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द्रोणाचार्य

सूची द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भरद्वाज एकबार नदी ने स्नान करने गए। स्नान के समाप्ति के बाद उन्होंने देखा की अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो परे और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्हीने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भरद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया, जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रु, पद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। .

47 संबंधों: चक्रव्यूह, चीर हरण, टपकेश्वर मंदिर, एकलव्य, तपोवन, द्रौपदी, द्रोणपर्व, द्रोणाचार्य पुरस्कार, दैलेख जिला, देहरादून जिला, देहरादून का इतिहास, धृष्टद्युम्न, परशुराम, पाञ्चाल, पितृमेध, बृहदबला, भाई दया सिंह, महाभारत, महाभारत (२०१३ धारावाहिक), महाभारत भाग १९, महाभारत भाग ८, महाभारत में विभिन्न अवतार, महाभारत के पात्र, महाभारत की संक्षिप्त कथा, मोटेश्वर महादेव मन्दिर, सत्यजीत, सहदेव, मगध नरेश, सुशर्मा, सौप्तिकपर्व, हरियाणा का इतिहास, हिन्दी पुस्तकों की सूची/त, ज्वाला गुट्टा, घृताची, घृतार्ची, विश्वरूप, वृहद्क्षत्र, गुरुग्राम, गुरुकुल, गौतम बुद्ध नगर जिला, गेंदालाल दीक्षित, कर्णपर्व, काशीपुर, उत्तराखण्ड, कुरुक्षेत्र युद्ध, कृतज्ञ, अर्थशास्त्र (ग्रन्थ), अर्जुन, उपपाण्डव

चक्रव्यूह

चक्रव्यूह चक्रव्यूह या पद्मव्यूह हिंदू युद्ध शास्त्रों मे वर्णित अनेक व्यूहों (सैन्य-संरचना) में से एक है। .

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चीर हरण

के सौजन्य से श्रेणी:श्रीमद्भागवत श्रेणी:धर्म श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:धर्म ग्रंथ श्रेणी:पौराणिक कथाएँ.

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टपकेश्वर मंदिर

यह मंदिर देहरादून जिला देहरादून सिटी बस स्टेंड से 5.5 कि॰मी॰ की दूरी पर गढ़ी कैंट क्षेत्र में एक छोटी नदी के किनारे बना है। सड़क मार्ग द्वारा यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहाँ एक गुफा में स्थित शिवलिंग पर एक चट्टान से पानी की बूंदे टपकती रहती हैं। इसी कारण इसका नाम टपकेश्वर पड़ा है। शिवरात्रि के पर्व पर आयोजित मेले में लोग बड़ी संख्या में यहां एकत्र होते हैं और यहां स्थित शिव मूर्ति पर श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। पता - गढ़ी केंट, डोईवाला जिला-देहरादून, उत्तराखंड-248001;सम्पर्क सूत्र: श्री भारा गिरि जी, पुजारी;दिशा: यह क्लॉक टॉवर से 7.5 किलोमीटर की दूरी पर गढ़ी केंट में स्थित है।;आरती/प्रार्थना/का समय: 07:00 सुबह और 07:00 शाम;बंद रहता है: सभी दिन खुला रहता है।;देवता, जिनकी पूजा होती है: भगवान शिव .

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एकलव्य

गुरु द्रोण को गुरुदक्षिणा में अपना अंगुठा भेंट करता एकलव्य। एकलव्य महाभारत का एक पात्र है। वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था। एकलव्य को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश हो कर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुये अल्पकाल में ही वह धनु्र्विद्या में अत्यन्त निपुण हो गया। एक दिन पाण्डव तथा कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिये उसी वन में गये जहाँ पर एकलव्य आश्रम बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुँचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव तथा स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुर्कौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। कथा के अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है। वर्तमान काल में कोई भी व्यक्ति उस तरह से तीरंदाजी नहीं करता जैसा कि अर्जुन करता था। .

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तपोवन

तपोवन देहरादून-राजपुर रोड पर सिटी बस स्टेंड से लगभग ५ कि॰मी॰ दूर स्थित यह स्थान सुंदर दृश्यों से घिरा है। कहावत है कि गुरु द्रोणाचार्य ने इस क्षेत्र में तपस्या की थी। श्रेणी:देहरादून श्रेणी:भारत के तीर्थ.

