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बप्पा रावल

सूची बप्पा रावल

बप्पा रावल (713-810) मेवाड़ राज्य के संस्थापक राजा थे। .

8 संबंधों: चित्तौड़गढ़, एकलिंगजी, नागभट्ट प्रथम, मेवाड़ की शासक वंशावली, रत्नसिंह, राधाकृष्ण दास, गोरखा, उदयपुर

चित्तौड़गढ़

पद्मिनी महल का तैलचित्र चित्तौड़गढ़ राजस्थान का एक शहर है। यह शूरवीरों का शहर है जो पहाड़ी पर बने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। चित्तौड़गढ़ की प्राचीनता का पता लगाना कठिन कार्य है, किन्तु माना जाता है कि महाभारत काल में महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना गुरु बनाया, किन्तु समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले अधीर होकर वे अपना लक्ष्य नहीं पा सके और प्रचण्ड गुस्से में आकर उसने अपना पाँव जोर से जमीन पर मारा, जिससे वहाँ पानी का स्रोत फूट पड़ा, पानी के इस कुण्ड को भीम-ताल कहा जाता है; बाद में यह स्थान मौर्य अथवा मूरी राजपूतों के अधीन आ गया, इसमें भिन्न-भिन्न राय हैं कि यह मेवाड़ शासकों के अधीन कब आया, किन्तु राजधानी को उदयपुर ले जाने से पहले 1568 तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। यहाँ पर रोड वंशी राजपूतों ने बहुत समय राज किया। यह माना जाता है गुलिया वंशी बप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी के मध्य में अंतिम सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर चित्तौढ़ को दहेज के एक भाग के रूप में प्राप्त किया था, बाद में उसके वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया जो 16वीं शताब्दी तक गुजरात से अजमेर तक फैल चुका था। अजमेर से खण्डवा जाने वाली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच स्थित चित्तौरगढ़ जंक्शन से करीब २ मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग पहाड़ी पर भारत का गौरव राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का किला बना हुआ है। समुद्र तल से १३३८ फीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फीट ऊँची एक विशाल (ह्वेल मछ्ली) आकार में, पहाड़ी पर निर्मित्त यह दुर्ग लगभग ३ मील लम्बा और आधे मील तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब ८ मील का है तथा यह कुल ६०९ एकड़ भूमि पर बसा है। चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि है जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवम् बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का कण-कण हममें देशप्रेम की लहर पैदा करता है। यहाँ की हर एक इमारतें हमें एकता का संकेत देती हैं। .

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एकलिंगजी

एकलिंग राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित एक मंदिर परिसर है। यह स्थान उदयपुर से लगभग १८ किमी उत्तर में दो पहाड़ियों के बीच स्थित है। वैसे उक्त स्थान का नाम 'कैलाशपुरी' है परन्तु यहाँ एकलिंग का भव्य मंदिर होने के कारण इसको एकलिंग जी के नाम से पुकारा जाने लगा। भगवान शिव श्री एकलिंग महादेव रूप में मेवाड़ राज्य के महाराणाओं तथा अन्य राजपूतो के प्रमुख आराध्य देव रहे हैं।मान्यता है कि यहाँ में राजा तो उनके प्रतिनिधि मात्र रूप से शासन किया करते हैं। इसी कारण उदयपुर के महाराणा को दीवाण जी कहा जाता है।ये राजा किसी भी युद्ध पर जाने से पहले एकलिंग जी की पूजा अर्चना कर उनसे आशीष अवश्य लिया करते थे। यहाँ मन्दिर परिसर के बाहर मन्दिर न्यास द्वारा स्थापित एक लेख के अनुसार डूंगरपुर राज्य की ओर से मूल बाणलिंग के इंद्रसागर में प्रवाहित किए जाने पर वर्तमान चतुर्मुखी लिंग की स्थापना की गई थी। इतिहास बताता है कि एकलिंग जी को ही को साक्षी मानकर मेवाड़ के राणाओं ने अनेक बार यहाँ ऐतिहासिक महत्व के प्रण लिए थे। यहाँ के महाराणा प्रताप के जीवन में अनेक विपत्तियाँ आईं, किन्तु उन्होंने उन विपत्तियों का डटकर सामना किया। किन्तु जब एक बार उनका साहस टूटने को हुआ था, तब उन्होंने अकबर के दरबार में उपस्थित रहकर भी अपने गौरव की रक्षा करने वाले बीकानेर के राजा पृथ्वी राज को, उद्बोधन और वीरोचित प्रेरणा से सराबोर पत्र का उत्तर दिया। इस उत्तर में कुछ विशेष वाक्यांश के शब्द आज भी याद किये जाते हैं: .

