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निर्णय सागर प्रेस

सूची निर्णय सागर प्रेस

निर्णय सागर प्रेस, मुंबई स्थित भारत का प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान है। यह सौ साल से भी अधिक पुराना प्रकाशन संस्था है। इसकी स्थापना १८६७ जावजी दादाजी ने की थी। इन्होने भारतीय संस्कृति, धर्म, भाषा आदि पर संस्कृत, हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में कालजयी पुस्तके प्रकाशित कीं। यह प्रकाशन मूलतः 'निर्णयसागर पंचांग' नामक एक प्रसिद्ध पंचांग का प्रकाशन करने के लिये स्थापित किया गया था। .

6 संबंधों: दशरूपकम्, नाट्य शास्त्र, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, जावजी दादाजी चौधरी, उद्भट, ऋतुसंहार

दशरूपकम्

दशरूपकम् नाट्य के दशरूपों के लक्षण और उनकी विशेषताओं का प्रतिपादन करनेवाला ग्रंथ है। अनुष्टुप श्लोकों द्वारा रचित दसवीं शती का यह ग्रंथ धनंजय की कृति है। रचनाकार ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से बहुत से विचार लिये हैं। दशरूपकम में कुल चार अध्याय हैं जिन्हें 'आलोक' कहा गया है। .

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नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

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भट्ट मथुरानाथ शास्त्री

कवि शिरोमणि भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (23 मार्च 1889 - 4 जून 1964) बीसवीं सदी पूर्वार्द्ध के प्रख्यात संस्कृत कवि, मूर्धन्य विद्वान, संस्कृत सौन्दर्यशास्त्र के प्रतिपादक और युगपुरुष थे। उनका जन्म 23 मार्च 1889 (विक्रम संवत 1946 की आषाढ़ कृष्ण सप्तमी) को आंध्र के कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अनुयायी वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के प्रसिद्ध देवर्षि परिवार में हुआ, जिन्हें सवाई जयसिंह द्वितीय ने ‘गुलाबी नगर’ जयपुर शहर की स्थापना के समय यहीं बसने के लिए आमंत्रित किया था। आपके पिता का नाम देवर्षि द्वारकानाथ, माता का नाम जानकी देवी, अग्रज का नाम देवर्षि रमानाथ शास्त्री और पितामह का नाम देवर्षि लक्ष्मीनाथ था। श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि, द्वारकानाथ भट्ट, जगदीश भट्ट, वासुदेव भट्ट, मण्डन भट्ट आदि प्रकाण्ड विद्वानों की इसी वंश परम्परा में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने विपुल साहित्य सर्जन की आभा से संस्कृत जगत् को प्रकाशमान किया। हिन्दी में जिस तरह भारतेन्दु हरिश्चंद्र युग, जयशंकर प्रसाद युग और महावीर प्रसाद द्विवेदी युग हैं, आधुनिक संस्कृत साहित्य के विकास के भी तीन युग - अप्पा शास्त्री राशिवडेकर युग (1890-1930), भट्ट मथुरानाथ शास्त्री युग (1930-1960) और वेंकट राघवन युग (1960-1980) माने जाते हैं। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य एवं रचनात्मक संस्कृत लेखन इतना विपुल है कि इसका समुचित आकलन भी नहीं हो पाया है। अनुमानतः यह एक लाख पृष्ठों से भी अधिक है। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली जैसे कई संस्थानों द्वारा उनके ग्रंथों का पुनः प्रकाशन किया गया है तथा कई अनुपलब्ध ग्रंथों का पुनर्मुद्रण भी हुआ है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का देहावसान 75 वर्ष की आयु में हृदयाघात के कारण 4 जून 1964 को जयपुर में हुआ। .

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जावजी दादाजी चौधरी

जावजी दादाजी चौधरी (जन्म १८३९ - मृत्यू ५ एप्रिल १८९२), निर्णयसागर नामक प्रसिद्ध मुद्रणालय के स्वामी तथा मुद्राक्षरों के निर्माता थे। देवनागरी मुद्रण के क्षेत्र में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण और विशाल है। श्रेणी:भारतीय पत्रकार.

