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निमाड़

सूची निमाड़

निमाड़ (Nimar) मध्य प्रदेश के पश्चिमी ओर स्थित है। इसके भौगोलिक सीमाओं में निमाड़ के एक तरफ़ विन्ध्य पर्वत और दूसरी तरफ़ सतपुड़ा हैं, जबकि मध्य में नर्मदा नदी है। पौराणिक काल में निमाड़ अनूप जनपद कहलाता था। बाद में इसे निमाड़ की संज्ञा दी गयी। फिर इसे पूर्वी और पश्चिमी निमाड़ के रूप में जाना जाने लगा। .

13 संबंधों: धरमपुरी, निमाड़ी (बोली), निहाली भाषा, पाटीदार समाज में विवाह रीति, पाटीदारी, बड़वानी, भिलाला, मध्य प्रदेश, मुल्ताई, लोकगीत (हिन्दी), सांझी पर्व, खैशगी, छडी पूजा

धरमपुरी

धरमपुरी मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित पौराणिक नगर है। धरमपुरी प्राचीन भारत का एक सुविख्यात नगर तथा दुर्ग रहा है। यह दक्षिण - पशचिम के भूतपूर्व धार राज्य के अंतर्गत आता था। आजादी के पश्चात् यह धार जिले की मनावर तहसील का टप्पा था। विंध्यांचल पर्वत के अंचल में पुन्य सलिला नर्मदा के तट पर बसी यह नगरी मुंबई-आगरा राजमार्ग से खलघाट से पश्चिम दिशा में ११ किलोमीटर दुरी पर स्थित है। मांडवगढ़ के इतिहास से इस नगर का घनिष्ट सम्बंध रहा है। नर्मदा के उत्तर तट पर बसी धरमपुरी नगरी परमार राज्य की शक्ति, सुरक्षा, स्थापत्यकला और धर्म की द्रष्टि से महत्वपूर्ण केंद्र था। धरमपुरी के नाम की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है की महाभारत कल में धर्मराज युधिष्ठिर ने यह राजसूर्य यज्ञ किया था। इस कारण धर्मराज द्वारा बसाए जाने कारण उन्ही के नाम पर इस नगरी का नाम धर्मपुरी पड़ा था। जिसे वर्तमान में हम धरमपुरी से संबोधन करते है। धरमपुरी का वर्तमान स्वरूप उसकी प्राचीनता तथा पूर्वावशेष इसके धार्मिक, एतिहासिक एवं कलात्मक होने की पुष्टि करते है। जगत तारनी माँ नर्मदा के उत्तर तट पर विंध्यांचल की तलेटी में स्थित धरमपुरी वर्तमान में बड़ा शहर नही है। परन्तु प्राचीन काल में यह महत्वपूर्ण नगर था। इसका प्रमाण पुराण एवम इतिहास में मिलता है। सदियों से ऋषि मुनियों तथा प्रतापी राजाओ की आवास स्थली होने के साथ - साथ धरमपुरी आध्यात्मिक एवम शोर्य से गोरान्वित था। सुद्रड़ता और सुरक्षा की द्रष्टि से तत्कालीन गडी के रूप में यह अपनी गरिमा रखता था। गडी के भग्नावशेष इसके आज भी साक्षी है। नगर के चारो और परकोटा और चार द्वार थे। जिसमे से तीन आज भी विद्यमान है। काल और युध्दो के प्रभाव ने इस धर्मप्राण भू भाग को ध्वस्त कर दिया। भव्य प्रसादो और मन्दिरों के स्थानों पर खंडहर ईट, पत्थर और मिटटी के ढेर में तब्दील हो गए। प्राचीन इतिहास से पता चलता है की रामायण काल में १६०० ईस्वी पूर्व यह प्रदेश अनूप जनपद के अंतर्गत था। यह शाश्वत राज्य स्थापित होने के साथ महेश्व्वर हैहेय वंशीय राजा सहस्त्रार्जून एवम शिशुपाल ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। इसके पश्चात् महाभारत काल में धर्मराज युधिष्टिर ने यहा राजसूर्य यज्ञ के दौरान यज्ञ की सफलता के लिए राजा भीमसेन को अनेक राजाओ से युध्द करना पड़ा था। राजा भीमसेन ने अनेक देशो पर विजय प्राप्तकर युधिष्टिर की आज्ञा से चेदी वंश के राजा शिशुपाल को पराजित किया। चेदी वंश का राज्य नर्मदा किनारे फैला था और महेश्वर (माहिष्मती) उसकी राजधानी थी। महाभारत के पश्चात सम्राट परीक्षित और जन्मेजय के राज्यकाल तक धरमपुरी का वैभव अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चूका था। लेखो और शिलालेखो के आधार पर ईसा की पहली व दूसरी सदी से इस जनपद का नाम अनूप पाया जाता है। बौध ग्रंथो में भी इसका उल्लेख है की ईसवी पूर्व ६०० के लगभग उत्तर में १६ महाजनपद थे। निमाड़ का यह हिस्सा अवन्ती महाजन के पद अंतर्गत आता था। पूर्व निमाड़ जिले के सन १९०८ में प्रकाशित ग्झेतियर के अनुसार प्राचीन निमाड़ के प्रान्त की सीमा क्षेत्र पूर्व में होशंगाबाद जिले में प्रवाहित गुंजाल नदी पश्चिम में हिरन फाल (हिरन जलप्रताप) तथा उत्तर दक्षिण में विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणी है। प्राचीन धार्नाओ के अनुसार इस प्रान्त में नीम के पेड़ अधिक होने के कारण इसका नाम निमाड़ पड़ गया। मुगल शासक काल में निमाड़ की प्रतिष्ठा एवम स्वतंत्र राज्य के रूप में थी और उसके पश्चात् तुगलक वंश के समय में भी यह प्रान्त का रूप में अस्तित्व में था। धरमपुरी नगर अपने आप में इतिहास समेटे हुए है। नगर व इसके आसपास का क्षेत्र तपोभूमि के प्राचीन एेतिहासिक व सांस्कृतिक जिसमे जैन, बौध, वैष्णव एवम् पौराणिक कालीन मूर्ति एवम् स्थापत्यकला के आज भी दर्शन होते है। धरमपुरी नगर के आसपास महान तपस्वियों ने तपस्या की जिनकी साक्षी गुफाए व प्राचीन शिवालय वर्तमान में विद्यमान है। .

