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नाथ सम्प्रदाय

सूची नाथ सम्प्रदाय

नवनाथ नाथ संप्रदाय उत्तर-पश्चिमी भारत का एक धार्मिक पंथ है। इसके आराध्य शिव हैं। यह हठ योग की साधना पद्धती पर आधारित पंथ है। इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। .

30 संबंधों: नाथ साहित्य, पृथ्वी नारायण शाह, भर्तृहरि, भक्ति आन्दोलन, मराठी साहित्य, मुकुन्दराज, मोलाराम, योगचूडामण्युपनिषद, योगी, योगी आदित्यनाथ, लोकगाथा, सम्प्रदाय, साधु, साखी, सिद्ध, संधा भाषा, हठयोग, जसनाथ, जसनाथी सम्प्रदाय, ज्ञानेश्वर, ज्ञानेश्वरी, गंभीरनाथ, गोरखनाथ, गोरखनाथ मन्दिर, कनफटा, कापालिक, कुंडल, अलखनामी, अघोर पंथ, अवधूत गीता

नाथ साहित्य

सिद्धों के महासुखवाद के विरोध में नाथ पंथ का उदय हुआ। नाथों की संख्या नौ है। इनका क्षेत्र भारत का पश्चिमोत्तर भाग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाये गये पंचमकारों का नकार किया। नारी भोग का विरोध किया। इन्होंने बाह्याडंबरों तथा वर्णाश्रम का विरोध किया और योगमार्ग तथा कृच्छ साधना का अनुसरण किया। ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं। ये गुरु को ईश्वर मानते हैं। नाथ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोरखनाथ हैं। इनकी रचना गोरखबाणी नाम से प्रकाशित है। .

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पृथ्वी नारायण शाह

पृथ्वी नारायण शाह गोरखा दरबार पृथ्वी नारायण शाह (1722 - 1775) नेपाल के राजा थे जिन्होने काठमाण्डू उपत्यका के छोटे से गोरखा राज्य का विस्तार किया। मल्ल राजवंश के अन्दर कई भागों में बिखरे नेपाल को उन्होने एकत्रित किया और मल्ल राजवंश का शासन समाप्त हुआ। पृथ्वी नारायण शाह को आधुनिक नेपाल का जनक माना जाता है। उन्होने ही नेपाल के एकीकरण अभियान की शुरूआत की थी। .

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भर्तृहरि

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है। .

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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मराठी साहित्य

मराठी साहित्य महाराष्ट्र के जीवन का अत्यंत संपन्न तथा सुदृढ़ उपांग है। .

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मुकुन्दराज

मुकुंदराज (जीवनकाल: १२वीं शताब्दी) मराठी भाषा के आदिकवि थे। वे नाथ सम्प्रदाय के सन्त थे तथा आदि शंकराचार्य के अद्वैत मत के अनुयायी थे। उन्होने 'विवेक सिन्धु' तथा 'परामृत' नामक ग्रन्थों की रचना की। उनका जन्म वर्तमान समय के बीड जिला के आंबेजोगाई में हुआ था। श्रेणी:मराठी साहित्यकार.

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मोलाराम

मोलाराम (1740-1833) हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और चित्रकार थे। मई 1658 में जब दाराशिकोह का पुत्र सुलेमान शिकोह औरंगजेब के भय से भागकर गढ़वाल गया तब उसके साथ दो चित्र्कारो को भी लाये थे। कुंवर श्यामदास और उनके पुत्र हरदास.

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योगचूडामण्युपनिषद

योगचूडामण्युपनिषद (योगचूडामणि उपनिषद) सामवेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह नाथ परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें अनेक श्लोक ऐसे हैं जो 'गोरक्ष शतक' से बहुत कुछ मेल खाते हैं। इस उपनिषद में कुण्डलिनी योग की चर्चा की गयी है। चार वेदों के २० योग उपनिषद हैं, जिनमें से योगचूडामणि उपनिषद एक है। .

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योगी

योग को जानने वाला या योग का अभ्यास करने वाला योगी कहलाता है। .

