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न्याय

सूची न्याय

यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी.

53 संबंधों: चैतन्य महाप्रभु, तृतीयक क्षेत्र, दर्शनशास्त्र, दलित साहित्य, दुर्व्यवहार, नारद पुराण, न्याय (बहुविकल्पी), न्यायशास्त्र, नीतिशास्त्र, नीलदर्पण, प्रमाणशास्त्र, प्राकृतिक न्याय, प्राङ्न्याय, प्लेटो, भेदभाव, महाभारत, महिला सशक्तीकरण, मुनीश्वर, मॉन्टेस्क्यू, यूरोपीय संघ, रामदहिन मिश्र, रामभद्राचार्य, राजनीतिक दर्शन, राजाराम शुक्ल, रिपब्लिक (प्लेटो), लोकतंत्र, शरीयत, शास्त्र, शिवानन्द गोस्वामी, शुक्रनीति, समेकित बाल संरक्षण योजना, सात घातक पाप, साम्यवाद, सांख्य दर्शन, संधारणीय विकास लक्ष्य, संस्कृत व्याकरण का इतिहास, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, हित द्वंद, हिन्दू धर्म, ज़िला न्यायालय (भारत), जैवनैतिकता, वादविद्या, वासुदेव महादेव अभ्यंकर, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, गौतम, आर्यदेव, कुमारिल भट्ट, अनौचित्य, अल्बैर कामू, ..., अष्टावक्र (महाकाव्य), असत्‌कार्यवाद, छल सूचकांक विस्तार (3 अधिक) »

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

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तृतीयक क्षेत्र

अर्थव्यवस्था के तृतीयक क्षेत्र (tertiary sector of economy) को 'सेवा क्षेत्र' (service sector) भी कहते हैं। अर्थव्यवस्था के अन्य दो क्षेत्र 'प्राथमिक क्षेत्र' (कृषि, पशुपालन, मछली पालन आदि) तथा 'द्वितीयक क्षेत्र (विनिर्माण) हैं। तृतीयक क्षेत्र का विकास २०वीं शताब्दी के आरम्भ में शुरू हुआ। इसके अन्तर्गत व्यापार, यातायात, संप्रेषण (कमुनिकेशन्स), वित्त, पर्यटन, सत्कार (हॉस्पितैलिटी), संस्कृति, मनोरंजन, लोक प्रशासन एवं लोक सेवा, सूचना, न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि आते हैं। .

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दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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दलित साहित्य

दलित साहित्य से तात्‍पर्य दलित जीवन और उसकी समस्‍याओं पर लेखन को केन्‍द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्‍हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्‍पृश्‍य माना गया। दलित साहित्य की शुरूआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्‍या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्‍यम से पहुंचाया। .

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दुर्व्यवहार

दुर्व्यवहार (abuse) किसी शक्ति या अधिकार के अन्यायपूर्ण या अनौचित्यपूर्ण प्रयोग से किसी अन्य व्यक्ति, समूह, प्राणी, जीव या अन्य चीज़ के साथ करे गये बुरे या हानिकारक व्यवहार को कहते हैं। दुर्व्यवहार की बहुत-सी श्रेणियाँ न्याय-विधि द्वारा वर्जित होती हैं। दुर्व्यवहार कई प्रकार के होते हैं। .

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नारद पुराण

नारद पुराण या 'नारदीय पुराण' अट्ठारह महुराणों में से एक पुराण है। यह स्वयं महर्षि नारद के मुख से कहा गया एक वैष्णव पुराण है। महर्षि व्यास द्वारा लिपिबद्ध किए गए १८ पुराणों में से एक है। नारदपुराण में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द-शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवान की उपासना का विस्तृत वर्णन है। यह पुराण इस दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें अठारह पुराणों की अनुक्रमणिका दी गई है। इस पुराण के विषय में कहा जाता है कि इसका श्रवण करने से पापी व्यक्ति भी पापमुक्त हो जाते हैं। पापियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति ब्रह्महत्या का दोषी है, मदिरापान करता है, मांस भक्षण करता है, वेश्यागमन करता हे, तामसिक भोजन खाता है तथा चोरी करता है; वह पापी है। इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय विष्णुभक्ति है। .

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न्याय (बहुविकल्पी)

कोई विवरण नहीं।

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न्यायशास्त्र

लॉ के फिलोज़ोफर्स पूछते है "कानून क्या है?"और "यह क्या हो सकता है?" न्यायशास्त्र कानून (विधि) का सिद्धांत और दर्शन है। न्यायशास्त्र के विद्वान अथवा कानूनी दार्शनिक, विधि (कानून) की प्रवृति, कानूनी तर्क, कानूनी प्रणालियां एवं कानूनी संस्थानों का गहन ज्ञान पाने की उम्मीद रखते हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र की शुरुआत 18वीं सदी में हुई और प्राकृतिक कानून, नागरिक कानून तथा राष्ट्रों के कानून के सिद्धांतों पर सर्वप्रथम अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया। साधारण अथवा सामान्य न्यायशास्त्र को प्रश्नों के प्रकार के द्वारा उन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है अथवा इन प्रश्नों के सर्वोत्तम उत्तर कैसे दिए जायं इस बारे में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं के स्कूलों दोनों ही तरीकों से पता लगाकर जिनकी चर्चा विद्वान करना चाहते हैं। कानून का समकालीन दर्शन, जो सामान्य न्यायशास्त्र से संबंधित हैं, समस्याओं की चर्चा मोटे तौर पर दो वर्गों में करता है:शाइनर, "कानून के दार्शनिक", कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोज़ोफी.