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निमाड़ी (बोली)

निमाड़ी, मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र की बोली है। यह क्षेत्र मालवा के दक्षिण में महाराष्ट्र से सटा समीवर्ती क्षेत्र है। निमाड़ी बोलने वाले जिले हैं - बड़वानी, पूर्वी निमाड़, पश्चिमी निमाड़, तथा धार जिले के कुछ भाग। .

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निहाली भाषा

निहाली भाषा पश्चिम-मध्य भारत के मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र राज्यों के कुछ छोटे भागों में बोली जाने वाली एक भाषा है। यह एक भाषा वियोजक है, यानि विश्व की किसी भी अन्य भाषा से कोई ज्ञात जातीय सम्बन्ध नहीं रखती और अपने भाषा-परिवार की एकमात्र ज्ञात भाषा है। भारत में इसके अलावा केवल जम्मू और कश्मीर की बुरुशस्की भाषा ही दूसरी ज्ञात भाषा वियोजक है। निहाली समुदाय की संख्या लगभग ५,००० है लेकिन सन् १९९१ की जनगणना में इनमें से केवल २,००० ही इस भाषा को बोलने वाले गिने गए थे। निहाली समुदाय ऐतिहासिक रूप से कोरकू समुदाय से सम्बन्धित रहा है और उन्हीं के गाँवों में बसता है। इस कारण से निहाली बोलने वाले बहुत से लोग कोरकू भाषा में भी द्विभाषीय होते हैं। निहाली बोली में बहुत से शब्द आसापास की भाषाओं से लिए गए हैं और साधारण बोलचाल में लगभग ६०-७०% शब्द कोरकू के होते हैं। भाषावैज्ञानिकों के अनुसार मूल निहाली शब्दावली के केवल २५% शब्द ही आज प्रयोग में हैं। .

