि दंडी के लिये अत्यंत कठोर लक्षण निश्चित किए गए और कठिन तापस जीवन ही उसका मार्ग माना गया, यथा -- निरामिष भोजन, निरपेक्षता, अक्रोध, अध्यात्मरति, आत्मापरकता, गृहत्याग, सिद्धार्थत्व, असहायत्व, अनग्नित्व, परिब्राजकत्व, मुनिभावत्व, मृत्यु से भयहीनता, दु:ख सुख में समान भाव, बस्तियों में केवल भिक्षा के लिये जाना, सांसारिक मामलों से दूर रहना इत्यादि। उसके दैनिक जीवन के भी क्रम होते थे। महाभारत (तेरहवाँ 14-374) के अनुसार दंडी के ऊपरी लक्षण थे -- दंड धारण करना, सिर के बालों को घुटाए रहना (मुंडी), कुशासन का प्रयोग, चीरवसन और मेखलाधारण। इस प्रकार नियमों को पालन करते हुए 12 वर्ष बीत जाने पर दंडी अपना दंड फेंककर परमहंस हो जाता था। चूँकि दंडी संन्यासी ब्राह्मणवर्ण से आते थे, वे प्राय: योग्य विद्वान्‌ होते थे और यदा कदा लोग उनसे पढ़ने भी जाया करते थे। कालांतर में दंडी संन्यासियों का एक संप्रदाय ही हो गया जो प्राय: शंकराचार्य के सांप्रदायिक व्यक्तियों से भरने लगा। निर्गुण ब्रह्म की उपासना उनका मुख्य लक्ष्य हो गया। भारत के पवित्र माने जानेवाले तीर्थों और नगरों, जैसे काशी में आज भी अनेक दंडी आरमों, मुमुक्षु भवनों में अथवा पाठशालाओं और घाटों पर देखे जा सकते हैं। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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दंड

राजा, राज्य और छत्र की शक्ति और संप्रभुता का द्योतक और किसी अपराधी को उसके अपराध के निमित्त दी गयी सजा को दण्ड कहते हैं। एक दूसरे सन्दर्भ में, राजनीतिशास्त्र के चार उपायों - साम, दाम, दंड और भेद में एक उपाय। दण्ड का शाब्दिक अर्थ 'डण्डा' (छड़ी) है जिससे किसी को पीटा जाता है। .

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देवल ऋषि

देवल ऋषि ने देवल स्मृति की रचना की है। यह स्मृति सिन्ध पर मुसलमानी आक्रमण के कारण उत्पन्न धर्म परिवर्तन की समस्या के निवार्णार्थ लिखी गई थी। इसका रचनाकाल ७वीं शताब्दी से लेकर १०वीं शताब्दी के बीच होने का अनुमान है। इसमें केवल ९६ श्लोक हैं। अनुमान है की सिंध प्रदेश के मुसलमानों के हाथ में चले जाने के बाद जब पश्चिमोतर भारत की जनता धड़ल्ले से मुस्लमान बनायीं जाने लगी, तब उसे हिन्दू समाज में वापस आने की सुविधा देने के लिए यह स्मृति आनन् फानन में रच दी गयी। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म-भ्रष्ट मनुष्य को पुनः लेने के कोई प्रवंध न था। याज्ञवल्क्य पर लिखी गई ‘मिताक्षरा’, 'अपरार्क', 'स्मृतिचन्द्रिका' आदि ग्रंथों में देवल का उल्लेख किया गया है। उसी प्रकार देवल स्मृति के काफी उद्धरण ‘मिताक्षरा’ में लिये गये हैं। ‘स्मृतिचन्द्रिका’ में देवल स्मृति से ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ४८ वर्षो तक पाला जानेवाला ब्रह्मचर्य, पत्नी के कर्तव्य आदि के संबंध मे उद्धरण लिये गये हैं। 'देवल स्मृति' नामक ९० श्लोकों का ग्रंथ आनंदाश्रम में छपा है। उस ग्रंथ में केवल प्रायश्चित्तविधि बताया गया है। किंतु वह ग्रंथ मूल स्वरुप में अन्य स्मृतियों से लिये गये श्लोकों का संग्रह होगा। इसका रचनाकाल भी काफी अर्वाचीन होगा क्योंकि इस स्मृति के १७-२२ श्लोक तथा ३०-३१ श्लोक विष्णु के हैं, ऐसा अपरार्क में बताया गया है। अपरार्क तथा स्मृतिचन्द्रिका में ‘देव स्मृति’ से दायविभाग, स्त्रीधन पर रहनेवाली स्त्री की सत्ता आदि के बारे में उद्धरण लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि, स्मृतिकार देवल, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों का समकालीन रहे होंगे। .

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धर्मसूत्र

धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। ये गृह्यसूत्रों की शृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया। इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है। .

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नारद मुनि

नारद मुनि, (तमिल:தேவர்ஷி நாரத) हिन्दु शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया । वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारद जी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारद जी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारद जी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं। .

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नियोग

नियोग, मनुस्मृति में पति द्वारा संतान उत्पन्न न होने पर या पति की अकाल मृत्यु की अवस्था में ऐसा उपाय है जिसके अनुसार स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री से गर्भाधान करा सकती है। यदि पति जीवित है तो वह व्यक्ति स्त्री के पति की इच्छा से केवल एक ही और विशेष परिस्थिति में दो संतान उत्पन्न कर सकता है। इसके विपरीत आचरण प्रायश्चित् के भागी होते हैं। हिन्दू प्रथा के अनुसार नियुक्त पुरुष सम्मानित व्यक्ति होना चाहिए। इसी विधि द्वारा महाभारत में वेद व्यास के नियोग से अम्बिका तथा अम्बालिका को क्रमशः धृतराष्ट्र तथा पाण्डु उत्पन्न हुये थे। .

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पह्लव

इरानी पह्लव एक प्राचीन जाति। प्रायः प्राचीन पारसी या ईरानी। मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन पुस्तकों में जहाँ-जहाँ खस, यवन, शक, कांबोज, वाह्लीक, पारद आदि भारत के पश्चिम में बसनेवाली जातियों का उल्लेख है वहाँ-वहाँ पह्लवों का भी नाम आया है। उपर्युक्त तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में पह्लव शब्द सामान्य रीति से पारस निवासियों या ईरानियों के लिये व्यवहृत हुआ है मुसलमान ऐतिहासिकों ने भी इसको प्राचीन पारसीकों का नाम माना है। प्राचीन काल में फारस के सरदारों का 'पहृ- लवान' कहलाना भी इस बात का समर्थक है कि पह्लव पारसीकों का ही नाम है। शाशनीय सम्राटों के समय में पारस की प्रधान भाषा और लिपि का नाम पह्लवी पड़ चुका था। तथापि कुछ युरोपीय इतिहासविद् 'पह्लव' सारे पारस निवासियों की नहीं केवल पार्थिया निवासियों पारदों— की अपभ्रश संज्ञा मानते हैं। पारस के कुछ पहाड़ी स्थानो में प्राप्त शिलालेखों में 'पार्थव' नाम की एक जाति का उल्लेख है। डॉ॰ हाग आदि का कहना है कि यह 'पार्थव' पार्थियंस (पारदों) का ही नाम हो सकता है और 'पह्लव' इसी पार्थव का वैसा ही फालकी अपभ्रंश है जैसा अवेस्ता के मिध्र (वै० मित्र) का मिहिर। अपने मत की पुष्टि में ये लोग दो प्रमाण और भी देते हैं। एक यह कि अरमनी भाषा के ग्रंथों में लिखा है कि अरसक (पारद) राजाओं की राज-उपाधि 'पह्लव' थी। दूसरा यह कि पार्थियावासियों को अपनी शूर वीरता और युद्धप्रियता का बडा़ घमंड था और फारसी के 'पहलवान' और अरमनी के 'पहलवीय' शब्दों का अर्थ भी शूरवीर और युद्धप्रिय है। रही यह बात कि पारसवालों ने अपने आपके लिये यह संज्ञा क्यों स्वीकार की और आसपास वालों ने उनका इसी नाम से क्यों उल्लेख किया। इसका उत्तर उपर्युक्त ऐतिहासिक यह देते हैं कि पार्थियावालों ने पाँच सौ वर्ष तक पारस में राज्य किया और रोमनों आदि से युद्ध करके उन्हें हराया। ऐसी दशा में 'पह्लव' शब्द का पारस से इतना घनिष्ठ संबंध हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। संस्कृत पुस्तकों में सभी स्थलों पर 'पारद' औक 'पह्लव' को अलग अलग दो जातियाँ मानकर उनका उल्लेख किया गया है। हरिवंश पुराण में महाराज सगर के द्वारा दोनों की वेशभूषा अलग अलग निश्चित किए जाने का वर्णन है। पह्लव उनकी आज्ञा से 'श्मश्रुधारी' हुए और पारद 'मुक्तकेश' रहने लगे। मनुस्मृति के अनुसार 'पह्लव' भी पारद, शक आदि के समान आदिम क्षत्रिय थे और ब्राह्मणों के अदर्शन के कारण उन्हीं की तरह संस्कारभ्रष्ट हो शूद्र हो गए। हरिवंश पुराण के अनुसार महाराज सगर न इन्हें बलात् क्षत्रियधर्म से पतित कर म्लेच्छ बनाया। इसकी कथा यों है कि हैहयवंशी क्षत्रियों ने सगर के पिता बाहु का राज्य छीन लिया था। पारद, पह्लव, यवन, कांबोज आदि क्षत्रियों ने हैहयवंशियों की इस काम में सहायता की थी। सगर ने समर्थ होने परह हैहयवंशियों को हराकर पिता का राज्य वापस लिया। उनके सहायक होने के कारण 'पह्लव' आदि भी उनके कोपभाजन हुए। ये लोग राजा सगर के भय से भागकर उनके गुरु वशिष्ठ की शरण गए। वशिष्ठ ने इन्हें अभयदान दिया। गुरु का बचन रखने के लिये सगर ने इनके प्राण तो छोड़ दिए पर धर्म ले लिया, इन्हें छात्र धर्म से बहिष्कृत करके म्लेच्छत्व को प्राप्त करा दिया। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार 'पह्लवों' की उत्पत्ति वशिष्ठ की गौ शबला के हुंभारव (रँभाने) से हुई है। विश्वामित्र के द्वारा हरी जाने पर उसने वशिष्ठ की आज्ञा से लड़ने के लिये जिन अनेक क्षत्रिय जातियों को अपने शब्द से उत्पन्न किया 'पह्लव' उनमें पहले थे। .