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नीतिशास्त्र

नीतिशास्त्र (ethics) जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शन की एक शाखा हैं। यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप में, वह नैतिक दर्शन, वर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं। नीतिशास्त्र में अभ्यास के तीन प्रमुख क्षेत्र जिन्हें मान्यता प्राप्त हैं.

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नीलदर्पण

नीलदर्पण बांग्ला का प्रसिद्ध नाटक है जिसके रचयिता दीनबन्धु मित्र हैं। इसकी रचना १८५८-५९ में हुई। यह बंगाल में नील विद्रोह का अन्दोलन का कारण बना। यह बंगाली रंगमंच के विकास का अग्रदूत भी बना। कोलकाता के 'नेशनल थिएटर' में सन् १८७२ में खेला गया यह पहला व्यावसायिक नाटक था। .

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प्रमाणशास्त्र

प्रमाणशास्त्र इसे न्याय का अंग माना जा सकता है। el:Γνωσιολογία es:Gnoseología fa:شناخت‌شناسی fr:Théorie de la connaissance hr:Epistemologija nn:Erkjenningsteori sl:Gnoseologija sq:Epistimologjia sv:Kunskapsteori.

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प्राकृतिक न्याय

प्राकृतिक न्याय (Natural justice) न्याय सम्बन्धी एक दर्शन है जो कुछ विधिक मामलों में न्यायपूर्ण (just) या दोषरहित (fair) प्रक्रियाएं निर्धारित करने एवं उन्हे अपनाने के लिये उपयोग की जाती है। यह प्राकृतिक विधि के सिद्धान्त से बहुत नजदीक सम्बन्ध रखती है। आम कानून में 'प्राकृतिक न्याय' दो विशिष्ट कानूनी सिद्धांतों को संदर्भित करता है-.

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प्राङ्न्याय

पूर्वन्याय या प्रांन्याय (प्राक् + न्याय; लैटिन: Res judicata) न्याय का एक सिद्धान्त है जिसके अनुसार यदि किसी विषय पर अन्तिम निर्णय दिया जा चुका है (और जिसमें आगे अपील नहीं किया जा सकता) तो यह मामला फिर से उसी न्यायालय या किसी दूसरे न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता। अर्थात् प्रांन्याय के सिद्धान्त का उपयोग करते हुए न्यायालय ऐसे मामलों को पुनः उठाने से रोक देगा। .

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प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

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भेदभाव

भेदभाव या विभेदन (discrimination) किसी व्यक्ति या अन्य चीज़ के पक्ष में या उस के विरुद्ध, उसके व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों को न देखते हूए, उसके किसी वर्ग, श्रेणी या समूह का सदस्य होने के आधार पर भेद करने की प्रक्रिया को कहते हैं। भेदभाव में अक्सर किसी व्यक्ति को केवल उसके वर्ग के आधार पर अवसरों, स्थानों, अधिकारों और अन्य चीज़ों से वंछित कर दिया जाता है। भेदभावी परम्पराएँ, नीतियाँ, विचार, क़ानून और रीतियाँ बहुत से समाजों, देशों और संस्थाओं में हैं और अक्सर यह वहाँ भी मिलती हैं जहाँ औपचारिक रूप से भेदभाव को न्यायिक रूप से वर्जित या अनौचित्य समझा जाता है। यह किसी धर्म जाति मूल वंश के प्रति किया गया नकारात्मक व्यवहार है .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महिला सशक्तीकरण

महिला सशक्तीकरण के अंतर्गत महिलाओं से जुड़े सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और कानूनी मुद्दों पर संवेदनशीलता और सरोकार व्यक्त किया जाता है। सशक्तीकरण की प्रक्रिया में समाज को पारंपरिक पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के प्रति जागरूक किया जाता है, जिसने महिलाओं की स्थिति को सदैव कमतर माना है। वैश्विक स्तर पर नारीवादी आंदोलनों और यूएनडीपी आदि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने महिलाओं के सामाजिक समता, स्वतंत्रता और न्याय के राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। महिला सशक्तीकरण, भौतिक या आध्यात्मिक, शारिरिक या मानसिक, सभी स्तर पर महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है। .

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मुनीश्वर

मुनीश्वर (सन् १६०३) भारतीय गणितज्ञ थे जिनका दूसरा नाम 'विश्वरूप' भी है। वे रंगनाथ दैवज्ञ के पुत्र थे। सूर्यसिद्धान्त पर रंगनाथकृत 'सौरभाष्य' नामक ग्रन्थ अपना महत्व रखता है। अतः आचार्य मुनीश्वर परम्परा से ही ज्योतिविद्या के पूर्ण मर्मज्ञ थे। इसके साथ ही न्याय, काव्य, व्याकरण आदि के भी वे पण्डित थे। मुनीश्वर ने सूर्यसिद्धान्त के भगणों के आधार पर सन् १६४६ में 'सिद्धान्त सार्वभौम' नामक ज्योतिष सिद्धान्त ग्रन्थ की रचना की। 'स्वाशय प्रकाशिनी' नाम से अपने इस ग्रन्थ की टीका भी स्वयं उन्होने लिखी। इसके अलावा उनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ हैं-.

