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द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध

सूची द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध मराठा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच १८०३ से १८०५ के दौरान हुआ था। श्रेणी:मराठा साम्राज्य.

8 संबंधों: पेशवा, पेशवा बाजीराव द्वितीय, यशवंतराव होलकर, होलकर, जुनागढ़ रियासत, विजित एवं सत्तांतरित प्रांत, कंपनी राज, ११ सितंबर

पेशवा

दरबारियों के साथ पेशवा मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा (मराठी: पेशवे) कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है। पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन छत्रपति शाहू के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (२५ सितंबर १७५०) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फडनवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार (३१ दिसम्बर १८०२) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; १३ जून १८१७, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।; पेशवाओं का शासनकाल-.

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पेशवा बाजीराव द्वितीय

बाजीराव द्वितीय बाजीराव द्वितीय (१७७५ – 1 जनवरी, १८५१), सन १७९६ से १८१८ तक मराठा साम्राज्य के पेशवा थे। इनके समय में मराठा साम्राज्य का पतन होना शुरू हुआ। इनके शासनकाल में अंग्रेजों के साथ संघर्ष शुरू हुआ। बाजीराव द्वितीय आठवाँ और अन्तिम पेशवा (1796-1818) था। वह रघुनाथराव (राघोवा) का पुत्र था। अपने प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस से बाजीराव द्वितीय सदा नफ़रत करता रहा। नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद वह स्वयं ही मराठा साम्राज्य की सत्ता सम्भालना चाहता था। बाजीराव द्वितीय एक क़ायर और विश्वासघाती व्यक्ति था, जिसने अंग्रेज़ों की सहायता प्राप्त करके पेशवा का पद प्राप्त किया था। परन्तु अंग्रेज़ों के साथ भी वह सच्चा सिद्ध नहीं हुआ। उसकी धोखेबाज़ी और बेइमानी के कारण अंग्रेज़ों ने उसे बंदी बनाकर बिठूर भेज दिया, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों से मित्रता करके उनकी सहायता से 'पेशवा' का पद प्राप्त किया था और उसके लिए कई मराठा क्षेत्र अंग्रेज़ों को दे दिये। बाजीराव द्वितीय स्वार्थी और अयोग्य शासक था तथा महत्त्वाकांक्षी होने के कारण अपने प्रधानमंत्री नाना फड़नवीस से ईर्ष्या करता था। फड़नवीस की मृत्यु 1800 ई. में हो गई और बाजीराव स्वयं ही सत्ता सम्भालने के लिए आतुर हो उठा। लेकिन वह सैनिक गुणों से रहित और व्यक्तिगत रूप से क़ायर था और समझता था, कि केवल छल कपट से ही अपने लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। .

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यशवंतराव होलकर

यशवंतराव होलकर तुकोजी होलकर का पुत्र था। वह उद्दंड होते हुए भी बड़ा साहसी तथा दक्ष सेनानायक था। तुकोजजी की मृत्यु पर (1797) उत्तराधिकार के प्रश्न पर दौलतराव शिंदे के हस्तक्षेप तथा तज्जनित युद्ध में यशवंतराव के ज्येष्ठ भ्राता मल्हरराव के वध (1797) के कारण, प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो यशवंतराव ने शिंदे के राज्य में निरंतर लूट-मार आरंभ कर दी। अहिल्या बाई का संचित कोष हाथ आ जाने से (18000 ई) उसकी शक्ति और भी बढ़ गई। 1802 में उसने पेशवा तथा शिंदे को सम्मिलित सेना को पूर्णतया पराजित किया जिससे पेशवा ने बसई भागकर अंग्रेजों से संधि की (31 दिसम्बर 1802)। फलस्वरूप द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ गया। शिंदे से वैमनस्य के कारण मराठासंघ छोड़ने में यशवंतराव ने बड़ी गलती की क्योंकि भोंसले तथा शिंदे क पराजय के बाद, होलकर को अकेले अंग्रेजों से युद्ध करना पड़ा। पहले ता यशवंतराव ने मॉनसन पर विजय पाई (1804), किंतु, फर्रूखाबाद (नवम्बर 17) तथा डीग (दिसंबर 13) में उसकी पराजय हुई। फलस्वरूप उसे अंग्रेजों से संधि स्थापित करनी पड़ी (24 दिसबंर, 1805) अंत में, पूर्ण विक्षिप्तावस्था में, तीस वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई (28 अक्टूबर 1811)। एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी। इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है। पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए। इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए। उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया। 11 सितंबर 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी। अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया। वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया। इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1811 ई. में सिर्फ 35 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए। इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है। .

