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फाल्गुन

सूची फाल्गुन

हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह से प्रारंभ होने वाले वर्ष का बारहवाँ तथा अंतिम महीना जो ईस्वी कलेंडर के मार्च माह में पड़ता है। इसे वसंत ऋतु का महीना भी कहा जाता है क्यों कि इस समय भारत में न अधिक गर्मी होती है और न अधिक सर्दी। इस माह में अनेक महत्वपूर्ण पर्व मनाए जाते हैं जिसमें होली प्रमुख हैं। .

32 संबंधों: चैतन्य महाप्रभु, एकादशी तिथि, दक्षिण गुजरात की आदिवासी होली, दोलोत्सव, नैमिषारण्य, नेपाल में होली, पञ्चाङ्गम्, पड़िला महादेव मंदिर, पुरामहादेव मंदिर, पृथ्वीराज चौहान, पूर्णिमा, बाबा गंगेश्वरनाथ धाम, बौद्ध पत्रा, भारतीय राष्ट्रीय पंचांग, महाराजा ईश्वरीसिंह, महाशिवरात्रि पशु मेला करौली, मास, राजस्थान के पशु मेले, शिव, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, हिन्दू पर्वों की सूची, होलिका दहन, होली, होली की कहानियाँ, जया बच्चन, जायसी का बारहमासा, ज्येष्ठ (मास), विक्रम संवत, वैकुण्ठ एकादशी, ग्रन्थताल, गेर नृत्य, गोविन्दपुर झखराहा

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

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एकादशी तिथि

हिंदू पंचांग की ग्यारहवी तिथि को एकादशी कहते हैं। यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के बाद आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं। इन दोने प्रकार की एकादशियों का भारतीय सनातन संप्रदाय में बहुत महत्त्व है। .

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दक्षिण गुजरात की आदिवासी होली