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द्रौपदी

द्रौपदी महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। इस महाकाव्य के अनुसार द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री है जो बाद में पांचों पाण्डवों की पत्नी बनी। द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। ये कृष्णा, यज्ञसेनी, महाभारती, सैरंध्री आदि अन्य नामो से भी विख्यात है। द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव भाईयों से हुआ था। पांडवों द्वारा इनसे जन्मे पांच पुत्र (क्रमशः प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ती, शतानीक व श्रुतकर्मा) उप-पांडव नाम से विख्यात थे। .

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द्रोणपर्व

द्रोण पर्व के अन्तर्गत ८ उपपर्व और २०२ अध्याय हैं। .

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द्रोणाचार्य पुरस्कार

द्रोणाचार्य पुरस्कार, आधिकारिक तौर पर खेल और खेलों में उत्कृष्ट कोचों के लिए द्रोणाचार्य पुरस्कार के रूप में जाना जाता है, भारत गणराज्य के खेल कोचिंग सम्मान है। यह पुरस्कार द्रोण के नाम पर रखा गया है, जिसे अक्सर "द्रोणाचार्य" या "गुरु द्रोण" कहा जाता है, जो कि प्राचीन भारत के संस्कृत महाकाव्य महाभारत का एक पात्र है। वह उन्नत सैन्य युद्ध के स्वामी थे और कौरव और पांडव राजकुमारों को सैन्य कला और एस्ट्रस (दिव्य शस्त्र) में उनके प्रशिक्षण के लिए शाही राजनेता के रूप में नियुक्त किया गया था। इसे युवा मामलों और खेल मंत्रालय द्वारा सालाना दिया जाता है। प्राप्तकर्ताओं का चयन मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया जाता है और चार साल की अवधि में "एक सुसंगत आधार पर उत्कृष्ट और मेहनती काम और सक्षम खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय घटनाओं में उत्कृष्टता" करने के लिए सम्मानित किया गया है। दो पुरस्कार को कोचिंग में जीवन भर के योगदान के लिए नामित किया गया है जहां 20 वर्षों या उससे अधिक की अवधि में "बकाया खिलाड़ियों" के उत्पादन में उपलब्धियां माना जाता है। 2017 में, इस पुरस्कार में द्रोणाचार्य का एक कांस्य प्रतिमा, एक प्रमाण पत्र, औपचारिक पोशाक, और 5 लाख (यूएस $ 7,800) का नकद पुरस्कार शामिल है। १९८५ में स्थापित,यह पुरस्कार केवल ओलम्पिक खेलों, पैरालिंपिक खेलों, एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों, विश्व चैम्पियनशिप और विश्व कप और क्रिकेट, स्वदेशी खेलों और पारसपोर्ट जैसी घटनाओं में शामिल विषयों को दिया जाता है। किसी दिए गए वर्ष के नामांकन अप्रैल के ३० अप्रैल या अंतिम कार्य दिवस तक स्वीकार किए जाते हैं। एक दस सदस्यीय समिति नामांकन का मूल्यांकन करती है और बाद में अपनी मंजूरी प्रस्तुत करती है जो आगे की मंजूरी के लिए युवा मामलों के मंत्री को सौंपती है। इस पुरस्कार के पहले प्राप्तकर्ता भालचंद्र भास्कर भागवत (कुश्ती), ओम प्रकाश भारद्वाज (मुक्केबाजी), और ओ एम। नांबियार (एथलेटिक्स) थे, जिन्हें १९८५ में सम्मानित किया गया था। आम तौर पर एक वर्ष में पांच से अधिक प्रशिक्षकों को नहीं दिया जाता है, कुछ अपवाद (2012 और 2016-17) किए गए हैं जब एक वर्ष में अधिक प्राप्तकर्ताओं को सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार के हालिया प्राप्तकर्ता आर गांधी (एथलेटिक्स), हीरा नंद कटारिया (कबड्डी) के साथ जीएसएसवी प्रसाद (बैडमिंटन), बृज भूषण मोहंती (बॉक्सिंग), पीए रैपल (हॉकी), संजय चक्रवर्ती (शूटिंग) और रोशन लाल (रेसलिंग) को उनके जीवनकाल में योगदान के लिए सम्मानित किया गया था। .

