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भाष्य

सूची भाष्य

संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ - व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। मुख्य रूप से सूत्र ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं। भाष्य, मोक्ष की प्राप्ति हेतु अविद्या (ignorance) का नाश करने के साधन के रूप में जाने जाते हैं। पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य और ब्रह्मसूत्रों पर शांकरभाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य हैं। .

76 संबंधों: टीका, तन्त्र, तैत्तिरीय संहिता, दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी, देवराज यज्वा, न्यायशास्त्र (भारतीय), पतञ्जलि योगसूत्र, पदमंजरी, पदार्थधर्मसंग्रह, पुरुषोत्तमदेव (वैयाकरण), प्रभाकर, ब्रह्मदेव, ब्रह्मसूत्र, भामती, भारतीय संगीत का इतिहास, भारुचि, मध्वाचार्य, मन्मथनाथ दत्त, मल्लिनाथ, महाभाष्य, महीधर, मेधातिथि, मीमांसासूत्र, याज्ञवल्क्य, योगवार्तिक, रुद्र, शब्दकोशों का इतिहास, शंकरनारायण, श्रौतसूत्र, सत्यव्रत सिद्धांतालंकार, सद्रत्नमाला, सर्वानुक्रमणी, सायण, सांख्यसूत्र, संस्कृत शब्दकोश, संस्कृत साहित्य, संस्कृत व्याकरण का इतिहास, संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश, स्मार्त सूत्र, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामी रामानन्दाचार्य, सूत्र, सोपारा, हलायुध, हलायुध (भाष्यकार), हिन्दू दर्शन, ज्ञानेश्वरी, वररुचि कात्यायन, वाचस्पति मिश्र, वात्स्यायन, ..., विज्ञानभिक्षु, व्याख्याप्रज्ञप्ति, व्याकरण (वेदांग), वृत्ति (बहुविकल्पी), वेद, वेदान्त दर्शन, वेंकटमाधव, गौड़पाद, गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, गोविन्दस्वामी (गणितज्ञ), आदि शंकराचार्य, आदि शंकराचार्य की कृतियाँ, आपस्तम्ब, आर्यभटीय, कात्यायन (वररुचि), कामसूत्र, कवींद्राचार्य सरस्वती, कृष्ण यजुर्वेद, अट्टकथा, अध्यास, अष्टाध्यायी, उदयदिवाकर, उद्योतकर, उवट, ऋग्वेद, छन्दशास्त्र सूचकांक विस्तार (26 अधिक) »

टीका

टीका का हिन्दी में दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है- १) भाष्य (commentary) २) टीकाकरण (vaccination) श्रेणी:बहुविकल्पी शब्द.

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तन्त्र

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित तंत्र या प्रणाली या सिस्टम के बारे में तंत्र (सिस्टम) देखें। ---- तन्त्र कलाएं (ऊपर से, दक्षिणावर्त): हिन्दू तांत्रिक देवता, बौद्ध तान्त्रिक देवता, जैन तान्त्रिक चित्र, कुण्डलिनी चक्र, एक यंत्र एवं ११वीं शताब्दी का सैछो (तेन्दाई तंत्र परम्परा का संस्थापक तन्त्र, परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। तन्त्र-परम्परा एक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा तो है ही, जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा तथा जापान की शिन्तो परम्परा में पायी जाती है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहते हैं। हिन्दू परम्परा में तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सम्प्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं। बौद्ध धर्म का वज्रयान सम्प्रदाय अपने तन्त्र-सम्बन्धी विचारों, कर्मकाण्डों और साहित्य के लिये प्रसिद्ध है। तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र”। जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है। तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है जिसका विकास प्रथम सहस्राब्दी के मध्य के आसपास हुआ। साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्राचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं। यूरोपीय विद्वानों ने अपने उपनिवीशवादी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए तन्त्र को 'गूढ़ साधना' (esoteric practice) या 'साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड' बताकर भटकाने की कोशिश की है। वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कहे गये हैं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है। इसका प्रमाण हिन्दू, बौद्ध, जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं। .

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तैत्तिरीय संहिता

तैत्तिरीय संहिता में ७ काण्ड, ४४ प्रपाठक, तथा ६३१ अनुवाक हैं जिसका वर्ण्यविषय यज्ञीय कर्मकाण्ड (पौरोडास, याजमान, वाजपेय, राजसूय इत्यादि नाना यागानुष्ठान) का विशद वर्णन है। वेदों के एकमात्र सर्वातिशायी भाष्यकार सायण तैत्तिरीय शाखा के ही अनुयायी थे और उन्होने सर्वप्रथम तैत्तिरीय संहिता पर ही अपना वैदुष्यपूर्ण भाष्य लिखा। .

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दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी

डी डी कौशाम्बी (31 जुलाई, 1907 - 29 जून, 1966) भारत के गणितज्ञ, इतिहासविद तथा राजनीतिक विचारक थे। देश के स्वाधीनता संग्राम के निर्णायक काल बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में ज्ञान-विज्ञान और मानव के प्रयासों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जिसमें विलक्षण विभूतियों का आविर्भाव न हुआ हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डी.डी.

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देवराज यज्वा

देवराज यज्वा निघंटु के व्याख्याकार। इनके भाष्य का वास्तविक नाम 'निघंटुनिर्वचन' है जो तत्कालीन निघंटु ग्रंथ के स्वरूप को परिचित कराने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। प्राचीन उपलब्ध निघंटु के निर्वचनकार होने के नाते देवराज यज्वा का नाम उल्लेखनीय है। .

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न्यायशास्त्र (भारतीय)

कृपया भ्रमित न हों, यह लेख न्यायशास्त्र (jurisprudence) के बारे में नहीं है। ---- वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है। भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है: आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है- न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।; विशेष "न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र) .

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पतञ्जलि योगसूत्र

योगसूत्र, योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। यह छः दर्शनों में से एक शास्त्र है और योगशास्त्र का एक ग्रंथ है। योगसूत्रों की रचना ४०० ई॰ के पहले पतंजलि ने की। इसके लिए पहले से इस विषय में विद्यमान सामग्री का भी इसमें उपयोग किया। योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है। योगसूत्र मध्यकाल में सर्वाधिक अनूदित किया गया प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है, जिसका लगभग ४० भारतीय भाषाओं तथा दो विदेशी भाषाओं (प्राचीन जावा भाषा एवं अरबी में अनुवाद हुआ। यह ग्रंथ १२वीं से १९वीं शताब्दी तक मुख्यधारा से लुप्तप्राय हो गया था किन्तु १९वीं-२०वीं-२१वीं शताब्दी में पुनः प्रचलन में आ गया है। .

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पदमंजरी

पदमंजरी काशिकावृत्ति का भाष्य है। इसके रचयिता हरदत्त हैं जिन्होंने आपदस्तम्ब के धर्मसूत्र का भी भाष्य लिखा है। यह ग्यारहवीं शताब्दी की रचना है। इसका प्रकाशन बनारस से हुआ था। .

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पदार्थधर्मसंग्रह

पदार्थधर्मसंग्रह, प्रशस्तपाद द्वारा रचित वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसे 'प्रशस्तपादभाष्य' भी कहते हैं। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है। वस्तुतः यह भौतिकी का विशद ग्रन्थ है जिसमें सामान्य भौतिकी से लेकर क्वाण्टम भौतिकी तक समाहित है। .

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पुरुषोत्तमदेव (वैयाकरण)

पुरुषोत्तमदेव बहुत बड़े वैयाकरण थे। इनको 'देव' नाम से भी पुकारा गया है। ये बंगाल के निवासी और बौद्ध धर्मावलंबी थे। बौद्धों और वैदिकों की अनबन पुरानी है। इन वातावरण के प्रभाव में पुरुषोत्तमदेव ने अष्टाध्यायी के सूत्रों में से वैदिक सूत्रों को अलग करके शेष सूत्रों पर भाष्य लिखा। इस भाष्य का नाम 'भाषावृत्ति' है। इस ग्रंथ का बहुत बड़ा महत्व है। देव के समय में उपलब्ध होने वाले प्रामाणिक ग्रंथों का उल्लेख भाषावृत्ति में पाया जाता है। वे ग्रंथ अब लुप्त हो गए हैं। भाषावृत्ति का प्रमाण उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने स्वीकार किया है। बंगाल के निवासी सृष्टिधर थे। उन्होंने भाषावृत्ति की (भाषावृत्यर्थवृत्ति) टीका की है। इसमें २३ वैयाकरण उद्धृत हैं। भाषावृत्ति के निर्माण का कारण भी लिखा है। तदनुसार राजा लक्ष्मण सेन जी की प्रेरणा से बंगाल के निवासी श्री पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति का निर्माण किया था। अतएव राजा लक्ष्मण सेन का बौद्ध होना और पुरुषोत्तमदेव का उनके आश्रित होना प्रतीत होता है। पुरुषोत्तमदेव ने जैनधर्म को भी सादर स्मरण किया है। राजा लक्ष्मण सेन सं.

