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दण्ड (समय की प्राचीन ईकाई)

सूची दण्ड (समय की प्राचीन ईकाई)

यह हिन्दू समय मापन इकाई है। यह इकाई मध्यम श्रेणी की है।.

17 संबंधों: दण्डशास्त्र, दण्डविधि, दंड, धनु, प्रकृतिवाद (दर्शन), भारतीय राजनय का इतिहास, मुण्डा, राममूर्ति नायडू (पहलवान), राज्य, शुक्रनीति, सामाजिक नियंत्रण, स्वराज, विधि, आपराधिक मनःस्थिति, आजीवन कारावास, कार्योत्तर विधि, अपहनन

दण्डशास्त्र

दण्डशास्त्र (Penology) अपराधशास्त्र का एक प्रभाग है जो अपराध के लिये दण्ड तथा जेलों के प्रबन्धन से संबन्धित है। किसी ब्यक्ति को उसके अपराध या किसी कथित कार्य के लिए दण्डित ठहराना या अपराधी घोषित करना .

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दण्डविधि

कानूनों के उस समूह को दंड विधि (Criminal law, या penal law या 'फौज़दारी कनून') कहते हैं जो अपराधों एवं उनके लिये निर्धारित सजाओं (दण्ड) से समबन्धित होते हैं। आपराधिक मामलों में दण्ड कई प्रकार का हो सकता है (जो कि अपराध की प्रकृति पर निर्भर करता है) - मृत्युदंड, आजीवन कारावास, साधारण कारावास, पेरोल, या अर्थदण्ड आदि। यह दीवानी कानून से अलग है। .

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दंड

राजा, राज्य और छत्र की शक्ति और संप्रभुता का द्योतक और किसी अपराधी को उसके अपराध के निमित्त दी गयी सजा को दण्ड कहते हैं। एक दूसरे सन्दर्भ में, राजनीतिशास्त्र के चार उपायों - साम, दाम, दंड और भेद में एक उपाय। दण्ड का शाब्दिक अर्थ 'डण्डा' (छड़ी) है जिससे किसी को पीटा जाता है। .

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धनु

धनु वैदिक काल की हिन्दू लम्बाई मापन की इकाई है। एक धनु बराबर होता है दो दण्ड के। पांच धनु से एक रज्जु बनता है।;विष्णु पुराण अनुसार.

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प्रकृतिवाद (दर्शन)

प्रकृतिवाद (Naturalism) पाश्चात्य दार्शनिक चिन्तन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्त्व मानती है, इसी को इस बरह्माण्ड का कर्ता एवं उपादान (कारण) मानती है। यह वह 'विचार' या 'मान्यता' है कि विश्व में केवल प्राकृतिक नियम (या बल) ही कार्य करते हैं न कि कोई अतिप्राकृतिक या आध्यातिम नियम। अर्थात् प्राक्रितिक संसार के परे कुछ भी नहीं है। प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करते। यूनानी दार्शनिक थेल्स (६४० ईसापूर्व-५५० इसापूर्व) का नाम सबसे पहले प्रकृतिवादियों में आता है जिसने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। किन्तु स्वतन्त्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण डिमोक्रीटस (४६०-३७० ईसापूर्व) ने किया। प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। प्रो.

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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मुण्डा

मुंडा एक भारतीय आदिवासी समुदाय है, जो मुख्य रूप से झारखण्ड के छोटा नागपुर क्षेत्र में निवास करता है| झारखण्ड के अलावा ये बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा आदि भारतीय राज्यों में भी रहते हैं| इनकी भाषा मुंडारी आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार की एक प्रमुख भाषा है| उनका भोजन मुख्य रूप से धान, मड़ूआ, मक्का, जंगल के फल-फूल और कंध-मूल हैं | वे सूत्ती वस्त्र पहनते हैं | महिलाओं के लिए विशेष प्रकार की साड़ी होती है, जिसे बारह हथिया (बारकी लिजा) कहते हैं | पुरुष साधारण-सा धोती का प्रयोग करते हैं, जिसे तोलोंग कहते हैं | मुण्डा, भारत की एक प्रमुख जनजाति हैं | २० वीं सदी के अनुसार उनकी संख्या लगभग ९,०००,००० थी |Munda http://global.britannica.com/EBchecked/topic/397427/Munda .