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दैलेख जिला

दैलेख जिला नेपाल के भेरी अंचल का एक जिला है। दैलेख नेपाल के मध्य पश्चिमांचल विकास क्षेत्र व भेरी अंचल का एक जिला है। यह एक विकट पहाड़ी जिलों की श्रेणी मे गिना जाता है। इस जिले की आकृति त्रिभुजाकार है। यहां की सबसे उंची चोटी "महाबुलेक" और सबसे कम उचाईंवाला स्थान "तल्लो डुंगेश्वर" नामक स्थान है। इस जिले की सीमायें पूर्व में भेरी अंचल के जाजरकोट जिला, पश्चिम में सेती अंचल के अछाम जिला दक्षिण में भेरी अंचल के सुर्खेत जिला और उत्तर में कर्णाली अंचल के कालिकोट जिले के साथ जुड़ी हुई हैं। इस जिले की भौगोलिक बनावट को मुख्यतया तीन हिस्सों में बांटा जाता है।.

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देहरादून जिला

यह लेख देहरादून जिले के विषय में है। नगर हेतु देखें देहरादून। देहरादून, भारत के उत्तराखंड राज्य की राजधानी है इसका मुख्यालय देहरादून नगर में है। इस जिले में ६ तहसीलें, ६ सामुदायिक विकास खंड, १७ शहर और ७६४ आबाद गाँव हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ १८ गाँव ऐसे भी हैं जहाँ कोई नहीं रहता। देश की राजधानी से २३० किलोमीटर दूर स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यह नगर अनेक प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों के कारण भी जाना जाता है। यहाँ तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग, सर्वे ऑफ इंडिया, भारतीय पेट्रोलियम संस्थान आदि जैसे कई राष्ट्रीय संस्थान स्थित हैं। देहरादून में वन अनुसंधान संस्थान, भारतीय राष्ट्रीय मिलिटरी कालेज और इंडियन मिलिटरी एकेडमी जैसे कई शिक्षण संस्थान हैं। यह एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। अपनी सुंदर दृश्यवाली के कारण देहरादून पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और विभिन्न क्षेत्र के उत्साही व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। विशिष्ट बासमती चावल, चाय और लीची के बाग इसकी प्रसिद्धि को और बढ़ाते हैं तथा शहर को सुंदरता प्रदान करते हैं। देहरादून दो शब्दों देहरा और दून से मिलकर बना है। इसमें देहरा शब्द को डेरा का अपभ्रंश माना गया है। जब सिख गुरु हर राय के पुत्र रामराय इस क्षेत्र में आए तो अपने तथा अनुयायियों के रहने के लिए उन्होंने यहाँ अपना डेरा स्थापित किया। www.sikhiwiki.org.

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देहरादून का इतिहास

फारसी महाभारत में पाँचों पांडव और कृष्ण के साथ द्रोणाचार्यमान्यता है कि द्वापर युग में गुरु द्रोणाचार्य ने द्वारागांव के पास देहरादून शहर से 19 किमी पूर्व में देवदार पर्वत पर तप किया था। इसी से यह घाटी द्रोणाश्रम कहलाती है।.