गुजरात की आदिवासी महिलादक्षिणी गुजरात के धरमपुर एवं कपराडा क्षेत्रों में कुंकणा, वारली, धोडिया, नायका आदि आदिवासियों द्वारा होली कुछ अलग रूप से मनायी जाती है। धरमपुर के आदिवासियों के लिए फागुन पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला होलिका महोत्सव साल का सबसे बड़ा उत्सव है। फागुन शुक्ल प्रतिपदा से इस त्योहार की तैयारी का प्रारंभ हो जाता है। दिहाड़ी के लिए दूर गये आदिवासी अपने वतन आ पहुँचते हैं। दूर नौकरी करने गये लोग भी इस दिन अवश्य अपने घर पहुँचते हैं। जिनकी राह उनके संबंधी ही नहीं, मुहल्ले के सभी लोग देखते हैं। खावला, पीवला और नाचुला (खाने, पीने और नाचने) के लिए प्रिय ये आदिवासी होली के त्योहार के दिनों में चिंता, दुःख, दर्द और दुश्मनी को भूलकर गीत गाकर तथा तारपुं, पावी, कांहली, ढोल-मंजीरा आदि वाद्यों की मस्ती में झूमने लगते हैं तब तो ऐसा समाँ बँधता है कि मानो उनके नृत्य को देखने के लिए देवता धरती पर उतर आये हो। दक्षिणी गुजरात के हरेक गाँवों में होली मनायी जाती है। होली के गीत गाये जाते हैं। गीतों द्वारा देवियों को त्योहार के समय उपस्थित रहने के लिए विनती की जाती है। स्त्री-पुरूष एक-दूसरे की कमर में हाथ डाल कर गोलाकार घूमते हुए नाचते हुए गीत गाते हैं। यह त्योहार फागुन कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। गाँवों में लगने वाले हाटो में खजूर की खूब बिक्री होती है। होली के त्योहार के सप्ताह पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। इसके लिए लकड़ी से भवानी, रणचंडी, अंबे माता, दस शिरों वाला रावण आदि देवी-देवताओं के चेहरे-मोहरे तथा वेशभूषा की विधिवत पूजा-अर्चना करने के बाद उसे पहन कर होली का पर्व अनोखे रूप में मनाया जाता है। वे ढोल-नगाड़ों, तूर, तारपुं, कांहळी, पावी (बाँसुरी), माँदल, चंग (बाँस से बना एक छोटा वांजित्र, जिसे लड़कियाँ होली के दिनों में बजाती रहती हैं।) आदि के साथ नाचते-कूदते-गाते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते हुए, अबीर-गुलाल के रंगों की वर्षा करते हुए थाली लेकर फगुआ माँगते हैं। कुछ आदिवासी लकड़ी के घोडे पर सवारी करते हुए या स्त्री की वेशभूषा पहनकर आदिवासी शैली में नाचते-गाते हैं। किन्तु अब तो इनका ये नज़ारा गाँवों मे लगने वाले हाटों में ही देखने को मिलता है। गाँवों में होली दो रूपों में- छोटी और बड़ी के रूप में मनायी जाती है। छोटी और बड़ी-दोनों के स्थल अलग-अलग होते हैं। छोटी होली, बड़ी होली के अगले दिन मनायी जाती है। यह गाँव में दो-तीन स्थानों पर मनायी जाती है। होली के लिए सामान्य रूप से खजूरी के तने की लकड़ी, लंबे बाँस और पलाश के फूलों और शिंगी भरी डाली का प्रयोग किया जाता है। जिसे एक गड्ढा खोदकर खड़ा कर दिया जाता है, जिसे मुहूर्त करना कहते हैं। पहले होली की, गाँव के ओझा एवं बुजुर्गों द्वारा पूजा की जाती है। पूजा में नारियल, चावल, फूल, अगरबत्ती, खजूर, हड्डा (चीनी से बनाई जाने वाली एक मिठाई), मालपुआ आदि का उपयोग होता है। उस समय गाए जाने वाले गीतों में सुख-समृद्धि का कामना की जाती है। लंबे बाँस की चोटी पर वाटी (सूखा नारियल) और हड्डा, खजूर आदि लटकाये जाते हैं। होली जलाने के पहले पुरूष और बच्चे पाँच फेरे लगाते हैं। उसके बाद होली को जलाया जाता है। जलती होली को पूर्व में गिराया जाता है। मान्यता है कि होली अगर जलते हुए पूरब दिशा में गिरती है तो सारा साल सुख-शांति से बीतेगा और वर्षा अच्छी होगी। बाँस की चोटी पर लटकाई गई सामग्री को पाने के लिए युवाओं में जंग-सा छिड़ता है। क्योंकि मान्यता है कि सामग्री के पाने वाले की शादी इसी साल हो जाती है। लंबे बाँस को पानेवाला युवा दौड़ते हुए होली के फेरे लेता है। कुछ लोग होली की मनौती रखते हैं। मनौती में आम, करौंदे आदि को न खाने की प्रतिज्ञा लेते हैं और होली के दिन होली माता को पहले अपनी मनौती के अनुसार आम-करौंदे अर्पित करते हैं और उसके बाद ही स्वयं भोग करते हैं। उपर्युक्त विधि के बाद गाँव के लड़के-लड़कियाँ हरेक घर से चावल या नागली का आटा माँगकर लाते हैं और वहीं रोटी पकाकर साथ में मिलकर आनंद से खाते हैं। स्त्रियाँ देर तक गीत गाती रहती हैं तो छोटे बच्चे खेल खेलते रहते हैं तो युवा लड़के-लड़कियाँ ढोल-नगाड़ों, तूर, तारपुं, कांहळी, पावी (बाँसुरी), माँदल, मंजीरा आदि के ताल पर उल्लास-उमंग में मुक्तता से नाचते-गाते रहते हैं। युवा इसी समय अपने जीवन-साथी का चुनाव भी कर लेते हैं। पूर्णिमा का यह होलिकोत्सव फागुन के कृष्ण पक्ष की पंचमी तक मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन तो रास्ते सुनसान होते हैं क्योंकि हरेक जगह पर गाँव के बच्चे से लेकर बूढ़े तक के लोग आने-जाने वाले से फगुआ माँगते हैं और फगुआ न देने पर उन पर रंगों की वर्षा करते हैं। फगुआ पंचमी तक माँगा जाता है। इस तिथि तक सभी आदिवासी काम-काज पर नहीं जाते। पंचमी के बाद ही वे अपने अपने काम पर लौटते हैं। आदिवासियों में होली के बाद ही शादी का मौसम शुरू होता है। .