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मॉन्टेस्क्यू

250px मॉन्टेस्क्यू (फ्रेंच: de La Brède et de Montesquieu) (जनवरी १८, १६८९ - फरवरी १०, १७५५) फ्रांस के एक राजनैतिक विचारक, न्यायविद तथा उपन्यासकार थे। उन्होने शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त दिया। वे फ्रांस में ज्ञानोदय के प्रभावी और प्रख्यात प्रतिनिधि माने जाते हैं। .

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यूरोपीय संघ

यूरोपियन संघ (यूरोपियन यूनियन) मुख्यत: यूरोप में स्थित 28 देशों का एक राजनैतिक एवं आर्थिक मंच है जिनमें आपस में प्रशासकीय साझेदारी होती है जो संघ के कई या सभी राष्ट्रो पर लागू होती है। इसका अभ्युदय 1957 में रोम की संधि द्वारा यूरोपिय आर्थिक परिषद के माध्यम से छह यूरोपिय देशों की आर्थिक भागीदारी से हुआ था। तब से इसमें सदस्य देशों की संख्या में लगातार बढोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से परिवर्तन भी शामिल किये गये। 1993 में मास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी। दिसम्बर 2007 में लिस्बन समझौता जिसके द्वारा इसमें और व्यापक सुधारों की प्रक्रिया 1 जनवरी 2008 से शुरु की गयी है। यूरोपिय संघ सदस्य राष्ट्रों को एकल बाजार के रूप में मान्यता देता है एवं इसके कानून सभी सदस्य राष्ट्रों पर लागू होता है जो सदस्य राष्ट्र के नागरिकों की चार तरह की स्वतंत्रताएँ सुनिश्चित करता है:- लोगों, सामान, सेवाएँ एवं पूँजी का स्वतंत्र आदान-प्रदान.

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रामदहिन मिश्र

रामदहिन मिश्र (चैत्र पूर्णिमा सं. १९४३ वि. - १ दिसम्बर १९५२) हिन्दी साहित्यकार, प्रकाशक एवं साहियशास्त्री थे। .

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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राजनीतिक दर्शन

राजनीतिक दर्शन (Political philosophy) के अन्तर्गत राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून तथा सत्ता द्वारा कानून को लागू करने आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर चिन्तन किया जाता है: ये क्या हैं, उनकी आवश्यकता क्यों हैं, कौन सी वस्तु सरकार को 'वैध' बनाती है, किन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, विधि क्या है, किसी वैध सरकार के प्रति नागरिकों के क्या कर्त्तव्य हैं, कब किसी सरकार को उकाड़ फेंकना वैध है आदि। प्राचीन काल में सारा व्यवस्थित चिंतन दर्शन के अंतर्गत होता था, अतः सारी विद्याएं दर्शन के विचार क्षेत्र में आती थी। राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत राजनीति के भिन्न भिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता हैं। राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से हैं। परम्परागत अध्ययन में चिन्तन मूलक पद्धति की प्रधानता थी जिसमें सभी तत्वों का निरीक्षण तो नहीं किया जाता हैं, परन्तु तर्क शक्ति के आधार पर उसके सारे संभावित पक्षों, परस्पर संबंधों प्रभावों और परिणामों पर विचार किया जाता हैं। .

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राजाराम शुक्ल

राजाराम शुक्ल का जन्म वाराणसी के रामनगर में ०६ जून १९६६ को हुआ। वर्तमान समय में वे बीएचयू के वैदिक दर्शन विभाग, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। हाल ही में उन्हें राज्यपाल एवं संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के कुलाधिपति राम नाईक द्वारा संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया है। प्रो.

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रिपब्लिक (प्लेटो)

रिपब्लिक (मूल यूनानी नाम: Πολιτεία / पॉलीतिया) प्लेटो द्वारा ३८० ईसापूर्व के आसपास रचित ग्रन्थ है जिसमें सुकरात की वार्ताएँ वर्णित हैं। इन वार्ताओं में न्याय (δικαιοσύνη), नगर तथा न्यायप्रिय मानव की चर्चा है। यह प्लेटो की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य हुए लम्बे संवादों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि हमारा न्याय से सरोकार होना चाहिए। रिपब्लिक के केन्द्रीय प्रश्न तथा उपशीर्षक न्याय से ही सम्बन्धित हैं, जिनमें वह न्याय की स्थापना हेतु व्यक्तियों के कर्तव्य-पालन पर बल देते हैं। प्लेटो कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा के तीन मुख्य तत्त्व हैं – तृष्णा या क्षुधा (Appetite), साहस (Spirit), बुद्धि या ज्ञान (Wisdom)। यदि किसी व्यक्ति की आत्मा में इन सभी तत्वों को समन्वित कर दिया जाए तो वह मनुष्य न्यायी बन जाएगा। ये तीनों गुण कुछेक मात्रा में सभी मनुष्यों में पाए जाते हैं लेकिन प्रत्येक मनुष्य में इन तीनों गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता रहती है। इसलिए राज्य में इन तीन गुणों के आधार पर तीन वर्ग मिलते हैं। पहला, उत्पादक वर्ग – आर्थिक कार्य (तृष्णा), दूसरा, सैनिक वर्ग – रक्षा कार्य (साहस), तीसरा, शासक वर्ग – दार्शनिक कार्य (ज्ञान/बुद्धि)। प्लेटो के अनुसार जब सभी वर्ग अपना कार्य करेंगे तथा दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और अपना कर्तव्य निभाएंगे तब समाज व राज्य में न्याय की स्थापना होगी। अर्थात् जब प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगा, तब समाज में न्याय स्थापित होगा और बना रहेगा। .