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धृष्टद्युम्न

धृष्टद्युम्न पांचालराज द्रुपद का अग्नि तुल्य तेजस्वी पुत्र। यह पृषत अथवा जंतु राजा का नाती, एवं द्रुपद राजा का पुत्र था। द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये, प्रज्त्रलित अग्निकुंड से इसका प्रादुर्भाव हुआ था। फिर उसी वेदी में से द्रौपदी प्रकट हुई थी। अतः इन दोनों को ‘अयोनिसंभव’ एवं इसे द्रौपदी का ‘अग्रज बंधु’ कहा जाता है। अग्नि के अंश से इसका जन्म हुआ था। इसे ‘याज्ञसेनि’, अथवा ‘यज्ञसेनसुत’ भी कहते थे। द्रोण से बदला लेने के लिये, द्रुपद ने याज एवं उपयाज नामक मुनियों के द्वारा एक यज्ञ करवाया। उस यज्ञ के ‘हविष्य’ सिद्ध होते ही, याज ने द्रुपद की रानी सौत्रामणी को, उसका ग्रहण करने के लिये बुलाया। महारानी के आने में जरा देर हुई। फिर याज ने क्रोध से कहा, ‘रानी! इस हविष्य को यज ने तयार किया है, एवं उपयाज ने उसका संस्कार किया है। इस कारण इससे संतान की उत्पत्ति अनिवार्य है। तुम इसे लेने आवो, या न आओ’। इतना कह कर, याज ने उस हविष्य की अग्नि में आहुति दी। फिर उस प्रज्वलित अग्नि से, यह एक तेजस्वी वीरपुरुष के रुपो में प्रकट हुआ। इसके अंगों की कांति अग्निज्वाला के समान तेजस्वी थी। इसके मस्तक पर किरीट, अंगों मे उत्तम कवच, एवं हाथों में खड्ग, बाण एवं धनुष थे। अग्नि से बाहेर आते ही, यह गर्जना करता हुआ एक रथ पर जा चढा मानो कही युद्ध के लिये जा रहा हो। उसी समय, आकाशवाणी हुई, ‘यह कुमार पांचालों का दुःख दूर करेगा। द्रोणवध के लिये इसका अवतार हुआ है उपस्थित पांचालो को बडी प्रसन्नता हुई। वे ‘साधु, साधु’; कह कर, इसे शाबाशी देने लगे। द्रौपदी स्वयंवर के समय, ‘मत्स्यवेध’ के प्रण की घोषणा द्रुपद ने धृष्टद्युम्न के द्वारा ही करवायी थी स्वयंवर के लिये, पांडव ब्राह्मणो के वंश में आये थे। अर्जुन द्वारा द्रौपदीजीति जाने पर, ‘एक ब्राह्मण ने क्षत्रियकन्या को जीत लिया’, यह बात सारे राजमंडल में फैल गयी। सारा क्षत्रिय राजमंडल क्रुद्ध हो गया। बात युद्ध तक आ गयी। फिर इसने गुप्तरुप से पांडवों के व्यवहार का निरीक्षण किया, एवं सारे राजाओं को विश्वास दिलाया ‘ब्राह्मणरुपधारी व्यक्तियॉं पांडव राजपुत्र है’ । धृष्टद्युम्न अत्यंत पराक्रमी था। इसे द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या सिखाई। भारतीय युद्ध में यह पांडवपक्ष मे था। प्रथम यह पांडवों की सेना में एक अतिरथी था। इसकी युद्धचपलता देख कर, युधिष्ठिर ने इसे कृष्ण की सलाह से सेनापति बना दिया युद्धप्रसंग में धृष्टद्युम्न ने बडे ही कौशल्य से अपना उत्तरदायित्व सम्हाला था। द्रोण सेनापति था, तब भीम ने अश्वत्थामा नामक हाथी को मार कर, किंवदंती फैला दी कि, ‘अश्वत्थामा मृत हो गया’। तब पुत्रवध की वार्ता सत्य मान कर, उद्विग्र मन से द्रोणाचार्य ने शस्त्रसंन्यास किया। तब अच्छा अवसर पा कर, धृष्टद्युम्न ने द्रोण का शिरच्छेद किया धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य की असहाय स्थिति में उसका वध किया। यह देख कर सात्यकि ने धृष्टद्युम्न की बहुत भर्त्सना की। तब दोनों में युद्ध छिडने की स्थिति आ गयी। परंतु कृष्ण ने वह प्रसंग टाल दिया। आगे चल कर, युद्ध की अठारहवे दिन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामन ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिये, कौरवसेना का सैनापत्य स्वीकार किया। उसी रात को त्वेष एवं क्रोध के कारण पागलसा हो कर, वह पांडवों के शिबिर में सर्वसंहार के हेतु घुस गया। सर्वप्रथम अपने पिता के खूनी धृष्टद्युम्न के निवास में वह गया। उस समय वह सो रहा था। अश्वत्थामन ने इसे लत्ताप्रकार कर के जागृत किया। फिर धृष्टद्युम्न शस्त्रप्रहार से मृत्यु स्वीकारने के लिये तयार हुआ। किंतु अश्वत्थामन् ने कहा, ‘मेरे पिता को निःशस्त्र अवस्था में तुमने मारा हैं। इसलिये शस्त्र से मरने के लायक तुम नहीं हो’। पश्चात् अश्वत्थामन् ने इसे लाथ एवं मुक्के से कुचल कर, इसका वध किया। बाद में उसने पांडवकुल का ही पूरा संहारा किया। .

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परशुराम

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक ब्राह्मण थे। उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। .