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योगी आदित्यनाथ

योगी आदित्यनाथ (मूल नाम: अजय सिंह बिष्ट; जन्म 5 जून 1972) गोरखपुर के प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर के महन्त तथा राजनेता हैं एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री हैं। इन्होंने 19 मार्च 2017 को प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की बड़ी जीत के बाद यहाँ के 21वें मुख्यमन्त्री पद की शपथ ली। - एनडीटीवी - 18 मार्च 2017 वे 1998 से 2017 तक भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया और 2014 लोकसभा चुनाव में भी यहीं से सांसद चुने गए थे। आदित्यनाथ गोरखनाथ मन्दिर के पूर्व महन्त अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी हैं। ये हिन्दू युवाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी समूह हिन्दू युवा वाहिनी के संस्थापक भी हैं, तथा इनकी छवि कथित तौर पर एक देशभक्त की है। .

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लोकगाथा

लोकगाथा या कथात्मक गीत, अंग्रेजी में 'बैलेड' (Ballad) शब्द से अभिहित हैं। इस की व्युत्पत्ति लैटिन के 'वेप्लेर' शब्द से है जिसका अर्थ है 'नृत्य करना'। कालांतर में इसका प्रयोग केवल लोकगाथाओं के लिए किया जाने लगा। अंग्रेजी साहित्यकार इसकी ओर अधिक आकृष्ट हुए और यह अंग्रेजी साहित्य का लोकप्रिय काव्यरूप ही बन गया। लोकगाथा की परिभाषा करते हुए विभिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न विचार प्रकट किए हैं। किंतु परिभाषाओं में कुछ सर्वसामान्य तत्व विद्यमान हैं। इस विषय में कुछ प्रमुख विद्वानों के विचार ये हैं - जी.एन.

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सम्प्रदाय

एक ही धर्म की अलग अलग परम्परा या विचारधारा मानने वालें वर्गों को सम्प्रदाय कहते है। सम्प्रदाय हिंदू, बौद्ध, ईसाई, जैन, इस्लाम आदी धर्मों में मौजूद है। सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुरु-शिष्य परम्परा चलती है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित परम्परा को पुष्ट करती है। .

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साधु

साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ 'सज्जन व्यक्ति' से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है- 'साध्नोति परकार्यमिति साधुः' (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।)। वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है उन्हें भी साधु कहा जाने लगा है। साधु(सन्यासी) का मूल उद्देश्य समाज का पथप्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु सन्यासी गण साधना, तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते है और अपने जीवन को त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में विलीन हो जाते है। .

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साखी

साखी संस्कृत 'साक्षित्‌' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव (5,60) में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। सिद्धों के अपभ्रंश साहित्य में भी प्रत्यक्षदर्शी के रूप में साखी का प्रयोग हुआ है, जैसे 'साखि करब जालंधर पाए ' (सिद्ध कण्हृपा)। आगे चलकर नाथ परंपरा में गुरुवचन ही साखी कहलाने लगे। इनकी रचना का सिलसिला गुरु गोरखनाथ से ही प्रारंभ हो गया जान पड़ता है, क्योंकि खोज में कभी-कभी जोगेश्वर साखी जैसे पद्य संग्रह मिल जाते हैं। आधुनिक देशी भाषाओं में विशेषत: हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की। कबीर के पूर्ववर्ती संत नागदेव की साखी नामक हस्तलिखित प्रति भी मिली है परंतु उसका संकलन उत्तर भारत, संभवत: पंजाब में हुआ होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में नामदेव की वाणी पद या अभग ही कहलाती है, साखी नहीं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार दादुदयाल के शिष्य रज्जब ने अपने गुरु की साखियों को अंगों में विभाजित किया। रज्जब का काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी है-कबीर के लगभग सौ वर्ष बाद। कबीर वचनावली में साखियाँ विभिन्न अंगों में पाई जाती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीर वचनावली का संग्रह रज्जब के पश्चात्‌ हुआ होगा। कबीर ने तो 'मसि कागद छूयो' नहीं अतएव संभावना यही है कि उनके परवर्ती शिष्यों ने अपने गुरु की साखियों-सिखावनी-को विभिन्न अंगों में विभाजित कर दिया होगा। साखी अपभ्रंश काल से बहुप्रचलित छंद 'दूहा' (दोहा) में लिखी जाती रही है अत: 'दूहा' का पर्याय भी समझी जाती रही है परंतु तुलसीदास के समय तक वह दोहा का पर्याय नहीं रह गई।; 'साखी', सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान।; भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।। तुलसीदास का समय ईसा की सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी है। प्रतीत होता है कि कबीर के समय से अथवा उनसे भी पहले साखी दोहा के अतिरिक्त चौपाई, चौपई, सार, छप्पय, हरिपद आदि छंदों में भी लिखी जाने लगी थी। 'गुरु ग्रंथसाहब' में साखी को सलोकु कहा गया है। मराठी साहित्य में भी हिंदी के प्रभाव से 'साकी' या 'साखी' का चलन हो गया था। वहाँ भी पहले वह 'दोहरा' छंद में लिखी जाती थी। पर क्रमश: अन्य छंदों में भी प्रयुक्त होने लगी। तुलसीदास के समान मराठी संत स्वामी रामदास ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दासबोध में उसकी अन्य काव्य प्रकारों से पृथक्‌ गणना की है- ' नाना पदें, नाना श्लोक, नाना वीर, नाना कड़क, नाना साख्या, दोहरे अनेक, नामानिधान।' ना.

