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बुरहानपुर

सूची बुरहानपुर

बुरहानपुर भारत के मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है। बुरहानपुर मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे पर स्थित एक नगर है। यह ख़ानदेश की राजधानी था। इसको चौदहवीं शताब्दी में ख़ानदेश के फ़ारूक़ी वंश के सुल्तान मलिक अहमद के पुत्र नसीर द्वारा बसाया गया। .

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एहसान जाफ़री

एहसान जाफ़री (1929 – 28 फ़रवरी 2002) कांग्रेस के एक भूतपूर्व संसद थे। वो छठी लोक सभा के सदस्य रहे। उनका 2002 की गुजरात हिंसा के दौरान मुस्लिम विरोधी हिंसा में "गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार" में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी ज़ाकिया जाफ़री के अनुसार, एहसान जाफ़री की मृत्यु के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तरदायी है। .

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झेलम एक्स्प्रेस १०७७

झेलम एक्स्प्रेस झेलम एक्स्प्रेस १०७७ भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन पुणे जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:PUNE) से ०५:२०PM बजे छूटती है और जम्मू तवी रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:JAT) पर ०८:५५AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है ३९ घंटे ३५ मिनट। झेलम एक्सप्रेस भारतीय रेल पर एक दैनिक ट्रेन है। यह पुणे से, जो महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी है से लेकर जम्मू तवी, जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी से उत्तर भारत मे चलती है। इसके अलावा, यह ट्रेन सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है; क्युंकि यह भारतीय सेना के मुख्यालय के दक्षिण कमान, पुणे को एक महत्त्वपूर्ण सीमा स्थित शहर से जोड़ता है। यह ट्रेन कुल मिलाकर ६५ स्टेशनों पर रूकती हैl यह ट्रैन कुल मिलाकर जम्मू तवी और पुणे के बीच २१७३ किलोमीटर का फासला तय करती हैl .

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ताप्ती नदी

ताप्ती (संस्कृत: तापी, मराठी: तापी; गुजराती: તાપ્તી) पश्चिमी भारत की प्रसिद्ध नदी है। यह मध्य प्रदेश राज्य के बैतूल जिले के मुलताई से निकलकर सतपुड़ा पर्वतप्रक्षेपों के मध्य से पश्चिम की ओर बहती हुई महाराष्ट्र के खानदेश के पठार एवं सूरत के मैदान को पार करती और अरब सागर में गिरती है। नदी का उद्गगम् स्थल मुल्ताई है। यह भारत की उन मुख्य नदियों में है जो पूर्व से पश्चिम की तरफ बहती हैं, अन्य दो हैं - नर्मदा नदी और माही नदी। यह नदी पूर्व से पश्चिम की ओर लगभग 740 किलोमीटर की दूरी तक बहती है और खम्बात की खाड़ी में जाकर मिलती है। सूरत बन्दरगाह इसी नदी के मुहाने पर स्थित है। इसकी प्रधान उपनदी का नाम पूर्णा है। इस नदी को सूर्यपुत्री भी कहा जाता है।   समुद्र के समीप इसकी ३२ मील की लंबाई में ज्वार आता है, किंतु छोटे जहाज इसमें चल सकते हैं। पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के इतिहास में इसके मुहाने पर स्थित स्वाली बंदरगाह का बड़ा महत्व है। गाद जमने के कारण अब यह बंदरगाह उजाड़ हो गया है। .

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दानियाल

दानियाल मुगल सम्राट् अकबर का सबसे छोटा और प्रिय पुत्र। वह सितंबर १५७२ में अजमेर में उत्पन्न हुआ। १५९९ में वह दक्षिण प्रदेश का सैन्य अधिपति नियुक्त किया गया। १६०० में इसने अहमदनगर को जीत लिया। अकबर ने सन् १६०१ में खानदेश नाम का प्रांत इसे पुरस्कारस्वरूप प्रदान किया। उस प्रांत का नाम सुलतान दानियाल के नाम पर 'दानदेश' पड़ गया। अबुल फ़जल कृत आइने अकबरी में इसका उल्लेख मिलता है। यह कुशल घुड़सवार था और सात हजार की विशाल सैनिक संख्या का अधिपति था। कहते हैं, इसे कविता लिखने में भी रुचि थी। अप्रैल १६०५ में बुरहानपुर में इसकी मृत्यु हो गयी। श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य.

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निज़ाम-उल-मुल्क आसफजाह

मीर क़मर-उद-दीन ख़ान सिद्दिक़ी उर्फ़ निजाम-उल-मुल्क आसफजाह (२0 अगस्त १६७१- १ जून १७४८) मुग़ल शासक औरंगजेब के बाद के हैदराबाद का प्रसिद्ध निज़ाम था, जिसने आसफ़जाही राजवंश की नींव रखी। उसने १७२४ में हैदराबाद राज्य की स्थापना की तथा ३१ जुलाई १७२0 से लेकर १ जून १७४८ (मृत्युपर्यंत) तक शासन किया। औरंगज़ेब ने उसे चिंकिलिच ख़ान (१६९0-९१)), फ़र्रूख़सियर ने निज़ाम-उल-मुल्क (१७१३) तथा मुहम्मद शाह ने आसफ़जाह (१७२५)आदि उपाधियाँ प्रदान की। .

