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जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन

सूची जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) अंग्रेजों के जमाने में "इंडियन सिविल सर्विस" के कर्मचारी थे। भारतीय विद्याविशारदों में, विशेषत: भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, उनका स्थान अमर है। सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में अमर हैं। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने। .

24 संबंधों: तुलसीदास, दत्त (रीतिग्रंथकार कवि), नरोत्तमदास, नेपाल, परमाल रासो, पहाड़ी भाषाएँ, पाशाई भाषा, बिहारी भाषाएँ, भारत की बोलियाँ, भक्ति काल, भोजपुरी भाषा, मारवाड़ी भाषा, मगही साहित्य, मृच्छकटिकम्, शिवसिंह सेंगर, शीतलाप्रसाद त्रिपाठी, हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन, हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक), वैयाकरण, गुमानी पन्त, ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका, आल्हा (गायन), काशिका भाषा

तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म राजापुर जिला बाँदा(वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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दत्त (रीतिग्रंथकार कवि)

दत्त नाम के कई कवि हुए हैं-.

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नरोत्तमदास

नरोत्तमदास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। महाकवि नरोत्तमदास .

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नेपाल

नेपाल, (आधिकारिक रूप में, संघीय लोकतान्त्रिक गणराज्य नेपाल) भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित एक दक्षिण एशियाई स्थलरुद्ध हिमालयी राष्ट्र है। नेपाल के उत्तर मे चीन का स्वायत्तशासी प्रदेश तिब्बत है और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल के ८१ प्रतिशत नागरिक हिन्दू धर्मावलम्बी हैं। नेपाल विश्व का प्रतिशत आधार पर सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलम्बी राष्ट्र है। नेपाल की राजभाषा नेपाली है और नेपाल के लोगों को भी नेपाली कहा जाता है। एक छोटे से क्षेत्र के लिए नेपाल की भौगोलिक विविधता बहुत उल्लेखनीय है। यहाँ तराई के उष्ण फाँट से लेकर ठण्डे हिमालय की श्रृंखलाएं अवस्थित हैं। संसार का सबसे ऊँची १४ हिम श्रृंखलाओं में से आठ नेपाल में हैं जिसमें संसार का सर्वोच्च शिखर सागरमाथा एवरेस्ट (नेपाल और चीन की सीमा पर) भी एक है। नेपाल की राजधानी और सबसे बड़ा नगर काठमांडू है। काठमांडू उपत्यका के अन्दर ललीतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर और किर्तीपुर नाम के नगर भी हैं अन्य प्रमुख नगरों में पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा, भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, त्रिभुवननगर आदि है। वर्तमान नेपाली भूभाग अठारहवीं सदी में गोरखा के शाह वंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित नेपाल राज्य का एक अंश है। अंग्रेज़ों के साथ हुई संधियों में नेपाल को उस समय (१८१४ में) एक तिहाई नेपाली क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया को देने पड़े, जो आज भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा पश्चिम बंगाल में विलय हो गये हैं। बींसवीं सदी में प्रारंभ हुए जनतांत्रिक आन्दोलनों में कई बार विराम आया जब राजशाही ने जनता और उनके प्रतिनिधियों को अधिकाधिक अधिकार दिए। अंततः २००८ में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि माओवादी नेता प्रचण्ड के प्रधानमंत्री बनने से यह आन्दोलन समाप्त हुआ। लेकिन सेना अध्यक्ष के निष्कासन को लेकर राष्ट्रपति से हुए मतभेद और टीवी पर सेना में माओवादियों की नियुक्ति को लेकर वीडियो फुटेज के प्रसारण के बाद सरकार से सहयोगी दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद प्रचण्ड को इस्तीफा देना पड़ा। गौरतलब है कि माओवादियों के सत्ता में आने से पहले सन् २००६ में राजा के अधिकारों को अत्यंत सीमित कर दिया गया था। दक्षिण एशिया में नेपाल की सेना पांचवीं सबसे बड़ी सेना है और विशेषकर विश्व युद्धों के दौरान, अपने गोरखा इतिहास के लिए उल्लेखनीय रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों के लिए महत्वपूर्ण योगदानकर्ता रही है। .