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प्रभाकर

प्रभाकर (७वीं शताब्दी) भारत के दार्शनिक एवं वैयाकरण थे। वे मीमांसा से सम्बन्धित हैं। कुमारिल भट्ट से उनका शास्त्रार्थ हुआ था। शालिकनाथ ने ८वीं शताब्दी में प्रभाकर के ग्रन्थों का भाष्य लिखा। .

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ब्रह्मदेव

ब्रह्मदेव प्राचीन भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इनका जीवनकाल लगभग १०६० ई से ११३० ई के बीच है। इन्होने आर्यभट प्रथम की कृतियों का भाष्य लिखा है। ब्रह्मदेव ने आर्यभटीय का भाष्य लिखा है जिसका नाम 'करणप्रकाश' है। इस ग्रन्थ में त्रिकोणमिति और इसके ज्योतिष में उपयोग की चर्चा है। इस ग्रन्थ के आधार पर बने पंचांगों की तिथि आदि का उपयोग माध्वसम्प्रदाय के वैष्णवों में बहुतायत से प्रचलित है। श्रेणी:भारतीय गणितज्ञ.

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ब्रह्मसूत्र

ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक भाष्य भी लिखे गये हैं। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। (न्याय .

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भामती

भामती अद्वैत वेदान्त दर्शन का एक उपसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय का नाम वाचस्पति मिश्र के 'भामती' नामक ग्रन्थ पर पड़ा है जो आदि शंकराचार्य कृत ब्रह्मसूत्र के भाष्य की टीका है। श्रेणी:भारतीय दर्शन.

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भारुचि

भरुचि का मनुस्मृति पर लिखा भाष्य सबसे प्राचीन भाष्य है। इस भाष्य का नाम मनुशास्त्र विवरण है। इसमें मुख्यतया राजा के कर्तव्यों के बारे में विशद वर्णन है। श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:ऋषि मुनि.

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मध्वाचार्य

मध्वाचार्य, माधवाचार्य विद्यारण्य से भिन्न हैं। ---- मध्वाचार्य मध्वाचार्य (तुलु: ಶ್ರೀ ಮಧ್ವಾಚಾರ್ಯರು) (1238-1317) भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है (हनुमान और भीम क्रमशः प्रथम व द्वितीय अवतार थे)। मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे, वे कई बार प्रचलित रीतियों के विरुद्ध चले गये हैं। उन्होने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदांत के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ 'अनुव्याख्यान' भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है। ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिये प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर हैं। .

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मन्मथनाथ दत्त

मन्मथनाथ दत्त संस्कृत एवं पालि के विद्वान, बांग्ला लेखक, इतिहासविद तथा प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुवादक थे। 'शास्त्री' की उपाधि मिलने के पश्चात वे 'मन्मथनाथ शास्त्री' नाम से जाने जाते हैं। आज उनके जीवन के बारे में बहुत कम ज्ञात है। मन्मथनाथ दत्त ने एम ए तथा एम आर ए एस की शिक्षा पायी थी। कई वर्षों तक कोलकाता के केशव अकादमी के रेक्टर रहे। १८९५ से १९०५ के बीच वे श्रीरामपुर कॉलेज के रेक्टर रहे। वे भारत के महानतम अनुवादक कहे जा सकते हैं। उन्होने महाभारत का तीन खण्डों में अनुवाद किया और रामायण का पाँच खण्डों में। इसके अलावा उन्होने सायण के ऋग्वेद के भाष्य का अनुवाद किया। मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, गरुड पुराण, भागवतम्, महानिर्वाणतन्त्र, मनु स्मृति, हरिवंशम्, पराशर संहिता, गौतमसंहिता, कामन्दकीय नीतिसार का भी अनुवाद किया। वे 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' नामक एक मासिक पत्रिका भी निकालते थे। .

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मल्लिनाथ

मल्लिनाथ, संस्कृत के सुप्रसिद्ध टीकाकार। इनका पूरा नाम कोलाचल मल्लिनाथ था। पेड्ड भट्ट भी इन्हीं का नाम था। ये संभावत: दक्षिण भारत के निवासी थे। इनका समय प्राय: 14वीं या 15वीं शती माना जाता है। ये काव्य, अलंकार, व्याकरण, स्मृति, दर्शन, ज्योतिष आदि के विद्वान् थे। व्याकरण, व्युत्पत्ति एवं अर्थ-विवेचन आदि की दृष्टि से इनकी टीकाएँ विशेष प्रशंसनीय हैं। टीकाकार के रूप में इनका सिद्धांत था कि "मैं ऐसी कोई बात न लिखूँगा जो निराधार हो अथवा अनावश्यक हो।" इन्होंने पंचमहाकाव्यों (अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंश, शिशुपालवध, किरातार्जुनीय, नैषधीयचरित) तथा मेघदूत, कुमारसंभव, अमरकोष आदि ग्रंथों की टीकाएँ लिखीं जिनमें उक्त सिद्धांत का भलीभाँति पालन किया गया है। श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार श्रेणी:संस्कृत टीकाकार.

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महाभाष्य

पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखी जिसे व्याकरणमहाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग १५०० हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते बल्कि केवल व्याकरणमहाभाष्य में पतंजलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही उपलब्ध हैं। संस्कृत के तीन महान वैयाकरणों में पतंजलि भी हैं। अन्य दो हैं - पाणिनि तथा कात्यायन (१५० ईशा पूर्व)। महाभाष्य में शिक्षा (phonology, including accent), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) - तीनों की चर्चा हुई है। .

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महीधर

महीधर १६वीं शताब्दी के वेद-भाष्यकार थे। .

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मेधातिथि

मेधातिथि मनुस्मृति के प्राचीनतम भाष्यकार हैं। उन्होने मनुस्मृति पर 'मनुभाष्य' नामक एक विशद टीका लिखी है। अपने ग्रंथ में ये कुमारिल का उल्लेख करते हैं अत: इनका जीवनकाल सातवीं शताब्दी क बाद का होना चाहिए। मनुस्मृति पर लिखी मिताक्षरा (१०७६ से ११२१) में इनका उल्लेख है। अत: डॉ० गंगानाथ झा के अनुसार इनका काल नवीं शताब्दी ठहरता है। डॉ० बुहलर इनको कश्मीर का तथा जॉली दक्षिण का मानते हैं। केवल इतना ही इनके ग्रंथ के आधार पर स्वीकार किया जा सकता है कि ये कश्मीर की बोली तथा कश्मीर और पंजाब के रीति रिवाजों से पूर्णत: परिचित थे। इनका एक अन्य ग्रंथ 'स्मृति विवेक' भी था। .

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मीमांसासूत्र

मीमांसासूत्र, भारतीय दर्शन के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक है। इसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। इसे पूर्वमीमांसासूत्र भी कहते हैं। इसका रचनाकाल ३०० ईसापूर्व से २०० ईसापूर्व माना जाता है। मीमांसासूत्र, मीमांसा दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है। प्रम्परानुसार ऋषि जैमिनि को महर्षि वेद व्यास का शिष्य माना जाता है। मीमांसासूत्र काे 'पूर्वमीमांसा' तथा वेदान्त काे 'उत्तरमीमांसा' भी कहा जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है अाैर उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। अतः पूर्वमीमांसा काे धर्ममीमांसा अाैर उत्तर मीमांसा काे ब्रह्ममीमांसा भी कहा जाता है। जैमिनि मुनि द्वारा रचित सूत्र हाेने से मीमांसा काे 'जैमिनीय धर्ममीमांसा' कहा जाता है। पूर्वमीमांसा में वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गयी है। मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं । बारह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह मीमांसा 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाती है। इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया है कि यह उत्तरमीमांसा से पहले बना। 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । 'मीमांसा' शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) 'जिज्ञासा' है। जिज्ञासा, अर्थात् जानने की लालसा। मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते हैं- अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है। इस ग्रन्थ में ज्ञान-उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा की गई है, वे है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है। इसके दूसरे सूत्र में कहा गया है- मीमांसा का तत्वसिद्धान्त विलक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है। यह केवल वेद वा उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार मन्त्र ही सब कुछ हैं। वे ही देवता हैं; देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं। 'भट्टदीपिका' में स्पष्ट कहा है 'शब्द मात्रं देवता' । मीमांसकों का तर्क यह है कि सब कर्मफल के उद्देश्य से होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती हैं अतः वे कहते हैं कि कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है। मीमांसकों और नैयायिकों में बड़ा भारी भेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं । भेद इतना ही है कि सांख्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानता है और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पान्त में भी नष्ट न होनेवाला कहते हैं। .

