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बृहस्पति

सूची बृहस्पति

कोई विवरण नहीं।

102 संबंधों: चार्वाक दर्शन, ऐड्रास्टीया (उपग्रह), ऐमलथीया (उपग्रह), तारा (नाम), तारा (बहुविकल्पी), तारा (रामायण), तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य, त्वष्ट्र, त्वष्ट्र पैटरे, थेमीस्टो (उपग्रह), थीबी (उपग्रह), द्विनेत्री दूरदर्शी, देवयानी, धौम्य, नारद मुनि, नवग्रह, नक्षत्र, न्यू होराइज़न्स, नेहरू तारामंडल, दिल्ली, पलायन वेग, पायोनियर एच, पायोनियर कार्यक्रम, पायोनियर १०, पायोनियर ११, पितृमेध, पुखराज, प्रकाश का वेग, प्रकाशीय दूरदर्शी, पृथ्वी का गुरूत्व, पृथ्वी का इतिहास, फलित ज्योतिष, बार्हस्पत्य सूत्र, बुध (ज्योतिष), बृहस्पति का वायुमंडल, भारतीय राजनय का इतिहास, भौतिकी की शब्दावली, भूभौतिकी, महाभारत में विभिन्न अवतार, मंगल (ज्योतिष), मंगल ग्रह, मीटस (उपग्रह), युलिसेस अंतरिक्ष यान, युलीसेस, यूरोपा जुपिटर प्रणाली अभियान, यूरोपा ऑर्बिटर, राजनयिक इतिहास, रक्षाबन्धन, रक्षासूत्र, रोश सीमा, ल्यूटीशीया (क्षुद्रग्रह), ..., शची, शनि (ग्रह), शुक्र (ज्योतिष), साबू, संयोजन (खगोलशास्त्र), स्वरोचिष मनु, सौर द्रव्यमान, सौर मण्डल, सूर्य, सूर्य देवता, सूर्यसिद्धान्त, हिन्दू देवी देवताओं की सूची, हैली धूमकेतु, जलतापीय छिद्र, ज़मींदारी प्रथा, जुपिटर आइसी मून ऑर्बिटर, जी॰जे॰ ५०४ बी ग्रह, वरुण (ग्रह), विधिक वृत्ति, विक्रमादित्य, वैदिक धर्म, वेदव्यास, वॉयजर कार्यक्रम, वॉयेजर द्वितीय, वॉयेजर प्रथम, खगोलशास्त्र से सम्बन्धित शब्दावली, गिगामीटर, ग्रह, ग्लैडीएटर, गैलिलेयो (अंतरिक्ष यान), गैलीलियो प्रोब, गैस दानव, आर्यभट, कामसूत्र, कक्षीय अनुनाद, कक्षीय अवधि, कुम्भ मेला, केल्विन-हेल्महोल्ट्ज़ तंत्र, अपसौरिका, अब्द, अरुण (ग्रह), अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र (ग्रन्थ), अवर एवं वरिष्ठ ग्रह, अंतरिक्ष विज्ञान, उपसौर और अपसौर, उपग्रही छल्ला, १० हायजीया, १७ जुलाई, १९९४, २०१० हरिद्वार महाकुम्भ, २०१२ सूचकांक विस्तार (52 अधिक) »

चार्वाक दर्शन

चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है। वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है। .

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ऐड्रास्टीया (उपग्रह)

सन् १९९६-९७ में गैलिलेओ यान द्वारा ली गयी ऐड्रास्टीया की झलकी ऐड्रास्टीया (यूनानी: Αδράστεια, अंग्रेज़ी: Adrastea) बृहस्पति ग्रह का दूसरा सब से अंदरूनी उपग्रह है। इस उपग्रह की खोज १९७९ में वॉयेजर द्वितीय द्वारा ली गयी तस्वीरों का अध्ययन कर के की गई थी। यह उपग्रह बृहस्पति के मुख्य छल्ले के किनारे पर स्थित है और मन जाता है कि इसी उपग्रह से उभरी हुई धुल उस छल्ले को बनाने में एक मुख्य भूमिका अदा करती है। यह बृहस्पति की परिक्रमा उस ग्रह से १,२९,००० किमी की दूरी पर करता है। ऐड्रास्टीया बृहस्पति के इतना पास होने से और उस ग्रह की तुलना में बहुत छोटा होने से बृहस्पति की स्थिरमुखी परिक्रमा करता है, यानि परिक्रमा करते हुए ऐड्रास्टीया का एक ही रुख़ हमेशा बृहस्पति की ओर होता है।, David M. Harland, Springer, 2000, ISBN 978-1-85233-301-0 .

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ऐमलथीया (उपग्रह)

सन् १९९६-९७ में गैलिलेओ यान द्वारा ली गयी ऐमलथीया की झलकी सन् १९७९ में वॉयजर प्रथम द्वारा ली गयी ऐमलथीया की झलकी ऐमलथीया (यूनानी: Αμάλθεια, अंग्रेज़ी: Amalthea) बृहस्पति ग्रह का तीसरा सब से अंदरूनी उपग्रह है। इस उपग्रह की खोज ९ सितम्बर १८९२ में ऍडवर्ड ऍमरसन बर्नार्ड नामक अमेरिकी खगोलशास्त्री ने की थी और यूनानी मिथ्य-कथाओं की एक पारी के नाम पर इसका नाम रखा गया। यह उपग्रह बृहस्पति के छल्लों में स्थित है और ऐमलथीया गोसेमर छल्ले के बाहरी किनारे पर स्थित है। यह छल्ला इसी उपग्रह से उभरी हुई धुल का बना है। यह बृहस्पति की परिक्रमा उस ग्रह से १,८१,००० किमी की दूरी पर करता है। ऐमलथीया के बृहस्पति के इतना पास होने से और उस ग्रह की तुलना में बहुत छोटा होने से बृहस्पति की स्थिरमुखी परिक्रमा करता है, यानि परिक्रमा करते हुए ऐमलथीया का एक ही रुख़ हमेशा बृहस्पति की ओर होता है।, David M. Harland, Springer, 2000, ISBN 978-1-85233-301-0,...

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तारा (नाम)

* तारा (1) बलि की पत्नी और अंगद की माता जो सुषेण नामक वानर की पुत्री थी। बलि की मृत्यु के बाद सुग्रीव ने इसे अपनी पत्नी बना लिया। इनकी गण्ना पंचकन्याओं में की जाती है।.

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तारा (बहुविकल्पी)

तारा शब्द का प्रयोग निम्नलिखित अर्थों में किया जाता है-.

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तारा (रामायण)

लक्ष्मण तारा (सबसे बायें) से मिलते हुये, उसका दूसरा पति सुग्रीव (बायें से दूसरा) तथा हनुमान (सबसे दायें) किष्किन्धा के महल में तारा हिन्दू महाकाव्य रामायण में वानरराज वालि की पत्नी है। तारा की बुद्धिमता, प्रत्युत्पन्नमतित्वता, साहस तथा अपने पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को सभी पौराणिक ग्रन्थों में सराहा गया है। तारा को हिन्दू धर्म ने पंचकन्याओं में से एक माना है। पौराणिक ग्रन्थों में पंचकन्याओं के विषय में कहा गया है:- अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा। पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥ (अर्थात् अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा तथा मन्दोदरी, इन पाँच कन्याओं का प्रतिदिन स्मरण करने से सारे पाप धुल जाते हैं) हालांकि तारा को मुख्य भूमिका में वाल्मीकि रामायण में केवल तीन ही जगह दर्शाया गया है, लेकिन उसके चरित्र ने रामायण कथा को समझनेवालों के मन में एक अमिट छाप छोड़ दी है। जिन तीन जगह तारा का चरित्र मुख्य भूमिका में है, वह इस प्रकार हैं:-.

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तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य

तन्त्र साहित्य अत्यन्त विशाल है। प्राचीन समय के दुर्वासा, अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बृहस्पति, वशिष्ठ, नंदिकेश्वर, दत्तात्रेय आदि ऋषियों ने तन्त्र के अनेकों ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनका विवरण देना यहाँ अनावश्यक है। ऐतिहासिक युग में शंंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्य का नाम उल्लेखयोग्य है। उनके द्वारा रचित 'सुभगोदय स्तुति' एवं 'श्रीविद्यारत्न सूत्र' प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में तांत्रिक साधना एवं साहित्य रचना में जितने विद्वानों का प्रवेश हुआ था उनमें से कुछ विशिष्ट आचार्यो का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है- लक्ष्मणदेशिक: ये शादातिलक, ताराप्रदीप आदि ग्रथों के रचयिता थे। इनके विषय में यह परिचय मिलता है कि ये उत्पल के शिष्य थे। आदि शंकराचार्य: वेदांगमार्ग के संस्थापक सुप्रसिद्ध भगवान शंकराचार्य वैदिक संप्रदाय के अनुरूप तांत्रिक संप्रदाय के भी उपदेशक थे। ऐतिहासिक दृष्टि से पंडितों ने तांत्रिक शंकर के विषय में नाना प्रकार की आलोचनाएं की हैं। कोई दोनों को अभिन्न मानते हैं और कोई नहीं मानते हैं। उसकी आलोचना यहाँ अनावश्यक है। परंपरा से प्रसिद्ध तांत्रिक शंकराचार्य के रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं- किसी-किसी के मत में 'कालीकर्पूरस्तव' की टीका भी शंकराचार्य ने बनाई थी। पृथिवीधराचार्य अथवा 'पृथ्वीधराचार्य: यह शंकर के शिष्कोटि में थे। इन्होंने 'भुवनेश्वरी स्तोत्र' तथा 'भुवनेश्वरी रहस्य' की रचना की थी। भुवनेश्वरी स्तोत्र राजस्थान से प्रकाशित है। वेबर ने अपने कैलाग में इसका उल्लेख किया है। भुवनेश्वरी रहस्य वाराणसी में भी उपलब्ध है और उसका प्रकाशन भी हुआ है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी-अर्चन-पद्धति नाम से एक तीसरा ग्रंथ भी प्रसिद्ध है। चरणस्वामी: वेदांत के इतिहास में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। तंत्र में इन्होंने 'श्रीविद्यार्थदीपिका' की रचना की है। 'श्रीविद्यारत्न-सूत्र-दीपिका' नामक इनका ग्रंथ मद्रास लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इनका 'प्रपंच-सार-संग्रह' भी अति प्रसिद्ध ग्रंथ है। सरस्वती तीर्थ: परमहंस परिब्राजकाचार्य वेदांतिक थे। यह संन्यासी थे। इन्होंने भी 'प्रपंचसार' की विशिष्ट टीका की रचना की। राधव भट्ट: 'शादातिलक' की 'पदार्थ आदर्श' नाम्नी टीका बनाकर प्रसिद्ध हुए थे। इस टीका का रचनाकाल सं॰ 1550 है। यह ग्रंथ प्रकाशित है। राधव ने 'कालीतत्व' नाम से एक और ग्रंथ लिखा था, परंतु उसका अभी प्रकाशन नहीं हुआ। पुण्यानंद: हादी विद्या के उपासक आचार्य पुण्यानंद ने 'कामकला विलास' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उसकी टीका 'चिद्वल्ली' नाम से नटनानंद ने बनाई थी। पुण्यानंद का दूसरा ग्रंथ 'तत्वविमर्शिनी' है। यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। अमृतानंदनाथ: अमृतानदनाथ ने 'योगिनीहृदय' के ऊपर दीपिका नाम से टीकारचना की थी। इनका दूसरा ग्रंथ 'सौभाग्य सुभगोदय' विख्यात है। यह अमृतानंद पूर्ववर्णित पुणयानंद के शिष्य थे। त्रिपुरानंद नाथ: इस नाम से एक तांत्रिक आचार्य हुए थे जो ब्रह्मानंद परमहंस के गुरु थे। त्रिपुरानंद की व्यक्तिगत रचना का पता नहीं चलता। परंतु ब्रह्मानंद तथा उनके शिष्य पूर्णानंद के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। सुंदराचार्य या सच्चिदानंद: इस नाम से एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ था। यह जालंधर में रहते थे। इनके शिष्य थे विद्यानंदनाथ। सुंदराचार्य अर्थात् सच्चिदानंदनाथ की 'ललितार्चन चंद्रिका' एवं 'लधुचंद्रिका पद्धति' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। विद्यानंदनाथ का पूर्वनाम श्रीनिवास भट्ट गोस्वामी था। यह कांची (दक्षिण भारत) के निवासी थे। इनके पूर्वपुरुष समरपुंगव दीक्षित अत्यंत विख्यात महापुरुष थे। श्रीनिवास तीर्थयात्रा के निमित जालंधर गए थे और उन्होंने सच्चिदानंदनाथ से दीक्षा ग्रहण कर विद्यानंद का नाम धारण किया। गुरु के आदेश से काशी आकर रहने लगे। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- 'शिवार्चन चंद्रिका', 'क्रमरत्नावली', 'भैरवार्चापारिजात', 'द्वितीयार्चन कल्पवल्ली', 'काली-सपर्या-क्रम-कल्पवल्ली', 'पंचमेय क्रमकल्पलता', 'सौभाग्य रत्नाकर' (36 तरंग में),'सौभग्य सुभगोदय', 'ज्ञानदीपिका' और 'चतु:शती टीका अर्थरत्नावली'। सौभाग्यरत्नाकर, ज्ञानदीपिका और अर्थरत्नावली सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित हुई हैं। नित्यानंदनाथ: इनका पूर्वनाम नाराणय भट्ट है। उन्होंने दुर्वासा के 'देवीमहिम्न स्तोत्र' की टीका की थी। यह तन्त्रसंग्रह में प्रकाशित है। तन्त्रसंग्रह सम्पूर्णानन्दविश्वविद्यालय से प्रकाशित है। उनका 'ताराकल्पलता पद्धति' नामक ग्रंथ भी मिलता है। सर्वानंदनाथ: इनका नाम उल्लेखनीय है। यह 'सर्वोल्लासतंत्र' के रचयिता थे। इनका जन्मस्थान मेहर प्रदेश (बांग्लादेश) था। ये सर्वविद्या (दस महाविद्याओं) के एक ही समय में साक्षात् करने वाले थे। इनका जीवनचरित् इनके पुत्र के लिखे 'सर्वानंद तरंगिणी' में मिलता है। जीवन के अंतिम काल में ये काशी आकर रहने लगे थे। प्रसिद्ध है कि यह बंगाली टोला के गणेश मोहल्ला के राजगुरु मठ में रहे। यह असाधारण सिद्धिसंपन्न महात्मा थे। निजानंद प्रकाशानंद मल्लिकार्जुन योगीभद्र: इस नाम से एक महान सिद्ध पुरुष का पता चलता है। यह 'श्रीक्रमोत्तम' नामक एक चार उल्लास से पूर्ण प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। श्रीक्रमोत्तम श्रीविद्या की प्रासादपरा पद्धति है। ब्रह्मानंद: इनका नाम पहले आ चुका है। प्रसिद्ध है कि यह पूर्णनंद परमहंस के पालक पिता थे। शिक्ष एवं दीक्षागुरु भी थे। 'शाक्तानंद तरंगिणी' और'तारा रहस्य' इनकी कृतियाँ हैं। पूर्णानंद: 'श्रीतत्त्वचिंतामणि' प्रभृति कई ग्रंथों के रचयिता थे। श्रीतत्वचिन्तामणि का रचनाकाल 1577 ई॰ है। 'श्यामा अथवा कालिका रहस्य', 'शाक्त क्रम', 'तत्वानंद तरंगिणी', 'षटकर्मील्लास' प्रभृति इनकी रचनाएँ हैं। प्रसिद्ध 'षट्चक्र निरूपण', 'श्रीतत्वचितामणि' का षष्ठ अध्याय है। देवनाथ ठाकुर तर्कपंचानन: ये 16वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। इन्होंने 'कौमुदी' नाम से सात ग्रंथों की रचना की थी। ये पहले नैयायिक थे और इन्होंने 'तत्वचिंतामणि' की टीका आलोक पर परिशिष्ट लिखा था। यह कूचविहार के राजा मल्लदेव नारायण के सभापंडित थे। इनके रचित 'सप्तकौमुदी' में 'मंत्रकौमुदी' एवं 'तंत्र कौमुदी' तंत्रशास्त्र के ग्रंथ हैं। इन्होंने 'भुवनेश्वरी कल्पलता' नामक ग्रंथ की भी रचना की थी। गोरक्ष: प्रसिद्ध विद्वान् एवं सिद्ध महापुरुष थे। 'महार्थमंजरी' नामक ग्रंथरचना से इनकी ख्याति बढ़ गई थी। इनके ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं- "महार्थमंजरी' और उसकी टीका 'परिमल', 'संविदुल्लास', 'परास्तोत्र', 'पादुकोदय', 'महार्थोदय' इत्यादि। 'संवित्स्तोत्र' के नाम से गोरक्ष के गुरु का भी एक ग्रंथ था। गोरक्ष के गुरु ने 'ऋजु विमर्शिनी' और 'क्रमवासना' नामक ग्रंथों की भी रचना की थी। सुभगानंद नाथ और प्रकाशानंद नाथ: सुभगांनंद केरलीय थे। इनका पूर्वनाम श्रीकंठेश था। यह कश्मीर में जाकर वहाँ के राजगुरु बन गए थे। तीर्थ करने के लिये इन्होंने सेतुबंध की यात्रा भी की जहाँ कुछ समय नृसिंह राज्य के निकट तंत्र का अध्ययन किया। उसके बाद कादी मत का 'षोडशनित्या' अर्थात् तंत्रराज की मनोरमा टीका की रचना इन्होंने गुरु के आदेश से की। बाईस पटल तक रचना हो चुकी थी, बाकी चौदह पटल की टीका उनके शिष्य प्रकाशानंद नाथ ने पूरी की। यह सुभगानंद काशी में गंगातट पर वेद तथा तंत्र का अध्यापन करते थे। प्रकाशानंद का पहला ग्रंथ 'विद्योपास्तिमहानिधि' था। इसका रचनाकाल 1705 ई॰ है। इनका द्वितीय ग्रंथ गुरु कृत मनोरमा टीका की पूर्ति है। उसका काल 1730 ई॰ है। प्रकाशानंद का पूर्वनाम शिवराम था। उनका गोत्र 'कौशिक' था। पिता का नाम भट्टगोपाल था। ये त्र्यंबकेश्वर महादेव के मंदिर में प्राय: जाया करते थे। इन्होंने सुभगानंद से दीक्षा लेकर प्रकाशानंद नाम ग्रहण किया था। कृष्णानंद आगमबागीश: यह बंग देश के सुप्रसिद्ध तंत्र के विद्वान् थे जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'तंत्रसार' है। किसी किसी के मतानुसार ये पूर्णनंद के शिष्य थे परंतु यह सर्वथा उचित प्रतीत नहीं होता। ये पश्वाश्रयी तांत्रिक थे। कृष्णानंद का तंत्रसार आचार एवं उपासना की दृष्टि से तंत्र का श्रेष्ठ ग्रंथ है। महीधर: काशी में वेदभाष्यकार महीधर तंत्रशास्त्र के प्रख्यात पंडित हुए हैं। उनके ग्रंथ 'मन्त्रमहोदधि' और उसकी टीका अतिप्रसिद्ध हैं (रचनाकाल 1588 ई॰)। नीलकंठ: महाभारत के टीकाकार रूप से महाराष्ट्र के सिद्ध ब्रह्मण ग्रंथकार। ये तांत्रिक भी थे। इनकी बनाई 'शिवतत्वामृत' टीका प्रसिद्ध हैं। इसका रचनाकाल 1680 ई॰ है। आगमाचार्य गौड़ीय शंकर: आगमाचार्य गौड़ीय शंकर का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इनके पिता का नाम कमलाकर और पितामह का लंबोदर था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ तारा-रहस्य-वृत्ति और शिवार्च(र्ध)न माहात्म्य (सात अध्याय में) हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित और भी दो-तीन ग्रंथों का पता चलता है जिनकी प्रसिद्धि कम है। भास्कर राय: 18वीं शती में भास्कर राय एक सिद्ध पुरुष काशी में हो गए हैं जो सर्वतंत्र स्वतंत्र थे। इनकी अलौकिक शक्तियाँ थी। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- सौभाग्य भास्कर' (यह ललिता सहस्र-नाम की टीका है, रचनाकाल 1729 ई0) 'सौभाग्य चंद्रोदय' (यह सौभाग्यरत्नाकर की टीका है।) 'बरिबास्य रहस्य', 'बरिबास्यप्रकाश'; 'शांभवानंद कल्पलता'(भास्कर शाम्भवानन्दकल्पलता के अणुयायी थे - ऐसा भी मत है), 'सेतुबंध टीका' (यह नित्याषोडशिकार्णव पर टीका है, रचनाकाल 1733 ई॰); 'गुप्तवती टीका' (यह दुर्गा सप्तशती पर व्याख्यान है, रचनाकाल 1740 ई॰); 'रत्नालोक' (यह परशुराम 'कल्पसूत्र' पर टीका है); 'भावनोपनिषद्' पर भाष्य प्रसिद्ध है कि 'तंत्रराज' पर भी टीका लिखी थी। इसी प्रकार 'त्रिपुर उपनिषद्' पर भी उनकी टीका थी। भास्कर राय ने विभिन्न शास्त्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे थे। प्रेमनिधि पंथ: इनका निवास कूर्माचल (कूमायूँ) था। यह घर छोड़कर काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के उपासक थे। थोड़ी अवस्था में उनकी स्त्री का देहांत हुआ। काशी आकर उन्होंने बराबर विद्यासाधना की। उनकी 'शिवतांडव तंत्र' की टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ। उन्होने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी थीं। प्रसिद्व है कि प्राणमंजरी ने 'सुदर्शना' नाम से अपने पुत्र सुदर्शन के देहांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह तंत्रराज की टीका है। प्रेमनिधि ने 'शिवतांडव' टीका ' मल्लादर्श', 'पृथ्वीचंद्रोदय' और 'शारदातिलक' की टीकाएँ लिखी थीं। उनके नाम से 'भक्तितरंगिणी', 'दीक्षाप्रकाश' (सटीक) प्रसिद्ध है। कार्तवीर्य उपासना के विषय में उन्होंने 'दीपप्रकाश नामक' ग्रथ लिखा था। उनके 'पृथ्वीचंद्रोदय' का रचनाकाल 1736 ई॰ है। कार्तवीर्य पर 'प्रयोग रत्नाकर' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है। 'श्रीविद्या-नित्य-कर्मपद्धति-कमला' तंत्रराज से संबंध रखता है। वस्तुत: यह ग्रंथ भी प्राणमंजरी रचित है। उमानंद नाथ: यह भास्कर राय के शिष्य थे और चोलदेश के महाराष्ट्र राजा के सभापंडित थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 1.