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नागभट्ट प्रथम

नागभट्ट प्रथम (मृत्यु ७८० ई) गुर्जर प्रतिहार राजवंश का प्रथम राजा था। इसे 'हरिश्चन्द्र' के नाम से भी जाना जाता था। पुष्यभूति साम्राज्य के हर्षवर्धन के बाद पश्चिमी भारत पर उसका शासन था। उसकी राजधानी कन्नौज थी। उसने सिन्ध के अरबों को पराजित किया और काठियावाड़, मालवा, गुजरात तथा राजस्थान के अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। नागभट्ट प्रथम राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग से पराजित हो गया। कुचामन किले का निर्माण नागभट्ट प्रतिहार ने करवाया था। .

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मेवाड़ की शासक वंशावली

राजस्थान के दक्षिण - पश्चिम भाग पर गुहिलों का शाषन था। "नैणसी री ख्यात" में गुहिलों की 24 शाखाओं का वर्णन मिलता है जिनमें मेवाड़, बागड़ और प्रताप शाखा ज्यादा प्रसिद्ध हुई। इन तीनो शाखाओं में मेवाड़ शाखा अधिक महत्वपूर्ण थी। श्रेणी:राजस्थान का इतिहास श्रेणी:मेवाड़ के शासक श्रेणी:उदयपुर.

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रत्नसिंह

रावल रत्नसिंह (नाम के अन्य रूप- रतनसेन, रत्न सिंह, रतन सिंह, रतन सेन) चित्तौड़ के शासक थे। इनका शासनकाल अल्पकालिक था। .

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राधाकृष्ण दास

राधाकृष्ण दास (१८६५- २ अप्रैल १९०७) हिन्दी के प्रमुख सेवक तथा साहित्यकार थे। वे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई थे। शारीरिक कारणों से औपचारिक शिक्षा कम होते हुए भी स्वाध्याय से इन्होने हिन्दी, बंगला, गुजराती, उर्दू, आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे प्रसिद्ध सरस्वती पत्रिका के सम्पादक मडल में रहे। वे नागरी प्रचारिणी सभा के प्रथम अध्यक्ष भी थे। इनके पिता का नाम कल्याणदास तथा माता का नाम गंगाबीबी था, जो भारतेंदु हरिश्चंद्र की बूआ थीं। शरीर से प्रकृत्या अस्वस्थ तथा अशक्त होने के कारण इनकी शिक्षा साधारण ही रही पर विद्याध्ययन की ओर रुचि होने से इन्होंने हिंदी, बँगला, उर्दू आदि में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही 'दुःखिनी बाला' नामक छोटा रूपक लिखा। इसके एक ही वर्ष बाद 'निस्सहाय हिंदू' नामक सामाजिक उपन्यास लिखा। इसी के अनंतर 'स्वर्णजता' आदि पुस्तकों का बँगला से हिंदी में अनुवाद किया। भारतीय इतिहास की ओर रुचि हो जाने से इसी काल में 'आर्यचरितामृत' रूप में बाप्पा रावल की जीवनी तथा 'महारानी पद्मावती' रूपक भी लिखा। समाजसुधार पर भी इन्होंने कई लेख लिखे। यह अत्यन्त कृष्णभक्त थे। 'धर्मालाप' रचना में अनेक धर्मों का वार्तालाप कराकर हरिभक्ति को ही अंत में प्रधानता दी है। इन्होंने तीर्थयात्रा कर अनेक कृष्णलीला-भूमियों का दर्शन किया और उनका जो विवरण लिया है वह बड़ा हृदयग्राही है। काशी नागरीप्रचारिणी सभा, हरिश्चन्द्र विद्यालय आदि अनेक सभा संथाओं के उन्नयन में इन्होंने सहयोग दिया। सरस्वती पत्रिका का प्रकाशनारम्भ इन्हीं के सम्पादकत्व में हुआ और अदालतों में नागरी के प्रचार के लिए भी इन्होंने प्रयत्न किया। सभा के हिन्दी पुस्तकों के खोज विभाग के कार्य का शुभारम्भ इन्हीं के द्वारा हुआ। स्वास्थ्य ठीक न रहने से रोगाक्रान्त होकर यह बहत्तर वर्ष की अवस्था में १ अप्रैल, सन् १९०७ ई. को गोलोक सिधारे। इनकी अन्य रचनाएँ नागरीदास का जीवन चरित, हिंदी भाषा के पत्रों का सामयिक इतिहास, राजस्थान केसरी वा महाराणा प्रताप सिंह नाटक, भारतेन्दु जी की जीवनी, रहिमन विलास आदि हैं। 'दुःखिनी बाला', 'पद्मावती' तथा 'महाराणा प्रताप' नामक उनके नाटक बहुत प्रसिद्ध हुए। १८८९ में लिखित उपन्यास 'निस्सहाय हिन्दू' में हिन्दुओं की निस्सहायता और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का चित्रण है। भारतेन्दु विरचित अपूर्ण हिन्दी नाटक 'सती प्रताप' को इन्होने इस योग्यता से पूर्ण किया है कि पाठकों को दोनों की शैलियों में कोई अन्तर ही नहीं प्रतीत होता। .