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लोकतंत्र

लोकतंत्र (शाब्दिक अर्थ "लोगों का शासन", संस्कृत में लोक, "जनता" तथा तंत्र, "शासन") या प्रजातंत्र एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। यह शब्द लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राज्य दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। यद्यपि लोकतंत्र शब्द का प्रयोग राजनीतिक सन्दर्भ में किया जाता है, किंतु लोकतंत्र का सिद्धांत दूसरे समूहों और संगठनों के लिये भी संगत है। मूलतः लोकतंत्र भिन्न भिन्न सिद्धांतों के मिश्रण से बनते हैं, पर मतदान को लोकतंत्र के अधिकांश प्रकारों का चरित्रगत लक्षण माना जाता है। .

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शरीयत

शरीयत (अरबी: شريعة‎), जिसे शरीया क़ानून और इस्लामी क़ानून भी कहा जाता है, इस्लाम में धार्मिक क़ानून का नाम है। इस क़ानून की परिभाषा दो स्रोतों से होती है। पहली इस्लाम का धर्मग्रन्थ क़ुरआन है और दूसरा इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद द्वारा दी गई मिसालें हैं (जिन्हें सुन्नाह कहा जाता है)। इस्लामी क़ानून को बनाने के लिए इन दो स्रोतों को ध्यान से देखकर नियम बनाए जाते हैं। इस क़ानून बनाने की प्रक्रिया को 'फ़िक़्ह' (fiqh) कहा जाता है। शरीयत में बहुत से विषयों पर मत है, जैसे कि स्वास्थ्य, खानपान, पूजा विधि, व्रत विधि, विवाह, जुर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि।। स्टॅण्डके कॉरिना। GRIN Verlag, २००८, ISBN 978-3-640-14967-4 मुसलमान यह तो मानते हैं कि शरीयत परमात्मा का क़ानून है लेकिन उनमें इस बात को लेकर बहुत अंतर है कि यह क़ानून कैसे परिभाषित और लागू होना चाहिए। सुन्नी समुदाय में चार भिन्न फ़िक़्ह के नज़रिए हैं और शिया समुदाय में दो। अलग देशों, समुदायों और संस्कृतियों में भी शरीयत को अलग-अलग ढंगों से समझा जाता है। शरीयत के अनुसार न्याय करने वाले पारम्परिक न्यायाधीशों को 'क़ाज़ी' कहा जाता है। कुछ स्थानों पर 'इमाम' भी न्यायाधीशों का काम करते हैं लेकिन अन्य जगहों पर उनका काम केवल अध्ययन करना-कराना और धार्मिक नेता होना है।|Lulu.com| ISBN 978-2-9527158-4-3,...

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शास्त्र

व्यापक अर्थों में किसी विशिष्ट विषय या पदार्थसमूह से सम्बन्धित वह समस्त ज्ञान जो ठीक क्रम से संग्रह करके रखा गया हो, शास्त्र कहलाता है। जैसे, भौतिकशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, प्राणिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विद्युत्शास्त्र, वनस्पतिशास्त्र आदि। इस अर्थ में यह 'विज्ञान' का पर्याय है। 'शास्त्र' शब्द 'शासु अनुशिष्टौ' से निष्पन्न है जिसका अर्थ 'अनुशासन या उपदेश करना' है। किसी भी विषय, विद्या अथवा कला के मौलिक सिद्धान्तों से लेकर विषय-वस्तु के सभी आयामों का सुनियोजित, सूत्रबद्ध निरूपण शास्त्र है। हमारे यहाँ शास्त्र की परिभाषा इस प्रकार की गई है- अर्थात् जो शिक्षा अनुशासन प्रदान कर हमारी रक्षा करती है, मार्गदर्शन करती है, कभी-कभी हमारी उँगली पकड़कर हमें चलाती है, उसे ‘शास्त्र’ कहा गया है। इस प्रकार यदि हम शास्त्र व ग्रन्थ की तरफ देखें तो शास्त्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किन्तु धर्म के सन्दर्भ में, 'शास्त्र' ऋषियों और मुनियों आदि के बनाए हुए वे प्राचीन ग्रंथों को कहते हैं जिनमें लोगों के हित के लिये अनेक प्रकार के कर्तव्य बतलाए गए हैं और अनुचित कृत्यों का निषेध किया गया है। दूसरे शब्दों में शास्त्र वे धार्मिक ग्रंथ हैं जो लोगों के हित और अनुशासन के लिये बनाए गए हैं। हिन्दुओं में वे ही ग्रंथ 'शास्त्र' माने गए हैं जो वेदमूलक हैं। इनकी संख्या १८ कही गई है और नाम इस प्रकार दिए गए हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और अर्थशास्त्र। इन अठारहों शास्त्रों को 'अठारह विद्याएँ' भी कहते हैं। इस प्रकार हिंदुओं की प्रायः सभी धार्मिक पुस्तकें 'शास्त्र' की कोटि में आ जाती हैं। साधारणतः शास्त्र में बतलाए हुए काम विधेय माने जाते है और जो बातें शास्त्रों में वर्जित हैं, वे निषिद्ध और त्याज्य समझी जाती हैं। .