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त्वष्ट्र

त्वष्टा या त्वष्ट्र या त्वष्टृ संस्कृत साहित्य में जाति और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का बोध कराने के लिये अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत (प्रथम, 95, 14-15) तथा विष्णुपुराण (प्रथम अंश, 15, 132) के अनुसार 12 आदित्यों में 11 का नाम त्वष्टा है। उसका हिंदू धर्म में प्रमुख स्थान है। इस देवता के संबंध में एक देवकथा मिलती है (रघु षष्ट, 32) कि उसने अपने पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य से कर दिया किंतु संज्ञा सूर्य का तेज न सहन कर सकी और पिता के पास लौट आई। त्वष्टा ने सूर्य के प्रभामण्डल में थोड़ी कांट छांट कर दी, तब संज्ञा का उस अल्पतेजस सूर्य के पास रहना संभव हो गया। धार्मिक हिंदुओं का ऐसा विश्वास है कि सूर्य के कटे हुए भाग से विष्णु का चक्र और शिव का त्रिशूल बना। महाभारत के एक अन्य स्थल में (पचंम 9। 3) प्रजापति को तथा ऋग्वेद के सायण भाष्य (प्रथम, 117। 22) में इंद्र को त्वष्टा कहा गया है। त्वष्टा के मूल कार्य, सूर्य को छांटने, के कारण धीरे धीरे उसका अर्थ बढ़ई से लिया जाने लगा (हेमचंद्र और अमरसिंह के शब्दकोश), जो काष्ठादिकों को स्वरूप प्रदान करता है। इसी कारण त्वष्टा से विश्वकर्मा (प्रजापति अथवा बढ़ई) का भी बोध हुआ। ऋग्वेद के दसवे मंडल व पुरुष सूक्त में उनका उल्लेख हुआ है। वे दिव्य लोहार व धातु से शस्त्र व औज़ार निर्माण करते हैं। उन्हें इन्द्र के वज्र का निर्माता और सोम का रक्षक कहा गया है। ऋग्वेद में उनका ६५ बार ज़िक्र आता है और उन्हें जानवरों व मानवों के शरीरों का रचियता भी बुलाया गया है। संतान पाने वालों के लिये उन्हें गर्भ-पति (यानि गर्भ का अधिदेवता) कहा गया है। उनके लिये रथकार (रथ बनाने वाला) और तक्षा भी नाम उपयोग हुए हैं। इन देवता के नाम पर बृहस्पति ग्रह के आयो चंद्रमा पर एक ज्वालामुखीय क्षेत्र का नाम रखा गया है। .

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त्वष्ट्र पैटरे

त्वष्ट्र पैटरे, जिसे त्वश्तर पैटरे (Tvashtar Paterae) भी उच्चारित करते हैं, बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा आयो पर स्थित एक ज्वालामुखीय क्षेत्र है। यह उस चंद्रमा के उत्तरी ध्रुव के पास स्थित है और इसमें ज्वालामुखीय क्रेटरों की एक शृंखला मौजूद है। इसका नाम त्वष्ट्र नामक हिन्दू ऋग्वैदिक देवता पर रखा गया है जो लोहारों के अधिदेवता माने जाते हैं। गैलिलेयो (अंतरिक्ष यान) ने कई सालों तक इस क्षेत्र का अध्ययन किया था जिस दौरान यहाँ एक स्थल से एक २५ किलोमीटर चौड़ी दरार से लावा फटा जो सतह से १ से २ किमी की ऊँचाई तक पहुँच गया। देखने में यह एक २५ किमी चौड़े और १-२ किमी ऊँचे परदे जैसा लगा। कुछ समय बाद यहाँ एक गैस का फ़व्वारा फटा जो सतह से ३८५ किमी की ऊँचाई तक पहुँच गया और जिसकी सामग्री विस्फोट स्थल से ७०० किमी दूर तक के स्थानों को ढक गई। .

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थेमीस्टो (उपग्रह)

थेमीस्टो (Themisto), (ग्रीक से: Θεμιστώ), बृहस्पति का एक छोटा अनियमित उपग्रह है। 1975 में खोज हुई, खो गया, उसके बाद 2000 में फिर से खोजा गया। यह ज्यूपिटर XVIII के रूप में भी जाना जाता है। .

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थीबी (उपग्रह)

सन् १९९६-९७ में गैलिलेओ यान द्वारा ली गयी थीबी की झलकी थीबी (यूनानी: Θήβη, अंग्रेज़ी: Thebe) बृहस्पति ग्रह का चौथा सब से अंदरूनी उपग्रह है। इस उपग्रह की खोज ५ मार्च १९७९ को स्टीफ़न सायनोट (Stephen Synnott) नामक अमेरिकी खगोलशास्त्री ने वॉयजर प्रथम द्वारा ली गयी तस्वीरों का अध्ययन कर के की थी। यह उपग्रह बृहस्पति के छल्लों में स्थित है और थीबी गोसेमर छल्ले के बाहरी किनारे पर स्थित है। यह छल्ला इसी उपग्रह से उभरी हुई धुल का बना है। यह बृहस्पति की परिक्रमा उस ग्रह से २,१८,००० किमी की दूरी पर करता है। थीबी बृहस्पति के इतना पास होने से और उस ग्रह की तुलना में बहुत छोटा होने से बृहस्पति की स्थिरमुखी परिक्रमा करता है, यानि परिक्रमा करते हुए थीबी का एक ही रुख़ हमेशा बृहस्पति की ओर होता है।, David M. Harland, Springer, 2000, ISBN 978-1-85233-301-0 .

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द्विनेत्री दूरदर्शी

एक विशिष्ट पोर्रो प्रिज़्म द्विनेत्री दूरदर्शी की डिजाइन फादर चेरुबिन डी'ऑर्लियंस द्वारा निर्मित द्विनेत्री दूरदर्शी, 1681, मुसी डेस कला एट मैटियर्स द्विनेत्री (binocular), फील्ड ग्लास अथवा द्विनेत्री दूरदर्शी (binocular telescope) समान अथवा दर्पण सममिति वाले दूरदर्शी-युग्म है, जो साथ-साथ लगे होते हैं तथा एक दिशा में देखने के लिए परिशुद्धता से लगाए जाते हैं। एक साधरण द्विनेत्री दूरदर्शी, गैलिलिओ किस्म के दो दूरदर्शियों का युग्म होता है। द्विनेत्री का उपयोग पार्थिव वस्तुओं के देखने में होता है, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि इस प्रकार के द्विनेत्री में वस्तु का सीधा प्रतिबिंब बने। गैलिलियों किस्म के दूरदर्शी सीधा प्रतिबिंब बनाते हैं। इसलिए साधारण द्विनेत्री दूरदर्शी के निर्माण में इसी प्रकार के दूरदर्शी का उपयोग होता है। साधारण द्विनेत्री दूरदर्शी को नाट्य दूरबीन कहते हैं। टेलिस्कोप (मोनोक्युलर) के विपरीत दूरबीन (बाइनोक्युलर) उपयोगकर्ता को त्रि-आयामी छवि प्रस्तुत कराती है: अपेक्षाकृत नज़दीक की वस्तुओं को देखते समय दर्शक की दोनों आंखों के लिए थोड़े से अलग दृष्टिकोण से छवियां प्रस्तुत होती हैं जो कि मिल कर गहराई का प्रभाव प्रस्तुत करती हैं। मोनोक्युलर टेलिस्कोप के विपरीत इसमें भ्रम से बचने के लिए एक आंख को बंद अथवा ढकने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। दोनों आंखों के प्रयोग से दृष्टिसंबंधी तीव्रता (रिज़ोल्यूशन) काफी बढ़ जाती है और ऐसा काफी दूर की वस्तुओं के लिए भी होता है जहां गहराई का आभास स्पष्ट नहीं होता। .

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देवयानी

ययाति के साथ खड़ी देवयानी, शर्मिष्ठा से प्रश्न करती हुई देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री, जिसे अपने पिता के शिष्य कच से प्रेम हो गया था। कच बृहस्पति का पुत्र था जो शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिए आया था। जब उसने देवयानी का प्रेमप्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया तो देवयानी ने उसे शाप दिया कि तुम्हारी विद्या तुम्हें फलवती न होगी। इसपर कच ने भी शाप दिया कि कोई भी ऋषिपुत्र तुम्हारा पाणिहग्रहण न करेगा। देवयानी और उसकी सखी शर्मिष्ठा की कथा प्रसिद्ध है। देवयानी के पति ययाति शर्मिष्ठा से प्रेम करने लगे जिससे वह अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौट गई। ययाति की वृद्धत्व का शाप मिला जिसे (शर्मिष्ठा से उत्पन्न) उनके एक पुत्र पुरु ने स्वयं स्वीकार किया। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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धौम्य

धौम्य नाम के कई व्यक्ति हुए हैं जिनमें एक धर्मशास्त्र के ग्रंथ के लेखक हैं। पर सबसे प्रसिद्ध हैं देवल के छोटे भाई जो पांडवों के कुलपुरोहित थे। ये अपोद ऋषि के पुत्र थे। इसलिये वे बहुधा आयोद धौम्य के नाम से जाने जाते हैं। आज से ५००० वर्ष पूर्व द्वापरयुग में हुए ऋषि धौम्य पांडवो के पुरोहित, कृष्ण प्रेमी और महान शिवभक्त थे। उन्होंने उत्कोचक तीर्थ में निवास करके सालों तक तपश्वर्या की थी। वे प्रजापति कुशाश्व और धिषणा के पुत्र थे और इस सम्बन्ध से प्रसिद्ध ऋषि देवल, वेदशिरा आदि के भाई थे। उनको देवगुरु बृहस्पति के समतूल्य सम्मान दिया जाता हैं। वे पांडवो के कुलगुरु तथा उपमन्यु, आरुणि, पांचाल और वैद के गुरु थे। घौम्य पांडवो के परम हितैशी ही नहीं, उनके समस्त कार्यों से जुडे़ हुये थे, ऐसा माना जाता है। .

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नारद मुनि

नारद मुनि, (तमिल:தேவர்ஷி நாரத) हिन्दु शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया । वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर किया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - देवर्षीणाम् च नारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र (जिसे नारद-पांचरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है। नारद जी मुनियों के देवता थे। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य, क्रतु, पुलह, प्रत्यूष, प्रभास और कश्यप - इनके पुत्रों को देवर्षि का पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण, पुलह के पुत्र कर्दम, पुलस्त्य के पुत्र कुबेर, प्रत्यूष के पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारद जी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णत:घटित होते हैं। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है - देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, क‌र्त्तव्य-अक‌र्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणों में एक नारदोक्त पुराण; बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराण में वर्णित है कि श्री नारद जी ने बृहत्कल्प-प्रसंग में जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, २५,००० श्लोकों का वह महाग्रन्थ ही नारद महापुराण है। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण २२,००० श्लोकों वाला है। ३,००० श्लोकों की न्यूनता प्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराण में लगभग ७५० श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वांगीण विवेचना की गई है। नारदसंहिता के नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रन्थ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारद जी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारद जी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं। .