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सिद्ध

सिद्ध, संस्कृत शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सिद्धि का अर्थ महान शारीरिक तथा आध्यात्मिक उपलब्धि से है या ज्ञान की प्राप्ति से है। जैन दर्शन में सिद्ध शब्द का प्रयोग उन आत्माओं के लिए किया जाता है जो संसार चक्र से मुक्त हो गयी हो। .

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संधा भाषा

संधा भाषा सिद्धों द्वारा अपनी अंतःसाधनात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त भाषा है। इसमें प्रतीकों के सहारे अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को व्यक्त किया जाता है। इसलिए इसका तात्पर्य प्रतीकों के खुलने पर ही प्रकट होता है। सिद्धों ने अपनी रचनाएँ मुख्यतः अपभ्रंश और पुरानी हिंदी में की है। संधा भाषा वास्तव में इन रचनाओं में प्रयुक्त भाषा शैली है। यह कोई नितांत पृथक भाषा नहीं है। नाथों ने भी संधा भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। कबीर की ऐसी ही भाषा को 'उलटबाँसी' कहा जाता है। श्रेणी:आदिकाल श्रेणी:सिद्ध श्रेणी:निर्मित भाषाएँ.

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हठयोग

हठयोग चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है, जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है और विभिन्न चक्रों में स्थिर करते हुए उसे शीर्षस्थ सहस्त्रार चक्र तक ले जाया जाता है। हठयोग प्रदीपिका इसका प्रमुख ग्रंथ है। हठयोग, योग के कई प्रकारों में से एक है। योग के अन्य प्रकार ये हैं- मंत्रयोग, लययोग, राजयोग। हठयोग के आविर्भाव के बाद प्राचीन 'अष्टांग योग' को 'राजयोग' की संज्ञा दे दी गई। हठयोग साधना की मुख्य धारा शैव रही है। यह सिद्धों और बाद में नाथों द्वारा अपनाया गया। मत्स्येन्द्र नाथ तथा गोरख नाथ उसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। गोरखनाथ के अनुयायी प्रमुख रूप से हठयोग की साधना करते थे। उन्हें नाथ योगी भी कहा जाता है। शैव धारा के अतिरिक्त बौद्धों ने भी हठयोग की पद्धति अपनायी थी। .

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जसनाथ

श्री गुरु जसनाथ जी महराज (1482-1506), जसनाथी सम्प्रदाय के संस्थापक थे। जोधपुर, बीकानेर मंडलों में जसनाथ मतानुयायियों की बहुलता है। जसनाथ सम्प्रदाय के पाँच ठिकाने, बारह धाम, चौरासी बाड़ी और एक सौ आठ स्थापना हैं। इस सम्प्रदाय में रहने के लिए छत्तीस नियम पालने आवश्यक हैं। चौबीस वर्ष की आयु में जसनाथ समाधिस्थ हुए थे। बीकानेर से सटे हुए कतरियासर गांव में आज भी इनकी समाधि विद्यमान है। बीकानेर से करीब 45 किलोमीटर दूर कतरियासर गाँव सिद्ध नाथ सम्प्रदाय के लोगों का मेला में लगता है। इतिहासकारो की ऐसी मान्यता है कि जसनाथजी को कतरियासर गांव रूस्तमजी के कहने पर सिकन्दर लोदी ने भेंट किया। .