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होलकर

होलकर राजवंश मल्हार राव से प्रारंभ हुआ जो १७२१ में पेशवा की सेवा में शामिल हुए और जल्दी ही सूबेदार बने। होल्कर वंश के लोग 'होलगाँव' के निवासी होने से 'होलकर' कहलाए। अतः पूरे भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में इस जाती को अलग अलग नाम से जाना जाता है परंतु यह एक ही जाती है इनके नाम अलग अलग है पूरे भारत में इनकी एक ही पहचान हैधनगर नाम से यह सब जातियां जानी जाती है जैसे(1) पाल (2)बघेल(3) गाडरी(4) गडरिया (5)होलकर (6)गायरी उन्होने और उनके वंशजों ने मराठा राजा और बाद में १८१८ तक मराठा महासंघ के एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में मध्य भारत में इंदौर पर शासन किया और बाद में भारत की स्वतंत्रता तक ब्रीटिश भारत की एक रियासत रहे। होलकर वंश उन प्रतिष्ठित राजवंशों मे से एक था जिनका नाम शासक के शीर्षक से जुडा, जो आम तौर पर महाराजा होल्कर या 'होलकर महाराजा' के रूप में जाना जाता था, जबकि पूरा शीर्षक 'महाराजाधिराज राज राजेश्वर सवाई श्री (व्यक्तिगत नाम) होलकर बहादुर, महाराजा ऑफ़ इंदौर' था। .

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जुनागढ़ रियासत

जूनागढ़ 1948 तक एक रियासत था, जिसपर बाबी राजवंश का शासन था। एकीकरण के दौरान भारतीय संघ में जनमत द्वारा शामिल कर लिया गया। .

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विजित एवं सत्तांतरित प्रांत

विजित एवं सत्तान्तरित प्रान्त १८०५ से १८३४ तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा शासित उत्तर भारत का एक क्षेत्र था;इसकी सीमाएं वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य के समान थी, हालांकि अवध के लखनऊ और फ़ैज़ाबाद मण्डल इसमें शामिल नहीं थे; इसके अलावा, इसमें दिल्ली क्षेत्र और, १८१६ के बाद, वर्तमान उत्तराखंड राज्य के कुमाऊँ मण्डल और गढ़वाल मंडल का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल था।  १८३६ में यह क्षेत्र एक लेफ्टिनेंट-गवर्नर द्वारा प्रशासित उत्तर-पश्चिमी प्रान्त बन गया, और १९०४ में संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के भीतर आगरा प्रान्त बन गया.

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कंपनी राज

कंपनी राज का अर्थ है ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर शासन। यह 1773 में शुरू किया है, जब कंपनी कोलकाता में एक राजधानी की स्थापना की है, अपनी पहली गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स नियुक्त किया और संधि का एक परिणाम के रूप में बक्सर का युद्ध के बाद सीधे प्रशासन, में शामिल हो गया है लिया जाता है1765 में, जब बंगाल के नवाब कंपनी से हार गया था, और दीवानी प्रदान की गई थी, या बंगाल और बिहार में राजस्व एकत्रित करने का अधिकार हैशा सन १८५८ से,१८५७ जब तक चला और फलस्वरूप भारत सरकार के अधिनियम १८५८ के भारतीय विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार सीधे नए ब्रिटिश राज में भारत के प्रशासन के कार्य ग्रहण किया। .

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११ सितंबर

11 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 254वॉ (लीप वर्ष में 255 वॉ) दिन है। साल में अभी और 111 दिन बाकी है। .

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