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जैनेन्द्र कुमार

सूची जैनेन्द्र कुमार

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार (२ जनवरी, १९०५- २४ दिसंबर, १९८८) का विशिष्ट स्थान है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं। जैनेंद्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं। जैनेंद्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं। .

43 संबंधों: तपोभूमि, दो चिड़ियाँ, नरेन्द्र कोहली, नीलम देश की राजकन्या, परख, प्रस्तुत प्रश्न, फाँसी (पुस्तक), मनोविश्लेषणवाद, मुक्तिबोध, मुक्तिबोध (उपन्यास), श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर, समस्त रचनाकार, साहित्य अकादमी पुरस्कार पंजाबी, साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी, साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप, संस्मरण, संजीव, सुनीता, सुखदा, हिन्दी पुस्तकों की सूची/च, हिन्दी पुस्तकों की सूची/त, हिन्दी पुस्तकों की सूची/प, हिन्दी पुस्तकों की सूची/श, हिन्दी पुस्तकों की सूची/क, हिन्दी पुस्तकों की सूची/अ, हिन्दी गद्यकार, हिन्दी के दस सर्वश्रेष्ठ, हिन्दी उपन्यास, हिंदी साहित्यकार, हंस (संपादक प्रेमचंद), ज्ञानपीठ पुरस्कार, जैनेंद्र कुमार की कहानियाँ, जैनेंद्र की कहानियाँ (सात भाग), विष्णु प्रभाकर, आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास, आधुनिक काल, कल्याणी (उपन्यास), कहानी, अवसर, अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, १९०५, २ जनवरी

तपोभूमि

तपोभूमि जैनेंद्र कुमार और ऋषभचरण जैन द्वारा 1932 में लिखा गया एक उपन्यास है।.

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दो चिड़ियाँ

दो चिड़ियाँ जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक कहानी संग्रह है।.

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नरेन्द्र कोहली

डॉ॰ नरेन्द्र कोहली (जन्म ६ जनवरी १९४०) प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार हैं। कोहली जी ने साहित्य के सभी प्रमुख विधाओं (यथा उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी) एवं गौण विधाओं (यथा संस्मरण, निबंध, पत्र आदि) और आलोचनात्मक साहित्य में अपनी लेखनी चलाई है। उन्होंने शताधिक श्रेष्ठ ग्रंथों का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारंभ करने का श्रेय नरेंद्र कोहली को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है। जनवरी, २०१७ में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। .

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नीलम देश की राजकन्या

नीलम देश की राजकन्या जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक कहानी संग्रह है।.

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परख

जैनेंद्र कुमार की सर्वप्रथम औपन्यासिक कृति 'परख' का प्रकाशन सन 1929 में हुआ। सत्यधन, कट्टो, बिहारी और गरिमा नामक पात्र-पात्रियों के चरित्र पर आधारित यह मनोवैज्ञानिक कथा अप्रत्यक्ष रूप से विधवा विवाह की समस्या से संबंध रखती है, जो भारतेंदुयुगीन औपन्यासिक प्रवृत्ति है। जैनेंद्र के आगामी उपन्यासों की अपेक्षा 'परख' में चरित्र-चित्रण अशक्त प्रतीत होता है। मुख्यतः इसी कारण से 'परख' को वह महत्व नहीं प्राप्त हो सका, जो जैनेंद्र के अन्य उपन्यासों विशेष रूप से 'सुनीता'(1935) तथा 'त्यागपत्र' (1937) के प्राप्त हुआ। इसका एक कारण इस उपन्यास की अविश्वसनीय कथा भी है। इसके प्रधान पात्र-पात्रियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हुए भी अधिकांशतः नाटकीय व्यवहार करते हैं। आदर्शवादी कथा-तत्व यत्र-तत्र उभरे हुए हैं, जिनमें आत्मबलिदान की भावना को प्रमुखता मिली है। श्रेणी:जैनेंद्र कुमार श्रेणी:पुस्तक.

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प्रस्तुत प्रश्न

प्रस्तुत प्रश्न जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक निबंध संग्रह है।.

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फाँसी (पुस्तक)

फाँसी जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक कहानी संग्रह है।.

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मनोविश्लेषणवाद

मनोविश्लेषणवाद का प्रवर्तक फ्रायड को माना जाता है। फ्रायड ने मानव मस्तिष्क के तीन भाग चेतन, अवचेतन और उपचेतन किये। उन्होंने काम और व्यक्ति की दमित भावनाओं को सर्वाधिक महत्व दिया। फ्रायड के शिष्य एडलर ने काम की जगह अहम को मुख्य माना जबकी उनके एक अन्य शिष्य युंग ने दोनो को एक साथ रखा। हिंदी में इलाचंद्र जोशी,जैनेन्द्र, अज्ञेय आदि इसी विचारधारा से प्रभावित साहित्यकार हैं।.