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याज्ञवल्क्य

भगवती सरस्वती याज्ञवल्क्य के सम्मुख प्रकट हुईं याज्ञवल्क्य (ईसापूर्व ७वीं शताब्दी), भारत के वैदिक काल के एक ऋषि तथा दार्शनिक थे। वे वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। इनको अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना जाता है। याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है - बृहदारण्यक उपनिषद जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग है। इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। इन ग्रंथों में इनको राजा जनक के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के लिए जाना जाता है। शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में भी इनसे पहले किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जा सकता। इनको नेति नेति (यह नहीं, यह भी नहीं) के व्यवहार का प्रवर्तक भी कहा जाता है। .

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योगवार्तिक

योगवार्तिक, विज्ञानभिक्षु द्वारा रचित योग का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। पतंजलि के योगसूत्र ग्रन्थ पर सबसे प्रमाणिक भाष्य व्यास भाष्य है और योगवार्तिक, व्यासभाष्य की सुस्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत करता है। पतंजलि के योगसूत्र को अवगम्य करने के लिये व्यास-भाष्य प्रमाणिक व्याख्या है तो व्यास भाष्य को समझने के लिये विज्ञानभिक्षु की व्याख्या निश्चित रूप से अत्यन्त उपोयगी है। योगशास्त्र पर विभिन्न मत-मतान्तरों पर भी इस ग्रन्थ में वर्णन-आलोचन-अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। रामशंकर भट्टाचार्य के मतानुसार, समकालीन मतों के साथ समन्वय का प्रयास भी किया गया है।(पातंजल योगदर्शनम्, पृ.74) योगवार्तिक में योगविवेचन में गहरी अन्तर्दृष्टि दिखायी देती है। साथ ही स्मृति-पुराण आदि सन्दर्भों के द्वारा विज्ञानभिक्षु ने सांख्य-योग शास्त्र का सुष्ठुतया परिपोषण किया है। आपने अपने वार्तिकग्रन्थ में मौलिकता को भी प्रदर्शित किया है तथा योगभाष्य पर उपलब्ध अन्य ग्रन्थों से अपने विचार न मिलने को या उन ग्रन्थों में न्यूनताओं का भी उल्लेख प्रदर्शित किया है। जैसे योगसूत्र के प्रथमपाद के 19 वें तथा 21 वें सूत्र की व्याख्या में वे वाचस्पति मिश्र के मत का भी खण्डन करते है। व्याख्या के प्रसंग में भी विज्ञानभिक्षु के द्वारा सम्बन्धित अनेक सम्प्रदायों, दार्शिनिकों के वचनों तथा मतों का उल्लेख कर अपने ग्रन्थ को अधिक समृद्ध तथा उपयोगी बनाया गया है। जैसे – नास्तिक – 2/15, वेदान्तमत - 4/19, न्यायवैशेषिक दर्शनम् - 4/21, 3/13, 2/20, 2/5 योगशास्त्रविशेष - 3/30, योगशास्त्रानन्तरम् - 3/26, 3/28। इसके साथ ही योगवार्तिककार ने अपने ग्रन्थ में योगभाष्य के अनेक पाठभेद का भी निदर्शन किया है। पाठभेद से अभिप्राय है कि पातजंलि-योगसूत्र में तथा उसपर उपलब्ध व्यासभाष्य व्याख्या में एक ही सूत्र की व्याख्य़ा में किसी के द्वारा किसी शब्द तथा अन्य के द्वारा अन्य शब्द का प्रयोग किया जाना। वस्तुतः इससे व्याख्या में ही महत्वपूर्ण अन्तर पड़ता है। अतः प्रमाणिक अर्थ निरूपण के लिये पाठभेद जानना आवश्यक होता है। उपरोक्त पाठभेद विज्ञानभिक्षु के मतानुसार कुछ तो यथार्थ हैं तथा कुछ वास्तव में लेखक के प्रमाद के कारण (लेखनत्रुटि) स्वरूप उत्पन्न हुये है। .

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रुद्र

रुद्र देवता वैदिक वाङ्मय में एक शक्तिशाली देवता माने गये हैं। ये ऋग्वेद में वर्णन की मात्रात्मक दृष्टि से गौण देवता के रूप में ही वर्णित हैं। ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति 'बलवानों में सबसे अधिक बलवान' कहकर की गयी है। यजुर्वेद का रुद्राध्याय रुद्र देवता को समर्पित है। इसके अन्तर्गत आया हुआ मंत्र शैव सम्प्रदाय में भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रुद्र को ही कल्याणकारी होने से शिव कहा गया है। वैदिक वाङ्मय में मुख्यतः एक ही रुद्र की बात कही गयी हैं; परन्तु पुराणों में एकादश रुद्र की मान्यता अत्यधिक प्रधान हो गयी है। .

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शब्दकोशों का इतिहास

शब्दकोशों के आरंभिक अस्तित्व की चर्चा में अनेक देशों और जातियों के नाम जुडे़ हुए हैं। भारत में पुरातनतम उपलब्ध शब्दकोश वैदिक 'निघण्टु' है। उसका रचनाकाल कम से कम ७०० या ८०० ई० पू० है। उसके पूर्व भी 'निघंटु' की परंपरा थी। अत: कम से कम ई० पू० १००० से ही निघंटु कोशों का संपादन होने लगा था। कहा जाता है कि चीन में ईसवी सन् के हजारों वर्ष पहले से ही कोश बनने लगे थे। पर इस श्रुतिपरंपरा का प्रमाण बहुत बाद— आगे चलकर उस प्रथम चीनी कोश में मिलता है, जिसका रचना 'शुओ वेन' (एस-एच-यू-ओ-डब्ल्यू-ई-एन) ने पहली दूसरी शदी ई० के आसपास की थी (१२१ ई० भी इसका निर्माण काल कहा गया है)। चीन के 'हान' राजाओं के राज्य- काल में भाषाशास्त्री 'शुओ बेन' के कोश को उपलब्ध कहा गया है। यूरेशिया भूखंड में एक प्राचीनतम 'अक्कादी-सुमेरी' शब्दकोश का नाम लिया जाता है जिसके प्रथम रूप का निर्माण— अनुमान और कल्पना के अनुसार—ई० पू० ७वीं शती में बताया जाता है। कहा जाता है कि हेलेनिस्टिक युग के यूनानियों नें भी योरप में सर्वप्रथम कोशरचना उसी प्रकार आरंभ की थी जिस प्रकार साहित्य, दर्शन, व्याकरण, राजनीति आदि के वाङ्मय की। यूनानियों का महत्व समाप्त होने के बाद और रोमन साम्राज्य के वैभवकाल में तथा मध्यकाल में भी बहुत से 'लातिन' कोश बने। 'लतिन' का उत्कर्ष और विस्तार होने पर लतिन तथा लातिन + अन्यभाषा-कोश, शनै: शनै: बनते चले गए। सातवीं-आठवीं शती ई० में निर्मित एक विशाल 'अरबी शब्दकोश' का उल्लेख भी उपलब्ध है। .