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नवग्रह

ग्रह (संस्कृत के ग्रह से - पकड़ना, कब्जे में करना) माता भूमिदेवी (पृथ्वी) के प्राणियों पर एक 'ब्रह्मांडीय प्रभावकारी' है। हिन्दू ज्योतिष में नवग्रह (संस्कृत: नवग्रह, नौ ग्रह या नौ प्रभावकारी) इन प्रमुख प्रभावकारियों में से हैं। राशि चक्र में स्थिर सितारों की पृष्ठभूमि के संबंध में सभी नवग्रह की सापेक्ष गतिविधि होती है। इसमें ग्रह भी शामिल हैं: मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, और शनि, सूर्य, चंद्रमा, और साथ ही साथ आकाश में अवस्थितियां, राहू (उत्तर या आरोही चंद्र आसंधि) और केतु (दक्षिण या अवरोही चंद्र आसंधि).

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नक्षत्र

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुड़े हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र सूची अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। .

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न्यू होराइज़न्स

न्यू होराइज़न्स (अंग्रेज़ी: New Horizons, हिंदी अर्थ: "नए क्षितिज") अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसन्धान संस्था नासा का एक अंतरिक्ष शोध यान है जो हमारे सौर मंडल के बाहरी बौने ग्रह यम (प्लूटो) के अध्ययन के लिये छोड़ा गया था। इस यान का प्रक्षेपण 19 जनवरी 2006 किया गया था जो नौ वर्षों के बाद 14 जुलाई 2015 को प्लूटो के सबसे नजदीक से होकर गुजरा। यह प्लूटो और उसके पांचों ज्ञात उपग्रहों - शैरन, निक्स, हाएड्रा, स्टायक्स और ऍस/२०११ पी १ (S/2011 P 1) के आँकड़े भेजेगा। इसके बाद अगर कोई अन्य काइपर घेरे की वस्तु देखने योग्य मिलती है तो संभव है की इस यान के द्वारा उसके पास से भी निकलकर जानकारी और तस्वीरें हासिल की जा सकें। न्यू होराइजन्स यान को रॉकेट के ऊपर लगाकर १९ जनवरी २००६ को छोड़ा गया था। ७ अप्रैल २००६ को इसने मंगल ग्रह की कक्षा (ऑरबिट) पार की, २८ फ़रवरी २००७ को बृहस्पति ग्रह की, ८ जून २००८ को शनि ग्रह की और १८ मार्च २०११ को अरुण ग्रह (यूरेनस) की। इसे छोड़ने की गति किसी भी मानव कृत वस्तु से अधिक रही थी - अपने आखरी रॉकेट के बंद होने तक इसकी रफ़्तार १६.२६ किलोमीटर प्रति सैकिंड पहुँच चुकी थी। .

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नेहरू तारामंडल, दिल्ली

300px नेहरू तारामंडल तीन मूर्ति भवन में वह जगह है जहां जाकर ब्रह्मांड, तारों, सितारों और खगोलीय घटनाओं से जुड़ी जिज्ञासा को शांत कर सकते हैं। भारत के अन्य शहरों के तारामंडलों की अपेक्षा इस तारामंडल के पास बहुत ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं तो भी वह लोगों को इस रहस्यमय दुनिया की झलक दिखाता है। नेहरू तारामंडल की कल्पना एवं योजना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बनायी थी। वे चाहती थीं कि बच्चों में विज्ञान को बढ़ावा दिया जाए। जवाहर लाल नेहरू का साइंस और बच्चों में रुझान था। इसी को देखते हुए इंदिरा गांधी ने सोचा कि उन्हीं के नाम पर कुछ ऐसा किया जाए जिसमें बच्चों और साइंस दोनों को लाभ हो। सो, इस तरह नेहरू तारामंडल अस्तित्व में आया। तारामंडल जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल फंड के पैसे से बनाया गया था पर आज इसे नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी चलाती है। तारामंडल को बनाने की शुरुआत सन् १९८२ में हुई थी और सन् १९८४ में इसका पहला प्रोग्राम शुरू कर दिया गया था। इसका उद्घाटन भी खुद इंदिरा गांधी ने किया था। पहले शो का नाम था अवर कॉस्मिक हेरिटेज। इस शो में ब्रह्मांड के बनने के बारे में अब तक मान्य सिद्घांत बिग बैंग के जरिए ग्रहों, उपग्रहों और आकाशगंगा के अस्तित्व में आने की कहानी बताई गई थी। तारामंडल के पहले डायरेक्टर कर्नल सिंह थे। उनके बाद डॉ॰ निरुपमा राघवन आईं और आज इसकी डायरेक्टर हैं डॉ॰ एन.

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पलायन वेग

कक्षाओं में पृथ्वी की परिक्रमा करने लगती हैं, केवल E की गति पलायन वेग से अधिक थी और वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षक जकड़ तोड़कर अंतरिक्ष में निकल जाती है भौतिकी में किसी वस्तु (जैसे की पृथ्वी) का पलायन वेग उस वेग को कहते हैं जिसपर यदि कोई दूसरी वस्तु (जैसे की कोई रॉकेट) पहली वस्तु से रवाना हो तो उसके गुरुत्वाकर्षण की जकड़ से बाहर पहुँच सकती है। यदि दूसरी वस्तु की गति पलायन वेग से कम हो तो वह या तो पहली वस्तु के गुरुत्वाकर्षक क्षेत्र में ही रहती है - या तो वह वापस आकर पहली वस्तु पर गिर जाती है या फिर उसके गुरुत्व क्षेत्र में सीमित रहकर किसी कक्षा में उसकी परिक्रमा करने लगती है। .

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पायोनियर एच

पायोनियर एच बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान अभियान था। यह अभियान रद्द हो चुका है। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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पायोनियर कार्यक्रम

१९७१ में निर्मित होता हुआ पायोनियर १० यान पायोनियर कार्यक्रम संयुक्त राज्य अमेरिका के अंतरिक्ष शोध यानों की शृंखला थी जिसने हमारे सौर मंडल के कुछ ग्रहों पर अनुसन्धान किया। वैसे तो इस कार्यक्रम में बहुत से यान और रॉकेट शामिल थे लेकिन इनमें से पायोनियर १० और पायोनियर ११ यान सबसे प्रसिद्ध हैं जिन्होंने मानव इतिहास में सबसे पहले बृहस्पति ग्रह और शनि ग्रह के पास से गुज़रकर उन ग्रहों की तस्वीरें वापस पृथ्वी भेजीं।, Joseph A. Angelo, Infobase Publishing, 2007, ISBN 978-0-8160-5773-3 .

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पायोनियर १०

१९७३ में बृहस्पति ग्रह के पास से गुज़रते हुए पायोनियर १० का काल्पनिक चित्रण पायोनियर १० एक २५८ किलोग्राम का अमेरिकी अंतरिक्ष यान है। इसे २ मार्च १९७२ को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसन्धान संस्था नासा ने एक ऐटलस-सेंटौर रॉकेट के ज़रिये अंतरिक्ष में छोड़ा। १५ जुलाई १९७२ से १५ फ़रवरी १९७३ के काल में यह हमारे सौर मंडल के क्षुद्रग्रह घेरे (ऐस्टरौएड बॅल्ट) को पार करने वाला पहला मानव-कृत यान बना। ६ नवम्बर १९७३ को इसने बृहस्पति ग्रह की तस्वीरें लेना शुर किया और ४ दिसम्बर १९७३ को बृहस्पति से केवल १,३२,२५२ किमी की दूरी पर पहुँचकर फिर उस से आगे निकल गया। चलते-चलते यह हमारे सौर मंडल के बाहरी क्षेत्रों में जा पहुँचा है। कम ऊर्जा के कारण २३ जनवरी २००३ के बाद इस यान का पृथ्वी से संपर्क टूट गया। उस समय यह पृथ्वी से १२ अरब किमी (८० खगोलीय ईकाईयों) की दूरी पर था।, Joseph A. Angelo, Infobase Publishing, 2007, ISBN 978-0-8160-5773-3,...

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पायोनियर ११

शनि ग्रह के पास से गुज़रते हुए पायोनियर ११ का काल्पनिक चित्रण पायोनियर ११ एक २५९ किलोग्राम का अमेरिकी अंतरिक्ष यान है। इसे ६ अप्रैल १९७३ को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसन्धान संस्था नासा ने एक रॉकेट के ज़रिये अंतरिक्ष में छोड़ा। हमारे सौर मंडल के क्षुद्रग्रह घेरे (ऐस्टरौएड बॅल्ट) और बृहस्पति ग्रह से गुजरने वाला यह दूसरा मानव-कृत यान था। २ दिसम्बर १९७४ में यह बृहस्पति से केवल ४३,००० किमी की दूरी से निकला। १९७९ में यह पहला यान बना जिसने शनि ग्रह के समीप जाकर उसपर अनुसन्धान किया और उसकी तस्वीरें वापस पृथ्वी भेजीं। चलते-चलते यह हमारे सौर मंडल के बाहरी क्षेत्रों में जा पहुँचा है। कम ऊर्जा के कारण ३० नवम्बर १९९५ के बाद इस यान का पृथ्वी से संपर्क टूट गया।, Joseph A. Angelo, Infobase Publishing, 2007, ISBN 978-0-8160-5773-3,...

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पितृमेध

पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। .

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पुखराज

पुखराज एक बहुमूल्य रत्न होता है। बृहस्पति ग्रह से संबंधित रत्न, पुखराज को संस्कृत में पुष्पराग, हिन्दी में पुखराज कहा जाता है। चौबीस घंटे तक दूध में रखने पर यदि क्षीणता एवं फीकापन न आए तो असली होता है। पुखराज चिकना, चमकदार, पानीदार, पारदर्शी एवं व्यवस्थित किनारे वाला होता है। यह एल्युमिनियम और फ्लोरीन सहित सिलिकेट खनिज होता है जिसका रासायनिक सूत्र है Al2SiO4(F,OH)2। .

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प्रकाश का वेग

प्रकाश की चाल (speed of light) (जिसे प्राय: c से निरूपित किया जाता है) एक भौतिक नियतांक है। निर्वात में इसका सटीक मान 299,792,458 मीटर प्रति सेकेण्ड है जिसे प्राय: 3 लाख किमी/से.

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प्रकाशीय दूरदर्शी

आठ-इंच वाला अपवर्तक दूरदर्शी प्रकाशीय दूरदर्शी (optical telescope) ऐसा दूरदर्शक है जो दूरस्थ पिण्ड का आवर्धित प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिये विद्युतचुम्बकीय स्पेक्ट्रम के दृश्य भाग का सहारा लेता है। (न कि एक्स-रे या रेडियो तरंगों का)। इससे प्राप्त प्रतिबिम्ब को सीधे आंख से देखा जा सकता है, फोटोग्राफ लिया जा सकता है या इलेक्ट्रानिक इमेज सेंसरों की सहायता से आंकड़े संचित किये जा सकते हैं। प्रकाशीय दूरदर्शी मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-.

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पृथ्वी का गुरूत्व

नासा (NASA) के ग्रेस (GRACE) मिशन द्वारा मापा गया धरती का गुरुत्व पृथ्वी के सतह के निकट किसी पिण्ड के इकाई द्रव्यमान पर लगने वाला पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी का गुरुत्व कहलाता है। इसे g के रूप में निरूपित किया जाता है। यदि कोई पिण्ड धरती के सतह के निकट गुरुत्वाकरण बल के अतिरिरिक्त किसी अन्य बल की अनुपस्थिति में स्वतंत्र रूप से गति कर रही हो तो उसका त्वरण g के बराबर होगा। इसका मान लगभग 9.81 m/s2होता है। (ध्यान रहे कि G एक अलग है; यह गुरूत्वीय नियतांक है।) g का मान पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न होता है। g को त्वरण की भातिं भी समझा जा सकता है। यदि कोई पिंड पृथ्वी से ऊपर ले जाकर छोड़ा जाय और उस पर किसी प्रकार का अन्य बल कार्य न करे तो वह सीधा पृथ्वी की ओर गिरता है और उसका वेग एक नियत क्रम से बढ़ता जाता है। इस प्रकार पृथ्वी के आकर्षण बल के कारण किसी पिंड में उत्पन्न होने वाली वेगवृद्धि या त्वरण को गुरूत्वजनित त्वरण कहते हैं। इसे अंग्रेजी अक्षर g द्वारा व्यक्त किया जाता है। ऊपर कहा जा चुका है कि इसे किसी स्थान पर गुरूत्व की तीव्रता भी कहते हैं। .

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पृथ्वी का इतिहास

पृथ्वी के इतिहास के युगों की सापेक्ष लंबाइयां प्रदर्शित करने वाले, भूगर्भीय घड़ी नामक एक चित्र में डाला गया भूवैज्ञानिक समय. पृथ्वी का इतिहास 4.6 बिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी ग्रह के निर्माण से लेकर आज तक के इसके विकास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं और बुनियादी चरणों का वर्णन करता है। प्राकृतिक विज्ञान की लगभग सभी शाखाओं ने पृथ्वी के इतिहास की प्रमुख घटनाओं को स्पष्ट करने में अपना योगदान दिया है। पृथ्वी की आयु ब्रह्माण्ड की आयु की लगभग एक-तिहाई है। उस काल-खण्ड के दौरान व्यापक भूगर्भीय तथा जैविक परिवर्तन हुए हैं। .

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फलित ज्योतिष

फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का भी बोध होता है, तथापि साधारण लोग ज्योतिष विद्या से फलित विद्या का अर्थ ही लेते हैं। ग्रहों तथा तारों के रंग भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखलाई पड़ते हैं, अतएव उनसे निकलनेवाली किरणों के भी भिन्न भिन्न प्रभाव हैं। इन्हीं किरणों के प्रभाव का भारत, बैबीलोनिया, खल्डिया, यूनान, मिस्र तथा चीन आदि देशों के विद्वानों ने प्राचीन काल से अध्ययन करके ग्रहों तथा तारों का स्वभाव ज्ञात किया। पृथ्वी सौर मंडल का एक ग्रह है। अतएव इसपर तथा इसके निवासियों पर मुख्यतया सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों और चंद्रमा का ही विशेष प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी विशेष कक्षा में चलती है जिसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। पृथ्वी फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का निवासियों को सूर्य इसी में चलता दिखलाई पड़ता है। इस कक्षा के इर्द गिर्द कुछ तारामंडल हैं, जिन्हें राशियाँ कहते हैं। इनकी संख्या है। मेष राशि का प्रारंभ विषुवत् तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु से होता है। अयन की गति के कारण यह बिंदु स्थिर नहीं है। पाश्चात्य ज्योतिष में विषुवत् तथा क्रातिवृत्त के वर्तमान संपात को आरंभबिंदु मानकर, 30-30 अंश की 12 राशियों की कल्पना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आनेवाले संपात बिंदु ही मेष आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य गणनाप्रणाली तथा भारतीय गणनाप्रणाली में लगभग 23 अंशों का अंतर पड़ जाता है। भारतीय प्रणाली निरयण प्रणाली है। फलित के विद्वानों का मत है कि इससे फलित में अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि इस विद्या के लिये विभिन्न देशों के विद्वानों ने ग्रहों तथा तारों के प्रभावों का अध्ययन अपनी अपनी गणनाप्रणाली से किया है। भारत में 12 राशियों के 27 विभाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। ये हैं अश्विनी, भरणी आदि। फल के विचार के लिये चंद्रमा के नक्षत्र का विशेष उपयोग किया जाता है। .