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राममूर्ति नायडू (पहलवान)

प्रोफेसर राममूर्ति नायडू (अंग्रेजी:Kodi Rammurthy Naidu तेलुगू:కోడి రామ్మూర్తి నాయుడు जन्म:१८८२ - मृत्यु:१९४२) भारत के विश्वविख्यात पहलवान हुए हैं जिन्हें उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिये ब्रिटिश सरकार ने कलयुगी भीम की उपाधि से अलंकृत किया था। दक्षिण भारत के उत्तरी आन्ध्र प्रदेश में जन्मे इस महाबली ने एक समय में पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था। स्वयं ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम व महारानी मैरी ने लन्दन स्थित बकिंघम पैलेस में आमन्त्रित कर सम्मानित किया और इण्डियन हरकुलिस व इण्डियन सैण्डोज जैसे उपनाम प्रदान किये। उनके शारीरिक बल के करतब देखकर सामान्य जन से लेकर शासक वर्ग तक सभी दाँतों तले उँगली दबाने को विवश हो जाया करते थे। प्रो॰ साहब ने व्यायाम की जो नयी पद्धति विकसित की उसे आज भी भारतीय मल्लयुद्ध के क्षेत्र में प्रो॰ राममूर्ति की विधि के नाम से जाना जाता है जिसमें दण्ड-बैठक के दैनन्दिन अभ्यास से शरीर को अत्यधिक बलशाली बनाया जाता है। .

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राज्य

विश्व के वर्तमान राज्य (विश्व राजनीतिक) पूँजीवादी राज्य व्यवस्था का पिरामिड राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन (सरकार) के अधीन हो। राज्य संप्रभुतासम्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा किसी शासकीय इकाई या उसके किसी प्रभाग को भी 'राज्य' कहते हैं, जैसे भारत के प्रदेशों को भी 'राज्य' कहते हैं। राज्य आधुनिक विश्व की अनिवार्य सच्चाई है। दुनिया के अधिकांश लोग किसी-न-किसी राज्य के नागरिक हैं। जो लोग किसी राज्य के नागरिक नहीं हैं, उनके लिए वर्तमान विश्व व्यवस्था में अपना अस्तित्व बचाये रखना काफ़ी कठिन है। वास्तव में, 'राज्य' शब्द का उपयोग तीन अलग-अलग तरीके से किया जा सकता है। पहला, इसे एक ऐतिहासिक सत्ता माना जा सकता है; दूसरा इसे एक दार्शनिक विचार अर्थात् मानवीय समाज के स्थाई रूप के तौर पर देखा जा सकता है; और तीसरा, इसे एक आधुनिक परिघटना के रूप में देखा जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि इन सभी अर्थों का एक-दूसरे से टकराव ही हो। असल में, इनके बीच का अंतर सावधानी से समझने की आवश्यकता है। वैचारिक स्तर पर राज्य को मार्क्सवाद, नारीवाद और अराजकतावाद आदि से चुनौती मिली है। लेकिन अभी राज्य से परे किसी अन्य मज़बूत इकाई की खोज नहीं हो पायी है। राज्य अभी भी प्रासंगिक है और दिनों-दिन मज़बूत होता जा रहा है। यूरोपीय चिंतन में राज्य के चार अंग बताये जाते हैं - निश्चित भूभाग, जनसँख्या, सरकार और संप्रभुता। भारतीय राजनीतिक चिन्तन में 'राज्य' के सात अंग गिनाये जाते हैं- राजा या स्वामी, मंत्री या अमात्य, सुहृद, देश, कोष, दुर्ग और सेना। (राज्य की भारतीय अवधारण देखें।) कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताये हैं और ये उनका "सप्तांग सिद्धांत " कहलाता है - राजा, आमात्य या मंत्री, पुर या दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र । .

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शुक्रनीति

शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना करने वाले शुक्र का नाम महाभारत में 'शुक्राचार्य' के रूप में मिलता है। शुक्रनीति के रचनाकार और उनके काल के बारे में कुछ भी पता नहीं है। शुक्रनीति में २००० श्लोक हैं जो इसके चौथे अध्याय में उल्लिखित है। उसमें यह भी लिखा है कि इस नीतिसार का रात-दिन चिन्तन करने वाला राजा अपना राज्य-भार उठा सकने में सर्वथा समर्थ होता है। इसमें कहा गया है कि तीनों लोकों में शुक्रनीति के समान दूसरी कोई नीति नहीं है और व्यवहारी लोगों के लिये शुक्र की ही नीति है, शेष सब 'कुनीति' है। शुक्रनीति की सामग्री कामन्दकीय नीतिसार से भिन्न मिलती है। इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मन्त्री और युवराज सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। .