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पाञ्चाल

पांचाल या पांचाल प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था। यह उत्तर में हिमालय के भाभर क्षेत्र से लेकर दक्षिण में चर्मनवती नदी के उत्तरी तट के बीच के मैदानों में फैला हुआ था। इसके पश्चिम में कुरु, मत्स्य तथा सुरसेन राज्य थे और पूर्व में नैमिषारण्य था। बाद में यह दो भागों में बाँटा गया। उत्तर पांचाल हिमालय से लेकर गंगा के उत्तरी तट तक था तथा उसकी राजधानी अहिछत्र थी तथा दक्षिण पांचाल गंगा के दक्षिणी तट से लेकर चर्मनवती तक था और उसकी राजधानी काम्पिल्य थी। अखण्ड पांचाल की सत्ता पाण्डवों के ससुर तथा द्रौपदी के पिता द्रुपद के पास थी। कहा जाता है कि पहले द्रुपद तथा पाण्डवों और कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य के बीच घनिष्ट मित्रता थी लेकिन कुछ कारणवश दोनों में मन-मुटाव हो गया। फलतः दोनों के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध में द्रुपद की हार हुयी और पांचाल का विभाजन हुआ। उत्तर पांचाल के राजा द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मनोनीत हुये तथा द्रुपद को दक्षिण पांचाल से ही संतोष करना पड़ा। दोनों राज्यों को गंगा अलग करती थी। .

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पितृमेध

पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्एक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। .

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बृहदबला

बृहदबला भारतीय महाकाव्य महाभारत में एक चरित्र है। वह भगवान् राम के एक वंशज थे, वह इक्ष्वाकु राजवंश के अंतर्गत विश्रुतवन्ता के पुत्र के रूप में कोशल राज्य के अंतिम शासक थे। कुरुक्षेत्र युद्ध में बृहदबला ने कौरवों की ओर से युध्द लड़ा और चक्रव्यूह में अभिमन्यु द्वारा मारा गया था। .

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भाई दया सिंह

भाई दया सिंह (१६६१–१७०८) १७वीं सदी के भारत में ख़ालसा पंथ की शुरूआत करने वाले प्रथम पाँच सिखों पंज प्यारे में से एक थे। बचित्र नाटक में, गुरू गोविन्द सिंह ने दयाराम की बहादुरी की भगानी के युद्ध में प्रशंसा की है और महाभारत के द्रोणाचार्य से तुलना की है। उनके नाम का महत्व जीवों के प्रति दया भाव रखना भी है। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महाभारत (२०१३ धारावाहिक)

यह लेख 2013 में शुरु हुए धारावाहिक के उपर हैं, पुराने वाले के लिए देखे महाभारत (टीवी धारावाहिक)। फ़िल्म के लिए महाभारत (२०१३ फ़िल्म)। | show_name .

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महाभारत भाग १९

बाणो की शय्या पर लेटे भीष्म दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। जब पांडवों को ये समझ में आ गया की भीष्म के रहते वो इस युद्ध को नहीं जीत सकते तो श्रीकृष्ण के सुझाव पर उन्होंने भीष्म पितामह से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा.

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महाभारत भाग ८

कोई विवरण नहीं।

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महाभारत में विभिन्न अवतार

यहाँ पर महाभारत में वर्णित अवतारों की सूची दी गयी है और साथ में वे किस देवता के अवतार हैं, यह भी दर्शाया गया है। .

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महाभारत के पात्र

* विदुर: हस्तिनापुर का महामंत्री।.

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महाभारत की संक्षिप्त कथा

महाभारत प्राचीन भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य है। ये एक धार्मिक ग्रन्थ भी है। इसमें उस समय का इतिहास लगभग १,११,००० श्लोकों में लिखा हुआ है। इस की पूर्ण कथा का संक्षेप इस प्रकार से है। .

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मोटेश्वर महादेव मन्दिर

मोटेश्वर महादेव मंदिर भारत के उत्तरी राज्य उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर जिले के काशीपुर तहसील में स्थित एक मन्दिर है। यहां के चैती मैदान में महादेव नगर के किनारे चैती मंदिर स्थित यह मंदिर महाभारत कालीन बताया जाता है और इसका शिवलिंग बारहवां उप ज्योतिर्लिंग माना जाता है। शिवलिंग की मोटाई अधिक होने के कारण यह मोटेश्वर महादेव मंदिर के नाम से विख्यात है। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव ने कहा कि जो भक्त कांवड़ कंधे पर रखकर हरिद्वार से गंगा जल लाकर यहां चढ़ाएगा, उसे मोक्ष मिलेगा। इसी मान्यता के कारण लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर यहा लोग कांवड़ चढ़ाते हैं। मोटेश्वर महादेव मंदिर दूसरी मंजिल पर है। इस शिवलिंग के चारों ओर तांबे का फर्श बना है और इसे जागेश्वर के एक कारीगर ने बनाया था। शिवलिंग की मोटाई अधिक होने के कारण इसे कोई अपने दोनों हाथों से घेर नहीं पाता है। .