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बार्हस्पत्य सूत्र

बार्हस्पत्य सूत्र देवगुरु बृहस्पति का ग्रन्थ है। बृहस्पति चार्वाक दर्शन के प्रणेता माने जाते हैं। यह ग्रंथ अप्राप्य माना जाता है। सर्व दर्शन संग्रह के पहले अध्याय में चार्वाक मत के सिद्धांतों का सार मिलता है। इसे लोकायत दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। भूमि, जल, अग्नि, वायु जिनका प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है, इनके अतिरिक्त संसार में कुछ भी नहीं है। इन चार तत्वों के समिश्रण से ही चेतना शक्ति और बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। चार्वाक के अनुसार यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। अर्थात जब तक जीवन है सुखों का उपभोग कर लेना चाहिए। भौतिक सुख को त्याज्य समझने की परंपरा को चार्वाक ने चुनौती दी। चूंकि इस लोक के अलावा और कोई दूसरा लोक नहीं है, इसलिए इस लोक का भरपूर आनंद लेना चाहिए, खूब ऐश-आराम करना चाहिए। शरीर के एक बार भस्म हो जाने पर वह पुन: वापिस लौट कर नहीं आता। नास्तिक दर्शनों में चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन आते हैं। ये वेदों के प्रमाण में विश्वास नहीं रखते, इसलिए नास्तिक दर्शन के अंतर्गत रखे गए हैं। ये ग्रन्थ ईसा पूर्व अंतिम शताब्दियों में, लगभग मौर्य काल में धीरे -धीरे गायब होता गया। इसके बाद इसे मात्र कुछ बचे व बोले गये सूत्रों के रूप में ही सहेजा जा सका। १९२८ में दक्षिणरंजन शास्त्री ने ऐसे ६० श्लोकों को प्रकाशित किया। १९५९ में उन्होंने ५४ चुने हुए श्लोक बार्हस्पत्य सूत्रम नाम से प्रकाशित किये। शास्त्री जी का मत था कि इसी प्रकार शेष अन्य श्लोकों को भी ढूंढा और प्रकाशित किया जा सकता है। २००२ में भट्टाचार्य ने कुछ और श्लोक ढूंढ कर निकाले, किन्तु इनमें विदेशी पाठ्य के मिले होने या अशुद्धता होने की बड़ी संभावना है। इन संकलनों में अधिकांश कार्य भारतीय मध्य कालीन हैं, मोटे तौर पर लगभग ८वीं से १२वीं शताब्दी के बीच के। सायण द्वारा भारतीय दर्शन पर विशिष्ट टीका १४वीं शताब्दी में सर्वदर्शनसंग्रह नाम से निकली जिसमें चार्वाक के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। किन्तु ये चार्वाक के पाठ सीधे मूल रूप में नहीं दिखाती है वरन १४वीं शताब्दी के एक शिक्षित वेदांतज्ञ के पढ़े और समझे सिद्धांतों के रूप में देती है। भट्टाचार्य ने ६८ श्लोक ९ पृष्ठों में पृष्ठ पर दिये हैं। बार्हस्पत्यसूत्रम अर्थात बार्हस्पत्य अर्थशास्त्रम भी इनसे प्रभावित किन्तु पारदर्शी और भ्रष्टरूप है। .

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बुध (ज्योतिष)

बुध (मलयालम: ബുധന്‍, कन्नड़: ಬುಧ, तमिल: புதன்) इसी नाम के खगोलीय ग्रह के लिये भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नियत एक ग्रह है। बुध चंद्रमा का तारा या रोहिणी से पुत्र कहलाता है। बुध को माल और व्यापारियों का स्वामी और रक्षक माना जाता है। बुध हल्के स्वभाव के, सुवक्ता और एक हरे वर्ण वाले कहलाते हैं। उन्हें कृपाण, फ़रसा और ढाल धारण किये हुए दिखाया जाता है और सवारी पंखों वाला सिंह बताते हैं। एक अन्य रूप में इन्हें राजदण्ड और कमल लिये हुए उड़ने वाले कालीन या सिंहों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ दिखाया गया है। बुध का राज बुधवार दिवस पर रहता है। आधुनिक हिन्दी, उर्दु, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और गुजराती भाषाओं में सप्ताह के तीसरे दिवस को बुधवार कहा जाता है। बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से विवाह किया। इला से प्रसन्न होकर मित्रावरुण ने उसे अपने कुल की कन्या तथा मनु का पुत्र होने का वरदान दिया। कन्या भाव में उसने चन्द्रमा के पुत्र बुध से विवाह करके पुरूरवा नामक पुत्र को जन्म दिया। तदुपरान्त वह सुद्युम्न बन गयी और उसने अत्यन्त धर्मात्मा तीन पुत्रों से मनु के वंश की वृध्दि की जिनके नाम इस प्रकार हैं- उत्कल, गय तथा विनताश्व। .

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बृहस्पति का वायुमंडल

बृहस्पति पर सन् २००० में बादल प्रतिमान. बृहस्पति का वायुमंडल सौरमंडल में सबसे बड़ा ग्रहीय वायुमंडल है। एक मोटे सौर अनुपात में यह मुख्य रूप से आणविक हाइड्रोजन और हीलियम से बना है; अन्य रासायनिक यौगिकों की केवल छोटी मात्रा मौजूद हैं, जिसमें मीथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड और जल शामिल हैं। हालांकि, ऐसा माना जाता है कि पानी वायुमंडल की गहराई में मौजूद है, इसके सीधे मापन की संभावना बहुत कम है। बृहस्पति के वायुमंडल में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, सल्फर और अक्रिय गैस की प्रचुरता लगभग तीन कारक के सौर मूल्यों से अधिक है बृहस्पति के वायुमंडल में एक स्पष्ट न्यूनतम सीमा का अभाव है और ग्रह के अंदरूनी तरल पदार्थ में धीरे-धीरे परिवर्तन होता है। निम्नतम से लेकर उच्चत्तर, वायुमंडलीय परतें क्रमशः क्षोभ मंडल, समताप मंडल, तापमंडल और बहिर्मंडल हैं। प्रत्येक परत की विशेषता तापमान ढलान है। निम्नतम परत यानि क्षोभ मंडल, बादलों और कुंहरों की एक जटिल प्रणाली है, जो अमोनिया, अमोनियम हाइड्रोसल्फाइड और पानी की परतों से बना है। बृहस्पति के सतह पर दिखाई देने वाले अमोनिया के ऊपरी बादल भूमध्यरेखा के समानांतर एक दर्जन क्षेत्रीय धारीयों में एकीकृत हुए है और यह शक्तिशाली आंचलिक वायुमंडलीय प्रवाहों (वायु) से घिरे हुए है। रंग में एकांतर धारियाँ: गहरी धारीयों को पट्टियां कहा जाता है, जबकि हल्की धारीयों को क्षेत्र कहा जाता है। क्षेत्र, जो पट्टियों से ठन्डे होते है, उमड़ने के अनुरूप होते है, जबकि पट्टियाँ उतरती हवा की निशानी है | क्षेत्रों के हल्के रंग का परिणाम अमोनिया बर्फ से माना जाता है, जबकि पट्टियाँ स्वयं को गहरे से गहरा रंग किससे देती है यह निश्चितता के साथ नहीं ज्ञात हुआ है। धारीदार संरचना और प्रवाहों की उत्पत्तियों की अच्छी समझ नहीं हैं, हालांकि दो मॉडल मौजूद हैं: उथला मॉडल मानता है कि वे सतही घटना है जो एक स्थिर आंतरिक भाग ढंकती है, गहरे मॉडल में, धारियाँ और प्रवाहें बृहस्पति के आणविक हाइड्रोजन के आवरण में गहरी परिसंचरण की महज सतही अभिव्यक्तियां है, जो अनेकों लठ्ठों में एकत्रित हुए है। बृहस्पति वायुमंडल, एक विस्तृत श्रृंखला की सक्रिय घटना सहित धारी अस्थिरता, भेंवर (चक्रवात और प्रतिचक्रवात) तूफान और बिजली प्रदर्शित करता है। भेंवर बड़े लाल, सफेद या भूरे रंग के धब्बों (अंडो) के रूप में खुद को प्रकट करते हैं। सबसे बड़े दो लाल धब्बे ग्रेट रेड स्पॉट (GRS) और ओवल बीए हैं। ये दोनों और ​​अन्य अधिकतर बड़े धब्बे प्रतिचक्रवातीय है। छोटे चक्रवात सफेद हो जाते हैं। भेंवर गहराई के साथ अपेक्षाकृत उथले संरचनाओं के माने जाते है, कई सौ किलोमीटर से अधिक नहीं। दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित GRS, सौरमंडल में सबसे बड़ा ज्ञात भंवर है। यह कई पृथ्वीयों को निगल गया है और कम से कम तीन सौ सालों के लिए अस्तित्व में हो सकता है। GRS के दक्षिण में स्थित ओवल बीए, GRS की एक तिहाई आकार का एक लाल धब्बा है जो सन् २००० में तीन सफेद अंडो के विलय से बना था। बृहस्पति पर शक्तिशाली तूफान है और यह वायुमंडल में नम संवहन का एक परिणाम हैं जो पानी के वाष्पीकरण और संघनन से जुड़ा हुआ है। वे हवा के मजबूत उर्ध्व गति के स्थल रहे हैं, जो उज्ज्वल और घने बादलों की रचना का नेतृत्व करते है। तूफ़ान मुख्यतः पट्टी क्षेत्रों में बनते है। बृहस्पति पर बिजली की गरज, पृथ्वी पर की तुलना में अधिक शक्तिशाली हैं। हालांकि, बिजली की गतिविधि का औसत स्तर पृथ्वी पर की तुलना में कम होता है। .

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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भौतिकी की शब्दावली

* ढाँचा (Framework).

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भूभौतिकी

भूभौतिकी (Geophysics) पृथ्वी की भौतिकी है। इसके अंतर्गत पृथ्वी संबंधी सारी समस्याओं की छानबीन होती है। साथ ही यह एक प्रयुक्त विज्ञान भी है, क्योंकि इसमें भूमि समस्याओं और प्राकृतिक रूपों में उपलब्ध पदार्थों के व्यवहार की व्याख्या मूल विज्ञानों की सहायता से की जाती है। इसका विकास भौतिकी और भौमिकी से हुआ है। भूविज्ञानियों की आवश्यकता के फलस्वरूप नए साधनों के रूप में इसका जन्म हुआ। विज्ञान की शाखाओं या उपविभागों के रूप में भौतिकी, रसायन, भूविज्ञान और जीवविज्ञान को मान्यता मिले एक अरसा बीत चुका है। ज्यों-ज्यों विज्ञान का विकास हुआ, उसकी शाखाओं के मध्यवर्ती क्षेत्र उत्पन्न होते गए, जिनमें से एक भूभौतिकी है। उपर्युक्त विज्ञानों को चतुष्फलकी के शीर्ष पर निरूपित करें तो चतुष्फलक की भुजाएँ (कोर) नए विज्ञानों को निरूपित करती हैं। भूभौतिकी का जन्म भौमिकी एवं भौतिकी से हुआ है। .

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महाभारत में विभिन्न अवतार

यहाँ पर महाभारत में वर्णित अवतारों की सूची दी गयी है और साथ में वे किस देवता के अवतार हैं, यह भी दर्शाया गया है। .

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मंगल (ज्योतिष)

भारतीय ज्योतिष में मंगल इसी नाम के ग्रह के लिये प्रयोग किया जाता है। इस ग्रह को अंगारक (यानि अंगारे जैसा रक्त वर्ण), भौम (यानि भूमि पुत्र) भी कहा जाता है। मंगल युद्ध का देवता कहलाता है और कुंवारा है। यह ग्रह मेष एवं वृश्चिक राशियों का स्वामी कहलाता है। मंगल रुचक महापुरुष योग या मनोगत विज्ञान का प्रदाता माना जाता है। इसे रक्त या लाल वर्ण में दिखाया जाता है एवं यह त्रिशूल, गदा, पद्म और भाला या शूल धारण किये दर्शाया जाता है। इसका वाहन भेड़ होता है एवं सप्तवारों में यह मंगलवार का शासक कहलाता है। .

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मंगल ग्रह

मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखती है, जिस वजह से इसे "लाल ग्रह" के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं - "स्थलीय ग्रह" जिनमें ज़मीन होती है और "गैसीय ग्रह" जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह देखने पर चंद्रमा के गर्त और पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और ध्रुवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊँचा पर्वत, ओलम्पस मोन्स मंगल पर ही स्थित है। साथ ही विशालतम कैन्यन वैलेस मैरीनेरिस भी यहीं पर स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र पृथ्वी के समान हैं। इस गृह पर जीवन होने की संभावना है। 1965 में मेरिनर ४ के द्वारा की पहली मंगल उडान से पहले तक यह माना जाता था कि ग्रह की सतह पर तरल अवस्था में जल हो सकता है। यह हल्के और गहरे रंग के धब्बों की आवर्तिक सूचनाओं पर आधारित था विशेष तौर पर, ध्रुवीय अक्षांशों, जो लंबे होने पर समुद्र और महाद्वीपों की तरह दिखते हैं, काले striations की व्याख्या कुछ प्रेक्षकों द्वारा पानी की सिंचाई नहरों के रूप में की गयी है। इन् सीधी रेखाओं की मौजूदगी बाद में सिद्ध नहीं हो पायी और ये माना गया कि ये रेखायें मात्र प्रकाशीय भ्रम के अलावा कुछ और नहीं हैं। फिर भी, सौर मंडल के सभी ग्रहों में हमारी पृथ्वी के अलावा, मंगल ग्रह पर जीवन और पानी होने की संभावना सबसे अधिक है। वर्तमान में मंगल ग्रह की परिक्रमा तीन कार्यशील अंतरिक्ष यान मार्स ओडिसी, मार्स एक्सप्रेस और टोही मार्स ओर्बिटर है, यह सौर मंडल में पृथ्वी को छोड़कर किसी भी अन्य ग्रह से अधिक है। मंगल पर दो अन्वेषण रोवर्स (स्पिरिट और् ओप्रुच्युनिटी), लैंडर फ़ीनिक्स, के साथ ही कई निष्क्रिय रोवर्स और लैंडर हैं जो या तो असफल हो गये हैं या उनका अभियान पूरा हो गया है। इनके या इनके पूर्ववर्ती अभियानो द्वारा जुटाये गये भूवैज्ञानिक सबूत इस ओर इंगित करते हैं कि कभी मंगल ग्रह पर बडे़ पैमाने पर पानी की उपस्थिति थी साथ ही इन्होने ये संकेत भी दिये हैं कि हाल के वर्षों में छोटे गर्म पानी के फव्वारे यहाँ फूटे हैं। नासा के मार्स ग्लोबल सर्वेयर की खोजों द्वारा इस बात के प्रमाण मिले हैं कि दक्षिणी ध्रुवीय बर्फीली चोटियाँ घट रही हैं। मंगल के दो चन्द्रमा, फो़बोस और डिमोज़ हैं, जो छोटे और अनियमित आकार के हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह 5261 यूरेका के समान, क्षुद्रग्रह है जो मंगल के गुरुत्व के कारण यहाँ फंस गये हैं। मंगल को पृथ्वी से नंगी आँखों से देखा जा सकता है। इसका आभासी परिमाण -2.9, तक पहुँच सकता है और यह् चमक सिर्फ शुक्र, चन्द्रमा और सूर्य के द्वारा ही पार की जा सकती है, यद्यपि अधिकांश समय बृहस्पति, मंगल की तुलना में नंगी आँखों को अधिक उज्जवल दिखाई देता है। .

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मीटस (उपग्रह)

सन् १९९६-९७ में गैलिलेओ यान द्वारा ली गयी मीटस की झलकी मीटस (यूनानी: Μήτις, अंग्रेज़ी: Metis) बृहस्पति ग्रह का सब से अंदरूनी उपग्रह है। इस ग्रह के अस्तित्व के बारे में सब से पहले १९७९ में पता चला जब अंतरिक्ष यान वॉयेजर प्रथम बृहस्पति के पास से गुज़रा और मीटस को उसके द्वारा खींची गयी तस्वीरों में देखा गया। उसके बाद १९९६ से लेकर सितम्बर २००३ तक गैलिलेओ यान (जिसे बृहस्पति मण्डल का अध्ययन करने भेजा गया था) ने भी इसके कई चित्र उतारे। मीटस के बृहस्पति के इतना पास होने से और बृहस्पति से इतना छोटा होने से यह उपग्रह बृहस्पति की स्थिरमुखी परिक्रमा करता है, यानि परिक्रमा करते हुए मीटस का एक ही रुख़ हमेशा बृहस्पति की ओर होता है। बृहस्पति के तगड़े गुरूत्वाकर्षक खिचाव से इस उपग्रह की गोलाई भी बेढंगी हो गयी है - इसकी लम्बाई इसकी चौड़ाई से दो गुना अधिक है। यह उपग्रह बृहस्पति की रोश सीमा के अन्दर आता है और यदि मीटस में अंदरूनी चिपकाव कम होता तो बृहस्पति का भयंकर गुरुत्वाकर्षण इसे तोड़ चुका होता। वैज्ञानिकों का मानना है के इस उपग्रह के कुछ अंशों का चूरा बनकर बृहस्पति की मुख्य उपग्रही छल्ले के बनने में प्रयोग हुआ है। .