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सामाजिक नियंत्रण

सामाजिक नियंत्रण (Social control) से तात्पर्य उन सामाजिक तथा राजनैतिक युक्तियों/प्रक्रियाओं से है किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को राज्य, समाज या सामाजिक समूहों के नियमों का पालन करने के लिए नियंत्रित करतीं हैं। समाजशास्त्री सामाजिक नियंत्रण के दो मूलभूत साधन बताते हैं.

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स्वराज

स्वराज का शाब्दिक अर्थ है - ‘स्वशासन’ या "अपना राज्य" ("self-governance" or "home-rule")। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रचलित यह शब्द आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की माँग पर बल देता था। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों (उदारवादियों) ने स्वाधीनता को दूरगामी लक्ष्य मानते हुए ‘स्वशासन’ के स्थान पर ‘अच्छी सरकार’ (ब्रिटिश सरकार) के लक्ष्य को वरीयता दी। तत्पश्चात् उग्रवादी काल में यह शब्द लोकप्रिय हुआ, जब बाल गंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की कि ‘‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’’ गाँधी ने सर्वप्रथम 1920 में कहा कि ‘‘मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा। गाँधी का मत था स्वराज का अर्थ है जनप्रतिनिधियों द्वारा संचालित ऐसी व्यवस्था जो जन-आवश्यकताओं तथा जन-आकांक्षाओं के अनुरूप हो।’’ वस्तुत: गांधीजी का स्वराज का विचार ब्रिटेन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, ब्यूरोक्रैटिक, कानूनी, सैनिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं का बहिष्कार करने का आन्दोलन था। यद्यपि गांधीजी का स्वराज का सपना पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया जा सका फिर भी उनके द्वारा स्थापित अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस दिशा में काफी प्रयास किये। .

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विधि

विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है। विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है। विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है। आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। .

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आपराधिक मनःस्थिति

कोई किसी अपराध के लिये दंडित नहीं हो सकता, यदि उसने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कानून द्वारा अमान्य कोई काम न किया हो या कानून द्वारा निर्धारित किसी अनिवार्य काम में त्रुटि नहीं की हो। साधारणत: किसी अपराध की पूर्णता के लिये यह आवश्यक है कि वह 'दोषपूर्ण मन' या 'आपराधिक मनःस्थिति' (Mens Rea) से किया जाय। किंतु अपराधी की स्वेच्छा से होने पर ही उसका काम अपराध माना जा सकता है। स्वेच्छा से किया हुआ काम या काम की अवहेलना वह है, जिसे करने या न करने की इच्छा रही हो। अत: किसी व्यक्ति ने यदि अचेतन अवस्था में--यथा, निद्रित होने पर, अत्यंत कम अवस्था रहने से, जड़ता या विक्षिप्तता के कारण—कोई अपराध किया है तो यह माना जायगा कि ऐसी परिस्थिति में उसका मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। फलत: उस काम के करने या उसकी अवहेलना में उसकी इच्छा नहीं थी। इसी प्रकार अत्यंत बाध्य होने पर कोई व्यक्ति यदि कोई अपराध करे तो इसमें उसकी स्वेच्छा काम अभाव रहेगा। कोई काम या इसमें च्युति इच्छापूर्ण मानी जायेगी, यदि कार्यकारी उपयुक्त सावधानी बरतने पर उसे नहीं करता या उसकी अवहेलना से विरत होता। किसी अनायास हुए काम या काम की त्रुटि को स्वेच्छापूर्ण नहीं मानते। अत: यदि यह प्रमाणित हो कि उपयुक्त सावधानी बरतने पर भी ऐसा काम नहीं रुक सका तो यह दंडनीय नहीं हो सकता। कभी कभी कानून द्वारा वर्जित किसी काम के करने की इच्छा मात्र ही दोषपूर्ण मन माना जाता है। सीमित वर्ग के अपराधों में दोषपूर्ण मन आवश्यक नहीं है। दृष्टांत के लिये, कोई व्यक्ति अपनी पत्नी के रहते दूसरा विवाह करे, तो अपनी प्रतिरक्षा में वह यह नहीं कह सकता कि उसने शुद्ध मन से यह विश्वास किया था कि उसका पहला विवाह विच्छिन्न हो चुका है। इस वर्ग में कानून द्वारा निर्दिष्ट छोटे छोटे अपराध ही आते हैं। यह जानने के लिये कि ऐसे अपराधों में दोषपूर्ण मन आवश्यक है या नहीं, निर्दिष्ट कानून (Statue) के उद्देश्य की ओर देखना आवश्यक हो जाता है। जिस अपराध में विशेष इच्छा या मानसिक स्थिति आवश्यक है, उसके लिये कोई व्यक्ति अपराधी नहीं होगा, यदि उसका मन दोषपूर्ण नहीं था एवं दूसरे व्यक्ति के आदेश से उसने वह अपराध किया था। किंतु जिस व्यक्ति के आदेश से वह अपराध हुआ, वह उत्तरदायी होगा। साधारणत: कोई व्यक्ति किसी काम या उसकी अवहेलना के लिये उत्तरदायी नहीं होगा, यदि उसने स्वयं अपराध नहीं किया है या निर्धारित काम करने से विरत नहीं हुआ है या किसी दूसरे व्यक्ति को अपराध करने के लिये अधिकार नहीं दिया है और न उसे निर्धारित काम करने से विरत होने की प्रेरणा दी है। कोई मालिक अपने सेवक या ऐजेंट के विद्वेष, कपट या काम की उपेक्षा के लिये दंडित नहीं किया जा सकता, क्योंकि सेवक या एजेंट की मानसिक स्थिति मालिक की मानसिक स्थिति नहीं कही जा सकती। किंतु सीमित वर्ग के कुछ मामलों में जहाँ मानसिक स्थिति अपराध के लिये आवश्यक नहीं है, अपने सेवक या एजेंट के सामान्य कार्य के दौरान में किए गए कामों के लिये मालिक उत्तरदायी होगा, भले ही उसे ऐसे काम की जानकारी न रही हो और वे काम उसके आदेश के विरुद्ध ही क्यों न किए गए हों। कोई निगम (Corporation) अपने सेवक या एजेंट के द्वारा ही काम कर सकता है। अत: इनके काम या कानून द्वारा निर्दिष्ट काम में त्रुटि के कारण निगम ही उत्तरदायी हो सकता है। किंतु राजद्रोह (Treason), गुरुतर अपराध (Felony), तथा ऐसे लघुतर अपराधों के लिये, जिनमें व्यक्तिगत रूप में हिंसा का अभियोग लगे अथवा ऐसे अपराधों के लिये जिनमें कारावास या शारीरिक यातना द्वारा ही दंड दिया जा सके निगम उत्तरदायी नहीं हेगा। अपने सेवक या एजेंट के अपराध के लिये उसे केवल अर्थदंड दिया जा सकता है। .