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दोलोत्सव

दोलोत्सव (अपभ्रंश: डोलोत्सव) मुख्यत: वैष्णव संप्रदाय के मंदिरों में मनाया जानेवाला प्रमुख उत्सव है जिसमें श्रीकृष्ण की मूर्ति हिंडोले में रखकर उपवनादि में उत्सवार्थ ले जाते हैं। यों तो समस्त भारत में इस उत्सव का प्रचलन है किंतु वृंदावन तथा बंगाल में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे 'दोलयात्रा' कहते हैं। आजकल यह उत्सव प्रतिपदा से युक्त फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल या हिंडोल (झूला) की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित 'श्री हरिभक्ति विलास' नामक निबंधग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से भगवान श्री कृष्ण या विष्णु का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करे। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए। पद्मपुराण के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है: उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को वसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। पद्मपुराण (पाताल खंड), गरुड़ पुराण, दोलयात्रातत्व तथा श्रीहरिभक्तिविलास में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं। तिरुमला में भी दोलोत्सव या 'दोलसेवा' की जाती है। श्रेणी:हिन्दू उत्सव श्रेणी:वैष्णव सम्प्रदाय श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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नैमिषारण्य

नैमिषारण्य लखनऊ से ८० किमी दूर लखनऊ क्षेत्र के अर्न्तगत सीतापुर जिला में गोमती नदी के बाएँ तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इसका उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपःस्थली के रूप में आया है। वायु पुराणान्तर्गत माघ माहात्म्य तथा बृहद्धर्मपुराण, पूर्व-भाग के अनुसार इसके किसी गुप्त स्थल में आज भी ऋषियों का स्वाध्यायानुष्ठान चलता है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनायी थीं। वाराह पुराण के अनुसार यहां भगवान द्वारा निमिष मात्र में दानवों का संहार होने से यह 'नैमिषारण्य' कहलाया। वायु, कूर्म आदि पुराणों के अनुसार भगवान के मनोमय चक्र की नेमि (हाल) यहीं विशीर्ण हुई (गिरी) थी, अतएव यह नैमिषारण्य कहलाया। .

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नेपाल में होली

नेपाल में होली का स्तंभनेपाल में होली को फाल्गुन पूर्णिमा (नेपालभाषा में फागु पुन्हि) भी कहते है। नेपाल के अलग अलग स्थानों पर होली के रीति रिवाज़ों में थोड़ी बहुत विभिन्नता है। काठमांडू में इस अवसर पर एक सप्ताह के लिए प्राचीन दरबार और नारायणहिटी दरबार मैं चीर (बाँस का स्तम्भ) गाड़ा जाता है। इस चीर मैं विभिन्न रंग के कपड़े लटकाए जाते हैं। यह बाँस का स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण द्वारा तालाब में स्नान कर रही ग्वाल-बालाओं के कपडे वृक्ष पर लटका देनेवाली कथा की स्मृति में प्रतीक स्वरूप खड़ा किया जाता है। स्तंभ गाड़ने के बाद आधिकारिक रूप से होली का आरम्भ होता है। काठमांडू में होली मैं रंग के साथ साथ मैं पानी का भी बहुत प्रयोग होता है। नेपाल के हिमाल और पहाड़ी इलाके में मुख्य होली भारत से एक दिन पहले मनाई जाती है। परंतु तराई में होली भारत की होली के दिन ही मनाई जाती है। तराई की होली का रूप बिहार की फगुआ से मिलता जुलता है। होली एक हिन्दू त्यौहार है परन्तु नेपाल में हिन्दू और बौद्ध धर्मावलम्बी (प्रायः नेवार जाति) दोनों ही इस त्यौहार को हर्षोल्हास से मनाते है। .

