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धातु

सूची धातु

'धातु' के अन्य अर्थों के लिए देखें - धातु (बहुविकल्पी) ---- '''धातुएँ''' - मानव सभ्यता के पूरे इतिहास में सर्वाधिक प्रयुक्त पदार्थों में धातुएँ भी हैं लुहार द्वारा धातु को गर्म करने पर रसायनशास्त्र के अनुसार धातु (metals) वे तत्व हैं जो सरलता से इलेक्ट्रान त्याग कर धनायन बनाते हैं और धातुओं के परमाणुओं के साथ धात्विक बंध बनाते हैं। इलेक्ट्रानिक मॉडल के आधार पर, धातु इलेक्ट्रानों द्वारा आच्छादित धनायनों का एक लैटिस हैं। धातुओं की पारम्परिक परिभाषा उनके बाह्य गुणों के आधार पर दी जाती है। सामान्यतः धातु चमकीले, प्रत्यास्थ, आघातवर्धनीय और सुगढ होते हैं। धातु उष्मा और विद्युत के अच्छे चालक होते हैं जबकि अधातु सामान्यतः भंगुर, चमकहीन और विद्युत तथा ऊष्मा के कुचालक होते हैं। .

202 संबंधों: चम्पा की कला, ऊष्मा चालकता, चाँदी, चिमटा, चंग नृत्य, चीन-नेपाल युद्ध, टाँका, टाइटेनियम, टिन, टकसाल, टैरा हर्ट्ज़ विकिरण, एनरॉन, एबीबी एसिया ब्राउन बॉवेरी, एसिटिक अम्ल, एक्स किरण नलिका, ऐशबोर्न, झांझ, डच इस्ट इंडिया कंपनी, डायनेमो, ढलाई, ढ़लाई (धातुकर्म), तनुफिल्म, तन्त्र, तरण ताल, तापयुग्म, तापायनिक उत्सर्जन, तापविद्युत प्रभाव, तारकसी, थैलियम, दुर्लभ मृदा तत्व, द्विधातु पट्टी, देवता, धातु (बहुविकल्पी), धातु चद्दर, धातु संसूचक, धातु विरचना, धातुरचना विज्ञान, धातुकर्म, धूप के चश्मे, नाइट्रिक अम्ल, नाइट्रेट, निरुक्त, निर्माण सामग्री, निष्कर्षण धातुकर्मिकी, निक्षारण, नगरपालिका ठोस अपशिष्ट, पत्रकारिता का इतिहास, पर्यावरण रसायन विज्ञान, पाड़, पारा, ..., पुनर्चक्रण, प्रलाक्ष, प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, प्राकृतिक संसाधन, प्रगलन, प्रकाश-विद्युत प्रभाव, प्लास्टिक पुनर्चक्रण, पृथ्वी का इतिहास, पेंच, फ़र्नीचर, फास्फेट खनिज, फ्रेंच वक्र, फैराडे कप, फोर्जिंग, बहुमूल्य धातु, ब्रेजिंग, बेरियम, बेरिल, बेलन, भाप, भारत में सिक्का-निर्माण, भारत में ज्वैलरी डिजाइन, भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, भारतीय दर्शन, भारतीय धातुकर्म का इतिहास, भारतीय रसायन का इतिहास, भारतीय स्थापत्यकला, मशीन मिस्त्री, मशीनी औजार, मस्तूल, मिलिंग, मंडला ज़िला, मंगल ग्रह, मुद्रण, मुद्रण कला, मूषा, मोहरी लाख, रसायन विज्ञान, रसायन विज्ञान का इतिहास, राखीगढ़ी, राग, रुबिडियम, रैखिक मोटर, रेती, रोबोट, रीनियम, लिथियम, लवण, लौह युग, लैन्थनाइड, लेथ मशीन, लेखांकन का इतिहास, शब्दकल्पद्रुम, शस्त्र, शिक्षा, सर्वेक्षण पट्ट, सहकारक (जैवरसायन), सायनेमाइड, सिसप्लेटिन, सिगार, सिक्का, सवितृ, संधारित्र, संस्कृत व्याकरण, संस्कृत के आधुनिक कोश, संस्कृति, संक्रमण धातु, संक्रमणोपरांत धातु, संक्षारण, सुनम्य कलाएँ, सुहागा-मनका परीक्षण, स्थलीय ग्रह, स्वर, स्वरित्र, स्वेतलाना सवित्सकाया, स्की, सौर सेल, सोडियम, सोना, सीसा, हलायुध, जनसंचार, जयपुर, जयपुर जिला, जयपुर/आलेख, जर्मेनियम, जर्कोनियम मिश्रातु, जल सर्वेक्षण, ईश्वर, घर्षणमारक धातु एवं मिश्रातु, वात्या भट्ठी, वायु प्रदूषण, वार्निश, विद्युत, विद्युत चालन, विद्युत चालकता, विद्युत प्रतिरोध, विद्युत अपघटन, विद्युतधातुकर्म, विद्युत्-रसायन, विद्युत्-लेपन, विश्व का आर्थिक इतिहास, वैदिक व्याकरण, वैद्युत परिष्करण, वैद्युत अभिरूपण, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, वेल्डिंग, खड़ताल, खनन, खनिज प्रसाधन, ख्यात, गाथा, गैस नली, औद्योगिक क्रांति, आँत्वाँ लाव्वाज़्ये, आयुर्वेद, आरणमुल कनाटी, आर्सेनिक, आघातवर्धनीयता, आगम (जैन), इब्रानी भाषा, इरीडियम, कठोरता, कठोरीकरण, कारतूस, क्रुप, क्षुद्रग्रह वर्णक्रम श्रेणियाँ, क्षेत्र उत्सर्जन, कैथोडी रक्षण, कैनोला, कैल्सियम, कोन्ड्राइट, कील, अतिचालकता, अधातु, अपघर्षक, अपघर्षी कर्तन, अभिलेख, अमरकोश, अल्बर्ट हॉल संग्रहालय, अश्वनाल, अष्टधातु, अष्टाध्यायी, अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र, अकार्बनिक रसायन, उच्चतापसह धातु, उणादि सूत्र, उत्कृष्‍ट धातु, उपधातु, छत, M-श्रेणी क्षुद्रग्रह, X-श्रेणी क्षुद्रग्रह सूचकांक विस्तार (152 अधिक) »

चम्पा की कला

चाम नुइ ने मंदिर चम्पा एक भारतीय सभ्यता थी जो ५०० ई से १५०० ई के कालावधि में पूर्वी एशिया के उस भाग में फैली थी जिसे आजकल वियतनाम कहा जाता है। चम्पा की कला में मुख्यतः बलुआ पत्थर की मूर्तियाँ तथा ईंटो से निर्मित भवन हैं। कुछ धातु से निर्मित मूर्तियाँ एवं सजावटी वस्तुएँ भी प्राप्त हुई हैं। अधिकांश कलात्मक वस्तुएँ धर्म से संबन्धित हैं और हिन्दू (मुख्यतः शैव), बौद्ध तथा स्थानीय संस्कृति का सम्मिश्रण हैं। श्रेणी:चम्पा.

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ऊष्मा चालकता

भौतिकी में, ऊष्मा चालकता (थर्मल कण्डक्टिविटी) पदार्थों का वह गुण है जो दिखाती है कि पदार्थ से होकर ऊष्मा आसानी से प्रवाहित हो सकती है या नहीं। ऊष्मा चालकता को k, λ, या κ से निरूपित करते हैं। जिन पदार्थों की ऊष्मा चालकता अधिक होती है उनसे होकर समान समय में अधिक ऊष्मा प्रवाहित होती है (यदि अन्य परिस्थितियाँ, जैसे ताप का अन्तर, पदार्थ की लम्बाई और क्षेत्रफल आदि समान हों)। जिन पदार्थों की ऊष्मा चालकता बहुत कम होती हैं उन्हें ऊष्मा का कुचालक (थर्मल इन्सुलेटर) कहा जाता है। ऊष्मा चालकता के व्युत्क्रम (रेसिप्रोकल) को उष्मा प्रतिरोधकता (thermal resistivity) कहते हैं। .

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चाँदी

चाँदी एक चमकीली व बहुमूल्य धातु है। इसका परमाणु क्रमांक 47 व परमाणु द्रव्यमान 107.9 है यह एक तन्य धातु है,अतः इसका उपयोग तार व आभूषण बनाने में होता है। इसका परमाण्विक इलेक्ट्रोन विन्यास-1s22s22p63s23p63d104s24p64d105s1 है। चाँदी सर्वाधिक विद्युतचालक व ऊष्माचालक धातु है। इसमे जल व कार्बन डाई ऑक्साइड व सल्फर डाई ऑक्साइड से अभिक्रिया से जंग उत्पन्न होती है, जो काले रंग की होती है। .

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चिमटा

चिमटा भारतीय खाना बनाने में इस्तेमाल होनेवाला बर्तन है। यह धातु का बना होता है। इसे आंच पर चढ़े गर्म बर्तन उतारने या चढ़ाने में प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा इसे रोटी को आंच पर फुलाने हेतु भी प्रयोग किया जाता है। .

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चंग नृत्य

चंग लोकनृत्य राजस्थान का का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र (चुरु, झुंझुनू, सीकर जिला) व बीकानेर जिला इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। यह पुरुषों का सामूहिक लोकनृत्य है। इसका आयोजन होली पर्व पर होता है और महाशिवरात्रि से लेकर होली तक चलता है। इस लोकनृत्य में खुले स्थान में परमुखतः 'चंग' नामक वाद्ययंत्र के साथ शरीर की गति या संचालन, नृत्य या तालबद्ध गति के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। इस लोकनृत्य की अभिव्यक्ति इतनी प्रभावशाली होती है की चंग पर थाप पड़ते ही लोगों को चंग पर लगातार नाचने व झूमने पर मजबूर कर देती है। चंग लोकनृत्य में गायी जाने वाली लोकगायकी को 'धमाल' के नाम से जाना जाता है। शब्दों के बाण, भावनाओं की उमंग और मौज-मस्ती के रंग मिश्रित धमाल हर किसी को गाने व झुमने के लिये मजबूर कर देती है। .

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चीन-नेपाल युद्ध

चीन-नेपाल युद्ध या गोरखा-चीन युद्ध (चीनी: 平 定 廓 爾 喀, pacification of Gorkha) नेपालीयों द्वारा 1788-1792 में तिब्बत के ऊपर एक चढाई थी। यह युद्ध पुरी तरह नेपाली और तिब्बती आर्मीयों के बीच सिक्का के विवाद को लेकर लड़ा गया। नेपालीयों द्बारा सस्ते धातुओं के मिश्रण को ढालकर बनाये गये सिक्के जो लम्बे समय से तिब्बत के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। नेपालियों ने तिब्बतियों को वश में कर रखा था, जो चीन के अधिन थें। तिब्बत ने केरुङकि सन्धि की और शान्ति सम्झौता के अनुरूप वार्षिक सलामी देनेका वादा किया। बाद में तिब्बत ने झूठ बोला और चीन के राजा को न्यौता दिया। कमाण्डर फुकागन नेपालके बेत्रावती तक आगए लेकिन जबरदस्त काउन्टरअटैक के कारण चीन ने शान्ति सम्झौता के प्रस्ताव स्वीकार किया। .

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टाँका

६०-४० सोल्डर का तार टाँका या सोल्डर (Solder) एक गलनीय मिश्रधातु है। इसका उपयोग टाँका लगाने तथा धातु के टुकड़ों को जोड़ने के काम आती है। .

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टाइटेनियम

टाइटेनियम तत्व का सबसे पहले सन् 1791 में ग्रेटर ने पता लगाया तथा सन् 1795 में क्लापराथ ने इसका नाम टाइटेनियम रखा। इसके मुख्य खनिज इलमिनाइट तथा रुटाइल हैं। दूसरे खनिज स्थुडोब्रुकाइट, (Fe4 (TiO4) 3), एरीजोनाइट, (Fe2 (TiO3)3), गाइकीलाइट (MgTiO3) तथा पायरोफेनाइट, (MnTiO3) इत्यादि हैं धातु के क्लोराइड के वाष्प को द्रवित सोडियम के ऊपर से पारित करने पर, अथवा पोटासियम के साथ अवकरण से, अथवा धातु के हेलोजन लवण या ऑक्साइड के कैल्सियम, मैग्नीशियम या ऐल्यूमिनियम द्वारा अवकरण से यह धातु प्राप्त होती है। बुसे (सन् 1853) ने पोटासियम टाइटेनेट, सोडियम सल्फेट और सल्फयूरिक अम्ल के विद्युद्विच्छेदन द्वारा सफेद टाइटेनियम प्राप्त किया था। .

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टिन

वंग या रांगा या टिन (Tin) एक रासायनिक तत्त्व है। लैटिन में इसका नाम स्टैन्नम (Stannum) है जिससे इसका रासायनिक प्रतीक Sn लिया गया है। यह आवर्त सारणी के चतुर्थ मुख्य समूह (main group) की एक धातु है। वंग के दस स्थायी समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या ११२, ११४, ११५, ११६, ११७, ११८, ११९, १२०, १२२ तथा १२४) प्राप्त हैं। इनके अतिरिक्त चार अन्य रेडियोऐक्टिव समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या ११३, १२१, १२३ और १२५) भी निर्मित हुए हैं। .

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टकसाल

टकसाल (Mint) उस कारखाने को कहते हैं जहाँ देश की सरकार द्वारा, या उसके दिए अधिकार से, मुद्राओं का निर्माण होता है। भारत में टकसालें कलकत्ता, मुंबई, हैदराबाद और नोएडा, उ॰प्र॰ में हैं। .

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टैरा हर्ट्ज़ विकिरण

विद्युतचुंबकीय तरंगें जिनकी आवृत्ति टैरा हर्ट्ज़ (१० पर १२ घात) के कोटि (order) की होती हैं, उन्हें टेरा हर्ट्ज़ विकिरण या टी तरंगें, टैरा हर्ट्ज़ तरंग या प्रकाश, टी-प्रकाश, टी-लक्स आदि कहा जाता है। इनकी आवृत्ति 300 gigahertz (3x1011 हर्ट्ज़) से 3 टैरा हर्ट्ज़ (3x1012 Hz), के मध्य होती है; तदनुसार इनकी तरंग दैर्घ्य 1 मिलिमीटर (सूक्ष्म तरंग पट्टी का उच्चावृत्ति सिरा) एवं 100 माइक्रोमीटर (सुदूर अधोरक्त प्रकाश का तरंग दैर्घ्य सिरा) के बीच होता है। Plot of the zenith atmospheric transmission on the summit of Mauna Kea throughout the range of 1 to 3 THz of the electromagnetic spectrum at a precipitable water vapor level of 0.001 mm. (simulated) .

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एनरॉन

एनरॉन कॉर्पोरेशन (पूर्व में NYSE टिकर प्रतीक ENE) एक अमेरिकी ऊर्जा कम्पनी थी जो मूलतः टेक्सास के डाउनटाउन ह्यूस्टन में एनरॉन कॉम्प्लेक्स में स्थित थी। 2001 में अपने दिवालिया होने से पहले एनरॉन में लगभग 22,000 कर्मचारी कार्यरत थे और यह विश्व की एक अग्रणी विद्युत्, प्राकृतिक गैस, संचार और लुगदी और काग़ज़ की कंपनियां थीं, वर्ष 2000 में जिसका दावाकृत राजस्व लगभग $101 बिलियन था। फॉर्च्यून ने एनरॉन को लगातार छह वर्षों के लिए "अमेरिका की सर्वाधिक नवोन्मेषी कंपनी" का नाम दिया। 2001 के अंत में यह खुलासा हुआ कि इसकी सूचित वित्तीय स्थिति मूल रूप से संस्थागत, व्यवस्थित और रचनात्मक रूप से नियोजित लेखांकन धोखाधड़ी के कारण निरंतर बनी हुई थी, जो "एनरॉन घोटाले" के रूप में विख्यात है। तब से एनरॉन स्वैच्छिक निगमित धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार की लोकप्रिय प्रतीक बन गई। इस घोटाले ने संयुक्त राज्य के कई अन्य निगमों के लेखांकन प्रणालियों पर सवाल खड़े किए और 2002 के सारबेंस-ऑक्स्ले अधिनियम की स्थापना का एक मुख्य कारण बना। इस घोटाले ने व्यापक व्यापार जगत को भी प्रभावित किया जिसके परिणाम स्वरूप आर्थर एंडरसन लेखांकन फर्म का विघटन हुआ। 2001 के उत्तरार्ध में एनरॉन ने न्यूयॉर्क के सदर्न डिस्ट्रिक्ट में दिवालियापन संरक्षण मुकदमा दायर करवाया और अपने दिवालियेपन के वकीलों के रूप में वेइल, गॉट्शल एंड मैन्जेस को चुना। अमेरिका के इतिहास में एक सबसे बड़ा और सबसे जटिल दिवालियापन मुकदमा चलने के बाद, वह पुनर्गठन की एक न्यायालय-अनुमोदित योजना के अनुसार, नवंबर 2004 में दिवालियापन से उभरी.

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एबीबी एसिया ब्राउन बॉवेरी

ए॰बी॰बी, पूरा नाम ए॰एस॰ई॰ए ब्राउन बॉवेरी, मुख्यतः ऊर्जा और स्वचालन के क्षेत्रों में काम करने वाला एक स्विस-स्वीडिश बहुराष्ट्रीय निगम है। इसका मुख्यालय ज़्यूरिख़, स्विटज़रलैंड में है। एबीबी दुनिया की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग कंपनियों तथा सबसे बड़ी सामूहिक कंपनियों में से एक है। एबीबी विश्व के लगभग 100 देशों में कार्यरत है और इसमें तकरीबन 117,000 कर्मचारियों काम करते हैं। एबीबी ज़्यूरिक के सिक्स स्विस एक्सचेंज में, स्वीडेन के स्टॉकहोम स्टॉक एक्सचेंज में, तथा अमेरिका के न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध है। .

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एसिटिक अम्ल

शुक्ताम्ल (एसिटिक अम्ल) CH3COOH जिसे एथेनोइक अम्ल के नाम से भी जाना जाता है, एक कार्बनिक अम्ल है जिसकी वजह से सिरका में खट्टा स्वाद और तीखी खुशबू आती है। यह इस मामले में एक कमज़ोर अम्ल है कि इसके जलीय विलयन में यह अम्ल केवल आंशिक रूप से विभाजित होता है। शुद्ध, जल रहित एसिटिक अम्ल (ठंडा एसिटिक अम्ल) एक रंगहीन तरल होता है, जो वातावरण (हाइग्रोस्कोपी) से जल सोख लेता है और 16.5 °C (62 °F) पर जमकर एक रंगहीन क्रिस्टलीय ठोस में बदल जाता है। शुद्ध अम्ल और उसका सघन विलयन खतरनाक संक्षारक होते हैं। एसिटिक अम्ल एक सरलतम कार्बोक्जिलिक अम्ल है। ये एक महत्वपूर्ण रासायनिक अभिकर्मक और औद्योगिक रसायन है, जिसे मुख्य रूप से शीतल पेय की बोतलों के लिए पोलिइथाइलीन टेरिफ्थेलेट; फोटोग्राफिक फिल्म के लिए सेलूलोज़ एसिटेट, लकड़ी के गोंद के लिए पोलिविनाइल एसिटेट और सिन्थेटिक फाइबर और कपड़े बनाने के काम में लिया जाता है। घरों में इसके तरल विलयन का उपयोग अक्सर एक डिस्केलिंग एजेंट के तौर पर किया जाता है। खाद्य उद्योग में एसिटिक अम्ल का उपयोग खाद्य संकलनी कोड E260 के तहत एक एसिडिटी नियामक और एक मसाले के तौर पर किया जाता है। एसिटिक अम्ल की वैश्विक मांग क़रीब 6.5 मिलियन टन प्रतिवर्ष (Mt/a) है, जिसमें से क़रीब 1.5 Mt/a प्रतिवर्ष पुनर्प्रयोग या रिसाइक्लिंग द्वारा और शेष पेट्रोरसायन फीडस्टोक्स या जैविक स्रोतों से बनाया जाता है। स्वाभाविक किण्वन द्वारा उत्पादित जलमिश्रित एसिटिक अम्ल को सिरका कहा जाता है। .

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एक्स किरण नलिका

सन् १९१७ के आसपास बनी कूलिज की एक्सरे-नलिका; गरम कैथोड बाएँ तरफ है तथा एनोड दाँयी तरफ है। एक्सरे, नीचे की तरफ निकलती है। उस निर्वात नलिका को एक्स किरण नलिका या 'एक्सरे ट्यूब' (X-ray tube) कहते हैं जो एक्स किरण उत्पन्न करती है। एक्सरे नलिकाओं का विकास क्रुक्स की नलिका से हुआ जिससे सर्वप्रथमेक्सरे खोजा गया था। इन नलिकाओं से प्राप्त एक्स किरणों के अनेक उपयोग हैं, जैसे- रेडियोग्राफी, कैट (CAT) स्कैनर, हवाई-अड्डों के सामान-स्कैनर, एक्सरे-क्रिस्टलोग्राफी आदि। .

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ऐशबोर्न

ऐशबोर्न (Ashbourne), इंग्लैंड के डर्बीशयर का एक नगर है, जो डर्बी से २० किमी उत्तर-पश्चिम में स्थित है। यह दो छोटी घाटियों के बीच में बसा है और कृषि-व्यापार का अच्छा केंद्र है। संकर्षा (कॉर्सेट) बनाना यहाँ की विशेषता है। धातुओं से यहाँ बर्तन भी बनाए जाते हैं। .

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झांझ

झांझ (Cymbal) एक वाद्य यन्त्र है। गोलाकार समतल या उत्तलाकार धातु की तश्तरी जैसा ताल वाद्य, जिसे ढोल बजाने की लकड़ी से या इसके जोड़े को एक-दूसरे से रगड़ते हुए टकराकर बजाया जाता है। तांबे, कलई (टीन) और कभी-कभी जस्ते के मिश्रण से बने दो चक्राकार चपटे टुकड़ों के मध्य भाग में छेद होता है। मध्य भाग के गड्ढे के छेद में डोरी लगी रहती है। डोरी में लगे कपड़ों के गुटकों को हाथ में पकड़कर परस्पर आघात करके वादन किया जाता है। यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है। यह प्रसिद्ध लोकवाद्य हॅ। कुछ क्षेत्रों में इसे करताल भी कहते हैं। हालांकि करताल तत, काँसा अथवा पीतलनिर्मित झाँझ का एक छोटा संस्करण है। .

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डच इस्ट इंडिया कंपनी

वेरऐनिख़्डे ऑव्स्टिडिस्ख़े कोम्पाख़्नी, वीओसी (डच: Verenigde Oostindische Compagnie, VOC) या अंग्रेज़ीकरण यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी नीदरलैंड की एक व्यापारिक कंपनी है जिसकी स्थापना 1602 में की गई और इसे 21 वर्षों तक मनमाने रूप से व्यापार करने की छूट दी गई। भारत आने वाली यह सब से पहली यूरोपीय कंपनी थी। .

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डायनेमो

"डायनेमो इलेक्ट्रिक मशीन" (अंतिम दृश्य, आंशिक रूप से भाग, 1) एक डायनेमो (ग्रीक शब्द डायनामिस से व्युत्पन्न हुआ है; इसका अर्थ है पावर या शक्ति), मूल रूप से विद्युत जनरेटर का दूसरा नाम है। आमतौर पर इसका तात्पर्य एक जनरेटर या जनित्र से होता है जो कम्यूटेटर के उपयोग से दिष्ट धारा (direct current) उत्पन्न करता है। डायनेमो पहले विद्युत जनरेटर थे जो उद्योग के लिए विद्युत शक्ति के उत्पादन में सक्षम थे। डायनेमो के सिद्धांत के आधार पर ही बाद में कई अन्य विद्युत उत्पादन करने वाले रूपांतरक उपकरणों का विकास हुआ, जिसमें विद्युत मोटर, प्रत्यावर्ती धारा जनित्र और रोटरी कन्वर्टर शामिल हैं। वर्तमान समय में विद्युत उत्पादन के लिए इनका उपयोग कभी कभी ही किया जाता है, क्योंकि आज प्रत्यावर्ती धारा का प्रभुत्व बढ़ गया है, कम्यूटेटर उतना लाभकारी नहीं रहा और ठोस अवस्था विधियों का उपयोग करके प्रत्यावर्ती धारा (alternating current) को आसानी से दिष्ट धारा में रूपान्तरित किया जा सकता है। आज भी किसी-किसी स्थिति में 'डायनेमो' शब्द का उपयोग जनरेटर के लिए कई स्थानों पर किया जाता है। एक छोटा विद्युत जनरेटर, जिसे रोशनी पैदा करने के लिए साइकल के पहिये के हब में बनाया जाता है, 'हब डायनेमो' कहलाता है, हालांकि ये हमेशा प्रत्यावर्ती धारा उपकरण होते हैं। .

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ढलाई

ढलाई में उपयोग में आने वाला एक रेत का साँचा ढलाई (Casting) एक प्रकार की विनिर्माण प्रक्रिया है जो प्राचीन काल से प्रचलित है। इस प्रक्रिया में पिघले हुए धातु, मिश्र धातु, प्लास्टिक अथवा किसी जम सकने वाले द्रव को एक साँचे में डाला जाता है ताकि ठंडा हो जाने पर वह साँचे का आकार ले सके। थंडा हो जाने के बाद द्रव ठोस हो जाता है और साँचे का आकार ले लेता है। इस ठोस पदार्थ को या तो साँचे से सरका कर अथवा साँचे को तोड़ कर बाहर निकाला जाता है। इस प्रक्रिया को ६००० वर्ष पुराना माना जाता है। .

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ढ़लाई (धातुकर्म)

ढ़लाई की क्रिया का योजनात्मक चित्र ढ़लाई के एक आधुनिक मशीन में रक्त-तप्त धातु जाते हुए धातुकर्म में, ढ़लाई या रोलिंग धातुओं के रूपान्तरण की वह विधि है जिसमें धातु को दो बेलनाकार रोलरों के बीच से होकर गुजारा जाता है और दोनो रोलर धातु को दबाते हैं। .

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तनुफिल्म

किसी पदार्थ की उस परत को तनुफिल्म या पतली परत (thin film), कहते हैं जिसकी मोटाई १ नैनोमीटर के कुछ भाग से लेकर कुछ माइक्रॉन तक हो। तनुफिल्म का संश्लेषण एक मूलभूत प्रक्रम है और अनेक कामों के लिये उपयोग में लाया जाता है। उदाहरण के लिये, घरों में उपयोग में आने वाले दर्पण के पीछे धातु की एक पतली परत होती है जो प्रकाश का परावर्तन करती है (और प्रतिबिम्ब बनाती है।)। श्रेणी:तनुफिल्म.