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शंकरनारायण

शंकरनारायण (840 – 900 ई) भारत के खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ थे। वे राजा स्थाणु रविवर्मन के दरबार में थे। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि उन्होने केरल के कोडुनगल्लुर में भारत की प्रथम एक वेधशाला स्थापित की थी। लघुभास्करीयविवरण उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है जो भास्कर प्रथम की लघुभास्करीय का भाष्य है। (लघुभास्करीय भी आर्यभट प्रथम की रचनाओं पर आधारित है।) लघुभास्करीयविवरण की रचना ७९१ शक संवत (८६९ ई) में की गयी थी। शंकरनारायण खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ गोविन्दस्वामी के शिष्य थे। लघुभास्करीयविवरण की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें संख्याओं को दशमलव आधारित स्थानीय मान पद्धति के साथ-साथ कटपयादि पद्धति में भी लिखा गया है। इसमें आर्यभट प्रथम द्वारा दी गयीं अधिकांश गणितीय विधियाँ दी गयी हैं, जैसे कि अनिर्धार्य समीकरण by .

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श्रौतसूत्र

श्रौतसूत्र वैदिक ग्रन्थ हैं और वस्तुत: वैदिक कर्मकांड का कल्पविधान है। श्रौतसूत्र के अंतर्गत हवन, याग, इष्टियाँ एवं सत्र प्रकल्पित हैं। इनके द्वारा ऐहिक एवं पारलोकिक फल प्राप्त होते हैं। श्रौतसूत्र उन्हीं वेदविहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान करे हैं जो श्रौत अग्नि पर आहिताग्नि द्वारा अनुष्ठेय हैं। 'श्रौत' शब्द 'श्रुति' से व्युत्पन्न है। ये रचनाएँ दिव्यदर्शी कर्मनिष्ठ महर्षियों द्वारा सूत्रशैली में रचित ग्रंथ हैं जिनपर परवर्ती याज्ञिक विद्वानों के द्वारा प्रणीत भाष्य एवं टीकाएँ तथा तदुपकारक पद्धतियाँ एवं अनेक निबंधग्रंथ उपलब्ध हैं। इस प्रकार उपलब्ध सूत्र तथा उनके भाष्य पर्याप्त रूप से प्रमाणित करते हैं कि भारतीय साहित्य में इनका स्थान कितना प्रमुख रहा है। पाश्चात्य मनीषियों को भी श्रौत साहित्य की महत्ता ने अध्ययन की ओर आवर्जित किया जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक अनर्घ संस्करण संपादित किए। .

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सत्यव्रत सिद्धांतालंकार

सत्यव्रत सिद्धांतालंकार (1898-1992) भारत के शिक्षाशास्त्री तथा सांसद थे। वे उपनिषदों के एक मूर्धन्य ज्ञाता थे। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे तथा उन्होने शिक्षाशास्त्र एवं समाजशास्त्र पर कई पुस्तकें लिखीं। इन्होने स्वाधीनता अान्दोलन के दौरान सत्याग्रह में भाग लिया और कुछ समय जेल में भी रहे। उन्होंने ब्रह्मचर्य संदेश जैसी पुस्तकें लिखी और एकादशोपनिषद उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें उन्होने मुख्य उपनिषदों का सुगम हिन्दी भाष्य लिखा है। वे पेशे से एक होम्योपैथी डॉक्टर थे। दूसरे राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने, जो ख़ुद उपनिषदों की टीका लिख चुके थे, आपकी किताब के लिए प्राक्कथन लिखा था और आपको राज्यसभा के लिए मनोनीत भी किया था। १९६४ से १९६८ तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे। .

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सद्रत्नमाला

सद्रत्नमाला का प्रथम पृष्ट सद्रत्नमाला (.

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सर्वानुक्रमणी

वेदराशि की सुरक्षा के लिए तथा मंत्रों की प्राचीन परंपरा को सुव्यवस्थित बनाए रखने के उद्देश्य से प्राचीन महर्षियों ने प्रत्येक वैदिक संहिता के विविध विषयों की क्रमबद्ध अनुक्रमणी (या 'अनुक्रमणिका') बनाई है। संस्कृत वाङ्मय के सूत्रसाहित्य के अंतर्गत छह वेदांगों के अतिरिक्त अनुक्रमणियों का भी समावेश है। ऐसी अनुक्रमाणियाँ अनेक हैं। इनमें वैदिक संहिताओं के सकल सूक्त, उनमें प्रयुक्त पद, प्रत्येक मंत्र के द्रष्टा ऋषि, प्रत्येक ऋचा के छंद और देवता क्रमबद्ध रूप से अनुसूचित हैं। संकलित विषय के अनुसार इनकी पृथक् पृथक् संज्ञाएँ हैं- जैसे.

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सायण

सायण या आचार्य सायण (चौदहवीं सदी, मृत्यु १३८७ इस्वी) वेदों के सर्वमान्य भाष्यकर्ता थे। सायण ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, परंतु इनकी कीर्ति का मेरुदंड वेदभाष्य ही है। इनसे पहले किसी का लिखा, चारों वेदों का भाष्य नहीं मिलता। ये २४ वर्षों तक विजयनगर साम्राज्य के सेनापति एवं अमात्य रहे (१३६४-१३८७ इस्वी)। योरोप के प्रारंभिक वैदिक विद्वान तथा आधुनिक भारत के श्री अरोबिंदो तथा श्रीराम शर्मा आचार्य भी इनके भाष्य के प्रशंसक रहे हैं। यास्क के वैदिक शब्दों के कोष लिखने के बाद सायण की टीका ही सर्वमान्य है। .

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सांख्यसूत्र

सांख्यसूत्र, हिन्दुओं के सांख्य दर्शन का प्रमुख ग्रन्थ है। परम्परा से कपिल इसके रचयिता माने जाते हैं। इसे सांख्यप्रवचनसूत्र भी कहते हैं। अपने वर्तमान रूप में, यह अपने मूल रूप में नहीं उपलब्ध है। यद्यपि सांख्य दर्शन कम से कम ईसा-पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी से प्रचलित रहा है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ का रचनाकाल ईसा के उपरान्त १४वीं शती माना जाता है। इस पर पहला भाष्य १६वीं शती में किया गया था। इसमें सृष्टि (cosmology) का विवेचन है जो ब्रह्माण्ड के स्तर पर भी है और व्यक्ति के स्तर पर भी। इसमें छ: अध्याय हैं। इसमें प्रकृति एवं पुरुष दोनों के द्वैत स्वरूप का विवेचन है। इसके अलावा कैवल्य (मोक्ष) का विवेचन है; 'ज्ञान का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया गया है; आदि .

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संस्कृत शब्दकोश

सबसे पहले शब्द-संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हजार वर्ष—पुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८०० वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या 'निरुक्त' संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमरसिंह कृत 'नामलिंगानुशासन' या 'त्रिकांड' जिसे सारा संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है। .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है। व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है किन्तु महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु हैं। पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित किया जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्त्व हैं। इन नियमों की पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने बनाये। सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना की। बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की। इन्हीं तीनों आचार्यों को 'त्रिमुनि' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अधययन किया जाता है। नव्य व्याकरण के अन्तर्गत प्रक्रिया क्रम के अनुसार शास्त्रों का अधययन किया जाता है जिसमें भट्टोजीदीक्षित, नागेश भट्ट आदि आचार्यों के ग्रन्थों का अधययन मुख्य है। प्राचीन व्याकरण एवं नव्य व्याकरण दो स्वतंत्र विषय हैं। .