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उद्भट

उद्भट अलंकार संप्रदाय (संस्कृत) में भामह और दंडी के परवर्ती प्रधान प्रतिनिधि आचार्य थे। कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार ये कश्मीर के शासक जयापीड की विद्वत्परिषद् के सभापति थे और इनका वेतन प्रति एक लक्ष दीनार (स्वर्णमुद्रा) था। इतिहासकारों ने जयापीड का शासनकाल सन् ७७९-८१३ ई. माना है। उद्भट जयापीड के शासनकाल के प्रथम चरण में रख जा सकते हैं क्योंकि मान्यता है कि जयापीड ने अपने शासन के अंतिम चरण में प्रजा को पर्याप्त उत्पीड़ित किया था। इससे क्षुब्ध हो ब्राह्मणों ने उसका बहिष्कार कर दिया था। अतएव उद्भट का समय ईसवी सन् की आठवीं शताब्दी में ही संभव हो सकता है। उद्भट ने 'काव्यलंकारसारसंग्रह' नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह ग्रंथ अप्राप्य था किंतु डॉ॰ वूलर ने इसकी लघुवृत्तियुक्त एक प्रति जैसलमेर में खोज निकाली थी। उक्त ग्रंथ छह वर्गों में विभक्त है, इसकी ७५ कारिकाओं में ४१ अलंकारों का निरूपण है और ९५ पद्यों में उदाहरण हैं जो उद्भट ने स्वरचित 'कुमारसंभव' काव्य से प्रस्तुत किए हैं। उक्त संख्या बांबे संस्कृत सीरीज़ द्वारा प्रकाशित संस्करण के अनुसार है जब कि निर्णय सागर प्रेस के संस्करण में ७९ कारिकाओं में लक्षण तथा १०० में उदाहरण हैं। इनके एक अन्य ग्रंथ 'भामह विवरण' के भी उल्लेख प्रतिहारेंदुराजकृत 'काव्यालंकारसारसंग्रह' की लघुवृत्ति तथा अभिनवगुप्ताचार्य के 'ध्वन्यालोकलोचन' में मिलते हैं। उद्भट ने अलंकारों का क्रम और उनके वर्ग भामह के काव्यालंकार के अनुरूप रखे हैं और प्राय: संख्या भी वही दी है। भामह द्वारा निरूपति ३९ अलंकारों में से इन्होंने आशी, उत्प्रेक्षावयव, उपमारूपक और यमक इत्यादि चार अलंकारों को छोड़ दिया है तथा पुनरुक्तवदाभास, छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, काव्यहेतु, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टांत और संकर, इन छह नवीन अलंकारों को लिया है। इतना ही नहीं, उक्त छह अलंकारों में पुनरुक्तवदाभास, काव्यहेतु तथा दृष्टांत तो सर्वप्रथम उद्भट द्वारा ही आविष्कृत हैं, क्योंकि पूर्ववर्ती भामह, दंडी आदि आचार्यों में से किसी ने भी इनका उल्लेख नहीं किया है। अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रसवत् और भाविक के अतिरिक्त और भी १२ अलंकारों के लक्षण इन्होंने भामह के अनुसार ही दिए हैं। श्रेणी:संस्कृत साहित्य श्रेणी:अलंकार शास्त्र श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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ऋतुसंहार

thumbऋतुसंहार कालिदास का एक विख्यात काव्य है। ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्यरचना मानी जाती है, जिसके छह सर्गो में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छह ऋतुओं का सुंदर प्रकृतिचित्रण प्रस्तुत किया गया है। ऋतुसंहार का कलाशिल्प महाकवि की अन्य कृतियों की तरह उदात्त न होने के कारण इसके कालिदास की कृति होने के विषय में संदेह किया जाता रहा है। मल्लिनाथ ने इस काव्य की टीका नहीं की है तथा अन्य किसी प्रसिद्ध टीकाकार की भी इसकी टीका नहीं मिलती है। जे.

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