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जसनाथी सम्प्रदाय

जसनाथी सम्प्रदाय मुख्यतः राजस्थान (भारत) के जोधपुर बिकानेर मंडलों में मौजूद सिद्ध संप्रदाय है। इसके संस्थापक जसनाथ (1482-1506) माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय के पाँच ठिकाने, बारह धाम, चौरासी बाड़ी और एक सौ आठ स्थापना हैं। इस सम्प्रदाय में छत्तीस नियमों का पालन करना आवश्यक माना जाता है। कतरियासर इनका मुख्य स्थल है। यहाँ जसनाथी संप्रदाय के लोगों द्वारा अग्नि नृत्य किया जाता है। .

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ज्ञानेश्वर

संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे जिन्होंने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के 'आद्य-प्रवर्तकों' में भी माने जाते हैं। .

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ज्ञानेश्वरी

ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू निवृत्तिनाथ के निदर्शन किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। .

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गंभीरनाथ

गंभीरनाथ, नाथ पंथ के एक प्रख्यात योगी थे जिनका जन्म कश्मीर के एक धनी परिवार में हुआ था। किंतु युवावस्था में ही उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने गोरखपुर में गोपालनाथ से दीक्षा प्राप्त की। कहा जाता है कि उन्होंने तीनों योगों की सिद्धि प्राप्त की थी। आध्यात्मिक क्षेत्र में उनका उच्च स्थान समझा जाता है। वे उन्नीसवीं शती में किसी समय हुए थे। .

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गोरखनाथ

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे (प्रमाण भी हे राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की सुरुआत प्रथम सताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भरथरी एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे 'रोट महोत्सव' कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है। .

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गोरखनाथ मन्दिर

गोरखनाथ मन्दिर, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। बाबा गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरखनाथ मन्दिर के वर्तमान महन्त श्री बाबा योगी आदित्यनाथ जी है। मकर संक्रान्ति के अवसर पर यहाँ एक माह चलने वाला विशाल मेला लगता है जो 'खिचड़ी मेला' के नाम से प्रसिद्ध है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अंतर्गत विभिन्न संप्रदायों और मत-मतांतरों में 'नाथ संप्रदाय' का प्रमुख स्थान है। संपूर्ण देश में फैले नाथ संप्रदाय के विभिन्न मंदिरों तथा मठों की देख रेख यहीं से होती है। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार सच्चिदानंद शिव के साक्षात् स्वरूप 'श्री गोरक्षनाथ जी' सतयुग में पेशावर (पंजाब) में, त्रेतायुग में गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, द्वापर युग में हरमुज, द्वारिका के पास तथा कलियुग में गोरखमधी, सौराष्ट्र में आविर्भूत हुए थे। चारों युगों में विद्यमान एक अयोनिज अमर महायोगी, सिद्ध महापुरुष के रूप में एशिया के विशाल भूखंड तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, सिंघल तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने योग से कृतार्थ किया। .

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कनफटा

कनफटा गोरख संप्रदाय के योगियों का एक वर्ग है। दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने के कारण इन्हें कनफटा कहते हैं। मुद्रा अथवा कुंडल को दर्शन और पवित्री भी कहते हैं। इसी आधार पर कनफटा योगियों को 'दरसनी साधु' भी कहा जाता है। नाथयोगी संप्रदाय में ऐसे योगी, जो कान नहीं छिदवाते और कुंडल धारण नहीं करते, औघड़ कहलाते हैं। औघड़ जालंधरनाथ के और कनफटे मत्स्येंद्रनाथ तथा गोरखनाथ के अनुयायी माने जाते हैं, क्योंकि प्रसिद्ध है कि जालंधरनाथ औघड़ थे और मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ कनफटे। कनफटे योगियों में विधवा स्त्रियाँ तथा योगियों की पत्नियाँ भी कुंडल धारण करती देखी जाती हैं। यह क्रिया प्राय: किसी शुभ दिन अथवा अधिकतर वसंतपंचमी के दिन संपन्न की जाती है और इसमें मंत्रोप्रयोग भी होता है। कान चिरवाकर मुद्रा धारण करने की प्रथा के प्रवर्तन के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार इसका प्रवर्तन मत्स्येन्द्रनाथ ने और दूसरे मत के अनुसार गोरक्षनाथ ने किया था। कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफैंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है। कहा जाता है, गोरक्षनाथ ने (शंकराचार्य द्वारा संगठित शैव संन्यासियों से) अवशिष्ट शैवों का 12 पंथों में संगठन किया जिनमें गोरखनाथी प्रमुख हैं। इन्हें ही कनफटा कहा जाता है। एक मत यह भी मिलता है कि गोरखनाथी लोग गोरक्षनाथ को संप्रदाय का प्रतिष्ठाता मानते हैं जबकि कनफटे उन्हें 'पुनर्गठनकर्ता' कहते हैं। इन लोगों के मठ, तीर्थस्थान आदि बंगाल, सिक्किम, नेपाल, कश्मीर, पंजाब (पेशावर और लाहौर), सिंध, काठियावाड़, बंबई, राजस्थान, उड़ीसा आदि प्रदेशों में पाए जाते हैं। श्रेणी:भारतीय संस्कृति श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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कापालिक

