लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
मुक्त
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)

सूची नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक)

नागार्जुन (बौद्धदर्शन) शून्यवाद के प्रतिष्ठापक तथा माध्यमिक मत के पुरस्कारक प्रख्यात बौद्ध आचार्य थे। युवान् च्वाङू के यात्राविवरण से पता चलता है कि ये महाकौशल के अंतर्गत विदर्भ देश (आधुनिक बरार) में उत्पन्न हुए थे। आंध्रभृत्य कुल के किसी शालिवाहन नरेश के राज्यकाल में इनके आविर्भाव का संकेत चीनी ग्रंथों में उपलब्ध होता है। इस नरेश के व्यक्तित्व के विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं हैं। 401 ईसवी में कुमारजीव ने नागार्जुन की संस्कृत भाषा में रचित जीवनी का चीनी भाषा में अनुवाद किया। फलत: इनका आविर्भावकाल इससे पूर्ववर्ती होना सिद्ध होता है। उक्त शालिवाहन नरेश को विद्वानों का बहुमत राजा गौतमीपुत्र यज्ञश्री (166 ई. 196 ई.) से भिन्न नहीं मानता। नागार्जुन ने इस शासक के पास जो उपदेशमय पत्र लिखा था, वह तिब्बती तथा चीनी अनुवाद में आज भी उपलब्ध है। इस पत्र में नामत: निर्दिष्ट न होने पर भी राजा यज्ञश्री नागार्जुन को समसामयिक शासक माना जाता है। बौद्ध धर्म की शिक्षा से संवलित यह पत्र साहित्यिक दृष्टि से बड़ा ही रोचक, आकर्षक तथा मनोरम है। इस पत्र का नाम था - "आर्य नागार्जुन बोधिसत्व सुहृल्लेख"। नागार्जुन के नाम के आगे पीछे आर्य और बोधिसत्व की उपाधि बौद्ध जगत् में इनके आदर सत्कार तथा श्रद्धा विश्वास की पर्याप्त सूचिका है। इन्होंने दक्षिण के प्रख्यात तांत्रिक केंद्र श्रीपर्वत की गुहा में निवास कर कठिन तपस्या में अपना जीवन व्यतीत किया था। .

14 संबंधों: दर्शन का इतिहास, दशभूमीश्वर, नागार्जुन, नागार्जुन (बहुविकल्पी), नागार्जुन (रसायनशास्त्री), बौद्ध दर्शन, भारतीय तर्कशास्त्र, भारतीय दर्शन, भारतीय नैयायिक, माध्यमक, मूलमध्यमककारिका, शून्यता, विमलकीर्ति, अस्मिता मारवा

दर्शन का इतिहास

सभ्यता के प्रारम्भ से ही दर्शन विद्यावान् लोगों के बीच विशेष अभिरुचि का विषय रहा है। भारत में वेदों एवं उपनिषदों के समय से ही दार्शनिक जिज्ञासा एवं दार्शनिक चिन्तन का ज्ञानपिपासु पृच्छाशील विद्वानों और बुद्धजीवियों के बीच प्रचलित प्रतिष्ठित रहे। उदाहरण के लिए ऋग्वेद में जहाँ-तहाँ सृष्टि के प्रारम्भ, दृश्यमान जगत् के उपादान द्रव्य एवं रचयिता आदि के सम्बन्ध में काव्यात्मक ढंग से प्रश्न उठाये गये। प्रसिद्ध नारदीय सूक्त इस कोटि की प्रश्नाकुलता तथा जिज्ञासा का श्रेष्ठ निदर्शन है। यहाँ ध्यातव्य है कि ऋग्वेद भाषाबद्ध साहित्य का प्रायः सबसे प्राचीन उदाहरण है। ऋग्वेद का रचना-काल प्रायः 3000 से 1500 ई. पू.

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और दर्शन का इतिहास · और देखें »

दशभूमीश्वर

दशभूमीश्वर, महायान बौद्ध साहित्य का एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द जिसका आधार "दशभूमिक" नामक ग्रंथ है। यह महासांधिकों की लोकोत्तरवादी शाखा का ग्रंथ है जिसका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य नागार्जुन ने अपनी "प्रज्ञापारमिता शास्त्र" की व्याख्या में किया है। नागार्जुन द्वारा उल्लिखित यह ग्रंथ अपने जापानी रूपांतर "जुजि-क्यो" के रूप मे सुरक्षित रहा है जो वस्तुत: "अवतंशक साहित्य" (जापानी, ऊ के गान) के अंतर्गत है। जापानी में अवतंशक साहित्य की अवतारण आचार्य बुद्धभद्र (उत्तर भारत) ने पूर्वी शिन काल (418-520 ई.) में की थी। दशभूमिक के दो भाषांतर प्रसिद्ध हैं -.

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और दशभूमीश्वर · और देखें »

नागार्जुन

नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और नागार्जुन · और देखें »

नागार्जुन (बहुविकल्पी)

नागार्जुन शीर्षक से कई लेख है:-.