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तन्त्र

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित तंत्र या प्रणाली या सिस्टम के बारे में तंत्र (सिस्टम) देखें। ---- तन्त्र कलाएं (ऊपर से, दक्षिणावर्त): हिन्दू तांत्रिक देवता, बौद्ध तान्त्रिक देवता, जैन तान्त्रिक चित्र, कुण्डलिनी चक्र, एक यंत्र एवं ११वीं शताब्दी का सैछो (तेन्दाई तंत्र परम्परा का संस्थापक तन्त्र, परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। तन्त्र-परम्परा एक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा तो है ही, जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा तथा जापान की शिन्तो परम्परा में पायी जाती है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहते हैं। हिन्दू परम्परा में तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सम्प्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं। बौद्ध धर्म का वज्रयान सम्प्रदाय अपने तन्त्र-सम्बन्धी विचारों, कर्मकाण्डों और साहित्य के लिये प्रसिद्ध है। तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र”। जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है। तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है जिसका विकास प्रथम सहस्राब्दी के मध्य के आसपास हुआ। साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्राचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं। यूरोपीय विद्वानों ने अपने उपनिवीशवादी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए तन्त्र को 'गूढ़ साधना' (esoteric practice) या 'साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड' बताकर भटकाने की कोशिश की है। वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कहे गये हैं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है। इसका प्रमाण हिन्दू, बौद्ध, जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं। .

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तरण ताल

बैकयार्ड तरण ताल नेवादा, लास वेगास, संयुक्त राज्य अमेरिका में छत के ऊपर बने एक तरण ताल का ऊपर से दृश्य तरण ताल, या स्वीमिंग पूल, तैराकी या जल-आधारित मनोरंजन के इरादे से पानी से भरे एक स्थान को कहते हैं। इसके कई मानक आकार हैं; ओलंपिक-आकार का स्विमिंग पूल सबसे बड़ा और सबसे गहरा होता है। पूल को जमीन से ऊपर या जमीन पर धातु, प्लास्टिक, फाइबरग्लास या कंक्रीट जैसी सामग्रियों से बनाया जा सकता है। जिस पूल को कई लोगों द्वारा या आम जनता के द्वारा उपयोग किया जा सकता है उसे पब्लिक पूल कहते हैं, जबकि विशेष रूप से कुछ लोगों द्वारा या किसी घर में इस्तेमाल किये जाने वाले पूल को प्राइवेट पूल कहा जाता है। कई हेल्थ क्लबों, स्वास्थ्य केन्द्रों और निजी क्लबों में सार्वजनिक पूल होते हैं जिन्हें ज्यादातर व्यायाम के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कई होटलों और मसाज पार्लरों में तनाव से मुक्ति के लिए सार्वजनिक पूल मौजूद होते हैं। हॉट टब और स्पा ऐसे पूल होते हैं जिसमें गर्म पानी होता है जिसे तनाव मुक्ति या चिकित्सा के लिए इस्तेमाल किया जाता है और ये घरों, क्लबों एवं मसाज पार्लरों में आम तौर पर मौजूद होते हैं। स्विमिंग पूल (तरण ताल) का उपयोग ग़ोताख़ोरी (डाइविंग) और पानी के अन्य खेलों के साथ-साथ लाइफगार्ड्स और अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण में भी होता है। स्विमिंग पूलों में बैक्टीरिया, वायरस, शैवाल और कीट लार्वा के विकास और प्रसार को रोकने के लिए अक्सर रासायनिक कीटाणुनाशकों जैसे कि क्लोरीन, ब्रोमिन या खनिज सैनिटाइजर्स और अतिरिक्त फिल्टरों का उपयोग किया जाता है। वैकल्पिक रूप से पूल कीटाणुनाशकों के बगैर अतिरिक्त कार्बन फिल्टरों और यूवी कीटाणुशोधन के साथ बायोफ़िल्टर का इस्तेमाल कर तैयार किये जा सकते हैं। दोनों ही मामलों में तालों (पूल) में एक उचित प्रवाह दर को बनाये रखना आवश्यकता होता है। .

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तापयुग्म

डिजिटल मल्टीमीटर से जुड़ा एक तापयुगम: कमरे का ताप सीधे डिग्री सेल्सियस में प्रदर्शित कर रहा है। दो भिन्न धातुओं के जोड़ (junction) को तापयुग्म (thermocouple) कहते हैं। यह जंक्शन जितना ही अधिक ताप पर होता है उन दो धातुओं के खुले सिरों के बीच उतना ही अधिक विभवान्तर प्राप्त होता है। यही इसके कार्य करने का आधारभूत सिद्धान्त है। तापमापन एवं ताप नियंत्रण के लिये इसका खूब प्रयोग किया जाता है। इसका उपयोग उष्मा को विद्युत उर्जा में बदलने के लिये भी किया जा सकता है। तापयुग्म बहुत सस्ते होते है। ये विस्तृत परास (रेंज) के ताप मापने के लिये उपयुक्त हैं। इनके द्वारा लगभग १ डिग्री सेल्सियस तक परिशुद्धता से ताप मापा जा सकता है। .

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तापायनिक उत्सर्जन

कम दाब वाले मर्करी गैस डिस्चार्ज लैम्प के तंतु (फिलामेंट) का पास से दृष्य; इसके केंद्रीय भाग पर तापायनिक उत्सर्जन में सहायता करने वाली सफेद रंग की लेप (कोटिंग) दिख रही है। '''डायोड ट्यूब में एडिशन प्रभाव''': डायोड नलिका को दो अलग-अलग प्रकार से जोड़ा गया है। द्रष्टव्य है कि एक स्थिति में तो प्लेट में धारा बह रही है जबकि दूसरी स्थिति में नहीं। इस चित्र में तीर का निशान एलेक्ट्रॉन-धारा की दिशा बता रहे हैं, न कि पारम्परिक धारा की दिशा अधिक ताप के कारण उत्पन्न आवेश-वाहकों (जैसे एलेक्ट्रॉन) का किसी सतह से या किसी स्थितिज-ऊर्जा बैरियर के विरुद्ध प्रवाह तापायनिक उत्सर्जन (Thermionic emission) कहलाता है। .

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तापविद्युत प्रभाव

तापविद्युत का मापन तापविद्युत् (thermoelectricity) वह विद्युत है जो दो असमान धातुओं के तारों की संधि को गर्म करने पर इन तारों के परिपथ में प्रवाहित होने लगती है। इस तथ्य को सर्वप्रथम सीबेक (Seebeck) ने सन् 1821 में ताँबे एवं बिस्मथ के तारों की संधि को गर्म कर आविष्कृत किया। उपर्युक्त परिपथ में उत्पन्न विद्युतवाहक बल (Electromotive force) न्यून होता है और इसकी तीव्रता निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है-.

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तारकसी

तारकसी कला का मात्र केंद्र भरत के मैनपुर राज्य में है। तारकसी एक काष्ठकला है। पूरी दुनिया में तारकसी कला का मैनपुरी ही एक मात्र केंद्र है। तारकसी लकड़ी पर की जाने वाली एक तरह की नक्काशी है जो धातु के तारों से की जाती है। इसके लिए लकड़ी को खास तरह से तैयार किया जाता है जो एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है। शीशम की लकड़ी अधिक मजबूत होती है इसलिए इस लकड़ी का हमारे दैनिक कार्यों में सबसे अधिक प्रयोग है। .

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थैलियम

थैलियम (Thallium) एक रासायनिक तत्त्व है। यह आवर्त सारणी के तृतीय मुख्य समूह का अंतिम तत्व है। इसके दो स्थिर समस्थानिक प्राप्त हैं, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ २०३ एवं २०५ हैं। इसके अतिरिक्त इसके नौ अस्थिर समस्थानिक ज्ञात हैं। इनकी द्रव्यमान संख्याएँ १९९, २००, २०२, २०४, २०६, २०७, २०८, २०९ और २१० हैं। इनमें कुछ रेडियधर्मी अयस्कों में मिलते हैं और कुछ कृत्रिम साधनों द्वारा उपलब्ध हैं। इस तत्व की खोज अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम क्रुक्स ने १८६१ ईo में एक विशेष सेलेनियम युक्त पायराइट (seleniferous pyrite) में वर्णक्रममापी (spectroscopic) उपकरण द्वारा की। उन्होंने भूर्जित (roasted) अयस्क की धूल के वर्णक्रममापी निरीक्षण में एक हल्के हरे रंग की रेखा देखी, जिसके कारण इस तत्व का नाम थैलियम रखा। इस तत्व को लैमी (Lamy) ने सर्वप्रथम पृथक् कर इसके गुणधर्म का निरीक्षण किया। अनेक पायराइट अयस्कों में थैलियम न्यून मात्रा में वर्तमान रहता है। केवल क्रुसाइट (Crookesite) नामक अयस्क में यह १७% मात्रा में उपस्थित रहता है। सामान्यत: यह कुछ अयस्कों की चिमनी (flue) धूल, या सल्फ्यूरिक अम्ल बनते समय प्रकोष्ठ कीच (chamber mud), से निकाला जाता है। कीच को उबलते जल से उपचारित करने पर थैलियम सल्फेट का विलयन बन जाता है, जिसे छानकर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा क्लोराइड में परिवर्तित करते हैं। क्लोराइड को फिर सल्फ्यूरिक अम्ल की क्रिया द्वारा सल्फेट में परिणत करने से अन्य अपद्रव्य दूर हो जाते हैं। उबलते जल की क्रिया से केवल थैलियम सल्फेट ही घुलता है। विलयन के विद्युद्विश्लेषण अथवा यशद धातु की प्रक्रिया द्वारा थैलियम धातु मिलती है। .

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दुर्लभ मृदा तत्व

विरल मृदा या 'दुर्लभ मृदा धातुएँ' (रेअर अर्थ एलिमेण्ट्स) धातुओं के उन क्षारक ऑक्साइडों को कहते हैं जिनके तत्वों के आवर्त सारणी के तृतीय समूह में आते हैं। इनमें 15 तत्व हैं, जिनकी परमाणुसंख्या 57 और 71 के बीच है। ये ऐसे खनिजों में पाए जाते हैं जो कहीं कहीं ही और वह भी बड़ी अल्पमात्रा में ही, पाए जाते हैं। ऐसे खनिज स्कैंडिनेविया, साइबेरिया, ग्रीनलैंड, ब्राज़िल, भारत, श्रीलंका, कैरोलिना, फ्लोरिडा, आइडाहो आदि देशों में मिलते हैं। खनिजों से विरल मृदा का पृथक्करण कठिन, परिश्रमसाध्य और व्ययसाध्य होता है। अत: ये बहुत महँगे बिकते हैं। इस कारण इनका अध्ययन विस्तार से नहीं हो सका है। 1887 ई. में क्रूक्स (Crookes) इस परिणग पर पहुँचे थे कि विरल मृदा के तत्व वस्तुत: कई तत्वों के मिश्रण हैं। एक्स-रे वर्णपट के अध्ययन से ही इनके संबंध में निश्चित ज्ञान प्राप्त किया जा सका है। इनके नाम में लगा 'दुर्लभ मृदा' अब गलत माना जाने लगा है क्योंकि अब ज्ञात हो चुका है कि ये न तो 'दुर्लभ' हैं और न ही ये 'मृदा' (earths) हैं। भूगर्भ में ये अपेक्षाकृत 'अच्छी-खासी' मात्रा में पाये जाते हैं। यहाँ तक कि सिरियम (Ceriun), जो इस समूह का ही सदस्य है, २५वाँ सर्वाधिक पाया जाने वाला तत्व है। अर्थात यह लगभग ताँबा के समान ही पर्याप्त मात्रा में भूगर्भ में मौजूद है। हाँ, एक बात सत्य है कि भूगर्भ में ये एक जगह पर अधिक मात्रा में नहीं पाये जाते बल्कि थोड़ी-थोडी मात्रा में 'बिखरे' पड़े हैं। इस कारण इनका खनन और प्राप्ति आर्थिक रूप से महंगा है। सबसे पहले गैडोलिनाइट (gadolinite) नामक खनिज में ये पाये गये थे जो सिरियम, यिट्रियम, लोहा, सिलिकन और अन्य तत्वों का यौगिक था। यह खनिज स्वीडेन के येट्टरबी (Ytterby) नामक गाँव की एक खान से निकाली गयी थी। अधिकांश दुर्लभ मृदा तत्वों के नाम इसी स्थान के नाम से व्युत्पन्न नाम हैं।; आवर्त सारणी में दुर्लभ मृदा धातुएँ .

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द्विधातु पट्टी

द्विधातु पट्टी (bimetallic strip) दो धातुओं से मिलकर निर्मित पट्टी होती है। यह ताप परिवर्तन को यांत्रिक विस्थापन में बदल देती है। इस प्रकार यह कई युक्तियों में ताप की अधिकतम मान को नियंत्रित करने के काम आती है, जैसे कपड़ा प्रेस करने वाली विद्युत इस्तरी में। इसके कार्य करने का सिद्धान्त यह है कि समान मात्रा में ताप बढ़ने पर दो भिन्न धातुओं में तापीय प्रसार अलग-अलग होता है। .

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देवता

अंकोरवाट के मन्दिर में चित्रित समुद्र मन्थन का दृश्य, जिसमें देवता और दैत्य बासुकी नाग को रस्सी बनाकर मन्दराचल की मथनी से समुद्र मथ रहे हैं। देवता, दिव् धातु, जिसका अर्थ प्रकाशमान होना है, से निकलता है। अर्थ है कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र, जो अमर और पराप्राकृतिक है और इसलिये पूजनीय है। देवता अथवा देव इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये। हिन्दू धर्म में देवताओं को या तो परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक रूप माना जाता है, या तो उन्हें ईश्वर का सगुण रूप माना जाता है। बृहदारण्य उपनिषद में एक बहुत सुन्दर संवाद है जिसमें यह प्रश्न है कि कितने देव हैं। उत्तर यह है कि वास्तव में केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ करोड़; और पूछने पर ३३३९; और पूछने पर ३३; और पूछने पर ३ और अन्त में डेढ और फिर केवल एक। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है। .

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धातु (बहुविकल्पी)

‘धातु’ शब्द सभी शास्त्रों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। धातु शब्द की व्युत्पत्ति ‘धा’ धातु में ‘तुन्’ प्रत्यय लगाने से हुआ है। व्याकरण में ‘धातु’ का अर्थ है - ‘जिससे शब्द निष्पन्न होता है’। महर्षि पाणिनि ने लगभग दो हजार धतुओं का उल्लेख किया है। भाषा का मूल बीज ‘धातु’ है। आयुर्वेद में वात-पित्त-कफ को 'धातु’ कहा गया है, जिससे समस्त जीव-शरीर का निर्माण हुआ है। आयुर्वेद में प्रयुक्त धतु को देखा नहीं जा सकता, परन्तु इनमें से किसी एक में भी विकार होते ही उसे हम अनुभव करते हैं। मनुष्य के शरीर मे ‘ओज’ को ‘धातु’ की संज्ञा दी गई है। यह शरीर के मूल बीज का घटक है जिन्हें हम सत्त्व-रज-तम भी कहते हैं। इन्हें भी नहीं देखा जा सकता परन्तु आचरण आदि में किसी एक गुण का विकास होता है इसी प्रकार वीणा की वादन क्रिया में प्रयुक्त समस्त युक्तियों का सार ‘धातु’ है। प्रबन्ध के अवयव को भी धातु कहा गया है। शास्त्रीय संगीत के सन्दर्भ में ‘धातु’ विभिन्न विशेष अर्थों में प्रयुक्त हुआ है जैसे प्रबन्ध का अवयव धातु, विविध वादनों में प्रयुक्त धातु, वाग्गेयकार के संदर्भ में धातु, वाचिक अभिनय के संदर्भ में धातु आदि। धातु शब्द 'धा' में 'तुन्' प्रत्यय जोड़ने से बना है। यह शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है-.

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धातु चद्दर

धातु को पतली समतल टुकड़ों के रूप में रूपान्तरित करना धातु चद्दर (Sheet metal) कार्य कहलाता है। .

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धातु संसूचक

अमरीकी सैनिक ईराक में धातु संसूचक के प्रयोग से हथियार आदि ढूंढते हुए धातु संसूचक से जमीन पर खोज करते हुए धातु संसूचक (अंग्रेज़ी:मेटल डिटेक्टर) का प्रयोग धातु से जुड़े सामानों का पता लगाने में किया जाता है। इसके अलावा लैंड माइंस का पता लगाने, हथियारों, बम, विस्फोटक आदि का पता लगाने जैसे कई कामों में भी किया जाता है।। हिन्दुस्तान लाइव।१६ नवंबर, २००९ एक सरलतम धातु संसूचक में एक विद्युत दोलक होता है जो प्रत्यावर्ती धारा उत्पन्न करता है। यह धारा एक तार की कुंडली में से प्रवाहित होकर अलग चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करती है। इसमें एक कुंडली का प्रयोग चुंबकीय क्षेत्र को मापने के लिए किया जाता है। चुंबकीय पदार्थ के होने पर चुंबकीय क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन के आधार पर इसको मापा जाता है। इसमें लगे माइक्रोप्रोसेसर धातु की प्रकार का पता लगाते हैं। धातु संसूचक वैद्युत चुंबकत्व के सिद्धांत पर काम करते हैं। अलग-अलग कार्यो के प्रयोग के अनुसार धातु संसूचकों की संवेदनशीलता अलग होती है। उन्नीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिक ऐसे यंत्र की खोज करने में लगे थे जिससे धातुओं को खोजा जा सके। आरंभ में धातुओं की खोज के लिए जो उपकरण बनाए गए, उनकी क्षमता सीमित थी और वह ऊर्जा का प्रयोग अधिक करते थे। ऐसे में वे हर जगह कारगर नहीं होते थे। १८८१ में ग्राहम बेल ने इस प्रकार के यंत्र की मूल खोज की थी।। समय लाइव। २ मार्च २००९। रमेश चंद्र १९३७ में जेरार्ड फिशर ने इस प्रकार की युक्ति का विकास कर धातु वेक्षक या संसूचक का अन्वेषण किया जिसमें यदि रेडियो किसी धातु को खोजने में खराब हो जाए तो उसे उसकी रेडियो आवृत्ति के आधार पर खोज सकने की क्षमता थी। वह सफल हुए और उन्होंने इसका पेटेंट करवा लिया। .

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धातु विरचना

कांसा से निर्मित वक्षरक्षक प्लेटें (उत्तर कांस्य युग) छः अक्षीय वेल्डिंग-रोबोटों द्वारा विरचना कार्य काटकर, मोड़कर तथा जोड़कर (असेम्बली करके) धातु की संरचनाएँ (स्ट्रक्चर) तैयार करना धातु विरचना (Metal fabrication) कहलाता है। .

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धातुरचना विज्ञान

धातुओं के अनेकानेक गुण सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ज्ञात किए जा सकते हैं। सूक्ष्मदर्शी द्वारा धातुपरीक्षण की इस विधि को धातु-रचना-विज्ञान (Metallography) कहते हैं। इसके द्वारा धातुओं अथवा मिश्र धातुओं की आंतरिक रचना, अथवा उनपर उष्मोपचार के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। इस कार्य के लिए जो सूक्ष्मदर्शी उपयोग में लाए जाते हैं उनका निर्माण जीवविज्ञान इत्यादि में प्रयुक्त होनेवाले सूक्ष्मदर्शियों से भिन्न होता है। धातुएँ परांध होती हैं। प्रकाश की किरणें उनमें से पार नहीं हो सकती। इसलिए यहाँ पर परावर्तन सिद्धांत का उपयोग किया जाता है, जिससे निदर्श (specimen) पर पड़नेवाली प्रकाश की किरणें परावर्तित होकर मनुष्य के नेत्र तक पहुँचती हैं। धातुओं के सूक्ष्मदर्शियों परीक्षण के लिए पहले उन्हें लगभग 1/2 इंच घनाकार टुकड़े के रूप में काट लेते हैं। इस टुकड़े को निदर्श कहते हैं। तत्पश्चात्‌ निदर्श एमरी रेगमाल (emery paper) से अच्छी तरह पालिश किया जाता है। इसके बाद पालिश चक्र पर इसे शीशे की तरह चमक दी जाती है। अब निदर्श सूक्ष्मदर्शी परीक्षण के लिए तैयार हो गया। इस रूप में इसे सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने से उसमें विद्यमान छिद्र, विजातीय पदार्थ अथवा धातुमल इत्यादि दिखलाई पड़ते हैं। फलक में पिटवां लोहे का एक सूक्ष्म आलेख (micrograph) दिखाया गया है। इसमें ग्रैफाइट के काले रेशे दिखाई दे रहे हैं। केवल पालिश की हुई सतह से धातु की आंतरिक संरचना नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए इसे किसी रासायनिक विलयन से निक्षारित (etch) किया जाता है। निक्षारण के पश्चात्‌ धातु की आंतरिक संरचना दिखाई पड़ने लगती है। फलक में पिटवाँ लोहे का निक्षारित सूक्ष्म आलेख दिखलाया गया है। अन्य चित्रों में क्रमश: मृदु तथा कठोर इस्पात की सूक्ष्म संरचना (micro-structure) देखी जा सकती है। अब धातुरचना का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है और नए नए प्रकार के सूक्ष्मदर्शी उपयोग में लाए जाने लगे हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा धातुओं की संरचना को एक लाख गुना आवर्धित किया जा सकता है। एक्सरे द्वारा भी धातुओं की आंतरिक संरचना के अध्ययन में बहुत सहायता मिली है। .

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धातुकर्म

धातुनिर्माता कारखाने में इस्पात का निर्माण दिल्ली का लौह-स्तम्भ भारतीय धातुकर्म के गौरव का साक्षी है। धातुकर्म पदार्थ विज्ञान और पदार्थ अभियांत्रिकी का एक क्षेत्र है, जिसके अंतर्गत धातुओं, उनसे बनी मिश्रधातुओं और अंतर्धात्विक यौगिकों के भौतिक और रासायनिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। .

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धूप के चश्मे

प्रत्यक्ष सूर्य के प्रकाश में धूप का चश्मा पहनना: बड़ा लेंस अच्छी सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन अगल-बगल से "अनचाहे प्रकाश" को रोकने के लिए चौड़ी बनावट वाले की ज़रूरत है। धूप के चश्मे एक प्रकार के सुरक्षात्मक नेत्र पहनावे हैं जिन्हें प्राथमिक रूप से आखों को सूरज की तेज़ रोशनी और उच्च-उर्जा वाले दृश्यमान प्रकाश के कारण होने वाली हानि या परेशानी से बचने के लिए डिजाइन किया गया है। वे कभी-कभी एक दृश्य सहायक के रूप में भी कार्य करते हैं, चूंकि विभिन्न नामों से ज्ञात चश्मे मौजूद हैं, जिनकी विशेषता यह होती है की उनका लेंस रंगीन, ध्रुवीकृत या गहरे रंग वाली होती है। 20वीं सदी के पूर्वार्ध में इन्हें सन चीटर्स के नाम से भी जाना जाता था (अमेरिकी अशिष्ट भाषा में चश्मो के लिए चीटर्स शब्द का इस्तेमाल किया जाता था).

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नाइट्रिक अम्ल

नाइट्रिक अम्ल (Nitric acid) (HNO3), एक अत्यन्त संक्षारक (कोरोसिव) खनिज अम्ल है। इसे एक्वा फ्रोटिस (aqua fortis) और 'स्पिरिट ऑफ नाइटर' भी कहते हैं। कीमियागरों को नाइट्रिक अम्ल का ज्ञान था, जिसे वे ऐक्वा फॉर्टिस के नाम से पुकारते थे। प्रसिद्ध कीमियागर जेबर ने नाइटर (niter) और ताम्र सल्फेट, (Cu SO4) तथा फिटकरी के साथ आसवन से प्राप्त कर इसका वर्णन किया है। भारत में शोरा तथा नाइट्रिक अम्ल का १६वीं शताब्दी में ज्ञान था। शुक्राचार्य के ग्रंथ शुक्रनीति में बारूद बनाने के लिए इसे उपयोग का वर्णन हुआ है। उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्रदेव द्वारा लिखित ग्रंथ 'कौतुकचिंतामणि' में यवक्षार (साल्टपीटर) का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त सुवर्णतंत्र ग्रंथ (लगभग १७वीं शताब्दी में लिखा गया) में 'शंखद्राव' का वर्णन है, जो शोरे और नमक के अम्लों (HCl) का मिश्रण था। आईने अकबरी ग्रंथ में रासी (शोरे के अम्ल) का वर्णन है, जिसका चाँदी को स्वच्छ करने में उपयोग हो सकता था। वर्ष १६४८ ई. में ग्लॉबर (Glauber) ने नाइटर पर विट्रियल तेल (oil of vitreol) की अभिक्रिया द्वारा संद्र नाइट्रिक अम्ल का निर्माण किया। कैवेंडिश ने १७७६ ई में इसका संघटन ज्ञात किया। वायुमंडल में नाइट्रिक अम्ल विद्युत विसर्जन (electric discharge) द्वारा सूक्ष्म मात्रा में बनता रहता है, जो वर्षाजल में घुलकर पृथ्वी पर आता है। मिट्टी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण द्वारा भी नाइट्रिक अम्ल बनता है। यह अम्ल अनेक नाइट्रेट पदार्थों के रूप में भूमि में संचित होकर पौधों के उपयोग में आता है। नाइट्रेट यौगिकों का प्रमुख स्रोत चिली देश है। भारत की साँभर झील में पोटासियम नाइट्रेट पाया जाता है। भारत के कुछ राज्यों में मिट्टी के साथ मिला हुआ पोटासियम नाइट्रेट पाया जाता है। इससे एक समय प्रचुर मात्रा में शोरा (व्यापारिक पोटासियम नाइट्रेट) तैयार होता था। .

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नाइट्रेट

नाइट्रेट (nitrate) कार्बन और नाइट्रोजन तत्वों का बना एक ऋणायन (निगेटिव आवेश वाला आयन) होता है। इसका रासायनिक सूत्र NO3− है। यह अमोनियम नाइट्रेट जैसे कई रासायनिक यौगिकों (कम्पाउंड) का अंश है। धातुओं अथवा उनके ऑक्साइड पर नाइट्रिक अम्ल की अभिक्रिया द्वारा उत्पन्न लवणों को नाइट्रेट कहते हैं। सामान्य ताप पर नाइट्रेट ठोस क्रिस्टल होते हैं। अधिकतर नाइट्रेट श्वेत रंग के पदार्थ हैं, परंतु कुछ जलीय नाइट्रेट (जैसे कोबाल्ट, निकेल, ताम्र नाइट्रेट) रंगीन भी होते हैं। गरम करने पर इनका विघटन हो जाता है। सामान्यत: नाइट्रेट जल में विलेय होते हैं। अनेक नाइट्रेट वायुमंडल से जलवाष्प का अवशोषण कर लेते हैं। इन्हें आर्द्रताग्राही (hygroscopic) पदार्थ कहते हैं। गरम करने पर विघटन द्वारा नाइट्रेट की कुछ मात्रा ऑक्साइड में परिवर्तित हो जाती है और उससे नाइट्रिक अम्ल मुक्त होता है। क्षारीय विलयन में नाइट्रेट का ऐल्यूमिनियम अथवा जिंक द्वारा अपचयन हो जाता है। इस क्रिया का उपयोग नाइट्रेट के मात्रात्मक परिमापनों (quantitative measurements) में किया जाता है। .

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निरुक्त

निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है। यह हिन्दू धर्म के छः वेदांगों में से एक है - इसका अर्थ: व्याख्या, व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है। परम्परागत रूप से संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है। वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। शिक्षा प्रभृत्ति छह वेदांगों में निरुक्त की गणना है। पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमुचयते" इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रमप्राप्त चतुर्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यंतर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरुक्त की जानकारी के बिना भेद वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है। काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं। .