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पञ्चाङ्गम्

वर्ष 1871-72 के हिन्दू पंचांग का एक पृष्ठ पञ्चाङ्गम् परम्परागत भारतीय कालदर्शक है जिसमें समय के हिन्दू ईकाइयों (वार, तिथि, नक्षत्र, करण, योग आदि) का उपयोग होता है। इसमें सारणी या तालिका के रूप में महत्वपूर्ण सूचनाएँ अंकित होतीं हैं जिनकी अपनी गणना पद्धति है। अपने भिन्न-भिन्न रूपों में यह लगभग पूरे नेपाल और भारत में माना जाता है। असम, बंगाल, उड़ीसा, में पञ्चाङ्गम् को 'पञ्जिका' कहते हैं। 'पञ्चाङ' का शाब्दिक अर्थ है, 'पाँच अङ्ग' (पञ्च + अङ्ग)। अर्थात पञ्चाङ्ग में वार, तिथि, नक्षत्र, करण, योग - इन पाँच चीजों का उल्लेख मुख्य रूप से होता है। इसके अलावा पञ्चाङ से प्रमुख त्यौहारों, घटनाओं (ग्रहण आदि) और शुभ मुहुर्त का भी जानकारी होती है। गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक वर्ष में १२ महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में १५ दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में २७ नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं। १२ मास का एक वर्ष और ७ दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। यह १२ राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष, सौर वर्ष से ११ दिन ३ घड़ी ४८ पल छोटा है। इसीलिए हर ३ वर्ष में इसमे एक महीना जोड़ दिया जाता है जिसे अधिक मास कहते हैं। इसके अनुसार एक साल को बारह महीनों में बांटा गया है और प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। महीने को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक होती है। दिन को चौबीस घंटों के साथ-साथ आठ पहरों में भी बांटा गया है। एक प्रहर कोई तीन घंटे का होता है। एक घंटे में लगभग दो घड़ी होती हैं, एक पल लगभग आधा मिनट के बराबर होता है और एक पल में चौबीस क्षण होते हैं। पहर के अनुसार देखा जाए तो चार पहर का दिन और चार पहर की रात होती है। .

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पड़िला महादेव मंदिर

पड़िला महादेव मंदिर, प्रयाग के पाँचकोशी यात्रा का एक महत्वपूर्ण स्थान है।भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर तीर्थराज प्रयाग (इलाहाबाद) के उत्तरांचल मे जनपद मुख्यालय से 16 किलोमीटर दूर (इलाहाबाद-प्रतापगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग 96) फाफामऊ के थरवई गाँव मे स्थित हैं। इसे पांडेश्वर महादेव मंदिर कजे नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान सोराँव तहसील में फाफामऊ कस्बे से ३ किमी उत्तर पूर्व में स्थित हैं। किंवदन्ती है कि श्री कृष्ण की सलाह पर यहाँ पाण्ड्वों ने भगवान शंकर के लिंग की स्थापना अपने वनवासकाल के दौरान किया था। यह मन्दिर पूर्ण रूप से पत्थरों से बना हुआ है। गजेटियर के अनुसार यहाँ शिवरात्रि व फाल्गुन कृष्ण १५ को मेला लगता है। श्रेणी:शिव मंदिर.

