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पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल

सूची पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल

डॉ॰ पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल (१३ दिसंबर, १९०१-२४ जुलाई, १९४४) हिंदी में डी.लिट.

6 संबंधों: लखनऊ विश्वविद्यालय, सबद, हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम, गोरखनाथ, उलटबाँसी, २ दिसम्बर

लखनऊ विश्वविद्यालय

लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शैक्षिक-संस्थानों में से एक है। यह लखनऊ के समृद्ध इतिहास को तो प्रकट करता ही है नगर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से भी एक है। इसका प्राचीन भवन मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है। इसमें पढ़ने और पढाने वाले अनेक शिक्षक और विद्यार्थी देश और विदेश में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। .

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सबद

कबीर दास से लिकी सबद साम्पादन। सबद या शब्द का प्रयोग हिंदी के संत-साहित्य में बहुलता से हुआ है। बड़थ्वाल ने गरीबदास के आधार पर लिखा है कि "शब्द, गुरु की शिक्षा, सिचण, पतोला, कूची, बाण, मस्क, निर्भयवाणी, अनहद वाणी, शब्दब्रह्म और परमात्मा के रूप में प्रयुक्त हुआ है" "सबद" या "शब्द" प्राय: गेय होते हैं। अत: राग रागिनियों में बँधे पर "सबद" या शब्द कहते जाते रहे हैं। सिद्धों से लेकर निर्गुणी, सगुणी सभी संप्रदाय के संत अथवा भक्तों ने विविध राग रागिनियों में पदरचना की है। परंतु प्रत्येक गेय पद सबद नहीं कहा जाता। संतों की अनुभूति "सबद" कहलाती है। कबीर की रचनाओं में "सबद" का बहुत प्रयोग हुआ है और भिन्न भिन्न अर्थों में हुआ है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने "हिंदी साहित्य का आदिकाल" शीर्षक ग्रंथ में लिखा है, संवत् 1715 की लिखी हुई एक प्रति से संगृहीत और गोरखबानी में उद्धृत पदों को "सबदी" कहा गया है। कबीर ने संभवत: वहीं से "सबद" ग्रहण किया होगा।" नाथों का व्यापक प्रभाव केवल उनके मत या विचारों तक ही सीमित नहीं रहा, उनकी अभिव्यक्ति के विविध प्रकारों ने भी उनके परवर्ती हिंदी संतों को प्रभावित किया है। संत तो प्राय: जनता में प्रचलित भावप्रकाश की शैली को और भाषारूप को अपनाया करते हैं जिससे उनके विचार शीघ्र ही उसमें संचरित हो सकेंनाथों ने सिद्धों से और विभिन्न संप्रदायों संतों ने नाथों से यदि "सबद" या पद शैली ग्रहण की तो यह स्वाभाविक ही था। निर्गुणी संतों के "साखी" और "सबद" अत्यधिक प्रचलित हुए। कई बार ये दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची बनकर भी व्यवहृत होते रहे। बड़थ्वाल का मत है कि "विषय की दृष्टि से इन दोनों में बहुधा कुछ अंतर लक्षित होता है। "सबद" का प्रयोग भीतरी तथा अनुभव आह्लाद के व्यक्तीकरण के लिए किया जाता है और साखी का प्रयोग दैनिक जीवन में लक्षित होनेवाले व्यावहारिक अनुभव को स्पष्ट करने में हुआ करता है।" इसका अर्थ यह हुआ कि "सबद" आत्मानुभूति है और साखी बाह्यानुभूति। परंतु संत वाङ्मय के अनुशीलन से "साखी" और "सबद" का यह भेद सदा परिलक्षित नहीं होता। स्वयं बड़थ्वाल ने भी एक स्थल पर स्वीकार किया कि "कभी कभी इनमें से एक दूसरे की जगह भी व्यवहृत हुआ देखा जाता है। "सबद के संबंध में एक बात निश्चित है कि उन्हें राग रागिनियों में कहने की पुरानी परिपाटी रही है। इसी से कबरी के "सबद" विषयों के अनुसार विभाजित न होकर राग रागिनियों के अनुसार अधिक विभाजित पाए जाते हैं। .

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हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम

यहाँ पर हिन्दी से सम्बन्धित सबसे पहले साहित्यकारों, पुस्तकों, स्थानों आदि के नाम दिये गये हैं।.

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गोरखनाथ

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे (प्रमाण भी हे राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की सुरुआत प्रथम सताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भरथरी एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे 'रोट महोत्सव' कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है। .