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निर्माण सामग्री

बहुत से प्राकृतिक पदार्थ (मिट्टी, बालू, लकड़ी, चट्टानें, पत्तियाँ, आदि) निर्माण के लिये प्रयुक्त होते रहे हैं। इसके अलावा अब अनेक प्रकार के कृत्रिम या मानव-निर्मित पदार्थ भी निर्माण के लिये प्रयोग किये जाने लगे हैं; जैसे सीमेंट, इस्पात, अलुमिनियम, आदि। .

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निष्कर्षण धातुकर्मिकी

निष्कर्षण धातुकर्मिकी या निष्कर्षण धातुकर्म (Extractive metallurgy) के अन्तर्गत किसी अयस्क से धातु प्राप्त करना, उसको शुद्ध करना एवं उसकी पुनर्चक्रण (री-साइक्लिंग) करने की प्रक्रियाओं एवं उससे सम्बन्धित विषयों का अध्ययन किया जाता है। .

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निक्षारण

सैनिक और उसकी पत्नी.डैनियल हूफर की एचिंग, जिनके बारे में माना जाता है कि मुद्रण में इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाले वे पहले व्यक्ति थे धातु में बनी आकृति में एक डिजाइन तैयार करने के लिए किसी धातु की सतह के अरक्षित हिस्सों की कटाई के लिए तीव्र एसिड या मॉरडेंट का इस्तेमाल करने की प्रक्रिया को निक्षारण (etching/एचिंग) कहते हैं (यह मूल प्रक्रिया थी; आधुनिक निर्माण प्रक्रिया में अन्य प्रकार की सामग्रियों पर अन्य रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है).

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नगरपालिका ठोस अपशिष्ट

मिश्रित नगर पालिका अपशिष्ट, हिरिया, तेल अवीव नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (MSW), जिसे शहरी ठोस अपशिष्ट भी कहा जाता है, एक अपशिष्ट प्रकार है जिसमें मुख्य रूप से घर का कचरा (घरेलू अपशिष्ट) और कभी-कभी वाणिज्यिक अपशिष्ट भी शामिल होता है जिसे एक दिए गए क्षेत्र से नगरपालिका एकत्रित करती है। वे या तो ठोस रूप में होते हैं या अर्ध-ठोस रूप में और आम तौर पर इसमें औद्योगिक घातक अपशिष्ट शामिल नहीं होता.

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पत्रकारिता का इतिहास

पत्रकारिता का इतिहास, प्रौद्योगिकी और व्यापार के विकास के साथ आरम्भ हुआ। .

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पर्यावरण रसायन विज्ञान

पर्यावरण रसायन शास्त्र में इस तरह के जीव विज्ञान, विष विज्ञान, जैव रसायन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और महामारी विज्ञान के रूप में जैविक रसायन शास्त्र, विश्लेषणात्मक रसायन विज्ञान, भौतिक रसायन और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के पहलुओं, साथ ही और अधिक विविध क्षेत्रों से युक्त, रसायन शास्त्र की एक बहुत ही ध्यान केंद्रित शाखा है। पर्यावरण दवा की दुकानों सार्वजनिक, निजी और सरकारी प्रयोगशालाओं की एक किस्म में काम करते हैं। यह पर्यावरण के प्रदूषण का प्रभाव पर्यावरण, प्रदूषण में कमी और प्रबंधन के साथ संबंधित है, क्योंकि पर्यावरण रसायन शास्त्र सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पर्यावरण chemists प्रदूषण और हवा, पानी और मिट्टी के वातावरण पर उनके पर्यावरणीय प्रभाव के व्यवहार, साथ ही मानव स्वास्थ्य और प्राकृतिक पर्यावरण पर अपने प्रभाव का अध्ययन। .

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पाड़

बांस के पाड़ बहुत अधिक ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं जापान में विनियमन के तहत रखरखाव/मरम्मत के बड़े पैमाने पर आवधिक (हर 10-15 वर्ष) में सम्मिलित.ज्यादातर मामलों में पूरी इमारत को आसान काम और सुरक्षा के लिए इस्पात के मचान और जाल से ढक दिया जाता है। आम तौर पर यह योजना निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार3-5 सप्ताह तक जारी रहता है। मचान, टोक्यो स्काई ट्री निर्माण के आरंभ होने के बाद 10 महीने.i मचान एक अस्थाई ढांचा (विन्यास) है जिसका उपयोग इमारतों और अन्य बड़ी संरचनाओं के या मरम्मत में लोगों एवं सामग्रियों की सहायता के लिए किया जाता है। आमतौर पर यह धातु की पाइपों या नलियों की एक प्रमापीय प्रणाली है, हालांकि यह अन्य सामग्रियों से भी बनाया जा सकता है। चीन गणराज्य (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना) जैसे एशिया के कुछ देशों में अभी भी बांस का प्रयोग किया जाता है। पाड़ (Scaffolding या staging) भवननिर्माण में काम आनेवाली वह अस्थायी संरचना है जिसपर कामगरों तथा उनकी सामग्री को उनके काम की जगह के निकट पहुँचानेवाला मचान रखा जाता है। पाड़ का उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। प्रायः यह धातु की पाइपों या नलों से बनी होती है हालांकि यह बाँस आदि अन्य सामग्रियों से भी बनाया जा सकता है। इस अस्थायी संरचना से लगभग आठ फुट मध्यांतर पर खड़ी बल्लियाँ होती हैं, जो चार-चार पाँच-पाँच फुट की ऊँचाई पर क्षैतिज आड़ों द्वारा परस्पर संबंधित रहती हैं। एक ओर इन आड़ों पर तथा दूसरी ओर दीवार में बने छेदों पर, चार चार फुट की दूरी पर आड़ी लकड़ियाँ रखी रहती हैं, जिन्हें 'पेटियाँ' कहते हैं। लकड़ी के तख्ते, जिनकी चाली बनती है, इन्हीं पेटियों पर रखे रहते हैं। चालियाँ प्राय: पाँच पाँच फुट लंबी होती हैं। पत्थर की चिनाई के लिये खड़ी बल्लियों की दो पंक्तियाँ लगती हैं: एक दीवार से सटी हुई तथा दूसरी उससे पाँच फुट के अंतर पर। अन्य पेटियाँ दोनों सिरों पर आड़ी के ऊपर रखी रहती हैं। इस प्रकार यह पाड़ दीवार से पूर्णतया अनाश्रित होती हैं, क्योंकि पत्थर की चिनाई में नियमित अंतर पर छेद छोड़ रखना संभव नहीं। जैसे-जैसे काम आगे बढ़ता है, चालियाँ भी ऊँची उठाई जाती रहती हैं। इसके लिये यदि आवश्यकता होती है, भी अतिरिक्त टुकड़े जोड़कर बल्लियाँ लंबी कर ली जाती हैं। पाड़ में लंबाई की दिशा में स्थिरता लाने के लिये, विकर्ण पेटियाँ भी लगाई जाती हैं। बल्लियाँ, आड़ें तथा पेटियाँ परस्पर रस्सी से कसकर बाँध दी जाती हैं। कीलें, यदि कभी लगाई भी जाती हैं, तो बहुत कम। रस्सी बाँधनेवाले बंधानी विशेष कुशल होने चाहिए, क्योंकि इसमें काफी समय और कौशल लगता है। फिर भी रस्सी में सरकने, ढीली पड़ने, घिस जाने और कट जाने की संभावनाएँ रहती ही हैं। हाल में बड़े-बड़े कामों में इसके बजाय अधिक वैज्ञानिक साधन काम में आने लगे हैं। 'स्कैफिक्सर' बंधन में इस्पात की जंजीर और बंधन की कौशलपूर्ण युक्तियों का संमिश्रण होता है। इसके प्रयोग से सुरक्षा अधिक रहती है और समय कम लगता है। नलोंवाली पाड़ - यह स्वकृत पाड़ की एक अत्यंत सुधरी प्रणाली है, जिसें इस्पात के लगभग दो इंच मोटे नल स्वकृत योजकों द्वारा जोड़े जाते हैं। ऐसी पाड़ जल्दी से और आसानी से खड़ी की जा सकता तथा हटाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त, इसमें पाड़ का एक भाग दीवार में रखने के लिये छेद छोड़ने के बजाय, किसी संधि में थोड़ा सहारा दे देना ही पर्याप्त होता है। निलंबित पाड़ - इस्पात के ढाँचेवाली रचना के लिये मशीन द्वारा ऊँची नीची की जा सकनेवाली भारी निलंबित पाड़ प्राय: उपयुक्त होती है। यह ऊपर बाहुधरनों से तार के रस्सों द्वारा लटकाई जाती है। गंत्री - जहाँ रचना में लगनेवाले प्रस्तरखंड बहुत बड़े हों, जिन्हें राज आसानी से घर उठा न सकें और उत्थापक रस्साकुप्पी का प्रयोग होना हो, वहाँ मंत्री काम आती है। मंच या गंत्री चौकोर लकड़ी से उसी प्रकार बनाई जाती है, जिस प्रकार राज की पाड़; किंतु इसमें दीवार की दोनों ओर खड़े बल्लों की एक एक पंक्ति होती है। इनके ऊपर लंबी लकड़ियाँ या वाहक लगे रहते हैं, जिनपर लोहे की पटरी जड़ी रहती है। खड़े बल्लों के बीच में, उनपर आनेवाले भार तथा उनके आकार के अनुसार १० से लेकर २० फुट तक का अंतर रहता है। एक चलमंच, जिसपर उत्थापक काँटा लगा रहता है, पटरियों पर गंत्री की लंबाई के समांतर चलता है। मंच पर भी पटरियाँ जड़ी रहती है, जिनपर काँटा गंत्री की लंबाई की लंबवत् दिशा में चल सकता है। इस प्रकार गंत्री से घिरे क्षेत्र में प्रत्येक स्थान तक काँटा पहुँच सकता है। .

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पारा

साधारण ताप पर पारा द्रव रूप में होता है। पारे का अयस्क पारा या पारद (संकेत: Hg) आवर्त सारिणी के डी-ब्लॉक का अंतिम तत्व है। इसका परमाणु क्रमांक ८० है। इसके सात स्थिर समस्थानिक ज्ञात हैं, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ १९६, १९८, १९९, २००, २०१, २०२ और २०४ हैं। इनके अतिरिक्त तीन अस्थिर समस्थानिक, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ १९५, १९७ तथा २०५ हैं, कृत्रिम साधनों से निर्मित किए गए हैं। रासायनिक जगत् में केवल यही धातु साधारण ताप और दाब पर द्रव रूप होती है। .

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पुनर्चक्रण

पुनरावर्तन में संभावित उपयोग में आने वाली सामग्रियों के अपशिष्ट की रोकथाम कर नए उत्पादों में संसाधित करने की प्रक्रिया ताजे कच्चे मालों के उपभोग को कम करने के लिए, उर्जा के उपयोग को घटाने के लिए वायु-प्रदूषण को कम करने के लिए (भस्मीकरण से) तथा जल प्रदूषण (कचरों से जमीन की भराई से) पारंपरिक अपशिष्ट के निपटान की आवश्यकता को कम करने के लिए, तथा अप्रयुक्त विशुद्ध उत्पाद की तुलना में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए पुनरावर्तन में प्रयुक्त पदार्थों को नए उत्पादों में प्रसंस्करण की प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। पुनरावर्तन आधुनिक अपशिष्ट को कम करने में प्रमुख तथा अपशिष्ट को "कम करने, पुनः प्रयोग करने, पुनरावर्तन करने" की क्रम परम्परा का तीसरा घटक है। पुनरावर्तनीय पदार्थों में कई किस्म के कांच, कागज, धातु, प्लास्टिक, कपड़े, एवं इलेक्ट्रॉनिक्स शामिल हैं। हालांकि प्रभाव में एक जैसा ही लेकिन आमतौर पर जैविक विकृतियों के अपशेष से खाद बनाने अथवा अन्य पुनः उपयोग में लाने - जैसे कि भोजन (पके अन्न) तथा बाग़-बगीचों के कचरों को पुनरावर्तन के लायक नहीं समझा जाता है। पुनरावर्तनीय सामग्रियों को या तो किसी संग्रह शाला में लाया जाता है अथवा उच्छिस्ट स्थान से ही उठा लिया जाता है, तब उन्हें नए पदार्थों में उत्पादन के लिए छंटाई, सफाई तथा पुनर्विनीकरण की जाती है। सही मायने में, पदार्थ के पुनरावर्तन से उसी सामग्री की ताजा आपूर्ति होगी, उदाहरणार्थ, इस्तेमाल में आ चुका कागज़ और अधिक कागज़ उत्पादित करेगा, अथवा इस्तेमाल में आ चुका फोम पोलीस्टाइरीन से अधिक पोलीस्टाइरीन पैदा होगा। हालांकि, यह कभी-कभार या तो कठिन अथवा काफी खर्चीला हो जाता है (दूसरे कच्चे मालों अथवा अन्य संसाधनों से उसी उत्पाद को उत्पन्न करने की तुलना में), इसीलिए कई उत्पादों अथवा सामग्रियों के पुनरावर्तन में अन्य सामग्रियों के उत्पादन में (जैसे कि कागज़ के बोर्ड बनाने में) बदले में उनकें ही अपने ही पुनः उपयोग शामिल हैं। पुनरावर्तन का एक और दूसरा तरीका मिश्र उत्पादों से, बचे हुए माल को या तो उनकी निजी कीमत के कारण (उदाहरणार्थ गाड़ियों की बैटरी से शीशा, या कंप्यूटर के उपकरणों में सोना), अथवा उनकी जोखिमी गुणवत्ता के कारण (जैसे कि, अनेक वस्तुओं से पारे को अलग निकालकर उसे पुनर्व्यव्हार में लाना) फिर से उबारकर व्यवहार योग्य बनाना है। पुनरावर्तन की प्रक्रिया में आई लागत के कारण आलोचकों में निवल आर्थिक और पर्यावरणीय लाभों को लेकर मतभेद हैं और उनके सुझाव के अनुसार पुनरावर्तन के प्रस्तावक पदार्थों को और भी बदतर बना देते हैं तथा अनुभोदन एवं पुष्टिकरण के पक्षपातपूर्ण पूर्वग्रह झेलना पड़ता है। विशेषरूप से, आलोचकों का इस मामले में तर्क है कि संग्रहीकरण एवं ढुलाई में लगने वाली लागत एवं उर्जा उत्पादन कि प्रक्रिया में बचाई गई लागत और उर्जा से घट जाती (तथा भारी पड़ जाती हैं) और साथ ही यह भी कि पुनरावर्त के उद्योग में उत्पन्न नौकरियां लकड़ी उद्योग, खदान एवं अन्य मौलिक उत्पादनों से जुड़े उद्योगों की नौकरियां को निकृष्ट सकझा जाती है; और सामग्रियों जैसे कि कागज़ की लुग्दी आदि का पुनरावर्तक सामग्री के अपकर्षण से कुछ ही बार पहले हो सकता है जो और आगे पुनरावर्तन के लिए बाधक हैं। पुनरावर्तन के प्रस्तावकों के ऐसे प्रत्येक दावे में विवाद है और इस संदर्भ में दोनों ही पक्षों से तर्क की प्रामाणिकता ने लम्बे विवाद को जन्म दिया है। .

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प्रलाक्ष

प्रलाक्ष संचिका (मिंग वंश, १६वीं शताब्दी) सामान्य अर्थों में प्रलाक्ष (lacquer) वह पदार्थ है जिसका व्यवहार धातु या काठ के तलों पर लेप चढ़ाने में होता है। लेप चढ़ाने का उद्देश्य तल का संरक्षण, या उसे आकर्षक बनाना, होता है। अंग्रेजी शब्द 'लैकर' (lacquer) संस्कृत के 'लक्ष' शब्द से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ 'लाख' होता है जो एक कीड़ा व उसके द्वारा स्रावित तरल पदार्थ को कहते हैं। ('लक्ष' का अर्थ १००००० भी होता है।) प्राचीन भारत में लाख का प्रयोग लकड़ी की सतह को चमकाने के लिए किया जाता था। .

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प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-.

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प्राकृतिक संसाधन

Marquesas Islands) प्राकृतिक संसाधन वो प्राकृतिक पदार्थ हैं जो अपने अपक्षक्रित (?) मूल प्राकृतिक रूप में मूल्यवान माने जाते हैं। एक प्राकृतिक संसाधन का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है की कितना पदार्थ उपलब्ध है और उसकी माँग (demand) कितनी है। प्राकृतिक संसाधन दो तरह के होते हैं-.

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प्रगलन

फॉस्फेट प्रगलन के लिये प्रयुक्त विद्युत भट्ठी (टीवीए केमिकल प्लाण्ट, १९४२) प्रगलन (Smelting) एक प्रकार की निष्कर्षण धातुकर्मिकी है। अयस्क से धातु बनाने के लिये मुख्यतः इसका उपयोग किया जाता है। चाँदी, लोहा, ताँबा आदि इस विधि से निर्मित होते हैं। प्रगलन की तकनीक आज से कोई आठ हजार वर्ष पूर्व से उपयोग में लायी जा रही है। फिर भी प्रगलन को एक उच्च तकनीकी उपलब्धि माना जाता है। प्रगलन की प्रक्रिया में भूनना (रोस्टिंग), अपचयन तथा गन्दगी को फ्लक्स के रूप में धातु से अलग करना शामिल है। अयस्क के प्रगलन के फलस्वरूप धातु प्राप्त होती है वह तत्त्व के रूप में होती है या धातु के सरल यौगिक के रूप में। प्रायः अयस्क को किसी आक्सीकारक (जैसे वायु) या किसी अपचयक (जैसे कोक) की उपस्थिति में गलनांक से अधिक ताप तक गरम किया जाता है। अनुमान किया जाता है कि सबसे पहले ताँबे का प्रगलन ५००० ईसापूर्व किया गया था। उसके बाद टिन, सीसा और चाँदी का प्रगलन हुआ। चूँकि प्रगलन के लिये उच्च ताप (गलनांक से अधिक ताप) की आवश्यकता होती है, इसके लिये भट्टियों में तेज वायु का झोंका (प्रवात/draught) भेजा जाता है। ईँधन एके रूप में चारकोल का उपयोग किया जाता था जो १८वीं शताब्दी में कोक के आने तक जारी था। आज वात्या भट्ठी (ब्लास्ट फरनेस) इस काम को अत्यन्त दक्षतापूर्वक करती है। अलग-अलग धातुओं के लिये प्रगलन की प्रक्रिया में बहुत कुछ भिन्नता होती है। श्रेणी:धातुकर्म.

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प्रकाश-विद्युत प्रभाव

किसी धातु के प्लेट से एलेक्ट्रानों का उत्सर्जन प्रकाशविद्युत प्रभाव का अध्ययन करने के लिये प्रयोग। इसमें प्रकाश स्रोत एक पतली आवृत्ति बैण्ड वाला (लगभग एकवर्णी) लेते हैं। इस प्रकाश को कैथोड पर डालते हैं जो निर्वात में स्थित है। एनोड और कैथोड के बीच विभवान्तर से यह निर्धारित हो जाता है कि कैथोड से उत्सर्जित वे ही इलेक्ट्रान एनोड तक आ पायेंगे जिनके पास निकलते समय eV से अधिक गतिज ऊर्जा होगी। धारा की मात्रा (μA), प्राप्त इलेक्ट्रानों की संख्या के समानुपाती होगी। जब कोई पदार्थ (धातु एवं अधातु ठोस, द्रव एवं गैसें) किसी विद्युतचुम्बकीय विकिरण (जैसे एक्स-रे, दृष्य प्रकाश आदि) से उर्जा शोषित करने के बाद इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित करता है तो इसे प्रकाश विद्युत प्रभाव (photoelectric effect) कहते हैं। इस क्रिया में जो एलेक्ट्रान निकलते हैं उन्हें "प्रकाश-इलेक्ट्रॉन" (photoelectrons) कहते हैं। सन 1887 मे एच.

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प्लास्टिक पुनर्चक्रण

प्लास्टिक रीसाइक्लिंग रद्दी या बेकार प्लास्टिक उत्पादों को पुनः प्राप्त करने तथा इस सामग्री को फिर से ऐसे उपयोगी उत्पादों में बदलने की प्रक्रिया है, जो कई बार अपनी मूल अवस्था से बिलकुल अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, शीतल पेय पदार्थ की प्लास्टिक की बोतलों को पिघला कर उन्हें प्लास्टिक की कुर्सियों या मेजों के रूप में ढाला जा सकता है। आमतौर पर एक प्लास्टिक का पुनर्नवीनीकरण (रीसाइक्लिंग) समान प्रकार के प्लास्टिक में नहीं किया जाता और पुनर्नवीनीकरण (रीसाइक्लिंग) प्रक्रिया से प्राप्त प्लास्टिक से बने उत्पाद फिर से रीसाइक्लिंग के योग्य नहीं होते.

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पृथ्वी का इतिहास

पृथ्वी के इतिहास के युगों की सापेक्ष लंबाइयां प्रदर्शित करने वाले, भूगर्भीय घड़ी नामक एक चित्र में डाला गया भूवैज्ञानिक समय. पृथ्वी का इतिहास 4.6 बिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी ग्रह के निर्माण से लेकर आज तक के इसके विकास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं और बुनियादी चरणों का वर्णन करता है। प्राकृतिक विज्ञान की लगभग सभी शाखाओं ने पृथ्वी के इतिहास की प्रमुख घटनाओं को स्पष्ट करने में अपना योगदान दिया है। पृथ्वी की आयु ब्रह्माण्ड की आयु की लगभग एक-तिहाई है। उस काल-खण्ड के दौरान व्यापक भूगर्भीय तथा जैविक परिवर्तन हुए हैं। .

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पेंच

आवश्यकतानुसार पेंच विभिन्न आकार-प्रकार के बनाये जाते हैं पेंच (स्क्रू) या बोल्ट एक प्रकार की यांत्रिक युक्ति है जो दो भागों को परस्पर कसने (fastening) के काम आती है। यह किसी धातु के बेलनाकार दण्ड पर वर्तुलाकार (हेलिकल) चूड़ियाँ (थ्रेड्स) काटकर बनायी जाती है। आमतौर पर पेंचों का एक शीर्ष होता है, यह पेंच के एक सिरे पर विशेष रूप से गठित अनुभाग है। पेंच को शीर्ष से ही घुमाया या कसा जाता है। पेचों को कसने के लिए पेंचकस एवं पाना जैसे औजारों का प्रयोग किया जाता है। अधिकतर पेंच दक्षिणावर्त घूर्णन के द्वारा कसे जाते हैं। इन पेंचों को दक्षिणावर्त चूडियों वाला कहा जाता है। वामावर्त चूडियों वाले पेंचों को विशिष्ट स्थिति में प्रयोग किया जाता है। साइकिल के बाएं पाद में वामावर्त चूड़ी वाले पेंच का प्रयोग किया जाता है। .

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फ़र्नीचर

फर्नीचर भवनों, दुकानों, कार्यालयों आदि के अन्द्र मानव उपयोग (बैठने, सोने, आदि) में आने वाली वस्तुओं को फर्नीचर कहते हैं। इसमें कुर्सी, मेज, सोफा, पलंग आदि आदि हैं। इसके अन्तर्गत प्रायः वे चीजें नहीं आतीं जो 'अचल' हों (जैसे दीवार में जड़ी हुई आलमारी)। फर्नीचर लकड़ी, धातु, प्लास्टिक आदि से बनाये जाते हैं। .

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फास्फेट खनिज

फॉस्फेट खनिज खनिजों का एक विशाल एवं विविधापूर्ण समूह है। किन्तु इनमें से कुछ खनिज वर्ग ही अधिक पाए जाते हैं। .

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फ्रेंच वक्र

फ्रेंच वक्र (French curve) किसी धातु, लकड़ी या प्लास्टिक के बने फर्मा (template) होते हैं जिनमें तरह-तरह के वक्र होते हैं। इनका उपयोग हाथ से (कम्प्यूटर या किसी मशीन से नहीं) विभिन्न आकार वाली निष्कोण वक्र बनाने में किया जाता है।.

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फैराडे कप

फैराडे कप (Faraday cup) किसी धातु से निर्मित सुचालक कप होता है जिसे निर्वात में आवेशित कणों को एकत्र करने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। इन आवेशों के कप में गिरने के फलस्वरूप जो धारा उत्पन्न होती है उसे मापकर उससे इस कप में गिरे आवेशों (ऑयन या इलेक्ट्रानों) की संख्या ज्ञात की जा सकती है। इसका नाम माइकल फैराडे के नाम पर पड़ा है। .

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फोर्जिंग

फोर्जिंग क्रिया का एनीमेशन फोर्जिंग प्रक्रिया के पहले और बाद में उचित स्थान पर दबाव का उपयोग करते हुए धातु की प्‍लास्टिक अवस्‍था को मनचाहा आकृति देने को गढ़त या फोर्जन या फोर्जिंग (forging) कहते हैं। धातु को आकृति देना आधुनिक प्रविधि के द्वारा ग्रेन-ढांचे को परिष्‍कृत करता है; इसकी अंतनिर्हित क्षमता का विकास करता है; यांत्रिक-विशेषता को सुधारता है और ढांचागत समानता का उत्‍पादन करता है जो छिपे हुए आंतरिक दोषों से मुक्‍त करता है। फोर्जिंग विभिन्‍न प्रविधियों के द्वारा की जाती है जैसे खुले सांचे की गढ़त ओपन डाई फोर्जिंग, बंद सांचे की गढ़त क्‍लोज्‍ड डाई फोर्जिंग और सटीक गढ़त नीयर नेट आकृति/प्रीसीजन फोर्जिंग शामिल हैं। फोर्जिंग की क्रिया सामान्य ताप पर (room temperature), मामूली गर्म अवस्था में (warm) या खूब गर्म करके (hot) की जाती है। फोर्ज करके बनाये गये अवयव (हिस्से) एक किलो से भी छोटे से लेकर सैकड़ों मीट्रिक टन के हो सकते हैं। फोर्ज करके बनाये हुए अवयवों को अन्तिम रूप देने के लिये प्राय: कुछ और प्रक्रियाओं से गुजारना पड़ता है। .

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बहुमूल्य धातु

क़ीमती धातु (Precious metal) ऐसी रासयनिक धातु तत्व होती है जो प्रकृति में दुर्लभ हो और आर्थिक रूप से बहुमूल्य हो। रासायनिक दृष्टि से क़ीमती धातु अन्य तत्वों से कम अभिक्रिया (रियैक्शन) करते हैं। अन्य धातुओं की तुलना में यह अक्सर अधिक चमकीले होते हैं और अधिक मुलायम होने के कारण इन्हें खींचना या मनचाहा आकार देना भी आसान होता है। इन्हें इतिहास में मुद्रा के रूप में बहुत प्रयोग किया गया है लेकिन आधुनिक काल में इन्हें आभूषण, निवेश और औद्योगिक प्रयोगों में ज़्यादा लगाया जाता है। क़ीमती धातुओं में सोना, चाँदी, प्लैटिनम और पैलेडियम अधिक विख्यात हैं, हालांकि कई अन्य धातुएँ भी इस गुट में आती हैं। .