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पाटीदार समाज में विवाह रीति

यह पृष्ठ मध्य प्रदेश के निमाड़ स्थित बावन खेड़ा पाटीदार समाज की विवाह संस्कार की लुप्त हो रही रीतियों को संजोने के लिए बनाया गया है। हिन्दू विवाह का दृश्य यद्यपि हम सब जानते हैं कि विवाह मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहां से उसके जीवन में खुशियों और सुख-शांति की संभावनाएं कहीं गुना अधिक बढ़ जाती है। प्राचीन हिन्दू धर्म इसे अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग मानता है, शायद इसीलिए विवाह को हिंदुओं ने अपने सोलह संस्कारों में सम्मिलित किया है। कुछ ही लोग ऐसे होंगे जो अपनी ज़िन्दगी में दोबारा विवाह करते हैं। खासकर हिंदुओं में इस एक विवाह को सात जन्मों का बन्धन मान लिया जाता है। फिर यदि जीवन का यह महत्त्वपूर्ण अवसर ऐसे ही सस्ते में न निकल जाए इसलिए हमारे पूर्वजों ने विवाह संस्कार को संपन्न कराने के लिए कुछ रीति रिवाजों का प्रचलन आरम्भ किया था, जिसे आज का युवा वर्ग एक किनारे से भूलता जा रहा है। हमें इन रीतियों और रिवाजों को संजोने के लिए यथायोग्य प्रयास करने चाहिए। चूंकि प्रत्येक समाज और धर्म के अपने-अपने अलग रीति रिवाज हैं। निमाड़ के बावन खेड़ा के पाटीदार समाज की विवाह रीतियों को संजोने के लिए इस पेज का निर्माण किया गया है। .

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पाटीदारी

पाटीदारी बोली, जो मध्यप्रदेश के निमाड़ स्थित बावन खेड़ा के पाटीदार समुदाय द्वारा बोली जाने वाली बोली है। इस बोली की लिपि देवनागरी है और यह गुजराती भाषा से काफी मिलती-जुलती है। पाटीदारों के अनुसार यह का ही एक टूटा-फूटा रूप है, जिसमें 17वीं सदी में गुजरात से भागे पाटीदारों द्वारा कुछ थोड़ा अंतर प्रतिपादित किया गया। इसका अपना कोई लिखित साहित्य अभी तक उपलब्ध नहीं है किंतु मौखिक साहित्य की इसमें भरमार है, जिसे पाटीदारों द्वारा अपने सामुदायिक कार्यक्रमों यथा शवयात्रा, विवाह, गम्मत आदि में गाया अथवा सुनाया जाता है। इसमें बच्चों के लिए मनोरंजक कथाओं का भी विपुल भंडार है, जिसे पाटीदारी में वार्ता कहा जाता है।.

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बड़वानी

बड़वानी, मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले का मुख्यालय और नगरपालिका है।यह नगर नर्मदा नदी के बाँए किनारे पर स्थित है। पहले यह बड़वानी रियासत की राजधानी था। यहाँ जाने के लिए केवल सड़क मार्ग से ही जाया जा सकता है। यह एक जैन तीर्थ स्थल भी है। श्रेणी:मध्य प्रदेश के नगर.

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भिलाला

भिलाला (दरबार/ठाकुर) जाति मूल रूप से मिश्रित राजपूत और भील क्षत्रिय जाति है जो के राजपूत योद्धाओं के भील सरदारों/शासक/जमींदारों की कन्याओं से विवाह से उत्पन्न हुई| ये मुख्य रूप से मालवा, मेवाड और निमाड़ में रहते है| इन्हें दरबार/ठाकुर कहा जाता है और इनके रिति रिवाज और पोशाक राजपूती है और अधिकांश लोगो की रीति रिवाज पुराने ही हैं। सभी भीलाला हिन्दू हैं | .

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन एवं मध्यप्रदेश के कई नगर उस से हटा कर छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है। हाल के वर्षों में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर हो गया है। खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की 30% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य में वर्ष 2010-11 राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीत लिया। .

