2 संबंधों: कुंतक, अभिव्यंजनावाद।
कुंतक
कुंतक, अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान् थे। ये अभिधावादी आचार्य थे जिनकी दृष्टि में अभिधा शक्ति ही कवि के अभीष्ट अर्थ के द्योतन के लिए सर्वथा समर्थ होती है। इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं। किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर समझा जाता है कि ये दसवीं शती ई. के आसपास हुए होंगे। कुन्तक अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षणा और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थप्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं। उनकी एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य का 'जीवित' (जीवन, प्राण) मानते हैं। वक्रोक्तिजीवित में वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा माना गया है जिसका और आचार्यों ने खंडन किया है। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। वक्रोक्ति का अर्थ है वदैग्ध्यभंगीभणिति (सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार) कविकर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य या विदग्धता। भंगी का अर्थ है - विच्छित, चमत्कार या चारुता। भणिति से तात्पर्य है - कथन प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होनेवाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहनेवाला कथनप्रकार। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात् इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं। .
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अभिव्यंजनावाद
'''मैके''': रूसी बैलेट (१९१२) अभिव्यंजनावाद इटली,जर्मनी और आस्ट्रिया से प्रादुर्भूत प्रधानत: मध्य यूरोप की एक चित्र-मूर्ति-शैली है जिसका प्रयोग साहित्य, नृत्य और सिनेमा के क्षेत्र में भी हुआ है। सिद्धांत रूप में इसका साहित्यिक प्रतिपादन इटली के विचारक बेनेदितो क्रोचे ने किया। क्रोचे के अनुसार "अंतःप्रज्ञा के क्षणों में आत्मा की सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है"। कला के क्षेत्र में इसे आवाँ गार्द (हिरावल दस्ते) के रूप में जाना जाता है। अभिव्यंजनावाद की मूल संकल्पना है कि कला का अनुभव बिजली की कौंध की तरह होता है, अतः यह शैली वर्णनात्मक अथवा चाक्षुष न होकर विश्लेषणात्मक और आभ्यंतरिक होती है। उस भाववादी (इंप्रेशनिस्टिक) शैली के विपरीत जिसमें कलाकार की अभिरुचि प्रकाश और गति में ही केंद्रित होती है। यहीं तक सीमित न होकर अभिव्यंजनावादी प्रकाश का प्रयोग बाह्म रूप को भेद भीतर का तथ्य प्राप्त कर लेने, आंतरिक सत्य से साक्षात्कार करने और गति के भावप्रक्षेपण आत्मान्वेषण के लिए करता है। वह रूप, रंगादि के विरूपण द्वारा वस्तुओं का स्वाभाविक आकार नष्ट कर अनेक आंतरिक आवेगात्मक सत्य को ढूँढ़ता है। .
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