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पारद (प्राचीन जाति)

पारद एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कास्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके पड़ता था। इसके हाथ में बहुत दिनों तक पारस साम्राज्य रहा। महाभारत, मनुस्मृति, बृहत्संहिता इत्यादि में पारद देश और पारद जाति का उल्लेख मिलता है। यथा— इसी प्रकार बृहत्संहिता में पश्चिम दिशा में बसनेवाली जातियों में 'पारत' और उनके देश का उल्लेख है— पुराने शिलालेखों में 'पार्थव' रूप मिलता हैं जिससे युनानी 'पार्थिया' शब्द बना है। युरोपीय विद्वानों ने 'पह्लव' शब्द को इसी 'पार्थिव' का अपभ्रंश या रूपांतक मानकर पह्लव और पारद को एक ही ठहराया है। पर संस्कृत साहित्य में ये दोनों जातियाँ भिन्न लिखी गई हैं। मनुस्मृति के समान महाभारत और बृहत्संहिता में भी 'पह्लव' 'पारद' से अलग आया है। अतः 'पारद 'का'पह्लव' से कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। पारस में पह्लव शब्द शाशानवंखी सम्राटों के समय से ही भाषा और लिपि के अर्थ में मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में पारसियों को लिये भारतीय ग्रंथों में हुआ है। किसी समय में पारस के सरदार 'पहलबान' कहलाते थे। संभव है, इसी शब्द से 'पह्लव' शब्द बना हो। मनुस्मृति में 'पारदों' और 'पह्लवों' आदि को आदिम क्षत्रिय कहा है जो ब्राह्मणों के अदर्शन से संस्कारभ्रष्ट होकर शूद्रत्व को प्राप्त हो गए। श्रेणी:प्राचीन जातियाँ श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

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पितृमेध

पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। .

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पक्षीविज्ञान

पक्षी की आकृति का विधिवत मापन बहुत महत्व रखता है। पक्षीविज्ञान (Ornithology) जीवविज्ञान की एक शाखा है। इसके अंतर्गत पक्षियों की बाह्य और अंतररचना का वर्णन, उनका वर्गीकरण, विस्तार एवं विकास, उनकी दिनचर्या और मानव के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक उपयोगिता इत्यादि से संबंधित विषय आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या के अंतर्गत उनके आहार-विहार, प्रव्रजन, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरण, अनुरंजन (courtship), नीड़ निर्माण, मैथुन, प्रजनन, संतान का लालन पालन इत्यादि का वर्णन आता है। आधुनिक फोटोग्राफी द्वारा पक्षियों की दिनचर्याओं के अध्ययन में बड़ी सहायता मिली है। पक्षियों की बोली के फोनोग्राफ रेकार्ड भी अब तैयार कर लिए गए हैं। .

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पुराण

पुराण, हिंदुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत्का बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।Merriam-Webster's Encyclopedia of Literature (1995 Edition), Article on Puranas,, page 915 पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।Gregory Bailey (2003), The Study of Hinduism (Editor: Arvind Sharma), The University of South Carolina Press,, page 139 हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। John Cort (1993), Purana Perennis: Reciprocity and Transformation in Hindu and Jaina Texts (Editor: Wendy Doniger), State University of New York Press,, pages 185-204 पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताए जा सकते हैं। कर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं। पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंथ नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं। पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं। .

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प्राचीन भारतीय शिक्षा

भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में हमें अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक केन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। औपचारिक शिक्षा मन्दिर, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी। ये ही उच्च शिक्षा के केन्द्र भी थे। जबकि परिवार, पुरोहित, पण्डित, सन्यासी और त्यौहार प्रसंग आदि के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी। विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु है। कुछ विद्वानों ने पिता को बच्चे के शिक्षक के रुप में स्वीकार किया है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित होने लगी। वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों का स्थापन हो गया था, लेकिन व्यवस्थित शिक्षण संस्थाएं सार्वजनिक स्तर पर बौद्धों द्वारा प्रारम्भ की गई थी। गुरुकुलों की स्थापना प्रायः वनों, उपवनों तथा ग्रामों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य निर्जन वनों में निवास, अध्ययन तथा चिन्तन पसन्द करते थे। वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र भी पढ़ाये जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिला में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। मनु के अनुसार `ब्रह्मचारों को गुरु के कुल में, अपनी जाति वालों में तथा कुल बान्धवों के यहां से भिक्षा याचना नहीं करनी चाहिए, यदि भिक्षा योग्य दूसरा घर नहीं मिले, तो पूर्व-पूर्व गृहों का त्याग करके भिक्षा याचना करनी चाहिये। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। स्वजातियों से भिक्षा याचना करने में उनके पक्षपात तथा ब्रह्मचारी के गृह की ओर आकर्षण का भय भी रहता था अतएव स्वजातियों से भिक्षा-याचना का पूर्ण निषेध कर दिया गया था। बहुधा राजा तथा सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान् पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी विद्वान् आकृष्ट होते थे। फलत: काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। कभी-कभी राजा भी अनेक विद्वानों को आमंत्रित करके दान में भूमि आदि देकर तथा जीविका निश्चित करके उन्हें बसा लेते थे। उनके बसने से वहां एक नया गांव बन जाता था। इन गांवों को `अग्रहार' कहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं। भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इस संस्थाओं में धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (३०० ई. पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी। कुछ समय पश्चात् ये विद्या के महान केन्द्र बन गये। ये वस्तुत: गुरुकुलों के ही समान थे। किन्तु इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (४५० ई.), वल्लभी (७०० ई.), विक्रमशिला (८०० ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये। .

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पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान (भारतेश्वरः पृथ्वीराजः, Prithviraj Chavhan) (सन् 1178-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे, जो उत्तर भारत में १२ वीं सदी के उत्तरार्ध में अजमेर (अजयमेरु) और दिल्ली पर राज्य करते थे। वे भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, हिन्दूसम्राट्, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत के अन्तिम हिन्दूराजा के रूप में प्रसिद्ध पृथ्वीराज १२३५ विक्रम संवत्सर में पंद्रह वर्ष (१५) की आयु में राज्य सिंहासन पर आरूढ हुए। पृथ्वीराज की तेरह रानीयाँ थी। उन में से संयोगिता प्रसिद्धतम मानी जाती है। पृथ्वीराज ने दिग्विजय अभियान में ११७७ वर्ष में भादानक देशीय को, ११८२ वर्ष में जेजाकभुक्ति शासक को और ११८३ वर्ष में चालुक्य वंशीय शासक को पराजित किया। इन्हीं वर्षों में भारत के उत्तरभाग में घोरी (ग़ोरी) नामक गौमांस भक्षण करने वाला योद्धा अपने शासन और धर्म के विस्तार की कामना से अनेक जनपदों को छल से या बल से पराजित कर रहा था। उसकी शासन विस्तार की और धर्म विस्तार की नीत के फलस्वरूप ११७५ वर्ष से पृथ्वीराज का घोरी के साथ सङ्घर्ष आरंभ हुआ। उसके पश्चात् अनेक लघु और मध्यम युद्ध पृथ्वीराज के और घोरी के मध्य हुए।विभिन्न ग्रन्थों में जो युद्ध सङ्ख्याएं मिलती है, वे सङ्ख्या ७, १७, २१ और २८ हैं। सभी युद्धों में पृथ्वीराज ने घोरी को बन्दी बनाया और उसको छोड़ दिया। परन्तु अन्तिम बार नरायन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के पश्चात् घोरी ने पृथ्वीराज को बन्दी बनाया और कुछ दिनों तक 'इस्लाम्'-धर्म का अङ्गीकार करवाने का प्रयास करता रहा। उस प्रयोस में पृथ्वीराज को शारीरक पीडाएँ दी गई। शरीरिक यातना देने के समय घोरी ने पृथ्वीराज को अन्धा कर दिया। अन्ध पृथ्वीराज ने शब्दवेध बाण से घोरी की हत्या करके अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहा। परन्तु देशद्रोह के कारण उनकी वो योजना भी विफल हो गई। एवं जब पृथ्वीराज के निश्चय को परिवर्तित करने में घोरी अक्षम हुआ, तब उसने अन्ध पृथ्वीराज की हत्या कर दी। अर्थात्, धर्म ही ऐसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुएं शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। इतिहासविद् डॉ.

