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भाषा दर्शन

सूची भाषा दर्शन

भाषादर्शन (Philosophy of language) का सम्बन्ध इन चार केन्द्रीय समस्याओं से है- अर्थ की प्रकृति, भाषा प्रयोग, भाषा संज्ञान, तथा भाषा और वास्तविकता के बीच सम्बन्ध। किन्तु कुछ दार्शनिक भाषादर्शन को अलग विषय के रूप में न लेकर, इसे तर्कशास्त्र (लॉजिक) का ही एक अंग मानते हैं। .

7 संबंधों: पाणिनीय दर्शन, प्राकृतिक भाषा, पीटर अबेलार्ड, भारत में दर्शनशास्त्र, भाषाविज्ञान, विल्हेम वॉन हम्बोल्ट, अवधारणा

पाणिनीय दर्शन

सर्वदर्शनसंग्रह में पाणिनीय व्याकरण दर्शन को भी भारत के प्राचीन दर्शनों में स्थान दिया है। 'सर्वदर्शनसंग्रह' के रचयिता के मत से व्याकरण शास्त्र अर्थात 'पाणिनीयदर्शन' सब विद्याओं से पवित्र, मुक्ति का द्वारस्वरुप और मोक्ष मार्गों में राजमार्ग है। सिद्धि के अभिलाषी को सबसे पहले इसी की उपासना करनी चाहिए। इस दर्शन के मत से स्फोटात्मक निरवयव नित्य शब्द ही जगत् का आदि कारण रूप 'परब्रह्म' है। अनादि अनंत अक्षर रूप शब्द ब्रह्म से जगत् की बाकी प्राक्रियाएँ अर्थ रूप में पर्वर्तित होती हैं। इस दर्शन ने शब्द के दो भेद माने हैं। नित्य और अनित्य। नित्य शब्द स्फोट मात्र ही है, संपूर्ण वर्णांत्मक उच्चरित शब्द अनित्य हैं। अर्थबोधन सामर्थ्य केवल स्फोट में है। वर्ण उस (स्फोट) की अभिव्यक्ति मात्र के साधन हैं। अग्नि शब्द में अकार, गकार, नकार और इकार ये चारों वर्ण मिलकर अग्नि नामक पदार्थ का बोध कराते हैं। अब यदि चारों ही में अग्निवाचकता मानी जाय तो एक ही वर्ण के उच्चारण से सुननेवाले को अग्नि का ज्ञान हो जाना चाहिए था, दूसरे वर्ण तक के उच्चारण की आवश्यकता न होनी चाहिए थी। पर ऐसा नहीं होता। चारों वर्णों के एकत्र होने से ही उनमें अग्निवाचकता आती हो तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि पर वर्ण के उत्पत्तिकाल में पूर्व वर्ण का नाश हो जाता है। उनका एकत्र अवस्थान संभव ही नहीं। अतः मानना पडे़गा कि उनके उच्चारण से जिस स्फोट की अभिव्यक्ति होती है वस्तुतः वही अग्नि का बोधक है। एक वर्ण के उच्चारण से भी यह अभिव्यक्ति होती है, पर यथेष्ट पुष्टि नहीं होती। इसी लिये चारों का उच्चारण करना पड़ता है। जिस प्रकार नीले, पीले, लाल आदि रंगों का प्रतिबिंब पड़ने से एक ही स्फटिक मणि में समय समय पर अनेक रंग उत्पन्न होते रहते हैं उसी प्रकार एक ही स्फोट भिन्न भिन्न वर्णों द्वारा अभिव्यक्त होकर भिन्न भिन्न अर्थों का बोध कराता है। इस स्फोट को ही शब्दशास्त्रज्ञों ने सच्चिदानंद ब्रह्म माना है। अतः शब्द शास्त्र की आलोचना करते करते क्रमशः अविद्या का नाश होकर मुक्ति प्राप्त होती है। .

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प्राकृतिक भाषा

तंत्रिका मनोविज्ञान, भाषा विज्ञान और भाषा के दर्शन में, प्राकृतिक भाषा ऐसी भाषा है जो किसी योजना या अपने स्वयं के पूर्वचिन्तन के बिना मनुष्य के दिमाग के एक समूह में विकसित हुई। इसलिए, लगभग हमेशा, मनुष्य एक दूसरे से संवाद करने के लिये इनका उपयोग करते हैं। श्रेणी:भाषा-विज्ञान श्रेणी:भाषा श्रेणी:विज्ञान.

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पीटर अबेलार्ड

पीटर अबेलार्ड (1079 - 21 अप्रैल 1142) एक फ्रेंच दार्शनिक, इसाई थेअलोजियन और तर्कवादी थे। .

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भारत में दर्शनशास्त्र

भारत में दर्शनशास्त्र के दशा और दिशा के अध्ययन को हम दो भागों में विभक्त करके कर सकते हैं -.

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भाषाविज्ञान

भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषा विज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। .

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विल्हेम वॉन हम्बोल्ट

विल्हेम वॉन हम्बोल्ट (अंग्रेजी:Friedrich Wilhelm Christian Karl Ferdinand von Humboldt; २२ जून, १७६७ - ८ अप्रैल, १८३५) एक जर्मन दार्शनिक, भाषा विज्ञानी और तत्कालीन प्रशा की सरकार में प्रशासक थे। उनका योगदान तत्कालीन शिक्षा नीतियों को निर्मित करने में रहा था। हम्बोल्ट का सर्वाधिक प्रभाव भाषाई दर्शन और इसके चिंतकों पर पड़ा है जिनमें नॉम चौम्स्की और मार्टिन हाइडेगर जैसे प्रसिद्द दार्शनिक और भाषा विज्ञानी शामिल हैं। विल्हेम के छोटे भाई अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट एक प्रसिद्द भूगोलवेत्ता, जलवायु विज्ञानी और वनस्पति शास्त्री रहे हैं। .

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अवधारणा

अवधारणा या संकल्पना भाषा दर्शन का शब्द है जो संज्ञात्मक विज्ञान, तत्त्वमीमांसा एवं मस्तिष्क के दर्शन से सम्बन्धित है। इसे 'अर्थ' की संज्ञात्मक ईकाई; एक अमूर्त विचार या मानसिक प्रतीक के तौर पर समझा जाता है। अवधारणा के अंतर्गत यथार्थ की वस्तुओं तथा परिघटनाओं का संवेदनात्मक सामान्यीकृत बिंब, जो वस्तुओं तथा परिघटनाओं की ज्ञानेंद्रियों पर प्रत्यक्ष संक्रिया के बिना चेतना में बना रहता है तथा पुनर्सृजित होता है। यद्यपि अवधारणा व्यष्टिगत संवेदनात्मक परावर्तन का एक रूप है फिर भी मनुष्य में सामाजिक रूप से निर्मित मूल्यों से उसका अविच्छेद्य संबंध रहता है। अवधारणा भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, उसका सामाजिक महत्व होता है और उसका सदैव बोध किया जाता है। अवधारणा चेतना का आवश्यक तत्व है, क्योंकि वह संकल्पनाओं के वस्तु-अर्थ तथा अर्थ को वस्तुओं के बिम्बों के साथ जोड़ती है और हमारी चेतना को वस्तुओं के संवेदनात्मक बिम्बों को स्वतंत्र रूप से परिचालित करने की संभावना प्रदान करती है। .

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