शैव परम्परा के अन्तर्गत कापालिक सम्प्रदाय का स्थान कापालिक एक तांत्रिक शैव सम्प्रदाय था जो अपुराणीय था। इन्होने भैरव तंत्र तथा कौल तंत्र की रचना की। कापालिक संप्रदाय पाशुपत या शैव संप्रदाय का वह अंग है जिसमें वामाचार अपने चरम रूप में पाया जाता है। कापालिक संप्रदाय के अंतर्गत नकुलीश या लकुशीश को पाशुपत मत का प्रवर्तक माना जाता है। यह कहना कठिन है कि लकुलीश (जिसके हाथ में लकुट हो) ऐतिहासिक व्यक्ति था अथवा काल्पनिक। इनकी मूर्तियाँ लकुट के साथ हैं, इस कारण इन्हें लकुटीश कहते हैं। डॉ॰ रा.गो.

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कुंडल

कुंडल कान में पहनने का एक आभूषण, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। प्राचीन काल में कान को छेदकर जितना ही लंबा किया जा सके उतना ही अधिक वह सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। इसी कारण भगवान्‌ बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार कान लंबा करने के लिये लकड़ी, हाथीदाँत अथवा धातु के बने लंबे गोल बेलनाकार जो आभूषण प्रयोग में आते थे, उसे ही मूलत: कुंडल कहते थे और उसके दो रूप थे - प्राकार कुंडल और वप्र कुंडल। बाद में नाना रूपों में उसका विकास हुआ। साहित्य में प्राय: पत्र कुंडल (पत्ते के आकार के कुंडल), मकर कुंडल (लकड़ी, धातु अथवा हाथीदाँत के कुंडल), शंख कुंडल (शंख के बने अथवा शंख के आकार के कुंडल), रत्न कुंडल, सर्प कुंडल, मृष्ट कुंडल आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। देवताओं के मूर्तन के प्रसंग में बृहत्संहिता में सूर्य, बलदेव और विष्णु को कुंडलधारी कहा गया है। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है। नाथ पंथ के योगियों के बीच कुंडल का विशेष महत्व है। वे धातु अथवा हिरण की सींग के कुंडल धारण करते हैं। श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:शृंगार.