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आजीवन कारावास

आजीवन कारावास (Life imprisonment) एक दण्ड है जिसमें अपराधी को अपने बाकी जीवन को जेल में गुजारना होता है। यह दण्ड कुछ गम्भीर अपराधों के लिये दिया जाता है जैसे- हत्या, गम्भीर किस्म के बालयौनापराध, बलात्कार, जासूसी, देशद्रोह, मादक द्रव्य का व्यापार, मानव तस्करी, जालसाजी के गम्भीर मामले, बड़ी चोरी/डकैती, आदि। श्रेणी:विधि.

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कार्योत्तर विधि

कार्योत्तर विधि (ex post facto law) उस प्रकार की विधि को कहते हैं जो किसी आपराधिक कार्य के होने के बाद उस कार्य के विधिक परिणाम को बदल दे। दण्ड विधि के सन्दर्भ में बात करें तो कोई कार्योत्तर विधि उस कार्य को दण्डनीय बना सकती है जो कार्य उस समय (कानून के लागू होने के पहले) वैध (आपराधिक नहीं) था। कार्योत्तर विधि किसी अपराध के लिए निर्धारित दण्ड को कम या अधिक कर सकती है। इसी प्रकार, कार्योत्तर विधि साक्ष्य के नियमों को भी बदल सकती है ताकि अपराधों में दण्द मिलना अधिक सम्भावित हो जाय। इसके विपरीत कार्योत्तर विधि का एक प्रकार सर्वक्षमा विधि (अमनेस्टी लॉ) है जो कुछ कृत्यों को वैध या अनपराधिक घोषित कर देती है। श्रेणी:विधि.

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अपहनन

अपहनन बिना किसी व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया के बिना, किसी अनौपचारिक अप्रशासनिक समूह द्वारा दिए गए दण्ड या शारीरिक प्रताड़ना को कहा जाता है। कथित शब्द का उपयोग अक्सर एक बड़ी भीड़ द्वारा अन्यायिक रूपसे किसी कथित अपराधियों को दंडित करने के लिए या किसी समूह को धमकाने के लिए, सार्वजनिक फांसी, या अन्य शारीरिक प्रताड़ना को चिह्नित करने के लिए उपयोग किया जाता है। .

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दण्ड

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