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पुरामहादेव मंदिर

पुरा महादेव मंदिर का शिव लिंग पुरामहादेव (जिसे परशुरामेश्वर भी कहते हैं) उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के पास, बागपत जिले से ४.५ कि.मी दूर बालौनी कस्बे में पर पुरा महादेव एक छोटा से गाँव पुरा में हिन्दू भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है जो शिवभक्तों का श्रध्दा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ भी माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिये ही नहीं प्रत्युत्त समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसकी मान्यता है। लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव भी प्रसन्न हो कर अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। जहाँ पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है। काफी पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है, पास से ही निकलती है। यह मंदिर मेरठ से ३६ कि.मी व बागपत से ३० कि.मी दूर स्थित है। .

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पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान (भारतेश्वरः पृथ्वीराजः, Prithviraj Chavhan) (सन् 1178-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे, जो उत्तर भारत में १२ वीं सदी के उत्तरार्ध में अजमेर (अजयमेरु) और दिल्ली पर राज्य करते थे। वे भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, हिन्दूसम्राट्, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत के अन्तिम हिन्दूराजा के रूप में प्रसिद्ध पृथ्वीराज १२३५ विक्रम संवत्सर में पंद्रह वर्ष (१५) की आयु में राज्य सिंहासन पर आरूढ हुए। पृथ्वीराज की तेरह रानीयाँ थी। उन में से संयोगिता प्रसिद्धतम मानी जाती है। पृथ्वीराज ने दिग्विजय अभियान में ११७७ वर्ष में भादानक देशीय को, ११८२ वर्ष में जेजाकभुक्ति शासक को और ११८३ वर्ष में चालुक्य वंशीय शासक को पराजित किया। इन्हीं वर्षों में भारत के उत्तरभाग में घोरी (ग़ोरी) नामक गौमांस भक्षण करने वाला योद्धा अपने शासन और धर्म के विस्तार की कामना से अनेक जनपदों को छल से या बल से पराजित कर रहा था। उसकी शासन विस्तार की और धर्म विस्तार की नीत के फलस्वरूप ११७५ वर्ष से पृथ्वीराज का घोरी के साथ सङ्घर्ष आरंभ हुआ। उसके पश्चात् अनेक लघु और मध्यम युद्ध पृथ्वीराज के और घोरी के मध्य हुए।विभिन्न ग्रन्थों में जो युद्ध सङ्ख्याएं मिलती है, वे सङ्ख्या ७, १७, २१ और २८ हैं। सभी युद्धों में पृथ्वीराज ने घोरी को बन्दी बनाया और उसको छोड़ दिया। परन्तु अन्तिम बार नरायन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के पश्चात् घोरी ने पृथ्वीराज को बन्दी बनाया और कुछ दिनों तक 'इस्लाम्'-धर्म का अङ्गीकार करवाने का प्रयास करता रहा। उस प्रयोस में पृथ्वीराज को शारीरक पीडाएँ दी गई। शरीरिक यातना देने के समय घोरी ने पृथ्वीराज को अन्धा कर दिया। अन्ध पृथ्वीराज ने शब्दवेध बाण से घोरी की हत्या करके अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहा। परन्तु देशद्रोह के कारण उनकी वो योजना भी विफल हो गई। एवं जब पृथ्वीराज के निश्चय को परिवर्तित करने में घोरी अक्षम हुआ, तब उसने अन्ध पृथ्वीराज की हत्या कर दी। अर्थात्, धर्म ही ऐसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुएं शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। इतिहासविद् डॉ.

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पूर्णिमा

पूर्णिमा पंचांग के अनुसार मास की 15वीं और शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चंद्रमा आकाश में पूरा होता है। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व हैं। हर माह की पूर्णिमा को कोई न कोई पर्व अथवा व्रत अवश्य मनाया जाता हैं। .