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सत्यजीत

सत्यजीत पांचाल नरेश द्रुपद का पुत्र और, धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का भाई था। इसके अतिरिक्त उसके अन्य भाई थे, उत्तमानुज और युद्धमन्यु और शिखंडी। महाभारत के युद्ध में वह पाण्डव सेना की ओर से लडा।सत्यजीत का वध द्रोणाचार्य के हाथों हुआ था। .

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सहदेव, मगध नरेश

सहदेव मगध का राजा था और जरासंध का पुत्र। वह पाण्डव सेना का एक योद्धा था। सहदेव का वध द्रोणाचार्य के हाथों हुआ था। .

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सुशर्मा

हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत के अनुसार सुशर्मा त्रिगर्त देश का राजा था। वह एक महान योद्धा था और अर्जुन के कट्टर प्रतिद्वंदी था। उसने कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के विरुद्ध संसप्तक शक्ति का प्रयोग किया। तेरहवें दिन के युद्ध में उसने अर्जुन को चक्रव्यूह से दुर रखने का कार्य किया, यद्यपि वह ये जानता था, कि वह अर्जुन को परास्त नहीं कर सकता। उसे ये कार्य इसलिए सौंपा गया था, क्योंकि कौरव सेनापति द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए चक्रव्यूह की रचना की हुई थी और पाण्डव सेना में अर्जुन के अतिरिक्त कोई भी चक्रव्यूह भेदन नहीं जानता था। वीर सुशर्मा अपने भाइयों समेत अर्जुन द्वारा उसी दिन के युद्ध मे मारा गया। .

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सौप्तिकपर्व

सौप्तिक पर्व में ऐषीक पर्व नामक मात्र एक ही उपपर्व है। इसमें १८ अध्याय हैं। .

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हरियाणा का इतिहास

हालाँकि हरियाणा अब पंजाब का एक हिस्सा नहीं है पर यह एक लंबे समय तक ब्रिटिश भारत में पंजाब प्रान्त का एक भाग रहा है और इसके इतिहास में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। हरियाणा के बानावाली और राखीगढ़ी, जो अब हिसार में हैं, सिंधु घाटी सभ्यता का हिस्सा रहे हैं, जो कि ५,००० साल से भी पुराने हैं। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/त

* तकीषी की कहानियां - बी.डी. कृष्णन.

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ज्वाला गुट्टा

ज्वाला गुट्टा (जन्म: 7 सितंबर 1983; वर्धा, महाराष्ट्र) एक भारतीय बैडमिंटन खिलाडी हैं। .

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घृताची

घृताची प्रसिद्ध अपसरा जो कश्यप ऋषि तथा प्राधा की पुत्री थी। पौराणिक परंपरा के अनुसार घृताची से रुद्राश्व द्वारा १० पुत्रों, कुशनाभ से १०० पुत्रियों, च्यवन पुत्र प्रमिति से कुरु नामक एक पुत्र तथा एकमत से वेदव्यास से शुकदेव का जन्म हुआ। एक बार भरद्वाज ऋषि ने इसे गंगा में स्नान करते देखा और उनका वीर्यपात हो गया। वीर्य को उन्होंने एक द्रोणि (मिट्टी का बर्तन) में रख दिया जिससे द्रोणाचार्य पैदा हुए कहे जाते हैं। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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घृतार्ची

घृतार्ची एक अप्सरा थी, जिसे द्रोणाचार्य की माता माना जाता है। द्रोण इनके भरद्वाज ऋषि से उत्पन्न हुए थे। .

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विश्वरूप

विश्वरूप अथवा विराट रूप भगवान विष्णु तथा कृष्ण का सार्वभौमिक स्वरूप है। इस रूप का प्रचलित कथा भगवद्गीता के अध्याय ११ पर है, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में विश्वरूप दर्शन कराते हैं। यह युद्ध कौरवों तथा पाण्डवों के बीच राज्य को लेकर हुआ था। इसके संदर्भ में वेदव्यास कृत महाभारत ग्रंथ प्रचलित है। परंतु विश्वरूप दर्शन राजा बलि आदि ने भी किया है। भगवान श्री कृष्ण नें गीता में कहा है-- पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।। अर्थात् हे पार्थ! अब तुम मेरे अनेक अलौकिक रूपों को देखो। मैं तुम्हें अनेक प्रकार की आकृतियों वाले रंगो को दिखाता हूँ। कुरुक्षेत्र में कृष्ण और अर्जुन युद्ध के लिये तत्पर। विश्वरूप अर्थात् विश्व (संसार) और रूप। अपने विश्वरूप में भगवान संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन एक पल में करा देते हैं। जिसमें ऐसी वस्तुऐं होती हैं जिन्हें मनुष्य नें देखा है परंतु ऐसी वस्तुऐं भी होतीं हैं जिसे मानव ने न ही देखा और न ही देख पाएगा। .