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ब्रेजिंग

ब्रेजिंग करता एक कारीगर ब्रेजिंग (Brazing), धातुओं को आपस में जोड़ने की एक प्रक्रिया है। इसमें भरने वाली धातु (filler metal) या मिश्रधातु को 450 °C से अधिक गरम करके जोड़े जाने वाले दो या अधिक भागों के सटे भागों में स्थित रिक्त स्थानों में भर दिया जाता है। भरने की किया केशिका क्रिया (capillary action) द्वारा सम्पन्न होती है। .

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बेरियम

बेरियम (Barium) कैल्सियम समूह का तत्व है। खनिज बेराइट इसका पहला खनिज था, जिसकी ओर सन् 1602 में बोलोन के एक चर्मकार बी.

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बेरिल

बेरिल के तरह-तरह के क्रिस्टल बैडूर्य (संस्कृत) या बेरिल (Beryl) आधुनिक युग का महत्वपूर्ण खनिज है। इससे बेरिलियम धातु निकाली जाती है, जो हलकी किंतु कठोर तथा दृढ़ होती है। अत: इसका उपयोग वायुयानों में किया जाता है। अन्य धातुओं के साथ इसकी अनेक मिश्रधातुएँ तैयार की जाती हैं, जो विद्युत्, कैमरा आदि उद्योगों में काम आती हैं। बेरिल की पारदर्शक किस्म को 'पन्ना' कहते हैं, जो एक रत्न पत्थर है तथा जिसका उपयोग आभूषणों में किया जाता है। इसका सूत्र Be3Al2(Si O3)6 है। बेरिल खनिज को क्षेत्र में सरलता से पहचाना जा सकता है। यह षट्कोणीय समुदाय में क्रिस्टलीकृत होता है तथा इसके क्रिस्टल प्रिज़्मीय होते हैं। इसका रंग नीला, हरा, या हल्का पीला होता है। कभी कभी यह सफेद रंग में भी मिलता है। इसकी टूट शंखाभ (conchoidal), कठोरता ७.५ से ८ तथा आपेक्षिक घनत्व २.७ है। बेरिल के आर्थिक निक्षेप पेग्मेटाइट शिलाओं में मिलते हैं। भारत में यह खनिज राजस्थान, झराखण्ड तथा नेलोर की पेग्मेटाइट शिलाओं से प्राप्त किया जाता है। विश्व में बेरिल उत्पादन में भारत का स्थान दूसरा है। परमाणवीय महत्व का होने के कारण इसके उत्पादन काँकडे गोपनीय हैं। .

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बेलन

भारतीय लकड़ी का बेलन विदेशी बेलन (रोलिंग पीन) बेलन भारतीय खाना बनाने में इस्तेमाल होनेवाला बर्तन है। यह प्राय: लकड़ी का ही होता है। किंतु पत्थर, धातु, प्लास्टिक इत्यादि का भी हो सकता है। इससे चकले पर रखकर रोटी को बेला जाता है। .

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भाप

सौ डिग्री सेंट्रिग्रेड से अधिक गरम किसी वस्तु पर जल डालने से अचानक भाप पैदा होता है। पानी की गैसीय अवस्था या जलवाष्प को भाप (steam) कहते हैं। शुष्क भाप अदृश्य होती है, परंतु जब भाप में जल की छोटी-छोटी बूँदें मिली होती हैं तब उसका रंग सफेद होता है, जैसा रेल के इंजन से निकलती भाप में स्पष्ट दिखाई देता है। जब भाप में जल की बूँदे उपस्थित होती हैं, तो इसे 'आर्द्र भाप' (wet steam) कहते हैं। यदि जल की बूँदों का सर्वथा अभाव हो तो यह 'शुष्क भाप' (dry steam) कहलाती है। .

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भारत में सिक्का-निर्माण

समुद्रगुप्त द्वारा चलायी गयीं स्वर्ण मुद्रा जिस पर उनके पिता चन्द्रगुप्त प्रथम तथा माता कुमारदेवी का चित्र है। ईसापूर्व प्रथम सहस्राब्दी में भारत के शासकों द्वारा सिक्कों की निर्माण का कार्य आरम्भ हो चुका था। प्रारम्भ में मुख्यतः ताँबे तथा चाँदी के सिक्कों का निर्माण हुआ। हाल में द्वारका की प्राचीन नगरी में छेदयुक्त प्रस्तर मुद्राएँ मिली हैं जिनका काल लगभग पाँच हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। यह भी अच्छी तरह ज्ञात है कि भारत में मौर्य वंश (322–185 BCE) के बहुत पहले से ही धातु के सिक्कों का निर्माण शुरू हो चुका था। आधुनिक कार्बन तिथिकरण (carbon dating) के अनुसार ये धातु के सिक्के ५वीं शदी ईसापूर्व से भी पहले के हैं। भारत में तुर्कों और मुगलों के शासन के समय विशेष परिवर्तन यह आया कि सिक्कों पर अरबी लिपि का प्रयोग किया जाने लगा। १९वीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में एकसमान मुद्रा का प्रचलन किया। श्रेणी:भारत का इतिहास.

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भारत में ज्वैलरी डिजाइन

ज्वैलरी डिजाइन कला या डिजाइन और आभूषण बनाने का पेशा है। यह सभ्यता की सजावट की जल्द से जल्द रूपों में से एक है, मेसोपोटामिया और मिस्र का सबसे पुराना ज्ञात मानव समाज के लिए कम से कम सात हजार साल पहले डेटिंग। कला परिष्कृत धातु और मणि काटने आधुनिक दिन में ज्ञात करने के लिए प्राचीन काल की साधारण पोत का कारचोबी से सदियों भर में कई रूपों ले लिया है। इससे पहले कि आभूषणों के एक लेख बनाई गई है, डिजाइन अवधारणाओं विस्तृत तकनीकी एक आभूषण डिजाइनर, जो सामग्री, निर्माण तकनीक, संरचना, पहनने और बाजार के रुझान के स्थापत्य और कार्यात्मक ज्ञान में प्रशिक्षित किया जाता है एक पेशेवर द्वारा उत्पन्न चित्र द्वारा पीछा किया गाया जाता है। पारंपरिक हाथ ड्राइंग और मसौदा तैयार करने के तरीकों अभी भी विशेष रूप से वैचारिक स्तर पर, आभूषण डिजाइन में उपयोग किया जाता है। हालांकि, एक पारी गैंडा 3 डी और मैट्रिक्स की तरह कंप्यूटर एडेड डिजाइन कार्यक्रमों के लिए हो रही है। जबकि परंपरागत रूप से हाथ से सचित्र गहना आम तौर पर एक कुशल शिल्पकार द्वारा मोम या धातु सीधे में अनुवाद किया है, एक सीएडी मॉडल आम तौर पर रबर मोल्डिंग में इस्तेमाल किया है या मोम खो दिया जा एक सीएनसी कट या 3 डी मुद्रित 'मोम' पैटर्न के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है कास्टिंग प्रक्रियाओं। .

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भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी

भारत के प्रथम रिएक्टर '''अप्सरा''' तथा प्लुटोनियम संस्करण सुविधा का अमेरिकी उपग्रह से लिया गया चित्र (१९ फरवरी १९६६) भारतीय विज्ञान की परंपरा विश्व की प्राचीनतम वैज्ञानिक परंपराओं में एक है। भारत में विज्ञान का उद्भव ईसा से 3000 वर्ष पूर्व हुआ है। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सिंध घाटी के प्रमाणों से वहाँ के लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि तथा वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोगों का पता चलता है। प्राचीन काल में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत, खगोल विज्ञान व गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और आर्यभट्ट द्वितीय और रसायन विज्ञान में नागार्जुन की खोजों का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनकी खोजों का प्रयोग आज भी किसी-न-किसी रूप में हो रहा है। आज विज्ञान का स्वरूप काफी विकसित हो चुका है। पूरी दुनिया में तेजी से वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं। इन आधुनिक वैज्ञानिक खोजों की दौड़ में भारत के जगदीश चन्द्र बसु, प्रफुल्ल चन्द्र राय, सी वी रमण, सत्येन्द्रनाथ बोस, मेघनाद साहा, प्रशान्त चन्द्र महलनोबिस, श्रीनिवास रामानुजन्, हरगोविन्द खुराना आदि का वनस्पति, भौतिकी, गणित, रसायन, यांत्रिकी, चिकित्सा विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान है। .

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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भारतीय धातुकर्म का इतिहास

समुद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्रा (350—375 ई. जिस पर गरुड़ स्तम्भ चित्रित है (ब्रिटिश संग्रहालय) दिल्ली का लौह स्तम्भ जयसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित पहियों पर चलने वाली विश्व की सबसे बड़ी तोप (१७२०) भारत में धातुकर्म का इतिहास प्रागैतिहासिक काल (दूसरी तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व) से आरम्भ होकर आधुनिक काल तक जारी है। .

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भारतीय रसायन का इतिहास

भारतीय धातुकर्म का एक नमूना है। भारत में रसायन शास्त्र की अति प्राचीन परंपरा रही है। पुरातन ग्रंथों में धातुओं, अयस्कों, उनकी खदानों, यौगिकों तथा मिश्र धातुओं की अद्भुत जानकारी उपलब्ध है। इन्हीं में रासायनिक क्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले सैकड़ों उपकरणों के भी विवरण मिलते हैं। वस्तुत: किसी भी देश में किसी ज्ञान विशेष की परंपरा के उद्भव और विकास के अध्ययन के लिए विद्वानों को तीन प्रकार के प्रमाणों पर निर्भर करना पड़ता है-.

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भारतीय स्थापत्यकला

सांची का स्तूप अजन्ता गुफा २६ का चैत्य भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास, दर्शन एवं संस्कृति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं बाहरी प्रभावों का मिश्रण है। भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं। 'वास्तु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वस्' धातु से हुई है जिसका अर्थ 'बसना' होता है। चूंकि बसने के लिये भवन की आवश्यकता होती है अतः 'वास्तु' का अर्थ 'रहने हेतु भवन' है। 'वस्' धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि शब्द बने हैं। .

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मशीन मिस्त्री

लेथ पर कार्य करता हुआ मशीन मिस्त्री मशीन मिस्त्री (machinist) उस व्यक्ति को कहते हैं जो मशीनी औजारों (machine tools) का उपयोग करके कलपुर्जे बनाता है या उनमें संशोधन करना है। वह प्रायः धातु के कलपुर्जे बनाता है। मशीन मिस्त्री के द्वारा किये जाने वाले कार्यों को मशीनिंग (machining) कहते हैं। श्रेणी:धातु से सम्बन्धित व्यवसाय.

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मशीनी औजार

'''लेथ''' प्रमुख मशीनी औजार है उन यांत्रिक युक्तियों को औजारों को मशीनी औजार (machine tool) कहते हैं जो शक्तिचालित होतीं हैं तथा जिनका उपयोग प्राय: मशीनिंग क्रिया द्वारा मशीनों के धातु के कल-पुर्जों के निर्माण में होता है। मशीनिंग क्रिया में वांछित स्थान की धातु को हटाया जाता है। यद्यपि 'मशीनी औजार' प्राय: मानवी श्रम के बजाय शक्तिचालित होते हैं किन्तु समुचित तरीके से व्यवस्थित करने पर इन्हें मानवों द्वारा भी चलाया जा सकता है। प्रौद्योगिकी के बहुत से इतिहासकार यह मानते हैं कि वास्तविक मशीनी औजारों का जन्म तब हुआ जब विभिन्न प्रकार के औजारों की शेपिंग या स्टैंपिंग प्रक्रिया से मानव का सीधा जुड़ाव आवश्यक न रहा। .

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मस्तूल

मस्तूल (mast) एक स्थिरता से खड़े हुए लम्बें खम्बे को कहते हैं, विशेषकर नौकाओं में उन खम्बों को जिनपर पाल (sail) लगाया जाता है। अक्सर इन्हें सहारा देने के लिये गाई तारों (guy wires) का प्रयोग किया जाता है। आमतौर में मस्तूल लकड़ी या धातु के बने हुए होते हैं। .

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मिलिंग

परम्परागत मिलिंग की विधि धातु, काष्ट या प्लास्टिक को मिलिंग मशीन द्वारा काटने की क्रिया मिलिंग (Milling) या पेषण, या रेखोत्कीर्णन या धारी डालना कहलाती है। इस काम के लिये विशेष प्रकार के मशीनी औजार लगते हैं जो किसी मिलिंग मशीन या मशीनिंग केन्द्र में लगाये जाते हैं। DIN 8580 के अनुसार निर्माण प्रक्रियाओं के वर्गीकरण में मिलिंग को 'कर्तन प्रक्रिया' (cutting process) माना गया है। मिलिंग, टर्निंग से भिन्न प्रक्रिया है। .

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मंडला ज़िला

मण्डला जिला मंडला जिला, भारत के मध्य प्रदेश राज्य में सतपुड़ा पहाड़ियों में स्थित एक जिला है। नर्मदा नदी उत्तर-पश्चिम बहती हुई इस जिले को रीवा से अलग करती है। नर्मदा की सहायक बंजार नदी की घाटी में जिले का सबसे अधिक उपजाऊ भाग पड़ता है, जिसे 'हवेली' कहते हैं। हवेली के दक्षिण बंजार की घाटी जंगलों से ढकी हुई हैं। सर्वप्रमुख इमारती पेड़ साल हैं। बाँस, टीक और हरड़ अन्य उल्लेखनीय वृक्ष हैं। नदियों की घाटियों में धान, गेहूँ और तिलहन की उपज होती है। जंगल में चीता के आखेट के लिये यह एक प्रसिद्ध जिला हैं। लाख उत्पादन, लकड़ी चीरना, पान उगाना, पशुपालन, चटाई और रस्सियों का निर्माण यहाँ के लोगों के उद्यम हैं। यहाँ के 60 प्रतिशत निवासी गौंड़ जनजाति के हें। यहाँ मैगनीज और धातु के निक्षेप हैं। मंडला नगर, नर्मदा नदी के किनारे जबलपुर के 45 मील दक्षिण-पूर्व में मंडला जिले का प्रशासनिक केन्द्र है, जो तीन ओर से नर्मदा द्वारा घिरा हुआ हैं। फुल धातु ((Bell metal) के पात्रों के लिये विख्यात है। यह गोंड़ वंश की राजधानी रह चुका है। यहाँ किले और प्रासाद के अवशेष हैं। देश का एकमात्र जीवाश्म राष्ट्रीय पार्क मंडला जिले में स्थित है। श्रेणी:मध्य प्रदेश के जिले.

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मंगल ग्रह

मंगल सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है। पृथ्वी से इसकी आभा रक्तिम दिखती है, जिस वजह से इसे "लाल ग्रह" के नाम से भी जाना जाता है। सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं - "स्थलीय ग्रह" जिनमें ज़मीन होती है और "गैसीय ग्रह" जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसका वातावरण विरल है। इसकी सतह देखने पर चंद्रमा के गर्त और पृथ्वी के ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और ध्रुवीय बर्फीली चोटियों की याद दिलाती है। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊँचा पर्वत, ओलम्पस मोन्स मंगल पर ही स्थित है। साथ ही विशालतम कैन्यन वैलेस मैरीनेरिस भी यहीं पर स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र पृथ्वी के समान हैं। इस गृह पर जीवन होने की संभावना है। 1965 में मेरिनर ४ के द्वारा की पहली मंगल उडान से पहले तक यह माना जाता था कि ग्रह की सतह पर तरल अवस्था में जल हो सकता है। यह हल्के और गहरे रंग के धब्बों की आवर्तिक सूचनाओं पर आधारित था विशेष तौर पर, ध्रुवीय अक्षांशों, जो लंबे होने पर समुद्र और महाद्वीपों की तरह दिखते हैं, काले striations की व्याख्या कुछ प्रेक्षकों द्वारा पानी की सिंचाई नहरों के रूप में की गयी है। इन् सीधी रेखाओं की मौजूदगी बाद में सिद्ध नहीं हो पायी और ये माना गया कि ये रेखायें मात्र प्रकाशीय भ्रम के अलावा कुछ और नहीं हैं। फिर भी, सौर मंडल के सभी ग्रहों में हमारी पृथ्वी के अलावा, मंगल ग्रह पर जीवन और पानी होने की संभावना सबसे अधिक है। वर्तमान में मंगल ग्रह की परिक्रमा तीन कार्यशील अंतरिक्ष यान मार्स ओडिसी, मार्स एक्सप्रेस और टोही मार्स ओर्बिटर है, यह सौर मंडल में पृथ्वी को छोड़कर किसी भी अन्य ग्रह से अधिक है। मंगल पर दो अन्वेषण रोवर्स (स्पिरिट और् ओप्रुच्युनिटी), लैंडर फ़ीनिक्स, के साथ ही कई निष्क्रिय रोवर्स और लैंडर हैं जो या तो असफल हो गये हैं या उनका अभियान पूरा हो गया है। इनके या इनके पूर्ववर्ती अभियानो द्वारा जुटाये गये भूवैज्ञानिक सबूत इस ओर इंगित करते हैं कि कभी मंगल ग्रह पर बडे़ पैमाने पर पानी की उपस्थिति थी साथ ही इन्होने ये संकेत भी दिये हैं कि हाल के वर्षों में छोटे गर्म पानी के फव्वारे यहाँ फूटे हैं। नासा के मार्स ग्लोबल सर्वेयर की खोजों द्वारा इस बात के प्रमाण मिले हैं कि दक्षिणी ध्रुवीय बर्फीली चोटियाँ घट रही हैं। मंगल के दो चन्द्रमा, फो़बोस और डिमोज़ हैं, जो छोटे और अनियमित आकार के हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह 5261 यूरेका के समान, क्षुद्रग्रह है जो मंगल के गुरुत्व के कारण यहाँ फंस गये हैं। मंगल को पृथ्वी से नंगी आँखों से देखा जा सकता है। इसका आभासी परिमाण -2.9, तक पहुँच सकता है और यह् चमक सिर्फ शुक्र, चन्द्रमा और सूर्य के द्वारा ही पार की जा सकती है, यद्यपि अधिकांश समय बृहस्पति, मंगल की तुलना में नंगी आँखों को अधिक उज्जवल दिखाई देता है। .

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मुद्रण

'हीरक सूत्र' नामक पुस्तक सबसे पहले ८६८ ई में चीन में छपी थी एक मास्टर फॉर्म या टेम्प्लेट का उपयोग करके किसी टेक्स्ट या/और छबि (इमेज) की अनेक प्रतियाँ बनाना मुद्रण या छपाई (प्रिंटिंग) कहलाता है। मुद्रण का इतिहास कम से कम तेरह-चौदह सौ वर्ष पुराना है। आधुनिक छपाई प्रायः कागज पर स्याही से मुद्रण मशीन के द्वारा की जाती है। इसके अलावा धातुओं पर, प्लास्टिक पर, वस्त्रों पर तथा अन्य मिश्रित पदार्थों पर भी छपाई की जाती है। कपड़ा या कागज आदि पर एक स्याही-युक्त सतह रखकर उसपर दाब डाला जाता है जिससे स्याहीयुक्त सतह पर बनी छवि उल्टे रूप में कागज या कपड़े पर छप जाती है। .

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मुद्रण कला

धातु से निर्मित 'टाइप' - ध्यान दें कि लिखावट को उल्टा पढ़ना पड़ेगा। किसी धातु या मिश्रधातु से ढाले हुए वर्णमाला के अक्षरों को 'टाइप' (Type) कहते हैं। टाइप का समूह बनाकर और उसपर स्याही लगाकर छापने की कला को मुद्रण कला या टाइप कला (Typography) कहते हैं। छपाई की प्रमुख कला होने के नाते टाइप कला का आविष्कार मानव के सर्वोत्तम आविष्कारों में उल्लेखनीय है। विद्वानों की विद्वत्ता, बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता, नेताओं के आदेश, कलाकारों की कला, सभी को टाइपकला ने अमर बनाया है। मानव को वैज्ञानिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर करनेवाली यही कला है। छपाई की विविध कलाओं में टाइपकला का स्थान अन्यतम है। इसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कलाएँ, लिथो ऑफसेट तथा फोटोग्रैव्योर अत्यधिक प्रगतिशील हैं। किंतु टाइप कला अपने विस्तृत क्षेत्र तथा अगण्य सुविधाओं का निवारण करने के जितने साधन टाइप कला में उपलब्ध हैं उतने छपाई की किसी और कला में नहीं हैं। टाइप से छापनेवाली मशीनें भी दूसरी कलाओं की मशीनों की तुलना में अत्यधिक तेज चलती हैं। टाइप कला से छपाई, कुछ प्रकार के रंगीन कार्यों को छोडकर, सस्ती भी पड़ती है। अतएव टाइप कला का प्रयोग पुस्तकों, समाचारपत्रों पत्रिकाओं, लेखनसामग्री, फार्म, डिब्बे, डिब्बियाँ इत्यादि छापने में व्यापक रूप से होता है। फोटोग्राफी अथवा यांत्रिक विधियों से चित्र बनाने तथा यंत्रों द्वारा टाइप को कंपोज (संयोजन) तथा फोटो चित्रों को कंपोज करने की प्रणालियों का विकास हो जाने के कारण टाइप कला की उपयोगिता अत्यधिक बढ़ गई है। .

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मूषा

मूषा या क्रुसिबिल मूषा या क्रुसिबल (crucible) एक पात्र है जो बहुत अधिक ताप सहन कर सकता है। इसका उपयोग धातु, काच, तथा रंजक आदि के उत्पादन के लिये तथा आधुनिक प्रयोगशालाओं की अनेकानेक प्रक्रियाओं के लिये किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से मूषा का निर्माण मिट्टी से किया जाता था किन्तु इसे ऐसे किसी भी पदार्थ से बनाया जा सकता है जो इतना ताप सह सके जिस पर इसमें रखी चीज को पिघलाया जा सके। श्रेणी:बर्तन.

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मोहरी लाख

मोहरी लाख (Sealing wax) एक प्रकार की मोम या मोम-जैसी सामग्री होती है जो पिघलने के बाद जल्दी से जम जाए और काग़ज़, वस्त्र या धातुओं से इस भांति चिपक जाए कि उसे हटाने पर उस में स्पष्ट तोड़े जाने के निशान दिखें। ऐसी मोम पर मोहर लगाकर चीज़ों को प्रमाणित करा जा सकता है। मसलन यदि एक मोहर केवल किसी अधिकारी के पास उपलब्ध हो (और उसकी नकल करना कठिन हो) तो किसी लिफ़ाफ़े में पत्र बंद कर के उसके खोल पर मोहर लगाई जाए तो मिलने वाले को यह प्रमाणित होता है कि लिफ़ाफ़े का पत्र सीधा उस अधिकारी द्वारा मान्य है। इसी तरह यदी कोई न्यायालय किसी कमरे पर ताला लगाकर उसपर मोहर लगा दे, तो बिना टूटी हुई मोहर से यह प्रमाणित होता है कि उस कमरे के भीतर के सामान में कोई छेड़खानी नहीं हुई है। इतिहास में, कभी-कभी इस मोम या लाख को पहचान देने के लिए उसमें आसानी से पहचानी जाने वाली सुगन्ध भी मिलाई जाती थी। Vol II, page 495.

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रसायन विज्ञान

300pxरसायनशास्त्र विज्ञान की वह शाखा है जिसमें पदार्थों के संघटन, संरचना, गुणों और रासायनिक प्रतिक्रिया के दौरान इनमें हुए परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। इसका शाब्दिक विन्यास रस+अयन है जिसका शाब्दिक अर्थ रसों (द्रवों) का अध्ययन है। यह एक भौतिक विज्ञान है जिसमें पदार्थों के परमाणुओं, अणुओं, क्रिस्टलों (रवों) और रासायनिक प्रक्रिया के दौरान मुक्त हुए या प्रयुक्त हुए ऊर्जा का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में रसायन विज्ञान रासायनिक पदार्थों का वैज्ञानिक अध्ययन है। पदार्थों का संघटन परमाणु या उप-परमाण्विक कणों जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन से हुआ है। रसायन विज्ञान को केंद्रीय विज्ञान या आधारभूत विज्ञान भी कहा जाता है क्योंकि यह दूसरे विज्ञानों जैसे, खगोलविज्ञान, भौतिकी, पदार्थ विज्ञान, जीवविज्ञान और भूविज्ञान को जोड़ता है। .

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रसायन विज्ञान का इतिहास

रसायन विज्ञान का इतिहास बहुत पुराना है। १००० ईसापूर्व में प्राचीन सभ्यताओं के लोग ऐसी प्राविधियों काo.

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राखीगढ़ी

हारियाणा हरियानणा राखीगढ़ी हरियाणा के हिसार ज़िले में सरस्वती तथा दृषद्वती नदियों के शुष्क क्षेत्र में स्थित एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है। राखीगढ़ी सिन्धु घाटी सभ्यता का भारतीय क्षेत्रों में धोलावीरा के बाद दूसरा विशालतम ऐतिहासिक नगर है। राखीगढ़ी का उत्खनन व्यापक पैमाने पर 1997-1999 ई. के दौरान अमरेन्द्र नाथ द्वारा किया गया। राखीगढ़ी से प्राक्-हड़प्पा एवं परिपक्व हड़प्पा युग इन दोनों कालों के प्रमाण मिले हैं। राखीगढ़ी से महत्त्वपूर्ण स्मारक एवं पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनमें दुर्ग-प्राचीर, अन्नागार, स्तम्भयुक्त वीथिका या मण्डप, जिसके पार्श्व में कोठरियाँ भी बनी हुई हैं, ऊँचे चबूतरे पर बनाई गई अग्नि वेदिकाएँ आदि मुख्य हैं। .

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राग

'''वसन्त रागिनी''' वसन्त का राग है। इस चित्र में कृष्ण गोपियों के साथ नृत्य करते दिख रहे हैं। राग सुरों के आरोहण और अवतरण का ऐसा नियम है जिससे संगीत की रचना की जाती है। पाश्चात्य संगीत में "improvisation" इसी प्रकार की पद्धति है। .

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रुबिडियम

रूबिडियम (Rubidium) एक रासायनिक तत्व है। यह आवर्त सारणी के प्रथम मुख्य समूह का चौथा तत्व है। इसमें धातुगुण वर्तमान हैं। इसके तीन स्थिर समस्थानिक प्राप्त हैं, जिनकी द्रव्यमान संख्याएँ क्रमश: ८५, ८६, ८७ हैं। इस तत्व की खोज बुंसन तथा किर्खहॉफ़ ने १८६० ई. में स्पेक्ट्रमदर्शी (spectroscope) द्वारा की थी। स्पेक्ट्रमदर्शी द्वारा प्रयोगों में दो नई लाल रेखाएँ मिलीं, जिनके कारण इसका नाम 'रूबिडियम' रखा गया। लेपिडोलाइट अयस्क में रूबिडियम की मात्रा लगभग १ प्रतिशत रहती है। इसके अतिरिक्त अभ्रक तथा कार्टेलाइड में भी यह न्यून मात्रा में मिलता है। पोटैशियम तथा रूबिडियम के प्लैटिनिक क्लोराइडों की विलेयता भिन्न भिन्न है, जिसके कारण इन दोनों को पृथक् किया जा सकता है। .

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रैखिक मोटर

रैखिक मोटर इसी मूल सिद्धान्त पर काम करती है रैखिक मोटर (लिनियर मोटर) एक विद्युतचुम्बकीय युक्ति है जो सीधे बल उत्पन्न करती है (बलाघूर्ण नहीं) तथा उसके स्थिर तथा चलायमान भागों के बीच सीधे रैखिक गति होती है (घूर्णन गति नहीं)। रैखिक मोटर के 'सिरे' होते हैं जबकि परम्परागत घूर्णी मोटर एक बन्द 'लूप' होते हैं। .