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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शुक्रनीति

शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना करने वाले शुक्र का नाम महाभारत में 'शुक्राचार्य' के रूप में मिलता है। शुक्रनीति के रचनाकार और उनके काल के बारे में कुछ भी पता नहीं है। शुक्रनीति में २००० श्लोक हैं जो इसके चौथे अध्याय में उल्लिखित है। उसमें यह भी लिखा है कि इस नीतिसार का रात-दिन चिन्तन करने वाला राजा अपना राज्य-भार उठा सकने में सर्वथा समर्थ होता है। इसमें कहा गया है कि तीनों लोकों में शुक्रनीति के समान दूसरी कोई नीति नहीं है और व्यवहारी लोगों के लिये शुक्र की ही नीति है, शेष सब 'कुनीति' है। शुक्रनीति की सामग्री कामन्दकीय नीतिसार से भिन्न मिलती है। इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मन्त्री और युवराज सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। .

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समेकित बाल संरक्षण योजना

समेकित बाल संरक्षण योजना समेकित बाल संरक्षण योजना (ICPS) महिला एवं बाल विकास मंत्रालय,भारत सरकार की एक विस्तृत योजना है जिसका उद्देश्य देश में बच्चों के लिए एक संरक्षणकारी वातावरण तैयार करना है 'यह एक केंद्रीय रूप से प्रायोजित योजना है जो न केवल गलीकूचों और कामकाजी बच्चों के लिए योजना,किशोर न्याय का प्रशासन,आदि जैसी, मंत्रालय की मौजूदा सभी बाल संरक्षण योजनाओं को एक छत्र के अंतर्गत लाती है, बल्कि केंद्रीय बजट में बाल संरक्षण कार्यक्रमों के लिए अधिक आवंटन भी प्रस्तावित करती है' इस योजना का उद्देश्य बच्चों को कार्यक्षम और प्रभावकारी रूप से संरक्षण प्रदान करने वाली व्यवस्था के निर्माण के सरकार /राज्य के दायित्व को पूरा करने में योगदान करना है' यह "बाल अधिकारों की रक्षा" और "बच्चे के सर्वोत्ताम हित" के आधारभूत सिद्धांतों पर तथा किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000, संशोधित अधिनियम, 2006 और उसमें दी गई नियमावली पर आधारित है। यह देखरेख और संरक्षण के ज़रूरतमंद बच्चों और विधि का उल्लंघन करने वाले किशोरों का समग्रतापूर्ण विकास,देखरेख, संरक्षण और उपचार के प्रति बाल-मैत्रीपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने पर ध्यान केंद्रित करते हुए किशोर न्याय अधिनियम और उसकी नियमावली को प्रोन्नत करती है ' समेकित बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) के लक्ष्य इस प्रकार हैं: कठिन परिस्थितियों में रहने वाले बच्चों के कल्याण में सुधार हेतु योगदान करना और साथ ही ऐसी असुरक्षाओं, स्थितियों और कार्रवाइयों में कमी लाना जिनकी वजह से बच्चे की उपेक्षा, शोषण और अलगाव जन्म लेते हैं ' समेकित बाल संरक्षण योजना का उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण बाल संरक्षण सेवाओं में सुधार ला कर; बाल अधिकारों के बारे में जन जागरूकता पैदा करके; बाल संरक्षण के लिए जवाबदेही को लागू करके, आवश्यक सेवाओं का संस्थाकरण करके और वर्तमान ढांचों को मजबूत बना कर; कठिन परिस्थितियों में रहने वाले बच्चों के लिए सांविधिक और सहायता सेवाएं प्रदान करने हेतु सरकार के सभी स्तरों पर कार्यशील ढांचों की स्थापना करके; साक्ष्य-आधारित अनुश्रवण और मूल्यांकन, सभी स्तरों पर क्षमताओं को बढ़ा कर; ज्ञान-आधार का निर्माण करके; और परिवार एवं समुदाय के स्तर पर बाल संरक्षण के कार्य का सुदृढ़ीकरण करके इन लक्ष्यों को प्राप्त करना है' .

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सात घातक पाप

हैरोनिमस बॉश कि द सेवेन डेडली सिंस ऐंड फोर लास्ट थिंग्स "जीव हत्या" सबसे बड़ा पाप हैं, अनावश्यक हरे पेड़ों को काटना भी पाप हैं। इसके बाद इन्सान की मानसिकता के सात घातक पाप जो प्रधान पापाचरणों या कार्डिनल पापों के रूप में भी जाने जाते हैं, सर्वाधिक आपत्तिजनक बुराइयों का एक वर्गीकरण है जो मानवता की पाप के प्रति (अनैतिक) झुकाव की प्रकृति से संबंधित अनुयायियों को शिक्षित करने तथा उपदेश देने के लिए क्रिश्चियन समय से ही प्रयुक्त होता रहा है। सूची के अंतिम संस्करण में क्रोध, लोभ, आलस, अभिमान, वासना, ईर्ष्या एवं लालच निहित हैं। कैथोलिक चर्च ने पाप को दो प्रमुख वर्गों में विभक्त किया है: "क्षम्य पाप", जो अपेक्षाकृत क्षुद्र होते हैं और किसी भी प्रकार के संस्कारिक नियमों अथवा चर्च के परम प्रसाद संस्कार ग्रहण के माध्यम से क्षमा किए जा सकते हैं एवं जितने अधिक "घातक" या नश्वर पाप होंगे उतने ही अधिक संगीन होंगे.