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युलिसेस अंतरिक्ष यान

युलिसेस अंतरिक्ष यान बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान है। यह फ्लाइबाय प्रकार का है। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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युलीसेस

यूलिसिस (Ulysses) एक रोबोटिक अंतरिक्ष यान है जिसे नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (इसा) के एक संयुक्त उद्यम के रूप में सूर्य का अध्ययन करने के लिए डिजाइन किया गया था। अंतरिक्ष यान को नजदीकी सौर दूरी के लिए अपनी लंबी और अप्रत्यक्ष प्रक्षेपवक्र की वजह से मूलतः ओडीसियस (Odysseus) नामित किया गया था। यह यूलिसिस नाम, जो ओडीसियस का लेटिन अनुवाद है, इसा के अनुरोध पर दिया गया था। मूल रूप से इसे अंतरिक्ष शटल चैलेंजर पर सवार होकर मई १९८६ में प्रक्षेपण के लिए निर्धारित किया गया था। चैलेंजर को खोने के कारण, डिस्कवरी (मिशन STS-41) पर सवारी हेतू, यूलिसिस का प्रक्षेपण ६ अक्टूबर १९९० तक विलंबित हो गया | इस अंतरिक्ष यान का मिशन सभी अक्षांशों पर सूर्य का अध्ययन करने के लिए था। इसके लिए एक बड़े कक्षीय तल स्थानांतरण की आवश्यकता होती है | शटल की वेग परिवर्तन सीमाओं के कारण, तल स्थानांतरण के लिए वेग परिवर्तन की आवश्यकता को इंजिन जलाने के बजाय, बृहस्पति के साथ एक मुठभेड़ का उपयोग करके पूरा किया गया | एक बृहस्पति मुठभेड़ की जरूरत का अर्थ है, यूलिसिस सौर बैटरियों द्वारा संचालित नहीं हो सकता था, बजाय इसे एक रेडियो आइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर (RTG) द्वारा संचालित किया गया था। श्रेणी:अंतरिक्ष यान.

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यूरोपा जुपिटर प्रणाली अभियान

यूरोपा जुपिटर प्रणाली अभियान बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान है। यह भविष्य में भेजा जायेगा। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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यूरोपा ऑर्बिटर

यूरोपा ऑर्बिटर बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान अभियान था। यह अभियान रद्द हो चुका है। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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राजनयिक इतिहास

हारुन अल रशीद, शारलेमेन के एक प्रतिनिधिमंडल से बगदाद में मिलते हुए (जूलिअस कोकर्ट द्वारा १८६४ में चित्रित) राजनयिक इतिहास (Diplomatic history) से आशय राज्यों के बीच अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास से है। किन्तु राजनयिक इतिहास अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध से इस अर्थ में भिन्न है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध के अन्तर्गत दो या दो से अधिक राज्यों के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन होता है जबकि राजनयिक इतिहास किसी एक राज्य की विदेश नीति से सम्बन्धित हो सकता है। राजनयिक इतिहास का झुकाव अधिकांशतः राजनय के इतिहास (history of diplomacy) की ओर होता है जबकि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध समसामयिक घटनाओं पर अधिक ध्यान देता है। राजनय एक कला है जिसे अपना कर दुनिया के राज्य अपने पारस्परिक सम्बन्धों को बढ़ाते हुए अपनी हित साधना करते हैं। राजनय के सुपरिभाषित लक्ष्य तथा उनकी सिद्धि के लिए स्थापित कुशल यंत्र के बाद इसके वांछनीय परिणामों की उपलब्धि उन साधनों एवं तरीकों पर निर्भर करती है जिन्हें एक राज्य द्वारा अपनाने का निर्णय लिया जाता है। दूसरे राज्य इन साधनों के आधार पर ही राजनय के वास्तविक लक्ष्यों का अनुमान लगाते हैं। यदि राजनय के साधन तथा लक्ष्यों के बीच असंगति रहती है तो इससे देश कमजोर होता है, बदनाम होता है तथा उसकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा गिर जाती है। इस दृष्टि्र से प्रत्येक राज्य को ऐसे साधन अपनाने चाहिये जो दूसरे राज्यों में उसके प्रति सद्भावना और विश्वास पैदा कर सकें। इसके लिए यह आवश्यक है कि राज्य अपनी नीतियों को स्पष्ट रूप से समझाये, दूसरे राज्यों के न्यायोचित दावों को मान्यता दे तथा ईमानदारीपूर्ण व्यवहार करे। बेईमानी तथा चालबाजी से काम करने वाले राजनयज्ञ अल्पकालीन लक्ष्यों में सफलता पा लेते हैं किन्तु कुल मिलाकर वे नुकसान में ही रहते हैं। दूसरे राज्यों में उनके प्रति अविश्वास पैदा होता है तथा वे सजग हो जाते हैं। अतः राजनय के तरीकों का महत्व है। राजनय के साधनों का निर्णय लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि इसका मुख्य उद्देश्य राज्य के प्रमुख हितों की रक्षा करना है। ठीक यही उद्देश्य अन्य राज्यों के राजनय का भी है। अतः प्रत्येक राजनय को पारस्परिक आदान-प्रदान की नीति अपनानी चाहिये। प्रत्येक राज्य के राजनयज्ञों की कम से कम त्याग द्वारा अधिक से अधिक प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिये विरोधी हितों के बीच समझौता करना जरूरी है। समझौते तथा सौदेबाजी का यह नियम है कि कुछ भी प्राप्त करने के लिए कुछ न कुछ देना पड़ता है। यह आदान-प्रदान राजनय का एक व्यावहारिक सत्य है। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जबकि एक शक्तिशाली बड़े राज्य ने दूसरे कमजोर राज्य को अपनी मनमानी शर्तें मानने के लिए बाध्य किया तथा समझौतापूर्ण आदान-प्रदान की प्रक्रिया न अपना कर एक पक्षीय बाध्यता का मार्ग अपनाया। इस प्रकार लादी गई शर्तों का पालन सम्बन्धित राज्य केवल तभी तक करता है जब तक कि वह ऐसा करने के लिए मजबूर हो और अवसर पाते ही वह उनके भार से मुक्त हो जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद मित्र राष्ट्रोंं ने जर्मनी को सैनिक, आर्थिक, व्यापारिक एवं प्रादेशिक दृष्टि्र से बुरी तरह दबाया। क्षतिपूर्ति की राशि अदा करने के लिए उनसे खाली चैक पर हस्ताक्षर करा लिये गये तब जर्मनी एक पराजित और दबा हुआ राज्य था। अतः उसने यह शोषण मजबूरी में स्वीकार कर लिया किन्तु कुछ समय बाद हिटलर के नेतृत्व में जब वह समर्थ बना तो उसने इन सभी शर्तों को अमान्य घोषित कर दिया। स्पष्ट है कि पारस्परिक आदान-प्रदान ही स्थायी राजनय का आधार बन सकता है। बाध्यता, बेईमानी, धूर्तता, छल-कपट एवं केवल ताकत पर आधारित सम्बन्ध अल्पकालीन होते हैं तथा दूसरे पक्ष पर विरोधी प्रभाव डालते हैं।फलतः उनके भावी सम्बन्धों में कटुता आ जाती है। राजनय के साधन और तरीकों का विकास राज्यों के आपसी सम्बन्धों के लम्बे इतिहास से जुड़ा हुआ है। इन पर देश-काल की परिस्थितियों ने भी प्रभाव डाला है। तदनुसार राजनीतिक व्यवहार भी बदलता रहा है। विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनयिक आचार का तरीका प्रत्येक देश का अपना विशिष्ट रहा है। यहाँ हम यूनान, रोम, इटली, फ्रांस तथा भारत में अपनाए राजनयिक आचार के तरीकों का अध्ययन करेंगे। .

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रक्षाबन्धन

रक्षाबन्धन एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है। हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिये एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में रक्षासूत्र बाँधते समय कर्मकाण्डी पण्डित या आचार्य संस्कृत में एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)- इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है- "जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)" .

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रक्षासूत्र

राखी की एक दूकान रक्षासूत्र या राखी को रक्षाबंधन के अवसर पर भाई की कलाई में बाँधा जाता है। इसे रेशमी धागे और कुछ सजावट की वस्तुओं को मिलाकर बनाया जाता है। इन राखियों का मूल्य भारतीय बाज़ार में ५ रु.

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रोश सीमा

एक द्रव्य के जमावड़े की कल्पना कीजिये, जो अपने अंदरूनी गुरुत्वाकर्षण से एकत्रित है और अपने ग्रह के पास है - अगर रोश सीमा से काफ़ी बहार हो तो यह एक गोले का आकार ले लेता है अब अगर यह गोला ग्रह के पास आता है तो बड़े ग्रह के गुरुत्वाकर्षण की खींच से इसका आकार खिंच सा जाता है और गोले को बेढंगा कर देता है रोश सीमा के अन्दर का द्रव्य ग्रह के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में आ जाता है और गोला इस खींचातानी में टूट जाता है ग्रह के पास वाले कण (लाल तीरों से दर्शाए हुए) ग्रह से दूर वाले कणों से ज़्यादा तेज़ परिक्रमा करते हैं अलग कणों की अलग गति से द्रव्य खिंच जाता है और एक उपग्रही छल्ला बना देता है खगोलशास्त्र में रोश सीमा या रोश व्यास ब्रह्माण्ड में दो वस्तुओं के गुरुत्वाकर्षण के तालमेल के एक परिणाम को उजागर करता है। आम तौर से कोई भी वस्तु अपने ही गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से इकठ्ठा होकर रहती है, जैसे की ग्रह, उपग्रह, वग़ैराह। लेकिन यदि कोई दूसरी बड़ी वस्तु पास में आ जाए तो वह पहली वस्तु के जमकर एक हो जाने में ख़लल डालती है। किसी भी वस्तु की रोश सीमा वह सीमा है जिसके अन्दर वह वस्तु किसी भी दूसरी वस्तु को जमकर एकत्रित नहीं होने देती। साधारण तौर पर रोश सीमा का प्रयोग ग्रहों के इर्द-गिर्द मंडराते हुए उपग्रहों के लिए होता है। अगर उपग्रह ग्रहों की रोश सीमा से बहार बन जाए, तो साधारण उपग्रह बन पाते हैं, वर्ना ग्रह का गुरुत्वाकर्षण इतना प्रभावशाली होता है के वह या तो बड़ा उपग्रह बनने ही नहीं देता, या फिर उपग्रही छल्ला बना देता है, या उस मलबे को अपनी और खींचकर उसका अपने अन्दर ही विलय कर लेता है। .

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ल्यूटीशीया (क्षुद्रग्रह)

ल्यूटीशीया एक मध्यम आकार का क्षुद्रग्रह है। यह मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच मुख्य क्षुद्रग्रह पट्टे में सूर्य की परिक्रमा करता है। यह ढेलेदार क्षुद्रग्रह लगभग ९६ कि॰मी॰ (६० मील) व्यास का है। यह पूर्णतः गोलाकार नहीं है, ल्यूटीशीया का व्यास एक दिशा में १३२ कि॰मी॰ (८२ मील) है, जबकि अन्य दिशा में केवल ७६ कि॰मी॰ (८२ मील) है। यूरोपीय अंतरिक्ष यान रोसेटा जुलाई २०१० में ल्यूटीशीया के पास से गुजरा और क्षुद्रग्रह को सबसे पहले अच्छे से देखा। .

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शची

ऐरावत पर सवार इन्द्र और शाची; जैन ग्रन्थ पंचकल्याणक (१६७०-८०) से) शची इन्द्र की पत्नी और पुलोमा की कन्या थीं। द्रौपदी इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुई थीं और ये स्वयं प्रकृति की अन्यतम कला से जन्मी थीं। जयंत शची के ही पुत्र थे। शची को 'इन्द्राणी', 'ऐन्द्री', 'महेन्द्री', 'पुलोमजा', 'पौलोमी' आदि नामों से भी जाना जाता है। ब्रह्महत्या के भय से एक बार जब इन्द्र जलगर्भ में छिपे हुए थे तो देवताओं ने नहुष को इंद्रपद दे दिया। नहुष ने शची पर कुदृष्टि की तो बृहस्पति की आज्ञा से उन्होंने भुवनेश्वरी की आराधना की और उनसे अभय प्राप्त किया। फिर शची ने मानसरोवर जाकर छिपे हुए इंद्र से अपनी सारी कथा कही। इंद्र की सलाह से शची ने नहुष से कहलाया 'यदि सप्तर्षियों के कंधे पर रखी पालकी में बैठकर आवें तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।' नहुष ने ऐसा ही किया। ऋषियों को धीरे धीरे चलते देखकर उसने आदेश दिया 'सर्प सर्प' (जल्दी चलो) अंततोगत्वा ऋषियों के शाप से नहुष को सर्प हो जाना पड़ा। अपने विवाह के पूर्व शची ने शंकर से सुंदर पति, स्वेच्छामत रूप तथा सुख एवं आयु का वरदान माँगा था। ऋग्वेद में शचीरचित कुछ सूक्त हैं जिनमें सपत्नी का नाश करने के लिए प्रार्थना की गई है (ऋचा, 10-159)। कुछ विद्वानों के मत से सूक्त बहुत बाद की रचनाएँ हैं। श्रेणी:पौराणिक पात्र श्रेणी:ऋषिकाएँ.

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शनि (ग्रह)

शनि (Saturn), सूर्य से छठां ग्रह है तथा बृहस्पति के बाद सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह हैं। औसत व्यास में पृथ्वी से नौ गुना बड़ा शनि एक गैस दानव है। जबकि इसका औसत घनत्व पृथ्वी का एक आठवां है, अपने बड़े आयतन के साथ यह पृथ्वी से 95 गुने से भी थोड़ा बड़ा है। इसका खगोलिय चिन्ह ħ है। शनि का आंतरिक ढांचा संभवतया, लोहा, निकल और चट्टानों (सिलिकॉन और ऑक्सीजन यौगिक) के एक कोर से बना है, जो धातु हाइड्रोजन की एक मोटी परत से घिरा है, तरल हाइड्रोजन और तरल हीलियम की एक मध्यवर्ती परत तथा एक बाह्य गैसीय परत है। ग्रह अपने ऊपरी वायुमंडल के अमोनिया क्रिस्टल के कारण एक हल्का पीला रंग दर्शाता है। माना गया है धातु हाइड्रोजन परत के भीतर की विद्युतीय धारा, शनि के ग्रहीय चुंबकीय क्षेत्र को उभार देती है, जो पृथ्वी की तुलना में कमजोर है और बृहस्पति की एक-बीसवीं शक्ति के करीब है। बाह्य वायुमंडल आम तौर पर नीरस और स्पष्टता में कमी है, हालांकि दिर्घायु आकृतियां दिखाई दे सकती है। शनि पर हवा की गति, 1800 किमी/घंटा (1100 मील) तक पहुंच सकती है, जो बृहस्पति पर की तुलना में तेज, पर उतनी तेज नहीं जितनी वह नेप्च्यून पर है। शनि की एक विशिष्ट वलय प्रणाली है जो नौ सतत मुख्य छल्लों और तीन असतत चाप से मिलकर बनी हैं, ज्यादातर चट्टानी मलबे व धूल की छोटी राशि के साथ बर्फ के कणों की बनी हुई है। बासठ चन्द्रमा ग्रह की परिक्रमा करते है; तिरेपन आधिकारिक तौर पर नामित हैं। इनमें छल्लों के भीतर के सैकड़ों " छोटे चंद्रमा" शामिल नहीं है। टाइटन, शनि का सबसे बड़ा और सौरमंडल का दूसरा सबसे बड़ा चंद्रमा है। यह बुध ग्रह से बड़ा है और एक बड़े वायुमंडल को संजोकर रखने वाला सौरमंडल का एकमात्र चंद्रमा है। .

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शुक्र (ज्योतिष)

शुक्र (शुक्र, ശുക്രൻ, ಶುಕ್ರ, சுக்ரன், IAST Śukra), जिसका संस्कृत भाषा में एक अर्थ है शुद्ध, स्वच्छ, भृगु ऋषि के पुत्र एवं दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का प्रतीक शुक्र ग्रह है। भारतीय ज्योतिष में इसकी नवग्रह में भी गिनती होती है। यह सप्तवारों में शुक्रवार का स्वामी होता है। यह श्वेत वर्णी, मध्यवयः, सहमति वाली मुखाकृति के होते हैं। इनको ऊंट, घोड़े या मगरमच्छ पर सवार दिखाया जाता है। ये हाथों में दण्ड, कमल, माला और कभी-कभार धनुष-बाण भी लिये रहते हैं। उषानस एक वैदिक ऋषि हुए हैं जिनका पारिवारिक उपनाम था काव्य (कवि के वंशज, अथर्व वेद अनुसार जिन्हें बाद में उषानस शुक्र कहा गया। .

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साबू

साबू प्राण कुमार शर्मा द्वारा रचित बाल काॅमिक्स पत्रिका चाचा चौधरी के दूसरे प्रमुख पात्र का नाम है। इनका प्रकाशन डायमण्ड कॉमिक्स करती है। साबू जूपीटर का निवासी है। .