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मुल्ताई

मुलताई भारत के मध्य प्रदेश राज्य में बैतूल जिले का एक शहर है मुल्ताई पुण्य सलिला मां ताप्ती नदी का उद्गम स्थल है इसके निकट प्रभात पट्टन और बेतुल प्रमुख शहर है। यह मुल्ताई मध्य-प्रदेश.

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लोकगीत (हिन्दी)

वर्तमान हिंदीभाषी क्षेत्र प्राचीन भारत का 'मध्य देश' है। इस क्षेत्र में बोली जानेवाली बोलियों को भाषा वैज्ञानिकों ने चार भागों में बाँटा है। 'पश्चिमी हिंदी' जिसके अंतर्गत खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, कन्नौजी, राजस्थानी तथा बुंदेलखंडी भाषाएँ आती हैं। अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी मध्य की भाषाएँ हैं और इसके पूर्व में बिहारी भाषा समुदाय की भोजपुरी, मैथिली तथा मगही भाषाएँ हैं। उत्तर में कुमाऊँनी भाषा है जो नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल, टेहरी गढ़वाल, पिथौरागढ़, चमौली तथा उत्तर काशी में बोली जाती है। बोलियों की बहुत सी उप-बोलियाँ भी हैं, जिनके लोकगीतों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा। लोकगीत चाहे कहीं के भी हों वे प्राचीन परंपराओं, रीतिरिवाजों एव धार्मिक तथा सामाजिक जीवन के या यों कहिए कि संस्कृति के द्योतक हैं। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों के विविध लोकगीतों का परिचय देने के पूर्व ऐसे गीतों की चर्चा करे की जा रही है जो मात्र शब्दावली बदलकर अनेक क्षेत्रों में गाए जाते हैं। इनमें भाषा अथवा बोली की अनकता भले हो पर भाव की एकता एवं उसे व्यक्त करने तथा पात्रों का चयन एक जैसा होता है। ऐसे गीतों में ऋतुसंबंधी गीत, संस्कार गीत और जातीय गीत मुख्य रूप से आते हैं। पद्य गाथाएँ एवं पँवारे भी विभिन्न प्रकार से गाए जाते हैं। ऋतुगीतों में फाग और पावस गीत ऐसे हैं जो अनेक क्षेत्रों में प्रचलित दिखाई पड़ते हैं। फाग गीत मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है जो बसंतपंचमी से लेकर होलिकादहन के सबेरे तक गाया जाता है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, बैसवाड़ी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत पाए जाते हैं। फाग के होली, चौताल, डेढ़ताल, तिनताल, देलवइया, उलारा, चहका, लेज, झूमर और कबीर आदि अनेक प्रकार हैं। इन सब में केवल घुनों का अंतर है। पावस गीतों की भी बहुक्षेत्रीय परंपरा है। ये गीत उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं किंतु अवधी और भोजपुरी में अधिक प्रचलित हैं। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें कजली कहा जाता है। संस्कार के गीतों में सोहर (जन्मगीत), मुंडन, जनेऊ, के गीत और विवाह के गीत प्राय: सभी स्थानों में गाए जाते हैं। मृत्यु के समय प्राय: प्रत्येक क्षेत्र की स्त्रियाँ राग बाँधकर रोती हैं। जातीय गीतों में काफी पृथक्ता होती है किंतु जहाँ एक ही जाति के लोग अनेक क्षेत्रों में बसे हैं, उनके गीतों की मूल प्रवृत्ति एक जैसी ही है। जैसे, पँवरिया जाति के लोग पँवारा, नट जाति के लोग आल्हा, अहीर जाति के लोग विरहा कई क्षेत्रों में गाते हैं। पद्य गाथाएँ तो प्राय: सभी क्षेत्रों में मिल जाती हैं। ये स्थानीय जननायकों के चरित्रों पर आधारित होती हैं। प्राय: सभी क्षेत्रों में माताएँ बच्चों को सुलाने के लिए लोरी तथा प्रात: उन्हें जगाने के लिए प्रभाती गाया करती हैं। बालक बालिकाएँ भी कुछ खेलों में गीतों का सहारा लेते हैं। बहुत से ऐसे खेल भी हैं जिनमें वयस्क स्त्री पुरुष गीत गाया करते हैं। लोकप्रचलित भजन और श्रमगीत तो सभी क्षेत्रों में गाए जाते हैं। लोकगाथाओं में ऐसी बहुत सी गाथाएँ भी हैं जो कई क्षेत्रों में बीच बीच गाई जाती हैं। इन पृथक्ताओं के बावजूद गीतों की प्रवृत्ति एक जैसी ही है जिससे हिंदीभाषी क्षेत्रों की अनेकता एकता में बद्ध दिखाई पड़ती है। नीचे सभी क्षेत्रों के लोकगीतों का संक्षिप्त एवं क्रमबद्ध परिचय दिया जा रहा है। .