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रेती

डबल कट चपटी फाइल की सतह का विस्तारित दृष्य रेती (file) एक औजार है जिससे धातु, काष्ठ, एवं प्लास्टिक को घिसा जाता है। इसकी सहायता से किसी वस्तु से अल्प मात्रा में पदार्थ काटकर निकाला जा सकता है। श्रेणी:औज़ार.

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रोबोट

एक कारखाने में चीजों को उठाने और सही स्थान पर रखने वाला रोबोट रोबोट एक आभासी (virtual) या यांत्रिक (mechanical)कृत्रिम (artificial) एजेंट है व्यवहारिक रूप से, यह प्रायः एक विद्युत यांत्रिकी निकाय (electro-mechanical system) होता है, जिसकी दिखावट और गति ऐसी होती है की लगता है जैसे उसका अपना एक इरादा (intent) और अपना एक अभिकरण (agency) है।रोबोट शब्द भौतिक रोबोट और आभासी (virtual) सॉफ्टवेयर एजेंट (software agent), दोनों को ही प्रतिबिंबित करता है लेकिन प्रायः आभासी सॉफ्टवेयर एजेंट को बोट्स (bots) कहा जाता है। ऐसी कोई भी सर्वसम्मति नहीं बन पाई है की मशीन रोबोटों के रूप में योग्य हैं, लेकिन एक विशेषज्ञों और जनता के बीच आम सहमति है कि कुछ या सभी निम्न कार्य कर सकता है जैसे: घूमना, यंत्र या कल सम्बन्धी अवयव को संचालित करना, वातावरण की समझ और उसमें फेर बदल करना और बुद्धिमानी भरे व्यवहार को प्रधार्षित करना जो की मानव और पशुओं के व्यवहारों की नक़ल करना। कृत्रिम सहायकों और साथी की कहानिया और और उन्हें बनाने के प्रयास का एक लम्बा इतिहास है लेकिन पूरी तरह से स्वायत्त (autonomous) मशीने केवल 20 वीं सदी में आए डिजिटल (digital) प्रणाली से चलने वाला प्रोग्राम किया हुआ पहला रोबोट युनिमेट (Unimate), १९६१ में ठप्पा बनाने वाली मशीन से धातु के गर्म टुकड़ों को उठाकर उनके ढेर बनाने के लिए लगाया गया था। आज, वाणिज्यिक और औद्योगिक रोबोट (industrial robot) व्यापक रूप से सस्ते में और अधिकसे अधिक सटीकता और मनुष्यों की तुलना में ज्यादा विश्वसनीयता के साथ प्रयोग में आ रहे हैं उन्हें ऐसे कार्यों के लिए भी नियुक्त किया जाता है जो की मानव लिहाज़ से काफी खतरनाक, गन्दा और उबाऊ कार्य होता है रोबोट्स का प्रयोग व्यापक रूप से विनिर्माण (manufacturing), सभा और गठरी लादने, परिवहन, पृथ्वी और अन्तरिक्षीय खोज, सर्जरी, हथियारों के निर्माण, प्रयोगशाला अनुसंधान और उपभोक्ता और औद्योगिक उत्पादन के लिए किया जा रहा है आमतौर पर लोगों का जिन रोबोटों से सामना हुआ है उनके बारे में लोगों के विचार सकारात्मक हैं घरेलू रोबोट (Domestic robot) सफाई और रखरखाव के काम के लिए घरों के आस पास आम होते जा रहे हैंबहरहाल रोबोटिक हथियारों और स्वचालन के आर्थिक प्रभाव को लेकर चिंता बनी हुई है, ऐसी चिंता जिसका समाधान लोकप्रिय मनोरंजन में वर्णित खलनायकी, बुद्धिमान, कलाबाज़ रोबोट के सहारे नहीं होता अपने काल्पनिक समकक्षों की तुलना में असली रोबोट्स अभी भी सौम्य, मंद बुद्धि और स्थूल हैं .

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रीनियम

रेनियम (Rhenium; संकेत: Re) एक रासायनिक तत्व है। इसका परमाणुभार १८६.३१ तथा परमाणु संख्या ७५ है। इसका आविष्कार १९२५ ई. में इडा तथा वाल्टर नौडाक (Ida and Walter Noddock) द्वारा हुआ था। इसके स्थायी समस्थानिक की द्रव्यमान संख्या १८५ है और अन्य रेडियोऐक्टिव समस्थानिक १८२, १८३, १८४, १८६, १८७ और १८८ द्रव्यमान संख्याओं के प्राप्त हैं। यह तत्व अनेक खनिजों में बहुत विस्तृत पाया जाता है, पर बड़ी अल्प मात्रा में ही। खनिजों में यह सल्फाइड के रूप में रहता है। इसके ऑक्साइड वाष्पशील होते हैं, अत: खनिजों के प्रद्रावण पर यह अवशेष में, या चिमनी धूल में, सांद्रित रहता है। इसका निष्कर्षण पोटैशियम पररेनेट के रूप में होता है, जो जल में अल्प विलेय है। लवण के पुन: क्रिस्टलीकरण से यह शुद्ध रूप में प्राप्त होता है। हाइड्रोजन के वातावरण में पोटैशियम या अमोनियम पररेनेट के अपचयन से धूसर, या काले चूर्ण के रूप में धातु प्राप्त होती है। ऊँचे ताप पर यह धातु स्थूल रूप में प्राप्त होती है। धातु का घनत्व २१ और गलनांक ३,१४० डिग्री सेल्सियस है। इसे १५० डिग्री सेल्सियस से ऊपर गरम करने से ऑक्साइड बनता है। इसके अनेक ऑक्साइड बनते हैं। इसका क्लोराइड, ऑक्सीक्लोराइड, सल्फाइड और फॉस्फाइड भी बनता है। यह हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में अविलेय है, पर नाइट्रिक अम्ल में विलेय है। इसकी अनेक मिश्रधातुएँ बनी हैं। श्रेणी:रीनियम श्रेणी:रासायनिक तत्व श्रेणी:संक्रमण धातु श्रेणी:उच्चतापसह धातुएँ.

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लिथियम

लिथियम एक रासायनिक तत्व है। साधारण परिस्थितियों में यह प्रकृति की सबसे हल्की धातु और सबसे कम घनत्व-वाला ठोस पदार्थ है। रासायनिक दृष्टि से यह क्षार धातु समूह का सदस्य है और अन्य क्षार धातुओं की तरह अत्यंत अभिक्रियाशील (रियेक्टिव) है, यानि अन्य पदार्थों के साथ तेज़ी से रासायनिक अभिक्रिया कर लेता है। यदी इसे हवा में रखा जाये तो यह जल्दी ही वायु में मौजूद ओक्सीजन से अभिक्रिया करने लगता है, जो इसके शीघ्र ही आग पकड़ लेने में प्रकट होता है। इस कारणवश इसे तेल में डुबो कर रखा जाता है। तेल से निकालकर इसे काटे जाने पर यह चमकीला होता है लेकिन जल्द ही पहले भूरा-सा बनकर चमक खो देता है और फिर काला होने लगता है। अपनी इस अधिक अभिक्रियाशीलता की वजह से यह प्रकृति में शुद्ध रूप में कभी नहीं मिलता बल्कि केवल अन्य तत्वों के साथ यौगिकों में ही पाया जाता है। अपने कम घनत्व के कारण लिथियम बहुत हलका होता है और धातु होने के बावजूद इसे आसानी से चाकू से काटा जा सकता है। .

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लवण

लवण (Salt) वह यौगिक है जो किसी अम्ल के एक, या अधिक हाइड्रोजन परमाणु को किसी क्षारक के एक, या अधिक धनायन से प्रतिस्थापित करने पर बनता है। खानेवाला नमक एक प्रमुख लवण है। रसायनत: यह नमक सोडियम और क्लोरीन का सोडियम क्लोराइड नामक यौगिक है। पोटैशियम नाइट्रेट एक दूसरा लवण है, जो नाइट्रिक अम्ल के हाइड्रोजन आयन को पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड के पोटैशियम आयन (धनायन) द्वारा प्रतिस्थापित करने से बनता है। नाइट्रिक अम्ल के अणु में केवल एक हाइड्रोजन होता है, जो पोटैशियम से प्रतिस्थापित होता है। सल्फ्यूरिक अम्ल में प्रतिस्थापनीय हाइड्रोजन की संख्या दो है। अत: सोडियम द्वारा सल्फ्यूरिक अम्ल के दोनों हाइड्रोजन के प्रतिस्थापित होने पर सोडियम सल्फेट नामक लवण प्राप्त होता है। दोनों ही यौगिक लवण कहलाते हैं। पहला नॉर्मल (normal) लवण और दूसरा अम्लीय लवण कहलाता है। विविध अम्लों और विविध क्षारों के सहयोग से अनेक लवण बने हैं। .

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लौह युग

लौह युग (Iron Age) उस काल को कहते हैं जिसमें मनुष्य ने लोहे का इस्तेमाल किया। इतिहास में यह युग पाषाण युग तथा कांस्य युग के बाद का काल है। पाषाण युग में मनुष्य की किसी भी धातु का खनन कर पाने की असमर्थता थी। कांस्य युग में लोहे की खोज नहीं हो पाई थी लेकिन लौह युग में मनुष्यों ने तांबे, कांसे और लोहे के अलावा कुछ अन्य ठोस धातुओं की खोज तथा उनका उपयोग भी सीख गया था। विश्व के भिन्न भागों में लौह-प्रयोग का ज्ञान धीरे-धीरे फैलने या उतपन्न होने से यह युग अलग समयों पर शुरु हुआ माना जाता है लेकिन अनातोलिया से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप में यह १३०० ईसापूर्व के आसपास आरम्भ हुआ था, हालांकि कुछ स्रोतों के अनुसार इस से पहले भी लोहे के प्रयोग के कुछ चिह्न मिलते हैं। इस युग की विशेषता यह है कि इसमें मनुष्य ने विभिन्न भाषाओं की वर्णमालाओं का विकास किया जिसकी मदद से उस काल में साहित्य और इतिहास लिखे जा सके। संस्कृत और चीनी भाषाओं का साहित्य इस काल में फला-फूला। ऋग्वेद और अवस्ताई गाथाएँ इसी काल में लिखी गई थीं। कृषि, धार्मिक विश्वासों और कलाशैलियों में भी इस युग में भारी परिवर्तन हुए।The Junior Encyclopædia Britannica: A reference library of general knowledge.

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लैन्थनाइड

लैन्थनाइड (Lanthanide) परमाणु क्रमांक ५७ से ७१ तक के १५ धातु रासायनिक तत्वों का एक समूह है। यह पन्द्रह और इनसे रासायनिक रूप से मिलते-जुलते स्कैण्डियम और इत्रियम तत्व मिलाकर दुर्लभ मृदा तत्व (rare earth elements) बुलाये जाते हैं। .

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लेथ मशीन

आधुनिक 'सेन्टर लेथ' लेथ मशीन या खराद एक मशीनी औजार है जो अक्ष के सममित (सिमेट्रिक) रचना वाले सामान बनाने के काम आती है। इसमें धातु का पिण्ड एक अक्ष पर घूर्णन करता रहता है और काटने, छेद करने एवं अन्य क्रियाएँ करने वाले औजार इस पर आवश्यकतानुसार लगाकर इसे उचित रूप दिया जाता है। खराद (Lathe) एक ऐसा यंत्र है जिस पर गोल अंशों को तैयार किया जाता है। .

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लेखांकन का इतिहास

भारत में लेखांकन का इतिहास भारत के वेदों से जानकारी मिलती है के विश्व को लिखांकन का ज्ञान भारत ने दिया | अथर्वेद में विक्रय शब्द हा जिसका मतलब सलेस होता है तथा शुल्क भी ऋग्वेद से लिया हुआ शब्द है जिस का भाव कीमत होता है | धर्म सूत्र का मतलब टैक्स होता है .

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शब्दकल्पद्रुम

शब्दकल्पद्रुम संस्कृत का आधुनिक युग का एक महाशब्दकोश है। यह स्यार राजा राधाकांतदेव बाहादुर द्वारा निर्मित है। इसका प्रकाशन १८२८-१८५८ ई० में हुआ। यह पूर्णतः संस्कृत का एकभाषीय कोश है और सात खण्डों में विरचित है। इस कोश में यथासंभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाङ्मय का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट भी दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐतिहसिक दृष्टि से भारतीय-कोश-रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट कोश कहा जा सकता है। परवर्ती संस्कृत कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशों पर इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता रहा है। यह कोश विशुद्ध शब्दकोश नहीं है, वरन् अनेक प्रकार के कोशों का शब्दार्थकोश, प्रर्यायकोश, ज्ञानकोश और विश्वकोश का संमिश्रित महाकोश है। इसमें बहुबिधाय उद्धरण, उदाहरण, प्रमाण, व्याख्या और विधाविधानों एवं पद्धतियों का परिचय दिया गया है। इसमें गृहीत शब्द 'पद' हैं, सुवंततिंगन्त प्रातिपदिक या धातु नहीं। .

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शस्त्र

भारत में प्रयुक्त मध्ययुगीन हथियार कोई भी उपकरण जिसका प्रयोग अपने शत्रु को चोट पहुँचाने, वश में करने या हत्या करने के लिये किया जाता है, शस्त्र या आयुध (weapon) कहलाता है। शस्त्र का प्रयोग आक्रमण करने, बचाव करने अथवा डराने-धमकाने के लिये किया जा सकता है। शस्त्र एक तरफ लाठी जितना सरल हो सकता है तो दूसरी तरफ बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र जितना जटिल भी। .

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शिक्षा

अफगानिस्तान के एक विद्यालय में वृक्ष के नीचे पढ़ते बच्चे शिक्षा में ज्ञान, उचित आचरण और तकनीकी दक्षता, शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट हैं। इस प्रकार यह कौशलों (skills), व्यापारों या व्यवसायों एवं मानसिक, नैतिक और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है। शिक्षा, समाज की एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है। शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया। जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक रूप में तथा संकुचित रूप में। व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। मनुष्य क्षण-प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है व करवाता है, जिससे उसका दिन-प्रतिदन का व्यवहार प्रभावित होता है। उसका यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन आदि से अनौपचारिक रूप से होता है। यही सीखना-सिखाना शिक्षा के व्यापक तथा विस्तृत रूप में आते हैं। संकुचित अर्थ में शिक्षा किसी समाज में एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों (विद्यालय, महाविद्यालय) में सुनियोजित ढंग से चलने वाली एक सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा छात्र निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़कर अनेक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है। शिक्षा एक गतिशील प्रकिया है निखिल .

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सर्वेक्षण पट्ट

सर्वेक्षण पट्ट की सहायता से सर्वेक्षण में लगा हुआ एक सर्वेक्षक सर्वेक्षण पट्ट या 'प्लेन टेबुल' (plane table; १८३० के पहले 'plain table') सर्वेक्षण में उपयोगी एक उपकरण है। सर्वेक्षण पट्ट एक ठोस समतल प्रदान करता है जिस पर ड्राइंग, चार्ट और मानचित्र बनाए जाते हैं। .

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सहकारक (जैवरसायन)

सहकारक (cofactor) एक ऐसा धातु आयन या ग़ैर-प्रोटीन रासायनिक यौगिक होता है जिसकी उपस्थिति किसी प्रकिण्व (ऍन्ज़ाइम, enzyme) के कार्य के लिए आवश्यक हो। सहकारक जैवरसायनिक प्रक्रियाओं में सहायक यौगिकों की भूमिका अदा करते हैं। सहकारक या तो अकार्बनिक आयन होते हैं या फिर विटामिन और अन्य पोषक तत्वों से बनाए जाने वाले कार्बनिक यौगिक होते हैं। इस द्वितीय श्रेणी के रसायन सहप्रकिण्व (कोऍन्ज़ाइम, coenzyme) भी कहलाते हैं। .

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सायनेमाइड

सायनेमाइड (Cyanamide) एक कार्बनिक यौगिक है जिसका अणुसूत्र CN2H2 है। .

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सिसप्लेटिन

सिसप्लेटिन एक अकार्बनिक यौगिक है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के कैंसर की चिकित्सा में क्या जाता है। इसमें प्लेटिनम मुख्य धातु है तथा यह किसी प्रकार से डीएनए को प्रभावित करके कोशिकाओं को मार डालता है। इस यौगिक का वर्णन सर्वप्रथम १८४५ में एम पाइरोन ने किया तथा १८९३ में अल्फ्रेड वार्नर ने इसकी संरचना की खोज की। श्रेणी:अकार्बनिक यौगिक.

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सिगार

विभिन्न ब्रांडों के चार सिगार (ऊपर से: एच. अपमैन, मोंटेक्रिस्टो, माकानुडो, रोमियो वाय जुलिएट) एक -सेमीएयरटाईट सिगार संग्रहण ट्यूब और एक डबल गिलोटिन-स्टाइल कटर सिगार सूखे और किण्वित तम्बाकू का कसकर-लपेटा गया एक बंडल होता है जिसको जलाकर उसके धुंए का कश मुंह के अंदर खींचा जाता है। सिगार का तम्बाकू ब्राज़ील, कैमरून, क्यूबा, डोमिनिकन गणराज्य, होंडुरास, इंडोनेशिया, मैक्सिको, निकारागुआ, फिलीपींस और पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में काफी मात्रा में उगाया जाता है। .

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सिक्का

एक सिक्का धातु का एक ठोस टुकड़ा है जो वजन में मानकीकृत होता है, जिसे व्यापार की सुविधाओं के लिए बहुत बड़ी मात्रा में उत्पादित किया जाता है और मुख्य रूप से देश, प्रदेश या क्षेत्र में एक निविदा कानूनी वाणिज्य के लिए नामित टोकन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। आमतौर पर सिक्के को धातु या एक धातु सदृश सामग्री और कभी कभी सिंथेटिक सामग्री से बनाया जाता है, सामान्यतः जिसकी बनावट गोल चिपटी होती है और यह अक्सर सरकार द्वारा जारी की जाती हैं। प्रतिदिन के सिक्के के संचरण से लेकर बड़ी संख्या में बुलियन सिक्के के भंडारण के लिए, विभिन्न प्रकार के लेनदेन में सिक्के का प्रयोग पैसे के रूप में होता है। आजकल के मौजूदा लेनेदेन में आधुनिक पैसे की प्रणाली में सिक्के और बैंकनोट नकद के रूप में उपयोग किए जाते हैं। सिक्के का उपयोग बिलों के भुगतान के लिए किया जाता है और सामान्यतः इसे कम इकाइयों के मूल्यों के लिए और बैंकनोट को उच्च मूल्य के लिए मुद्रीकृत किया जाता है; कई पैसों की प्रणाली में उच्चतम-मूल्य के सिक्के का मूल्य न्यूनतम-मूल्य के बैंकनोट से भी कम होता है। पिछले सौ वर्षों में, परिसंचरण सिक्के का अंकित मूल्य आमतौर पर उन्हें बनाने में इस्तेमाल धातु के कुल मूल्य से अधिक होता है, लेकिन आम तौर पर सिक्के के परिसंचरण के इतिहास में ऐसा हमेशा नहीं हुआ है, कई बार परिसंचरण सिक्के कीमती धातुओं से बनाए गए हैं। इस अपवाद से कि सिक्के का अंकित मूल्य इस्तेमाल धातु के कुल मूल्य से अधिक हो, कई बार "बुलियन सिक्कों" को चादीं और सोने (और, कदाचित, अन्य धातु जैसे प्लैटिनम या पैलेडियम), मूल्यवान धातुओं में संग्राहक या निवेशक के उद्दिष्ट से बनाए जाते हैं। आधुनिक सोने के संग्राहक/निवेशक सिक्कों के उदाहरण में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मुद्रित किए गए अमेरिकन गोल्ड ईगल, कनाडा द्वारा मुद्रित किए गए कनाडा गोल्ड मेपल लीफ, दक्षिण अफ्रीका द्वारा मुद्रित किए गए क्रुगेरांड शामिल हैं। अमेरिकन गोल्ड ईगल का अंकित मूल्य अमेरिकन $50 है और कनाडा गोल्ड मेपल लीफ सिक्के का (विशुद्ध प्रतीकात्मक) अंकित मूल्य नाममात्र ही है (उदाहरणार्थ, C$50 1 ऑउंस के लिए); लेकिन क्रुगेर्रंद का नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से, कई सिक्के के धातु (मिश्रित धातु सहित) और अन्य सामग्री व्यावहारिक, कलात्मक और प्रायोगिक रूप से उत्पादित परिसंचरण, संग्रह और धातु निवेश के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जहां बुलियन सिक्के अन्य बुलियन की तुलना बुलियन सिक्के धातु की मात्रा और शुद्धता के लिए अक्सर अधिक सुविधाजनक तरीके से संग्रह किए जाते हैं। लंबे समय से सिक्के पैसे की अवधारणा से जुड़े हुए हैं, जैसा कि यह तथ्य परिलक्षित है कि "सिक्का" और "मुद्रा" शब्द समानार्थक है। काल्पनिक मुद्राओं में भी सिक्कों के नाम होते हैं (जैसे, किसी वस्तु के लिए कहा जा सकता है जो 123 सिक्का या 123 सिक्कों के बराबर हो सकता है).

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सवितृ

सवितृ, ऋग्वेद में वर्णित सौर देवता हैं। गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है सविता शब्द की निष्पत्ति 'सु' धातु से हुई है जिसका अर्थ है - उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त, स्वर्णपाद, एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उसका रथ स्वर्ण की आभा से युक्त है जिसे दोया अधिक लाल घोड़े खींचते है, इस रथ पर बैठकर वह सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करता है। इसे असुर नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इसके विशेषण हैं। ऋग्वेद के ११ सूक्तों में सवितृ का नाम आता है। इसके अतिरिक्त अनेकों मंत्रों में सवितृ का नाम आता है। कुल मिलाकर १७० बार सवितृ का नाम आया है। उदय के पूर्व सूर्य को सवितृ कहते हैं, जबकि उदय के पश्चात 'सूर्य'। .

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संधारित्र

विभिन्न प्रकार के आधुनिक संधारित्र समान्तर प्लेट संधारित्र का एक सरल रूप संधारित्र या कैपेसिटर (Capacitor), विद्युत परिपथ में प्रयुक्त होने वाला दो सिरों वाला एक प्रमुख अवयव है। यदि दो या दो से अधिक चालकों को एक विद्युत्रोधी माध्यम द्वारा अलग करके समीप रखा जाए, तो यह व्यवस्था संधारित्र कहलाती है। इन चालकों पर बराबर तथा विपरीत आवेश होते हैं। यदि संधारित्र को एक बैटरी से जोड़ा जाए, तो इसमें से धारा का प्रवाह नहीं होगा, परंतु इसकी प्लेटों पर बराबर मात्रा में घनात्मक एवं ऋणात्मक आवेश संचय हो जाएँगे। विद्युत् संधारित्र का उपयोग विद्युत् आवेश, अथवा स्थिर वैद्युत उर्जा, का संचय करने के लिए तथा वैद्युत फिल्टर, स्नबर (शक्ति इलेक्ट्रॉनिकी) आदि में होता है। संधारित्र में धातु की दो प्लेटें होतीं हैं जिनके बीच के स्थान में कोई कुचालक डाइएलेक्ट्रिक पदार्थ (जैसे कागज, पॉलीथीन, माइका आदि) भरा होता है। संधारित्र के प्लेटों के बीच धारा का प्रवाह तभी होता है जब इसके दोनों प्लेटों के बीच का विभवान्तर समय के साथ बदले। इस कारण नियत डीसी विभवान्तर लगाने पर स्थायी अवस्था में संधारित्र में कोई धारा नहीं बहती। किन्तु संधारित्र के दोनो सिरों के बीच प्रत्यावर्ती विभवान्तर लगाने पर उसके प्लेटों पर संचित आवेश कम या अधिक होता रहता है जिसके कारण वाह्य परिपथ में धारा बहती है। संधारित्र से होकर डीसी धारा नही बह सकती। संधारित्र की धारा और उसके प्लेटों के बीच में विभवान्तर का सम्बन्ध निम्नांकित समीकरण से दिया जाता है- जहाँ: .

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संस्कृत व्याकरण

संस्कृत में व्याकरण की परम्परा बहुत प्राचीन है। संस्कृत भाषा को शुद्ध रूप में जानने के लिए व्याकरण शास्त्र किया जाता है। अपनी इस विशेषता के कारण ही यह वेद का सर्वप्रमुख अंग माना जाता है ('वेदांग' देखें)। व्याकरण के मूलतः पाँच प्रयोजन हैं - रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असंदेह। व्याकरण के बारे में निम्नलिखित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है।- - जिसके लिए "विहस्य" छठी विभक्ति का है और "विहाय" चौथी विभक्ति का है; "अहम् और कथम्"(शब्द) द्वितीया विभक्ति हो सकता है। मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी (द्वितीया) कैसे हो सकती हूँ ? .

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संस्कृत के आधुनिक कोश

भारत में आधुनिक पद्धति पर बने संस्कृत कोशों की दो वर्गों में रखा जा सकता है.

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संस्कृति

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। ‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है। .

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संक्रमण धातु

परमाणु संख्या २१ से ३०, ३९ से ४८, ५७ से ८० और ८९ से ११२ वाले रासायनिक तत्त्व संक्रमण तत्व (transition elements/ट्राँज़िशन एलिमेंट्स) कहलाते हैं। चूँकि ये सभी तत्त्व धातुएँ हैं, इसलिये इनको संक्रमण धातु भी कहते हैं। इनका यह नाम आवर्त सारणी में उनके स्थान के कारण पड़ा है क्योंकि प्रत्येक पिरियड में इन तत्त्वों के d ऑर्बिटल में इलेक्ट्रान भरते हैं और 'संक्रमण' होता है। आईयूपीएसी (IUPAC) ने इनकी परिभाषा यह दी है- वे तत्त्व जिनका d उपकक्षा अंशतः भरी हो। इस परिभाषा के अनुसार, जस्ता समूह के तत्त्व संक्रमण तत्त्व नहीं हैं क्योंकि उनकी संरचना d10 है। .

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संक्रमणोपरांत धातु

संक्रमणोपरांत धातु (Post-transition metals) वे धातु तत्व होते हैं जो आवर्त सारणी (पीरियोडिक टेबल) में बाएँ में संक्रमण धातुओं और दाएँ में उपधातुओं के बीच में स्थित होते हैं। .