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संयोजन (खगोलशास्त्र)

संयोजन (Conjuction), तब होता है जब कोई ग्रह पृथ्वी और सूर्य के बीच की सीधी रेखा पर स्थित होता है। संयोजन का खगोलीय प्रतीक ơ है। इसे हस्तलिपी में और यूनिकोड में U+260C लिखते हैं। हालांकि, इस प्रतीक को आधुनिक खगोल विज्ञान में कभी इस्तेमाल नहीं किया गया है, मात्र ऐतिहासिक रुचि भर का है। ग्रहों के औसत कक्षीय वेग, सूर्य से बढ़ती दूरी के साथ घटते जाते है, जो ग्रहों की परस्पर बदलती स्थिति का कारण बनता है। उदाहरण के लिए, पृथ्वी अपनी कक्षा पर मंगल से ज्यादा तेज चलती है, इसलिए नियमित रूप से मंगल के पास से होकर गुजरती है। इसी तरह से, शुक्र पृथ्वी को पकड़ लेता है और नियमित रूप से उसे पार करता है क्योंकि शुक्र का कक्षीय वेग पृथ्वी की तुलना में ज्यादा है। ग्रहों की पृथ्वी और सूर्य के सापेक्ष स्थिति का परिणाम संयोजन और विमुखता के रूप में होता है। यदि कोई अवर ग्रह (बुध व शुक्र) सूर्य और पृथ्वी के ठीक बीच आ जाये तो स्थिति अवर संयोजन कहलाती है। इन्ही में से कोई एक ग्रह यदि सूर्य के पीछे की तरफ चला जाये तो स्थिति वरिष्ठ संयोजन कहलाती है। वरिष्ठ ग्रहों (मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून) के संयोजन तब होते है जब इनमें से कोई ग्रह पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य के पीछे की तरफ होता है। इसके विपरित, जब वरिष्ठ ग्रह पृथ्वी की तरफ होते है तब संयोजन को विमुखता के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है। वरिष्ठ ग्रहों को संयोजन में नहीं देख सकते क्योंकि तब वें सूर्य के पीछे मौजुद होते हैं। हालांकि, जब वें विमुखता पर होते है उनकी स्पष्टता सर्वोत्तम होती है। ध्यान रहें केवल अवर ग्रहों में ही अवर और वरिष्ठ संयोजन होते हैं। वरिष्ठ ग्रहों में या तो संयोजन होता है या विमुखता होती है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि वें कहां पर स्थित है, पृथ्वी से देखने पर सूर्य के पीछे की तरफ या सूर्य के इस तरफ जहां पृथ्वी है। जब बुध या शुक्र ग्रह, पृथ्वी और सूर्य के बीच से गुजरते है, पृथ्वी से देखने पर हो सकता है उनकी छवि काली चकती जैसी नजर आये और सूर्य की मुखाकृति के आरपार खिसकती हुई दिखाई दे, इस तरह की स्थिति पारगमन कहलाती है। पारगमन सभी परिस्थिति में पृथ्वी से नहीं नजर आते, कारण, उनकी कक्षाओं का क्रांतिवृत्त से झुकाव। .

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स्वरोचिष मनु

स्वरोचिष मनु द्वितीय मनु थे। प्रथम मनु का नाम स्वायम्भूव मनु था। स्वरोचिष मनु अग्नि देव तथा प्रजापति दक्ष की पुत्री स्वाहा से उत्पन्न हुए तथा मनु के पद पर आसीन हुए। .

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सौर द्रव्यमान

वी॰वाए॰ कैनिस मेजौरिस का द्रव्यमान ३०-४० \beginsmallmatrixM_\odot\endsmallmatrix है, यानि सूरज के द्रव्यमान का ३०-४० गुना है खगोलविज्ञान में सौर द्रव्यमान (solar mass) (\beginM_\odot\end) द्रव्यमान की मानक इकाई है, जिसका मान १.९८८९२ X १०३० कि.ग्रा.

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सौर मण्डल

सौर मंडल में सूर्य और वह खगोलीय पिंड सम्मलित हैं, जो इस मंडल में एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा बंधे हैं। किसी तारे के इर्द गिर्द परिक्रमा करते हुई उन खगोलीय वस्तुओं के समूह को ग्रहीय मण्डल कहा जाता है जो अन्य तारे न हों, जैसे की ग्रह, बौने ग्रह, प्राकृतिक उपग्रह, क्षुद्रग्रह, उल्का, धूमकेतु और खगोलीय धूल। हमारे सूरज और उसके ग्रहीय मण्डल को मिलाकर हमारा सौर मण्डल बनता है। इन पिंडों में आठ ग्रह, उनके 166 ज्ञात उपग्रह, पाँच बौने ग्रह और अरबों छोटे पिंड शामिल हैं। इन छोटे पिंडों में क्षुद्रग्रह, बर्फ़ीला काइपर घेरा के पिंड, धूमकेतु, उल्कायें और ग्रहों के बीच की धूल शामिल हैं। सौर मंडल के चार छोटे आंतरिक ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल ग्रह जिन्हें स्थलीय ग्रह कहा जाता है, मुख्यतया पत्थर और धातु से बने हैं। और इसमें क्षुद्रग्रह घेरा, चार विशाल गैस से बने बाहरी गैस दानव ग्रह, काइपर घेरा और बिखरा चक्र शामिल हैं। काल्पनिक और्ट बादल भी सनदी क्षेत्रों से लगभग एक हजार गुना दूरी से परे मौजूद हो सकता है। सूर्य से होने वाला प्लाज़्मा का प्रवाह (सौर हवा) सौर मंडल को भेदता है। यह तारे के बीच के माध्यम में एक बुलबुला बनाता है जिसे हेलिओमंडल कहते हैं, जो इससे बाहर फैल कर बिखरी हुई तश्तरी के बीच तक जाता है। .

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सूर्य

सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है। सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है। Barnhart, Robert K. (1995) The Barnhart Concise Dictionary of Etymology, page 776.

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सूर्य देवता

कोई विवरण नहीं।

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सूर्यसिद्धान्त

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं। भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि.

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हिन्दू देवी देवताओं की सूची

यह हिन्दू देवी देवताओं की सूची है। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस कोटि (कोटि के अर्थ-प्रकार और करोड़) देवी-देवता बताये गये हैं। इनमें स्थानीय व क्षेत्रीय देवी-देवता भी शामिल हैं)। वे सभी तो यहां सम्मिलित नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी इस सूची में तीन सौ से अधिक संख्या सम्मिलित है। .

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हैली धूमकेतु

(विकिपीडिया अंग्रेजी से अनुवादित) हैली धूमकेतु (आधिकारिक तौर पर नामित 1P/Halley) को एक लघु-अवधि धूमकेतु के रूप में बेहतर जाना जाता है। यह प्रत्येक ७५ से ७६ वर्ष के अंतराल में पृथ्वी से नजर आता है। हैली ही एक मात्र लघु-अवधि धूमकेतु है जिसे पृथ्वी से नग्न आँखों से साफ़-साफ़ देखा जा सकता है और यह नग्न आँखों से देखे जाने वाला एक मात्र धूमकेतु है जो मानव जीवन में दो बार दिखाई देता है। नग्न आँखों से दिखाई देने वाले अन्य धूमकेतु चमकदार और अधिक दर्शनीय हो सकते है लेकिन वह हजारों वर्षों में केवल एक बार दिखाई देते है। हैली के भीतरी सौरमंडल में लौटने पर इसका खगोलविज्ञानियों द्वारा २४० इ.पू.

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जलतापीय छिद्र

जलतापीय छिद्र (hydrothermal vents) पृथ्वी या अन्य किसी ग्रह पर उपस्थित ऐसा विदर छिद्र होता है जिस से भूतापीय स्रोतों से गरम किया गया जल उगलता है। यह अक्सर सक्रीय ज्वालामुखीय क्षेत्रों, भौगोलिक तख़्तो के अलग होने वाले स्थानों और महासागर द्रोणियों जैसे स्थानों पर मिलते हैं। जलतापीय छिद्रों के अस्तित्व का मूल कारण पृथ्वी की भूवैज्ञानिक सक्रीयता और उसकी सतह व भीतरी भागों में पानी की भारी मात्रा में उपस्थिति है। जब जलतापीय छिद्र भूमि पर होते हैं तो उन्हें गरम चश्मों, फ़ूमारोलों और उष्णोत्सों के रूप में देखा जाता है। जब वे महासागरों के फ़र्श पर होते हैं तो उन्हें काले धुआँदारी (black smokers) और श्वेत धुआँदारी (white smokers) के रूप में पाया जाता है। गहरे समुद्र के बाक़ि क्षेत्र की तुलना में काले धुआँदारियों के आसपास अक्सर बैक्टीरिया और आर्किया जैसे सूक्ष्मजीवों की भरमार होती है। यह जीव इन छिद्रों में से निकल रहे रसायनों को खाकर ऊर्जा बनाते हैं और जीवित रहते हैं और फिर आगे ऐसे जीवों को ग्रास बनाने वाले अन्य जीवों के समूह भी यहाँ पनपते हैं। माना जाता है कि बृहस्पति ग्रह के यूरोपा चंद्रमा और शनि ग्रह के एनसेलेडस चंद्रमा पर भी सक्रीय जलतापीय छिद्र मौजूद हैं और अति-प्राचीनकाल में यह सम्भवतः मंगल ग्रह पर भी रहे हों। .

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ज़मींदारी प्रथा

दरभंगा के जमींदार '''लक्ष्मणेश्वर सिंह''' जमींदारी प्रथा भारत में मुगल काल एवं ब्रिटिश काल में प्रचलित एक राजनैतिक-सामाजिक कुरीति थी जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वालों का न होकर किसी और (जमींदार) का होता था जो खेती करने वालों से कर वसूलते थे। भारत के स्वतंत्रत होने के बाद यह प्रथा समाप्त कर दी गयी। .

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जुपिटर आइसी मून ऑर्बिटर

जुपिटर आसी मून ऑर्बिटर बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान अभियान था। यह अभियान रद्द हो चुका है। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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जी॰जे॰ ५०४ बी ग्रह

जी॰जे॰ ५०४ बी (GJ 504 b) कन्या तारामंडल के ५९ कन्या तारे (उर्फ़ ५९ वर्जिनिस या जी॰जे॰ ५०४) की परिक्रमा करता हुआ एक गैस दानव ग्रह है। अगस्त २०१३ में मिले इस ग्रह का द्रव्यमान (मास) हमारे सौर मंडल के बृहस्पति ग्रह से लगभग ४ गुना अनुमानित किया गया है। अन्दाज़ा लगाया जाता है कि यदि इस ग्रह को आँखों द्वारा सीधा देखा जा सकता तो इसका रंग गाढ़ा गुलाबी प्रतीत होता। ५९ कन्या तारा सूरज से मिलता-जुलता G-श्रेणी का मुख्य अनुक्रम तारा है और जिस समय जी॰जे॰ ५०४ बी की खोज हुई थी वह सूरज-जैसे तारों के ग्रहीय मंडलों में तब तक पाए गए ग्रहों में से सबसे कम द्रव्यमान रखता था।, August 06, 2013, Space.com,...

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वरुण (ग्रह)

वरुण, नॅप्टयून या नॅप्चयून हमारे सौर मण्डल में सूर्य से आठवाँ ग्रह है। व्यास के आधार पर यह सौर मण्डल का चौथा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर तीसरा बड़ा ग्रह है। वरुण का द्रव्यमान पृथ्वी से १७ गुना अधिक है और अपने पड़ौसी ग्रह अरुण (युरेनस) से थोड़ा अधिक है। खगोलीय इकाई के हिसाब से वरुण की कक्षा सूरज से ३०.१ ख॰ई॰ की औसत दूरी पर है, यानि वरुण पृथ्वी के मुक़ाबले में सूरज से लगभग तीस गुना अधिक दूर है। वरुण को सूरज की एक पूरी परिक्रमा करने में १६४.७९ वर्ष लगते हैं, यानि एक वरुण वर्ष १६४.७९ पृथ्वी वर्षों के बराबर है। हमारे सौर मण्डल में चार ग्रहों को गैस दानव कहा जाता है, क्योंकि इनमें मिटटी-पत्थर की बजाय अधिकतर गैस है और इनका आकार बहुत ही विशाल है। वरुण इनमे से एक है - बाकी तीन बृहस्पति, शनि और अरुण (युरेनस) हैं। इनमें से अरुण की बनावट वरुण से बहुत मिलती-जुलती है। अरुण और वरुण के वातावरण में बृहस्पति और शनि के तुलना में बर्फ़ अधिक है - पानी की बर्फ़ के अतिरिक्त इनमें जमी हुई अमोनिया और मीथेन गैसों की बर्फ़ भी है। इसलिए कभी-कभी खगोलशास्त्री इन दोनों को "बर्फ़ीले गैस दानव" नाम की श्रेणी में डाल देते हैं। .

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विधिक वृत्ति

विधिक वृत्ति (Legal profession) वह वृत्ति (व्यवसाय) है जिससे सम्बन्धित लोग विधि का अध्ययन करते हैं, उसका विकास करते एवं उसे लागू करते हैं। वर्तमान समय में विधिक वृत्ति चुनने के इच्छुक व्यक्ति को पहले विधि में डिग्री प्राप्त करना होता है या कोई अन्य विधिक शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आरंभ में विधिक वृत्ति न्यायालय में विधि के गूढ़ार्थ को स्पष्ट करने के सहायतार्थ थी। आज भी इसका मुख्य कार्य यही है। इसके अतिरिक्त आज अधिवक्ता केवल विधिविशेषज्ञ नहीं, समाज के निर्देशक भी हैं। आधुनिक समाज का स्वरूप एवं प्रगति मुख्यत: विधि द्वारा नियंत्रित होती है और विधानसभाओं द्वारा निर्मित विधि केवल सैद्धांतिक मूल नियम होती है, उसके शब्दजाल को व्यवस्थित कर जो स्वरूप चाहें अधिवक्ता उसे प्रदान करते हैं। अतएव विधि का व्यावहारिक रूप अधिवक्ताओं के हाथों ही निर्मित होता है, जिसके सहारे समाज प्रगति करता है। विधिक वृत्ति आधुनिक समाज का मुख्य आधार स्तंभ है। विधि का स्वरूप और निर्माण स्वभावतया विधिकारों से संबद्ध और संतुलित होता है। विधि का रूप तभी परिष्कृत एवं परिमार्जित हो पाता है जब उस देश की विधिक वृत्ति पुष्ट और परिष्कृत होती है। प्राचीन आदियुग में समाज की संपूर्ण क्रियाशक्ति मुखिया के हाथ में होती थी। तब विधि का स्वरूप बहुत आदिम था। ज्यों ही न्यायप्रशासन व्यक्ति के हाथ से समुदायों के हाथ में आया कि विधि का रूप निखरने लगा, क्योंकि अब नियम व्यक्तिविशेष की निरंकुश मनोवांछाएँ नहीं, सार्वजनिक सिद्धांत के रूप में होते। विधि के उत्कर्ष में सदा किसी समुदाय की सहायता रही है। मध्य एशिया में सर्वप्रथम न्यायाधीशों, धर्मप्रधान देशों में धर्मपंडितों, मिस्र और मेसोपोटामिया में न्यायाधीशों, ग्रीस में अधिवक्ताओं और पंचों, रोम में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं न्यायविशेषज्ञों, मध्यकालीन ब्रिटेन और फ्रांस में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं एवं एटर्नी तथा भारत में विधिपंडितों ने सर्वप्रथम विधि को समुचित रूप दिया। प्रत्येक देश का क्रम यही रहा है कि विधिनिर्माण क्रमश: धर्माधिकारियों के नियंत्रण से स्वतंत्र होकर विधिकारों के क्षेत्र में आता गया। विधिविशेषज्ञों के शुद्ध बौद्धिक चिंतन के सम्मुख धर्माधिकारियों का अनुशासन क्षीण होता गया। आरंभ में व्यक्ति न्यायालय में स्वयं पक्षनिवेदन करते थे, किसी विशेष द्वारा पक्षनिवेदन की प्रथा नहीं थी। विधि का रूप ज्यों ज्यों परिष्कृत हुआ उसमें जटिलता और प्राविधिकता आती गई, अत: व्यक्ति के लिए आवश्यक हो गया कि विधि के गूढ़ तत्वों को वह किसी विशेषज्ञ द्वारा समझे तथा न्यायालय में विधिवत् निवेदन करवाए। कभी व्यक्ति की निजी कठिनाइयों के कारण भी यह आवश्यक होता कि वह अपनी अनुपस्थिति में किसी को प्रतिनिधि रूप में न्यायालय में भेज दे। इस प्रकार वैयक्तिक सुविधा और विधि के प्राविधिक स्वरूप ने अधिवक्ताओं (ऐडवोकेट्स) को जन्म दिया। पाश्चात्य एवं पूर्वी दोनों देशों में विधिज्ञाताओं ने सदा से समाज में, विद्वान् होने के कारण, बड़ा समान प्राप्त किया। इनकी ख्याति और प्रतिष्ठा से आकृष्ट होकर समाज के अनेक युवक विधिज्ञान की ओर आकर्षित होने लगे। क्रमश: विधिविशेषज्ञों के शिष्यों की संख्या में वृद्धि होती गई और विधिसम्मति प्रदान करने के अतिरिक्त इनका कार्य विधिदीक्षा भी हो गया। फलस्वरूप इन्हीं के नियंत्रण में विधि-शिक्षा-केंद्र स्थापित हुए। विधि सम्मति देने अथवा न्यायालय में अन्य का प्रतिनिधि बन पक्षनिवेदन करने का यह पारिश्रमिक भी लेते थे। क्रमश: यह एक उपयोगी व्यवसाय बन गया। आरंभ में धर्माधिकारी तथा न्यायालय इस विधिक व्यवसाय को नियंत्रित करते थे किंतु कुछ समय पश्चात् व्यवसाय तनिक पुष्ट हुआ तो इनके अपने संघ बन गए, जिनके नियंत्रण से विधिक वृत्ति शुद्ध रूप में प्रगतिशील हुई। विधिक वृत्ति में सदा दो प्रकार के विशेषज्ञ रहे-एक वह जो अन्य व्यक्ति की ओर से न्यायालय में प्रतिनिधित्व कर पक्षनिवेदन करते, दूसरे वह जो न्यायालय में जाकर अधिवक्तृत्व नहीं करते किंतु अन्य सब प्रकार से दावे का विधि-दायित्व लेते। यही भेद आज के सौलिसिटर तथा ऐडवोकेट में है। विधिक वृत्ति की प्रगति की यह रूपरेखा प्राय सब देशों में रही है। .