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सांझी पर्व

'सांझी पर्व' मालवा व निमाड़ अंचल का प्रमुख पर्व है, साँझी, राजस्‍थान, गुजरात, ब्रजप्रदेश, मालवा, निमाड़ तथा अन्‍य कई क्ष्‍ोत्रों में कुवांरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार है जो भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात पूरे श्राद्ध पक्ष में सोलह दिनों तक मनाया जाता है। सांझे का त्‍यौहार कुंवारी कन्‍याएं अत्‍यन्‍त उत्‍साह और हर्ष से मनाती हैं। घर के बाहर, दरवाजे पर दीवारों पर कुंवारी गाय का गोबर लेकर लड़कियां विभिन्‍न आकृतियां बनाती हैं। उन्‍हें फूल पत्तों, मालीपन्‍ना सिन्‍दूर आदि से सजाती हैं और संध्‍या समय उनका पूजन करती हैं। .

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खैशगी

खैशगीखैशगी एक पख़्तून (पठान) क़बीला (जनजाति) है। अनुमानों के मुताबिक़ इसकी कुल संख्या साढ़े छ: लाख है। यह क़बीला अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान व भारत में विभिन्न एं निवासरत है। मौखिक परंपराओं के मुताबिक़ यह क़बीला ख़ुद को बनी इस्राएल से मानता है। इसके 100% लोग इस्लाम को मानने वाले हैं। यह मोहम्मदज़ाई क़बीले की भाई है। अन्य क़बीलों की तरह ही इस क़बीले ने भी अपना मूल स्थान छोड़ कर अन्य स्थानों पर जाकर बसना शुरू किया। वर्तमान निवास स्थान में इस क़बीले ने 1515 ईस्वी के आसपास निवास करना शुरू किया। इस क़बीले का एक बड़ा हिस्सा सन 1525 के आसपास में उत्तरी पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान पहुंचा व ग़ोरबंद दर्रे में रहना शुरू किया। इसका एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के क़सूर इलाक़े में 1526 के आसपास बस गया जहां वे आज तक भी रह रहे हैं। उसके बाद इसकी कुछ शाखाओं ने भारत के दिल्ली के पास खोरजा में अपना आवास बनाया जहां वे आज तक भी रह रहे हैं। यह अलग बात है कि उनमें से कई 1947 में बंटवारे के समय पाकिस्तान भाग गये। इस क़बीले के कुछ लोग टांडा, हीरोदाल, व डेरा इस्माईल ख़ान में भी निवासरत हैं। इसके अलावा खैशगी पठान बन्नू, लक्की मारवात, बहावालपुर, मुल्तान, जेकबाबाद, नवाबशाह, शिकारपुर, भारत के रुहेलखंड इलाक़े में, लखनऊ, व निमाड़ के नर्मदा नदी के किनारे मंडलेश्वर में भी निवासरत हैं। इस क़बीले के कुछ लोग पाकिस्तान के पेशावर जिले के घन्टा घर इलाक़े में भी निवास रत हैं वहां उन्हें मलाह खैशगी के नाम से जाना जाता है। कुछ लोग चरसद्दा ख़ास व हज़ारा इलाक़ों में भी निवासरत हैं। इस क़बीले से अनेक महान सेनापति, डाक्टर, इंजीनियर, वकील, व धर्म गुरू पैदा हुए हैं। मुग़ल सेना में इस क़बीले के कई सिपहसालार व सेनापति रहे हैं। मुग़ल सेना में इस क़बीले के लोग बड़ी तादाद में थे। एहले क़लाम अरज़ानी खैशगी पश्तो भाषा के एक महान कवि रहे हैं। वे पश्तो के ऐसे प्रथम कवि थे जिन्होने अपना दीवान लिखा। अब्दुल्ला ख़ान खैशगी प्रसिद्ध आलिम व मुहक़्क़िक थे। इस क़बीले ने 50 से भी अधिक प्रसिद्ध औलिया ए क़राम पैदा किये हैं। इनमें से हाजी गगन शोर्यानी खैशगी, शैख वातो खैशगी, शैख अहमद आतो खैशगी, शैख अहमद आतोज़ी खैशगी, मियां चुन्नो खैशगी, व अरज़ानी ज़ार्ज़ी खैशगी के नाम उल्लेखनीय हैं। मुग़ल सेना में भी बाबर जब लोधी साम्राज्य पर हमला करने आ रहा था तब उसने बड़ी तादाद में खैशगी क़बीले से सेना में भर्ती की, तभी से खैशगी मुग़ल सेना में अन्त तक, मुग़ल साम्राज्य की समाप्ति तक उसमें रहे। क़ुतुबुद्दीन खान खैशगी मुग़ल सेना में औरंगज़ेब के सेनापति थे औरंगज़ेब ने उन्हें मालवा का गवर्नर भी बनाया था। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद भी मुग़ल सेना में वे अपनी सेवाएं देते रहे व सन 1719 के आसपास में कश्मीर में सिख्खों के साथ युद्ध में शहीद हुए। इसी प्रकार से हकिम खान खैशगी मुग़लों की तरफ़ से लड़ते हुए सूराजमल जाट के साथ युद्ध में 1 जनवरी सन 1750 को शहीद हुए। .