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बर्मी साहित्य

अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है। बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है। .

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ब्रह्मसूत्र

ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक भाष्य भी लिखे गये हैं। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। (न्याय .

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बैंक

जर्मनी के फ्रैंकफुर्त में डश-बैंक बैंक (Bank) उस वित्तीय संस्था को कहते हैं जो जनता से धनराशि जमा करने तथा जनता को ऋण देने का काम करती है। लोग अपनी अपनी बचत राशि को सुरक्षा की दृष्टि से अथवा ब्याज कमाने के हेतु इन संस्थाओं में जमा करते और आवश्यकतानुसार समय समय पर निकालते रहते हैं। बैंक इस प्रकार जमा से प्राप्त राशि को व्यापारियों एवं व्यवसायियों को ऋण देकर ब्याज कमाते हैं। आर्थिक आयोजन के वर्तमान युग में कृषि, उद्योग एवं व्यापार के विकास के लिए बैंक एवं बैंकिंग व्यवस्था एक अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती है। राशि जमा रखने तथा ऋण प्रदान करने के अतिरिक्त बैंक अन्य काम भी करते हैं जैसे, सुरक्षा के लिए लोगों से उनके आभूषणादि बहुमूल्य वस्तुएँ जमा रखना, अपने ग्राहकों के लिए उनके चेकों का संग्रहण करना, व्यापारिक बिलों की कटौती करना, एजेंसी का काम करना, गुप्त रीति से ग्राहकों की आर्थिक स्थिति की जानकारी लेना देना। अत: बैंक केवल मुद्रा का लेन देन ही नहीं करते वरन् साख का व्यवहार भी करते हैं। इसीलिए बैंक को साख का सृजनकर्ता भी कहा जाता है। बैंक देश की बिखरी और निठल्ली संपत्ति को केंद्रित करके देश में उत्पादन के कार्यों में लगाते हैं जिससे पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन मिलता है और उत्पादन की प्रगति में सहायता मिलती है। भारतीय बैंकिग कंपनी कानून, १९४९ के अंतर्गत बैंक की परिभाषा निम्न शब्दों में दी गई हैं: एक ही बैंक के लिए व्यापार, वाणिज्य, उद्योग तथा कृषि की समुचित वित्तव्यवस्था करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होता है। अतएव विशिष्ट कार्यों के लिए अलग अलग बैंक स्थापित किए जाते हैं जैसे व्यापारिक बैंक, कृषि बैंक, औद्योगिक बैंक, विदेशी विनिमय बैंक तथा बचत बैंक। इन सब प्रकार के बैंकों को नियमपूर्वक चलाने तथा उनमें पारस्परिक तालमेल बनाए रखने के लिए केंद्रीय बैंक होता है जो देश भर की बैंकिंग व्यवस्था का संचालन करता है। समय के साथ कई अन्य वित्तीय गतिविधियाँ जुड़ गईं। उदाहरण के लिए बैंक वित्तीय बाजारों में महत्वपूर्ण खिलाडी हैं और निवेश फंड जैसे वित्तीय सेवाओं की पेशकश कर रहे हैं। कुछ देशों (जैसे जर्मनी) में बैंक औद्योगिक निगमों के प्राथमिक मालिक हैं, जबकि अन्य देशों (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका) में बैंक गैर वित्तीय कंपनियों स्वक्मित्व से निषिद्ध रहे हैं। जापान में बैंक को आमतौर पर पार शेयर होल्डिंग इकाई (ज़ाइबत्सू) के रूप में पहचाना जाता है। फ़्रांस में अधिकांश बैंक अपने ग्राहकों को बिमा सेवा प्रदान करते हैं। .

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बीज

विभिन्न पौधों के बीज बीज की परिभाषा बीज एक परिपक्व बीजाण्ड है,जो निषेचन के बाद क्रियाशिल होता है,बीज उचित परिस्थितिया जैसे जल,वायु,सूर्य प्रकास आदि मिलने पर क्रियाशिल होता है। .

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भारत में मापन प्रणालियों का इतिहास

समय-मापन की हिन्दू इकाइयाँ (लघुगणकीय पैमाने पर प्रदर्शित) भारत में मापन प्रणालियों का इतिहास बहुत पुराना है। सिन्धु घाटी की सभ्यता में प्राप्त कुछ सबसे प्राचीन मापक नमूने ५वीं सहराब्दी ईसापूर्व के हैं। संस्कृत कें 'शुल्ब' शब्द का अर्थ 'नापने की रस्सी' या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। नीलकण्ठ सोमयाजि ने अपने ज'योतिर्मीमांसा' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि ज्योतिष के ऐसे ग्रन्थ ही अनुसरण करना चाहिए जो वास्तविक प्रेक्षणों से मेल खाते हैं। .

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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भारुचि

भरुचि का मनुस्मृति पर लिखा भाष्य सबसे प्राचीन भाष्य है। इस भाष्य का नाम मनुशास्त्र विवरण है। इसमें मुख्यतया राजा के कर्तव्यों के बारे में विशद वर्णन है। श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:ऋषि मुनि.

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भीमराव आम्बेडकर

भीमराव रामजी आम्बेडकर (१४ अप्रैल, १८९१ – ६ दिसंबर, १९५६) बाबासाहब आम्बेडकर के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे। उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और अछूतों (दलितों) के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री, भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार एवं भारत गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे। आम्बेडकर विपुल प्रतिभा के छात्र थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता; वह भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार और बातचीत में शामिल हो गए, पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत और भारत की स्थापना में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। आम्बेडकर की विरासत में लोकप्रिय संस्कृति में कई स्मारक और चित्रण शामिल हैं। .

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मनु

मनु हिन्दू धर्म के अनुसार, संसार के प्रथम पुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये स्वयं भू (अर्थात होना) ब्रह्मा द्वारा प्रकट होने के कारण ही स्वयंभू कहलाये। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं। सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई। मानव का हिन्दी में अर्थ है वह जिसमें मन, जड़ और प्राण से कहीं अधिक सक्रिय है। मनुष्य में मन की शक्ति है, विचार करने की शक्ति है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। और ये सभी मनु की संतानें हैं इसीलिए मनुष्य को मानव भी कहा जाता है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं। .

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मल्ल (कुलनाम)

भारत के कई भागों के लोगों का कुलनाम मल्ल है।.

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मंगलसूत्र

आन्ध्र प्रदेश में प्रचलित पारम्परिक मंगलसूत्र मंगलसूत्र एक हार (माला) होता है जिसे विवाह के समय कन्या को वर द्वारा पहनाया जाता है। विवाह के उपरान्त इसे वह जीवन भर धारण करती है। अतः मंगलसूत्र विवाहित स्त्री का परिचायक भी है। मंगलसूत्र धारण करने की प्रथा भारत के अतिरिक्त नेपाल और श्रीलंका में भी है। मंगलसूत्र पहनने (मांगल्यधारण) की रीति मनुस्मृति में वर्णित है। .

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मेधातिथि

मेधातिथि मनुस्मृति के प्राचीनतम भाष्यकार हैं। उन्होने मनुस्मृति पर 'मनुभाष्य' नामक एक विशद टीका लिखी है। अपने ग्रंथ में ये कुमारिल का उल्लेख करते हैं अत: इनका जीवनकाल सातवीं शताब्दी क बाद का होना चाहिए। मनुस्मृति पर लिखी मिताक्षरा (१०७६ से ११२१) में इनका उल्लेख है। अत: डॉ० गंगानाथ झा के अनुसार इनका काल नवीं शताब्दी ठहरता है। डॉ० बुहलर इनको कश्मीर का तथा जॉली दक्षिण का मानते हैं। केवल इतना ही इनके ग्रंथ के आधार पर स्वीकार किया जा सकता है कि ये कश्मीर की बोली तथा कश्मीर और पंजाब के रीति रिवाजों से पूर्णत: परिचित थे। इनका एक अन्य ग्रंथ 'स्मृति विवेक' भी था। .

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याज्ञवल्क्य स्मृति

याज्ञवल्क्य स्मृति धर्मशास्त्र परम्परा का एक हिन्दू धर्मशास्त्र का ग्रंथ (स्मृति) है। याज्ञवल्क्य स्मृति को अपने तरह की सबसे अच्छी एवं व्यवस्थित रचना माना जाता है। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत सुग्रथित है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है। इसके श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं - इसी छंद में गीता, वाल्मीकि रामायण और मनुस्मृति लिखी गई है। इसी विषय (यानि धर्मशास्त्र) पर मनुस्मृति को आधुनिक भारत में अधिक मान्यता मिली है। इसमें आचरण, व्यवहार और प्रायश्चित के तीन अलग अलग भाग हैं। .