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मुक्तिबोध

मुक्तिबोध निम्नलिखित में से कोई एक हो सकता है.

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मुक्तिबोध (उपन्यास)

मुक्तिबोध हिन्दी के विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार द्वारा रचित एक उपन्यास है जिसके लिये उन्हें सन् 1966 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

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श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर

श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर की स्थापना सन १९१२ में हुई थी। प्रथम अध्यक्ष ओंकार सिंह परमार व प्रथम मंत्री अधिकारी जगन्नाथ दास विद्यारत्न निर्वाचित हुए। .

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समस्त रचनाकार

अकारादि क्रम से रचनाकारों की सूची अ.

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साहित्य अकादमी पुरस्कार पंजाबी

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और पंजाबी भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी

साहित्य अकादमी पुरस्कार, सन् १९५४ से प्रत्येक वर्ष भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को दिया जाता है, जिसमें एक ताम्रपत्र के साथ नक़द राशि दी जाती है। नक़द राशि इस समय एक लाख रुपए हैं। साहित्य अकादेमी द्वारा अनुवाद पुरस्कार, बाल साहित्य पुरस्कार एवं युवा लेखन पुरस्कार भी प्रतिवर्ष विभिन्न भारतीय भाषाओं में दिए जाते हैं, इन तीनों पुरस्कारों के अंतर्गत सम्मान राशि पचास हजार नियत है। .

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साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप

साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप भारत की साहित्य अकादमी द्वारा प्रदान किया जानेवाला सर्वोच्च सम्मान है। .

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संस्मरण

स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण कहलाता है। यात्रा साहित्य भी इसके अन्तर्गत आता है। संस्मरण को साहित्यिक निबन्ध की एक प्रवृत्ति भी माना जा सकता है। ऐसी रचनाओं को 'संस्मरणात्मक निबंध' कहा जा सकता है। व्यापक रूप से संस्मरण आत्मचरित के अन्तर्गत लिया जा सकता है। किन्तु संस्मरण और आत्मचरित के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। आत्मचरित के लेखक का मुख्य उद्देश्य अपनी जीवनकथा का वर्णन करना होता है। इसमें कथा का प्रमुख पात्र स्वयं लेखक होता है। संस्मरण लेखक का दृष्टिकोण भिन्न रहता है। संस्मरण में लेखक जो कुछ स्वयं देखता है और स्वयं अनुभव करता है उसी का चित्रण करता है। लेखक की स्वयं की अनुभूतियाँ तथा संवेदनायें संस्मरण में अन्तर्निहित रहती हैं। इस दृष्टि से संस्मरण का लेखक निबन्धकार के अधिक निकट है। वह अपने चारों ओर के जीवन का वर्णन करता है। इतिहासकार के समान वह केवल यथातथ्य विवरण प्रस्तुत नहीं करता है। पाश्चात्य साहित्य में साहित्यकारों के अतिरिक्त अनेक राजनेताओं तथा सेनानायकों ने भी अपने संस्मरण लिखे हैं, जिनका साहित्यिक महत्त्व स्वीकारा गया है। .

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संजीव

संजीव (6 जुलाई, 1947 से वर्तमान) हिन्दी साहित्य की जनवादी धारा के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में समान रूप से रचनाशील। प्रायः समाज की मुख्यधारा से कटे विषयों, क्षेत्रों एवं वर्गों को लेकर गहन शोधपरक कथालेखक के रूप में मान्य। .