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संक्षारण

मास्को के सुखोव टॉवर में दृष्टिगत संक्षारण रेल कीपटरी का संक्षारण (मोरचा लग गया है।) मोरचा लगा नट और बोल्ट धातुओं का संक्षारण (Corrosion of metals) रासायनिक क्रिया है, जिसके फलस्वरूप धातुओं का क्षय एवं ह्रास होता है। धातुओं की क्षरणक्रिया, (Erosion) जिनमें यांत्रिक कारकों के फलस्वरूप धातुओं का ह्रास होता है, इस क्रिया से भिन्न होती है। धातुओं में संक्षारण वस्तुत: रासायनिक क्रिया, अथवा वैद्युत्रासायनिक क्रिया, के रूप में होता है। मूल आधार के अनुसार उपर्युक्त दोनों प्रकार की संक्षारण क्रियाएँ मूल क्रिया की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। धातुओं की संक्षारण क्रियाप्रणाली की मुक्त ऊर्जा में विशिष्ट एवं आवश्यक रूप में न्यूनता उत्पन्न होती है। प्रत्यक्ष रासायनिक क्रिया द्वारा धातुओं के संक्षारण में गैस, अथवा आर्द्रतायुक्त वातावरण, का संसर्ग संक्षारण के लिए उपयुक्त परिस्थितयाँ उत्पन्न करता है। संक्षारण की विद्युत्रासायनिक क्रिया में, धातुओं के द्रव में निमज्जित होने से, विद्युत्धारा उत्पन्न होने की उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इस प्रकार संक्षारण क्रिया में धातुओं का विद्युत्रासायनिक ह्रास होता है। उनमें तथा द्रवों में निमज्जित होने से धातुओं की संक्षारण केवल उपर्युक्त परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती, अन्य कारकों का भी विशेष एवं महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। सामान्यत: धातुओं की संक्षारण क्रिया में निर्मित होनेवाला अंतिम उत्पाद ऐसा यौगिक होता है जो प्रकृति में खनिज पदार्थ के रूप में पाया जाता है। उदाहरणार्थ, ताँबे के पट्ट को बहुत वर्षों तक आंतरस्थलीय वातावरण में, खुली अवस्था में रखने से पट्ट के ऊपरी तल पर क्षारक सल्फेट की एक परत जर्म जाती है। ताँबे का यह क्षारक सल्फेट प्रकृति में पाए जानेवाले खनिज ब्रोकैटाइट जैसा होता है। इसी प्रकार लोहे अथवा इस्पात के पट्ट को लवणीय जल में पूर्णत: निमज्जित रखने पर वर्षा में उसके तल पर जलयोजित लोह (फेरिक) ऑक्साइड की कठोर परत जम जाती है। जलयोजित फेरिक ऑक्साइड प्रकृति में पाए जानेवाले खनिज गोथइट जैसा होता है। इस प्रकार धातुओं की संक्षारण क्रिया धातुओं के मध्यस्थायी धात्विक अवस्था में स्थायी ऑक्सीकृत अवस्था में प्रत्यावर्तन की क्रिया है। जो धातुएँ प्रकृति में अपने शुद्ध रूप में पाई जाती हैं, जैसे स्वर्ण, उनमें सामान्यत: प्रकृति में उपस्थित कारकों द्वारा संक्षारण क्रिया नहीं होती और इसके फलस्वरूप ही ऐसी धातुएँ असंयुक्त अवस्था में पाई जाती हैं। .

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सुनम्य कलाएँ

सुनम्य कलाएँ (Plastic arts) उन कलाओं की श्रेणी है जिनमें सुन्यता (plasticity) वाले पदार्थों से कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं। इनमें मोल्डिंग (संचन) और शिल्पकला और मृतिकाशिल्प की कलाएँ शामिल हैं। सुनम्य कला में ऐसी सामग्रीयों का प्रयोग होता है जिन्हें आकार दिया जा सके, जैसे कि पत्थर, लकड़ी, कंक्रीट और धातु। हालांकि इन कलाओं का अंग्रेज़ी नाम "प्लास्टिक आर्ट्स" है, इनमें यह ज़रूरी नहीं है कि प्लास्टिक ही प्रयोग हो। .

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सुहागा-मनका परीक्षण

बर्नर की ज्वाला के विभिन्न भाग: ज्वाला का सम्पूर्ण बाहरी भाग आक्सीकारक होता है जबकि अन्दर वाली ज्वाला का सबसे ऊपरी सिरा अपचायक (रिड्यूसिंग) होता है। सुहागा-मनका परीक्षण (borax bead test या blister test / बोरैक्स बीड टेस्ट) अनेकों प्रकार के मनका-परीक्षणों में से एक है। यह परीक्षण गुणात्मक अकार्बनिक विश्लेषण का परम्परागत अंग है जिसके द्वारा दिये गये नमूने में कुछ धातुओं की उपस्थिति का अनुमान होता है। सन १८१२ में इसे बर्जीलियस ने सुझाया था। Materials Handbook: A Concise Desktop Reference, by François Cardarelli सुहागा परीक्षण के बाद सबसे महत्वपूर्ण मनका-परीक्षण माइक्रोकॉस्मिक साल्ट परीक्षण है। .

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स्थलीय ग्रह

सीरीस (बौना ग्रह)। स्थलीय ग्रह या चट्टानी ग्रह मुख्य रूप से सिलिकेट शैल अथवा धातुओ से बना हुआ ग्रह होता है। हमारे सौर मण्डल में स्थलीय ग्रह, सूर्य के सबसे निकटतम, आंतरिक ग्रह है। स्थलीय ग्रह अपनी ठोस सतह की वजह से गैस दानवों से काफी अलग होते हैं, जो कि मुख्यतः हाइड्रोजन, हीलियम और विभिन्न प्रावस्थाओ में मौजूद पानी के मिश्रण से बने होते हैं। .

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स्वर

यह लेख संगीत से सम्बन्धित 'स्वर' के बारे में है। मानव एवं अन्य स्तनपोषी प्राणियों के आवाज के बारे में जानकारी के लिए देखें - स्वर (मानव का) ---- संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार-चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके, स्वर कहलाता है। भारतीय संगीत में सात स्वर (notes of the scale) हैं, जिनके नाम हैं - षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद। यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुविधा के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं। भारत में इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं। वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २५६ बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/३ बार कंप होने पर ऋषभ, ३२० बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४८० बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है। तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है। इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है। इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है। यदि प्रत्येक स्वर की कपनसंख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा। भारत में यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है। भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं। जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है। जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि। ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है। इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नहीं होता; पर शेष पाचों स्वर दो प्रकार के होते हैं - कोमल और तीव्र। प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है। .

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स्वरित्र

अनुनादी बक्से के उपर स्थापित '''स्वरित्र''' स्वरित्र (tuning fork) एक सरल युक्ति है जो मानक आवृत्ति की ध्वनि पैदा करने के काम आती है। संगीत के क्षेत्र में इसका उपयोग एक मानक पिच (pitch) उत्पादक के रूप में अन्य वाद्य यंत्रों को ट्यून करने में होती है। यह देखने में अंग्रेजी के यू आकार वाले फोर्क की तरह होता है। यह प्रायः इस्पात या किसी अन्य प्रत्यास्थ धातु का बना होता है। इसे किसी वस्तु के उपर ठोकने पर एक निश्चित आवृत्ति की ध्वनि उत्पन्न होती है। इसके द्वारा उत्पन्न ध्वनि की आवृत्ति इसके फोर्कों की लम्बाई तथा फोर्कों के प्रत्यास्थता पर निर्भर करती है। .

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स्वेतलाना सवित्सकाया

स्वेतलाना सवित्सकाया एक सेवानिवृत्त सोवियत एविएटर और अंतरिक्ष यात्री है जिन्होंने १९८२ में सोयूज टी-७ पर सवार होकर अंतरिक्ष में उड़ान भरने वाली दूसरी महिला थी। स्वेतलाना सवित्सकाया का जन्म ८ अगस्त १९८४ को हुआ था। उनके पिता सोवियत सैन्य कमांडर थे। स्वेतलाना ने अपने एयरोस्पेस करियर की शुरुआत टेस्ट और खेल पायलट के रूप में की थी। १९७४ में अपने करियर की शुरुआत में ही उन्होंने १८ अंतरराष्ट्रीय विश्व रिकॉर्ड MiG वायुयान पर बनाए और ३ रिकॉर्ड टीम पैराशूट जंपिंग पर भी बनाए। १९७० में जब FAI की छठी विश्व एरोबटिक चैंपियनशिप हुई तब उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। और उनकी अंतरिक्ष यात्रा १९८० में प्रारम्भ हुई। १९८२ में स्वेतलाना ने सोयुज T-7 मिशन के हिस्से के रूप में अंतरिक्ष के लिए उड़ान भरी और उस मिशन में उनके साथी थे लियोनिढ पोपोव और सेरेब्रोव थे। स्वेतलाना सवित्सकाया अंतरिक्ष में जाने वाली दूसरी ऐसी महिला अंतरिक्ष यात्री थी जो की १९ साल के बाद वेलनटीना तेरेश्कोवा के बाद अंतरिक्ष में गयी थी। २५ जुलाई १९८५ में अपनी अंतरिक्ष की दूसरी उड़ान के दौरान स्वेतलाना ने अंतरिक्ष में सैर करने वाली पहली महिला का खिताब भी हासिल किया। उन्होंने २०१० में 3 घंटे और 35 मिनट के लिए Salyut ७ अंतरिक्ष स्टेशन के बाहर एक ईवा का आयोजन किया जिसमे उन्होंने धातुओं को काँटा और वेल्ड भी किया अपने ५७ रूसी सोवियत सहयोगियों के साथ। पृथ्वी पर लौटने पर सवित्सकाया को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में सभी महिला सोयूज चालक दल का कमांडर भी बनाया गया।सवित्सकाया १९९३ में रूसी वायु सेना से मेजर के पद के साथ सेवानिवृत्त हुई। .

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स्की

एक स्कीबाज़ी स्थल पर लगे तरह-तरह के स्की स्की (ski) लकड़ी, धातु या प्लास्टिक के पतले और लम्बे तख़्तों को कहते हैं जिन्हें जूतों के नीचे जोड़कर स्कीबाज़ी (स्कीइंग) का खिलाड़ी बर्फ़ पर फिसलाकर यात्रा करता है। आमतौर पर दोनों पावों के लिए दो अलग स्की होती हैं। स्कीओं को जूतों से जोड़ने वाले बंधन अलग प्रकार के होते हैं, लेकिन अधिकतर विशेष प्रकार के जूतों के नीचे बनी कुंडियों में खटकाकर कसकर बंध जाते हैं। लगभग सभी स्कीओं में पाँव की उँगलियों वाली तरफ़ से तो जूते स्की के साथ जोड़े जाते हैं लेकिन कुछ प्रकार की स्की-खेलों में पाँव एड़ी की तरफ़ से स्की से नहीं जुड़े होते (जबकि अन्य स्कीबाज़ी में उस ओर से भी जुड़े होते हैं)।, Michael W. Dempsey, H.S. Stuttman, 1984, ISBN 978-0-87475-830-6,...

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सौर सेल

मोनोक्रिस्टलाइन सिलिकॉन वैफ़र से बना सौर सेल सौर बैटरी या सौर सेल फोटोवोल्टाइक प्रभाव के द्वारा सूर्य या प्रकाश के किसी अन्य स्रोत से ऊर्जा प्राप्त करता है। अधिकांश उपकरणों के साथ सौर बैटरी इस तरह से जोड़ी जाती है कि वह उस उपकरण का हिस्सा ही बन जाती जाती है और उससे अलग नहीं की जा सकती। सूर्य की रोशनी से एक या दो घंटे में यह पूरी तरह चार्ज हो जाती है। सौर बैटरी में लगे सेल प्रकाश को समाहित कर अर्धचालकों के इलेक्ट्रॉन को उस धातु के साथ क्रिया करने को प्रेरित करता है।। हिन्दुस्तान लाइव। ३१ मार्च २०१० एक बार यह क्रिया होने के बाद इलेक्ट्रॉन में उपस्थित ऊर्जा या तो बैटरी में भंडार हो जाती है या फिर सीधे प्रयोग में आती है। ऊर्जा के भंडारण होने के बाद सौर बैटरी अपने निश्चित समय पर डिस्चार्ज होती है। ये उपकरण में लगे हुए स्वचालित तरीके से पुनः चालू होती है, या उसे कोई व्यक्ति ऑन करता है। सौर सेल का चिह्न एक परिकलक में लगे सौर सेल अधिकांशतः जस्ता-अम्लीय (लेड एसिड) और निकल कैडमियम सौर बैटरियां प्रयोग होती हैं। लेड एसिड बैटरियों की कुछ सीमाएं होती हैं, जैसे कि वह पूरी तरह चार्ज नहीं हो पातीं, जबकि इसके विपरीत निकल कैडिमयम बैटरियों में यह कमी नहीं होती, लेकिन ये अपेक्षाकृत भी होती हैं। सौर बैटरियों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में भी प्रयोग करने हेतु भी गौर किया जा रहा है। अभी तक, इन्हें केवल छोटे इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयोगनीय समझा जा रहा है। पूरे घर को सौर बैटरी से चलाना चाहे संभव हो, लेकिन इसके लिए कई सौर बैटरियों की आवश्यकता होगी। इसकी विधियां तो उपलब्ध हैं, लेकिन यह अधिकांश लोगों के लिए अत्यधिक महंगा पड़ेगा। बहुत से सौर सेलों को मिलाकर (आवश्यकतानुसार श्रेणीक्रम या समानान्तरक्रम में जोड़कर) सौर पैनल, सौर मॉड्यूल, एवं सौर अर्रे बनाये जाते हैं। सौर सेलों द्वारा जनित उर्जा, सौर उर्जा का एक उदाहरण है। .

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सोडियम

सोडियम (Sodium; संकेत, Na) एक रासायनिक तत्त्व है। यह आवर्त सारणी के प्रथम मुख्य समूह का दूसरा तत्व है। इस समूह में में धातुगण विद्यमान हैं। इसके एक स्थिर समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या २३) और चार रेडियोसक्रिय समस्थानिक (द्रव्यमन संख्या २१, २२, २४, २४) ज्ञात हैं। .

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सोना

सोना या स्वर्ण (Gold) अत्यंत चमकदार मूल्यवान धातु है। यह आवर्त सारणी के प्रथम अंतर्ववर्ती समूह (transition group) में ताम्र तथा रजत के साथ स्थित है। इसका केवल एक स्थिर समस्थानिक (isotope, द्रव्यमान 197) प्राप्त है। कृत्रिम साधनों द्वारा प्राप्त रेडियोधर्मी समस्थानिकों का द्रव्यमान क्रमश: 192, 193, 194, 195, 196, 198 तथा 199 है। .

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सीसा

विद्युत अपघटन द्वारा शुद्ध किया हुआ सीस; १ घन सेमी से घन के साथ (तुलना के लिए) सीस, सीसा या लेड (अंग्रेजी: Lead, संकेत: Pb लैटिन शब्द प्लंबम / Plumbum से) एक धातु एवं तत्त्व है। काटने पर यह नीलिमा लिए सफ़ेद होता है, लेकिन हवा का स्पर्श होने पर स्लेटी हो जाता है। इसे इमारतें बनाने, विद्युत कोषों, बंदूक की गोलियाँ और वजन बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। यह सोल्डर में भी मौजूद होता है। यह सबसे घना स्थिर तत्त्व है। यह एक पोस्ट-ट्रांज़िशन धातु है। इसका परमाणु क्रमांक ८२, परमाणु भार २०७.२१, घनत्व ११.३६, गलनांक ३,२७.४ डिग्री सें., क्वथनांक १६२०डिग्री से.

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हलायुध

हलायुध या भट्ठ हलायुध (समय लगभग १० वीं० शताब्दी ई०) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे। उन्होने मृतसंजीवनी नामक ग्रन्थ की रचना की जो पिंगल के छन्दशास्त्र का भाष्य है। इसमें पास्कल त्रिभुज (मेरु प्रस्तार) का स्पष्ट वर्णन मिलता है। हलायुध द्वारा रचित कोश का नाम अभिधानरत्नमाला है, पर यह हलायुधकोश नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं। प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्यय शब्द संगृहीत है। इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है। रूपभेद से लिंग-बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है। ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है। कविरहस्य भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है। .

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जनसंचार

लोकसम्पर्क या जनसम्पर्क या जनसंचार (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र से लिया जाता है जो समाचार एवं विज्ञापन दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं। जनसंचार माध्यम में संचार शब्द की उत्पति संस्कृत के 'चर' धातु से हुई है जिसका अर्थ है चलना। .

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जयपुर

जयपुर जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। 2011 की जनगणना के अनुसार जयपुर भारत का दसवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली,आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ और २०१२ के बाद ३५ लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा। .

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जयपुर जिला

- जयपुर (राजस्थानी: जैपर) जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आंबेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो न्यू गेट कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम आज भी प्रसिद्ध है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर की वास्तु के बारे में कहा जाता है, कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नही मिलेगा। .

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जयपुर/आलेख

देखें:पूर्ण लेख → जयपुर जयपुर जिसे गुलाबी नगरी के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। महान वास्तुविद.

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जर्मेनियम

जर्मेनियम (Germanium) एक रासायनिक तत्व है। इसका स्थान आवर्त सारणी में उसी वर्ग में है, जिसमें सीस और टिन हैं। इसका आविष्कार 1886 ई. सी.

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जर्कोनियम मिश्रातु

जर्कोनियम के मिश्रातु (Zirconium alloys), जर्कोनियम के साथ अन्य धातुओं के ठोस मिश्रण हैं। इनका एक प्रमुख उपभाग का व्यापारिक नाम जर्कलॉय (Zircaloy) है। श्रेणी:मिश्रातु.

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जल सर्वेक्षण

निजी सर्वेक्षण पोत-नेप्च्यून जल सर्वेक्षण या हाइड्रोग्राफिक सर्वे सागर का वैज्ञानिक मानचित्र होता है, जिसमें सागर की गहराई, उसकी आकृति, उसका तल, उसमें किस दिशा से और कितनी धाराएं बहती हैं, का ज्ञान होता है। इसके साथ ही उसमें आने वाले ज्वारों का समय और परिमाण भी पता लगाया जाता है। झीलों और नदियों का जल सर्वेक्षण केवल उस स्थिति में किया जाता है जब उनमें जहाज चलते हों। इससे अभियांत्रिकी और नौवहन के काम में सहायता मिलती है। जल सर्वेक्षण में पानी की वर्तमान मात्र और रिजर्वायर के के बारे में जानकारी मिलती है। जल सर्वेक्षण सागर की तह में होने वाले दैनिक परिवर्तनों के और इसके अंदर के रहस्यों के ज्ञान हेतु किया जाता है। इस सर्वेक्षण की सहायता से समुद्र में मौजूद खनिजों, धातुओं, गैस आदि के भंडार पता लगाने में मदद मिलती है। साथ-साथ ही समुद्र के भीतर केबल, पाइपलाइन बिछाने, ड्रेजिंग जैसे कार्यो के लिए उसमें लगातार होने वाले परिवर्तनों के बारे में जानकारी करना बेहद आवश्यक हो जाता है। भारत में पहली बार नौसैनिक जल सर्वेक्षण विभाग, जो मैरीन सर्वे ऑफ इंडिया के नियंत्रण में था, की स्थापना १७७० में ईस्ट इंडिया कंपनी ने की थी। १८७४ में कैप्टन डुंडस टेलर ने मेरीन सर्वे ऑफ इंडिया को कोलकाता में स्थापित किया। १९४७ में भारत की स्वतंत्रता उपरान्त इस विभाग को मेरीन सर्वे ऑफ इंडिया के अन्तर्गत्त कर दिया गया। इसके बाद इसे १९५४ में देहरादून में स्थापित किया गया और इसका नाम नौसैनिक जल सर्वेक्षण कार्यालय (नेवल हाइड्रोग्राफिक ऑफिस) कर दिया गया। इसके बाद में १९९६ में इसका नाम नेशनल हाइड्रोग्राफिक ऑफिस कर दिया गया। नेशनल हाइड्रोग्राफिक सर्वे मार्च १९९९ में आईएसओ ९००२ का स्तर प्रदान किया गया। .

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ईश्वर

यह लेख पारलौकिक शक्ति ईश्वर के विषय में है। ईश्वर फ़िल्म के लिए ईश्वर (1989 फ़िल्म) देखें। यह लेख देवताओं के बारे में नहीं है। ---- परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का स्रष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुडी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं। .

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घर्षणमारक धातु एवं मिश्रातु

घर्षणमारक धातु एवं मिश्रातु (Antifriction metals and alloys) वे धातुएँ तथा मिश्रातु है जो परस्पर घिसकर चलने वाले दो मशीन-पुर्जों के बीच घर्षण गुणांक को कम करने में सहायक होती हैं तथा घर्षण के कारण स्वयं भी कम घिसती हैं। .

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वात्या भट्ठी

Rahul Kushwahaसेस्टाओ, स्पेन में ब्लास्ट फर्नेस. वास्तविक भट्टी केन्द्रीय गिर्डरवर्क के अंदर है। वात्या भट्ठी या ब्लास्ट फर्नेस (Blast furnace) एक प्रकार की धातु-वैज्ञानिक भट्टी (मेटलर्जिकल फर्नेस) है जिसका इस्तेमाल आम तौर पर लोहे जैसी औद्योगिक धातुओं का निर्माण करने हेतु धातुओं को पिघलाने के लिए किया जाता है। वात्या भट्ठी में भट्ठी के ऊपर से लगातार ईंधन और अयस्क की आपूर्ति की जाती है जबकि चैंबर के निचले तल में हवा (कभी-कभी ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा वाली हवा) भरी जाती है ताकि पदार्थों के नीचे की तरफ आने के दौरान पूरे फर्नेस में रासायनिक प्रतिक्रिया हो सके। अंतिम उत्पाद के रूप में आम तौर पर नीचे की तरफ से पिघली हुई धातु और धातुमल तथा फर्नेस के ऊपर से धुआं युक्त गैसें निकलती हैं। वात्या भट्ठी को आम तौर पर चिमनी के निकास मार्ग में गर्म गैसों के संवहन के माध्यम से स्वाभाविक रूप से चूषण युक्त एयर फर्नेसों (जैसे रिवर्बरेटरी फर्नेस) के साथ निरूपित किया जाता है। इस व्यापक परिभाषा के अनुसार लोहे की ब्लूमरी, टिन के ब्लोइंग हाउस और सीसे को गलाने वाली मिलों को ब्लास्ट फर्नेस के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल आम तौर पर उन्ही कारखानों तक सीमित है जहां लौह अयस्क को पिघलाकर कच्चे लोहे (पिग आयरन) का उत्पादन किया जाता है, जो वाणिज्यिक लौह एवं इस्पात के उत्पादन में इस्तेमाल की जाने वाली एक मध्यवर्ती सामग्री है। .

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वायु प्रदूषण

वायु प्रदूषण रसायनों, सूक्ष्म पदार्थ, या जैविक पदार्थ के वातावरण में, मानव की भूमिका है, जो मानव को या अन्य जीव जंतुओं को या पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है। वायु प्रदूषण के कारण मौतें और श्वास रोग.

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वार्निश

संग्रहालय में वार्निश की हुईं कुछ लकड़ी की वस्तुएँ रोगन या वार्निश (अंग्रेजी:Varnish) एक पदार्थ है जो लकड़ी तथा अन्य कुछ पदार्थों के ऊपर लगायी जाती है जिससे उनकी सुरक्षा हो और वे सुन्दर दिखें। वार्निश के लेप चढ़ाने का उद्देश्य किसी तल को चिकना, चमकीला और आकर्षक बनाना होता है। यदि तल लकड़ी का है, तो तल की कीटों से रक्षा भी वार्निश से हो सकती है। यदि तल धातुओं का है, तो उसपर वायु, जल, प्रकाश आदि, से रक्षा कर मुरचा लगने से उसे बचाया जा सकता है। .

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विद्युत

वायुमण्डलीय विद्युत विद्युत आवेशों के मौजूदगी और बहाव से जुड़े भौतिक परिघटनाओं के समुच्चय को विद्युत (Electricity) कहा जाता है। विद्युत से अनेक जानी-मानी घटनाएं जुड़ी है जैसे कि तडित, स्थैतिक विद्युत, विद्युतचुम्बकीय प्रेरण, तथा विद्युत धारा। इसके अतिरिक्त, विद्युत के द्वारा ही वैद्युतचुम्बकीय तरंगो (जैसे रेडियो तरंग) का सृजन एवं प्राप्ति सम्भव होता है? विद्युत के साथ चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है। विद्युत आवेश वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है। समस्त विद्युत का आधार इलेक्ट्रॉन हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति ही विद्युत धारा है। विद्युत के अनेक प्रभाव हैं जैसे चुम्बकीय क्षेत्र, ऊष्मा, रासायनिक प्रभाव आदि। जब विद्युत और चुम्बकत्व का एक साथ अध्ययन किया जाता है तो इसे विद्युत चुम्बकत्व कहते हैं। विद्युत को अनेकों प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है किन्तु सरल शब्दों में कहा जाये तो विद्युत आवेश की उपस्थिति तथा बहाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न उस सामान्य अवस्था को विद्युत कहते हैं जिसमें अनेकों कार्यों को सम्पन्न करने की क्षमता होती है। विद्युत चल अथवा अचल इलेक्ट्रान या प्रोटान से सम्बद्ध एक भौतिक घटना है। किसी चालक में विद्युत आवेशों के बहाव से उत्पन्न उर्जा को विद्युत कहते हैं। .

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विद्युत चालन

किसी संचरण माध्यम (transmission medium) से होकर आवेशित कणों के प्रवाह को विद्युत चालन कहते हैं। आवेशों के प्रवाह से विद्युत धारा बनती है। आवेशों का प्रवाह दो कारणों से सम्भव है-.

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विद्युत चालकता

पदार्थों द्वारा विद्युत धारा संचालित करने की क्षमता के माप को विद्युत चालकता (Electrical conductivity) या विशिष्ट चालकता (specific conductance) कहते हैं। जब किसी पदार्थ से बने किसी 'चालक' के दो सिरों के बीच विभवान्तर आरोपित किया जाता है तो इसमें विद्यमान घूम सकने योग्य आवेश प्रवाहित होने लगते हैं जिसे विद्युत धारा कहते हैं। आंकिक रूप से धारा घनत्व \mathbf तथा विद्युत क्षेत्र की तीव्रता \mathbf के अनुपात को चालकता (σ) कहते हैं। अर्थात - विद्युत चालकता के व्युत्क्रम (reciprocal) राशि को विद्युत प्रतिरोधकता (ρ) कहते हैं जिसकी SI इकाई सिमेन्स प्रति मीटर (S·m-1) होती है। विद्युत चालकता के आधार पर पदार्थों को कुचालक, अर्धचालक, सुचालक तथा अतिचालक आदि कई वर्गों में बांटा जाता है जिनका अपना-अपना महत्व एवं उपयोग होता है चालकता ___(Conductance) जिस प्रकार प्रतिरोध, विधुत धारा प्रवाह का विरोध करता है उसी प्रकार चालकता प्रतिरोध के प्रभाव के विपरीत है, परंतु चालकता विधुत धारा प्रवाह को सुगमता प्रदान करती है। .