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यज्ञफल

कोई विवरण नहीं।

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युगधर्म

इतिहास-पुराणों में युगधर्म का विस्तार के साथ प्रतिपादन मिलता है (देखिये, मत्स्यपुराण 142-144 अध्याय; गरूड़पुराण 1.223 अध्याय; वनपर्व 149 अध्याय)। किस काल में युग (चतुर्युग) संबंधी पूर्वोक्त धारणा प्रवृत्त हुई थी, इस संबंध में गवेषकों का अनुमान है कि ख्रिष्टीय चौथी शती में यह विवरण अपने पूर्ण रूप में प्रसिद्ध हो गया था। वस्तुत: ईसा पूर्व प्रथम शती में भी यह काल माना जाए तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता। निम्नलिखित दो श्लोकों के द्वारा यह बताया गया है कि किस प्रकार युगों के ह्रास का क्रम से धर्मों का ह्रास भी देखा जाता है। अर्थात् युग के ह्रास के अनुरूप चारों युगों के धर्मों का ह्रास होने लगा। कृतयुग या सतयुग के धर्म अन्य है, त्रेतायुग में अन्य, द्वापर में कुछ अन्य तथा कलियुग में कुछ अन्य धर्म उपाय के रूप में प्रचलित हुए। अर्थात् सत्ययुग का परम श्रेष्ठ धर्म तप या तपस्या माना गया है जिससे मानव अपने सभी श्रेय एवं प्रेय प्राप्त कर सकता था। त्रेता में ज्ञान प्राप्त करना, द्वापर में यज्ञ करना परम धर्म मान्य है और कलियुग का धर्म केवल दान को ही माना गया है। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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राजधर्म

राजधर्म राजधर्म का अर्थ है - 'राजा का धर्म' या 'राजा का कर्तव्य'। राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही 'राजधर्म' है। राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं। मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व तथा चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है। धर्मसूत्रों में भी राजधर्म का विवेचन किया गया है। .

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राजनयिक दूत

राजनयिक दूत (Diplomatic Envoys) संप्रभु राज्य या देश द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि होते हैं, जो अन्य राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन अथवा अंतरराष्ट्रीय संस्था में अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। वर्तमान अंतरराष्ट्रीय विधि का प्रचलन आरंभ होने के बहुत पूर्व से ही रोम, चीन, यूनान और भारत आदि देशों में एक राज्य से दूसरे राज्य में दूत भेजने की प्रथा प्रचलित थी। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र और 'नीतिवाक्यामृत' में प्राचीन भारत में प्रचलित दूतव्यवस्था का विवरण मिलता है। इस काल में दूत अधिकांशत: अवसरविशेष पर अथवा कार्यविशेष के लिए ही भेजे जाते थे। यूरोप में रोमन साम्राज्य के पतन के उपरांत छिन्न भिन्न दूतव्यवस्था का पुनरारंभ चौदहवीं शताब्दी में इटली के स्वतंत्र राज्यों एवं पोप द्वारा दूत भेजने से हुआ। स्थायी राजदूत को भेजने की नियमित प्रथा का श्रीगणेश इटली के गणतंत्रों एवं फ्रांस के सम्राट् लुई ग्यारहवें ने किया। सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक दूतव्यवस्था यूरोप के अधिकांश देशों में प्रचलित हो गई थी। .

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राजवीर शास्त्री

पण्डित राजवीर शास्त्री (४ अप्रैल १९३७ --) संस्कृत के विद्वान, अध्यापक, साहित्यकार तथा आर्यसमाज के कार्यकर्ता थे। मनुस्मृति में किए गये प्रक्षेपों पर अनुसन्धान करके उन्होने 'विशुद्ध मनुस्मृति' नामक ग्रन्थ सम्पादित किया। आप 'दयाननद-सन्देश' पत्र का अनेक वर्षों तक अवैतनिक सम्पादक रहे। .

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लिच्छवि

लिच्छवि नामक जाति ईसा पूर्व छठी सदी में बिहार प्रदेश के उत्तरी भाग यानी मुजफ्फरपुर जिले के वैशाली नगर में निवास करती थी। लिच्छ नामक महापुरुष के वंशज होने के करण इनका नाम लिच्छवि पड़ा अथवा किसी प्रकार के चिह्न (लिक्ष) धारण करने के कारण ये इस नाम से प्रसिद्ध हुए। लिच्छवि राजवंश इतिहासप्रसिद्ध है जिसका राज्य किसी समय में नेपाल, मगध और कौशल मे था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में क्षत्रियों की इस शाखा का नाम 'निच्छवि' या 'निच्छिवि' मिलता है। पाली रूप 'लिच्छवि' है। मनुस्मृति के अनुसार लिच्छवि लोग व्रात्य क्षत्रिय थे। उसमें इनकी गणना झल्ल, मल्ल, नट, करण, खश और द्रविड़ के साथ की गई है। ये 'लिच्छवि' लोग वैदिक धर्म के विरोधी थे। इनकी कई शाखाएँ दूर दूर तक फैली थीं। वैशालीवाली शाखा में जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी हुए और कोशल की शाक्य शाखा में गौतम बुद्ध प्रादुर्भूत हुए। किसी समय मिथिला से लेकर मगध और कोशल तक इस वंश का राज्य था। जिस प्रकार हिंदुओं के संस्कृत ग्रंथों में यह वंश हीन कहा गया है, उसी प्रकार बौद्धों और जैनों के पालि और प्राकृत ग्रंथों मे यह वंश उच्च कहा गया है। गौतम बुद्ध के समसामयिक मगध के राजा बिंबसार ने वैशाली के लिच्छवि लोगों के यहाँ संबंध किया था। पीछे गुप्त सम्राट् ने भी लिच्छवि कन्या से विवाह किया था। .

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शिवराज आचार्य कौण्डिन्न्यायन

शिवराज अाचार्य काैण्डिन्न्यायन (जन्म २ फरवरी १९४१) विशिष्ट संस्कृत विद्वान्, वैदिक (शुक्लयजुर्वेदी), शिक्षाशास्त्री, कल्पशास्त्रमर्मज्ञ, उत्कृष्ट भाषाशास्त्री, वैयाकरण, काेषकार, वेदांगज्याेतिषविद्, मीमांसक, वेदान्तज्ञ हैं। इन्हाेंने संस्कृत शिक्षा के सुधार के लिए लम्बा संघर्ष किया। संस्कृतशिक्षा काे कैसे सन्तुलित अाैर सर्वजनाेपयाेगी बनाया जा सकता है, इसका निदर्शन प्रस्तुत किया। धार्मिक, शास्त्रीय, वैज्ञानिक अथवा साधारण शिक्षा के रूप में संस्कृतशिक्षा संचालित की जा सकती है, इसका नवीन स्वरूप निर्माण किया है। .

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श्राद्ध पक्ष

(गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपद) के कृष्ण पक्ष को हमारे हिन्दू धर्म में श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इसे महालय और पितृ पक्ष भी कहते हैं। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है। हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं। केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है। पुराणों के अनुसार मुताबिक मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध पक्ष में मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है। ज्यादातर लोग अपने घरों में ही तर्पण करते हैं। श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस रिवाज को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है। कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं। कहते हैं कि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं और गाय वैतरणी पार कराने में सहायक है। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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श्रीधर व्यंकटेश केतकर

डॉ॰ श्रीधर व्यंकटेश केतकर (०२ फ़रवरी १८८४ - १० अप्रैल १९३७) मराठी भाषा के प्रथम ज्ञानकोश (महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश) के सुविख्यात जनक-संपादक, समाजशास्त्रज्ञ, कादंबरीकार, इतिहास-संशोधक व विचारक थे। मराठी ज्ञानकोश के महनीय कार्य के कारण उन्हें 'ज्ञानकोशकार केतकर' नाम से जाना जाता है। .

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सामाजिक संविदा

सामाजिक संविदा (Social contract) कहने से प्राय: दो अर्थों का बोध होता है। प्रथमत: सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या ठहराव किया, अत: यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है। दूसररे को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले। ऐतिहासिक विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए। .

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सिद्धि

'सिद्धि' का शाब्दिक अर्थ है - 'पूर्णता', 'प्राप्ति', 'सफलता' आदि। यह शब्द महाभारत में मिलता है। पंचतंत्र में कोई असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है। मनुस्मृति में इसका प्रयोग 'ऋण चुकता करने' के अर्थ में हुआ है। सांख्यकारिका तथा तत्व समास में, अर्थात तांत्रिक बौद्ध सम्प्रदाय में इसका विशिष्ट अर्थ है - चमत्कारिक साधनों द्वारा 'अलौकिक शक्तियों का अर्जन'; जैसे - दिव्यदृष्टि, उड़ना, एक ही समय में दो स्थानों पर उपस्थित होना, अपना आकार परमाणु की तरह छोटा कर लेना, पूर्व जन्म के घटनाओं की स्मृति प्राप्त कर लेना, आदि। माध्वाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह में भी 'सिद्धि' इसी अर्थ में प्रयुक्त हुई है। पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है- (अर्थात जन्म से, औषधि द्वारा, मंत्र से, तप से और समाधि से सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।) .

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संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

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सुभाषित

सुभाषित (सु + भाषित .

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स्मृति

स्मृति हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है - "याद किया हुआ"। यद्यपि स्मृति को वेदों से नीचे का दर्ज़ा हासिल है लेकिन वे (रामायण, महाभारत, गीता, पुराण) अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़ी जाती हैं, क्योंकि वेदों को समझना बहुत कठिन है और स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। इसकी सीमा में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों—गीता, महाभारत, विष्णुसहस्रनाम की भी गणना की जाने लगी। शंकराचार्य ने इन सभी ग्रन्थों को स्मृति ही माना है। मनु ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है। गौतम ऋषि ने भी यही कहा है कि ‘वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले'। हरदत्त ने गौतम की व्खाख्या करते हुए कहा कि स्मृति से अभिप्राय है मनुस्मृति से। परन्तु उनकी यह व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन रूढ़ि और परम्पराओं से जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं किया गया है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। फिर भी आपस्तम्ब ने अपने धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’। स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग ५०० ईसा पूर्व हुआ। छठी शताब्दी ई.पू.