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गोरखा

इंग्लैण्ड के रक्षा मंत्रालय के बाहर स्थापित एक गोरखा की मूर्ति,हॉर्स गार्डस अवेन्यु, वेस्टमिन्सटर शहर, लण्डन. गोरखा (नेपाली: गोरखाली) नेपाल के लोग हैं। जिन्होने ये नाम 8 वीं शताब्दी के हिन्दू योद्धा संत श्री गुरु गोरखनाथ से प्राप्त किया था। उनके शिष्य बप्पा रावल ने राजकुमार कलभोज/राजकुमार शैलाधिश को जन्माया था, जिनका घर मेवाड़, राजस्थान (राजपुताना) में पाया गया था। बाद में बप्पा रावल के वंश सुदूर पूर्व के तरफ बढ़ें और गोरखा में अपना राज्य स्थापित किया और बाद में उन्होने नेपाल अधिराज्य को स्थापित किया। उस वंश में चितौड़गढ़ के मनमथ राणाजी राव के पुत्र भूपाल राणाजी राव नेपाल के रिडी पहुंचे। गोरखा जिला आधुनिक नेपाल के 75 जिलों में से एक है। खास्तोर्पे नेपाल के मध्य पश्चिम के पहाडी लडाकु जातिया जैसे कि मगर, गुरुंग, सुदुरपश्चिम के लडाकु जातिया जो कि खस/क्षेत्री और ठकुरी और पूर्व से किरात जातिया होति हैं। गोरखाली लोग अपने साहस और हिम्मत के लिए विख्यात हैं और वे नेपाली आर्मी और भारतीय आर्मी के गोरखा रेजिमेन्ट और ब्रिटिश आर्मी के गोरखा ब्रिगेज के लिए भी खुब जाने जाते हैं। गोरखालीयों को ब्रिटिश भारत के अधिकारियों ने मार्शल रेस की उपाधि दी थी। उनके अनुसार गोरखाली प्राकृतिक रूप से ही योद्धा होते हैं और युद्ध में आक्रामक होते हैं, वफादारी और साहस का गुण रखते हैं, आत्म निर्भर होते हैं, भौतिक रूप से मजबूत और फुर्तीले, सुव्यवस्थित होते हैं, लम्बे समय तक कड़ी मेहनत करने वाले, हठी लड़ाकू, मिलेट्री रणनीतिके होते हैं। ब्रिटिश भारतीय आर्मी में इन "मार्शल रेसेज़" को भारी मात्रा में भर्ती किया गया था। भारतीय आर्मी के भूतपूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल सैम मानेकशॉ ने एक बार प्रख्यात रूप से कहा था:- अर्थात: "यदि कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या गोरखा है।" अंग्रेजों ने अपनी फौज में 1857 से पहले ही गोरखा सैनिकों को रखना आरम्भ कर दिया था। 1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने ब्रिटिश सेना का साथ दिया था क्योंकि उस समय वे ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए अनुबंध पर काम करते थे। महाराजा रणजीत सिंह ने भी इन्हें अपनी सेना में स्थान दिया। अंग्रेजों के लिए गोरखों ने दोनों विश्वयुद्धों में अपने अप्रतिम साहस और युद्ध कौशल का परिचय दिया। पहले विश्व युद्ध में दो लाख गोरखा सैनिकों ने हिस्सा लिया था, जिनमें से लगभग 20 हजार ने रणभूमि में वीरगति प्राप्त की। दूसरे विश्वयुद्ध में लगभग ढाई लाख गोरखा जवान सीरिया, उत्तर अफ्रीका, इटली, ग्रीस व बर्मा भी भेजे गए थे। उस विश्वयुद्ध में 32 हजार से अधिक गोरखों ने शहादत दी थी। भारत के लिए भी गोरखा जवानों ने पाकिस्तान और चीन के खिलाफ हुई सभी लड़ाइयों में शत्रु के सामने अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया था। गोरखा रेजिमेंट को इन युद्धों में अनेक पदको़ व सम्मानों से अलंकृत किया गया, जिनमें महावीर चक्र और परम वीर चक्र भी शामिल हैं। वर्तमान में हर वर्ष लगभग 1200-1300 नेपाली गोरखे भारतीय सेना में शामिल होते है। गोरखा राइफल्स में लगभग 80 हजार नेपाली गोरखा सैनिक हैं, जो कुल संख्या का लगभग 70 प्रतिशत है। शेष 30 प्रतिशत में देहरादून, दार्जिलिंग और धर्मशाला असम आदि के स्थानीय भारतीय गोरखे शामिल हैं। इसके अतिरिक्त रिटायर्ड गोरखा जवानों और असम राइफल्स में गोरखों की संख्या करीब एक लाख है। .

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उदयपुर

उदयपुर राजस्थान का एक नगर एवं पर्यटन स्थल है जो अपने इतिहास, संस्कृति एवम् अपने अाकर्षक स्थलों के लिये प्रसिद्ध है। इसे सन् 1559 में महाराणा उदय सिंह ने स्थापित किया था। अपनी झीलों के कारण यह शहर 'झीलों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। उदयपुर शहर सिसोदिया राजवंश द्वारा ‌शासित मेवाड़ की राजधानी रहा है। .

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