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सुनीता

1935 में जैनेंद्र कुमार के दूसरे उपन्यास 'सुनीता' का प्रकाशन हुआ। आरंभ में इसका दो तिहाई अंश चित्रपट में प्रकाशित हुआ था। गुजराती की एक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप से अनूदित भी हुआ। 'सुनीता' और जैनेंद्र की पूर्वप्रकाशित औपन्यासिक कृति 'परख' के कथानक में दृष्टिकोणगत बहुत कुछ समानता है। इस उपन्यास की कमियाँ भी स्पष्ट है। इसके पात्र-पात्रियों के व्यवहार और प्रतिक्रियाएँ निरुद्देश्य एवं अप्रत्याशित लगती हैं। अप्रत्याशित व्यवहार प्रदर्शन की भावना के कारण ही उपन्यास में क्षीण स्थल आए हैं। उपन्यासकार का पहेली बुझाने का आग्रह कृति में हलकापन ला देता है, परंतु कहीं-कहीं उपन्यास के चरित्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अतिशय उच्चता का परिचय देते हैं। जैनेंद्र का अटपटी कथा शैली इस उपन्यास में सहजता, स्वाभाविकता से युक्त प्रतीत होती है। इस दृष्टि से 'सुनीता' को जैनेंद्र की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है। उपन्यास के प्रभावशाली वातावरण और सप्राण चरित्रों के बीच पात्र चकित-सा रह जाता है। जैनेंद्र की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि और सशक्त वातावरण का चित्रण पाठक पर अमिट प्रभाव डालता है। 'सुनीता' के कथा-चक्र की सबसे भारी घटना निर्जन वन में अर्धरात्रि के समय उपन्यास की प्रधान पात्री सुनीता का हरि प्रसन्न के सामने निर्वसना हो जाना है। परंतु 'सुनीता' के चरित्रों की मानसिक अस्थिरता को देखते हुए इस घटना को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। इसके आधार पर जैनेंद्र पर नग्नवादिता के आरोप अनौचित्यपूर्ण हैं। श्रेणी:जैनेंद्र कुमार श्रेणी:पुस्तक.

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सुखदा

जैनेंद्र कुमार का पाँचवा उपन्यास 'सुखदा' (1953ई.) है, जो प्रारंभ में धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। इसका कथानक घटनाओं के वैविध्य बोझ से आक्रांत है। जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है इसकी प्रधान पात्री सुखदा है। उसका जीवन उसके लिए भार बन चुका है। वह एक धनी घराने की कन्या और विवाहिता है। वैचारिक असमानताओं के कारण उसके संबंध अपने पति से संतोषप्रद नहीं हैं। उपन्यास की यह परिस्थिति तो स्पष्ट है, परंतु इसको आधार बनाकर कथा का जो ताना-बाना बुना गया है, वह पाठक को विचित्र लगता है। कथा का उद्देश्य अंत तक अप्रकट ही रहता है। सुखदा के लाल की ओर आकर्षित होने पर भी कथानक का तनाव नहीं खत्म होता। अनेक स्वभावविरोधी प्रतिक्रियाओं तथा नाटकीय मोड़ों के बाद सुखदा पति को त्यागकर अस्पताल में भरती हो जाती है। अनेक अनावश्यक, अप्रासंगिक विवरणों तथा चमत्कारिक तत्वों से कथा अशक्त हो गई है। श्रेणी:जैनेंद्र कुमार.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/च

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/त

* तकीषी की कहानियां - बी.डी. कृष्णन.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/प

* पंच परमेश्वर - प्रेम चन्द्र.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/श

संवाद शीर्षक से कविता संग्रह-ईश्वर दयाल गोस्वाामी.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/क

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/अ

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हिन्दी गद्यकार

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हिन्दी के दस सर्वश्रेष्ठ

हिन्दी के दस सर्वश्रेष्ठ बीसवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्यकारों एवं हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाओं के सन्दर्भ में श्रेष्ठ आलोचकों द्वारा किये गये उल्लेखों-विवेचनों पर आधारित मुख्यतः दस-दस उत्कृष्ट साहित्यकारों या फिर साहित्यिक कृतियों का चयन है, जिन्हें सापेक्ष रूप से श्रेष्ठतर माना गया है। .

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हिन्दी उपन्यास

हिंदी उपन्यास का आरम्भ श्रीनिवासदास के "परीक्षागुरु' (१८४३ ई.) से माना जाता है। हिंदी के आरम्भिक उपन्यास अधिकतर ऐयारी और तिलस्मी किस्म के थे। अनूदित उपन्यासों में पहला सामाजिक उपन्यास भारतेंदु हरिश्चंद्र का "पूर्णप्रकाश' और चंद्रप्रभा नामक मराठी उपन्यास का अनुवाद था। आरम्भ में हिंदी में कई उपन्यास बँगला, मराठी आदि से अनुवादित किए गए। हिंदी में सामाजिक उपन्यासों का आधुनिक अर्थ में सूत्रपात प्रेमचंद (१८८०-१९३६) से हुआ। प्रेमचंद पहले उर्दू में लिखते थे, बाद में हिंदी की ओर मुड़े। आपके "सेवासदन', "रंगभूमि', "कायाकल्प', "गबन', "निर्मला', "गोदान', आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं, जिनमें ग्रामीण वातावरण का उत्तम चित्रण है। चरित्रचित्रण में प्रेमचंद गांधी जी के "हृदयपरिवर्तन' के सिद्धांत को मानते थे। बाद में उनकी रुझान समाजवाद की ओर भी हुई, ऐसा जान पड़ता है। कुल मिलाकर उनके उपन्यास हिंदी में आधुनिक सामाजिक सुधारवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। जयशंकर प्रसाद के "कंकाल' और "तितली' उपन्यासों में भिन्न प्रकार के समाजों का चित्रण है, परंतु शैली अधिक काव्यात्मक है। प्रेमचंद की ही शैली में, उनके अनुकरण से विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि अनेक लेखकों ने सामाजिक उपन्यास लिखे, जिनमें एक प्रकार का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद अधिक था। परंतु पांडेय बेचन शर्मा "उग्र', ऋषभचरण जैन, चतुरसेन शास्त्री आदि ने फरांसीसी ढंग का यथार्थवाद और प्रकृतवाद (नैचुरॉलिज़्म) अपनाया और समाज की बुराइयों का दंभस्फोट किया। इस शेली के उपन्यासकारों में सबसे सफल रहे "चित्रलेखा' के लेखक भगवतीचरण वर्मा, जिनके "टेढ़े मेढ़े रास्ते' और "भूले बिसरे चित्र' बहुत प्रसिद्ध हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क की "गिरती दीवारें' का भी इस समाज की बुराइयों के चित्रणवाली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। अमृतलाल नागर की "बूँद और समुद्र' इसी यथार्थवादी शैली में आगे बढ़कर आंचलिकता मिलानेवाला एक श्रेष्ठ उपन्यास है। सियारामशरण गुप्त की नारी' की अपनी अलग विशेषता है। मनोवैज्ञानिक उपन्यास जैनेंद्रकुमार से शुरू हुए। "परख', "सुनीता', "कल्याणी' आदि से भी अधिक आप के "त्यागपत्र' ने हिंदी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैनेंद्र जी दार्शनिक शब्दावली में अधिक उलझ गए। मनोविश्लेषण में स. ही.

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हिंदी साहित्यकार

इस सूची में अन्य भाषाओं में लिखनेवाले वे साहित्यकार भी सम्मिलित हैं जिनकी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद हो चुका है। अकारादि क्रम से रचनाकारों की सूची अ.

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हंस (संपादक प्रेमचंद)

हंस का प्रकाशन सन् 1930 ई० में बनारस से प्रारम्भ हुआ था। इसके सम्पादक मुंशी प्रेमचन्द थे। प्रेमचन्द के सम्पादकत्व में यह पत्रिका हिन्दी की प्रगति में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई। सन् 1933 में प्रेमचन्द ने इसका काशी विशेषांक बड़े परिश्रम से निकाला। वे सन् 1930 से लेकर 1936 तक इसके सम्पादक रहे। उसके बाद जैनेन्द्र और प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने संयुक्त रूप से इसका सम्पादन प्रारम्भ किया। हंस के विशेषांकों में प्रेमचन्द स्मृति अंक, एकांकी नाटक अंक 1938, रेखाचित्र अंक, कहानी अंक, प्रगति अंक तथा शान्ति अंक विशेष रूप से उल्लेखनीय रहे। जैनेन्द्र और शिवरानी देवी के बाद इसके सम्पादक शिवदान सिंह चौहान और श्रीपत राय उसके बाद अमृत राय और तत्पश्चात् नरोत्तम नागर रहे। बहुत दिनों बाद सन् 1959 में हंस का एक वृहत् संकलन सामने आया जिसमें बालकृष्ण राव और अमृत राय के संयुक्त सम्पादन में आधुनिक साहित्य एवं उससे सम्बन्धित नवीन मूल्यों पर विचार किया गया था। .

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ज्ञानपीठ पुरस्कार

पुरस्कार-प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। .

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जैनेंद्र कुमार की कहानियाँ

जैनेंद्र कुमार की कहानियाँ जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक कहानी संग्रह है।.

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जैनेंद्र की कहानियाँ (सात भाग)

जैनेंद्र की कहानियाँ (सात भाग) जैनेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक कहानी संग्रह है।.

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विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर (२१ जून १९१२- ११ अप्रैल २००९) हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक थे जिन्होने अनेकों लघु कथाएँ, उपन्यास, नाटक तथा यात्रा संस्मरण लिखे। उनकी कृतियों में देशप्रेम, राष्ट्रवाद, तथा सामाजिक विकास मुख्य भाव हैं। .