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बाबा गंगेश्वरनाथ धाम

बाबा गंगेश्वर नाथ धाम मंदिर गंगा नदी से तीनो दिशाओं से घिरे कोनिया क्षेत्र के इटहरा गाँव में स्थित है यह भगवान शिव का मंदिर है, पश्चिम वाहिनी गंगा के सम्मुख होने के कारण इस मंदिर को बाबा गंगेश्वर नाथ कहा गया है। इस मंदिर का निर्माण कार्य बिसेन राजपूतो ने तत्कालीन काशी नरेश की सहायता से लगभग 2५० वर्ष पूर्व इ. सन १७५० में कराया था। शिवलाल सिंह इटहरा गाँव के निवासी थे, वे बिसेन राजपूतो से संबाधित थे। बहुत ही धार्मिक प्रवृति होने के कारण इस मंदिर का शिलान्यास शिवलाल सिंह के द्वारा कराया गया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। यहाँ पर महाशिवरात्रि पर्व के दिन मेला लगता है और महाशिवरात्रि पर्व बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए थे। इस संबंध में एक पौराणिक कथा भी है। उसके अनुसार- भगवान विष्णु की नाभि से कमल निकला और उस पर ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी सृष्टि के सर्जक हैं और विष्णु पालक। दोनों में यह विवाद हुआ कि हम दोनों में श्रेष्ठ कौन है? उनका यह विवाद जब बढऩे लगा तो तभी वहां एक अद्भुत ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ। उस ज्योतिर्लिंग को वे समझ नहीं सके और उन्होंने उसके छोर का पता लगाने का प्रयास किया, परंतु सफल नहीं हो पाए। जब दोनों देवता निराश हो गए तब उस ज्योतिर्लिंग ने अपना परिचय देते हुए कहां कि मैं शिव हूं। मैं ही आप दोनों को उत्पन्न किया है। तब विष्णु तथा ब्रह्मा ने भगवान शिव की महत्ता को स्वीकार किया और उसी दिन से शिवलिंग की पूजा की जाने लगी। शिवलिंग का आकार दीपक की लौ की तरह लंबाकार है इसलिए इसे ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। एक मान्यता यह भी है कि फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही शिव-पार्वती का विवाह हुआ था इसलिए महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। .

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बौद्ध पत्रा

बौद्ध कैलेंडर (खमेर: ពុទ្ធសករាជ Category:Articles containing Khmer-language text;, आरटीजीएस: phutthasakkarat,; सिंहल: බුද්ධ වර්ෂ या සාසන වර්ෂ (बुद्ध Varsha या Sāsana Varsha)) का एक सेट है, चन्द्र-सौर कैलेंडर में मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता में मुख्य भूमि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों कंबोडिया, लाओस, म्यांमार और थाईलैंड के रूप में अच्छी तरह के रूप में श्रीलंका के लिए एक धार्मिक और/या सरकारी अवसरों.

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भारतीय राष्ट्रीय पंचांग

भारतीय राष्ट्रीय पंचांग या 'भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर' भारत में उपयोग में आने वाला सरकारी सिविल कैलेंडर है। यह शक संवत पर आधारित है और ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ-साथ 22 मार्च 1957 से अपनाया गया। भारत मे यह भारत का राजपत्र, आकाशवाणी द्वारा प्रसारित समाचार और भारत सरकार द्वारा जारी संचार विज्ञप्तियों मे ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ प्रयोग किया जाता है। चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम माह होता है। राष्ट्रीय कैलेंडर की तिथियाँ ग्रेगोरियन कैलेंडर की तिथियों से स्थायी रूप से मिलती-जुलती हैं। चन्द्रमा की कला (घटने व बढ़ने) के अनुसार माह में दिनों की संख्या निर्धारित होती है | .

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महाराजा ईश्वरीसिंह

इनकी असामयिक मृत्यु मात्र ३० साल की उम्र में दिनांक 12.12.