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नेपा लिमिटेड

नपा लिमिटिड का एक अखबार। नेपा लिमिटेड भारत में अखबारी कागज बनाने वाला भारत सरकार का सार्वजनिक क्षेत्र का अग्रणी उपक्रम है। यह मूलतः निजी उद्यमी द्वारा 1947 में चालू किया गया। वर्ष 1949 में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रबंधन अपने हाथ में लिया और वर्ष 1959 में केन्द्र सरकार के अधीन होकर सार्वजनिक उपक्रम बना। नेपा लिमिटेड देश में प्रथम अखबारी कागज का कारखाना है। नेपानगर, जिला बुरहानपुर मध्यप्रदेश, भारत पिन 450221, (मुम्बई से 526 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में मुख्य मध्य रेलवे लाईन पर स्थित है। जो नेपा को मुम्बई-भोपाल-नई दिल्ली को जोड़ती है।) भुसावल से 85 किलोमीटर एवं इन्दौर से 200 किलोमीटर। .

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बहादुर शाह प्रथम

बहादुर शाह प्रथम का जन्म 14 अक्तूबर, सन् 1643 ई. में बुरहानपुर, भारत में हुआ था। बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुग़ल बादशाह (1707-1712 ई.) था। 'शहज़ादा मुअज्ज़म' कहलाने वाले बहादुरशाह, बादशाह औरंगज़ेब का दूसरा पुत्र था। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहज़ादा मुअज्ज़म ही औरंगज़ेब के संभावी उत्तराधिकारी बना। बहादुर शाह प्रथम को 'शाहआलम प्रथम' या 'आलमशाह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। .

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भारत के प्रस्तावित राज्य तथा क्षेत्र

भारत के प्रस्तावित राज्य तथा क्षेत्र भारत में नए राज्यों और क्षेत्रों के निर्माण का अधिकार पूरी तरह से भारत की संसद के लिए आरक्षित है। संसद नए राज्यों की घोषणा करके, किसी मौजूदा राज्य से एक क्षेत्र को अलग करके, या दो या दो से अधिक राज्यों या उसके हिस्सों में विलय करके ऐसा कर सकती है। मौजूदा उनत्तीस राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों के अलावा समय के साथ भारत में कई नए राज्यों और क्षेत्रों को स्थापित करने का प्रस्ताव रखा जाता रहा है। .

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भारत के शहरों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन एवं मध्यप्रदेश के कई नगर उस से हटा कर छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है। हाल के वर्षों में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर हो गया है। खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की 30% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य में वर्ष 2010-11 राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीत लिया। .

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मध्य प्रदेश का पर्यटन

मध्य प्रदेश भारत के ठीक मध्य में स्थित है। अधिकतर पठारी हिस्से में बसे मध्यप्रदेश में विन्ध्य और सतपुडा की पर्वत श्रृखंलाएं इस प्रदेश को रमणीय बनाती हैं। ये पर्वत श्रृखंलाएं हैं कई नदियों के उद्गम स्थलों को जन्म देती हैं, ताप्ती, नर्मदा,चम्बल, सोन,बेतवा, महानदी जो यहां से निकल भारत के कई प्रदेशों में बहती हैं। इस वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक देन की वजह से मध्यप्रदेश एक बेहद खूबसूरत हर्राभरा हिस्सा बन कर उभरता है। जैसे एक हरे पत्ते पर ओस की बूंदों सी झीलें, एक दूसरे को काटकर गुजरती पत्ती की शिराओं सी नदियां। इतना ही विहंगम है मध्य प्रदेश जहां, पर्यटन की अपार संभावनायें हैं। हालांकि 1956 में मध्यप्रदेश भारत के मानचित्र पर एक राज्य बनकर उभरा था, किन्तु यहां की संस्कृति प्राचीन और ऐतिहासिक है। असंख्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें विशेषत: उत्कृष्ट शिल्प और मूर्तिकला से सजे मंदिर, स्तूप और स्थापत्य के अनूठे उदाहरण यहां के महल और किले हमें यहां उत्पन्न हुए महान राजाओं और उनके वैभवशाली काल तथा महान योध्दाओं, शिल्पकारों, कवियों, संगीतज्ञों के साथ-साथ हिन्दु, मुस्लिम,जैन और बौध्द धर्म के साधकों की याद दिलाते हैं। भारत के अमर कवि, नाटककार कालिदास और प्रसिध्द संगीतकार तानसेन ने इस उर्वर धरा पर जन्म ले इसका गौरव बढाया है। मध्यप्रदेश का एक तिहाई हिस्सा वन संपदा के रूप में संरक्षित है। जहां पर्यटक वन्यजीवन को पास से जानने का अदभुत अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। कान्हा नेशनल पार्क,बांधवगढ़, शिवपुरी आदि ऐसे स्थान हैं जहां आप बाघ, जंगली भैंसे, हिरणों, बारहसिंघों को स्वछंद विचरते देख पाने का दुर्लभ अवसर प्राप्त कर सकते हैं। मध्यप्रदेश के हर इलाके की अपनी संस्कृति है और अपनी धार्मिक परम्पराएं हैं जो उनके उत्सवों और मेलों में अपना रंग भरती हैं। खजुराहो का वार्षिक नृत्यउत्सव पर्यटकों को बहुत लुभाता है और ओरछा और पचमढी क़े उत्सव वहा/ कि समृध्द लोक और आदिवासी संस्कृति को सजीव बनाते हैं। मध्यप्रदेश की व्यापकता और विविधता को खयाल में रख हम इसे पर्यटन की सुविधानुसार पांच भागों में बांट सकते र्हैं मध्य प्रदेश राज्य में अत्यधिक पर्यटन स्थल हैं। .