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स्वायम्भूव मनु

मनु जो एक धर्मशास्त्रकार थे, धर्मग्रन्थों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। ये ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से थे जिनका विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत 'स्वायंभुव शास्त्र' के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था। .

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सैन्य विज्ञान

सैन्य विज्ञान (Military Science) के अन्तर्गत युद्ध एवं सशस्त्र संघर्ष से सम्बन्धित तकनीकों, मनोविज्ञान एवं कार्य-विधि (practice) आदि का अध्ययन किया जाता है। भारत सहित दुनिया के कई प्रमुख देश जैसे अमेरिका, इजराइल, जर्मनी, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, रूस, इंगलैंड, चीन, फ्रांस, कनाडा, जापान, सिंगापुर, मलेशिया में सैन्य विज्ञान विषय को सुरक्षा अध्ययन (Security Studies), रक्षा एवं सुरक्षा अध्ययन (Defence and Security Studies), रक्षा एवं स्त्रातेजिक अध्ययन (Defence and Strategic studies), सुरक्षा एवं युद्ध अध्ययन नाम से भी अध्ययन-अध्यापन किया जाता है। सैन्य विज्ञान ज्ञान की वह शाखा है जिसमें सैनिक विचारधारा, संगठन सामग्री और कौशल का सामाजिक संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। आदिकाल से ही युद्ध की परम्परा चली आ रही है। मानव जाति का इतिहास युद्ध के अध्ययन के बिना अधूरा है और युद्ध का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी मानव जाति की कहानी। युद्ध मानव सभ्यता के विकास के प्रमुख कारणों में से एक हैं। अनेक सभ्यताओं का अभ्युदय एवं विनाश हुआ, परन्तु युद्ध कभी भी समाप्त नहीं हुआ। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ वैसे-वैसे नवीन हथियारों के निर्माण के फलस्वरूप युद्ध के स्वरूप में परिवर्तन अवश्य आया है। सैन्य विज्ञान के अन्तर्गत युद्ध एवं सशस्त्र संघर्ष से सम्बन्धित तकनीकों, मनोविज्ञान एवं कार्य-विधि आदि का अध्ययन किया जाता है। सैन्य विज्ञान के निम्नलिखित छः मुख्य शाखायें हैं.

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सैंथवार

सैंथवार जाति क्षत्रिय कुलो/वंशो का समूह हैं जो भारत के उत्तर प्रदेश के पूर्वी जनपदों कुशीनगर, गोरखपुर, महराजगंज, मऊ, बस्ती, देवरिया व पूर्वी उत्तरप्रदेश से लगे जिलों में पाया जाता हैं। सैंथवार शब्द मूलतः संथगार से बना हैं, जो एक प्राचीन क्षत्रिय संघ था। ये लोग मूलत: खेतीहर जमींदार वर्ग से संबंधित है। यह सिंह,मल्ल, राय, राव आदि पदनाम का प्रयोग करते हैं। इसी संघ की प्राचीन वंश मल्ल था जो प्राचीन भारत के महाजनपदों में से एक मल्ल महाजनपद था। इस वंश की निवासस्थली कुशीनारा व पावा थी, जो वर्तमान में कुशीनगर व फाजिलनगर के नाम से जाना जाता है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण स्थान भी कुशीनगर में स्थित है,जिसे प्राचीन काल में कुशीनारा नाम से संबोधित किया जाता था। यहां पर मल्लों का शासन था। मल्ल जाति के लोग द्वंद्वयुद्ध में निपुण होते थे; इसीलिये द्वंद्वयुद्ध का नाम 'मल्लयुद्ध' और कुश्ती लड़नेवाले का नाम 'मल्ल' पड़ गया है। महाभारत में मल्ल जाति, उनके राजा और उनके देश का उल्लेख हैं। प्राचीन भारतवर्ष के अनेक स्थान जैस मुलतान (मल्लस्थान), मालभूमि आदि में 'मल्ल' शब्द विकृत रूप में मिलता है। त्रिपिटक से कुशीनगर में मल्लों के छोटे राज्य का होना पाया जाता है। मनुस्मृति में मल्लों को लिछिबी (लिच्छाव) आदि के साथ संस्कारच्युत या 'व्रात्य क्षत्री' लिखा है। पर मल्ल आदि क्षत्री जातियाँ बौद्ध मतावलंबी हो गईं थीं। इसका उल्लेख स्थान-स्थान पर त्रिपटक में मिलता है जिससे ब्राह्मणों के अधिकार से उनका निकल जाना और ब्रात्य होना ठीक जान पड़ता है और कदाचित् इललिये स्मृतियों मे वे 'व्रात्य' कह गए है। वैदिक साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण समाज में सर्वाधिक महत्वशाली थे। वैदिक परंपरा में ब्राह्मण का स्थान क्षत्रिय से उच्चतर है किंतु ब्राह्मण, उपनिषद्, (शतपथ ब्रा. १४,४,१,२३, तैत्तरीय, ३,१,१४) और पाली साहित्य में कुछ ऐसे उल्लेख हैं जिनसे ज्ञात होता है कि अवसरविशेष पर क्षत्रियों ने ब्राह्मणों से श्रेष्ठतर पद प्राप्त करने की चेष्टा की। यह भी सत्य है कि क्षत्रियों में जनक, प्रवाहण जैवलि (बृहदा. उप. ६,११), अश्वपति कैकेय (श. ब्रा.१०,६,१), अजातशत्रु (बृहद. उप. २,१,१) के समान ब्रह्मविद्या के ज्ञाता और उपदेष्टा थे। गार्वे (डायसन कृत फ़िलासफ़ी ऑव उपनिषद्, पृ. १७), ग्रियर्सन (एंसाइक्लोपीडिया ऑव रिलीजन ऐंड एथिक्स में भक्ति पर निबंध), रा.

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हारीत धर्मसूत्र

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Dharma_sutra.jpg हारीत की मान्यता अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रकार के रूप में हैं। बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और वासिष्ठ धर्मसूत्रों में हारीत को बार–बार उद्धत किया गया है। हारीत के सर्वाधिक उद्धरण आपस्तम्ब धर्मसूत्र में प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तिक* में हारीत का उल्लेख गौतम, वसिष्ठ, शंख और लिखित के साथ है। परवर्ती धर्मशास्त्रियों ने तो हारीत के उद्धरण पौनः पुन्येन दिये हैं, किन्तु हारीत धर्मसूत्र का जो हस्तलेख उपलब्ध हुआ है और जिसका स्वरूप 30 अध्यायात्मक है, उसमें इनमें से बहुत से उद्धरण नहीं प्राप्त होते हैं। धर्मशास्त्रीय निबन्धों में उपलब्ध हारीत के वचनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने धर्मसूत्रों में वर्णित प्रायः सभी विषयों पर अपने विचार प्रकट किए थे। मनुस्मृति के व्याख्याकार कुल्लूक भट्ट के अनुसार हारीत धर्मसूत्र का प्रारम्भिक अंश इस प्रकार था – नासिक (महाराष्ट्र) जनपद के इस्मालपुर नामक स्थान पर हारीत धर्मसूत्र का एक हस्तलेख वामनशास्त्री को मिला था जिसमें 30 अध्याय हैं। यह अत्यन्त भ्रष्ट है और इसमें उद्धृतांश भी नहीं मिलते, इस कारण काणे प्रभृति मनीषियों ने इसकी प्रामाणिकता पर सन्देह व्यक्त किया है। .

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

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हिन्दू लम्बाई गणना

पृथ्वी की लम्बाई हेतु सर्वाधिक प्रयोगित इकाई है योजन। धार्मिक विद्वान भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने अपने पौराणिक अनुवादों में सभी स्थानों पर योजन की लम्बाई को 8 मील (13 कि॰मी॰) बताया है।। अधिकां भारतीय विद्वान इसका माप 13 कि॰मी॰ से 16 कि॰मी॰ (8-10 मील) के लगभग बताते हैं। .

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ज़मींदारी प्रथा

दरभंगा के जमींदार '''लक्ष्मणेश्वर सिंह''' जमींदारी प्रथा भारत में मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक कुरीति थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर किसी और (जमींदार) का होता था जो खेती करने वालों से कर वसूलते थे। भारत के स्वतंत्रत होने के बाद यह प्रथा समाप्त कर दी गयी। .

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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जेम्स मिल

जेम्स मिल जेम्स मिल (1773-1836) स्कॉटलैण्ड के इतिहासकार, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक थे। डेविड रिकार्डो के साथ उन्हें क्लासिकल अर्थशास्त्र का जनक माना जाता है। वे जॉन स्टूवर्ट मिल के पिता थे। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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विदेश्वरस्थान

विदेश्वरस्थान बिहार राज्य के मधुबनी जिला के अन्तर्गत झंझारपुर प्रखंड का एक अतिप्राचीन तीर्थस्थान है। यह मंडन मिश्र रेलवे हाल्ट से २ किलोमीटर उत्तर दिशा में स्थित है। विदेश्वरस्थान राष्ट्रीय राजमार्ग 57, लोहना चौक से 1.5 किलोमीटर दक्षिण दिशा में स्थित है। यह मंदिर झंझारपुर से 5 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। विदेश्वरस्थान में प्रतिवर्ष होने वाले मकर एवं शिवरात्री का मेला प्रार्ंभ से ही विशिष्टता के लिये प्रसिद्ध है। शिव भक्त हजारों लाखों की संख्या में पूजा -आराधना करते है। .