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साम्यवाद

साम्यवाद, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित तथा साम्यवादी घोषणापत्र में वर्णित समाजवाद की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। अधिकार और कर्तव्य में आत्मार्पित सामुदायिक सामंजस्य स्थापित होगा। स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र जाति होगी। श्रम की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद सिद्धांततः अराजकता का पोषक हैं जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य और अधिकार के वितरण को 'हरेक से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार' (From each according to her/his ability, to each according to her/his work) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में 'हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार' (From each according to her/his ability, to each according to her/his need) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध करता है। .

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सांख्य दर्शन

भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कि ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति पर्व 301.109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शान्ति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है। .

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संधारणीय विकास लक्ष्य

संयुक्त राष्ट्र संघ के संधारणीय विकास लक्ष्य का आधिकारिक अंग्रेजी प्रतीक (लोगो) संधारणीय विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals, संक्षेपारित रूप में SDG) भविष्य के अंतरराष्ट्रीय विकास संबंधित लक्ष्यों के सेट हैं। संधारणीय विकास के लिए उनको संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाया गया है और वैश्विक लक्ष्यों के समान प्रचारित किया गया है। 2015 के अंत में सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों के निरस्त हो जाने पर ये उनको प्रतिस्थापित कर रहे हैं। यह लक्ष्य 2015 से 2030 तक चलेगा। उन लक्ष्यों के लिए 17 लक्ष्य और 169 विशिष्ट लक्ष्य हैं। .

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संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है। व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है किन्तु महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु हैं। पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित किया जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्त्व हैं। इन नियमों की पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने बनाये। सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना की। बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की। इन्हीं तीनों आचार्यों को 'त्रिमुनि' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अधययन किया जाता है। नव्य व्याकरण के अन्तर्गत प्रक्रिया क्रम के अनुसार शास्त्रों का अधययन किया जाता है जिसमें भट्टोजीदीक्षित, नागेश भट्ट आदि आचार्यों के ग्रन्थों का अधययन मुख्य है। प्राचीन व्याकरण एवं नव्य व्याकरण दो स्वतंत्र विषय हैं। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्वामी दयानन्द सरस्वती महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२४-१८८३) आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक व देशभक्त थे। उनका बचपन का नाम 'मूलशंकर' था। उन्होंने ने 1874 में एक महान आर्य सुधारक संगठन - आर्य समाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक महान चिंतक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले १८७६ में 'स्वराज्य' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- मादाम भिकाजी कामा, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद 'बिस्मिल', महादेव गोविंद रानडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने १८८६ में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने १९०१ में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की। .

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हित द्वंद

हित द्वंद (conflict of interest) ऐसे न्याय-विरुद्ध या अनौचित्य की परिस्थिति होती है जिसमें कोई व्यक्ति या संगठन एक से अधिक हितों या ध्येयों को प्राप्त करने में लिप्त हो जिनमें आपसी टकराव है। भ्रष्टाचार अक्सर हित द्वंद की परिस्थितियों में जन्म लेता है, जब कोई सरकार या संस्था किसी व्यक्ति को किसी सामूहिक हित-प्राप्ति के कार्यों में निर्णय लेने का अधिकार दे और वह व्यक्ति इन अधिकारों का प्रयोग किसी व्यक्तिगत हित-सिद्धी के लिये करे। .

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

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ज़िला न्यायालय (भारत)

भारत में जिला स्तर पर न्याय देने के लिए निर्मित न्यायालय जिला न्यायालय कहलाते हैं। ये न्यायालय एक जिला या कई जिलों के लोगों के लिए होते हैं जो जनसंख्या तथा मुकद्दमों की संख्या को देखते हुए तय की जाती है। ये न्यायालय उस प्रदेश के उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण में काम करते हैं। जिला न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों को सम्बन्धित उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। .

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जैवनैतिकता

जैवनैतिकता जीवविज्ञान एवं दवाईयों में हुई प्रगति के कारण पैदा हुए नैतिक विवादों का दार्शनिक अध्ययन है। जैवनैतिकता उन नैतिक प्रश्नों से जुड़ा हुआ है जो जीव विज्ञान, जैवप्रोद्यौगिकी, औषधि, राजनीति, कानून तथा दर्शन के संबंधों के मध्य उठते हैं। .

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वादविद्या

प्राचीन भारत में औपचारिक रूप से वाद-विवाद करने की बड़ी गौरवपूर्ण परम्परा थी। कभी-कभी ये वाद-विवाद राजाओं के संरक्षण में किये जाते थे जिनका उद्देश्य विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक विषयों की समीक्षा करना होता था। इससे सम्बन्धित विद्या वादविद्या कहलाती थी। वादविद्या से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना हुई थी। इसी प्रकार के वाद-विवादों से ही न्याय (भारतीय तर्कशास्त्र) की भारतीय परम्परा का जन्म हुआ। .