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मध्य प्रदेश के शहरों की सूची

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मलिक अंबर

मलिक अम्बर मलिक अंबर का जन्म संभवत: 1549 में एक हब्शी परिवार में हुआ। बाल्यकाल में ही उसे दास बनाकर बगदाद के बाजार में ले जाकर ख्वाजा पीर बगदाद के हाथों बेचा गया। ख्वाज़ा मलिक अंबर के साथ दक्षिण भारत गया जहाँ उसे निजामशाह प्रथम के मंत्री चंगे़ज खाँ ने खरीद लिया। मलिक अंबर की बुद्धि कुशाग्र, प्रकृति प्रतिभायुक्त और उदार थी, अत: उसे अन्य गुलामों की अपेक्षा ख्याति पाने में देर न लगी। चंगेज खाँ के संरक्षण में रहकर निज़ामशाही राजनीति तथा सैनिक प्रबंध को समझने का उसको अवसर प्राप्त हुआ। चंगेज खाँ की आकस्मिक मृत्यु होने के कारण वह कुछ समय तक इधर-उधर निजामशाही राज्य में ठोकरें खाता रहा। निजामशाही राज्य पर काले बादलों को आच्छादित होते देखकर तथा दलबंदी के संताप और मुगलों के निरंतर आक्रमणों से भयभीत होकर ख्याति पाने की आशा से वह बीजापुर और गोलकुंडा गया परंतु जब इन राज्यों में भी यथेष्ट सुअवसर प्राप्त न हुआ तक वह अन्य हब्शियों के साथ फिर अहमदनगर लौट आया। वह सेना में भरती हुआ और उसे अमँग खाँ ने 150 अश्वारोहियों का सरदार नियुक्त किया। वह अपने आश्रयदाता के साथ चुनार पहुँचा और उसने मुगल आक्रमणकारियों को परेशान करना प्रारंभ किया। शत्रु के शिविरों पर छापा मारकर वह रसद लूट लेता था और उसके प्रदेश में घुस पड़ता था। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी ख्याति बढ़ने लगी। परंतु जब अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया और निजामशाही राज्य अपनी अंतिम साँसें ले रहा था तब मलिक अंबर को अपने अदम्य साहस, शक्ति एवं गुणों का परिचय देने का अवसर मिला। मराठों की सहायता से उसने एक सेना का निर्माण करके निजामशाही परिवार के अली नाम के व्यक्ति को गद्दी पर बिठाकर परेंदा में नवीन राजधानी स्थापित की। ह्रासग्रस्त राज्य का पुन: संगठन करके और सुख शांति के वातावरण का प्रतिपादन करके उसने एक नवीन जाग्रति पैदा कर दी। निजामशाही राज्य पुन: प्रभुता तथा ऐश्वर्य की ओर उन्मुख हो गया। परिस्थिति उसके अनुकूल थी। राजकुमार सलीम के अकस्मात् विद्रोह के कारण मुगल सेना का दक्षिण से हटना अनिवार्य हो गया था। फलत: मलिक अंबर ने मुगलों द्वारा विजय किए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार करना प्रारंभ कर दिया और अहमदनगर, प्राय: समस्त दक्षिण भाग, हस्तगत कर लिया। परंतु शीघ्र ही उसको एक अन्य कठिनाई का सामना करना पड़ा। सआदत खाँ ने, जो निजामशाही सरदार था, मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। यह देखकर उसके एक अनुधर राजू ने उसके अधिकृत प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लिया और उसने मुगलों से टक्कर लेना प्रारंभ कर दिया। वह भी परेंदा आया पर अन्य निज़ामशाही सेवकों में सम्मिलित हो गया। परंतु आशाजनक पद न पाने के कारण क्रुद्ध होकर वह अपने प्रदेश को वापस चला गया और वहाँ से निजामशाह को अंबर के विरुद्ध भड़काना प्रारंभ किया। फलस्वरूप, अंबर और राजू दोनों एक दूसरे के शत्रु हो गए। लेकिन अपने क्षेत्रों में दोनों मुगलों का मुकाबला करते रहे। इसके बावजूद 1605 तक मलिक अंबर की परिस्थिति दृढ़ ही होती गई। मुगलों की संपूर्ण अहमदनगर राज्य से निकालकर उसने परेंदा को छोड़ दिया और जुन्नार में नई राजधानी बनाई। राजू को परास्त कर उसने बंदी बना लिया और फिर मौत के घाट उतार दिया, तथा उसकी जागीर पर भी अधिकार कर लिया। मुगलों से टक्कर लेते लेते उसने खानेखाना को लोहे के चने चबवा दिए। अपने सेनाध्यक्ष खानेखाना की असफलता पर जहाँगीर को क्रोध आया और इसका कारण जानने के हेतु खानेखाना को दरबार में बुलाया गया। आगरा पहुँचकर खानेखाना ने विषम परिस्थिति का ब्योरा दिया, अतएव मलिक अंबर की बढ़ती हुई सत्ता का दमन करने के अभिप्राय से वह पुन: दक्षिण भेजा गया। अब मलिक अंबर ने बीजापुर और गोलकुंडा से सहायता ली और मुगलों पर टूट पड़ा। उसने खानेखाना की योजना को असफल कर दिया। विवश होकर सम्राट् ने राजकुमार और आसफ खाँ को एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण भेजा पर उसे भी कोई सफलता न मिली। मलिक अंबर की शक्ति दिन-प्रति-दिन बढ़ती गई और 1610 में समस्या इतनी गंभीर हो गई कि आसफ खाँ ने सम्राट् से अनुरोध किया कि वह स्वयं ही पधारें। जहाँगीर ने इस सुझाव पर विचार किया और दक्षिण प्रस्थान करने की बात सोची परंतु अन्य अमीरों ने इसका समर्थन न किया। अब दक्षिण की समस्या के हल का उत्तरदायित्व खानेजहाँ को सौंपा गया। परंतु इसके पूर्व कि वह वहाँ पहुँचे खानेखाना ने, अपने बेटों की मदद से वर्षा ऋतु में मलिक अंबर पर अचानक हमले की योजना बनाकर उसपर हमला कर दिया। मलिक अंबर तो तैयार ही बैठा