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परमाल रासो

परमाल रासो आदिकालीन हिंदी साहित्य का प्रसिद्ध वीरगाथात्मक रासोकाव्य है। वर्तमान समय में इसका केवल आल्ह खंड उपलब्ध है जो वीरगाथात्मक लोकगाथा के रूप में उत्तर भारत में बेहद लोकप्रिय रहा है। इसके रचयिता जगनिक हैं। वे कालिंजर तथा महोबा के शासक परमाल (परमर्दिदेव) के दरबारी कवि थे। आल्ह खंड में महोबा के दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन किया गया था। आल्हखण्ड की जगनिक द्वारा लिखी गई कोई भी प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। अभी इसकी संकलित की गई प्रति ही उपलब्ध है जिसका संकलन विभिन्न विद्वानों ने अनेक क्षेत्रों में गाये जाने वाले आल्हा गीतों के आधार पर किया है। इसलिए इसके विभिन्न संकलनों में पाठांतर मिलता है और कोइ भी प्रति पूर्णतः प्रमाणिक नहीं मानी गई है। इस काव्य का प्रचार-प्रसार समस्त उत्तर भारत में है। उसके आधार पर प्रचलित गाथा हिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों के गाँव-गाँव में सुनी जा सकती है। आल्हा लोकगाथा वर्षा ऋतु में विशेष रूप से गाई जाती है। .

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पहाड़ी भाषाएँ

हिमालय पर्वतश्रृंखलाओं के दक्षिणवर्ती भूभाग में कश्मीर के पूर्व से लेकर नेपाल तक पहाड़ी भाषाएँ बोली जाती हैं। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण करते समय पहाड़ी भाषाओं का एक स्वतंत्र समुदाय माना है। चैटर्जी ने इन्हें पैशाची, दरद अथवा खस प्राकृत पर आधारित मानकर मध्यका में इनपर राजस्थान की प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का प्रभाव घोषित किया है। एक नवीन मत के अनुसार कम से कम मध्य पहाड़ी भाषाओं का उद्गम शौरसेनी प्राकृत है, जो राजस्थानी का मूल भी है। पहाड़ी भाषाओं के शब्दसमूह, ध्वनिसमूह, व्याकरण आदि पर अनेक जातीय स्तरों की छाप पड़ी है। यक्ष, किन्नर, किरात, नाग, खस, शक, आर्य आदि विभिन्न जातियों की भाषागत विशेषताएँ प्रयत्न करने पर खोजी जा सकती हैं जिनमें अब यहाँ आर्य-आर्येतर तत्व परस्पर घुल मिल गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा विदित होता है कि प्राचीन काल में इनका कुछ पृथक् स्वरूप अधिकांश मौखिक था। मध्यकाल में यह भूभाग राजस्थानी भाषा भाषियों के अधिक संपर्क में आया और आधुनिक काल में आवागमन की सुविधा के कारण हिंदी भाषाई तत्व यहाँ प्रवेश करते जा रहे हैं। पहाड़ी भाषाओं का व्यवहार एक प्रकार से घरेलू बोलचाल, पत्रव्यवहार आदि तक ही सीमित हो चला है। पहाड़ी भाषाओं में दरद भाषाओं की कुछ ध्वन्यात्मक विशेषताएँ मिलती हैं जैसे घोष महाप्राण के स्थान पर अघोष अल्पप्राण ध्वनि हो जाना। पश्चिमी तथा मध्य पहाड़ी प्रदेश का नाम प्राचीन काल में संपादलक्ष था। यहाँ मध्यकाल में गुर्जरों एवं अन्य राजपूत लोगों का आवागमन होता रहा जिसका मुख्य कारण मुसलमानी आक्रमण था। अत: स्थानीय भाषाप्रयोगों में जो अधिकांश "न" के स्थान पर "ण" तथा अकारांत शब्दों की ओकारांत प्रवृत्ति लक्षित होती है, वह राजस्थानी प्रभाव का द्योतक है। पूर्वी हिंदी को भी एकाधिक प्रवृत्तियाँ मध्य पहाड़ी भाषाओं में विद्यमान हैं क्योंकि यहाँ का कत्यूर राजवंश सूर्यवंशी अयोध्या नरेशों से संबंध रखता था। इस आधार पर पहाड़ी भाषाओं का संबंध अर्ध-मागधी-क्षेत्र के साथ भी स्पष्ट हो जाता है। इनके वर्तमान स्वरूप पर विचार करते हुए दो तत्व मुख्यत: सामने आते हैं। एक तो यह कि पहाड़ी भाषाओं की एकाधिक विशेषता इन्हें हिंदी भाषा से भिन्न करती हैं। दूसरे कुछ तत्व दोनों के समान हैं। कहीं तो हिंदी शब्द स्थानीय शब्दों के साथ वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त होते हैं और कहीं हिंदी शब्द ही स्थानीय शब्दों का स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। खड़ी बोली के माध्यम से कुछ विदेशी शब्द, जैसे "हजामत", "अस्पताल", "फीता", "सीप", "डागदर" आदि भी चल पड़े हैं। .