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संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश

वैदिक निघंटुकोशों और 'निरुक्त ग्रंथों' के अनंतर संस्कृत के प्राचीन और मध्यकालीन कोश हमें उपलब्ध होते हैं। इस संबंध में 'मेक्डानल्ड' ने माना है कि संस्कृत कोशों की परंपरा का उद्भव (निघटु ग्रंथों के अनंतर) धातुपाठों और गणपाठों से हुआ है। पाणिनीय अष्टाध्यायी के पूरक पारिशिष्ट रूप में धातुओं और गणशब्दों का व्याकरणोपयोगी संग्रह इन उपर्युक्त पाठों में हुआ। पर उनमें अर्थनिर्देश न होने के कारण उन्हे केवल धातुसूची और गणसूची कहना अधिक समीचीन होगा। आगे चलकर संस्कृत के अधिकांश कोशों में जिस प्रकार रचनाविधान और अर्थनिर्देश शैली का विकास हुआ है वह धातुपाठ या गणापाठ की शैली से पूर्णतः पृथक् है। निघंटु ग्रंथों से इनका स्वरूप भी कुछ भिन्न है। निघंटुओं में वैदिक शब्दों का संग्रह होता था। उनमें क्रियापदों, नामपदों और अव्ययों का भी संकलन किया जात था। परंतु संस्कृत कोशों में मुख्यतः केवल नामपदों और अव्ययों का ही संग्रह हुआ। 'निरुक्त' के समान अथवा पाली के 'महाव्युत्पत्ति' कोश की तरह इसमें व्युत्पत्तिनिर्देश नहीं है। वैदिक निघंटुओं में संगृहीत शब्दों का संबंध प्रायः विशिष्ट ग्रंथों से (ऋग्वेदसंहिता या अथर्वसंहिता का अथर्वनिघंटु) होता ता। इनकी रचना गद्य में होती थी। परंतु संस्कृत कोश मुख्यतः पद्यात्मक है और प्रमुख रूप से उनमें अनुष्टुप् छंद का योग (अभिधानरन्तमाला आदि को छोड़कर) हुआ है। संस्कृत कोशों द्वारा शब्दो और अर्थ का परिचय कराया गया हैः धनंदय, धरणी' और 'महेश्वर' आदि कोशों के निर्माण का उद्देश्य था संभवतः महत्वपूर्ण विरलप्रयुक्त और कविजनोपयोगी शब्दों का संग्रह बनाना। संस्कृत कोशों का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विषय को सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस संबंध में विद्वानों ने 'अमरसिंह' द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय 'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश) को केंद्र में रखकर उसी आधार पर संस्कृत कोशों को तीन कालखंडों में विभाजित किया है-.

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स्मार्त सूत्र

पश्चिमी भारत के स्मार्त ब्राह्मण (१८५५ से १८६२ के बीच का चित्र) प्राचीन वैदिक साहित्य की विशाल परंपरा में अंतिम कड़ी सूत्रग्रंथ हैं। यह सूत्र-साहित्य तीन प्रकार का है: श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र। वेद द्वारा प्रतिपादित विषयों को स्मरण कर उन्हीं के आधार पर आचार-विचार को प्रकाशित करनेवाली शब्दराशि को "स्मृति" कहते हैं। स्मृति से विहित कर्म स्मार्त कर्म हैं। इन कर्मों की समस्त विधियाँ स्मार्त सूत्रों से नियंत्रित हैं। स्मार्त सूत्र का नामांतर गृह्यसूत्र है। अतीत में वेद की अनेक शाखाएँ थीं। प्रत्येक शाखा के निमित्त गृह्यसूत्र भी होंगे। वर्तमानकाल में जो गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं वे अपनी शाखा के कर्मकांड को प्रतिपादित करते हैं। .

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स्वामी चिन्मयानंद

स्वामी चिन्मयानन्द स्वामी चिन्मयानन्द (8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993) हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की। स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है। .

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स्वामी रामानन्दाचार्य

स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद। यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत, ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध किया। .

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सूत्र

सूत्र, किसी बड़ी बात को अतिसंक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने का तरीका है। इसका उपयोग साहित्य, व्याकरण, गणित, विज्ञान आदि में होता है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ धागा या रस्सी होता है। जिस प्रकार धागा वस्तुओं को आपस में जोड़कर एक विशिष्ट रूप प्रदान करतअ है, उसी प्रकार सूत्र भी विचारों को सम्यक रूप से जोड़ता है। हिन्दू (सनातन धर्म) में सूत्र एक विशेष प्रकार की साहित्यिक विधा का सूचक भी है। जैसे पतंजलि का योगसूत्र और पाणिनि का अष्टाध्यायी आदि। सूत्र साहित्य में छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित वाक्य होते हैं जो आपस में भलीभांति जुड़े होते हैं। इनमें प्रायः पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का खुलकर किया जाता है ताकि गूढ से गूढ बात भी संक्षेप में किन्तु स्पष्टता से कही जा सके। प्राचीन काल में सूत्र साहित्य का महत्व इसलिये था कि अधिकांश ग्रन्थ कंठस्थ किये जाने के ध्येय से रचे जाते थे; अतः इनका संक्षिप्त होना विशेष उपयोगी था। चूंकि सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त होते थे, कभी-कभी इनका अर्थ समझना कठिन हो जाता था। इस समस्या के समाधान के रूप में अनेक सूत्र ग्रन्थों के भाष्य भी लिखने की प्रथा प्रचलित हुई। भाष्य, सूत्रों की व्याख्या (commentary) करते थे। बौद्ध धर्म में सूत्र उन उपदेशपरक ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें गौतम बुद्ध की शिक्षाएं संकलित हैं। .

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सोपारा

सोपारा महाराष्ट्र राज्य के ठाणे जिले में स्थित एक प्राचीन स्थान था जो वर्तमान नालासोपारा नामक उपनगर के पास स्थित था। नालासोपारा मुंबई के सबसे ब्यस्त पश्चिमी उपनगरों में से एक है। आजकल सोपारा दादर स्टेशन से पश्चिमी उपनगरीय रेलमार्ग पर लगभग 48 किलोमीटर दूर अंतिम पड़ाव 'विरार' से पहले पड़ता है। प्राचीन काल में यह भारत के पश्चिमी तट का सबसे बड़ा नगर था जहाँ से मेसोपोटामिया, मिस्र, कोच्चि, अरब तथा पूर्वी अफ्रीका में व्यापार होता था। इसका प्राचीन नाम थूर्पारक है। सोपारा गाँव में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी सदी में निर्मित स्तूप भी है। यह स्तूप भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित है। 'नाळा' और 'सोपारा' दो अलग अलग गाँव थे। रेलवे लाइन के पूर्व की ओर 'नाळा' है तो पश्चिम में 'सोपारा' गावँ है। वर्तमान में यह एक बड़ा शहर हो गया है। पुराने सोपारा गाँव के चारों तरफ हरियाली और बहुत सारे पेड़ हैं। सापोरा स्तूप में बुद्ध और साथ में एक अन्य बौद्ध भिक्षु की मूर्ति भी थी। यहाँ से निकली मूर्तियाँ, शिलालेख आदि औरंगाबाद के संग्रहालय में प्रर्दशित हैं। क्षेत्र में वर्षों पूर्व किये गए उत्खनन से पता चलता है कि सोपारा में बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म स्थलों की बहुलता थी जो प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से अब लुप्त हो चली है। स्वर्गीय डॉ॰ भगवानलाल इन्द्र ने सन 1898 में मुंबई के रॉयल एशियाटिक सोसाइटी को सोपारा में बौद्ध स्तूप के अतिरिक्त कई हिन्दू मंदिरों के खंडहरों की जानकारी दी थी। प्रियदर्शी अशोक के चतुर्दश शिलालेख सोपारा, शहबाजगढ़ी (जिला पेशावर), मनसेहरा (जिला हजारा), गिरनार (काठियावाड़ के समीप), कलसी (जिला देहरादून), धौली (जिला पुरी, उड़ीसा), जौगढ़ (जिला गंजाम) तथा इलगुर्डा (जिला कर्नूल, तमिलनाडु) से उपलब्ध हुए हैं। ये लेख पर्वत की शिलाओं पर उत्कीर्ण पाए गए हैं। शहबाजगढ़ी तथा मनसेहरा के अभिलेखों के अतिरिक्त, सोपारा का अभिलेख भारतीय ब्राह्मी लिपि में हैं। इसी ब्राह्मी से वर्तमान देवनागरी लिपि का विकास हुआ है। यह बाईं ओर से दाहिनी ओर की लिखी जाती थी। शहबाजगढ़ी तथा मनसेहरा के अभिलेख ब्राह्मी में न होकर खरोष्ठी में हैं। सोपारा का अभिलेख अशोक के साम्राज्य के सीमानिर्धारण में भी अत्यंत सहायक हैं। सोपारा तथा गिरनार के शिलालेखों से यह सिद्ध है कि पश्चिम में अशोक के साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र थी। अशोक के अभिलेख हृदय पर सीधा प्रभाव डालते हैं। अशोक ने इस तथ्य को भली भाँति समझ रखा था कि भाष्यकार मूल उपदेश को निस्सार कर देते हैं। अतएव उसने अपनी प्रजा तक पहुँचने का प्रयास किया। सम्राट् के अपने शब्दों में ये लेख सरल एवं स्वाभाविक शैली में जनभाषा पालि के माध्यम से उसके उपदेशों को जन-जन तक पहुँचाते हैं। यही इन अभिलेखों का वैशिष्ट्य तथा यही इनकी सफलता है। श्रेणी:महाराष्ट्र के शहर.