था। उसने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए और खानेखाना को बुरहानपुर लौटने पर बाध्य कर दिया। उसको एक संधि पर हस्ताक्षर भी करने पड़े। तत्पश्चात् मलिक अंबर ने अहमदनगर के निकटवर्ती प्रदेशों पर अधिकार करके उसके किले पर घेरा ढाला और उसको भी छीन लिया। बरार और वालाकाट के कुछ भागों को छोड़कर लगभग संपूर्ण निजामशाही राज्य, जिसपर मुगलों ने 1600-1601 में अपना अधिकार जमा लिया था, अब मलिक अंबर ने उनके हाथों से छीन लिया और निजामशाही वंश के राज्य को पुनर्जीवन प्रदान किया। खानजहाँ लोदी ने प्रदेश में पहुँचकर वहाँ के वातावरण से परिचित होने का प्रयास किया। उसने सम्राट् को यह सुझाव दिया कि खानेखाना को हटाकर सेनापति पद का भार उसको ही सौंपा जाए। उसने वचन दिया कि यदि उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया तो वह अहमदनगर तथा बीजापुर के राज्यों पर मुगल सत्ता दो वर्षों के भीतर ही स्थापित कर देगा। जहाँगीर ने उसकी बातें मान लीं और उसे प्रचुर धन और सेना दी। फिर भी जब वह मलिक अंबर के विरुद्ध मैदान में उतरा, तब उसे यह प्रतीत हुआ कि यद्यपि शत्रु की तलवार उसकी तलवार से भारी नहीं, तथापि उसके लड़ने का ढंग अवश्य ही निराला है। कहने का तात्पर्य यह कि उसे भी मलिक अंबर के सामने झुकना पड़ा और उसका गर्व चूर चूर हो गया। मलिक अंबर को परास्त करने के अभिप्राय से सम्राट् ने एक विशाल योजना बनाई जिसका यह उद्देश्य था कि अहमदनगर पर तीन दिशाओं से एक साथ सैनिक अभियान करके मलिक अंबर को घेरकर उसकी सत्ता को नष्ट भ्रष्ट कर दिया जाए। परंतु यह योजना भी असफल सिद्ध हुई और शाही सेना अस्तव्यस्त होकर भाग खड़ी हुई। खोई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने के उद्देश्य से खानेखाना को फिर दक्षिण क्षेत्र में भेजा गया। वह वहाँ 1612 ई में पहुँचा। उसका यह सौभाग्य था कि इस समय निजामशाह के दरबार में आंतरिक फूट फैली थी। इस परिस्थिति से लाभान्वित होकर उसने अनेक दक्षिणी सरदारों को घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया। यद्यपि मलिक अंबर को बीजापुर और गोलकुंडा का सहयोग प्राप्त था, तिसपर भी कूटनीति और सबल सेना के सामने उसकी कुछ न चली। 1616 ई के युद्ध में उसे हार खानी पड़ी। विजेताओं ने किर्की को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। यद्यपि खानेखाना ने मुगल प्रतिष्ठा को एक सीमा तक फिर से स्थापित कर दिया था, परंतु उसपर घूसखोरी के आरोप लगते ही रहे। इसीलिए सम्राट् ने राजकुमार खुर्रम को एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में भेजा। राजकुमार के आगमन से दक्षिणी राज्यों में खलबली मच गई। शीघ्र ही बीजापुर तथा गोलकुंडा के नरेशों ने मुगलों से संधि कर ली। ऐसी दशा में जबकि मलिक अंबर मित्रहीन हो गया, उसके समक्ष सर झुकाने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं रह गया। अतएव विवश होकर उसने बालाघाट का क्षेत्र और अहमदनगर के दुर्ग की कुंजी मुगलों को सौंप दी और इस प्रकार निजामशाही राज्य को लोप होने से बचा लिया। अगले दो वर्षों तक वह चुपचाप अपने साधनों को जुटाने में लगा रहा। इधर मुगल सेना में विद्वेष की प्रचंड अग्नि प्रवाहित हो गई। अत: मलिक अंबर ने पुन: गोलकुंडा और बीजापुर को मिलाकर मुगल विरोधी संघ स्थापित कर लिया। दो वर्ष पूर्व हुई संधि की धाराओं का उल्लंघन कर वह मुगल अधिकृत क्षेत्रों पर टूट पड़ा और तीन मास की लघु अवधि में ही उसने मुगलाई अहमदनगर के अधिकांश भाग और बरार को हस्तगत कर लिया। उसने न केवल बालापुर को लूटा ही बल्कि उसपर घेरा भी डाला। बुरहानपुर की दिशा में पीछे हटती हुई मुगल सेनाओं पर निरंतर वार करता हुआ वह बुरहानपुर तक बढ़ गया। नगर के बाहर घेरा डाला और निकटवर्ती प्रदेश को खूब लूटा। इतना ही नहीं, उसने मालवा में प्रवेश करके मांडू पर भी छापा मारा। इससे नर्मदा के उत्तर और दक्षिण क्षेत्रों में मुगलों की ख्याति को बहुत धक्का लगा। परिस्थिति को निरंतर गंभीर होते हुए देखकर खानेखाना ने सैनिक सहायता की बार बार याचना की। सम्राट् ने राजकुमार शाहजहाँ को यह आदेश दिया वह सेना सहित दक्षिण को प्रस्थान करे। उसके वहाँ पहुँचते ही वातावरण शीघ्रता से बदलने लगा। उसकी सेना आँधी के समान शत्रु के देश पर आच्छादित हो गई। मराठे मांडू से भाग खड़े हुए और शत्रु को बुरहानपुर को दुर्ग भी खाली करना पड़ा। मुगलों ने अब किर्की पर धावा बोल दिया। संभवत: निज़ामशाह अपने परिवार सहित आक्रमणकारियों के हाथ पड़ जाता परंतु मलिक अंबर ने उन लोगों को दौलताबाद भेज दिया था। किर्की से चलकर मुगल सेना अहमदनगर पहुँची और उसको घेरे से मुक्त किया। मलिक अंबर दौलताबाद के दुर्ग से अपने दुर्भाग्य की गतिविधि को देख रहा था। कुछ विपरीत परिस्थितियों के कारण शाहजहाँ इस युद्ध को आगे बढ़ाना नहीं चाहता था। इसलिए उसने संधि करना ही उचित समझा। मलिक अंबर ने उस समस्त क्षेत्र को वापस