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वासुदेव महादेव अभ्यंकर

वासुदेव महादेव अभ्यंकर (जन्म १८६१, मृत्यु १९४३) सुप्रसिद्ध वैयाकरण तथा अनेक शास्त्रों के पारंगत विद्वान्‌। हिंदुस्थान की सरकार ने १९२१ में आपको "महामहोपाध्याय" की उपाधि से विभूषित किया। संकेतश्वर के शंकराचार्य जी ने भी उन्हें "विद्वद्रत्न" की पदवी प्रदान की। सतारा के प्रसिद्ध विद्वान्‌ पंडित राजाराम शास्त्री गोडबोले उनके गुरु थे। इनके गुरु भास्कर शास्त्री अभ्यंकर उनके पितामह थे। उनके पिता की मृत्यु के बाद राजाराम शास्त्री ने उनका सारा भार अपने ऊपर ले लिया। न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे ने उनकी विद्वत्ता को देखकर फर्ग्युसन कॉलेज में शास्त्री के पद पर उनकी नियुक्ति की। व्याकरण के साथ साथ वेदान्त, मीमांसा, साहित्य, न्याय, ज्योतिष आदि शास्त्रों में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का समान रूप में परिचय दिया। इन विषयों का अध्ययन, अध्यापन तथा लेखन आपका अव्याहत गति से चलता रहा। अभ्यंकर की लेखनशैली बहुत ही मार्मिक, मौलिक तथा सरल है। ग्रंथों का स्तर ऊँचा है। संस्कृत में अनेक ग्रंथों पर उन्होंने टीकाएँ लिखी हैं। स्वंतत्र रचनाओं में अद्वैतामोद:, कायशुद्धि:, धर्मतत्वनिर्णय:, सूत्रांतर परिग्रह विचार: आदि हैं। ब्रह्मसूत्र शांकरभाश्य तथा पातञ्जल महाभाष्य का मराठी अनुवाद भी उनकी कृतियाँ हैं। ये रचनाएँ आनन्दाश्रम, पुणे, तथा गायकवाड़ पौर्वात्य पुस्तकमाला (ओरियन्टल सिरीज) में प्रकाशित हैं। वे मुंबई विश्वविद्यालय के एम.

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विक्रमशिला विश्वविद्यालय

विक्रमशिला विश्वविद्यालय अतीश दीपंकर विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्मपाल ने ७७५-८०० ई० में की। इस विश्वविद्यालय ने अपनी स्थापना के तुरन्त बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात विद्वानों की एक लम्बी सूची है। तिब्बत के साथ इस शिक्षा केन्द्र का प्रारम्भ से ही विशेष सम्बंध रहा है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। इन विद्वानों में सबसे अधिक प्रसिद्ध दीपंकर श्रीज्ञान थे जो उपाध्याय अतीश के नाम से विख्यात हैं। विक्रमशिला का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में बारहवीं शताब्दी में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या ३००० थी। विश्वविद्यालय के कुलपति ६ भिक्षुओं के एक मण्डल की सहायता से प्रबंध तथा व्यवस्था करते थे। कुलपति के अधीन ४ विद्वान द्वार-पण्डितों की एक परिषद प्रवेश लेने हेतु आये विद्यार्थियों की परीक्षा लेती थी। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, न्याय, दर्शन और तंत्र के अध्ययन की विशेष व्यवस्था थी। इस विश्वविद्यालय की व्यवस्था अत्यधिक सुसंगठित थी। बंगाल के शासक शिक्षा की समाप्ति पर विद्यार्थियों को उपाधि देते थे। सन १२०३ ई० में बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया। यहाँ बौद्ध धर्म और दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्त्वज्ञान, व्याकरण आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान विद्वान आचार्यों द्वारा किया जाता था। यहाँ देश से ही नहीं विदेशों से भी विद्याध्ययन के लिए छात्र आते थे। शिक्षा समाप्ति के बाद विद्यार्थी को उपाधि प्राप्त होती थी जो उसके विषय की दक्षता का प्रमाण मानी जाती थी। पूर्व मध्ययुग में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शिक्षा केन्द्र इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था कि सुदूर प्रान्तों के विद्यार्थी जहाँ विद्या अध्ययन के लिए जाएँ। इसीलिए यहाँ छात्रों की संख्या बहुत अधिक थी। यहाँ के अध्यापकों की संख्या ही ३००० के लगभग थी अतः विद्यार्थियों का उनसे तीन गुना होना तो सर्वथा स्वाभाविक ही था। इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने लगभग २०० ग्रंथों की रचना की थी। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे। अब इस विश्वविद्यालय के केवल खण्डहर ही अवशेष हैं। .

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गौतम

संस्कृत साहित्य में गौतम का नाम अनेक विद्याओं से संबंधित है। वास्तव में गौतम ऋषि के गोत्र में उत्पन्न किसी व्यक्ति को 'गौतम' कहा जा सकता है अत: यह व्यक्ति का नाम न होकर गोत्रनाम है। वेदों में गौतम मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। एक मेधातिथि गौतम, धर्मशास्त्र के आचार्य हो गए हैं। बुद्ध को भी 'गौतम' अथवा (पाली में 'गोतम') कहा गया है। न्यायसूत्रों के रचयिता भी गौतम माने जाते हैं। उपनिषदों में भी गौतम नामधारी अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों, महाभारत तथा रामायण में भी गौतम की चर्चा है। यह कहना कठिन है कि ये सभी गौतम एक ही है। रामायण में ऋषि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या की कथा मिलती है। अहल्या के शाप का उद्धार राम ने मिथिला के रास्ते में किया था। अत: गौतम का निवास मिथिला में ही होना चाहिए और यह बात मिथिला में 'गौतमस्थान' तथा 'अहल्यास्थान' नाम से प्रसिद्ध स्थानों से भी पुष्ट होती है। चूँकि न्यायशास्त्र के लिये मिथिला विख्यात रही है अत: गौतम (नैयायिक) का मैथिल होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। .