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विद्युत प्रतिरोध

आदर्श प्रतिरोधक का V-I वैशिष्ट्य। जिन प्रतिरोधकों का V-I वैशिष्ट्य रैखिक नहीं होता, उन्हें अनओमिक प्रतिरोधक (नॉन-ओमिक रेजिस्टर) कहते हैं। किसी प्रतिरोधक के सिरों के बीच विभवान्तर तथा उससे प्रवाहित विद्युत धारा के अनुपात को उसका विद्युत प्रतिरोध (electrical resistannce) कहते हैं।इसे ओह्म में मापा जाता है। इसकी प्रतिलोमीय मात्रा है विद्युत चालकता, जिसकी इकाई है साइमन्स। जहां बहुत सारी वस्तुओं में, प्रतिरोध विद्युत धारा या विभवांतर पर निर्भर नहीं होता, यानी उनका प्रतिरोध स्थिर रहता है। right समान धारा घनत्व मानते हुए, किसी वस्तु का विद्युत प्रतिरोध, उसकी भौतिक ज्यामिति (लम्बाई, क्षेत्रफल आदि) और वस्तु जिस पदार्थ से बना है उसकी प्रतिरोधकता का फलन है। जहाँ इसकी खोज जार्ज ओह्म ने सन 1820 ई. में की।, विद्युत प्रतिरोध यांत्रिक घर्षण के कुछ कुछ समतुल्य है। इसकी SI इकाई है ओह्म (चिन्ह Ω).

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विद्युत अपघटन

डेनियल सेल से मेल खाता हा एक विद्युतरासायनिक सेल रसायन विज्ञान एवं निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) मे विद्युत अपघटन (electrolysis) उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा किसी रासायनिक यौगिक में विद्युत-धारा प्रवाहित करके उसके रासायनिक बन्धों को को तोड़ा जाता है। उदाहरण के लिये जल में विद्युत धारा प्रवाहित करने पर जल, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन में विघटित हो जाता है जिसे जल का विद्युत अपघटन कहते हैं। विद्युत अपघटन के बहुत से उपयोग हैं। अयस्कों को प्रसंस्कारित करके उनमें निहित रासायनिक तत्व को शुद्ध करना एवं उसे अलग करना इसका सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक एवं व्यावसायिक उपयोग है। .

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विद्युतधातुकर्म

विद्युतधातुकर्म या 'विद्युत्‌-धातुकर्म विज्ञान' (Electrometallurgy) विद्युत्‌ विज्ञान तथा टेकनॉलोजी की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जो धातुओं के निष्कर्षण तथा शोधन से विद्युत्‌ रासायनिक प्रयोगों द्वारा संबधित है। यह सामान्यत: दो वर्गों में विभाजित है, एक में उष्णता और दूसरे में रासायनिक क्रियाएँ प्रधान हैं। विद्युत्‌ भट्ठी में बिजली से ऊष्मा उत्पन्न कर धातु खनिजों का गलन करते हैं। प्रतिरोधक तथा प्रेरण भट्ठियों में धातुओं के दृढ़ीकरण और शोधन के साथ-साथ बिजली से भलाई की कला इसी श्रेणी में आती है। बिजली के रासायनिक प्रयोगों में विद्युत्‌-लेपन (electroplating), रासायनिक यौगिकों का अपघटन, धातु परिष्कार तथा पृथक्करण निहित हैं। विद्युत्‌ धातुकर्म बहुत से उद्योगों और व्यवसायों का आधार है। इस प्रविधि से निर्मित वस्तुएँ गुण तथा मजबूती में उच्च कोटि की होती हैं। .

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विद्युत्-रसायन

जॉन डेनियल और माइकल फैराडे (दायें तरफ), जिन्हे विद्युतरसायन का जनक माना जाता है विद्युतरसायन (eletro-chemistry), भौतिक रसायन की वह शाखा है जिसमें उन रासायनिक अभिक्रियों का अध्ययन किया जाता है जो किसी विलयन (सलूशन्) के अन्दर एक एलेक्ट्रान चालक और एक ऑयनिक चालक (विद्युत अपघट्य) के मिलन-तल (इन्टरफेस) पर होती है। इसमें इलेक्ट्रान चालक कोई धातु या अर्धचालक हो सकता है। यदि रासायनिक अभिक्रिया किसी बाहर से आरोपित विभवान्तर (वोल्टेज्) के कारण घटित होती है (जैसे विद्युत अपघटन में); या रासायनिकभिक्रिया के परिणामस्वरूप विभवान्तर पैदा होता है (जैसे बैटरी में) तो ऐसी रासायनिक अभिक्रियों को विद्युत्त्-रासायनिक अभिक्रिया (electrochemical reaction) कहते हैं। सामान्य रूप से देखें तो पाते हैं कि विद्युत रासायनिक अभिक्रियाओं में ऑक्सीकरण एवं अपचयन क्रियाएं निहित होती हैं जो समय या स्थान (स्पेस और टाइम) में अलग होती हैं और किसी बाहरी परिपथ से जुड़ी होती हैं। .

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विद्युत्-लेपन

विद्युत धारा द्वारा, धातुओं पर लेपन करने की विधि को विद्युतलेपन (Electroplating) कहते हैं। बहुधा लोहे की वस्तुओं को संक्षरण से बचाने तथा चमक के लिए, उन पर ताँबे, निकल अथवा क्रोमियम का लेपन किया जाता है। आधार धातु पर लेपन करने के बाद, लेपन की जानेवाली धातु के बाहरी गुण दिखाई देते हैं। इससे वस्तु का बाहरी रूप रंग निखर जाता है तथा साथ ही वस्तु संक्षारण से भी बचती है। विद्युत्लेपन द्वारा लेपित की जानेवाली धातु, आधार धातु से अच्छी प्रकार संबद्ध हो जाती है और लेपन प्राय: स्थायी रूप में किया जा सकता है। .

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विश्व का आर्थिक इतिहास

सन १००० से सन २००० के बीच महाद्वीपों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के वितरण का परिवर्तन विश्व के विभिन्न भागों का सकल घरेलू उत्पाद (सन् 2014 में) बीसवीं शताब्दी में विश्व का सकल घरेलू उत्पाद .

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वैदिक व्याकरण

संस्कृत का सबसे प्राचीन (वेदकालीन) व्याकरण 'वैदिक व्याकरण' कहलाता है। यह पाणिनीय व्याकरण से कुछ भिन्न था। .

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वैद्युत परिष्करण

वैद्युत परिष्करण (electrorefining) विद्युतधातुकर्म की एक विधि है जिससे उत्तम तथा उच्च कोटि की शुद्धता की धातु प्राप्त की जाती है। जिस धातु को शुद्ध करना होता है, उसे लवणीय अथवा अम्लीय विलयन में उपयुक्त आकार का ऐनोड, तथा उसी की शुद्ध निक्षिप्त धातु का कैथोड बनाकर लटका देते हैं। विद्युत्‌-अपघटन द्वारा बहुत ही शुद्ध धातु कैथोड पर लेप के रूप में प्राप्त हो जाती है। बहुमूल्य धातुओं की अशुद्ध ऐनोड से उपलब्धि, साधारण वैद्युत्परिष्करण कला में, एक महत्वपूर्ण गौण परिष्करण है। बहुधा ताँबा, विस्मथ, सोना, चाँदी, सीसा और राँगा जलीय विलयन विद्युत्‌ अपघटन से शुद्ध किए जाते हैं। श्रेणी:धातुकर्म श्रेणी:विद्युत.

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वैद्युत अभिरूपण

वैद्युत अभिरूपण (Electroforming) विद्युतधातुकर्म की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा धातु के पतली-पतली वस्तुएँ बनायी जाती हैं। इस विधि में किसी आधार (जिसको मैंड्रिल कहते हैं) के ऊपर धातु की एक पतली तह जमा की जाती है और बाद में मैंड्रिल के उससे अलग कर लिया जाता है। यह विद्युत्लेपन से इस मामले में अलग है कि विद्युतलेपन में जिस धातु का लेपन किया जाता है वह आधार से मजबूती से चिपकी रहती है। इसके अलावा वैद्युत अभिरूपण में जो तह जमा की जाती है वह विद्युत्लेपन में जमा की गयी तह की अपेक्षा बहुत मोटी होती है और आधार को हटा लेने पर भी वह अपने स्वरूप में बनी रह सकती है। हाल के वर्षों में वैद्युत अभिरूपण का उपयोग माइक्रो तथा नैनो-स्केल की धातु की वस्तुएँ बनाने में होने लगा है। यह इसलिए सम्भव हुआ है कि मैंड्रिल के तह को परमाणु-दर-परमाणु पुनर्रचित किया जा सकता है। श्रेणी:विद्युत श्रेणी:धातुकर्म.

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वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (सीएसटीटी) हिन्दी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को परिभाषित एवं नए शब्दों का विकास करता है। भारत की स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली के लिए शिक्षा मंत्रालय ने सन् १९५० में बोर्ड की स्थापना की। सन् १९५२ में बोर्ड के तत्त्वावधान में शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ। अन्तत: १९६० में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और 1961 ई. में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना हुई। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर तैयार शब्दावली को 'पारिभाषिक शब्द संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओर अन्तरिम अवधि में लेखकों को नई संकल्पनाओं के लिए सर्वसम्मत पारिभाषिक शब्द प्रदान करना था। स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान के निर्माताओं का ध्यान देश की सभी प्रमुख भाषाओं के विकास की ओर गया। संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई और केंद्रीय सरकार को यह दायित्व सौंपा गया कि वह हिंदी का विकास-प्रसार करें एवं उसे समृद्ध करे। तदनुसार भारत सरकार के केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 351 के अधीन हिंदी का विकास एवं समृद्धि की अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। इन योजनाओं में हिंदी में तकनीकी शब्दावली के निर्माण का कार्यक्रम भी शामिल किया गया ताकी ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में हिंदी के माध्यम से अध्ययन एवं अध्यापन हो सके। शब्दावली निर्माण कार्यक्रम को सही दिशा देने के लिए 1950 में शिक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में वैज्ञानिक शब्दावली बोर्ड की स्थापना की गई। पहले यह कार्य शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत हिंदी एकक द्वारा किया जाता था किन्तु बाद में विभिनन विषयों की हिंदी शब्दावली का निर्माण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि यह काम बहुत ही अधिक विशाल, गहन और बहुआयामी है। इसके पूरे होने में बहुत सकय लगेगा और इस कार्य के लिए सभी विषयों के विशेषज्ञों एवं भाषाविदों की आवश्यकता होगी। अतः भारत सरकार ने 1 अक्तूबर, 1961 को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ॰ डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की ताकि शब्दावली निर्माण का कार्य सही एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कार्यान्वित किया जा सके। .

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वेल्डिंग

दिल्ली के लौह स्तम्भ के निर्माण में वेल्डिंग का उपयोग हुआ था। झलाई या वेल्डन, निर्माण (fabrication) की एक प्रक्रिया है जो चीजों को जोडने के काम आती है। झलाई द्वारा मुख्यतः धातुएँ तथा थर्मोप्लास्टिक जोड़े जाते हैं। इस प्रक्रिया में सम्बन्धित टुकड़ों को गर्म करके पिघला लिया जाता है और उसमें एक फिलर सामग्री को भी पिघलाकर मिलाया जाता है। यह पिघली हुई धातुएं एवं फिलर सामग्री ठण्डी होकर एक मजबूत जोड़ बन जाता है। झलाई के लिये कभी-कभी उष्मा के साथ-साथ दाब का प्रयोग भी किया जाता है। झलाई, दबाव द्वारा और द्रवण द्वारा किया जाता है। लोहार लोग दो धातुपिंडों को पीटकर जोड़ देते हैं यह दबाव द्वारा झलाई है। दबाव देने के लिए आज अनेक द्रवचालित दाबक (Hydraulic press) बने हैं, जिनका उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। द्रवण द्वारा झलाई में दोनों तलों को संपर्क में लाकर गलित अवस्था में कर देते हैं, जो ठंडा होने पर आपस में मिलकर ठोस और स्थायी रूप से जुड़ जाते हैं। गलाने का कार्य विद्युत् आर्क द्वारा संपन्न किया जाता है। .

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खड़ताल

खड़ताल (Castanets) एक तालवाद्य है जिसमें दो लगभग बराबर धातु, लकड़ी, फ़ाइबरग्लास या किसी अन्य सख़्त सामग्री से बने हिस्सों को एक हाथ में पकड़कर आपस में टकराने से ध्वनी उत्पन्न की जाती है। अक्सर इन दोनों हिस्सों को एक अंत पर धागे से बांधकर जोड़ा गया होता है। .

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खनन

सरलीकृत विश्व खनन मानचित्र पृथ्वी के गर्भ से धातुओं, अयस्कों, औद्योगिक तथा अन्य उपयोगी खनिजों को बाहर निकोलना खनिकर्म या खनन (mining) हैं। आधुनिक युग में खनिजों तथा धातुओं की खपत इतनी अधिक हो गई है कि प्रति वर्ष उनकी आवश्यकता करोड़ों टन की होती है। इस खपत की पूर्ति के लिए बड़ी-बड़ी खानों की आवश्यकता का उत्तरोत्तर अनुभव हुआ। फलस्वरूप खनिकर्म ने विस्तृत इंजीनियरों का रूप धारण कर लिया है। इसको खनन इंजीनियरी कहते हैं। संसार के अनेक देशों में, जिनमें भारत भी एक है, खनिकर्म बहुत प्राचीन समय से ही प्रचलित है। वास्तव में प्राचीन युग में धातुओं तथा अन्य खनिजों की खपत बहुत कम थी, इसलिए छोटी-छोटी खान ही पर्याप्त थी। उस समय ये खानें 100 फुट की गहराई से अधिक नहीं जाती थीं। जहाँ पानी निकल आया करता था वहाँ नीचे खनन करना असंभव हो जाता था; उस समय आधुनिक ढंग के पंप आदि यंत्र नहीं थे। .

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खनिज प्रसाधन

खनिज को छोटे टुकड़ों में तोड़ना (क्रशिंग) अधिकांश खनिज जिनसे धातु निस्सारित की जाती है, रासायनिक यौगिक, जैसे आक्साइड, सल्फाइड, कारबोनैट, सल्फेट और सिलिकेट के रूप में होते हैं। खनिज में मिश्रित अनुपयोगी पदार्थ को "विधातु" (गैग) कहते हैं। उस खनिज को जिसमें धातु की मात्रा लाभदायक होती है "अयस्क" (ओर) कहते हैं। खनिज से धातुनिस्तार के पूर्व अनेक क्रियाएँ अनिवार्य होती है जिन्हें सामूहिक रूप से अयस्क प्रसाधन (ओर ड्रेसिंग) कहते हैं। इसके द्वारा अयस्क में धातु की मात्रा का समृद्धीकरण करते हैं। इसमें दलना, पीसना और सांद्रण की क्रियाएँ सम्मिलित हैं। अयस्क का समृद्धिकरण उसमें निहित धातुओं के भिन्न-भिन्न भौतिक गुणों, जैसे रंग और द्युति, आपेक्षिक घनत्व, तलऊर्जा (सर्फ़ेस एनर्जी), अतिबेध्यता (पर्मिएबिलिटी) और विद्युच्चालकता, की सहायता से किया जाता है। .

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ख्यात

ख्यात इतिहास-सम्बन्धी साहित्य है जिसके लेखन का प्रचलन भारत के उन क्षेत्रों में था जिसे आजकल राजस्थान के नाम से जाना जाता है। अर्थात ख्यात ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। कुछ प्रसिद्ध ख्यात निम्नलिखित हैं-.

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गाथा

वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद 8. 32.1, 8.71.14)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्तिलभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। .

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गैस नली

गैस नली या 'गैसयुक्त नली' (gas-filled tube) एकप्रकार की एलेक्ट्रॉन नली है जिसमें विद्युत का प्रचालन मूलतः नलिका में भरी गैस या वाष्प के द्वारा होता है। इसको गैस विसर्जन नलिका (gas discharge tube) भी कहते हैं। इसमें किसी कुचालक ताप-रोधी पात्र (इनवेलप) के अन्दर कोई समुचित गैस भरी होती है और उसके भीतर एलेक्ट्रोडों का समुचित विन्यास (arrangement) किया गया होता है। प्राय: पात्र कांच की बनी होती है किन्तु कुछ नलिकाओं (विशेषतः शक्तिनलिकों के) के पात्र सिरैमिक के भी बनाये जाते हैं। सैनिक उपयोग की नलिकाओं के पात्र धातु के बने होते हैं जिनकी भीतरी सतह काँच की परत होती है। गैस नलिकाओं के वैद्युत गुणधर्म (electrical characteristics) इन नलिकाओं में भरी गैसों की प्रकृति और उनके दाब पर बहुत सीमा तक निर्भर करते हैं। .

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औद्योगिक क्रांति

'''वाष्प इंजन''' औद्योगिक क्रांति का प्रतीक था। अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुछ पश्चिमी देशों के तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में काफी बड़ा बदलाव आया। इसे ही औद्योगिक क्रान्ति (Industrial Revolution) के नाम से जाना जाता है। यह सिलसिला ब्रिटेन से आरम्भ होकर पूरे विश्व में फैल गया। "औद्योगिक क्रांति" शब्द का इस संदर्भ में उपयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक "लेक्चर्स ऑन दि इंड्स्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंग्लैंड" में सन् 1844 में किया। औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण के साथ आरम्भ हुआ। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने वाष्प की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी। अलग-अलग इतिहासकार औद्योगिक क्रान्ति की समयावधि अलग-अलग मानते नजर आते हैं जबकि कुछ इतिहासकार इसे क्रान्ति मानने को ही तैयार नहीं हैं। अनेक विचारकों का मत है कि गुलाम देशों के स्रोतों के शोषण और लूट के बिना औद्योगिक क्रान्ति सम्भव नही हुई होती, क्योंकि औद्योगिक विकास के लिये पूंजी अति आवश्यक चीज है और वह उस समय भारत आदि गुलाम देशों के संसाधनों के शोषण से प्राप्त की गयी थी। .

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आँत्वाँ लाव्वाज़्ये

लेवेजियर आँत्वाँ लॉरेंत लाव्वाज़्ये (या आँत्वाँ लॉरेंत लावासिये, Antoine Laurent Lavoisier फ्रेंच उच्चारण: ​; सन् १७४३-१७९४), फ्रांस का सुप्रसिद्ध रसायनज्ञ था। अट्ठारहवीं शताब्दी के रसायन क्रान्ति का वह केन्द्र था। रसायन और जीवविज्ञान दोनों के इतिहास पर उसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। अधिकांश लोग उसे आधुनिक रसायन का जनक मानते हैं। उसने सर्वप्रथम सिद्ध किया कि वायु के मुख्य घटक नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन हैं। .

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आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

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आरणमुल कनाटी

आरणमुल दर्पण आरणमुल कनाटी (मलयालम: ആറന്മുളക്കണ്ണാടി / आऱन्मुळक्कण्णाटि, अर्थ आरणमुल आईना) केरल के आरणमुल नामक गाँव में हाथों के साथ बनाया जाने वाला एक विशेष दर्पण है जिसे बनाने के लिए धातुओं के घोल का प्रयोग किया जाता है। धातुओं के मिश्रण के साथ बने होने के कारण यह साधारण शीशों से अलग है। इसे बनाने में प्रयुक्त धातुओं के मिश्रण के बारे में पूरे तौर पर कोई जानकारी नहीं मिलती और इसे विश्वकर्मा (मलयालम വിശ്വകർമ്മജർ) परिवार के रहस्य के तौर पर बचा कर रखा जा रहा है। धातुविज्ञानियों का कहना है कि इसमें तांबे और टिन के मिश्रण का प्रयोग किया गया है। इसके बाद इसको कई दिन पालिश करने के बाद चमकाया जाता है। यह ८ प्रमुख्य वस्तुओं "अष्टमंगल्यम" में से एक है जो केरल में एक दुल्हन के लिए शुभ मानी जाती हैं। .

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आर्सेनिक

आर्सेनिक, आवर्त सारणी के पंचम मुख्य समूह का एक रासायनिक तत्व है। इसकी स्थिति फास्फोरस के नीचे तथा एंटीमनी के ऊपर है। आर्सेनिक में अधातु के गुण अधिक और धातु के गुण कम विद्यमान हैं। इस धातु को उपधातु (मेटालॉयड) की श्रेणी में रखा जाता है। आर्सेनिक से नीचे एंटीमनी में धातुगुण अधिक हैं तथा उससे नीचे बिस्मथ पूर्णरूपेण धातु है। पंचम मुख्य समूह में नीचे उतरने पर धातुगुण में वृद्धि होती है। आर्सैनिक की कुछ विशेषताएं निम्नांकित हैं: .

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आघातवर्धनीयता

सोने की पन्नी, उसके आघातवर्धनीयता के गुण के कारण ही सम्भव हो पाती है। किसी पदार्थ को दबाने पर (या संपीडक प्रतिबल की स्थिति में) विकृत होकर दाब के लम्बवत दिशा में फैलने का गुण आघातवर्धनीयता (Malleability) कहलाता है। आघातवर्धनीय पदार्थों को हथौड़े से पीटकर या बेलकर (रोलिंग करके) आसानी से चपटा किया जा सकता है। धातुएँ प्रायः आघातवर्धनीय हैं। सोना, लोहा, अलुमिनियम, ताँबा, पीतल, चाँदी, सीसा आदि आघातवर्धनीय हैं। आधुनिक आवर्त सारणी के १ से १२ तक के समूहों के तत्त्व आघातवर्ध्य हैं। .

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आगम (जैन)

आगम शब्द का प्रयोग जैन धर्म के मूल ग्रंथों के लिए किया जाता है। केवल ज्ञान, मनपर्यव ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, चतुर्दशपूर्व के धारक तथा दशपूर्व के धारक मुनियों को आगम कहा जाता है। कहीं कहीं नवपूर्व के धारक को भी आगम माना गया है। उपचार से इनके वचनों को भी आगम कहा गया है। जब तक आगम बिहारी मुनि विद्यमान थे, तब तक इनका इतना महत्व नहीं था, क्योंकि तब तक मुनियों के आचार व्यवहार का निर्देशन आगम मुनियों द्वारा मिलता था। जब आगम मुनि नहीं रहे, तब उनके द्वारा रचित आगम ही साधना के आधार माने गए और उनमें निर्दिष्ट निर्देशन के अनुसार ही जैन मुनि अपनी साधना करते हैं। आगम शब्द का उपयोग जैन दर्शन में साहित्य के लिए किया जाता है। श्रुत, सूत्र, सुतं, ग्रन्थ, सिद्धांत, देशना, प्रज्ञापना, उपदेश, आप्त वचन, जिन वचन, ऐतिह्य, आम्नाय आदि सभी आगम के पर्यायवाची शब्द है। आगम शब्द "आ" उपसर्ग और गम धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ समन्तात अर्थात पूर्ण और गम धातु का अर्थ गति प्राप्त है अर्थात जिससे वस्तु तत्त्व (पदार्थ के रहस्य) का पूर्ण ज्ञान हो वह आगम है अथवा ये भी कहा जा सकता है कि आप्त पुरुष (अरिहंत, तीर्थंकर या केवली) जिनेश्वर रूप में जो ज्ञान का उपदेश देते है उन शब्दों को गणधर (उनके प्रमुख शिष्य) जिनकी लिपि बद्ध रूप में रचना करते है उन सूत्रों को आगम कहते है। .

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इब्रानी भाषा

हिब्रूभाषी क्षेत्र हिब्रू (עִבְרִית, Ivrit) सामी-हामी भाषा-परिवार की सामी शाखा में आने वाली एक भाषा है। ये इस्राइल की मुख्य- और राष्ट्रभाषा है। इसका पुरातन रूप बिब्लिकल हिब्रू यहूदी धर्म की धर्मभाषा है और बाइबिल का पुराना नियम इसी में लिखा गया था। ये हिब्रू लिपि में लिखी जाती है ये दायें से बायें पढ़ी और लिखी जाती है। पश्चिम के विश्वविद्यालयों में आजकल इब्रानी का अध्ययन अपेक्षाकृत लोकप्रिय है। प्रथम महायुद्ध के बाद फिलिस्तीन (यहूदियों का इज़रायल नामक नया राज्य) की राजभाषा आधुनिक इब्रानी है। सन् १९२५ई.

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इरीडियम

इरीडियम (Iridium) एक रासायनिक तत्त्व है। .

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कठोरता

विकर्स का कठोरतामापी एलास्टोमर पदार्थों के बल-विकृति ग्राफ में हिस्टेरिसिस पायी जाती है (प्रतिबल बढ़ाने पर और घटाने पर ग्राफ अलग-अलग मार्ग से जाता है)। इसे एलास्टिक हिस्टेरिस कहते हैं। प्रतिक्षेप कठोरता (रिबाउण्ड हार्डनेस) का मापन इसी सिद्धान्त पर आधारित है। प्रत्यास्थ पदार्थों में यह हिस्टेरिसिस् नहीं पायी जाती। कठोरता (Hardness) किसी ठोस का वह गुण है जिससे पता चलता है कि उस पर बल लगाने पर उसे स्थायी रूप से विकृत करने की कितनी सम्भावना है। सामान्यतः अधिक कठोर ठोस वह होता है जिसमें अन्तराणविक बल अधिक मजबूत होगा। कठोर पदार्थों के कुछ उदाहरण: सिरामिक (ceramics), कंक्रीट (concrete), कुछ धातुएँ तथा अतिकठोर पदार्थ। 'कठोरता' को मापने के अलग-अलग तरीके हैं.

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कठोरीकरण

भट्ठी से १२०० डिग्री सेल्सियस के तापमान पर ढलाई से बने भागों का ठंडा होने पर कठोरीकरण होता है। कठोरीकरण एक विधि है जिस से किसीभी नर्म पदार्थ, आमतौर पर धातु, को कठोर बना दिया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया कठोरीकरण कहलाती हैं। मिश्र धातुओं के लिए तापोपचार की प्रक्रिया से कठोरीकरण किया जाता है। इस क्रिया से पूर्ण धातु कठोर बनता है जिस कारण प्लास्टिक विरूपण के लिए वो प्रतिरोध प्रदान करता है। कई बार सिर्फ़ सतह का कठोरीकरण भी किया जाता है; जैसे कि लकडी का या प्राकृतिक तरीके से पत्थरोंका। .

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कारतूस

बन्दूक़ के कारतूस पिस्तौल के कारतूस कारतूस किसी बंदूक़, पिस्तौल या अन्य हथियार में डाली जाने वाली ऐसी वास्तु को कहते हैं जिसमें किसी धातु, प्लास्टिक या काग़ज़ के खोल में गोली और उसे धमाके के साथ तेज़ गति पर चला देने वाला पदार्थ हो। कारतूस का आकार विशेष रूप से हथियार की नली में डलने के लिए ठीक बनाया जाता है।, Vin T. Sparano, Macmillan, pp.

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क्रुप

क्रुप का प्रतीक: तीन छल्ले। आजकल ये तीन छल्ले थिसेनक्रुप (ThyssenKrupp) के लोगो में विद्यमान हैं। क्रुप (Krupp) एक जर्मन व्यवसायी परिवार जो लोहे और इस्पात के सामान तथा शस्त्रास्त्र (ammunition and armaments) तैयार करनेवाले यूरोप के सबसे बड़े और प्रसिद्ध कारखाने का स्वामी रहा। इस परिवार के व्यापारिक समूह का नाम फ्रीड्रिख क्रुप एजी (Friedrich Krupp AG) है। इस परिवार की उन्नति तथा अवनति जर्मनी के राजनीतिक उत्थान तथा पतन से संबंधित रही है। लोहे तथा इस्पात के व्यापार से क्रुप परिवार का संबंध यों तो १६वीं शताब्दी से ही रहा है, किंतु १९वीं तथा २०वीं शताब्दियों में जर्मन इस्पात की उन्नति तथा विश्वव्यापक युद्धों से यह परिवार मुख्यत: संबद्ध था। .