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उलटबाँसी

सीधे-सीधे न कहकर, घुमा-फिराकर उलटकर कविता माध्यम से कही हुई बात अथवा व्यंजना उलटवाँसी कहलाती है। संतों और विशेष रूप से कबीर ने अनेक उलटवाँसियों की रचना की है जिन्हें लेकर ऐतिहासिक दृष्टि तथा संतमानस की ठीक ठीक समझ के अभाव के कारण न केवल भारी भ्रम फैला है, अपितु काफी विवाद भी हुआ है। डॉ॰ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल (हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय, प्रथम संस्करण, पृ. ३७०-७१) के मत से आध्यात्मिक अनुभव की अनिर्वचनीयता के कारण साधक को कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा (अपना मनोगत) व्यक्त करने का ढंग अपनाना पड़ता है, जैसे चंद्रविहीन चाँदनी, सूर्यविहीन सूर्यप्रकाश आदि और इसके आधार पर ऐसे गूढ़ प्रतीकों की सृष्टि हो जाती है जिन्हें "उलटवाँसी" या "विपर्यय" कहते हैं। जब सत्य की अभिव्यक्ति बिना इन परस्पर विरोधी कथनों के सहारे नहीं हो पाती तो उसे आवश्यक सत्याभास कह सकते हैं। किंतु कभी-कभी इन उलटवाँसियों का प्रयोग अर्थ को जान बूझकर छिपाने के लिए भी हुआ करता है जिससे आध्यात्मिक मार्ग के रहस्यों का पता अयोग्य व्यक्तियों को न लगने पाए। ऐसी उलटवाँसियों को जान बूझकर रची गई उलटवाँसियाँ कर सकते हैं। साधारण प्रकार से आध्यात्मिक साधनाओं को ही ऐसी उलटवाँसियों में स्पष्ट किया जाता है। उक्त पहले प्रकार की उलटवाँसियाँ सांकेतिक होती हैं जहाँ दूसरी का स्वरूप रहस्यमय हुआ करता है। इसमें संदेह नहीं कि सांकेतिक उलटवाँसियों में उच्च श्रेणी का काव्य रहा करता है। किंतु गुह्य उलटवाँसियों स्वभावत: काव्यगत सौंदर्य से हीन हुआ करती हैं। डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी (कबीर, तृतीय संस्करण, पृ. ८०-८१) के मतानुसार संतों पर योगियों का व्यापक प्रभाव था और योगियों की अद्भुत क्रियाएँ साधारण जनता के लिए आश्चर्य तथा श्रद्धा का विषय थीं। योगियों का अपने विषय में कहना था कि वे तीन लोक से न्यारे हैं। सारी दुनिया भ्रम में उलटी बही जा रही है। हठयोग के सिद्धांतों और व्यवहारों का माननेवाले लोग ही रास्ते पर हैं। गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह (सं. महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, काशी, १९२५, पृ. ५८-५९) के अनुसार एक योग संप्रदाय को छोड़कर शेष सभी मतों की बात उलटी है। नाथ का अंश नाद है और नाद का अंश है प्राण। दूसरी और शक्ति का अंश बिंदु हैं और बिंदु का अंश है शरीर। अत: स्पष्ट ही नाद और प्राण बिंदु तथा शरीर से अधिक महत्वपूर्ण हैं, अर्थात्‌ पुत्रक्रम की अपेक्षा शिष्यक्रम आधिक मान्य है। परंतु दुनिया की रीत इससे उलटी है। वह पुत्रक्रम को प्रमुख मानती है ओर शिष्यक्रम को गौण। दुनिया के अनुसार क्रम है: धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश-ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि; यानी सब उलटा, इसलिए कि जो श्रेष्ठ है उसे पहले रखना चाहिए और जो अपेक्षाकृत कम श्रेष्ठ है उसे बाद में। सही क्रम इससे बिलकुल उलटा होता है। यथा, मोक्ष-धर्म-अर्थ-काम, आकाश-वायु-तेज-जल-पृथ्वी, शिव-विष्णु-ब्रह्मा आदि। फलस्वरूप योगी, तांत्रिक और संत (योगियों के प्रभाव के कारण) दुनिया से उलटी बात कहने लगे। काव्यबद्ध इन्हीं उलटी बातों को "उलटवाँसी' की संज्ञा दी गई है। लोक में गो-मांस-भक्षण महापाप है जबकि उलटवाँसी में "गो" जिह्वा है और उसे तालु में उलटकर ब्रह्मर्ध्रां की ओर ले जाना "गो-मांस-भक्षण" है। गंगा, यमुना और सरस्वती से सामान्यत: भारत की तीन नदियों का ज्ञान होता है जबकि उलटवाँसियों में गंगा इड़ा है, यमुना पिंगला और सरस्वती इड़ा पिंगला की मध्यवर्तिनी सुषुम्ना है जिसके अंदर स्थित कुंडलिनी नामक बालरंडा को जर्बदस्ती ऊपर उठा ले जाना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है। एक उदाहरण के माध्यम से उलटवाँसियों को समझने में सहायता मिल सकती है: अवधू ऐसा ग्यान विचारै। भेरैं बढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं।। टेक।। ऊघट चले सु नगरि पहूँते, बाट चले ते लूटे। एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे।। (कबीर ग्रंथावली, ना.प्र. सभा, ११वाँ संस्करण, पृ. ११०) कबीर कहते हैं, "हे अवधू ! जो लोग नाव पर चढ़े (भिन्न-भिन्न इष्टदेवों का आधार लेकर चले) वे समुद्र में डूब गए (संसार में ही लिप्त रहे), किंतु जिन्हें ऐसा कोई भी साधन न था वे पार लग गए (मुक्त हो गए)। जो बिना किसी मार्ग के चले वे नगर (परम पद) तक पहुँच गए, किंतु जिन व्यक्तियों ने मार्ग (अंधविश्वासपूर्ण परंपराओं) का सहारा लिया, वे लूट लिए गए (उनके आध्यात्मिक गुणों का ह्रास हो गया)। सभी बंधन (माया) में बँधे हुए हैं, किसे मुक्त और किसे बद्ध कहा जाए। श्रेणी:साहित्य.

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२ दिसम्बर

2 दिसंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 336वॉ (लीप वर्ष मे 337 वॉ) दिन है। साल में अभी और 29 दिन बाकी है। .

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