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हलायुध

हलायुध या भट्ठ हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्दी ई०) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। उन्होने मृतसंजीवनी नामक ग्रन्थ की रचना की जो पिंगल के छन्दशास्त्र का भाष्य है। इसमें पास्कल त्रिभुज (मेरु प्रस्तार) का स्पष्ट वर्णन मिलता है। हलायुध द्वारा रचित कोश का नाम अभिधानरत्नमाला है, पर यह हलायुधकोश नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं। प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्यय शब्द संगृहीत है। इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है। रूपभेद से लिंग-बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है। कविरहस्य भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है। .

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हलायुध (भाष्यकार)

हलायुध ने शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता पर भाष्य लिखा था। उस भाष्य का नाम 'ब्राह्मणसर्वस्वम्' था। सायण के परवर्ती अनन्ताचार्य और आनन्दबोध इत्यादि बहुत विद्वानों ने काण्वसंहिता पर भाष्य लिखे। परन्तु सायणाचार्य के पूर्ववर्त्तिओं में से हलायुध ने ही शुक्लयजुर्वेद की काण्वसंहिता पर अपना भाष्य लिखा। .

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हिन्दू दर्शन

हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। .

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ज्ञानेश्वरी

ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू निवृत्तिनाथ के निदर्शन किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। .

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वररुचि कात्यायन

वररुचि कात्यायन वररुचि कात्यायन पाणिनीय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार हैं। वररुचि कात्यायन के वार्तिक पाणिनीय व्याकरण के लिए अति महत्वशाली सिद्ध हुए हैं। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण अधूरा सा रहा जाता। वार्तिकों के आधार पर ही पीछे से पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकांडशेष अभिधानकोश में कात्यायन के ये नाम लिखे हैं - कात्य, पुनर्वसु, मेधाजित्‌ और वररुचि। "कात्य' नाम गोत्रप्रत्यांत है, महाभाष्य में उसका उल्लेख है। पुनर्वसु नाम नक्षत्र संबंधी है, "भाषावृत्ति' में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय कहा गया है। मेधाजित्‌ का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त, कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी में कात्यायन वररुचि का एक नाम 'श्रुतधर' भी आया है। हेमचंद्र एवं मेदिनी कोशों में भी कात्यायन के "वररुचि' नाम का उल्लेख है। कात्यायन वररुचि के वार्तिक पढ़ने पर कुछ तथ्य सामने आते हैं-यद्यपि अधिकांश स्थलों पर कात्यायन ने पाणिनीय सूत्रों का अनुवर्ती होकर अर्थ किया है, तर्क वितर्क और आलोचना करके सूत्रों के संरक्षण की चेष्टा की है, परंतु कहीं-कहीं सूत्रों में परिवर्तन भी किया है और यदा-कदा पाणिनीय सूत्रों में दोष दिखाकर उनका प्रतिषेध किया है और जहाँ तहाँ कात्यायन को परिशिष्ट भी देने पड़े हैं। संभवत: इसी वररुचि कात्यायन ने वेदसर्वानुक्रमणी और प्रातिशाख्य की भी रचना की है। कात्यायन के बनाए कुछ भ्राजसंज्ञक श्लोकों की चर्चा भी महाभाष्य में की गई है। कैयट और नागेश के अनुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार के ही बनाए हुए हैं। प्रातिशाख्यम् .

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वाचस्पति मिश्र

वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। .

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वात्स्यायन

वात्स्यायन या मल्लंग वात्स्यायन भारत के एक प्राचीन दार्शनिक थे। जिनका समय गुप्तवंश के समय (६ठी शती से ८वीं शती) माना जाता है। उन्होने कामसूत्र एवं न्यायसूत्रभाष्य की रचना की। महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी संपदित किया है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान महर्षि वात्स्यायन का है। .

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विज्ञानभिक्षु

विज्ञानभिक्षु (1550 - 1600) भारत के दार्शनिक थे। वे एक प्रकार से सांख्य के अंतिम आचार्य हैं। इन्होंने ही सांख्यमत में ईश्वरवाद का समावेश किया था। इन्होंने तीन दर्शनों पर भाष्य-ग्रंथ लिखे हैं- सांख्यप्रवचनभाष्य (सांख्यसूत्र); योगवार्तिक (व्यासभाष्य), विज्ञानामृतभाष्य (ब्रह्मसूत्र)। विज्ञानभिक्षु पूरे औचित्य के साथ सांख्यसूत्र पर अपना भाष्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि सांख्य 'कालभक्षित' हो गया था। इस तंत्रप्रणाली को पुन: पुनर्जीवित करने के लिए ही वे प्रयत्नशील रहे हैं। लुप्त हुए सांख्य के स्वरुप निर्माण की दिशा में अग्रसर होते हुए वे सदैव उपनिषद् और पुराणों के युग के अनंतर वियुक्त होने वाले सांख्य और वेदांत में सामंजस्य स्थापित करनेके प्रति प्रयत्नशील थे। विज्ञानभिक्षु वेदान्त के प्रति भी आस्थाशील थे। 'विज्ञानामृत' नाम से ब्रह्मसूत्र पर उनका भाष्य इस तथ्य को प्रमाणित करता है। इस बात को स्वीकार करने के अनेक कारण विद्यमान हैं जिनके आधार पर बताया जा सकता है कि सांख्य दर्शन धीरे-धीरे वेदांत दर्शन में विलुप्त होता प्रतीत होता है। यहां तक कि विज्ञानभिक्षु ने वेदांतिक मिथ्या प्रतीति सूचक माया को सांख्य की यथार्थ प्रतीतिसूचक प्रकृति को एक समान प्रतिपादित किये जाने का प्रयत्न किया था। यही कारण है कि परवर्ती बौद्ध तार्किकों के आविर्भाव के फलस्वरुप मीमांसा करने के प्रयास में भले ही अनेक तत्वमनीषी अविभूत हुए पर सांख्यमतवाद का किसी भी दृष्टिकोण से गंभीर अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया। वस्तुत: एक ऐसे संशोधन के बाद जिसने सांख्यदर्शन का वेदांत की परिधि में पहुंचा दिया था, सांख्य का एक स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में अस्तित्व समाप्त हो चुका था। सांख्य दर्शन के संबंध में मूलत: इन दो परस्पर विरोधी मताग्रहों के निराकरण के लिए शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र हमारी पर्याप्त सहायता कर सकता है। लक्ष्य करने की बात है कि ब्रह्मसूत्र ने सांख्यदर्शन के खंडन पर अत्यधिक बल दिया था क्योंकि ब्रह्रमसूत्रकार सांख्य को अपना घोर प्रतिद्वंद्वी स्वीकार करता था और था भी, क्योंकि सांख्य के प्रधानवाद अथवा कारणवाद में जहां एक मूल-भौतिक तत्व को विश्व का आद्यकारण बताया गया था, अद्वैत वेदांत के मूल चेतन कारणवाद के नितांत विपरीत खड़ा था। यही कारण था कि ब्रह्मसूत्र के प्रथम चार सूत्रों में ब्रह्म तथा वेदांत ग्रंथो के स्वरुप के संबंध में कुछ मौलिक महत्व की बातों का स्पष्टीकरण करते ही ब्रह्म सूत्रकार तत्काल अगले सात सूत्रों में यह स्पष्ट करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं कि ब्रह्म एक चेतन तत्व है, जिसका पृथक्करण सांख्य दर्शन के 'प्रधान'से किया जाना चाहिए जो अचेतन अथवा भौतिक होने के कारण विश्व का मूल नहीं हो सकता। .

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व्याख्याप्रज्ञप्ति

व्याख्याप्रज्ञप्ति (प्राकृत में: 'विहायापण्णति' या 'विवाहापण्णति'; "Exposition of Explanations") पाँचवाँ जैन आगम है जिसे भगवतीसूत्र भी कहते हैं। कुल १२ जैन आगम हैं जो महावीर स्वामी द्वारा प्रख्यापित माने जाते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना सुधर्मस्वामी द्वारा प्राकृत में की गयी है। यह सभी आगमों में बससे बड़ा ग्रन्थ है। कहते हैं कि इसमें ६० हजार प्रश्नों का संग्रह था जिनका उत्तर महावीर स्वामी ने दिया था। .