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वृहद्क्षत्र

वृहद्क्षत्र ने कैकेय देश के पाँचो कैकेय भाईयों का नेतृत्व किया। यह स्थान आज के पाकिस्तान में कहीं स्थित है। कैकेय बंधुओं ने बहुत से योद्धाओं से युद्ध किया। वृहद्क्षत्र ने क्षेमधुर्ति का वध किया। वृहद्क्षत्र पाण्डव पक्ष का योद्धा था। तीनों भाईयों, पुरूजीत, धृष्टकेतु और वृहद्क्षत्र का वध चौदहवें दिन के युद्ध में द्रोणाचार्य के हाथों हुआ। अन्य कैकेय बंधु अपने अन्य भाईयों द्वारा मारे गए जो कौरव सेना की ओर से युद्ध कर रहे थे। .

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गुरुग्राम

गुरुग्राम (पूर्व नाम: गुड़गाँव), हरियाणा का एक नगर है जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से सटा हुआ है। यह दिल्ली से ३२ किमी.

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गुरुकुल

अंगूठाकार ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल के पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-.

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गौतम बुद्ध नगर जिला

गौतम बुद्ध नगर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक मह्त्वपूर्ण जिला है। इस जिले की स्थापना 9 जून 1997 को बुलन्दशहर एवं गाजियाबाद जिलों के कुछ ग्रामीण व अर्द्धशहरी क्षेत्रों को काटकर की गयी थी। प्रदेश में सत्ता-परिवर्तन होते ही मुलायम सिंह यादव ने इस जिले को भंग कर दिया जिसके विरोध में यहाँ की जनता ने प्रबल आन्दोलन किया था। बाद में जनता के दबाव को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को अपना निर्णय बदलना पड़ा और जिला बहाल किया गया। आज स्थिति यह है कि गौतम बुद्ध नगर जिला प्रदेश की राजस्व प्राप्ति में अपनी प्रमुख भूमिका निभा रहा है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से सटे हुए इस जिले का मुख्यालय ग्रेटर नोएडा में अवस्थित है। .

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गेंदालाल दीक्षित

गेंदालाल दीक्षित (१८८८-१९२०) पं॰ गेंदालाल दीक्षित (अंग्रेजी:Pt. Genda Lal Dixit जन्म:१८८८, मृत्यु:१९२०) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा, महान क्रान्तिकारी व उत्कट राष्ट्रभक्त थे जिन्होंने आम आदमी की बात तो दूर, डाकुओं तक को संगठित करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खडा करने का दुस्साहस किया। दीक्षित जी उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों के द्रोणाचार्य कहे जाते थे। उन्हें मैनपुरी षड्यन्त्र का सूत्रधार समझ कर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया किन्तु वे अपनी सूझबूझ और प्रत्युत्पन्न मति से जेल से निकल भागे। साथ में एक सरकारी गवाह को भी ले उड़े। सबसे मजे की बात यह कि पुलिस ने सारे हथकण्डे अपना लिये परन्तु उन्हें अन्त तक खोज नहीं पायी। आखिर में कोर्ट को उन्हें फरार घोषित करके मुकदमे का फैसला सुनाना पड़ा। .

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कर्णपर्व

कर्ण पर्व के अन्तर्गत कोई भी उपपर्व नहीं है और अध्यायों की संख्या ७९ है। .