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पाशाई भाषा

पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान की एक पाशाई भाषीय लड़की पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान का एक पाशाई भाषीय लड़का अफ़ग़ानिस्तान के ज़िलों का नक्शा - पाशाई भाषा पूर्वोत्तर में गुलाबी रंग वाले केवल चार ज़िलों में बोली जाती है पाशाई अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी नूरिस्तान, नंगरहार और कुनर राज्यों में बोली जाने वाली एक दार्दी भाषा है। अनुमान है के १९९८ में इसे २१६,८४२ लोग बोलते थे। पाशाई बोलने वालों को पाशाई समुदाय का सदस्य माना जाता है, जिसके अधिकतर लोग धर्म से मुसलमान हैं। २००३ से पहले पाशाई का कोई लिखित रूप नहीं था। बहुत से पाशाई बोलने वाले पश्तो भी बोलते हैं और उनमें साक्षरता का दर २५% है। .

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बिहारी भाषाएँ

बिहारी पूर्वी हिन्द–आर्य भाषाओं का पश्चित्मी समूह है जो मुख्यतः भारत में बिहार एवं इसके अन्य पड़ोसी राज्यों में बोली जाती है। कुछ बिहारी भाषायें जैसे: अंगिका, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और मैथिली भारत के साथ साथ नेपाल में भी बोली जाती हैं। बिहारी शब्द को भाषा के मायने जोड़ने का प्रथम प्रयास अंग्रेज भाषा-वैज्ञानिक सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा देखा जाता है। ग्रियर्सन ने पहली बार अपने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में वर्तमान उत्तरी बिहार और दक्षिण-पश्चिम उत्तर प्रदेश में बोली जाने वाले भाषाओं के सम्मिलित स्वरुप जो वहाँ की क्षेत्रिय हिन्दी में परिलक्षित होता है, उसे बिहारी नाम दे दिया है। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाओं में - मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका, बज्जिका, नागपुरिया इत्यादि भाषायें हैं। इन भाषाओं को मातृभाषा के तौर पर प्रयोग करने वाले जब हिन्दी को अपनी दूसरी प्रमुख भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं तो उनकी हिन्दी में व्याकरण और उच्चारण के स्तर पर कई समानतायें पायी जाती है इस प्रभाव को आम तौर पर हिन्दी फिल्मों और आम बोल-चाल में "बिहारी" नाम दे दिया गया है। ऐसा ही प्रभाव उस क्षेत्र के अंग्रेजी बोलने वालों की अंग्रेजी में भी परिलक्षित होता है। सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में बिहारी शब्द का प्रयोग नकारात्मक विशेषण के रूप में होने लगा है। ये सभी भाषाएँ हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में आती हैं। .

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भारत की बोलियाँ

भारत में ‘भारतीय जनगणना 1961’ (संकेत चिह्न .

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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भोजपुरी भाषा

भोजपुरी शब्द का निर्माण बिहार का प्राचीन जिला भोजपुर के आधार पर पड़ा। जहाँ के राजा "राजा भोज" ने इस जिले का नामकरण किया था।भाषाई परिवार के स्तर पर भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यवहारिक रूप से भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा या बोली है। भोजपुरी अपने शब्दावली के लिये मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी पर निर्भर है कुछ शब्द इसने उर्दू से भी ग्रहण किये हैं। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना (2001) आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग ४ करोड़ है, हालांकि द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख के में ये बताया गया है कि पूरे विश्व में भोजपुरी के वक्ताओं की संख्या १६ करोड़ है, जिसमें बिहार में ८ करोड़ और उत्तर प्रदेश में ७ करोड़ तथा शेष विश्व में १ करोड़ है। उत्तर अमेरिकी भोजपुरी संगठन के अनुसार वक्ताओं की संख्या १८ करोड़ है। वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है। .

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मारवाड़ी भाषा

राजस्थान में मारवाड़ी बोलने वाले इलाक़े मारवाड़ी राजस्थान में बोली जाने वाली एक क्षेत्रीय भाषा है। यह राजस्थान की एक मुख्य भाषाओं में से एक है। मारवाड़ी गुजरात, हरियाणा और पूर्वी पाकिस्तान में भी बोली जाती है। इसकी मुख्य लिपि देवनागरी है। इसकी कई उप-बोलियाँ भी है। मारवाड़ी की ख़ुद की लिपि जिसे मोड़िया लिपि भी हैं। परन्तु इस लिपि के विकास में राजपुताने राजरस्थान के राजा-महाराजा (वर्तमान में राजस्थान राज्य) व राजस्थान सरकार ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। पिछले ४०-५० सालों से इस भाषा के विकास पर बातें तो बहुत होती रही है पर कार्य के मामले में कोई विशेष प्रगति नहीं दिखी। इन दिनों सन् 2011 से कोलकाता के श्री शम्भु चौधरी इस दिशा में काफी कार्य किया है। राजस्थानी भाषा कि लिपि के संदर्भ में यह गलत प्रचार किया जाता रहा कि इसकी लिपि देवनागरी है जबकि राजस्थान के पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि इसकी लिपि मोड़िया है। उस लिपि को महाजनी भी कहा जाता है। हांलाकि मोड़िया लिपि को भी महाजनी लिपि कहा जाता हैं। कुछ लोग मोड़ी लिपि को ही मोड़िया लिपि मानते रहे। जब इसके विस्तार में देखा गया तो दोनों लिपि में काफी अन्तर है। .

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मगही साहित्य

मगही साहित्य से तात्पर्य उस लिखित साहित्य से है जो पाली मागधी, प्राकृत मागधी, अपभ्रंश मागधी अथवा आधुनिक मगही भाषा में लिखी गयी है। ‘सा मागधी मूलभाषा’ से यह बोध होता है कि आजीवक तीर्थंकर मक्खलि गोसाल, जिन महावीर और गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा थी जिसका प्रचलन जन सामान्य अपने दैनंदिन जीवन में करते थे। मौर्यकाल में यह राज-काज की भाषा बनी क्योंकि अशोक के शिलालेखों पर उत्कीर्ण भाषा यही है। जैन, बौद्ध और सिद्धों के समस्त प्राचीन ग्रंथ, साहित्य एवं उपदेश मगही में ही लिपिबद्ध हुए हैं। भाषाविद् मानते हैं कि मागधी (मगही) से ही सभी आर्य भाषाओं का विकास हुआ है। .

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मृच्छकटिकम्

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित '''वसन्तसेना''' मृच्छकटिकम् (अर्थात्, मिट्टी की गाड़ी) संस्कृत नाट्य साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय रूपक है। इसमें 10 अंक है। इसके रचनाकार महाराज शूद्रक हैं। नाटक की पृष्टभूमि पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) है। भरत के अनुसार दस रूपों में से यह 'मिश्र प्रकरण' का सर्वोत्तम निदर्शन है। ‘मृच्छकटिकम’ नाटक इसका प्रमाण है कि अंतिम आदमी को साहित्य में जगह देने की परम्परा भारत को विरासत में मिली है जहाँ चोर, गणिका, गरीब ब्राह्मण, दासी, नाई जैसे लोग दुष्ट राजा की सत्ता पलट कर गणराज्य स्थापित कर अंतिम आदमी से नायकत्व को प्राप्त होते हैं। .

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शिवसिंह सेंगर

शिवसिंह सेंगर (संवत् 1890-1935 वि.) हिन्दी के इतिहास लेखक थे। शिवसिंह सेंगर ग्राम कांथा जिला उन्नाव के जमींदार श्री रणजीतसिंह के पुत्र थे। वे पुलिस इंस्पेक्टर होते हुए भी संस्कृत, फारसी और हिंदी कविता के अध्येता, रसिक काव्यप्रेमी तथा स्वयं भी कवि थे। "ब्रह्मोत्तर खंड" और "शिवपुराण" का हिंदी अनुवाद करने के अतिरिक्त आपकी प्रसिद्धि हिंदी कविता के पहले इतिहासग्रंथ "शिवसिंह सरोज" (रचनाकाल सं. 1934 वि.) लिखने के कारण है। हिन्दी साहित्य में उनकी अपार निष्ठा थी। उनका निजी पुस्तकालय हिन्दी साहित्य की पुस्तकों से भरा था। जब बहुत सारी पुस्तकें जमा हो गईं तो उनके मन में आया कि इन ग्रन्थों और कवियों का परिचय दिया जाय। .

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शीतलाप्रसाद त्रिपाठी

ड्रामा शीतलाप्रसाद त्रिपाठी (?? - जनवरी, १८९५) भारतेंदु के सहयोगी, साहित्यसेवी विद्वान् तथा हिंदी के प्रथम अभिनीत नाटक 'जानकीमंगल' के रचयिता थे। वे ग्रियर्सन के भी सहयोगी थे। .

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन

हिन्दी के आरंभिक काल से लेकर आधुनिक व आज की भाषा में आधुनिकोत्तर काल तक साहित्य इतिहास लेखकों के शताधिक नाम गिनाये जा सकते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास को शब्दबद्ध करने का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था। हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन का कार्य विभिन्न कालों में किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है। .

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हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक)

हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखे गए हिन्दी साहित्य का इतिहास को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में १९२९ ई० में प्रकाशित कराया गया। .

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वैयाकरण

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गुमानी पन्त

गुमानी पन्त (जन्म: फरवरी १७७० -) काशीपुर राज्य के राजकवि थे। वे संस्कृत और हिन्दी के कवि थे। वे कुमाऊँनी तथा नेपाली के प्रथम कवि थे। कुछ लोग उन्हें खड़ी बोली का प्रथम कवि भी मानते हैं। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में गुमानी जी को कुर्मांचल प्राचीन कवि माना है। डॉ॰ भगत सिंह के अनुसार कुमाँऊनी में लिखित साहित्य की परंपरा १९वीं शताब्दी से मिलती हैं और यह परंपरा प्रथम कवि गुमानी पंत से लेकर आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। इन दो दृष्टांतों से यह सिद्ध हो जाता है कि गुमानी जी ही प्राचीनतम कवि थे। .

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ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका

ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका हिन्दी व्याकरण की पुस्तक है जिसे डेनमार्क से भारत आये ईसाई मिशनरी डॉ॰ बेंजामिन शूल्ज़ ने तैयार किया था। डेनिश भाषी डॉ॰ शूल्ज़ प्रोटेस्टेन्ट मिशनरी थे। ये पहले तमिलनाडु में कार्यरत थे, बाद में हैदराबाद आ गए। आपकी मृत्यु सन् 1760 ई0 में जर्मनी के हाले नगर में हुई। कार्य करते हुए इनको दायित्व-बोध हुआ कि भारत में आने वाले मिशनरियों को हिन्दुस्तानी भाषा से अवगत कराना चाहिए। हिन्दुस्तानी भाषा के सम्बन्ध में लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा, ‘‘यह भाषा अपने आप में बहुत ही सरल है। मैं जब यह भाषा सीखने लगा तो मुझे अत्यधिक कठिनाई का अनुभव हुआ.............

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आल्हा (गायन)

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Charles_Elliot.jpg आल्हा वीरगाथाओं के लेखन और गायन की एक शैली है। इसमें रचा गया परमाल रासो का आल्ह खण्ड बहुत लोकप्रिय हुआ। आल्हा छन्द में लिखी आल्हखण्ड की ये पंक्तियाँ आज भी नौजवानों की रगों में अद्भुत जोश भर देती हैं: गाँव की चौपालों पर वर्षा ऋतु में आल्हा का आनन्द सभी युवा, बाल और बृद्ध मिलकर उठाते हैं। .

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काशिका भाषा

वाराणसी भाषाई परिवार के अनुसार काशिका एक भारतीय आर्य भाषा है जो कि वाराणसी एवं उसके आस पास के क्षेत्र में बोली जाती है। अपनी शब्दाबली के लिए यह मुख्यतः हिंदी, उर्दू एवं भोजपुरी पर निर्भर करती है। भारत में लगभग ५० लाख लोग काशिका भाषा बोलते हैं। .

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