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विक्रमादित्य

विक्रमादित्य उज्जैन के अनुश्रुत राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। .

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वैदिक धर्म

वैदिक रीति से होता यज्ञ वैदिक धर्म वैदिक सभ्यता का मूल धर्म था, जो भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया में हज़ारों वर्षों से चलता आ रहा है। वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म अथवा आधुनिक हिन्दू धर्म इसी धार्मिक व्यवस्था पर आधारित हैं। वैदिक संस्कृत में लिखे चार वेद इसकी धार्मिक किताबें हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार ऋग्वेद और अन्य वेदों के मन्त्र ईश्वर द्वारा ऋषियों को प्रकट किये गए थे। इसलिए वेदों को 'श्रुति' (यानि, 'जो सुना गया है') कहा जाता है, जबकि श्रुतिग्रन्थौके अनुशरण कर वेदज्ञद्वारा रचा गया वेदांगादि सूत्र ग्रन्थ स्मृति कहलाता है। वेदांग अन्तर्गत के धर्मसूत्र पर ही आधार करके वेदज्ञ मनु,अत्रि,याज्ञावल्क्य आदि द्वारा रचित अनुस्मतिृको भी स्मृति ही माना जाता है।ईसके वाद वेद-वेदांगौंके व्याखाके रुपमे रामायण महाभारतरुपमे ईतिहासखण्ड और पुराणखण्डको वाल्मीकि और वेदव्यासद्वारा रचागया जिसके नीब पर वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म,विभिन्न वैष्णवादि मतसम्बद्ध हिन्दूधर्म,और अर्वाचीन वैदिक मत आर्यसमाजी,आदि सभीका व्यवहार का आधार रहा है। कहा जाता है। वेदों को 'अपौरुषय' (यानि 'जीवपुरुषकृत नहीं') भी कहा जाता है, जिसका तात्पर्य है कि उनकी कृति दिव्य है। अतःश्रुति मानवसम्बद्ध प्रमादादि दोषमुक्त है।"प्राचीन वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म"का सारा धार्मिक व्यवहार विभन्न वेद शाखा सम्बद्ध कल्पसूत्र,श्रौतसूत्र,गृह्यसूत्र,धर्मसूत्र आदि ग्रन्थौंके आधारमे चलता है। इसके अलावा अर्वाचीन वैदिक (आर्य समाज) केवल वेदौंके संहिताखण्डको ही वेद स्वीकारते है। यही इन् दोनोमें विसंगति है। वैदिक धर्म और सभ्यता की जड़ में सन्सारके सभी सभ्यता किसी न किसी रूपमे दिखाई देता है। आदिम हिन्द-ईरानी धर्म और उस से भी प्राचीन आदिम हिन्द-यूरोपीय धर्म तक पहुँचती हैं, जिनके कारण बहुत से वैदिक देवी-देवता यूरोप, मध्य एशिया और ईरान के प्राचीन धर्मों में भी किसी-न-किसी रूप में मान्य थे, जैसे ब्रह्मयज्ञमे जिनका आदर कीया जाता है उन ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र,सविता,मित्र, वरुण,और बृहस्पति (द्यौस-पितृ), वायु-वात, सरस्वती,आदि। इसी तरह बहुत से वैदिकशब्दों के प्रभाव सजातीय शब्द पारसी धर्म और प्राचीन यूरोपीय धर्मों में पाए जाते हैं, जैसे कि सोम (फ़ारसी: होम), यज्ञ (फ़ारसी: यस्न), पितर- फादर,मातर-मादर,भ्रातर-ब्रदर स्वासार-स्विष्टर नक्त-नाइट् इत्यादि।, Forgotten Books, ISBN 978-1-4400-8579-6 .

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वेदव्यास

ऋषि कृष्ण द्वेपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। महाभारत के बारे में कहा जाता है कि इसे महर्षि वेदव्यास के गणेश को बोलकर लिखवाया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है। वेदव्यास यह व्यास मुनि तथा पाराशर इत्यादि नामों से भी जाने जाते है। वह पराशर मुनि के पुत्र थे, अत: व्यास 'पाराशर' नाम से भि जाने जाते है। महर्षि वेदव्यास को भगवान का ही रूप माना जाता है, इन श्लोकों से यह सिद्ध होता है। नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।। अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है। व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।। अर्थात् - व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे 'शक्ति'; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र पाराशर (तथा व्यास)) .

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वॉयजर कार्यक्रम

वॉयजर कार्यक्रम (Voyager program), एक अमेरिकी वैज्ञानिक कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत दो मानवरहित अंतरिक्ष मिशन, वॉयजर 1 और वॉयजर 2, शुरू किए गए है। 1970 के दशक के अंत में ग्रहों के एक सीध में होने से मिलने वाले फायदे के मद्देनजर इसे 1977 में छोड़ा गया था। हालांकि वें अधिकारिक तौर पर सिर्फ बृहस्पति और शनि की ग्रहीय प्रणालियों के अध्ययन के लिए नामित हुए थे, पर ये अन्तरिक्ष यान बाह्य सौरमंडल में भी अपने मिशन को जारी रखने में सक्षम थे। उनके हेलियोसिल्थ के सहारे गहन अन्तरिक्ष में धकेल दिए जाने की उम्मीद है। श्रेणी:अंतरिक्ष यान.

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वॉयेजर द्वितीय

वायेजर द्वितीय एक अमरीकी मानव रहित अंतरग्रहीय शोध यान था जिसे वायेजर १ से पहले २० अगस्त १९७७ को अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा प्रक्षेपित किया गया था। यह काफी कुछ अपने पूर्व संस्करण यान वायेजर १ के समान ही था, किन्तु उससे अलग इसका यात्रा पथ कुछ धीमा है। इसे धीमा रखने का कारण था इसका पथ युरेनस और नेपचून तक पहुंचने के लिये अनुकूल बनाना। इसके पथ में जब शनि ग्रह आया, तब उसके गुरुत्वाकर्षण के कारण यह युरेनस की ओर अग्रसर हुआ था और इस कारण यह भी वायेजर १ के समान ही बृहस्पति के चन्द्रमा टाईटन का अवलोकन नहीं कर पाया था। किन्तु फिर भी यह युरेनस और नेपच्युन तक पहुंचने वाला प्रथम यान था। इसकी यात्रा में एक विशेष ग्रहीय परिस्थिति का लाभ उठाया गया था जिसमे सभी ग्रह एक सरल रेखा मे आ जाते है। यह विशेष स्थिति प्रत्येक १७६ वर्ष पश्चात ही आती है। इस कारण इसकी ऊर्जा में बड़ी बचत हुई और इसने ग्रहों के गुरुत्व का प्रयोग किया था। .

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वॉयेजर प्रथम

वोयेजर प्रथम अंतरिक्ष यान एक ७२२ कि.ग्रा का रोबोटिक अंतरिक्ष प्रोब था। इसे ५ सितंबर, १९७७ को लॉन्च किया गया था। वायेजर १ अंतरिक्ष शोध यान एक ८१५ कि.ग्रा वजन का मानव रहित यान है जिसे हमारे सौर मंडल और उसके बाहर की खोज के लिये प्रक्षेपित किया गया था। यह अभी भी (मार्च २००७) कार्य कर रहा है। यह नासा का सबसे लम्बा अभियान है। इस यान ने गुरू और शनि ग्रहों की यात्रा की है और यह यान इन महाकाय ग्रहों के चन्द्रमा की तस्वीरें भेजने वाला पहला शोध यान है। वायेजर १ मानव निर्मित सबसे दूरी पर स्थित वस्तु है और यह पृथ्वी और सूर्य दोनों से दूर अनंत अंतरिक्ष में अभी भी गतिशील है। न्यू हॉराइज़ंस शोध यान जो इसके बाद छोड़ा गया था, वायेजर १ की तुलना में कम गति से चल रहा है इसलिये वह कभी भी वायेजर १ को पीछे नहीं छोड़ पायेगा। .

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खगोलशास्त्र से सम्बन्धित शब्दावली

यह पृष्ठ खगोलशास्त्र की शब्दावली है। खगोलशास्त्र वह वैज्ञानिक अध्ययन है जिसका सबंध पृथ्वी के वातावरण के बाहर उत्पन्न होने वाले खगोलीय पिंडों और घटनाओं से होता है। .

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गिगामीटर

गिगामीटर (गि॰मी॰, gigametre) लम्बाई का एक माप है जो एक अरब मीटर (यानि दस लाख किलोमीटर) के बराबर होता है। इसका प्रयोग अंतरिक्ष में दूरियाँ मापने के लिये होता है, हालांकि प्रकाशवर्ष और खगोलीय इकाई (ख॰इ॰, astronomical units, AU) का प्रयोग इस से अधिक प्रचलित है। .

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ग्रह

हमारे सौरमण्डल के ग्रह - दायें से बाएं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून सौर मंडल के ग्रहों, सूर्य और अन्य पिंडों के तुलनात्मक चित्र सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ के अनुसार हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह हैं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून। इनके अतिरिक्त तीन बौने ग्रह और हैं - सीरीस, प्लूटो और एरीस। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अन्तर इस तरह किया- रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिण्ड हमेशा पूरब की दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति प्राप्त करते हैं और पश्चिम की दिशा में अस्त होते हैं। इन पिण्डों का आपस में एक दूसरे के सापेक्ष भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन पिण्डों को तारा कहा गया। पर कुछ ऐसे भी पिण्ड हैं जो बाकी पिण्डों के सापेक्ष में कभी आगे जाते थे और कभी पीछे - यानी कि वे घुमक्कड़ थे। Planet एक लैटिन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है इधर-उधर घूमने वाला। इसलिये इन पिण्डों का नाम Planet और हिन्दी में ग्रह रख दिया गया। शनि के परे के ग्रह दूरबीन के बिना नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों को केवल पाँच ग्रहों का ज्ञान था, पृथ्वी को उस समय ग्रह नहीं माना जाता था। ज्योतिष के अनुसार ग्रह की परिभाषा अलग है। भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु। .

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ग्लैडीएटर

लीबिया (लेप्टिस माग्ना) से ज्लिटेन मोज़ेक का हिस्सा, लगभग 8-10 ई. इसमें (बाएं से दाएं) एक थ्रैक्स एक मुर्मिलो से लड़ते हुए, एक होप्लोमाकस एक अन्य मुर्मिलो (जो रेफरी को अपनी हार का संकेत दे रहा है) के साथ खड़े और एक मिलान की हुई जोड़ी को दर्शाया गया है। एक ग्लैडीएटर (gladiator, "तलवारबाज़", gladius, "तलवार" से) एक सशस्त्र योद्धा हुआ करता था जो अन्य ग्लैडीएटरों, जंगली जानवरों और दंडित अपराधियों के साथ हिंसक मुक़ाबला करके रोमन गणराज्य और रोमन साम्राज्य में दर्शकों का मनोरंजन करता था। कुछ ग्लैडीएटर स्वयंसेवक होते थे जो अखाड़े में उपस्थित होकर अपनी कानूनी और सामाजिक स्थिति और अपने जीवन को खतरे में डालते थे। इनमें से अधिकांश को दास के रूप में तिरस्कृत किया जाता था, इन्हें कठोर परिस्थितियों में पाला जाता था, सामाजिक रूप से हाशिए पर रखा जाता था और मौत के बाद भी पृथक्कृत किया जाता था। अपने मूल की परवाह किए बगैर, ग्लैडिएटर दर्शकों के समक्ष रोम की फौजी नैतिकता का एक उदाहरण प्रस्तुत करते थे और लड़ाई में या अच्छे से मरते हुए, वे सम्मान और लोकप्रिय अभिनंदन को उद्वेलित कर सकते थे। उनकी प्रशंसा उच्च और निम्न कला में होती थी और मनोरंजनकर्ता के रूप में उनके मूल्य को सम्पूर्ण रोमन साम्राज्य में बहुमूल्य और सामान्य वस्तुओं में अभिव्यक्त किया जाता था। ग्लैडीएटर लड़ाइयों की उत्पत्ति एक बहस का मुद्दा है। तीसरी शताब्दी BCE के प्यूनिक युद्धों के दौरान अंत्येष्टि के संस्कारों में इसके सबूत मिलते हैं और उसके बाद यह तेजी से रोमन साम्राज्य में राजनीति और सामाजिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया। इसकी लोकप्रियता ने इसे और अधिक भव्य और महंगे परिदृश्य या "ग्लैडीएटर खेलों" में इसके उपयोग को प्रेरित किया। ये खेल पहली शताब्दी ईसा पूर्व और दूसरी शताब्दी के बीच अपने चरम पर पहुंचे और वे पतनशील रोमन राज्य के सामाजिक और आर्थिक संकट के दौरान न केवल कायम रहे, बल्कि चौथी शताब्दी में ईसाई धर्म के आधिकारिक धर्म बन जाने के बाद भी चलते रहे। ईसाई सम्राटों ने कम से कम पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक ऐसे मनोरंजन को प्रायोजित करना जारी रखा, जब अंतिम ज्ञात ग्लैडीएटर खेलों का आयोजन हुआ था। .

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गैलिलेयो (अंतरिक्ष यान)

गैलिलेयो यान निर्मित होते हुए गैलिलेयो (या गैलिलियो) एक अमेरिकी अंतरिक्ष अन्वेषण यान था जो कि बृहस्पति ग्रह का अन्वेषण करता था। गैलिलेयो (Galileo) अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्था नासा द्वारा अंतरिक्ष शटल अटलांटिस से भेजा गया अंतरिक्ष यान था जो हमारे सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति और उसके प्राकृतिक उपग्रहों का अध्ययन करने के लिए भेजा गया था। यह परिक्रमा करने वाले ऑर्बिटर प्रकार का था। .

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गैलीलियो प्रोब

गैलीलियो प्रोब बृहस्पति ग्रह का एक अन्वेषण अंतरिक्ष यान है। यह डिसेन्ट प्रोब प्रकार का है। श्रेणी:बृहस्पति के अंतरिक्ष यान.

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गैस दानव

हमारे सौर मण्डल के चार गैस दानव - सूर्य के आगे दर्शाए गए गैस दानव उन ग्रहों को कहा जाता है जिनमें मिटटी-पत्थर की बजाय ज़्यादातर गैस ही गैस होती है और जिनका आकार बहुत ही विशाल होता है। हमारे सौर मण्डल में चार ग्रह इस श्रेणी में आते हैं - बृहस्पति, शनि, अरुण (युरेनस)) और वरुण (नॅप्टयून)। इनमें पायी जाने वाली गैस ज़्यादातर हाइड्रोजन और हीलियम होती है, हालाँकि इनमें अक्सर और गैसें भी मिलती हैं, जैसे कि अमोनिया। अन्य सौर मंडलों में बहुत से गैस दानव ग्रह पाए जा चुके हैं। .

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आर्यभट

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। .

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कामसूत्र

मुक्तेश्वर मंदिर की कामदर्शी मूर्ति कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र (en:Sexology) ग्रंथ है। कामसूत्र को उसके विभिन्न आसनों के लिए ही जाना जाता है। महर्षि वात्स्यायन का कामसूत्र विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ कामसूत्र की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला भाष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद सर रिचर्ड एफ़ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र ‘सुगन्धित बाग’ (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है। महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अंतर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। .