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महाशिवरात्रि पशु मेला करौली

करौली जिले में भरने वाला यह पशु मेला राज्य स्तरीय पशु मेलों में से एक है। इस पशु मेले का आयोजन प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णा में किया जाता है। महाशिवरात्रि के पर्व पर आयोजित होने से इस पशु मेले का नाम शिवरात्रि पशु मेला पड़ गया है। इस मेले के आयोजन का प्रारंभ रियासत काल में हुआ था। मेले में हरियाणवी नस्ल के पशुओं की बिक्री बहुत होती है। राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के व्यापारी भी इस मेले में आते हैं। पशु मेला समाप्त हो जाने के करीब १ सप्ताह बाद इसी स्थल पर माल मेला भरता है जिसमें करौली कस्बे के आस-पास के व्यापारी वर्ग अपनी दुकानें लगाते हैं और ग्राम ग्रामीण क्षेत्र के लोगों द्वारा इस मेले में आवश्यक वस्तुओं को खरीदा जाता है और चुना जाता है कि इस मेले में रियासत के समय जवाहरात की दुकानें भी लगाई जाती थीं। .

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मास

अंग्रेज़ी कैलेण्डर के अनुसार एक साल में बारह महीने होते हैं | हिन्दी में इन्हें निम्न नामों से जाना जाता है |.

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राजस्थान के पशु मेले

भारतीय राज्य राजस्थान में सभी जिलों और ग्रामीण स्तर पर लगभग 250 से अधिक पशु मेला का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है। कला, संस्कृति, पशुपालन और पर्यटन की दृष्टि से यह मेले अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। देश विदेश के हजारों लाखों पर्यटक इसके माध्यम से लोक कला एवं ग्रामीण संस्कृति से रूबरू होते हैं। राज्य स्तरीय पशु मेलों के आयोजनों में नगरपालिका और ग्राम पंचायतों की ओर से पशुपालकों को पानी, बिजली पशु चिकित्सा व टीकाकरण की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। सरकार की ओर से इन मेलों में समय-समय पर प्रदर्शनी और अन्य ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जा रहा है। राजस्थान राज्य स्तरीय पशु मेला में अधिकांश मेले लोक देवी देवताओं एवं महान पुरुषों के नाम से जुड़े हुए हैं पशुपालन विभाग द्वारा आयोजित किए जाने वाले राज्य स्तरीय पशु मेले कुछ इस प्रकार है। .

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शिव

शिव या महादेव हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ,गंगाधार के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है। भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। राम, रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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हिन्दू पर्वों की सूची

यहाँ हिन्दू त्यौहारों की सूची दी गयी है। हिन्दू लोग बहुत से पर्व मनाते हैं जैसे दीपावली, विजया दशमी, होली आदि। .

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होलिका दहन

होलिका दहन होली के एक दिन पूर्व सन्ध्या को किया जाता है। श्रेणी:होली.

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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होली की कहानियाँ

होली खेलते राधा और कृष्ण होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से है। यह कितना पुराना है इसके विषय में ठीक जानकारी नहीं है लेकिन इसके विषय में इतिहास पुराण व साहित्य में अनेक कथाएँ मिलती है। इस कथाओं पर आधारित साहित्य और फ़िल्मों में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहने के प्रयत्न किए गए हैं लेकिन हर कथा में एक समानता है कि असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय को उत्सव मनाने की बात कही गई है। .

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जया बच्चन

जया बच्चन (जया भादुरी, विवाह पूर्व) हिन्दी फिल्मों की एक अभिनेत्री हैं। .

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जायसी का बारहमासा

जायसी का बारहमासा मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य पद्मावत का एक हिस्सा है।नागमती (रत्नसेन की विवाहिता पत्नी) अपने प्रियतम रत्नसेन के वियोग में व्याकुल है। रत्नसेन जब से चित्तौड़ छोड़ कर गए हैं तब से वापस नहीं आये, नागमती को ऐसा लगता है कि शायद हमारे प्रियतम किसी अन्य युवती के प्रेम -जाल के बन्धन में बंध गए हैं। पति के समीप रहने पर जो प्रकृति सुखकारी थी अब वही प्रकृति पति के दूर रहने पर नागमती के लिए अत्यधिक पीड़ा दायक है। नागमती कहती है:;नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसों हरा। .

