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धैवत

सूची धैवत

भारतीय शास्त्रीय संगीत के सात स्वरों में से छठा स्वर। श्रेणी:भारतीय संगीत के स्वर.

5 संबंधों: भारतीय संगीत, भारतीय संगीत का इतिहास, राग बहार, राग हिंडोल, संवाद सूक्त

भारतीय संगीत

हिन्दुस्तानी संगीत सभा का दुर्लभ चित्र संगीत का रसास्वादन करती हुए एक स्त्री (पंजाब १७५०) भारतीय संगीत प्राचीन काल से भारत मे सुना और विकसित होता संगीत है। इस संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है। इस संगीत का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। हिंदु परंपरा मे ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। पंडित शारंगदेव कृत "संगीत रत्नाकर" ग्रंथ मे भारतीय संगीत की परिभाषा "गीतम, वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीतमुच्यते" कहा गया है। गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य; तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में माना गया है। तीनो स्वतंत्र कला होते हुए भी एक दूसरे की पूरक है। भारतीय संगीत की दो प्रकार प्रचलित है; प्रथम कर्नाटक संगीत, जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है और हिन्दुस्तानी संगीत शेष भारत में लोकप्रिय है। भारतवर्ष की सारी सभ्यताओं में संगीत का बड़ा महत्व रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। इस रूप में, संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा मानी जाती है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को 'देशी' कहा जाता था। कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है। वैदिक काल में सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू-शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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राग बहार

राग बहार काफ़ी थाट से उत्पन्न षाड़व षाड़व जाति का राग है। अर्थात इसके आरोह तथा अवरोह से छे छे स्वरों का प्रयोग होता है। इसके गाने का समय रात्रि का दूसरा प्रहर है। गांधार और निषाद दोनो स्वर कोमल है लेकिन गायक अक्सर दोनों निषाद लेते हैं, शुद्ध निषाद का प्रयोग मध्य सप्तक में होता है और वह भी आरोह में। अन्य स्वर शुद्ध लगते हैं। कुछ गायक मध्यम के साथ विवादी के रूप में शुद्ध गंधार का भी थोड़ा सा प्रयोग करते हैं। लेकिन यह नियम नहीं, इसके अवरोह में कभी कभी ऋषभ और धैवत दोनो वर्जित करते हुए निधनिप ऐसा प्रयोग होता है पर यह आवश्यक नहीं। आरोह में गमपगमधनिसां इस प्रकार पंचम का वक्र प्रयोग भी होता है जिससे रागरंजकता बढ़ती है। इस राग का वादी स्वर षडज तथा संवादी स्वर मध्यम हैं। राग विस्तार मध्य व तार सप्तक में होने के कारण यह चंचल प्रकृति का राग माना जाता है। मपगम धनिसां इसकी मुख्य पकड़ है। यह राग बाकी अनेक रागों के साथ मिलाकर भी गाया जाता हैं। जिस राग के साथ उसे मिश्रित किया जाता है उसे उस राग के साथ संयुक्त नाम से जाना जाता है। उदाहरण के लिए बागेश्री राग में इसे मिश्र करने से बागेश्री-बहार, वसंत-बहार, भैरव-बहार इत्यादि। परंतु मिश्रण का एक नियम हे कि जिसमें बहार मिश्र किया जाय वह राग शुद्ध मध्यम या पंचम में होना चाहिए क्योंकि बहार का मिश्रण शुद्ध मध्यम से ही शुरू होता है। .

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राग हिंडोल

राग हिंडोल 16वीं शती का एक लघुचित्रराग हिंडोल या राग हिंदोल का जन्म कल्याण थाट से माना गया है। इसमें मध्यम तीव्र तथा निषाद व गंधार कोमल लगते हैं। ऋषभ तथा पंचम वर्जित है। इसकी जाति ओड़व ओड़व है तथा वादी स्वर धैवत व संवादी स्वर गांधार है। गायन का समय प्रातःकाल है। शुद्ध निषाद, रिषभ और पंचम इस स्वर इसमें वर्ज्य हैं। तीव्र मध्यम वाला यह एक ही राग है जिसको प्रातःकाल गाया जाता है। अन्य सभी तीव्र मध्यम वाले रागों का गायन समय रात्रि में होता है। राग हिंदोल में निषाद को बहुत कम महत्व दिया गया है। इतना ही नहीं, आरोह में उसे वर्ज्य करके अवरोह में भी सां ध इन दो स्वरों के बीच में छुपाना पड़ता है क्यों कि म ध नि सा लेने से सोहनी और सां नि, ध म लेने से पूरिया राग की छाया इसमें आने लगती है। इसको सोहनी और पूरिया से बचाने के लिए मध सांध, धम गसा ध सां ऐसी पकड़ लेने से इसका स्वरूप स्पष्ट होता है। इस राग में जब सां ध ऐसे स्वर आते हैं तब सां से ध स्वर पर आते समय बीच के निषाद को धैवत में जोड़ दिया जाता है। राग चिकित्सा में इस राग को जोड़ों के दर्द के लिए लाभकारी माना गया है। .

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संवाद सूक्त

संवाद सूक्त अर्थात वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मध्य वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया हो। वेदों में विभिन्न सूक्तों के माध्यम से विभिन्न देवताओं की स्तुति तथा विभिन्न विषयों को प्रस्तुत किया गया है उनमें कुछ सूक्त संवाद-सूक्त के नाम से जाने जाते हैं प्रमुख संवाद सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं । संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्र व्यक्ति मानना सम्भव नहीं है। इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विधाओं की उत्पत्ति हुर्इ है। .

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