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कक्षीय अनुनाद

कक्षीय अनुनाद (Orbital resonance) पाया जाता है जब दो या दो से अधिक पिंड किसी एक ही बड़े पिंड की परिक्रमा समान अवधि में पूरी करते है। उदाहरण के लिए बृहस्पति के उपग्रहों गेनिमेड, युरोपा और आयो का 1: 2: 4 का अनुनाद, तथा प्लुटो और नेप्च्यून के बीच 2: 3 का अनुनाद। आयो, युरोपा और गेनिमेड बृहस्पति के ठीक क्रमशः चार, दो व एक चक्कर लगाने में समान समय लेते है। इसी तरह प्लूटो सूर्य के दो चक्कर (246 x 2 .

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कक्षीय अवधि

किसी पिण्ड की कक्षीय अवधि अथवा परिक्रमण काल या संयुति काल उसके द्वारा किसी दूसरे निकाय का एक पूरा चक्कर लगाने में लिया गया समय है। .

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कुम्भ मेला

हरिद्वार के कुंभ मेले (2010) के दौरान गंगा किनारे स्नान घाट पर श्रद्धालु २००१ के प्रयाग कुम्भ मेले का दृष्य कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हुआ था। खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात स्वर्ग दर्शन माना जाता है। .

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केल्विन-हेल्महोल्ट्ज़ तंत्र

केल्विन, हेल्महोल्ट्ज़ और अपने तंत्र केल्विन-हेल्महोल्ट्ज़ तंत्र (Kelvin–Helmholtz mechanism), एक खगोलीय प्रक्रिया है। यह तब पाई जाती है जब किसी तारे या ग्रह की सतह ठंडी होती है। यह ठंडापन, दाब के पतन का कारण बनता है, परिणामस्वरूप तारा या ग्रह सिकुड़ता है। यह संपीड़न, अगले चरण में, तारा/ग्रह के कोर को तप्त कर देता है। यह तंत्र बृहस्पति व शनि और भूरे बौनों पर प्रमाणित हुए, जिनके केंद्रीय तापमान नाभिकीय संलयन अंतर्गत गुजरने के लिए पर्याप्त ऊंचे नहीं हैं | ऐसा अनुमान है कि इस तंत्र के माध्यम से बृहस्पति सूर्य से प्राप्त ऊर्जा की तुलना में अधिक छोड़ता है, पर शनि कदाचित नहीं। यह तंत्र सूर्य की ऊर्जा के स्रोत की व्याख्या करने के लिए 19 वीं सदी में मूल रूप से केल्विन और हेल्महोल्ट्ज़ द्वारा प्रस्तावित हुआ था। मध्य 19 वीं शताब्दी तक, ऊर्जा का संरक्षण स्वीकार कर लिया गया था और भौतिकी के इस सिद्धांत का एक परिणाम यह है कि सूर्य के पास अपनी चमक को जारी रखने के लिए कुछ ऊर्जा स्रोत अवश्य होने चाहिए | चुंकि परमाणु अभिक्रिया अज्ञात थी, सौर ऊर्जा के स्रोत के लिए मुख्य उम्मीदवार गुरुत्वीय संकुचन था | हालांकि, इसे सर आर्थर एडिंगटन और दूसरों के द्वारा शीघ्र मान्यता दी गई कि इस तंत्र के माध्यम से उपलब्ध ऊर्जा की कुल राशि ने सूर्य को अरबों वर्षों के बजाय केवल लाखों वर्षों के लिए ही चमकने की अनुमति दी थी, जिसे कि भूवैज्ञानिक और जैविक प्रमाण ने पृथ्वी की आयु के लिए सुझाया हुआ था। (केल्विन ने खुद तर्क दिया था कि पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी है, न कि अरबों वर्ष) सूर्य की ऊर्जा का वास्तविक स्रोत 1930 के दशक तक, नाभिकीय संलयन होने के लिए इसे हैंस बेथे द्वारा दिखाए जाने तक, अनिश्चित बना रहा था। .

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अपसौरिका

250px अपसौरिका(अंग्रेज़ी:Perihelion पृथ्वी) के दीर्घवृत्ताकार पथ पर वह बिंदु है जहाँ इसकी आकर्षण के केंद्र (अर्थात् मोटे तौर पर सूर्य के केंद्र) से दूरी अधिकतम होती है। आकर्षण का यह केंद्र सामान्यतः निकाय का द्रव्यमान केंद्र होता है। .

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अब्द

अब्द का अर्थ वर्ष है। यह वर्ष, संवत्‌ एवं सन्‌ के अर्थ में आजकल प्रचलित है क्योंकि हिंदी में इस शब्द का प्रयोग सापेक्षिक दृष्टि से कम हो गया है। शताब्दी, सहस्राब्दी, ख्रिष्टाब्द आदि शब्द इसी से बने हैं। अनेक वीरों, महापुरुषों, संप्रदायों एवं घटनाओं के जीवन और इतिहास के आरंभ की स्मृति में अनेक अब्द या संवत्‌ या सन्‌ संसार में चलाए गए हैं, यथा, १. सप्तर्षि संवत् - सप्तर्षि (सात तारों) की कल्पित गति के साथ इसका संबंध माना गया है। इसे लौकिक, शास्त्र, पहाड़ी या कच्चा संवत्‌ भी कहते हैं। इसमें २४ वर्ष जोड़ने से सप्तर्षि-संवत्‌-चक्र का वर्तमान वर्ष आता है। २. कलियुग संवत् - इसे 'महाभारत सम्वत' या 'युधिष्ठिर संवत्‌' कहते हैं। ज्योतिष ग्रंथों में इसका उपयोग होता है। शिलालेखों में भी इसका उपयोग हुआ है। ई.॰ईपू॰ ३१०२ से इसका आरंभ होता है। वि॰सं॰ में ३०४४ एवं श.सं.

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अरुण (ग्रह)

अरुण (Uranus), या यूरेनस हमारे सौर मण्डल में सूर्य से सातवाँ ग्रह है। व्यास के आधार पर यह सौर मण्डल का तीसरा बड़ा और द्रव्यमान के आधार पर चौथा बड़ा ग्रह है। द्रव्यमान में यह पृथ्वी से १४.५ गुना अधिक भारी और अकार में पृथ्वी से ६३ गुना अधिक बड़ा है। औसत रूप में देखा जाए तो पृथ्वी से बहुत कम घना है - क्योंकि पृथ्वी पर पत्थर और अन्य भारी पदार्थ अधिक प्रतिशत में हैं जबकि अरुण पर गैस अधिक है। इसीलिए पृथ्वी से तिरेसठ गुना बड़ा अकार रखने के बाद भी यह पृथ्वी से केवल साढ़े चौदह गुना भारी है। हालांकि अरुण को बिना दूरबीन के आँख से भी देखा जा सकता है, यह इतना दूर है और इतनी माध्यम रोशनी का प्रतीत होता है के प्राचीन विद्वानों ने कभी भी इसे ग्रह का दर्जा नहीं दिया और इसे एक दूर टिमटिमाता तारा ही समझा। १३ मार्च १७८१ में विलियम हरशल ने इसकी खोज की घोषणा करी। अरुण दूरबीन द्वारा पाए जाने वाला पहला ग्रह था। हमारे सौर मण्डल में चार ग्रहों को गैस दानव कहा जाता है, क्योंकि इनमें मिटटी-पत्थर की बजाय अधिकतर गैस है और इनका आकार बहुत ही विशाल है। अरुण इनमे से एक है - बाकी तीन बृहस्पति, शनि और वरुण (नॅप्टयून) हैं। इनमें से अरुण की बनावट वरुण से बहुत मिलती-जुलती है। अरुण और वरुण के वातावरण में बृहस्पति और शनि के तुलना में बर्फ़ अधिक है - पानी की बर्फ़ के अतिरिक्त इनमें जमी हुई अमोनिया और मीथेन गैसों की बर्फ़ भी है। इसलिए कभी-कभी खगोलशास्त्री इन दोनों को "बर्फ़ीले गैस दानव" नाम की श्रेणी में डाल देते हैं। सौर मण्डल के सारे ग्रहों में से अरुण का वायुमण्डल सब से ठण्डा पाया गया है और उसका न्यूनतम तापमान -४९ कैल्विन (यानी -२२४° सेण्टीग्रेड) देखा गया है। इस ग्रह में बादलों की कई तहें देखी गई हैं। मानना है के सब से नीचे पानी के बादल हैं और सब से ऊपर मीथेन गैस के बादल हैं। यह भी माना जाता है कि यदि किसी प्रकार अरुण के बिलकुल बीच जाकर इसका केन्द्र देखा जा सकता तो वहाँ बर्फ़ और पत्थर पाए जाते। .

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अर्थशास्त्र

---- विश्व के विभिन्न देशों की वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर (सन २०१४) अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मनुष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है। अर्थशास्त्रीय विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे:- अपराध, शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध इत्यदि। प्रो.

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अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)

अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शती ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है। यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पत्र) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम चणक होने से) था। अर्थशास्त्र (15.431) में लेखक का स्पष्ट कथन है: चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (321-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, 15.6)' अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)। इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी.

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अवर एवं वरिष्ठ ग्रह

वें ग्रह जिनकी कक्षाएं पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य से नजदीक स्थित है अवर ग्रह (Inferior planet) कहलाते है। इसके विपरीत जिनकी कक्षाएं पृथ्वी की अपेक्षा सूर्य से दूर है वरिष्ठ ग्रह (superior planet) कहलाते है। इस प्रकार, बुध व शुक्र अवर ग्रह है और मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून वरिष्ठ ग्रह है। ध्यान रहे, यह वर्गीकरण आंतरिक व बाह्य ग्रह से अलग है जो उन ग्रहों के लिए नामित है जिनकी कक्षाएं क्रमशः क्षुद्रग्रह बेल्ट के भीतर और बाहर मौजूद है। "अवर ग्रह" लघु ग्रह या वामन ग्रह से भी बहुत अलग है। .

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अंतरिक्ष विज्ञान

गैलेक्सी के एक भाग को प्रदर्शित करता हुआ एक तस्वीर अंतरिक्ष विज्ञान एक व्यापक शब्द है जो ब्रह्मांड के अध्ययन से जुड़े विभिन्न विज्ञान क्षेत्रों का वर्णन करता है तथा सामान्य तौर पर इसका अर्थ "पृथ्वी के अतिरिक्त" तथा "पृथ्वी के वातावरण से बाहर" भी है। मूलतः, इन सभी क्षेत्रों को खगोल विज्ञान का हिस्सा माना गया था। हालांकि, हाल के वर्षों में खगोल के कुछ क्षेत्रों, जैसे कि खगोल भौतिकी, का इतना विस्तार हुआ है कि अब इन्हें अपनी तरह का एक अलग क्षेत्र माना जाता है। कुल मिला कर आठ श्रेणियाँ हैं, जिनका वर्णन अलग से किया जा सकता है; खगोल भौतिकी, गैलेक्सी विज्ञान, तारकीय विज्ञान, पृथ्वी से असंबंधित ग्रह विज्ञान, अन्य ग्रहों का जीव विज्ञान, एस्ट्रोनॉटिक्स/ अंतरिक्ष यात्रा, अंतरिक्ष औपनिवेशीकरण और अंतरिक्ष रक्षा.

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उपसौर और अपसौर

'''1'''- ग्रह अपसौर पर, '''2'''- ग्रह उपसौर पर, '''3'''- सूर्य उपसौर और अपसौर (Perihelion and Aphelion), किसी ग्रह, क्षुद्रग्रह या धूमकेतु की अपनी कक्षा पर सूर्य से क्रमशः न्यूनतम और अधिकतम दूरी है। सौरमंडल में ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है, कुछ ग्रहों की कक्षाएं करीब-करीब पूर्ण वृत्ताकार होती है, लेकिन कुछ की नहीं।| कुछ कक्षाओं के आकार अंडाकार जैसे ज्यादा है या इसे हम एक खींचा या तना हुआ वृत्त भी कह सकते है। वैज्ञानिक इस अंडाकार आकार को "दीर्घवृत्त" कहते है। यदि एक ग्रह की कक्षा वृत्त है, तो सूर्य उस वृत्त के केंद्र पर है। यदि, इसके बजाय, कक्षा दीर्घवृत्त है, तो सूर्य उस बिंदु पर है जिसे दीर्घवृत्त की "नाभि" कहा जाता है, यह इसके केंद्र से थोड़ा अलग है। एक दीर्घवृत्त में दो नाभीयां होती है। चूँकि सूर्य दीर्घवृत्त कक्षा के केंद्र पर नहीं है, ग्रह जब सूर्य का चक्कर लगाते है, कभी सूर्य की तरफ करीब चले आते है तो कभी उससे परे दूर चले जाते है। वह स्थान जहां से ग्रह सूर्य से सबसे नजदीक होता है उपसौर कहलाता है। जब ग्रह सूर्य से परे सबसे दूर होता है, यह अपसौर पर होता है। जब पृथ्वी उपसौर पर होती है, यह सूर्य से लगभग १४.७ करोड़ कि॰मी॰(3janwari) (९.१ करोड़ मील) दूर होती है। जब अपसौर पर होती है, सूर्य से १५.२ करोड़ कि॰मी॰ (९.५ करोड़ मिल) दूर होती है। पृथ्वी, अपसौर (4jun)पर उपसौर पर की अपेक्षा सूर्य से ५० लाख कि॰मी॰ (३० लाख मील) ज्यादा दूर होती है।उपसौर की स्थिति 3जनवरी को होती है। .

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उपग्रही छल्ला

हमारे सौर मण्डल के शनि ग्रह के मशहूर उपग्रहीय छल्ले बर्फ़ और धूल के बने हैं खगोलशास्त्र में उपग्रही छल्ला किसी ग्रह के इर्द गिर्द घूमता हुआ पत्थरों, धुल, बर्फ़ और अन्य पदार्थों का बना हुआ छल्ला होता है। हमारे सौर मण्डल में इसकी सबसे बड़ी मिसाल शनि की परिक्रमा करते हुए उसके छल्ले हैं। हमारे सौर मण्डल के अन्य तीन गैस दानव ग्रहों - बृहस्पति, अरुण और वरुण - के इर्द-गिर्द भी उपग्रहीय छल्ले हैं लेकिन उनकी संख्या और चौड़ाई शनि के छल्लों से कई कम है। .

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१० हायजीया

१० हायजीया की परिक्रमा कक्षा (नीले रंग) में मंगल ग्रह और बृहस्पति ग्रह (सबसे बाहरी लाल) की कक्षाओं के बीच है १० हायजीया (10 Hygiea) हमारे सौर मंडल का चौथा सबसे बड़ा क्षुद्रग्रह है। यह क्षुद्रग्रह घेरे में स्थित है और ३५०-५०० किमी के लगभग अंडाकार आकार के साथ इसमें क्षुद्रग्रह घेरे के कुल द्रव्यमान (मास) का क़रीब २.९% इसी एक क्षुद्रग्रह में निहित है। यह C-श्रेणी क्षुद्रग्रहों का सबसे बड़ा सदस्य है और एक गाढ़े रंग की कार्बनयुक्त सतह रखता है। अपने गहरे रंग के कारण इसे अपने बड़े आकार के बावजूद पृथ्वी से देखना कठिन है। .

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१७ जुलाई

१७ जुलाई ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का १९८वॉ (लीप वर्ष में १९९वॉ) दिन है। वर्ष में अभी और १६७ दिन बाकी है। .

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१९९४

1994 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२०१० हरिद्वार महाकुम्भ

हरिद्वार महाकुंभ २०१० का प्रतीक-चिह्न महाकुम्भ भारत का एक प्रमुख उत्सव है जो ज्योतिषियों के अनुसार तब आयोजित किया जाता है जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है। कुम्भ का अर्थ है घड़ा। यह एक पवित्र हिन्दू उत्सव है। यह भारत में चार स्थानो पर आयोजित किया जाता है: प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। २०१० का कुम्भ मेला हरिद्वार में आयोजित किया जा रहा है। पिछली बार १९९९ में महाकुम्भ का आयोजन यहाँ किया गया था। मकर संक्राति के दिन अर्थात १४ जनवरी, २०१० को इस मेले का शुभारम्भ हो गया है। हरिद्वार में जारी इस मेले में इस बार ७ करोड़ से भी अधिक लोगों के आने का अनुमान है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार समुद्रमंथन के दौरान निकला अमृतकलश १२ स्थानों पर रखा गया था जहां अमृत की बूंदें छलक गई थीं। इन १२ स्थानों में से आठ ब्रह्मांड में माने जाते हैं और चार धरती पर जहां कुंभ लगता है। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि इस मेले में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। .

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२०१२

२०१२ (MMXII) ग्रेगोरियन कैलेंडर के रविवार को शुरू होने वाला एक अधिवर्ष अथवा लीप ईयर होगा। इस वर्ष को गणितज्ञ ट्यूरिंग, कंप्यूटर के अग्र-दूत और कोड -भंजक, की याद में उनकी सौवीं वर्षगांठ पर एलन ट्यूरिंग वर्ष नामित किया गया है। .

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