7 संबंधों: परहितकरण, भारतीय गणित, भारतीय गणितज्ञों की सूची, भाष्य, माध्यमान प्रमेय, गोविन्दस्वामी (गणितज्ञ), केरलीय गणित सम्प्रदाय।
परहितकरण
परहितकरण खगोलीय गणनाएँ करने की प्राचीन भारतीय पद्धति का नाम है। यह पद्धति मुख्यतः केरल और तमिलनाडु में प्रचलित थी। इसका आविष्कार केरल के खगोलशास्त्री हरिदत्त ने किया था। (683 ई)). नीलकण्ठ सोमयाजिन (1444–1544) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ दृक्करण में इसका उल्लेख किया है कि उनके समय में 'परहित' की रचना किस प्रकार की गई थी। परहितकरण पद्धति के दो ग्रन्थ ज्ञात हैं - 'ग्रहचारनिबन्धन' तथा 'महामार्गनिबन्धन' किन्तु अब केवल ग्रहचारनिबन्धन ही प्राप्य है। 'परहित' का शाब्दिक अर्थ 'दूसरों की भलाई' है और वास्तव में 'परहितकरन' के निर्माण का उद्देश्य यही था कि खगोलीय गणनाओं को इतना आसान बना दिया जाय कि 'आम जनता' भी खगोलीय गणनाएँ करने में सक्षम हो जाय अतः 'सैद्धान्तिक' परिपाटी की कठिनाइयों को परहित-प्रणाली ने बहुत सरल बना दिया। इस प्रणाली ने आर्यभटीय में दी गयी गणना-चक्र को सरल बना दिया। हरिदत्त ने संख्याओं को निरूपित करने के लिए आर्यभट द्वारा विकसित 'कठिन' विधि के स्थान कटपयादि पद्धति को अपनाया। कटपयादि पद्धति बाद में केरलीय गणित में बहुत लोकप्रिय हुई। 'ग्रहचारनिबन्धनसंग्रह' (932 AD) नामक ग्रन्थ में 'परहित' विधि का विस्तार से वर्णन है। बाद में इन विधियों को भी परमेशवरन् ने १४८३ में रचित अपने 'दृग्गणित' (.
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भारतीय गणित
गणितीय गवेषणा का महत्वपूर्ण भाग भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुआ है। संख्या, शून्य, स्थानीय मान, अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित, कैलकुलस आदि का प्रारम्भिक कार्य भारत में सम्पन्न हुआ। गणित-विज्ञान न केवल औद्योगिक क्रांति का बल्कि परवर्ती काल में हुई वैज्ञानिक उन्नति का भी केंद्र बिन्दु रहा है। बिना गणित के विज्ञान की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं हो सकती। भारत ने औद्योगिक क्रांति के लिए न केवल आर्थिक पूँजी प्रदान की वरन् विज्ञान की नींव के जीवंत तत्व भी प्रदान किये जिसके बिना मानवता विज्ञान और उच्च तकनीकी के इस आधुनिक दौर में प्रवेश नहीं कर पाती। विदेशी विद्वानों ने भी गणित के क्षेत्र में भारत के योगदान की मुक्तकंठ से सराहना की है। .
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भारतीय गणितज्ञों की सूची
सिन्धु सरस्वती सभ्यता से आधुनिक काल तक भारतीय गणित के विकास का कालक्रम नीचे दिया गया है। सरस्वती-सिन्धु परम्परा के उद्गम का अनुमान अभी तक ७००० ई पू का माना जाता है। पुरातत्व से हमें नगर व्यवस्था, वास्तु शास्त्र आदि के प्रमाण मिलते हैं, इससे गणित का अनुमान किया जा सकता है। यजुर्वेद में बड़ी-बड़ी संख्याओं का वर्णन है। .
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भाष्य
संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ - व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। मुख्य रूप से सूत्र ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं। भाष्य, मोक्ष की प्राप्ति हेतु अविद्या (ignorance) का नाश करने के साधन के रूप में जाने जाते हैं। पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य और ब्रह्मसूत्रों पर शांकरभाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य हैं। .