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व्याकरण (वेदांग)

वेदांग (वेद के अंग) छ: हैं, जिसमें से व्याकरण एक है। संस्कृत भाषा को शुद्ध रूप में जानने के लिए व्याकरण शास्त्र का अधययन किया जाता है। अपनी इस विशेषता के कारण ही यह वेद का सर्वप्रमुख अंग माना जाता है। इसके मूलतः पाँच प्रयोजन हैं - रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असंदेह। व्याकरण की जड़ें वैदिकयुगीन भारत तक जाती हैं। व्याकरण की परिपाटी अत्यन्त समृद्ध है जिसमें पाणिनि का अष्टाध्यायी नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ भी शामिल है। 'व्याकरण' से मात्र 'ग्रामर' का अभिप्राय नहीं होता बल्कि यह भाषाविज्ञान के अधिक निकट है। साथ ही इसका दार्शनिक पक्ष भी है। संस्कृत व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है। संस्कृत व्याकरण का इतिहास पिछले ढाई हजार वर्ष से टीका-टिप्पणी के माध्यम से अविच्छिन्न रूप में अग्रसर होता रहा है। इसे सजीव रखने में उन ज्ञात अज्ञात सहस्रों विद्वानों का सहयोग रहा है जिन्होंने कोई ग्रंथ तो नहीं लिखा, किंतु अपना जीवन व्याकरण के अध्यापन में बिताया। .

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वृत्ति (बहुविकल्पी)

'वृत्ति' से निम्नलिखित का बोध होता है-.

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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वेदान्त दर्शन

वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .

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वेंकटमाधव

वेंकटमाधव ऋक्संहिता के भाष्यकार थे। .

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गौड़पाद

गौड़पाद या गौडपादाचार्य, भारत के एक दार्शनिक थे। उन्होने माण्डूक्यकारिका नामक नामक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की जिसमें माध्यमिक दर्शन की शब्दावली का प्रयोग करते हुए अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है। अद्वैत वेदांत की परंपरा में गौड़पादाचार्य को आदि शंकराचार्य के 'परमगुरु' अर्थात् शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है। .

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गोविन्द चन्द्र पाण्डेय

डॉ॰ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय (30 जुलाई 1923 - 21 मई 2011) संस्कृत, लेटिन और हिब्रू आदि अनेक भाषाओँ के असाधारण विद्वान, कई पुस्तकों के यशस्वी लेखक, हिन्दी कवि, हिन्दुस्तानी अकादमी इलाहबाद के सदस्य राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति और सन २०१० में पद्मश्री सम्मान प्राप्त, बीसवीं सदी के जाने-माने चिन्तक, इतिहासवेत्ता, सौन्दर्यशास्त्री और संस्कृतज्ञ थे। .

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गोविन्दस्वामी (गणितज्ञ)

गोविन्दस्वामी (800 ई – 860 ई) भारत के गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री (ज्योतिषी) थे। उन्होने भास्कर प्रथम के ग्रन्थ महाभास्करीय पर एक भाष्य की रचना की (लगभग ८३० ई)। इस भाष्य में स्थानीय मान के प्रयोग के लिये कई उदाहरण दिये हैं और ज्या सारणी (साइन टेबल) के निर्माण की विधि दी हुई है। उनकी एक कृति 'गोविन्दकृति' थी जो 'आर्यभटीय' के क्रम में रचित गणितीय ग्रन्थ था। किन्तु अब यह अप्राप्य है। शंकरनारायण (८६९ ई), उदयदिवाकर (१०७३ ई) तथा नीलकण्ठ सोमयाजि ने गोविन्दस्वामी को अनेक बार उद्धृत किया है। .

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आदि शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता, मूर्तिपूजा के पुरस्कर्ता, पंचायतन पूजा के प्रवर्तक है। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) बदरिकाश्रम, (२) शृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका पीठ और (४) शारदा पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, शृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की। कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है। कलियुग की अपेक्षा त्रेता में तथा त्रेता की अपेक्षा द्वापर में, द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा अध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर, विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ, परकायप्रवेशकर, नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर, सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया। व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र, कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म, उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा। .

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आदि शंकराचार्य की कृतियाँ

आदि शंकराचार्य ने बहुत से गर्न्थों की रचना की जो अद्वैत वेदान्त के आधार स्तम्भ हैं। उनकी कृतियों में अद्वैत वेदान्त की तर्कपूर्ण स्थापना हुई है। परम्परागत रूप से आदि शंकराचार्य की कृतियों को तीन समूहों में रखा जाता है-.

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आपस्तम्ब

आपस्तम्ब भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र के रचयिता हैं। वे सूत्रकार हैं; ऋषि नहीं। वैदिक संहिताओं में इनका उल्लेख नहीं पाया जाता। आपस्तंबधर्मसूत्र में सूत्रकार ने स्वयं अपने को "अवर" (परवर्ती) कहा है (1.2.5.4)। .

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आर्यभटीय

आर्यभटीय नामक ग्रन्थ की रचना आर्यभट प्रथम (४७६-५५०) ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। आर्यभटीय, दसगीतिका पाद से आरम्भ होती है। इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं: 1.

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कात्यायन (वररुचि)

चित्र: Linea de transmision.png वररुचि कात्यायन, पाणिनीय सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार हैं। वे नौ शुल्ब सूत्रों में से एक के रचयिता भी हैं। पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकांडशेष अभिधानकोश में कात्यायन के ये नाम लिखे हैं - कात्य, पुनर्वसु, मेधाजित् और वररुचि। "कात्य" नाम गोत्रप्रत्यांत है, महाभाष्य में उसका उल्लेख है। पुनर्वसु नाम नक्षत्र संबंधी है, "भाषावृत्ति" में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय कहा गया है। मेधाजित् का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त, कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी में कात्यायन वररुचि का एक नाम "श्रुतधर" भी आया है। हेमचंद्र एवं मेदिनी कोशों में भी कात्यायन के "वररुचि" नाम का उल्लेख है। वररुचि कात्यायन के वार्तिक पाणिनीय व्याकरण के लिए अति महत्वशाली सिद्ध हुए हैं। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण अधूरा सा रहा जाता। वार्तिकों के आधार पर ही पीछे से पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। कात्यायन वररुचि के वार्तिक पढ़ने पर कुछ तथ्य सामने आते हैं - यद्यपि अधिकांश स्थलों पर कात्यायन ने पाणिनीय सूत्रों का अनुवर्ती होकर अर्थ किया है, तर्क वितर्क और आलोचना करके सूत्रों के संरक्षण की चेष्टा की है, परंतु कहीं-कहीं सूत्रों में परिवर्तन भी किया है और यदा-कदा पाणिनीय सूत्रों में दोष दिखाकर उनका प्रतिषेध किया है और जहाँ तहाँ कात्यायन को परिशिष्ट भी देने पड़े हैं। संभवत: इसी वररुचि कात्यायन ने वेदसर्वानुक्रमणी और प्रातिशाख्य की भी रचना की है। कात्यायन के बनाए कुछ भ्राजसंज्ञक श्लोकों की चर्चा भी महाभाष्य में की गई है। कैयट और नागेश के अनुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार के ही बनाए हुए हैं। .

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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कवींद्राचार्य सरस्वती

कवीन्द्राचार्य सरस्वती ब्रजभाषा के कवि थे। सत्रहवीं शताब्दी में भारत में जो श्रेष्ठ तथा दिग्गज आचार्य कवि हुए उनमें कवींद्राचार्य सरस्वती का नाम विशेष उल्लेखनीय है। दक्षिण में गोदावरी के तीर पर एक गाँव में ऋग्वेदीय आश्वलायन शाखा के ब्राह्मण कुल में जन्मे कवींद्राचार्य के वास्तविक नाम का पता नहीं चलता। 'कवींद्र' इनकी उपाधि है। अद्वैतवेदांती संन्यासी होने के कारण ये 'सरस्वती' उपाधि से विभूषित थे और शाहजहाँ के राज्यकाल में प्रयाग तथा वाराणसी के सबसे प्रधान संन्यासी मठाधीश और काव्यदर्शन तथा वेदवेदांग के मूर्धन्य पंडित थे। .