कर दिया जो उसने गत दो वर्षों में मुगलों से छीन लिया था। इसके अतिरिक्त 14 कोस निकटवर्ती भूमि भी दी। तीनों दक्षिणी रियासतों ने 50 लाख रुपया कर के रूप में देने का वचन दिया 20 लाख गोलकुंडा ने और शेष 12 लाख अहमदनगर ने। इस प्रकार बड़े चातुर्य से मलिक अंबर ने निजामशाही राज्य को काल के मुँह से पुन: निकाल लिया। परंतु उसकी विपत्तियों का अंत न हुआ। फिर भी उसके साहस में कमी न आई। शाहजहाँ ने अपने पिता के प्रति विद्रोह करके मुगल साम्राज्य में राजनीतिक भूकंप पैदा कर दिया। अतएव जब उत्तर में परास्त होकर वह दक्षिण प्रदेश में पहुँचा और उसने मलिक अंबर से सहायता की याचना की, तब सम्राट् की शत्रुता मोल लेने के भय से मलिक अंबर ने इनकार कर दिया। परंतु इसके पीछे नीति भी थी। शोलापुर को लेकर निजामशाह और आदिलशाह में झगड़ा चल रहा था। उसमें उसको मुगलों की सहानुभूति प्राप्त करने की आशा थी। अतएव जब महावत खाँ शाहजहाँ का पीछा करते हुए दक्षिण प्रदेश में पहुँचा, तब आदिलशाह और मलिक अंबर दोनों ने ही मुगलाई सहायता के लिए याचना की। कुछ समय तक तो महावत खाँ ने दोनों को द्विविधा में रखा, परंतु तब शाहजहाँ बंगाल की ओर भाग गया तब मुगल सेनापति ने आदिलशाह को सहायता देने का वचन दिया। परंतु शीघ्र ही उसे बंगाल की ओर जाना पड़ा। इस सुअवसर से मलिक अंबर ने पूरा लाभ उठाया। सुरक्षा हेतु निजामशाह को तो उसने सपरिवार दौलताबाद भेज दिया और स्वयं सेना लेकर गोलकुंडा की सीमा की ओर बढ़ा। कुतुबशाह से धन लेकर संधि करके वह आदिलशाही प्रदेश पर टूट पड़ा। वांछित स्थानों पर अधिकार करके वह बीजापुर की ओर लूटता हुआ अग्रसर होने लगा। आदिलशाह ने मुगलों से सहायता माँगी। भाटवाड़ी की लड़ाई में मुगल आदिलशाही सेना ने मलिक अंबर का डटकर सामना किया। परंतु 15 जून 1625 को मलिक अंबर ने उन्हें बुरी तरह हराया। इस सफलता ने उसके यश और कीर्ति में वृद्धि की। अब वह कुशल सेनापति, राजनीतिज्ञ और प्रबंधकर्ता समझा जाने लगा। उसके साहस और साधनों में भी उन्नति हुई। फलस्वरूप अहमदनगर व शोलापुर पर उसने फिर से अपना आधिपत्य जमा लिया और उसके सेनापति, याकूत खान ने बुरहानपुर के किले पर घेरा डाल दिया। इसी समय महावत खाँ, शाहजहाँ का पीछा करते करते पुन: दक्षिण आ पहुँचा। याकूत खाँ ने बुरहानपुर से अपनी सेना हटा ली। मलिक अंबर इस बार शाहजहाँ को सरंक्षण देने में बिल्कुल न हिचकिचाया। दोनों संयुक्त सेनाओं ने बुरहानपुर पर घेरा डाला, परंतु कोई सफलता प्राप्त न हुई। थोड़े समय बाद शाहजहाँ ने हथियार डाल दिए और अपने को समर्पित कर दिया। ऐसी परिस्थिति में मलिक अंबर के लिए मुगलों का सामना करना कठिन था। अतएव उसने बुरहानपुर के दुर्ग से सेना हटा ली। अगले वर्ष उसे मुगलों से टक्कर लेने का अवसर प्राप्त हुआ। इस समय जहाँगीर रोगग्रस्त था। नूरजहाँ की गुटबंदी ने महावत खाँ को विद्रोह करने पर विवश कर दिया था, तथा संपूर्ण शाही सेनाएँ महावत खाँ का विद्रोह दमन करने में लगी हुई थीं। दक्षिण में कोई भी कुशल सेनापति न रह गया था। इससे पहले कि वह अपनी सेनाओं की गतिविधि मुगलों के विरुद्ध या आदिलशाह के विरुद्ध संचालित करे, मृत्यु ने उसकी आँखें मई 14, 1615 को अस्सी वर्ष की आयु में बंद कर दीं। मलिक अम्बर का मकबरा (१८६० में) 1601 से 1626 तक, मलिक अंबर ने अपनी प्रतिभा, अदम्य साहस, कार्यकुशलता और सैन्य चातुर्य का परिचय दिया। भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही उदाहरण मिलेगा जब किसी उजड़े हुए राज्य को एक साधारण श्रेणी के व्यक्ति ने नवजीवन प्रदान किया हो। मलिक अंबर की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह सुयोग्य सेनापति तो था ही, इसके साथ साथ कुशल नीतिज्ञ और चतुर शासक भी था। उसने मराठों की सैनिक मनोवृत्ति का ठीक मूल्यांकन करके एक नवीन सैनिक प्रणाली का आविष्कार किया। टोडरमल की भूमिकर व्यवस्था को अपने राज्य में प्रचलन करके उसने न केवल रिक्त कोष को ही समृद्धिशाली बनाया बल्कि जनता को भी सुख प्रदान किया। किर्की में उसने अपनी राजधानी बसाई और यहाँ उसने अनेक मस्जिदों, महलों का निर्माण कराया तथा उद्यान लगवाए। सिंचाई के लिए नहरें भी खुदवाईं। महवल दर्रा, दरवाजा नाखुदा महल, काला चबुतरा दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, जो आज खंडहरों के रूप में दिखाई देते हैं उसकी भावनाओं को प्रमाणित करते हैं। उसने ज्ञान तथा विद्वानों दोनों को सरंक्षण प्रदान किया। अरब से बहुत विद्वान् आए और उसने उन्हें प्रोत्साहन दिया। उनमें से एक अली हैदर था, जिसने 11वीं शताब्दी हिजरी के प्रसिद्ध संतों की जीवनियों पर "इक्व अल जवहार" ग्रंथ की रचना की। फारस से आए हुए विद्वानों को भी उसने आश्रय दिया। उसने किर्की में चितखाना की स्थापना की जहाँ बहुत से हिंदू और मुसलमान विद्वान् ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गंभीर अध्ययन करते थे। .