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ज्येष्ठ (मास)

ज्येष्ठ भारतीय काल गणना (हिन्दू पंचांग) के अनुसार वर्ष का तीसरा माह है। फागुन माह की बिदाई के साथ ही गर्मी शुरू हो जाती है और इस माह को गर्मी का महीना भी कहा जाता है। .

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विक्रम संवत

विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत 57 ई.पू.

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वैकुण्ठ एकादशी

फाल्गुन माह के कृष्णपक्ष की एकादशी, बैकुण्ठ एकादशी कहलाती हैं। इसे 'पंकोद्धार एकादशी' या 'विजया एकादशी' भी कहते हैं। विजया एकादशी का व्रत करने वाला मनुष्य शत्रु पर विजय प्राप्त करता है। पुराण कथा है कि सीता का पता लगाने के लिए रामचन्द्र वानर सेना के साथ समुद्र के उत्तर तट पर खड़े थे तब रावण जैसे बलवान शत्रु और सागर की गम्भीरता को लेकर चिन्तित थे। इसके उपाय के लिए मुनियों ने उन्हें विजया एकादशी का व्रत करने का परामर्श दिया। व्रत के प्रभाव से सागर पार करके उन्होने रावण का वध किया। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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ग्रन्थताल

अंकोरवाट मंदिर के आसपास ग्रन्थताल के वृक्ष ग्रंथताल (Borassus flabellifer L. बोरासूस् फ़्लाबेलीफ़ेर्) को पामीरा पाम (Palmyra palm) कहते हैं। बंबई के इलाके में लोग इसे "ब्रंब" भी कहते हैं। यह एकदली वर्ग, ताल (Palmeae पाल्मेऐ) कुल का सदस्य है और गरम तथा नम प्रदेशों में पाया जाता है। यह अरब देश का पौधा है, पर भारत, बर्मा तथा लंका में अब अधिक मात्रा में उगाया जाता है। अरब के प्राचीन नगर "पामीरा" के नाम पर कदाचित् इस पौधे का नाम "पामीरा पाम" पड़ा है। ग्रंथताल समुद्रतटीय इलाकों तथा शुष्क स्थानों में बलुई मिट्टी पर पाया जाता है। इसके पौधे काफी ऊँचे (60-70 फुट) होते हैं। तना प्राय: सीधा और शाखारहित होता है एवं इसके ऊपरी भाग में गुच्छेदार, पंखे के समान पत्तियाँ होती हैं। ग्रंथताल के नर तथा मादा पौधों को उनके फूलगुच्छे से पहचाना जाता है। पौधे फाल्गुन महीने में फूलते हैं और फल ज्येष्ठ तक आ जाता है। ये फल श्रावणमास तक पक जाते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है, जो कड़ा तथा सुपारी की भाँति होता है। दो या तीन मास तक जमीन के अंदर गड़े रहने पर बीज अंकुरित हो जाता है। .

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गेर नृत्य

गेर नृत्य भारत में राजस्थान का पारम्परिक प्रसिद्ध और सुन्दर लोक नृत्य है। यह नृत्य प्रमुखतः भील आदिवासियों द्वारा किया जाता है परन्तु पूरे राजस्थान में पाया जाता है। .

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गोविन्दपुर झखराहा

गोविन्दपुर झखराहा भारत में बिहार राज्य के ऐतिहासिक वैशाली जिलान्तर्गत एक छोटा गाँव है। निकटस्थ शहर एवं जिला मुख्यालय हाजीपुर से यह गाँव १३ किलोमीटर पूर्व राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित है। सघन आबादी वाले इस कृषिप्रधान गाँव में बज्जिका बोली जाती है लेकिन शिक्षा का माध्यम हिंदी और उर्दू है। लगभग १ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वाले इस छोटे से गाँव की वर्तमान जनसंख्या लगभग 1800 है। .

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