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आर्यदेव

आर्यदेव (तृतीय शताब्दी) नागार्जुन के प्रधान शिष्य एवं महायान माध्यमक बौद्ध सम्प्रदाय के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के रचयिता थे। उन्हें 'काणदेव' (जेन परम्परा में) तथा 'बोधिसत्त्वदेव' (श्री लंका में) भी कहते हैं। आर्यदेव का जन्म श्री लंका में हुआ था। आर्यदेव ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे जिनमें सर्वप्रधान 'चतु:शतक' है। आर्यदेव माध्यमिक शाखा के प्रसिद्ध नैयायिक और ग्रंथकार थे। ये दक्षिण भारत के निवासी और नागार्जुन के प्रधान शिष्य थे। इन्होंने महाकोशल, स्त्रुघ्न, प्रयग और वैशाली आदि की अपनी यात्रा में अनेक ख्यातनामा विद्वानों को शास्त्रार्थ में अभिभूत किया था। नालंदा में इन्होंने अनेक वर्ष तक पंडित के पद पर आसीन होने का गौरव प्राप्त किया था। इन्होंने "शतकशास्त्र" "ब्रह्मप्रमथनयुक्तिहेतुसिद्धि" आदि विशिष्ट ग्रंथों का प्रणयन किया था। लंका के महाप्रज्ञ एकचक्षु भिक्षु आर्यदेव अपनी ज्ञानपिपासा शांत करने के लिए नालंदा के आचार्य नागार्जुन के पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी प्रतिभा की परीक्षा करने के लिए उनके पास स्वच्छ जल से पूर्ण एक पात्र भेज दिया। आर्यदेव ने उसमें एक सुई डालकर उसे इन्हीं के पास लौटा दिया। आचार्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया। जलपूर्ण पात्र से उनके ज्ञान की निर्मलता और पूर्णता का संकेत किया गया था और उसमें सूई डालकर उन्होंने निर्देश किया कि वे उस ज्ञान तक पहुँचना चाहते हैं। .

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कुमारिल भट्ट

कुमारिल भट्ट (लगभग ६५० ई) मीमांसा दर्शन के दो प्रधान संप्रदायों में से एक भटसंप्रदाय के संस्थापक थे। उन्होने बौद्ध धर्म को भारत से समूल उखाड़ने के लिए बौद्धिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। कुमारिल भट ने जो आधार तैयार किया उसी पर आदि शंकराचार्य विशाल भवन उठाया। .

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अनौचित्य

अनौचित्य (inappropriateness या impropriety) व्यवहार के ऐसे मानक होते हैं जिन्हें समाज में बुरा समझा जाता है। यह न्याय द्वारा वर्जित व्यवहार से भिन्न है क्योंकि बहुत से व्यवहार ग़ैर-कानूनी न होते हुए भी हानिकारक या बुरे माने जाते हैं। .

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अल्बैर कामू

अल्बैर कामू (१९१३-१९६०) एक फ्रेंच लेखक थे जिन्हें 1957 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। .

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अष्टावक्र (महाकाव्य)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग। .

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असत्‌कार्यवाद

असत्‌कार्यवाद कारणवाद का न्यायदर्शनसम्मत सिद्धांत जिसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पहले नहीं रहता। न्याय के अनुसार उपादान और निमित्त कारण अलग-अलग कार्य उत्पन्न करने की पूर्ण शक्ति नहीं है किंतु जब ये कारण मिलकर व्यापारशील होते हैं तब इनकी सम्मिलित शक्ति ऐसा कार्य उत्पन्न होता है जो इन कारणों से विलक्षण होता है। अत: कार्य सर्वथा नवीन होता है, उत्पत्ति के पहले इसका अस्तित्व नहीं होता। कारण केवल उत्पत्ति में सहायक होते हैं। सांख्यदर्शन इसके विपरीत कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में स्थित मानता है, अत: उसका सिद्धांत सत्कार्यवाद कहलाता है। न्यायदर्शन भाववादी और यथार्थवादी है। इसके अनुसार उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति माना अनुभवविरुद्ध है। न्याय के इस सिद्धांत पर आक्षेप किया जाता है कि यदि असत्‌ कार्य उत्पन्न होता है तो शशश्रृंग जैसे असत्‌ कार्य भी उत्पन्न होने चाहिए। किंतु न्यायमंजरी में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत्‌ की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। अपितु जो उत्पन्न हुआ है उसे उत्पत्ति के पहले असत्‌ माना जाता है। श्रेणी:भारतीय दर्शन.

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छल

छल या धोखा एक व्यक्ति या संगठन द्वारा जानबूझ कर किसी अन्य व्यक्ति में किसी ऐसे विश्वास को जन्म देने या प्रोत्साहित करने को कहते हैं जो सच न हो। ध्यान दें कि स्वयं को भी छला जा सकता है। कई प्रकार के छल न्याय व्यवस्थाओं में अपराध माने जाते है जबकि बहुत से अन्य छल भिन्न समाजों में अनौचित्य की परिभाषा में आते हैं। .

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