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महादेव पहाड़ियाँ

महादेव पहाड़ियाँ भारत की नर्मदा और ताप्ती नदियों के बीच स्थित हैं। ये २,००० से ३,००० फुट तक की ऊँचाई वाले पठार हैं, जो दक्कन के लावा से ढँके हैं। ये पहाड़ियाँ आद्य महाकल्प (Archaean Era) तथा गोंडवाना काल के लाल बलुआ पत्थरों द्वारा निर्मित हुई हैं। महादेव पहाड़ी के दक्षिण की ढालों पर मैंगनीज़ तथा छिंदवाड़ा के निकट पेंच घाटी से कुछ कोयला प्राप्त होता है। वेनगंगा एवं पेंच घाटी के थोड़े से चौड़े मैदानों में गेहूँ, ज्वार तथा कपास पैदा किए जाते हैं। पश्चिम ओर बुरहानपुर दरार में थोड़ी कृषि की जाती है। यहाँ आदिवासी गोंड जाति निवास करती है। घासवाले क्षेत्रों में पशुचारण होता है। यहाँ का प्रसिद्ध पहाड़ी क्षेत्र पंचमढ़ी है। छिंदवाड़ा छोटा नगर है। श्रेणी:भारत की पहाड़ियाँ.

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महाराजा रायसिंह

महाराजा रायसिंह जिन्होंने (१५७४ से १६१२) तक शासन किया था। राव कल्याणमल की मृत्यु के बाद राव रायसिंह को बीकानेर का शासक बनाया गया। इन्होंने १५९४ में बीकानेर के सुदृढ़ जूनागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया था । इन्होंने किले के भीतर एक प्रशस्ति लिखवाई जिसे अब रायसिंह प्रशस्ति कहते हैं। सन् १६१२ में "दक्षिण भारत (बुरहानपुर) में इनका निधन हुआ था। .