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और नागार्जुन (बहुविकल्पी) · और देखें »

नागार्जुन (रसायनशास्त्री)

नागार्जुन भारत के धातुकर्मी एवं रसायनज्ञ (alchemist) थे। उन्होने रसरत्नाकर नामक रसग्रंथ की रचना की। शायद अपने समय मे किसी व्यक्ति को लेकर इतनी कहानियां नहीं गढ़ी गई थी जितनी नागार्जुन के बारे में। कहा जाता है कि देवी-देवताओँ के साथ उनका सम्पर्क था जिससे उनके पास अप धातुओं को सोने में बदलने की शक्ति आ गई थी। और वह अमृत बना सकते थे। वह प्रसिद्ध थे और लोग उन्हें सराहना और भय मिश्रित दृष्टि से देखते थे। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और नागार्जुन (रसायनशास्त्री) · और देखें »

बौद्ध दर्शन

बौद्ध दर्शन से अभिप्राय उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। 'दुःख से मुक्ति' बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहा है। कर्म, ध्यान एवं प्रज्ञा इसके साधन रहे हैं। बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया। अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है। सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं। वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और बौद्ध दर्शन · और देखें »

भारतीय तर्कशास्त्र

'भारतीय तर्कशास्त्र' से सीमित अर्थ में 'न्याय दर्शन' का बोध होता है। किन्तु अधिक व्यापक अर्थ में इसमें बौद्ध न्याय और जैन न्याय भी समाविष्ट किये जाते हैं। सबसे व्यापक रूप में भारतीय तर्कशास्त्र से अभिप्राय सभी भारतीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सभी तार्किक (न्यायिक) सिद्धान्तों के सम्मुच्चय से है। भारतीय तर्कशास्त्र, विश्व के तीन मूल तर्कशास्त्रों में से एक है; अन्य दो हैं, यूनानी और चीनी तर्कशास्त्र। भारतीय तर्कशास्त्र की यह परम्परा नव्यन्याय के रूप में आधुनिक काल के आरम्भिक दिनों तक जारी रही। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और भारतीय तर्कशास्त्र · और देखें »

भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और भारतीय दर्शन · और देखें »

भारतीय नैयायिक

न्याय दर्शन के विद्वान नैयायिक कहलाते हैं। ब्राह्मण न्याय (वैदिक न्याय), जैन न्याय और बौद्ध न्याय के अत्यंत सुप्रसिद्ध नैयायिक विद्वानों में निम्नलिखित हैं: .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और भारतीय नैयायिक · और देखें »

माध्यमक

माध्यमक (परम्परागत चीनी में: 中觀派, पिनयिन: Zhōng guān bài; also known as Śunyavada) बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का उपसम्प्रदाय है। महान बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने इसे आगे बढ़ाया। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और माध्यमक · और देखें »

मूलमध्यमककारिका

मूलमध्यमककारिका, नागार्जुन द्वारा रचित मुख्य दार्शनिक ग्रन्थ है। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और मूलमध्यमककारिका · और देखें »

शून्यता

शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिक नामक विभाग का मत या सिद्धान्त है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है (विज्ञानवाद से भिन्न)। "माध्यमिक न्याय" ने "शून्यवाद" को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में अंगीकृत किया है। इसके अनुसार ज्ञेय और ज्ञान दोनों ही कल्पित हैं। पारमार्थिक तत्व एकमात्र "शून्य" ही है। "शून्य" सार, असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन चार कोटियों से अलग है। जगत् इस "शून्य" का ही विवर्त है। विवर्त का मूल है संवृति, जो अविद्या और वासना के नाम से भी अभिहित होती है। इस मत के अनुसार कर्मक्लेशों की निवृत्ति होने पर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर उसी प्रकार शांत हो जाता है जैसे तेल और बत्ती समाप्त होने पर प्रदीप। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और शून्यता · और देखें »

विमलकीर्ति

विमलकीर्ति विमलकीर्तिसूत्र नामक ग्रन्थ के मुख्य चरित्र हैं। इस ग्रन्थ के अनुसार वे गौतम बुद्ध के समकालीन थे तथा एक आदर्श महायान बौद्ध उपासक थे। किन्तु बौद्ध ग्रन्थों में उनका उल्लेख सबसे पहले नागार्जुन (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व) ने की है। श्रेणी:बौद्ध दार्शनिक.

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और विमलकीर्ति · और देखें »

अस्मिता मारवा

अस्मिता मारवा एक भारतीय फैशन डिजाइनर  हैं, जिनका मूल्यांकन फैशन पत्रिका वोग द्वारा शीर्ष ९ एवं उभरते अंतरराष्ट्रीय डिजाइनरों के लिए किया गया था। अस्मिता मारवा पारंपरिक चीजों को वैश्विक चीजों के साथ मिलाने में विश्वास रखती हैं। उनके कलमकारी के जीवंत अवतार ने फैशन की दुनिया में तूफ़ान ला दिया था। .

नई!!: नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और अस्मिता मारवा · और देखें »

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »