34 संबंधों: चतुष्फलकी, चौंसठ योगिनी मंदिर, खजुराहो, त्रिभुज के अन्तर्वृत्त और बहिर्वृत्त, त्रिकोणमिति, त्रिकोणमितीय फलन, न्यूनकोण त्रिभुज तथा अधिककोण त्रिभुज, परिमाप, परिवृत्त, पिरैमिड (ज्यामिति), पुष्पक विमान, ब्रह्मगुप्त, ब्रह्मगुप्त का सूत्र, भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, मेरु प्रस्तार, लिफाफा, श्री चक्र, समबाहु त्रिभुज, समकोण त्रिभुज, सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धान्त, साँचे:ज्यामिति, संरचना इंजीनियरी, हीरोन का सूत्र, ज्यामिति, गणित का इतिहास, आधार, आर्यभट, आर्यभटीय, आर्किमिडीज़, क्षेत्रफल का द्वितीय आघूर्ण, केंद्रक (ज्यामितीय), कोज्या नियम, अन्तः आकृति, छत के ट्रस, १/४+ १/१६ + १/६४ + १/२५६ + · · ·।
चतुष्फलकी
150px ठोस ज्यामिति में चार समतल फलकों वाले ठोस को चतुष्फलकी (चतुः + फलकी .
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चौंसठ योगिनी मंदिर, खजुराहो
चौसठ योगिनी मंदिर, मध्य प्रदेश के खजुराहो में स्थित देवी का एक ध्वस्त मंदिर है। यह खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है जो अब भी विद्यमान है। अन्य स्थानों पर भी चौसठ योगिनी मंदिर हैं, किन्तु यह अकेला ऐसा मन्दिर है जिसका प्लान, आयताकार है। शिवसागर झील के दक्षिण-पश्चिम में स्थित चौसठयोगिनी मंदिर चंदेल कला की प्रथम कृति है। यह मंदिर भारत के सेमस योगिनी मंदिरों में उत्तम है तथा यह निर्माण की दृष्टि से सबसे अधिक प्राचीन है। यह मंदिर खजुराहो की एक मात्र मंदिर है, जो स्थानीय कणाश्म पत्थरों से बनी है तथा इसका विन्यास उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर है तथा यह मंदिर १८ फुट जगती पर आयताकार निर्मित है। इसमें बहुत सी कोठरियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक कोठरी २.५ फुट चौड़ी और ४ फुट लंबी है। इनका प्रवेश द्वार ३२ इंच ऊँचा और १६ इंच चौड़ा है। हर एक कोठरी के ऊपर छोटे-छोटे कोणस्तुपाकार शिखर है। शिखर का निचला भाग चैत्यगवाक्षों के समान त्रिभुजाकार है। श्रेणी:मध्य प्रदेश के हिन्दू मंदिर.
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त्रिभुज के अन्तर्वृत्त और बहिर्वृत्त
ज्यामिति में, किसी त्रिभुज का अन्तर्वृत्त (या, अन्तःवृत्त / incircle) वह बड़ा से बड़ा वृत्त है जो उस त्रिभुज के अन्दर बनाया जा सकता है। वस्तुतः, अन्तःवृत्त तीनों भुजाओं को स्पर्श करता है। इसका केन्द्र 'अन्तःकेन्द्र' (incenter) कहलाता है। किसी त्रिभुज के तीन बहिर्वृत्त (excircle या escribed circle) होते हैं। ये तीनों वृत्त उस त्रिभुज के बाहर होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृत्त, त्रिभुज की किसी एक भुजा को तथा शेष दो भुजाओं को आगे बढाने से बनी दो रेखाओं को स्पर्श करता है। .
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त्रिकोणमिति
किसी दूरस्थ और सीधे मापन में कठिनाई वाले सर्वेक्षण के लिए समरूप त्रिभुज के उपयोग का उदाहरण (1667) त्रिकोणमिति गणित की वह शाखा है जिसमें त्रिभुज और त्रिभुजों से बनने वाले बहुभुजों का अध्ययन होता है। त्रिकोणमिति का शब्दिक अर्थ है 'त्रिभुज का मापन'। त्रिकोणमिति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है समकोण त्रिभुज का अध्ययन। त्रिभुजों और बहुभुजों की भुजाओं की लम्बाई और दो भुजाओं के बीच के कोणों का अध्ययन करने का मुख्य आधार यह है कि समकोण त्रिभुज की किन्ही दो भुजाओं (आधार, लम्ब व कर्ण) का अनुपात उस त्रिभुज के कोणों के मान पर निर्भर करता है। त्रिकोणमिति का ज्यामिति की प्रसिद्ध बौधायन प्रमेय (पाइथागोरस प्रमेय) से गहरा सम्बन्ध है। .
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त्रिकोणमितीय फलन
right गणित में त्रिकोणमितीय फलन (trigonometric functions) या 'वृत्तीय फलन' (circular functions) कोणों के फलन हैं। ये त्रिभुजों के अध्ययन में तथा आवर्ती संघटनाओं (periodic phenomena) के मॉडलन एवं अन्य अनेकानेक जगह प्रयुक्त होते हैं। ज्या (sine), कोज्या (कोज) (cosine) तथा स्पर्शज्या (स्पर) (tangent) सबसे महत्व के त्रिकोणमितीय फलन हैं। ईकाई त्रिज्या वाले मानक वृत्त के संदर्भ में ये फलन सामने के चित्र में प्रदर्शित हैं। इन तीनों फलनों के व्युत्क्रम फलनों को क्रमशः व्युज्या (व्युज) (cosecant), व्युकोज्या (व्युक) (secant) तथा व्युस्पर्शज्या (व्युस) (cotangent) कहते हैं। .
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न्यूनकोण त्रिभुज तथा अधिककोण त्रिभुज
न्यूनकोण त्रिभुज (acute triangle) उस त्रिभुज को कहते हैं जिसके तीनों कोण, न्यूनकोण (90° से कम) हों। अधिककोण त्रिभुज (obtuse triangle) उस त्रिभुज को कहते हैं जिसका कोई कोण, अधिककोण (90° से अधिक) हो। चूँकि त्रिभुज के तीनों कोणों का योग १८० डिग्री होता है, अतः किसी भी त्रिभुज में दो कोण, अधिककोण नहीं हो सकते। जिस त्रिभुज का एक कोण ९० डिग्री का हो, उसे समकोण त्रिभुज कहते हैं। श्रेणी:गणित.
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परिमाप
द्विबीमीय आकृतियाँ जिन रेखाखण्डों से घिरी होती हैं (अर्थात मिलकर बनी होती हैं) उन सभी के लम्बाइयों का योग परिमाप या परिमिति कहलाता है। परिमाप शब्द दो शब्दो से मिलकर बना है - परि और माप। 'परि' का अर्थ होता है "चारों ओर" और माप का अर्थ होता है "मापना"। अर्थात किसी आकृति के सभी भुजाओं के माप को परिमाप (Perimeter) कहते हैं। जैसे- आयत का परिमाप उसकी चारों भुजाओं के योग के बराबर होता है; वर्ग का परिमाप उसकी भुजा का चार गुना होता है; आदि। हम किसी भी आकृति का परिमाप उसके सभी भुजाओं की लम्बाई को जोड़कर ज्ञात कर सकते है। .
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परिवृत्त
ज्यामिति में किसी बहुभुज का परिवृत्त (circumscribed circle) ऐसा वृत्त होता है जो उस बहुभुज के हर शीर्ष से गुज़रता हो। इस वृत्त के केन्द्र को परिकेन्द्र (circumcenter) और त्रिज्या (रेडियस) को परित्रिज्या (circumradius) कहते हैं। प्रत्येक बहुभुज ऐसा नहीं होता कि उसके लिए एक परिगत वृत्त बनाया जा सके और जिसके लिए परिगत वृत्त सम्भव होता है उसे वृत्तीय बहुभुज (cyclic polygon) कहा जाता है। सारे सम-सरल बहुभुज (regular simple polygon), त्रिभुज और आयत वृत्तीय होते हैं। .
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पिरैमिड (ज्यामिति)
यह लेख 'पिरामिड' नामक ठोस ज्यामितीय आकृति एवं उसके गणितीय विवरण के बारे में है। अन्य उपयोगों के लिए पिरामिड (बहुविकल्पी) देखें। ---- ठोस ज्यामिति में पिरैमिड (pyramid) उस बहुफलकीय ठोस को कहते हैं जिसका आधार कोई बहुभुज हो तथा शेष सभी त्रिभुजाकार फलक एक बिन्दु (शीर्ष) पर मिलते हों। दूसरे शब्दों में, आधार के प्रत्येक कोर और शीर्ष मिलकर एक त्रिभुजाकार फलक बनाते हैं। अतः किसी पिरैमिड का आधार n भुजाओं वाला बहुभुज हो तो उसमें कुल (n+1) फलक होते हैं जिसमें से n फलक त्रिभुजाकार होते हैं। चतुष्फलकी भी एक पिरैमिड है। n भुजाओं वाले आधार पर निर्मित पिरैमिड में (n+1) शीर्ष तथा 2n कोर (edges) होंगे। श्रेणी:ठोस ज्यामिति.
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पुष्पक विमान
पुष्पकविमान हिन्दू पौराणिक महाकाव्य रामायण में वर्णित वायु-वाहन था। इसमें लंका का राजा रावण आवागमन किया करता था। इसी विमान का उल्लेख सीता हरण प्रकरण में भी मिलता है। रामायण के अनुसार राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण तथा लंका के नवघोषित राजा विभीषण तथा अन्य बहुत लोगों सहित लंका से अयोध्या आये थे। यह विमान मूलतः धन के देवता, कुबेर के पास हुआ करता था, किन्तु रावण ने अपने इस छोटे भ्राता कुबेर से बलपूर्वक उसकी नगरी सुवर्णमण्डित लंकापुरी तथा इसे छीन लिया था। अन्य ग्रन्थों में उल्लेख अनुसार पुष्पक विमान का प्रारुप एवं निर्माण विधि अंगिरा ऋषि द्वारा एवं इसका निर्माण एवं साज-सज्जा देव-शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा की गयी थी। भारत के प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों एवं युद्धों में तथा उनके प्रयोग का विस्तृत वर्णन दिया है। इसमें बहुतायत में रावन के पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा अन्य सैनिक क्षमताओं वाले विमानों, उनके प्रयोग, विमानों की आपस में भिडंत, अदृश्य होना और पीछा करना, ऐसा उल्लेख मिलता है। यहां प्राचीन विमानों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ बताई गई हैं- प्रथम मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की भांति ही पंखों के सहायता से उडान भरते थे, एवं द्वितीय आश्चर्य जनक विमान, जो मानव द्वारा निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक उडन तशतरियों के अनुरूप हुआ करता था। .
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ब्रह्मगुप्त
ब्रह्मगुप्त का प्रमेय, इसके अनुसार ''AF'' .
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ब्रह्मगुप्त का सूत्र
ब्रह्मगुप्त का सूत्र किसी चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है यदि उसकी चारों भुजाएँ ज्ञात हों। उस चतुर्भुज को चक्रीय चतुर्भुज कहते हैं जिसके चारों शीर्षों से होकर कोई वृत्त खींचा जा सके।I .
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भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
भारत के प्रथम रिएक्टर '''अप्सरा''' तथा प्लुटोनियम संस्करण सुविधा का अमेरिकी उपग्रह से लिया गया चित्र (१९ फरवरी १९६६) भारतीय विज्ञान की परंपरा विश्व की प्राचीनतम वैज्ञानिक परंपराओं में एक है। भारत में विज्ञान का उद्भव ईसा से 3000 वर्ष पूर्व हुआ है। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सिंध घाटी के प्रमाणों से वहाँ के लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि तथा वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोगों का पता चलता है। प्राचीन काल में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत, खगोल विज्ञान व गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और आर्यभट्ट द्वितीय और रसायन विज्ञान में नागार्जुन की खोजों का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनकी खोजों का प्रयोग आज भी किसी-न-किसी रूप में हो रहा है। आज विज्ञान का स्वरूप काफी विकसित हो चुका है। पूरी दुनिया में तेजी से वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं। इन आधुनिक वैज्ञानिक खोजों की दौड़ में भारत के जगदीश चन्द्र बसु, प्रफुल्ल चन्द्र राय, सी वी रमण, सत्येन्द्रनाथ बोस, मेघनाद साहा, प्रशान्त चन्द्र महलनोबिस, श्रीनिवास रामानुजन्, हरगोविन्द खुराना आदि का वनस्पति, भौतिकी, गणित, रसायन, यांत्रिकी, चिकित्सा विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान है। .
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मेरु प्रस्तार
pascal triangleगणित में, मेरुप्रस्तार या हलायुध त्रिकोण या पास्कल त्रिकोण (Pascal's triangle) द्विपद गुणांकों को त्रिभुज के रूप में प्रस्तुत करने से बनता है। पश्चिमी जगत में इसका नाम फ्रांसीसी गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल के नाम पर रखा गया है। किन्तु पास्कल से पहले अनेक गणितज्ञों ने इसका अध्ययन किया है, उदाहरण के लिये भारत के पिंगलाचार्य, परसिया, चीन, जर्मनी आदि के गतिज्ञ। मेरु प्रस्तार की छः पंक्तियां मेरु प्रस्तार का सबसे पहला वर्णन पिंगल के छन्दशास्त्र में है। जनश्रुति के अनुसार पिंगल पाणिनि के अनुज थे। इनका काल ४०० ईपू से २०० ईपू॰ अनुमानित है। छन्दों के विभेद को वर्णित करने वाला 'मेरुप्रस्तार' (मेरु पर्वत की सीढ़ी) पास्कल (Blaise Pascal 1623-1662) के त्रिभुज से तुलनीय बनता है। पिंगल द्वारा दिये गये मेरुप्रस्तार (Pyramidal expansion) नियम की व्याख्या हलायुध ने अपने मृतसंंजीवनी में इस प्रकार की है- मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिकोण) की निर्माण विधि .
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लिफाफा
लिफाफा लिफाफा पते की खिड़की के साथलिफाफा एक संवेष्ठ (पैकेजिंग) उत्पाद है, जिसको आमतौर पर कागज या गत्ते जैसी सामग्री से बनाया जाता है। इसका प्रयोग चपटी या सपाट वस्तु के संवेष्ठन के लिए किया जाता है, डाक सेवा के संदर्भ में यह वस्तु, एक पत्र, कार्ड या बिल हो सकती है। पारंपरिक प्रकार के लिफाफे एक कागज की चादर को निम्न तीन आकारों में से किसी एक में काट कर बनाया जा सकता है: समचतुर्भुज (इसे विषमकोण या हीरे का आकार भी कहा जाता है) शॉर्ट-आर्म क्रास और पतंग। यह डिजाइन सुनिश्चित करते हैं कि लिफाफा को बनाते समय जब कटाई के पश्चात कागज को चारों ओर से मोड़ा जाता है तब सामने की ओर एक आयताकार पक्ष तथा दूसरी ओर चार त्रिभुजाकार (या आयताकार) बाहु प्राप्त होती हैं। आमने सामने की बाहु सममित होती हैं। इनमें से तीन बाहुओं को आपस में चिपका कर लिफाफा बनाया जाता है। चौथी बाहु लिफाफे मे पत्र या कार्ड आदि डालने के पश्चात बाकी तीन बाहुओं के ऊपर चिपका दी जाती है या उसे यूं ही छोड़ दिया जाता है। 1876 में विलियम इरविन मार्टिन ने लेखन सामग्री विक्रेता की पुस्तिका प्रकाशित की। वो न्यूयॉर्क में सैमुएल रेनर एंड कंपनी के लिए काम किया करते थे। उन्होने लिफाफों के लिए पहली बार वाणिज्यिक आकारों का सृजन किया और उन्हें 0 से 12 क्रमांक के आधार पर वर्गीकृत किया। .
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श्री चक्र
श्री चक्र श्री चक्र की ज्यामितीय संरचना श्री चक्र एक यन्त्र है जिसका प्रयोग श्री विद्या में होता है। इसे 'श्री यंत्र', 'नव चक्र' और 'महामेरु' भी कहते हैं। यह सभी यंत्रो में शिरोमणि है और इसे 'यंत्रराज' कहा जाता है। वस्तुतः यह एक एक जटिल ज्यामितीय आकृति है। इस यंत्र की अधिष्ठात्री देवी भगवती त्रिपुर सुंदरी हैं। श्री यंत्र की स्थापना और पूजा से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नवरात्रि, धनतेरस के दिन श्रीयंत्र का पूजन करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं। श्री यंत्र के केन्द्र में एक बिंदु है। इस बिंदु के चारों ओर 9 अंतर्ग्रथित त्रिभुज हैं जो नवशक्ति के प्रतीक हैं। इन नौ त्रिभुजों के अन्तःग्रथित होने से कुल ४३ लघु त्रिभुज बनते हैं। .
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समबाहु त्रिभुज
ज्यामिति में समबाहु त्रिभुज (equilateral triangle) वह त्रिभुज है जिसकी तीनों भुजाएं समान लम्बाई की हों। यूक्लिडीय ज्यामिति में, समबाहु त्रिभुज के तीनों कोण भी समान (६० डिग्री के) होते हैं। .
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समकोण त्रिभुज
ज्यामिति में समकोण त्रिभुज की परिभाषा एक ऐसे त्रिभुज के रूप में की जाती है जिसका एक कोण 90 अंश का (अर्थात, समकोण) हो। समकोण के सामने वाली भुजा कर्ण कहलाती है। इसकी भुजाओं की लम्बाई के बीच में एक विशेष सम्बन्ध होता है जिसे बौधायन प्रमेय द्वारा व्यक्त किया जाता है। इसे शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 300px.
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सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धान्त
सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धांत बड़े ही सरल हैं। पृथ्वी की सतह पर बड़ी सरलता से दो ऐसे बिंदु चुने जा सकते हैं जो एक दूसरे की स्थिति से देखें जा सकें और उनके बीच की दूरी नापी जा सके। इन्हें किसी भी वांछित पैमाने पर कागज पर ऐसे लगाया जा सकता है कि उनके निकटवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण कागज पर समा सके। इसके बाद इन दो बिंदुओं से किसी भी तीसरे बिंदु की दूरी नापकर उसी पैमाने से कागज पर उसकी सापेक्ष स्थिति अंकित कर सकते हैं। इस प्रकार अंकित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे अज्ञात बिंदु की दूरी निकालकर तथा क्रमानुगत अंकित करके, पूरे क्षेत्र का मानचित्र बनाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, सर्वेक्षण की विधि त्रिभुज की रचना है। ऊपर तो त्रिभुज की एक ही रचना का उल्लेख किया गया है, जिसमें त्रिभुज की तीनों भुजाओं की लंबाइयाँ ज्ञात है। त्रिभुज की अन्य रचना विधियाँ भी सर्वेक्षण में प्रयुक्त होती हैं। सर्वेक्षण के लिए दो बिंदु ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे तीसरे बिंदु की सापेक्ष स्थिति का पता लगना संभव हो सके। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे सर्वेक्षण में बिंदुओं की सापेक्ष स्थितियाँ सही होने पर, उनकी दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता। जो हो भी सकता है वह केवल चुंबकीय कुतुबनुमा की यथार्थता तक ही सीमित रहेगा। इससे यह कठिनाई होगी कि विस्तृत क्षेत्र में यदि किन्हीं भिन्न-भिन्न दो या अधिक स्थलों से, स्वतंत्र रूप से दो दो बिंदु लेकर सर्वेक्षण आरंभ किए जाएँ, तो उनका उभयनिष्ठ रेखा पर ठीक मिलान होगा अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि ऐसे सर्वेक्षणों के प्रारंभिक आधारों के आलेखों की एकसमान दिशाएँ रखने की कोई निश्चित सुविधा और सिद्धांत नहीं है। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए, सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण विस्तृत प्रदेश में व्यवस्थित और आयोजित रूप से प्रमुख बिंदु चुनकर उनमें एक मूलबिंदु (origin) मान लेते हैं। फिर मूलबिंदु के क्रमश: अन्य बिंदुओं की दूरियाँ और उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेता है और इन अवयवों से सर्वेक्षक उन बिंदुओं के निर्देशांक (co-ordinates) निकाल लेता है। सर्वेक्षण क्रिया की सफलता के लिए सर्वेक्षक के लिए निम्नलिखित तीन समस्याओं का हल निकालना आवश्यक होता है.
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साँचे:ज्यामिति
श्रेणी:ज्यामिति साँचा.
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संरचना इंजीनियरी
विश्व की सबसे बड़ी इमारत - '''बुर्ज दुबई''' संरचना इंजीनियरी, इंजीनियरी की वह शाखा है जो लोड (बल) सहन करने या बल का प्रतिरोध करने के के लिये बनायी जाने वाली संरचनाओं (structures) के विश्लेषण एवं डिजाइन से सम्बन्ध रखती है। इसे प्रायः सिविल इंजीनियरी के अन्दर एक विशेषज्ञता का क्षेत्र समझा जाता है। संरचना इंजीनियर का काम प्रायः भवनों तथा विशाल गैर-भवन संरचनाओं की डिजाइन करना होता है किन्तु वे मशीनरी, चिकित्सा उपकरण, वाहनों आदि के डिजाइन से भी जुड़े हो सकते हैं। संरचना इंजीनियरी का सिद्धान्त भौतिक नियमों तथा विभिन्न पदार्थों/ज्यामितियों के गुणधर्म से सम्बन्धित अनुभवजन्य ज्ञान पर आधारित है। अनेकों छोटे छोटे संरचनात्मक अवयवों के योग से जटिल संरचनाएँ निर्मित की जातीं हैं। संरचना इंजीनियर को लोहे और इस्पात का ही नहीं, बल्कि लकड़ी, ईंट, पत्थर, चूना और सीमेंट का भी आधुनिकतम ज्ञान तथा यांत्रिक एवं विद्युत् इंजीनियरी के कामों में भी दक्ष होना चाहिए, क्योंकि इन्हें अपने ढाँचे यांत्रिकी तथा भौतिकी के सिद्धांतों के अनुसार निरापद ढंग से बनाने पड़ते हैं। भूमि, जल और वायु की प्रकृति का भी पूर्ण ज्ञान सिविल इंजीनियर के समान ही होना चाहिए। .
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हीरोन का सूत्र
एक त्रिभुज जिसकी भुजाएँ a, b तथा c हैं। ज्यामिति में हीरोन का सूत्र (Heron's formula) त्रिभुज की तीनों भुजाएँ ज्ञात होने पर उसका क्षेत्रफल निकालने का एक सूत्र है। इसे 'हीरो का सूत्र' (Hero's formula) भी कहते हैं। सूत्र का यह नाम अलेक्जैण्ड्रिया के हीरोन के नाम पर पड़ा है। इस सूत्र के अनुसार, यदि किसी त्रिभुज की तीन भुजाएँ a, b और c हों तो उसका क्षेत्रफल जहाँ s उस त्रिभुज का अर्धपरिमाप है, अर्थात् हीरोन का सूत्र चक्रीय चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने के लिए ब्रह्मगुप्त के सूत्र की एक विशेष स्थिति (केस) है। ब्रह्मगुप्त का सूत्र यह है: जहाँ, .
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ज्यामिति
ब्रह्मगुप्त ब्रह्मगुप्त का प्रमेय, इसके अनुसार ''AF'' .
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गणित का इतिहास
ब्राह्मी अंक, पहली शताब्दी के आसपास अध्ययन का क्षेत्र जो गणित के इतिहास के रूप में जाना जाता है, प्रारंभिक रूप से गणित में अविष्कारों की उत्पत्ति में एक जांच है और कुछ हद तक, अतीत के अंकन और गणितीय विधियों की एक जांच है। आधुनिक युग और ज्ञान के विश्व स्तरीय प्रसार से पहले, कुछ ही स्थलों में नए गणितीय विकास के लिखित उदाहरण प्रकाश में आये हैं। सबसे प्राचीन उपलब्ध गणितीय ग्रन्थ हैं, प्लिमपटन ३२२ (Plimpton 322)(बेबीलोन का गणित (Babylonian mathematics) सी.१९०० ई.पू.) मास्को गणितीय पेपाइरस (Moscow Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित (Egyptian mathematics) सी.१८५० ई.पू.) रहिंद गणितीय पेपाइरस (Rhind Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित सी.१६५० ई.पू.) और शुल्बा के सूत्र (Shulba Sutras)(भारतीय गणित सी. ८०० ई.पू.)। ये सभी ग्रन्थ तथाकथित पाईथोगोरस की प्रमेय (Pythagorean theorem) से सम्बंधित हैं, जो मूल अंकगणितीय और ज्यामिति के बाद गणितीय विकास में सबसे प्राचीन और व्यापक प्रतीत होती है। बाद में ग्रीक और हेल्लेनिस्टिक गणित (Greek and Hellenistic mathematics) में इजिप्त और बेबीलोन के गणित का विकास हुआ, जिसने विधियों को परिष्कृत किया (विशेष रूप से प्रमाणों (mathematical rigor) में गणितीय निठरता (proofs) का परिचय) और गणित को विषय के रूप में विस्तृत किया। इसी क्रम में, इस्लामी गणित (Islamic mathematics) ने गणित का विकास और विस्तार किया जो इन प्राचीन सभ्यताओं में ज्ञात थी। फिर गणित पर कई ग्रीक और अरबी ग्रंथों कालैटिन में अनुवाद (translated into Latin) किया गया, जिसके परिणाम स्वरुप मध्यकालीन यूरोप (medieval Europe) में गणित का आगे विकास हुआ। प्राचीन काल से मध्य युग (Middle Ages) के दौरान, गणितीय रचनात्मकता के अचानक उत्पन्न होने के कारण सदियों में ठहराव आ गया। १६ वीं शताब्दी में, इटली में पुनर् जागरण की शुरुआत में, नए गणितीय विकास हुए.