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काशीपुर, उत्तराखण्ड

काशीपुर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उधम सिंह नगर जनपद का एक महत्वपूर्ण पौराणिक एवं औद्योगिक शहर है। उधम सिंह नगर जनपद के पश्चिमी भाग में स्थित काशीपुर जनसंख्या के मामले में कुमाऊँ का तीसरा और उत्तराखण्ड का छठा सबसे बड़ा नगर है। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार काशीपुर नगर की जनसंख्या १,२१,६२३, जबकि काशीपुर तहसील की जनसंख्या २,८३,१३६ है। यह नगर भारत की राजधानी, नई दिल्ली से लगभग २४० किलोमीटर, और उत्तराखण्ड की अंतरिम राजधानी, देहरादून से लगभग २०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। काशीपुर को पुरातन काल से गोविषाण या उज्जयनी नगरी भी कहा जाता रहा है, और हर्ष के शासनकाल से पहले यह नगर कुनिन्दा, कुषाण, यादव, और गुप्त समेत कई राजवंशों के अधीन रहा है। इस जगह का नाम काशीपुर, चन्दवंशीय राजा देवी चन्द के एक पदाधिकारी काशीनाथ अधिकारी के नाम पर पड़ा, जिन्होंने इसे १६-१७ वीं शताब्दी में बसाया था। १८ वीं शताब्दी तक यह नगर कुमाऊँ राज्य में रहा, और फिर यह नन्द राम द्वारा स्थापित काशीपुर राज्य की राजधानी बन गया। १८०१ में यह नगर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया, जिसके बाद इसने १८१४ के आंग्ल-गोरखा युद्ध में कुमाऊँ पर अंग्रेजों के कब्जे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। काशीपुर को बाद में कुमाऊँ मण्डल के तराई जिले का मुख्यालय बना दिया गया। ऐतिहासिक रूप से, इस क्षेत्र की अर्थव्यस्था कृषि तथा बहुत छोटे पैमाने पर लघु औद्योगिक गतिविधियों पर आधारित रही है। काशीपुर को कपड़े और धातु के बर्तनों का ऐतिहासिक व्यापार केंद्र भी माना जाता है। आजादी से पहले काशीपुर नगर में जापान से मखमल, चीन से रेशम व इंग्लैंड के मैनचेस्टर से सूती कपड़े आते थे, जिनका तिब्बत व पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापार होता था। बाद में प्रशासनिक प्रोत्साहन और समर्थन के साथ काशीपुर शहर के आसपास तेजी से औद्योगिक विकास हुआ। वर्तमान में नगर के एस्कॉर्ट्स फार्म क्षेत्र में छोटी और मझोली औद्योगिक इकाइयों के लिए एक इंटीग्रेटेड इंडस्ट्रियल एस्टेट निर्माणाधीन है। भौगोलिक रूप से काशीपुर कुमाऊँ के तराई क्षेत्र में स्थित है, जो पश्चिम में जसपुर तक तथा पूर्व में खटीमा तक फैला है। कोशी और रामगंगा नदियों के अपवाह क्षेत्र में स्थित काशीपुर ढेला नदी के तट पर बसा हुआ है। १८७२ में काशीपुर नगरपालिका की स्थापना हुई, और २०११ में इसे उच्चीकृत कर नगर निगम का दर्जा दिया गया। यह नगर अपने वार्षिक चैती मेले के लिए प्रसिद्ध है। महिषासुर मर्दिनी देवी, मोटेश्वर महादेव तथा मां बालासुन्दरी के मन्दिर, उज्जैन किला, द्रोण सागर, गिरिताल, तुमरिया बाँध तथा गुरुद्वारा श्री ननकाना साहिब काशीपुर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हैं। .

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कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,सौप्तिकपर्व इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,भीष्मपर्व इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है। कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं, जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया, इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं, ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। .

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कृतज्ञ

कृतज्ञ का अर्थ होता है अपने प्रति किये गये सत्कृत्य या उपकार के भार से दबा हुआ। .

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अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)

अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शती ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है। यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पत्र) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम चणक होने से) था। अर्थशास्त्र (15.431) में लेखक का स्पष्ट कथन है: चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (321-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, 15.6)' अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)। इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी.

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अर्जुन

शिव अर्जुन को अस्त्र देते हुए। महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे। द्रौपदी, कृष्ण और बलराम की बहन सुभद्रा, नाग कन्या उलूपी और मणिपुर नरेश की पुत्री चित्रांगदा इनकी पत्नियाँ थीं। इनके भाई क्रमशः युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव। .

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उपपाण्डव

महाभारत में, उपपाण्डव या पाण्डवपुत्र या पंचकुमार, द्रौपदी से जन्में पाँच पुत्रों को कहते हैं। प्रत्येक पाण्डव से द्रौपदी को एक पुत्र पैदा हुआ था। इन पंचकुमारों के नाम ये हैं- प्रतिविन्ध्य, शतनिक, सुतसोम, श्रुतसेन, और श्रुतकर्म। इन्होने महाभारत में पाण्डवों के तरफ से युद्ध किया किन्तु महाभारत में इनके बारे में बहुत कम वर्णन है। इन पाँचों कुमारों को अश्वत्थामा ने युद्ध के अन्तिम दिन मार दिया था। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

द्रोण, गुरु द्रोणाचार्य

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