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छडी पूजा

छडी पूजा एक प्राचीनतम मानवी संस्कृतीक परंपरा है। छडी का उपयोग केवल पवित्रता स्वरूप करते है तो उसे देवक-स्तंभ कहलाया जाता है। छडी का उपयोग ध्वज के रुपमे किया जाता है तो उसे ध्वज स्तंभ कहते हैं। छडी पूजा नॉर्वेजियामे Mære चर्च, इस्रायलमधील Asherah pole कि पूजा ज्यू धर्म कि संस्थापनासे पहले से होती थी। विश्वभर विभीन्न आदीवासी समुदायोमे छडी पूजा परंपरा का निर्वाह दिखाई देता है। भारतीय उपखंडमे बलुचिस्तानकी हिंगलाज माता एवं पहलगाम छडी मूबारक, महाराष्ट्रमे जोतिबा गुडी (छडी) के साथ यात्रा करने की परंपरा है। मध्यप्रदेशराज्य के निमाड प्रांतामे छडी माताकी पूजा एवं छडी नृत्य परंपरा है। राजस्थानमे गोगाजी मंदिरमे छडीयोंकी पूजा की जाती है। डॉ॰ बिद्युत लता रे के मतानुसार ओरीसा राज्याके आदीवासींओमे प्रचलित खंबेश्वरी देवीकी पूजा छडी पूजाका प्रकार है, और खंबेश्वरीची पूजा वैदीक हिंदू धर्म की मुर्तीपुजांसे भी प्राचीन होना संभव है। महाराष्ट्रमे पवित्र छडी को गुढी कहा जाता है। महाराष्ट्रकी गुढी परंपरा के प्रमाण १३वी सदी से मराठी साहित्य में दिखाई देते हैं। चैत्र शुद्ध प्रतिपदाके दिन महाराष्ट्र राज्यमे वर्षारंभादिन के रुपमे मनाते हुए उसी दिन को गुड़ी पड़वा कहते हैं। महाराष्ट्रामे गुडी याने छ्डीकी पूजा की जाती है। .

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