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आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी आया। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ साथ मानव को समान महत्व दिया गया। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नई क्रांति हुई। आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा। पूरे भारत में और हर प्रदेश में हिन्दी की लोकप्रियता फैली और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा सकता है- .

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आधुनिक काल

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हुआ। इसको हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है, जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। सं 1800 वि.

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कल्याणी (उपन्यास)

सन 1939 में जैनेंद्र कुमार के चौथे उपन्यास कल्याणी का प्रकाशन हुआ। यह उपन्यास भी आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। सामान्यतः इस शैली में जो उपन्यास लिखे जाते हैं, उनमें कथा के किसी महत्वपूर्ण पात्र की ओर से ही उसका संपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया जाता है परंतु इस उपन्यास की विशेषता यह है कि कथा का प्रस्तुतकर्ता उपन्यास का गौण पात्र है। उपन्यास की प्रधान पात्री श्रीमती असरानी हैं, जिनके नाम पर ही उपन्यास का नामकरण भी हुआ है। प्रस्तुतकर्ता ने अपने कुछ परिचितों की जीवनकथा के रूप में यह कहानी सामने रखी है। चूँकि वह स्वयं कथा में प्रधानता नहीं रखता, इसलिए उसके प्रति अपना दृष्टिकोण भी अधिकांशतः तटस्थ रखने का प्रयत्न करता है। इसी कारण कथानक के विकास-चक्र में कहीं-कहीं कुछ ऐसे अंश आ गए हैं, जो उसके प्रवाह की गति भंग कर देते हैं। प्रासंगिक रूप से जो दार्शनिक विचार इसमें समावेशित किए गए हैं, वे भी चिंतनपूर्ण नहीं है। कल्याणी.

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कहानी

कथाकार (एक प्राचीन कलाकृति)कहानी हिन्दी में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना गया। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार- नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'बाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है। इसके पश्‍चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई हैं। .

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अवसर

रामकथा पर आधारित 'अवसर' नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध उपन्यास है जो सन १९७६ में प्रकाशित हुआ। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनरुत्थान का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। "अवसर" इसी उपन्यास-श्रंखला की दूसरी कडी है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया। पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया! किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। आश्चर्य नहीं कि तत्कालीन सभी दिग्गज साहित्यकारों से युवा नरेन्द्र कोहली को भरपूर आर्शीवाद भी मिला और बड़ाई भी.

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अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ

अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक बीसवीं शती के प्रारंभ में भारतीय प्रगतिशील लेखकों का एस समूह था। यह लेखक समूह अपने लेखन से सामाजिक समानता का समर्थक करता था और कुरीतियों अन्याय व पिछड़ेपन का विरोध करता था। इसकी स्थापना १९३५ में लंदन में हुई। इसके प्रणेता सज्जाद ज़हीर थे। १९३५ के अंत तक लंदन से अपनी शिक्षा समाप्त करके सज्जाद ज़हीर भारत लौटे। यहाँ आने से पूर्व वे अलीगढ़ में डॉ॰ अशरफ, इलाहबाद में अहमद अली, मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी, बनारस में प्रेमचंद, कलकत्ता में प्रो॰ हीरन मुखर्जी और अमृतसर में रशीद जहाँ को घोषणापत्र की प्रतियाँ भेज चुके थे। वे भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे लेकिन वे प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। उनका विचार था कि ये साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। इलाहाबाद पहुंचकर सज्जाद ज़हीर अहमद अली से मिले जो विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रवक्ता थे। अहमद अली ने उन्हें प्रो॰एजाज़ हुसैन, रघुपति सहाय फिराक, एहतिशाम हुसैन तथा विकार अजीम से मिलवाया.

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अखिल भारतीय साहित्य परिषद

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् भारतीय भाषाओं का एक देशव्यापी संगठन है। इसकी स्थापना २७ अक्टूबर १९६६ को दिल्ली में हुई थी। उसी वर्ष इसका राष्ट्रीय अधिवेशन प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था। सरदार जीतसिंह 'जीत' को इसके संगठन का दायित्व दिया गया था। वर्तमान में इसके अध्यक्ष त्रिभुवन नाथ शुक्ल हैं। जबकि संगठन का कार्य श्रीधर पराडकर देखते हैं। सम्पूर्ण भारतवर्ष के २१ प्रान्तों में इसका कार्य चल रहा है। .

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१९०५

1905 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२ जनवरी

२ जनवरी ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का २रॉ दिन है। साल में अभी और ३६३ दिन बाकी हैं (लीप वर्ष में 364)। .

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