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क्षुद्रग्रह वर्णक्रम श्रेणियाँ

क्षुद्रग्रहों की वर्णक्रम-श्रेणियाँ (Asteroid spectral types) उनके उत्सर्जन वर्णक्रम (एमिशन स्पेक्ट्रम), रंग और कभी-कभी ऐल्बीडो (चमकीलेपन) के आधार पर निर्धारित होती हैं। बहुत हद तक यह क्षुद्रग्रहों की सतहों पर मौजूद सामग्रियों का भी संकेत देती हैं। छोटे क्षुद्रग्रहों में क्षुद्रग्रह की ऊपर की सतह और अंदरूनी रचना में कोई अंतर नहीं होता जबकि ४ वेस्टा जैसे बड़े क्षुद्रग्रहों की भीतरी संरचना बाहरी परत से काफ़ी भिन्न हो सकती है। .

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क्षेत्र उत्सर्जन

किसी धातु के पृष्ट पर लगाये गये विद्युत क्षेत्र के कारण उस धातु से निकलने वाले इलेक्ट्रानों को क्षेत्र इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन (Field electron emission या field emission (FE) या electron field emission) कहते हैं। .

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कैथोडी रक्षण

एक छोटी सी नाव के नीचे जस्ते का टुकड़ा स्क्रू द्वारा जोडा गया है। यह स्वयं संक्षारित होकर नाव के सतह को संक्षारण से बचाता है। इसलिये इसे 'उत्सर्गी कैथोड' (scrificial cathode) भी कहते हैं। कैथोडी रक्षण (Cathodic protection (CP)), धातुओं के सतह के संक्षारण को रोकने की एक तकनीक है। इस तकनीक में एक विद्युतरासायनिक सेल का इस प्रकार निर्माण किया जाता है है कि जिस धातु का संक्षारण रोकना होता है, उसे कैथोड बना दिया जाता है। .

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कैनोला

कैनोला कुकिंग ऑइल की बोतल कैनोला, रेपसीड या ब्रैसिका कैम्पेस्ट्रिस की दो फसलों (ब्रैसिका नैपस एल. और बी. कैम्पेस्ट्रिस एल.) में से एक को कहते हैं। इनके बीजों का उपयोग खाद्य तेल के उत्पादन में होता है जो मानव उपभोग के लिए अनुकूल होता है क्योंकि इसमें पारंपरिक रेपसीड तेलों की तुलना में इरुसिक एसिड की मात्रा कम होती है, साथ ही इसका इस्तेमाल मवेशियों का चारा तैयार करने में भी होता है क्योंकि इसमें जहरीले ग्लूकोसाइनोलेट्स का स्तर कम होता है। कैनोला को मूलतः कनाडा में कीथ डाउनी और बाल्डर आर.

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कैल्सियम

कैल्सियम (Calcium) एक रासायनिक तत्व है। यह आवर्तसारणी के द्वितीय मुख्य समूह का धातु तत्व है। यह क्षारीय मृदा धातु है और शुद्ध अवस्था में यह अनुपलब्ध है। किन्तु इसके अनेक यौगिक प्रचुर मात्रा में भूमि में मिलते है। भूमि में उपस्थित तत्वों में मात्रा के अनुसार इसका पाँचवाँ स्थान है। यह जीवित प्राणियों के लिए अत्यावश्यक होता है। भोजन में इसकी समुचित मात्र होनी चाहिए। खाने योग्य कैल्शियम दूध सहित कई खाद्य पदार्थो में मिलती है। खान-पान के साथ-साथ कैल्शियम के कई औद्योगिक इस्तेमाल भी हैं जहां इसका शुद्ध रूप और इसके कई यौगिकों का इस्तेमाल किया जाता है। आवर्त सारणी में कैल्शियम का अणु क्रमांक 20 है और इसे अंग्रेजी शब्दों ‘Ca’ से इंगित किया गया है। 1808 में सर हम्फ्री डैवी ने इसे खोजा था। उन्होंने इसे कैल्सियम क्लोराइड से अलग किया था। चूना पत्थर, कैल्सियम का महत्वपूर्ण खनिज स्रोत है। पौधों में भी कैल्शियम पाया जाता है। अपने शुद्ध रूप में कैल्शियम चमकीले रंग का होता है। यह अपने अन्य साथी तत्वों के बजाय कम क्रियाशील होता है। जलाने पर इसमें से पीला और लाल धुआं उठता है। इसे आज भी कैल्शियम क्लोराइड से उसी प्रक्रिया से अलग किया जाता है जो सर हम्फ्री डैवी ने 1808 में इस्तेमाल की थी। कैल्शियम से जुड़े ही एक अन्य यौगिक, कैल्सियम कार्बोनेट को कंक्रीट, सीमेंट, चूना इत्यादि बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अन्य कैल्शियम कंपाउंड अयस्कों, कीटनाशक, दुर्गन्धहर, खाद, कपड़ा उत्पादन, कॉस्मेटिक्स, लाइटिंग इत्यादि में इस्तेमाल किया जाता है। जीवित प्राणियों में कैल्शियम हड्डियों, दांतों और शरीर के अन्य हिस्सों में पाया जाता है। यह रक्त में भी होता है और शरीर की अंदरूनी देखभाल में इसकी विशेष भूमिका होती है। कैल्सियम अत्यंत सक्रिय तत्व है। इस कारण इसको शुद्ध अवस्था में प्राप्त करना कठिन कार्य है। आजकल कैल्सियम क्लोराइड तथा फ्लोरस्पार के मिश्रण को ग्रेफाइट मूषा में रखकर विद्युतविच्छेदन द्वारा इस तत्व को तैयार करते हैं। शुद्ध अवस्था में यह सफेद चमकदार रहता है। परन्तु सक्रिय होने के कारण वायु के आक्सीजन एवं नाइट्रोजन से अभिक्रिया करता है। इसके क्रिस्टल फलक केंद्रित घनाकार रूप में होते हैं। यह आघातवर्ध्य तथा तन्य तत्व है। इसके कुछ गुणधर्म निम्नांकित हैं- साधारण ताप पर यह वायु के ऑक्सीजन और नाइट्रोजन से धीरे धीरे अभिक्रिया करता है, परंतु उच्च ताप पर तीव्र अभिक्रिया द्वारा चमक के साथ जलता है और कैलसियम आक्साइड (CaO) बनाता है। जल के साथ अभिक्रिया कर यह हाइड्रोजन उन्मुक्त करता है और लगभग समस्त अधातुओं के साथ अभिक्रिरिया कर यौगिक बनाता है। इसके रासायनिक गुण अन्य क्षारीय मृदा तत्वों (स्ट्रांशियम, बेरियम तथा रेडियम) की भाँति है। यह अभिक्रिया द्वारा द्विसंयोजकीय यौगिक बनाता है। ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होने पर कैलसियम ऑक्साइड का निर्माण होता है, जिसे कली चूना और बिना बुझा चूना (quiklime) भी कहते हैं। पानी में घुलने पर कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड या शमित चूना या बुझा चूना (slaked lime) बनता है। यह क्षारीय पदार्थ है जिसका उपयोग गृह निर्माण कार्य में पुरतान काल से होता आया है। चूने में बालू, जल आदि मिलाने पर प्लास्टर बनता है, जो सूखने पर कठोर हो जाता है और धीरे-धीरे वायुमण्डल के कार्बन डाइऑक्साइड से अभिक्रिया कर कैलसियम कार्बोनेट में परिणत हो जाता है। कैलसियम अनेक तत्वों (जैसे हाइड्रोजन, फ्लोरीन, क्लोरीन, ब्रोमीन आयोडीन, नाइट्रोजन सल्फर आदि) के साथ अभिक्रिया कर यौगिक बनता है। कैलसियम क्लोराइड, हाइड्रोक्साइड, तथा हाइपोक्लोराइड का एक मिश्रण और ब्लिचिंग पाउडर कहलाता है जो वस्त्रों आदि के विरंजन में उपयोगी है। कैलसियम कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट भी उपयोगी है। अपाचयक तत्व होने के कारण कैलसियम अन्य धातुओं के निर्माण में काम आता है। कुछ धातुओं में कैलसियम मिश्रित करने पर उपयोगी मिश्र धातुएँ बनती हैं। कैलसियम के यौगिक के अनेक उपयोग हैं। कुछ यौगिक (नाइट्रेट, फॉसफेट आदि) उर्वरक के रूप में उपयोग में आते है। कैलसियम कार्बाइड का उपयोग नाइट्रोजन स्थिरीकरण उद्योग में होता है और इसके द्वारा एसिटिलीन गैस बनाई जाती है। कैलसियम सल्फेट द्वारा प्लास्टर ऑफ पेरिस बनाया जाता है। इसके अतिरक्ति कुछ यौगिक चिकित्सा, पोर्स्लोिन उद्योग, काच उद्योग, चर्म उद्योग तथा लेप आदि के निर्माण में उपयोगी है। भारत के प्राचीन निवासी कैलसियम के यौगिक तत्वों से परिचित थे। उनमें चूना (कैलसियम आक्साइड) मुख्य है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेषों से ज्ञात होता है तत्कालीन निवासी चूने का उपयोग अनेक कार्यों में करते थे। चूने के साथ कतिपय अन्य पदार्थों के मिश्रण से 'वज्रलेप' तैयार करने का प्राचीन साहित्य में प्राप्त होता है। चरक ने ऐसे क्षारों का वर्णन किया है जिनको विभिन्न समाक्षारों पर चूने की अभिक्रिया द्वारा बनाया जाता था। कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में कोपिया नामक एक स्थान से काँच बनाने के एक प्राचीन कारखाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उसका काल लगभग पाँचवी शती ईसवी पूर्व अनुमान किया जाता है। वहाँ से मिली काँच की वस्तुओं की परीक्षा से ज्ञात हुआ है कि उस काल के काँच बनाने में चूने का उपयोग होता था। .

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कोन्ड्राइट

NWA८६९ नामक कोन्ड्राइट उल्का का एक ७०० ग्राम का अंश कोन्ड्राइट (Chondrite) ऐसे पत्थरीले (ग़ैर-धातुदार) उल्काओं (मीट्योराइटों) को कहा जाता है जो उस धूल व कणों के बने हों जो सौर मंडल के शुरुआती सृष्टि-क्रम में मौजूद थे। ग्रहों, उपग्रहों और अन्य बड़ी वस्तुओं के निर्माण में उनमें शामिल सामग्री में पिघलाव और परतों में छट जाने जैसी प्रक्रिया हुई। प्रहारों के कारण इनसे भी उखड़कर उल्का बने लेकिन कोन्ड्राइट केवल वही उल्का होते हैं जिनमें ऐसी प्रक्रियाएँ न हुई हों और जो काफ़ी हद तक सौर मंडल के आरम्भिक काल में जैसे थे वैसे ही हों। ध्यान दें कि किसी कोन्ड्राइट में अक्सर ज़रा-बहुत धातु भी उपस्थित हो सकती है लेकिन उसका अधिकतर भाग पत्थरीला होता है। .

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कील

लोहे की बनी '''कीलें''' कांटी या कील (nail) इंजीनियरी, काष्ठकारी एवं निर्माण कार्य में उपयोग आने वाली पिन के आकार की वस्तु है। इसका उपयोग दो वस्तुओं को जो। दने के लिये किया जाता है। पहले कीलें रॉट आइरन की बनायी जातीं थी किन्तु आजकल इस्पात की एक मिश्रधातु से बनायी जातीं हैं तथा इनके ऊपर किसी धातु का लेप किया गया होता है। कील से जुड़े हुए दो भाग .

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अतिचालकता

सामान्य चालकों तथा अतिचालकों में ताप के साथ प्रतिरोधकता का परिवर्तन जब किसी मैटेरियल को 0°k तक ठंडा किया जाता है तो उसका प्रतिरोध पूर्णतः शून्य प्रतिरोधकता प्रदर्शित करते हैं। उनके इस गुण को अतिचालकता (superconductivity) कहते हैं। शून्य प्रतिरोधकता के अलावा अतिचालकता की दशा में पदार्थ के भीतर चुम्बकीय क्षेत्र भी शून्य हो जाता है जिसे मेसनर प्रभाव (Meissner effect) के नाम से जाना जाता है। सुविदित है कि धात्विक चालकों की प्रतिरोधकता उनका ताप घटाने पर घटती जाती है। किन्तु सामान्य चालकों जैसे ताँबा और चाँदी आदि में, अशुद्धियों और दूसरे अपूर्णताओं (defects) के कारण एक सीमा के बाद प्रतिरोधकता में कमी नहीं होती। यहाँ तक कि ताँबा (कॉपर) परम शून्य ताप पर भी अशून्य प्रतिरोधकता प्रदर्शित करता है। इसके विपरीत, अतिचालक पदार्थ का ताप क्रान्तिक ताप से नीचे ले जाने पर, इसकी प्रतिरोधकता तेजी से शून्य हो जाती है। अतिचालक तार से बने हुए किसी बंद परिपथ की विद्युत धारा किसी विद्युत स्रोत के बिना सदा के लिए स्थिर रह सकती है। अतिचालकता एक प्रमात्रा-यांत्रिक दृग्विषय (quantum mechanical phenomenon.) है। अतिचालक पदार्थ चुंबकीय परिलक्षण का भी प्रभाव प्रदर्शित करते हैं। इन सबका ताप-वैद्युत-बल शून्य होता है और टामसन-गुणांक बराबर होता है। संक्रमण ताप पर इनकी विशिष्ट उष्मा में भी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है। यह विशेष उल्लेखनीय है कि जिन परमाणुओं में बाह्य इलेक्ट्रॉनों की संख्या 5 अथवा 7 है उनमें संक्रमण ताप उच्चतम होता है और अतिचालकता का गुण भी उत्कृष्ट होता है। .

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अधातु

अधातु (non-metals) रासायनिक वर्गीकरण में प्रयुक्त होने वाला एक शब्द है। आवर्त सारणी का प्रत्येक तत्व अपने रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर धातु अथवा अधातु श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। (कुछ तत्व जिनमें दोनों के गुण पाये जाते हैं उन्हें उपधातु (metaloid) की श्रेणी में रखा जाता है।) आवर्त सारणी में ये १४वें (XIV) से लेकर १८वें (XVIII) समूह में दाहिने-ऊपरी कोने में स्थित हैं। इसके अलावा प्रथम समूह में सबसे उपर स्थित उदजन भी अधातु है। हाइड्रोजन के अलावा जारक, प्रांगार, भूयाति, गंधक, भास्वर, हैलोजन, तथा अक्रिय गैसें अधातु मानी जाती हैं। प्रायः आवर्त सारणी के केवल 18 तत्व अधातु की श्रेणी में गिने जाते हैं जबकि धातु की श्रेणी में 80 से भी अधिक तत्व आते हैं। फिर भी पृथ्वी के गर्भ का, वायुमण्डल और जलमण्डल का अधिकांश भाग अधातुएँ ही हैं। जीवों की संरचना में भी अधातुओं का ही अधिकांशता है। .

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अपघर्षक

औद्योगिक अपघर्षक अपघर्षक ऐसे पदार्थ हैं जिन्हें किसी वस्तु के ऊपर रगड़कर उस वस्तु का आकार बदलने या उसे अधिक चिकना (smooth) बनाने का काम आता है। यह प्राकृतिक तथा कृत्रिम पदार्थों को मिलाकर बनाया जाता है और लकड़ी, धातु तथा पत्थरों के प्रमार्जन तथा उनपर चमक पैदा करने के कामों में लाया जाता है। प्राकृतिक अपघर्षकों में कुरुबिंद (कोरंडम, corundum), एमरी, (emery), बालू (sand) तथा विविध प्रकार के पत्थर हैं, जिनका उपयोग पेषण पत्थर और शाणचक्रों (grinding wheels) के बनाने में होता है। दूसरे प्राकृतिक अपघर्षक भी हैं, जो इतने लाभदायक और अधिक उपयोगी नहीं हैं। कभी-कभी अपघर्षकों का प्रयोग चिकना बनाने के बजाय खुरदरा बनाने के लिए भी किया जाता है। .

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अपघर्षी कर्तन

घूमता हुआ ग्राइंडर अपघर्षण से पदार्थ का कटना ग्राइण्डिंग (Grinding) या पेषण एक अपघर्षक मशीनिंग प्रक्रिया (abrasive machining process) है जो काटने के लिये शीण चक्र (grinding wheel) का उपयोग करती है। घर्षक या ग्राइण्डर लकड़ी, धातु तथा पत्थरों के प्रमार्जन तथा उनपर चमक पैदा करने के कामों में लाया जाता है। ये घर्षक प्राकृतिक तथा बनावटी पदार्थों को मिलाकर बनाया जाता है। कुरुबिंद (कोरंडम, corundum), एमरी, (emery), बालू (sand) तथा विविध प्रकार के पत्थर आदि प्राकृतिक घर्षक हैं, जिनका उपयोग पेषण पत्थर (सिलवट्ट / ग्राइन्डिंग स्लैब) और शाणचक्रों (grinding wheels) के बनाने में होता है। दूसरे प्राकृतिक घर्षक भी हैं, जो इतने लाभदायक और अधिक उपयोगी नहीं हैं। बनावटी घर्षकों में कारबोरंडम (carborundum), पिसा हुआ लोहा तथा इस्पात हैं। कारबोरंडम, कार्बन तथा कुरुबिंद को मिलाकर बनता है। इस्पात से एमरी भी बनाया जाता है। या तो इस्पात को पीसकर, या फिर इस्पात एमरी बनाकर घर्षक बनाते हैं। इस्पात एमरी बनाने का नियम यह है कि अच्छे इस्पात को अधिक तपाकर तुंरत जल में डाल देते हैं। इस ठंढे लोहे को यंत्रों द्वारा पीस लिया जाता है। इन प्राकृतिक तथा बनावटी घर्षकों को चिपकनेवाले पदार्थ के साथ मिलाकर पेषण पत्थर या शाणचक्र बनाए जाते हैं। इन चिपकनेवाले पदार्थों में काचित (Vitrified) सिलिकेट, चपड़ा (shellac), संश्लिष्ट रेजिन और रबर मुख्य हैं। विशेष भारी कामों के लिये, या ऐसे कामों के लिये जहाँ धातु को अधिक तीव्र गति पर घिसना होता है, काचित पदार्थ का उपयोग सबसे अधिक होता है। रबर ऐसे पतले चक्र बनाने के काम में लाया जाता है जिनसे किसी धातु को दो भागों में काटा जाता है। ये चक्र भंगुर नहीं होते और इस प्रकार इनके टूटने का डर नहीं रहता। घर्षक की संरचना पर ध्यान देना जरुरी है। संरचना से मतलब घर्षक के कणों की एक दूसरे से दूरी से है। दूर-दूर रखे गए कण मृदु और तन्य (ductile) धातु को ठीक प्रकार से काट सकते हैं, परंतु पास पास रखे गए कण कठोर तथा भंगुर धातु के लिये उपयुक्त होते हैं। पास पासवाले कण से अच्छी परिसज्जा (finish) होती है और समतल पर चमक आ जाती है। घर्षक के कणों के परिमाण का भी प्रभाव धातु पर पड़ता है। कठोर और भंगुर धातुएँ छोटे कण के घर्षक से अच्छी कटती हैं और इसी प्रकार ये घर्षक प्रमार्जन के लिय भी ठीक होते हैं। मोटे कण के घर्षकों से अधिक धातु कम समय में कट जाती है, परंतु अच्छी परिसज्जा नहीं हो पाती और धातु पर रेखाएँ पड़ जाती हैं। विभिन्न प्रकार के अपघर्षण कार्य श्रेणी:मशीनिंग.

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अभिलेख

कंधार स्थित सम्राट अशोक के द्वारा उत्कीर्ण एक पाषाण अभिलेख अभिलेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासको के द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है। .

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अमरकोश

अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है। इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं। इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पंडितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई। .

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अल्बर्ट हॉल संग्रहालय

अल्बर्ट हॉल संग्रहालय (अंग्रेजी:Albert Hall Museum) भारत के राजस्थान राज्य के जयपुर ज़िले में स्थित एक संग्रहालय है। यह राजस्थान का सबसे पुराना संग्रहालय है। यह संग्रहालय "राम निवास उद्यान" के बाहरी ओर सीटी वॉल के नये द्वार के सामने है। यह "भारत-अरबी शैली" में बनाई गयी एक बिल्डिंग है। इसकी डिजाइन सर सैम्युल स्विंटन जैकब ने की थी तथा यह पब्लिक संग्रहालय के रूप में 1887 में खुला था। .

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अश्वनाल

अश्वनाल (horseshoe) धातु या सख़्त प्लास्टिक का बना एक चपटा आकार होता है जिसे घोड़ों के खुरों को पत्थरों, सड़कों व अन्य कठोर स्थानों पर चलते हुए या भार ढोते हुए सुरक्षित रखने के लिए उनके खुरों के नीचे कीलों से लगाया जाता है। खुर केराटिन के बने होते हैं और उनमें कोई स्पर्शबोध नहीं होता इसलिए प्राणी को इस से कोई चोट या पीढ़ा नहीं होती बल्कि उसका खुर घिसने या टूटने से बचा रहता है। कभी-कभी इसे कील से जोड़ने की बजाए एक मज़बूत गोंद से भी चिपकाया जाता है। इसे कभी-कभी घुड़नाल भी कहते हैं हालांकि ध्यान दें कि पारम्परिक रूप से "घुड़नाल" वास्तव में घोड़े की पीठ पर रख के चलाई जाने वाली एक प्रकार की तोप हुआ करती थी (इसी प्रकार ऊँट की पीठ पर "शतुरनाल" और हाथी की पीठ पर "गजनाल" हुआ करती थीं)। .

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अष्टधातु

अष्टधातु, (शाब्दिक अर्थ .

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अष्टाध्यायी

अष्टाध्यायी (अष्टाध्यायी .

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अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र

(100) आणुविक स्तर पर सतहों को देखने के लिये अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र (अंगरेजी में.

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अकार्बनिक रसायन

प्रांगार को छोड़कर शेष सभी तत्वों और उनके योगिकों की मीमांसा करना अकार्बनिक रसायन (Inorganic chemistry) का क्षेत्र है। बोरॉन, सिलिकन, जर्मेनियम आदि तत्व भी लगभग उसी प्रकार के विविध यौगिक बनाते हैं, जैसे कार्बन। पर इस पार्थिव सृष्टि में उनका उतना महत्व नहीं है जितना कार्बन यौगिकों का, इसलिए कार्बनिक रसायन का अन्य तत्वों से पृथक्‌ रासायनिक क्षेत्र मान लिया गया है। मनुष्य एवं वनस्पतियों का जीवन कार्बन यौगिकों के चक्र पर निर्भर है, अत: कार्बनिक यौगिकों को एक अलग उपांग में रखना कुछ अनुचित नहीं है। यह कार्बन ही है जो पृथ्वी पर पाए जानेवाले सामान्य ताप (०° से ४०°) पर अनेक स्थायी समावयवी यौगिक दे सकता है। .

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उच्चतापसह धातु

उच्चतापसह धातु (Refractory metal, अर्थ: ऊंचा तापमान सहने वाली धातु) धातुओं की एक श्रेणी है जो अत्याधिक सख़्त होती हैं और बिना आकार खोये ऊँचा तापमान सह सकती हैं। इस श्रेणी में कौन-सी धातु शामिल है और कौन-सी नहीं इस बात को लेकर वैज्ञानिकों में मतभेद है, लेकिन आमतौर पर आवर्त सारणी (पीरियोडिक टेबल) की ५वीं कतार के दो तत्व - नायोबियम (Nb) व मोलिब्डेनम (Mo) - और ६ठीं कतार के तीन तत्व - टैंटेलम (Ta), टंग्स्टन (W) व रीनियम (Re) - इसमें शामिल माने जाते हैं। इन सभी का पिघलाव तापमान २००० °सेंटीग्रेड से अधिक होता है और साधारण तापमान पर यह सभी अधिक कठोरता प्रदर्शित करते हैं। यह अन्य तत्वों के साथ रासायनिक अभिक्रियाओं (रियेक्शन) में भी असानी से भाग नहीं लेते और अपनी शुद्धता बनाये रखते हैं। इन कारणों से औज़ारों और औद्योगिक प्रयोगों के लिये यह बहुत भरोसेमंद होते हैं। .

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उणादि सूत्र

उणादिसूत्र का अर्थ है: 'उण्' से प्रारंभ होने वाले कृत् प्रत्ययों का ज्ञापन करनेवाले सूत्रों का समूह। 'कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण्' यह उणादि का प्रारंभिक सूत्र है। शाकटायन को उणादिसूत्रों का कर्ता माना जाता है किन्तु स्व.

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उत्कृष्‍ट धातु

रसायन विज्ञान में उत्कृष्ट धातुएँ या राज धातुएँ (noble metals) वे धातुएँ हैं जिनका आर्द्र वायु के सम्पर्क में रहने के बावजूद क्षरण और ऑक्सीकरण बहुत कम होता है। रजत, स्वर्ण, प्लैटिनम, रोडियम, पैलेडियम आदि प्रमुख उत्कृष्ट धातुएँ हैं। .

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उपधातु

वे तत्व जिनमें धातु तथा अधातु दोनों के गुण पाए जाते हैं उन्हें उपधातु (Metalloid) कहते हैं। बोरान, सिलिकॉन, जर्मेनियम, आर्सेनिक, एण्टीमनी और टेल्युरियम - ये छः प्रायः उपधातु कहे जाते हैं। कार्बन, अलुमिनियम, सेलेनियम, पोलोनियम और एस्टेटीन (astatine) को भी कुछ सीमा तक उपधातु कहा जाता है। .

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छत

टोक्यो में कुछ घरों की छतें वास्तुकला में छत किसी कमरे, मकान, स्थापत्य या अन्य जगह को ऊपर से ढकने के लिए बनाए गए ढाँचे को कहते हैं। छत के द्वारा किसी इमारत की धूप, वर्षा, बर्फ़, हवा-आंधी और अन्य मौसमी तत्वों से, व जानवरों और कीटों से रक्षा की जा सकती है।, David Johnston, Scott Gibson, Taunton Press, 2008, ISBN 978-1-56158-973-9,...

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M-श्रेणी क्षुद्रग्रह

१६ सायकी (16 Psyche) एक M-श्रेणी का क्षुद्रग्रह है M-श्रेणी क्षुद्रग्रह (M-type asteroid) क्षुद्रग्रहों की एक श्रेणी है जिसके सदस्यों की बनावट के बारे में केवल अधूरी जानकारी ही उपलब्ध है। इनका ऐल्बीडो (चमक) मध्यम, और उसका माप ०.१ से ०.२ के बीच होता है। M-श्रेणी क्षुद्रग्रहों की तीसरी सबसे बड़ी श्रेणी है। .

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X-श्रेणी क्षुद्रग्रह

२९८ बैप्टिस्टीना के आकाश में मार्ग का चित्र - यह एक X-श्रेणी का क्षुद्रग्रह है X-श्रेणी क्षुद्रग्रह (X-type asteroid) क्षुद्रग्रहों की एक श्रेणी है जिसके सदस्यों के उत्सर्जन वर्णक्रम (एमिशन स्पेक्ट्रम) में समानता है हालांकि वास्तव में इस श्रेणी के क्षुद्रग्रहों में बहुत विविधता है। .

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