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माध्यमान प्रमेय
गणित में, माध्य मान प्रमेय के अनुसार किन्हीं दो बिन्दुओं के मध्य दिये गये किसी चाप पर कम से कम एक ऐसा बिन्दु विद्यमान होगा जिसपर चाप की स्पर्शरेखा अन्तकविन्दुओं को मिलाने वाली छेदक रेखा के समानान्तर होगी। यह प्रमेय किसी फलन के किसी दिये गये अन्तराल में, इसके बिन्दुओं के मध्य अवकलज की स्थानिक परिकल्पना से सम्बंधित वैश्विक कथन को सिद्ध करने के लिए काम में ली जाती थी। अधिक निश्चितता से, यदि कोई फलन f बंद अंतराल पर सतत है, जहाँ a f'(c) .
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गोविन्दस्वामी (गणितज्ञ)
गोविन्दस्वामी (800 ई – 860 ई) भारत के गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री (ज्योतिषी) थे। उन्होने भास्कर प्रथम के ग्रन्थ महाभास्करीय पर एक भाष्य की रचना की (लगभग ८३० ई)। इस भाष्य में स्थानीय मान के प्रयोग के लिये कई उदाहरण दिये हैं और ज्या सारणी (साइन टेबल) के निर्माण की विधि दी हुई है। उनकी एक कृति 'गोविन्दकृति' थी जो 'आर्यभटीय' के क्रम में रचित गणितीय ग्रन्थ था। किन्तु अब यह अप्राप्य है। शंकरनारायण (८६९ ई), उदयदिवाकर (१०७३ ई) तथा नीलकण्ठ सोमयाजि ने गोविन्दस्वामी को अनेक बार उद्धृत किया है। .
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केरलीय गणित सम्प्रदाय
केरलीय गणित सम्प्रदाय केरल के गणितज्ञों और खगोलशास्त्रियों का एक के बाद एक आने वाला क्रम था जिसने गणित और खगोल के क्षेत्र में बहुत उन्नत कार्य किया। इसकी स्थापना संगमग्राम के माधव द्वारा की गयी थी। परमेश्वर, नीलकण्ठ सोमजाजिन्, ज्येष्ठदेव, अच्युत पिशारती, मेलापतुर नारायण भट्टतिरि तथा अच्युत पान्निकर इसके अन्य सदस्य थे। यह सम्प्रदाय १४वीं शदी से लेकर १६वीं शदी तक फला-फूला। खगोलीय समस्याओं के समाधान के खोज के चक्कर में इस सम्प्रदाय ने स्वतंत्र रूप से अनेकों महत्वपूर्ण गणितीय संकल्पनाएँ सृजित की। इनमें नीलकंठ द्वारा तंत्रसंग्रह नामक ग्रन्थ में दिया गया त्रिकोणमितीय फलनों का श्रेणी के रूप में प्रसार सबसे महत्वपूर्ण है। केरलीय गणित सम्प्रदाय माधवन के बाद कम से कम दो शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा। ज्येष्ठदेव से हमें समाकलन का विचार मिला, जिसे संकलितम कहा गया था, (हिंदी अर्थ संग्रह), जैसा कि इस कथन में है: जो समाकलन को एक ऐसे चर (पद) के रूप में अनुवादित करता है जो चर के वर्ग के आधे के बराबर होगा; अर्थात x dx का समाकलन x2 / 2 के बराबर होगा। यह स्पष्ट रूप से समाकलन की शुरुआत है। इससे सम्बंधित एक अन्य परिणाम कहता है कि किसी वक्र के अन्दर का क्षेत्रफल उसके समाकल के बराबर होता है। इसमें से अधिकांश परिणाम यूरोप में ऐसे ही परिणामों के अस्तित्व से कई शताब्दियों पूर्व के हैं। अनेक प्रकार से, ज्येष्ठदेव की युक्तिभाषा कलन पर विश्व की पहली पुस्तक मानी जा सकती है। इस समूह ने खगोल विज्ञान में अन्य कई कार्य भी किये; वास्तव में खगोलीय परिकलनों पर विश्लेषण संबंधी परिणामों की तुलना में कहीं अधिक पृष्ठ लिखे गए हैं। केरल स्कूल ने भाषाविज्ञान (भाषा और गणित के मध्य सम्बन्ध एक प्राचीन भारतीय परंपरा है, देखें, कात्यायन) में भी योगदान दिया है। केरल की आयुर्वेदिक और काव्यमय परंपरा की जड़ें भी इस स्कूल में खोजी जा सकती हैं। प्रसिद्ध कविता, नारायणीयम, की रचना नारायण भात्ताथिरी द्वारा की गयी थी। .
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