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विधि का इतिहास

विधिक इतिहास (या, विधि का इतिहास) के अन्तर्गत विधि की उत्पत्ति, उसके क्रमिक-विकास एवं उसमें कालक्रम में आये परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। विधिक इतिहास का सभ्यताओं के विकास से निकट का सम्बन्ध रहा है। यह सामाजिक इतिहास का भाग है। .

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विधिसंहिता का इतिहास

संहिता का शाब्दिक अर्थ है संग्रह। अत: विधिनियमों का लिपिबद्ध रूप ही, सामान्य अर्थों में, विधिसंहिता कहलाता है। विधिनियमों के विकासक्रम में यह अत्यंत उच्च स्तर माना गया है क्योंकि विधि का लिपिबद्ध संग्रह तभी संभव है जब उन नियमों का रूप स्थिर हो चुका हो और वे सर्वमान्य हो चुके हों। सामाजिक विकासक्रम में सामाजिक संबंधों का नियमन क्रमश: दैवी आदेश, लोकरीति (जिसे अंग्रेजी में जुडीशल प्रीसीडेट कहते हैं) द्वारा होना माना गया है। अत: स्पष्ट है कि विधिनियमों का संहिताकरण होने के पूर्व यह तीनों स्तर पार किए जा चुके होंगे। .

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विधिकार

सामान्य भाषा में विधिकार और विधायक शब्दों का प्रयोग भिन्न अर्थों में किया जाता है। विधिकार (law Givers) के प्रयोग से ऐसे व्यक्ति का अभिप्राय है जो स्वयं विधि का निर्माण करे और विधायक किसी एक अथवा कुछ विधियों का निर्माण कर सकता है लेकिन विधायक विधि संस्थानों - संसद, विधानमंडल आदि - में बैठकर अन्य विधायकों के साथ मिलकर विधि का निर्माता होता है अत: व्यक्तिगत रूप से वह विधि का निर्माण नहीं करता। विधिकार की परिभाषा देने के पूर्व विधि संबंधी दृष्ष्टिकोण स्पष्ट होना आवश्यक है। विधि के सिलसिले में कानून, सत्य, धर्म, न्याय, राइट, रेस्ट, ड्रायट आदि भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है। लैटिन भाषा में लेजिस्लेटर (विधायक) अथवा जूरिसडेटर (न्यायनिर्माता) शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता, लेकिन "लेजेनडेरे" और "लेक्स डेट" में (विधि देने और प्रयुक्त विधि) का उल्लेख मिलता है। जस्टीनियन ऐसे विधिकार को विधायक की संज्ञा दी गई है। यूनानी भाषा में भी विधिकार के संबंध में इसी भांति अस्पष्टता है। "थेसमोस" (Thesmos) का अर्थ एक वाक्य, सूत्र अथवा विधि किया जाता है। विधिसंहिता की नोमोस (Nomos) की संज्ञा दी जाती है। सोलोन (Solon) ने थेसमोइ (थेसमोस का बहुवचन) की रचना की जिसे 250 वर्ष बाद अरस्तू (Aristotle) ने विधिकार नाम से संबोधित किया। विधि संबंधी विभिन्न व्याख्याओं के कारण इस संबंध में भी मतभेद है कि किस व्यक्ति को विधिकार माना जाए और किसको नहीं। ईश्वरप्रदत्त विधि मानने पर भी उनको संसार में लानेवाले माध्यम का महत्व कम नहीं होता अत: हजरत मूसा, ईसा, मुहम्मद, कन्फ्यूशियस, मनु आदि को इस श्रेणी में रखना पड़ेगा। यदि विधि समाज के विवेक और शील का प्रतीक है तो भी विधिरचना में व्यस्त चाहे वह विधानमंडल हो अथवा न्यायाधीश, जो परंपराओं को नवीन स्थितियों में लागू करने के लिए नई व्यवस्थाएँ देते हैं अथवा ऐसे दार्शनिक विचारक जो समाज के विश्लेषणात्मक अध्ययन के उपरांत उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप विधि बनाने पर जोर देते हैं अथवा ऐतिहासिक विकासशृंखला के ऐसे नरेश, सत्तासंपन्न व्यक्ति जिन्होंने अपनी शक्ति और निदेश से नए नियमों की रचना की, उन सभी को विधिकार कहा जा सकता है। .

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विवाह

हिन्दू विवाह का सांकेतिक चित्रण विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है। विवाह की परिभाषा न केवल संस्कृतियों और धर्मों के बीच, बल्कि किसी भी संस्कृति और धर्म के इतिहास में भी दुनिया भर में बदलती है। आमतौर पर, यह मुख्य रूप से एक संस्थान है जिसमें पारस्परिक संबंध, आमतौर पर यौन, स्वीकार किए जाते हैं या संस्वीकृत होते हैं। एक विवाह के समारोह को विवाह उत्सव (वेडिंग) कहते है। विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। .

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वैश्य

हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ है। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज का व्यापारी समुदाय शामिल है। अर्थ की दृष्टि से इस शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका मूल अर्थ "बसना" होता है। मनु के मनुस्मृति के अनुसार वैश्यों की उत्पत्ति ब्रम्हा के उदर यानि पेट से हुई है। .

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वैखानस

कर्नाटक के टी नरसीपुर के गुंजनरसिंहस्वामी मन्दिर में कुम्भाभिषेकम् के अवसर पर यज्ञ करते हुए वैखानस ब्राह्मण वैखानस एक प्रमुख प्राचीन भारतीय सम्प्रदाय है। इसके अनुयायी विष्णु एवं उनके अवतारों की पूजा करते हैं। वे प्रायः कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखा तथा वैखानस कल्पसूत्र के अनुयायी ब्राह्मण हैं। इस पंथ की आचार्यपरंपरा विखनस मुनि से आरंभ होती है। 'वैखानस' शब्द 'विखनस' से बना है। 'वैखानस भागवत् शास्त्र' तिरुमल वेंकटेश्वर मंदिर के कर्मकाण्ड का मुख्य आधार है। .

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गुप्तचर

गुप्त रूप से राजनीतिक या अन्य प्रकार की सूचना देनेवाले व्यक्ति को गुप्तचर (spy) या जासूस कहते हैं। गुप्तचर अति प्राचीन काल से ही शासन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता माना जाता रहा है। भारतवर्ष में गुप्तचरों का उल्लेख मनुस्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों के उपयोग और उनकी श्रेणियों का विशद वर्णन किया है। राज्याधिपति को राज्य के अधिकारियों और जनता की गतिविधियों एवं समीपवर्ती शासकों की नीतियों के संबंध में सूचनाएँ देने का महत्वपूर्ण कार्य उनके गुप्तचरों द्वारा संपन्न होता था। रामायण में वर्णित दुर्मुख ऐसा ही एक गुप्तचर था जिसने रामचंद्र को सीता के विषय में (लंका प्रवास के बाद) जनापवाद की जानकरी दी थी। .