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कृष्ण यजुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद, यजुर्वेद की एक शाखा है। चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है, शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद है। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रख्यात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा। महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातंजल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की। यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कात्यायन श्रौतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि श्रेणी:धर्मग्रन्थ श्रेणी:वेद श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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अट्टकथा

अट्ठकथा (अर्थकथा) पालि ग्रंथों पर लिखे गए भाष्य हैं। मूल पाठ की व्याख्या स्पष्ट करने के लिए पहले उससे संबद्ध कथा का उल्लेख कर दिया जाता है, फिर उसके शब्दों के अर्थ बताए जाते हैं। त्रिपिटक के प्रत्येक ग्रंथ पर ऐसी अट्ठकथा प्राप्त होती है। अट्ठकथा की परंपरा मूलतः कदाचित् लंका में सिंहल भाषा में प्रचलित हुई थी। आगे चलकर जब भारतवर्ष में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा तब लंका से अट्ठकथा लाने की आवश्यकता हुई। इसके लिए चौथी शताब्दी में आचार्य रेवत ने अपने प्रतिभाशाली शिष्य बुद्धघोष को लंका भेजा। बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग जैसा प्रौढ़ ग्रंथ लिखकर लंका के स्थविरों को संतुष्ट किया और सिंहली ग्रंथों के पालि अनुवाद करने में उनका सहयोग प्राप्त किया। आचार्य बुद्धदत्त और धम्मपाल ने भी इसी परंपरा में कतिपय ग्रंथों पर अट्ठकथाएँ लिखीं। .

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अध्यास

अध्यास, अद्वैत वेदांत का पारिभाषिक शब्द है। एक वस्तु में दूसरी वस्तु का ज्ञान अध्यास कहलाता है। रस्सी को देखकर सर्प का ज्ञान इसका उदाहरण है। यहाँ पर रस्सी सत्य है, किंतु उसमें सर्प का ज्ञान मिथ्या है। मिथ्या ज्ञान बिना सत्य आधार के संभव नहीं है, अत: अध्यास के दो पक्ष माने जाते हैं- सत्य और अनृत या मिथ्या.। मिथ्या का 'मिथुनीकरण' अध्यास का मूल कारण है। इस मिथुनीकरण में एक के धर्मों का दूसरे में आरोप होता है। रस्सी की वक्रता का सर्प में आरोप होता है, अत: सर्प का ज्ञान संभव है। साथ ही यह धर्मारोप कोई व्यक्ति जान-बूझकर नहीं करता; वस्तुत: अनजाने में ही यह आरोप हो जाता है, इसलिए सत्य और अनृत में अध्यासावस्था में परस्पर विवेक नहीं हो पाता। विवेक होते ही अध्यास का नाश हो जाता है। जिन दो वस्तुओं के धर्मों का परस्पर अध्यास होता है वे वस्तुत: एक-दूसरी से अत्यंत भिन्न होती हैं। उनमें तात्विक साम्य नहीं होता; किंतु औपचारिक धर्मसाम्य के आधार पर यथाकथंचित्‌ दोनों का मिथुनीकरण होता है। शांकर भाष्य में अध्यास का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि एक वस्तु में तत्सदृश किसी पूर्वदृष्टि वस्तु का स्मरण होता है। यह स्मृतिरूप ज्ञान ही अध्यास कहलाती है। परंतु पूर्वदृष्ट वस्तु का स्मरण मिथ्या नहीं होता। किसी को देखकर 'यह वही व्यक्ति है', ऐसा उत्पन्न ज्ञान सत्य है। इसलिए 'स्मृतिरूप' शब्द का विशेष अर्थ यहाँ अभिप्रेत है। स्मृत वस्तु के रूप की तरह जिसका रूप हो, उस वस्तु का उससे भिन्न स्थान पर ज्ञान होना अध्यास का सर्वमान्य लक्षण माना गया है। रस्सी को देखकर सर्प का स्मरण होता है और तदनंतर सर्प का ज्ञान होता है। यह सर्पज्ञानस्मृति सर्पा से भिन्न वस्तु है। वाचस्पति मिश्र ने 'भामती' में कहा है-'सर्पादिभाव से रस्सी आदि का अथवा रक्तादि गुण से युक्त स्फटिक आदि का ज्ञान न होता हो, ऐसी बात नहीं है, किंतु इस ज्ञान से रस्सी आदि सर्प हो जाते हैं या उसमें सर्प का गुण उत्पन्न होता है, यह भी असंगत है। यदि ऐसा होता तो मरुप्रेदश में किरणों को दखकर उछलती तरंगों की माला से सुशोभित मंदाकिनी आ गई है ऐसा ज्ञान होता और लोग उसके जल से अपनी पिपासा शांत करते। इसलिए अध्यास से यद्यपि वस्तु सत्‌ जैसी लगती है, फिर भी उसमें वास्तविक सत्यत्व की स्थिति मानना मूर्खता है। यह अध्यास यदि सत्यता से रहित हो तो बंध्यापुत्र आदि की तरह इसका ज्ञान नहीं होना चाहिए। किंतु सर्पज्ञान होता है, अत: यह अत्यंत असत्‌ नहीं है। साथ ही अध्यास ज्ञान को सत्‌ भी नहीं कर सकते, क्योंकि सर्प का ज्ञान कथमपि सत्य नहीं है। सत्‌ और असत्‌ परस्पर विरोधी हैं अत: अध्यास सदसत्‌ भी नहीं है। अंतत: अध्यास को सदसत्‌ से विलक्षण अनिर्वचनीय कहा गया है। इस क्रम से अध्यस्त जल वास्तविक जल की तरह है, इसीलिए वह पूर्वदृष्टि है। यह तो मिथ्याभूत अनिर्वचनीय (शब्दव्यापार से परे) है। अध्यास दो प्रकार का होता है।.

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अष्टाध्यायी

अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी .

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उदयदिवाकर

उदयदिवाकर (१०७३ ई) भारतीय गणितज्य। उन्होने भास्कर प्रथम के लघुभास्करीय पर 'सुन्दरी' नामक भाष्य रचा।.

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उद्योतकर

उद्योतकर (६३५ ई.) न्याय दर्शन के आचार्य थे। गौतम के न्यायशास्त्र पर वात्स्यायन का भाष्य था। बौद्ध दार्शनिक दिंनाग ने अपने प्रमाणसमुच्चय में इस भाष्य की बड़ी आलोचना की। उद्योतकर ने वात्स्यायन भाष्य पर वार्तिक लिखकर न्यायशास्त्र की दृष्टि से बौद्धों का खंडन किया। इनके वार्तिक पर वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका लिखकर बौद्धों के तर्कपंक से उद्योतकर की वाणी का उद्धार किया। सुबन्धु द्वारा रचित वासवदत्ता में उद्योतकर को न्यायदर्शन का उद्धारक बताया गया है। श्रेणी:भारतीय दार्शनिक.

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उवट

उवट विख्यात वेद-भाष्यकार थे। यजुर्वेद-मंत्र-भाष्य द्वारा विदित होता है कि इनके पिता का नाम वज्रट था। साथ ही वहीं इनका जन्मस्थान आनंदपुर कहा गया है: कतिपय विद्वानों के कथनानुसार ये महाराज भोज के समय ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी मे अवंतिनगरी में विद्यमान थे। उव्वट ने भोज के शासन काल में उज्जयिनी में रहकर शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन वाजसनेयी संहिता का सम्पूर्ण चालीस अध्यायों वाला भाष्य किया था, जो उवट भाष्य के नाम से सुविख्यात है। 'भविष्य-भक्ति-माहात्म्य' नामक संस्कृत ग्रंथ इन्हें कश्मीर देश का निवासी और मम्मट तथा कैयट का समसामयिक बताता है: इन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा का भाष्य और ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य नामक ग्रंथ की रचना की। कुछ लोगों का कहना है कि ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य भाष्य करने के बाद इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य भी रचा था। .

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ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-.

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छन्दशास्त्र

छन्दः शास्त्र पिंगल द्वारा रचित छन्द का मूल ग्रन्थ है। यह सूत्रशैली में है और बिना भाष्य के अत्यन्त कठिन है। इस ग्रन्थ में पास्कल त्रिभुज का स्पष्ट वर्णन है। इस ग्रन्थ में इसे 'मेरु-प्रस्तार' कहा गया है। दसवीं शती में हलायुध ने इस पर 'मृतसंजीवनी' नामक भाष्य की रचना की। अन्य टीकाएं-.

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