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मुमताज़ महल

ताज महल मुमताज़ महल (फ़ारसी: ممتاز محل; उच्चारण /, अर्थ: महल का प्यारा हिस्सा) अर्जुमंद बानो बेगम का अधिक प्रचलित नाम है। इनका जन्म अप्रैल 1593 में आगरा में हुआ था। इनके पिता अब्दुल हसन असफ़ ख़ान एक फारसी सज्जन थे जो नूरजहाँ के भाई थे। नूरजहाँ बाद में सम्राट जहाँगीर की बेगम बनीं। १९ वर्ष की उम्र में अर्जुमंद का निकाह शाहजहाँ से 10 मई, 1612 को हुआ। अर्जुमंद शाहजहाँ की तीसरी पत्नी थी पर शीघ्र ही वह उनकी सबसे पसंदीदा पत्नी बन गईं। उनका निधन बुरहानपुर में 17 जून, 1631 को १४वीं संतान, बेटी गौहरारा बेगम को जन्म देते वक्त हुआ। उनको आगरा में ताज महल में दफनाया गया। .

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राधाबाई

राधाबाई नेवास के बर्वे परिवार की कन्या थीं जिनका विवाह बालाजी विश्वनाथ के साथ हुआ था। इनके पिता का नाम डुबेरकर अंताजी मल्हार बर्वे था। राधाबाई बालाजी के पिता विश्वनाथ भट्ट सिद्दियों के अधीन श्रीवर्धन गाँव के देशमुख थे। भारत के पश्चिमी सिद्दियों से न पटने के कारण विश्वनाथ और बालाजी श्रीवर्धन गाँव छोड़कर बेला नामक स्थान पर भानु भाइयों के साथ रहने लगे। राधाबाई भी अपने परिवार के साथ बेला में रहने लगीं। कुछ समय पश्चात् बालाजी डंडाराजपुरी के देशमुख हो गए। १६९९ ई. से १७०८ ई. तक वे पूना के सर-सूबेदार रहे। राधाबाई में त्याग, दृढ़ता, कार्यकुशलता, व्यवहारचातुर्य और उदारता आदि गुण थे। राधाबाई एवं बालाजी के दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। इनके बड़े पुत्र बाजीराव का जन्म १७०० ई. में और दूसरे पुत्र चिमाजी अप्पा का सन् १७१० में हुआ था। इनकी पुत्रियों के नाम अनुबाई और भिऊबाई थे। बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु सन् १७२० में हुई। राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ, यद्यपि उनके पुत्र बाजीराव पेशवा बनाए गए। राधाबाई राज्य के विभिन्न कार्यों में बाजीराव को उचित सलाह देती थीं। जब १७३५ में राधाबाई ने तीर्थयात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की, चिमाजी अप्पा ने इसका प्रबंध शीघ्र ही किया। १४ फरवरी को इन्होंने पूना से प्रस्थान किया। ८ मार्च को वे बुरहानपुर पहुँची। ६ मई को उदयपुर में उन्हें राजकीय सम्मान मिला। २१ मई को नाथद्वारा का दर्शन किया और २१ जून को जयपुर पहुँची। सवाई राजा जयसिंह ने उनका अत्यधिक आदर सत्कार किया। वे यहाँ तीन माह तक ठहरीं। सितंबर मास में वे जयपुर से चल पड़ीं। वे मथुरा, वृंदावन, कुरुक्षेत्र और प्रयाग होती हुईं १७ अक्टूबर को वाराणसी पहुँच गईं। वहाँ से दिसंबर के अंतिम सप्ताह में गया की ओर प्रस्थान किया। वहीं से १७३६ में वे वापसी यात्रा पर चल पड़ीं। मार्ग में स्थानीय शासकों ने उनके लिए अंगरक्षकों की व्यवस्था की। मोहम्मद खान बंगश ने राधाबाई का बहुत सम्मान किया और उन्हें बहुमूल्य उपहार प्रदान किए। राधाबाई प्रसन्न हुई और १ जून, १७३६ ई. को पूना पहुंचीं। राधाबाई की इस यात्रा ने साधारणत: मराठों के लिए और विशेषकर पेशवा बाजीराव के लिए मित्रतापूर्ण वातावरण का निर्माण किया। राधाबाई को यात्रा से लौट दो वर्ष भी न हो पाए थे कि उन्हें एक और परिस्थिति का सामना करना पड़ा। मस्तानी और बाजीराव का संबंध सरदारों की आलोचना का विषय बन चुका था। बाजीराव के आलोचकों का वर्ताव उस समय और तीव्र हुआ जब पेशवा परिवार में रघुनाथ राव का उपनयन और सदाशिव राव का विवाह होने वाला था। पंडितों ने किसी भी ऐसे कार्य में भाग न लेने का निर्णय किया। राधाबाई ने बाजीराव को विशेष रूप से सतर्क रहने के लिए लिखा। अंतत: राधाबाई उपर्युक्त कार्य कराने में सफल हुई। मस्तानी और बाजीराव के संबंध को विशेष महत्व कभी नहीं दिया अपितु सदा ही यह प्रयत्न किया कि परिवार में फूट की स्थिति न उत्पन्न हो और पेशवा परिवार का सम्मान भी बना रहे। चिमाजी अप्पा ने मस्तानी को कैद किया। राधाबाई ने मस्तानी को कैद से छुड़ाया और वह बाजीराव के पास आ गई। बाजीराव ने भी राधाबाई की आज्ञाओं का पालन किया। १७४० ई. के अप्रैल मास में बाजीराव की मृत्यु से राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ। पाँच माह पश्चात् ही चिमाजी अप्पा की भी मृत्यु हो गई। अब राधाबाई का उत्साह शिथिल पड़ गया। फिर भी, जब कभी आवश्यकता पड़ती थी, वे परिवार की सेवा और राजकीय कार्यों में बालाजी बाजीराव को उचित परामर्श देतीं थीं। १७५२ ई. में जब पेशवा दक्षिण की ओर गए हुए थे राधाबाई ने ताराबाई और उमाबाई की सम्मिलित सेना को पूना की ओर बढ़ने से रोकने का उपाय किया। दूसरे अवसर पर उन्होंने बाबूजी नाइक को पेशवा बालाजी के विरुद्ध अनशन करने से रोका। राधाबाई ने तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लिया। इनके व्यवहार में कभी भी कटुता नहीं आने पाती थी। इन्होंने अपने परिवार को साधारण स्थिति से पेशवा पद प्राप्त करते देखा। २० मार्च, १७५३ ई. को इनकी मृत्यु हुई। श्रेणी:मराठा साम्राज्य.