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गौतम धर्मसूत्र

गौतम धर्मसूत्र अब तक उपलब्ध धर्मसूत्रों में प्राचीनतम है। यद्यपि सभी धर्मसूत्र ग्रंथ बिना किसी शाखाभेद के संपूर्ण आर्यजन को सामान्य रूप से मान्य हैं, तथापि कुमारिल (तंत्रवार्तिक, काशी, पृ. 179) के अनुसार गौतम धर्मसूत्र और गोभिल गृह्यसूत्र छंदोग (सामवेद) अध्येताओं के द्वारा विशेष रूप से परिगृहीत हैं। गौतम धर्मसूत्र के आंतरिक साक्ष्य से कुमारिल के मत की पुष्टि होती है। इस ग्रंथ का संपूर्ण 26वां अध्याय सामवेद के ब्राह्मण सामविधान से गृहीत है। सामवेदीय गोभिलगृह्यसूत्र में गौतम के प्रमाणों के उद्धरण हैं। परंपरा के अनुसार सामवेद की शाखा राणायनीय का एक सूत्रचरण गौतम था और संभवत: इसी सूत्रचरण में गौतमधर्मसूत्र की रचना हुई। यह कल्पना भी दूरारूढ़ नहीं कि धर्मसूत्र के अतिरिक्त गौतमसूत्रचरण के गृह्य और श्रौतस्त्र थे जो अब उपलब्ध नहीं। सामयाचारिक अथवा स्मार्त धर्म का विवेचन करनेवाले इस धर्मसूत्र में 28 अध्याय हैं, जिनमें वर्ण, आश्रम और निमित्त (प्रायश्चित्त) धर्मों का विस्तृत तथा गुणधर्म (राजधर्म) का अपेक्षतया संक्षिप्त विधान है। धर्मप्रमाण, प्रमाणों का पौर्वापर्य, उपनयन, शौच (अ. 1-2), ब्रह्मचारी, भिक्षु और बैखानस आश्रमों की विधि (अ.-3), गृहस्थाश्रम से संबद्ध संस्कार और कर्तव्य (अ. 4-6), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्य (अ. 9-10), राजधर्म (अ. 11), दंड (अ. 11-13), शौच (अ. 14), स्त्रीधर्म (अ. 18), प्रायश्चित्त (अ. 18-27), दायभाग (अ. 27, 28) एवं पुत्रों के प्रकार (अ. 28) का विवेचन है। इस धर्मसूत्र का उपलब्ध रूप अनेक प्रक्षेपों से युक्त है। उदाहरण के लिये 19वें अध्याय में कर्मविपाक का अंश बाद में जोड़ा गया है। इसपर न तो मस्करी का भाष्य और न हरदत्त की व्याख्या है। बौधायन (2, 2, 4, 17) द्वारा उद्धृत गौतमधर्मसूत्र के वचन तथा प्रस्तुत धर्मसूत्र के आंतरिक साक्ष्य पर अध्याय 6 का छठा सूत्र भी परवर्ती प्रक्षेप प्रतीत होता है। इसमें अन्य धर्मसूत्रों के समान बीच बीच में फुटकर पद्य नहीं हैं। संपूर्ण गौतमधर्मसूत्र गद्य में है, यद्यपि कुछ सूत्र वत्तगंधिशैली में लिखे गए हैं और अनुष्टुप् के अंश प्रतीत होते हैं, अन्य धर्मसूत्रों की अपेक्षा इसकी भाषा पाणिनीय व्याकरण की अधिक अनुयायिनी है, किंतु यह संस्कार भी बाद का प्रतीत होता है। क्योंकि इस धर्मसूत्र में सामविधान ब्राह्मण का एक अंश गृहीत है और वसिष्ठ और बौधायन धर्मसूत्रों में इस धर्मसूत्र के मतों का नामपूर्वक उल्लेख है, अत: इसकी रचना सामविधान ब्राह्मण के बाद और वसिष्ठ और बौधायनधर्मसूत्रों के पूर्व हुई होगी। इस तथ्य तथा बौद्ध धर्म के द्वारा की गई वर्णाश्रम धर्म की आलोचना के अनुल्लेख तथा उसकी प्रत्यालोचन के अभाव के आधार पर इस धर्मसूत्र का रचनाकाल 600-400 ई. पूर्व माना गया है। इसपर हरदत्त की "मिताक्षरा" व्याख्या और मस्करी का "भाष्य" है। .

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आचार्य

प्राचीन काल में शिक्षा का एक तरीका प्राचीन काल में आचार्य एक शिक्षा संबंधी पद था। उपनयन संस्कार के समय बालक का अभिभावक उसको आचार्य के पास ले जाता था। विद्या के क्षेत्र में आचार्य के पास बिना विद्या, श्रेष्ठता और सफलता की प्राप्ति नहीं होती (आचार्याद्धि विद्या विहिता साधिष्ठं प्रापयतीति।-छांदोग्य 4-9-3)। उच्च कोटि के प्रध्यापकों में आचार्य, गुरु एवं उपाध्याय होते थे, जिनमें आचार्य का स्थान सर्वोत्तम था। मनुस्मृति (2-141) के अनुसार उपाध्याय वह होता था जो वेद का कोई भाग अथवा वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष) विद्यार्थी को अपनी जीविका के लिए शुल्क लेकर पढ़ाता था। गुरु अथवा आचार्य विद्यार्थी का संस्कार करके उसको अपने पास रखता था तथा उसके संपूर्ण शिक्षण और योगक्षेम की व्यवस्था करता था (मनु: 2-140)। 'आचार्य' शब्द के अर्थ और योग्यता पर सविस्तार विचार किया गया है। निरुक्त (1-4) के अनुसार उसको आचार्य इसलिए कहते हैं कि वह विद्यार्थी से आचारशास्त्रों के अर्थ तथा बुद्धि का आचयन (ग्रहण) कराता है। आपस्तंब धर्मसूत्र (1.1.1.4) के अनुसार उसको आचार्य इसलिए कहा जाता है कि विद्यार्थी उससे धर्म का आचयन करता है। आचार्य का चुनाव बड़े महत्व का होता था। 'वह अंधकार से घोर अंधकार में प्रवेश करता है जिसका अपनयन अविद्वान्‌ करता है। इसलिए कुलीन, विद्यासंपन्न तथा सम्यक्‌ प्रकार से संतुलित बुद्धिवाले व्यक्ति को आचार्य पद के लिए चुनना चाहिए।' (आप.ध.सू. 1.1.1.11-13)। यम (वीरमित्रोदय, भाग 1, पृ. 408) ने आचार्य की योग्यता निम्नलिखित प्रकार से बतलाई है: 'सत्यवाक्‌, धृतिमान्‌, दक्ष, सर्वभूतदयापर, आस्तिक, वेदनिरत तथा शुचियुक्त, वेदाध्ययनसंपन्न, वृत्तिमान्‌, विजितेंद्रिय, दक्ष, उत्साही, यथावृत्त, जीवमात्र से स्नेह रखनेवाला आदि' आचार्य कहलाता है। आचार्य आदर तथा श्रद्धा का पात्र था। श्वेताश्वतरोपनिषद् (6-23) में कहा गया है: जिसकी ईश्वर में परम भक्ति है, जैसे ईश्वर में वैसे ही गुरु में, क्योंकि इनकी कृपा से ही अर्थों का प्रकाश होता है। शरीरिक जन्म देनेवाले पिता से बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जन्म देनेवाले आचार्य का स्थान बहुत ऊँचा है (मनुस्मृति 2. 146)। प्राचीन काल में आचार्य एक शिक्षा संबंधी पद था। उपनयन संस्कार के समय बालक का अभिभावक उसको आचार्य के पास ले जाता था। विद्या के क्षेत्र में आचार्य के पास बिना विद्या, श्रेष्ठता और सफलता की प्राप्ति नहीं होती (आचार्याद्धि विद्या विहिता साधिष्ठं प्रापयतीति।-छांदोग्य 4-9-3)। उच्च कोटि के प्रध्यापकों में आचार्य, गुरु एवं उपाध्याय होते थे, जिनमें आचार्य का स्थान सर्वोत्तम था। मनुस्मृति (2-141) के अनुसार उपाध्याय वह होता था जो वेद का कोई भाग अथवा वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष) विद्यार्थी को अपनी जीविका के लिए शुल्क लेकर पढ़ाता था। गुरु अथवा आचार्य विद्यार्थी का संस्कार करके उसको अपने पास रखता था तथा उसके संपूर्ण शिक्षण और योगक्षेम की व्यवस्था करता था (मनु: 2-140)। 'आचार्य' शब्द के अर्थ और योग्यता पर सविस्तार विचार किया गया है। निरुक्त (1-4) के अनुसार उसको आचार्य इसलिए कहते हैं कि वह विद्यार्थी से आचारशास्त्रों के अर्थ तथा बुद्धि का आचयन (ग्रहण) कराता है। आपस्तंब धर्मसूत्र (1.1.1.4) के अनुसार उसको आचार्य इसलिए कहा जाता है कि विद्यार्थी उससे धर्म का आचयन करता है। आचार्य का चुनाव बड़े महत्व का होता था। 'वह अंधकार से घोर अंधकार में प्रवेश करता है जिसका अपनयन अविद्वान्‌ करता है। इसलिए कुलीन, विद्यासंपन्न तथा सम्यक्‌ प्रकार से संतुलित बुद्धिवाले व्यक्ति को आचार्य पद के लिए चुनना चाहिए।' (आप.ध.सू. 1.1.1.11-13)। यम (वीरमित्रोदय, भाग 1, पृ. 408) ने आचार्य की योग्यता निम्नलिखित प्रकार से बतलाई है: 'सत्यवाक्‌, धृतिमान्‌, दक्ष, सर्वभूतदयापर, आस्तिक, वेदनिरत तथा शुचियुक्त, वेदाध्ययनसंपन्न, वृत्तिमान्‌, विजितेंद्रिय, दक्ष, उत्साही, यथावृत्त, जीवमात्र से स्नेह रखनेवाला आदि' आचार्य कहलाता है। आचार्य आदर तथा श्रद्धा का पात्र था। श्वेताश्वतरोपनिषद् (6-23) में कहा गया है: जिसकी ईश्वर में परम भक्ति है, जैसे ईश्वर में वैसे ही गुरु में, क्योंकि इनकी कृपा से ही अर्थों का प्रकाश होता है। शरीरिक जन्म देनेवाले पिता से बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जन्म देनेवाले आचार्य का स्थान बहुत ऊँचा है (मनुस्मृति 2. 146)। .

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आर्यावर्त

आर्यावर्त प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'उत्तरी भारत' को आर्यावर्त (शाब्दिक अर्थ: आर्यों का निवासस्थान) कहा गया है। .