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अलखनामी

कोई विवरण नहीं।

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अघोर पंथ

अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को 'अघोरी' कहते हैं। इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव माने जाते हैं। रुद्र की मूर्ति को श्वेताश्वतरोपनिषद (३-५) में अघोरा वा मंगलमयी कहा गया है और उनका अघोर मंत्र भी प्रसिद्ध है। विदेशों में, विशेषकर ईरान में, भी ऐसे पुराने मतों का पता चलता है तथा पश्चिम के कुछ विद्वानों ने उनकी चर्चा भी की है। हेनरी बालफोर की खोजों से विदित हुआ है कि इस पंथ के अनुयायी अपने मत को गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, किंतु इसके प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए जिनके विषय में अभी तक अधिक पता नहीं चल सका है। इसकी तीन शाखाएँ (१) औघर, (२) सरभंगी तथा (३) घुरे नामों से प्रसिद्ध हैं जिनमें से पहली में कल्लूसिंह वा कालूराम हुए जो बाबा किनाराम के गुरु थे। कुछ लोग इस पंथ को गुरु गोरखनाथ के भी पहले से प्रचलित बतलाते हैं और इसका संबंध शैव मत के पाशुपत अथवा कालामुख संप्रदाय के साथ जोड़ते हैं। बाबा किनाराम अघोरी वर्तमान बनारस जिले के समगढ़ गाँव में उत्पन्न हुए थे और बाल्यकाल से ही विरक्त भाव में रहते थे। इन्होंने पहले बाबा शिवाराम वैष्णव से दीक्षा ली थी, किंतु वे फिर गिरनार के किसी महात्मा द्वारा भी प्रभावित हो गए। उस महात्मा को प्राय गुरु दत्तात्रेय समझा जाता है जिनकी ओर इन्होंने स्वयं भी कुछ संकेत किए हैं। अंत में ये काशी के बाबा कालूराम के शिष्य हो गए और उनके अनंतर कृमिकुंड पर रहकर इस पंथ के प्रचार में समय देने लगे। बाबा किनाराम ने विवेकसार, गीतावली, रामगीता आदि की रचना की। इनमें से प्रथम को इन्होंने उज्जैन में शिप्रा के किनारे बैठकर लिखा था। इनका देहांत सन् १८२६ में हुआ। बाबा किनाराम ने इस पंथ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल, हरिहरपुर तथा कृमिकुंड पर क्रमश चार मठों की स्थापना की जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है। इस पंथ को साधारणतः 'औघढ़पंथ' भी कहते हैं। ‘विवेकसार’ इस पंथ का एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें बाबा किनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रंथ में उन अंगों का भी वर्णन है जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है; अगले तीन में योग साधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है तथा शेष दो में संपूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है। इसके अनुयायियों में सभी जाति के लोग, (यहाँ तक कि मुसलमान भी), हैं। विलियम क्रुक ने अघोरपंथ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपुताने के आबू पर्वत को बतलाया है, किंतु इसके प्रचार का पता नेपाल, गुजरात एवं समरकंद जैसे दूर स्थानों तक भी चलता है और इसके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है। जो लोग अपने को 'अघोरी' वा 'औगढ़' बतलाकर इस पंथ से अपना संबंध जोड़ते हैं उनमें अधिकतर शवसाधना करना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना भी दीख पड़ता है जो कदाचित् कापालिकों का प्रभाव हो। इनके मदिरा आदि सेवन का संबंध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़ा जाता है जिनका मदकलश के साथ उत्पन्न होना भी कहा गया है। अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी औघड़ों से भी मिलते-जुलते हैं जो नाथपंथ के प्रारंभिक साधकों में गिने जाते हैं और जिनका अघोर पंथ के साथ कोई भी संबंध नहीं है। इनमें निर्वाणी और गृहस्थ दोनों ही होते हैं और इनकी वेशभूषा में भी सादे अथवा रंगीन कपड़े होने का कोई कड़ा नियम नहीं है। अघोरियों के सिर पर जटा, गले में स्फटिक की माला तथा कमर में घाँघरा और हाथ में त्रिशूल रहता है जिससे दर्शकों को भय लगता है। अघोर पन्थ की 'घुरे' नाम की शाखा के प्रचार क्षेत्र का पता नहीं चलता किंतु 'सरभंगी' शाखा का अस्तित्व विशेषकर चंपारन जिले में दीखता है जहाँ पर भिनकराम, टेकमनराम, भीखनराम, सदानंद बाबा एवं बालखंड बाबा जैसे अनेक आचार्य हो चुके हैं। इनमें से कई की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और उनसे इस शाखा की विचारधारा पर भी बहुत प्रकाश पड़ता है। .

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अवधूत गीता

अवधूत गीता, अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों पर आधारित संस्कृत ग्रन्थ है। 'अवधूत गीता' का शाब्दिक अर्थ है, 'मुक्त व्यक्ति के गीत'। यह ग्रन्थ नाथ योगियों का महत्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है। यह ग्रन्थ दत्तात्रेय द्वारा रचित माना जाता है। वर्तमान समय में प्राप्त पाण्डुलिपियाँ लगभग ९वीं या १०वीं शताब्दी में रचित प्रतीत होतीं है। इसमें २८९ श्लोक हैं जो ८ अध्यायों में विभक्त हैं। .

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