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आधार
कोई विवरण नहीं।
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आर्यभट
आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। .
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आर्यभटीय
आर्यभटीय नामक ग्रन्थ की रचना आर्यभट प्रथम (४७६-५५०) ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। आर्यभटीय, दसगीतिका पाद से आरम्भ होती है। इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं: 1.
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आर्किमिडीज़
सेराक्यूस के आर्किमिडीज़ (यूनानी:; 287 ई.पू. - 212 ई.पू.), एक यूनानी गणितज्ञ, भौतिक विज्ञानी, अभियंता, आविष्कारक और खगोल विज्ञानी थे। हालांकि उनके जीवन के कुछ ही विवरण ज्ञात हैं, उन्हें शास्त्रीय पुरातनता का एक अग्रणी वैज्ञानिक माना जाता है। भौतिक विज्ञान में उन्होनें जलस्थैतिकी, सांख्यिकी और उत्तोलक के सिद्धांत की व्याख्या की नीव रखी थी। उन्हें नवीनीकृत मशीनों को डिजाइन करने का श्रेय दिया जाता है, इनमें सीज इंजन और स्क्रू पम्प शामिल हैं। आधुनिक प्रयोगों से आर्किमिडीज़ के इन दावों का परीक्षण किया गया है कि दर्पणों की एक पंक्ति का उपयोग करते हुए बड़े आक्रमणकारी जहाजों को आग लगाई जा सकती हैं। आमतौर पर आर्किमिडीज़ को प्राचीन काल का सबसे महान गणितज्ञ माना जाता है और सब समय के महानतम लोगों में से एक कहा जाता है। उन्होंने एक परवलय के चाप के नीचे के क्षेत्रफल की गणना करने के लिए पूर्णता की विधि का उपयोग किया, इसके लिए उन्होंने अपरिमित श्रृंखला के समेशन का उपयोग किया और पाई का उल्लेखनीय सटीक सन्निकट मान दिया। उन्होंने एक आर्किमिडीज सर्पिल को भी परिभाषित किया, जो उनके नाम पर आधारित है, घूर्णन की सतह के आयतन के लिए सूत्र दिए और बहुत बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने के लिए एक सरल प्रणाली भी दी। आर्किमिडीज सेराक्यूस की घेराबंदी के दौरान मारे गए जब एक रोमन सैनिक ने उनकी हत्या कर दी, हालांकि यह आदेश दिया गया था कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। सिसरो आर्किमिडिज़ का मकबरा, जो एक बेलन के अंदर अन्दर स्थित गुंबद की तरह है, पर जाने का वर्णन करते हैं कि, आर्किमिडीज ने साबित किया था कि गोले का आयतन और इसकी सतह का क्षेत्रफल बेलन का दो तिहाई होता है (बेलन के आधार सहित) और इसे उनकी एक महानतम गणितीय उपलब्धि माना जाता है। उनके आविष्कारों के विपरीत, आर्किमिडीज़ के गणितीय लेखन को प्राचीन काल में बहुत कम जाना जाता था। एलेगज़ेनडरिया से गणितज्ञों ने उन्हें पढ़ा और उद्धृत किया, लेकिन पहला व्याख्यात्मक संकलन सी. तक नहीं किया गया था। यह 530 ई. में मिलेटस के इसिडोर ने किया, जब छठी शताब्दी ई. में युटोकियास ने आर्किमिडीज़ के कार्यों पर टिप्पणियां लिखीं और पहली बार इन्हें व्यापक रूप से पढने के लिये उपलब्ध कराया गया। आर्किमिडीज़ के लिखित कार्य की कुछ प्रतिलिपियां जो मध्य युग तक बनी रहीं, वे पुनर्जागरण के दौरान वैज्ञानिकों के लिए विचारों का प्रमुख स्रोत थीं, हालांकि आर्किमिडीज़ पालिम्प्सेट में आर्किमिडीज़ के द्वारा पहले से किये गए अज्ञात कार्य की खोज 1906 में की गयी थी, जिससे इस विषय को एक नयी अंतर्दृष्टि प्रदान की कि उन्होंने गणितीय परिणामों को कैसे प्राप्त किया। .