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कलवार

उत्तर-पश्चिमी भारत (18 9 6) के जनजातियों और जातियों में विलियम क्रूक बताते हैं कि कलवार बियांया (व्यापारी) या वैसी वर्ग से संबंधित अन्य समान जातियां हैं, जो व्यापारियों और व्यापारियों के तीसरे सबसे ऊंचे वर्ग हिंदू समाज के परंपरागत चार गुना विभाजन इसके अलावा, बनीया और कलावार के बीच एक मामूली भौतिक समानता का पता लगाया जा सकता है। तथ्य यह है कि कलवार में से कुछ जैन धर्म के अनुयायी हैं - एक धर्म है, जो मुख्यतः बानिया का पालन करता है, इस सिद्धांत को जोड़ता है। कलार समुदाय को विभिन्न नामों के तहत पूरे भारत में वितरित किया जाता है: उत्तर प्रदेश में कलार / जायसवाल, बिहार में कलौवार और उड़ीसा और महाराष्ट्र में जैन काल या ददसेना। भाषाई तीन उप विभाजन, अर्थात्, तेलगु, मराठी और हिंदी महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। छत्तीसगढ़ी कलावार या कालार, सेहोर और कालल नामक कलावार पारंपरिक रूप से शराब के व्यापारियों और शराब के व्यापारी हैं। वे उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल, साथ ही साथ मध्य प्रदेश के सभी राज्यों में फैले हुए हैं। एम.के.गंधी ने कलार समुदाय से अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ने का अनुरोध किया। अधिकांश कलर्स ने अपनी याचिका का पालन किया और शराब व्यापार छोड़ दिया। यद्यपि इस समुदाय को उनके पैतृक व्यवसाय के लिए जाना जाता है, लेकिन उनके पास गैर-पीने वालों की प्रतिष्ठा है समुदाय का नाम संस्कृत शब्द कल्यापाला से लिया गया है, जिसका मतलब है शराब के डिस्टिलर; प्राचीन काल से जब तक ब्रिटिश काल तक कलावार मुख्य रूप से छोटे पॉट-स्टिल में किण्वित शराब बनाने में लगे थे। सर डेनज़ेल इबेट्सन ने उन्हें "एंटरप्राइज़, ऊर्जा और आचरण के लिए कुख्यात" के रूप में वर्णित किया। ब्रिटिश शासन के दौरान विशिष्ट सर्कल या क्षेत्रों में निर्माण और बेचने का अधिकार सालाना जिला मुख्यालयों में नीलामी और कलवार ने इकट्ठा किया था। यह यहां था कि उनकी दृढ़ता के उदाहरणों को अक्सर देखा जा सकता है; एक कलावार शराब बनानेवाला एक लाइसेंस को मुनाफे से अधिक तक बोली लगाएगा, जिसे वह इसके बारे में महसूस करने की उम्मीद कर सकता है, बल्कि वह खुद को वहीं से वंचित रखने की अनुमति देता है जो वह बनाए रखने की इच्छा रखता था। कलाल अर्थात्‌ शराब बनाने एवं बेचनेवाले। इनको कल्यपाल और कलवार भी कहा जाता है। इस प्रकार का व्यापार करनेवालों की प्राचीन काल में कोई विशेष जाति नहीं थी। वह समाज कर्मसिद्धांत पर आधारित था। किंतु कालांतर में जन्मना सिद्धांत के जोर पकड़ने के कारण एवं श्रमणों का भी भारतीय समाज पर प्रभाव होने के कारण क्रमश इनका भी एक वर्ग बना । परिणामस्वरूप इस बिरादरी के कई विचारकों ने इससे त्राण पाने के हेतु प्रयास किया। क्षत्रिय होना सम्मानित समझा जाता था। फलत: कलवारों के इतिहास की खोज की जाने लगी और बिरादरी सभा उसके 'हैहय क्षत्रिय' होने के निष्कर्ष पर पहुँची। अत: उस सभा ने कलालों को क्षत्रिय घोषित किया। कलालों को प्राचीन काल में 'शौंडिक' कहते थे। शैंडिक शुंडिक से बना है। शुंडिक मद्य चुआने के शुंडाकृतिक भबके को कहते हैं और भबके (घड़े) से मद्य चुआनवाले व्यक्ति को शौंडिक। शौंडिक के रूप में इनका उल्लेख रामायण, महाभारत, स्मृतियों, धर्मशास्त्रों और पुराणों आदि में हुआ है। 'शूँडी', कलालों की एक उपजाति का नाम भी है। पाणिनि ने शौंडिक नामक आय का उल्लेख किया है। मद्य विभाग से प्राप्त आय का यह नाम था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि इस प्रकार का व्यापार करनेवाले व्यक्तियों को लाइसेंस दिया जाता था और उनसे दैवसिकमत्ययम्‌ (लाइसेंस फ़ीस) लिया जाता था। मोनियर विलियम्स ने अपनी 'ए संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' में शौंडिकों को संकर वर्ण कहा है। उन्होंने लिखा है कुछ लोगों के मतानुसार वे कैवर्त पिता और गांधिक माता की संतान थे; दूसरों के अनुसार वे निष्ठय पिता और शुद्रा माँ की संतान थे। मनुस्मृति उनका उल्लेख जातियों (संकर) में करती है, किंतु महामहोपाध्याय डॉ॰ गंगानाथ झा ने मनुस्मृति पर टिप्पणी लिखते हुए शौंडिकों को 'द्विज' कहा है। व्यावसायिक लाभ के लिए अनेक जाति के लोगों ने इस पेशे को स्वीकार किया होगा, क्योंकि कलालों में चालीस उपजातियाँ हैं; संभवत: इन्हीं-किन्हीं कारणों से पुरानी परिभाषा में इसको संकर कहा गया। सत्य क्या है, यह तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि यह तो एक व्यवसाय का जिसकों लाभ की दृष्टि से संपूर्ण देश में किया जाता था। किंतु डॉ॰ मोनियर विलियम्स का यह कहना कि वे निष्ठय पिता और शूद्रा माँ की संतान थे, ठीक नहीं लगता। वैश्य भी 'द्विज' कहे गए हैं। पर, चूँकि वे शराब बनाने और बेचने का व्यवसाय करते थे, कालांतर में, श्रेमणविचारधारा से अनुप्राणित होने के कारण समाज की दृष्टि में वे हेय और अस्पृश्य समझे जाने लगे। शिक्षा दीक्षा से उनका संबंध टूट चला था। परिणामस्वरूप आज भी, कई राज्यों में उनको 'पिछड़े वर्ग' में गिना जाता है। .

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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किला

राजस्थान के '''कुम्भलगढ़ का किला''' - यह एशिया के सबसे बड़े किलों में से एक है। शत्रु से सुरक्षा के लिए बनाए जानेवाले वास्तु का नाम किला या दुर्ग है। इन्हें 'गढ़' और 'कोट' भी कहते हैं। दुर्ग, पत्थर आदि की चौड़ी दीवालों से घिरा हुआ वह स्थान है जिसके भीतर राजा, सरदार और सेना के सिपाही आदि रहते है। नगरों, सैनिक छावनियों और राजप्रासादों सुरक्षा के लिये किलों के निर्माण की परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। आधुनिक युग में युद्ध के साधनों और रण-कौशल में वृद्धि तथा परिवर्तन हो जाने के कारण किलों का महत्व समाप्त हो गया है और इनकी कोई आवशकता नहीं रही। .

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कुल्लूक भट्ट

कुल्लूक भट्ट (1150-1300 ई.) मनुस्मृति के सुविख्यात टीकाकार। इनका जन्म बंगाल के नंदन ग्राम में एक वारेंद्र ब्राह्मण के घर हुआ था। उनके पिता का नाम दिवाकर भट्ट था। मनुस्मृति पर इन्होंने जो टीका की है उसका नाम मन्वर्थ मुक्तावली है। मनुस्मृति उन्होंने संक्षेप में किंतु अत्यंत सुबोध भाषा में संदर्भ सहित स्मृति की व्याख्या की है। इसमें उन्होंने अपने किसी वैयक्तिक मत का प्रतिपादन नहीं किया है वरन्‌ मेधातिथि और गोविंदराज के मत के द्वारा ही विवेचना की है। इस टीका के अतिरिक्त स्मृतिसागर, श्राद्धसागर, विवादसागर और अशौचसागर, उनके अन्य ग्रंथ हैं। .

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अम्बष्ठ

संस्कृत और पालि साहित्य में अंबष्ठ जाति तथा अम्बष्ठ देश का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। इनके अतिरिक्त सिकन्दर के इतिहास से संबंधित कतिपय ग्रीक और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी अंबष्ठ जाति का वर्णन हुआ है। दिओदोरस, कुर्तियस, जुस्तिन तथा तालेमी ने विभिन्न उच्चारणों के साथ इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रारंभ में अंबष्ठ जाति युद्धोपजीवी थी। सिकन्दर के समय (३२७ ई. पू.) उसका एक गणतंत्र था और वह चिनाब के दक्षिणी तट पर निवास करती थी। आगे चलकर अंबष्ठों ने संभवत चिकित्साशास्त्र को अपना लिया, जिसका परिज्ञान हमें मनुस्मृति से होता है। .

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अंगुल

अंगुल वैदिक काल की हिन्दू लम्बाई मापन की इकाई है। एक अंगुल की लम्बाई एक मानव हस्त की अंगुली की मोटाई के बराबर होती है। (वायु पुराण के अनुसार एक अंगुल, अंगुली की एक गांठ के बराबर है और अन्य प्राधिकारियों के अनुसार सिरे पर अंगुष्ठ की मोटाई के बरबर है।) वायु ने मनु के अधिकार के अन्तर्गत उपर्युक्त समान गणना दी है, जो कि मनु संहिता में नहीं उल्लेखित है।.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

मनु संहिता, मनुस्मृतिः, मानव धर्मशास्त्र

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