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शाही हमाम

शाही हमाम का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल के लिए ताप्ती नदी के किनारे बुरहानपुर के किले में करवाया था। यह स्‍मारक फारूखी किले के अंदर स्थित है। इस इमारत के बीचों बीच अष्‍टकोणीय स्‍नान कुण्‍ड है। यह स्‍नानकुण्‍ड खूनी भण्‍डारे (कुण्डी भण्डारे) की जल आपूर्ति प्रणाली से जुड़ा हुआ है। इस स्‍मारक की छतों पर रंगीन मुगल चित्रकला दर्शनीय है। .

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जय सिंह प्रथम

मिर्जा राजा जयसिंह (15 जुलाई, 1611 – 28 अगस्त, 1667) आम्बेर के राजा तथा मुगल साम्राज्य के वरिष्ठ सेनापति (मिर्जा राजा) थे। राजा भाऊ सिंह उसके पिता थे जिन्होने 1614 से1621 तक शासन किया। .

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खरगोन

कोई विवरण नहीं।

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खरगोन ज़िला

खरगोन भारत देश में मध्य प्रदेश राज्य का जिला है। इसका मुख्यालय खारगोन है। .

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कुंडी भंडारा

कुंडी भंडारा या खूनी भंडारा महाराष्ट्र की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले में नगरवासियों को पेयजल उपलब्ध करवाने की एक जीवित भू-जल संरचना है। मध्यकालीन भारत की इंजीनियरिंग कितनी समृद्ध रही होगी यह बुरहानपुर के कुंडी भंडारे को देखने से ही पता चलता है। 400 साल पुरानी ये जल यांत्रिकी आधुनिक युग के लिए भी एक कठिन पहेली है। उस समय कैसे सतपुड़ा की पहाड़ियों के पत्थरों को चीरकर नगर की जल आवश्यकताओं को पूरा किया गया होगा, जब न तो आज की तरह मशीनें थीं और न ही भू-गर्भ में बहते पानी के श्रोतों का पता लगाने वाले यंत्र। .

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असीरगढ़

असीरगढ़ मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले में स्थित एक गांव है। असीरगढ का ऐतिहासिक क़िला बहुत प्रसिद्ध है। असीरगढ़ क़िला बुरहानपुर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाड़ियों के शिखर पर समुद्र सतह से 250 फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह क़िला आज भी अपने वैभवशाली अतीत की गुणगाथा का गान मुक्त कंठ से कर रहा है। इसकी तत्कालीन अपराजेयता स्वयं सिद्ध होती है। इसकी गणना विश्व विख्यात उन गिने चुने क़िलों में होती है, जो दुर्भेद और अजेय, माने जाते थे। इतिहासकारों ने इसका 'बाब-ए-दक्खन' (दक्षिण द्वार) और 'कलोद-ए-दक्खन' (दक्षिण की कुँजी) के नाम से उल्लेख किया है, क्योंकि इस क़िले पर विजय प्राप्त करने के पश्चात दक्षिण का द्वार खुल जाता था, और विजेता का सम्पूर्ण ख़ानदेश क्षेत्र पर अधिपत्य स्थापित हो जाता था। इस क़िले की स्थापना कब और किसने की यह विश्वास से नहीं कहा जा सकता। इतिहासकार स्पष्ट एवं सही राय रखने में विवश रहे हैं। कुछ इतिहासकार इस क़िले का महाभारत के वीर योद्धा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा की अमरत्व की गाथा से संबंधित करते हुए उनकी पूजा स्थली बताते हैं। बुरहानपुर के 'गुप्तेश्वर  महादेव मंदिर' के समीप से एक सुंदर सुरंग है, जो असीरगढ़ तक लंबी है। ऐसा कहा जाता है कि, पर्वों के दिन अश्वत्थामा ताप्ती नदी में स्नान करने आते हैं, और बाद में 'गुप्तेश्वर' की पूजा कर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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अकबरी सराय

अकबरी सराय का निर्माण मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में हुआ था। इस ऐतिहासिक इमारत के दरवाजे के ऊपर फारसी भाषा में एक शिलापट्ट जड़ा हुआ है, जिसमें दर्ज है कि इस शाही इमारत का निर्माण लशकर खां की निगरानी में हुआ था। इतिहासकार कमरूद्दीन फलक के अभिलेखों के अनुसार मुगलकाल की इस सराय के कमरों के गुंबद पर हवा के आवागमन के लिये छेद बने हुए हैं। इनमें भूसा भरकर बर्फ रखी जाती थी और उस पर नमक डालते रहते थे। कमरों के अंदर एक हत्था था जिससे ठंडी हवा को बंद-चालू कर सकते थे। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

बुड़हानपुर, बुढ़हानपुर

निवर्तमानआने वाली
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