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क्षेत्रफल का द्वितीय आघूर्ण
क्षेत्रफल का द्वितीय आघूर्ण (second moment of area) किसी क्षेत्र का एक ज्यामितीय गुण है जो यह दर्शाता है कि उस क्षेत्र के बिन्दु किसी अक्ष के सापेक्ष किस प्रकार की स्थिति में हैं। इसे प्रायः I या J से निरूपित करते हैं। इसकी विमा, L4 है। संरचना इंजीनियरी के क्षेत्र में क्षेत्रफल के द्वितीय आघूर्ण का बहुत उपयोग होता है। किसी धरन (बीम) के अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल का द्वितीय आघूर्ण उस धरन की एक महत्वपूर्ण गुण है जो लोड के कारण उस बीम के विक्षेप (deflection) के परिकलन में प्रयुक्त होता है। .
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केंद्रक (ज्यामितीय)
त्रिभुज का केन्द्रक ज्यामिति में किसी समतल आकृति का केन्द्रक (centroid, geometric center, या barycenter) वह बिंदु है जिससे जाने वाली प्रत्येक रेखा उस आकृति को दो सामान आघूर्ण (moment) वाले दो भागों में विभक्त करती है। (आघूर्ण, उस रेखा के सापेक्ष लिए गए हों)। त्रिभुज की माध्यिकाओं का कटान बिंदु ही उस त्रिभुज का केन्द्रक होता है। .
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कोज्या नियम
चित्र 1 – त्रिभुज, जिसमें कोण ''α'', ''β'', तथा ''γ'' क्रमशः भुजाओं ''a'', ''b'', and ''c'' के सामने के कोण हैं। त्रिकोणमिति में एक सामान्य त्रिभुज के लिये निम्नलिखित संबन्ध को कोज्या नियम (law of cosines) या कोज्या सूत्र कहते हैं (सन्दर्भ चित्र १) - कोज्या नियम पाइथागोरस के प्रमेय का सामान्यीकृत स्थिति (केस) है, अर्थात \gamma\ .
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अन्तः आकृति
विभिन्न आकृतियों के अन्तः वृत्त वृत्त के अन्दर निर्मित त्रिभुज (अन्तः त्रिभुज) ज्यामिति में किसी सतल आकृति की अन्तः आकृति (या अंतर्ग आकृति) वह आकृति है जो पहली आकृति के पूर्णतः अन्दर हो किन्तु साथ ही उसकी सभी भुजाओं को छूती हो। उदाहरण के लिये किसी त्रिभुज का अंतर्वृत्त (.
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छत के ट्रस
छत की ट्रस छत की कैंचियाँ या 'छत की ट्र्स' (roof truss) छत को आलम्ब (सहारा/सपोर्ट) देने के उद्देश्य से लगाया जाने वाली संरचना है। ये लकड़ी, लोहा, इस्पात आदि के बने होते हैं। लकड़ी से निर्मित छत की ट्र्स का विकास मध्ययुग में हुआ। .
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१/४+ १/१६ + १/६४ + १/२५६ + · · ·
गणित में अनन्त श्रेणी 1/4 + 1/16 + 1/64 + 1/256 + · · · गणित के इतिहास में संकलनित की गई अनन्त श्रेणियों के प्रथम उदाहरणों में से एक है; यह लगभग ई॰ पू॰ 250-200 के लगभग आर्किमिडिज़ ने उपयोग किया।Shawyer and Watson p. 3.
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