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जलक्रीड़ाओं की सूची

सूची जलक्रीड़ाओं की सूची

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15 संबंधों: एशियाई खेल, तैराकी, बाड कोनिग्शोफ़न, महाभारत भाग १६, सिंहली संस्कृति, सोलह शृंगार, जलपोशाक, गुणाढ्य, गोवा के होटल, कला, कल्कि पुराण, 2010 राष्ट्रमण्डल खेल, 2014 एशियाई खेल, 2014 राष्ट्रमण्डल खेल, 2018 राष्ट्रमण्डल खेल

एशियाई खेल

एशियाई खेलों को एशियाड के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रत्येक चार वर्ष बाद आयोजित होने वाली बहु-खेल प्रतियोगिता है जिसमें केवल एशिया के विभिन्न देशों के खिलाडी भाग लेते हैं। इन खेलों का नियामन एशियाई ओलम्पिक परिषद द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक परिषद के पर्यवेक्षण में किया जाता है। प्रत्येक प्रतियोगिता में प्रथम स्थान के लिए स्वर्ण, दूसरे के लिए रजत और तीसरे के लिए कांस्य पदक दिए जाते हैं, जिस परम्परा का शुभारम्भ १९५१ में हुआ था। प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन दिल्ली, भारत में किया गया था, जिसने १९८२ में पुनः इन खेलों की मेज़बानी की। १५वें एशियाई खेल १ दिसंबर से १५ दिसंबर, २००६ के बीच दोहा, कतर में आयोजित हुए थे। सोलहवें एशियाई खेलों का आयिजन १२ नवंबर से २७ नवंबर, २०१० के बीच किया गया, जिनकी मेज़बानी ग्वांगझोउ, चीन ने की। १७वें एशियाई खेलों का आयोजन २०१४ में दक्षिण कोरिया के इंचेयान में होगा। .

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तैराकी

right तरण या तैराकी एक जलक्रीड़ा है। इसके अन्तर्गत अपने हाथ-पैर की सहायता से जल में गति करना होता है जो किसी कृत्रिम साधन के बिना किया जाता है। तैराकी मनोरंजन भी है और स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकार भी। आप अपने अवयवों को पानी में ढीला छोड़ दीजिए और आकाश की ओर देखते हुए पानी में लेट जाइए, आपको यह देखकर आश्चर्य होगा कि आप डूबते नहीं हैं। पानी में स्थिर रहने का यह ढंग पहले सीखना चाहिए। शरीर में सिर सब से भारी अवयव है, जिससे नाक को और प्राणियों की तरह पानी के ऊपर रखकर तैरना आरंभ में कठिन होता है। .

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बाड कोनिग्शोफ़न

बाड कोनिग्शोफ़न इम ग्राबफेल्ड (जर्मन: Bad Königshofen im Grabfeld) जर्मनी के बेयर्न राज्य के रोह्न-ग्राबफेल्ड जिले में फ़्रांकिस्ची साले पर स्थित एक स्पा कस्बा है। इस कस्बे की परिसीमा के भीतर बहुत से छोटे-छोटे ग्राम भी बसे हुए हैं.

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महाभारत भाग १६

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सिंहली संस्कृति

फसल पकने पर किया जाने वाला श्रीलंका का पारम्परिक नृत्य ऐसा विश्वास किया जाता है कि राजकुमार विजय और उसके 700 अनुयायी ई. पू.

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सोलह शृंगार

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार) की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं। अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना। स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुगंध और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे। स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल "बाथसाल्ट" का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो "फेनक" कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे। वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर-नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं। स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगार प्रसाधनों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी। बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधुएँ सूखे अलकों वाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं। महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था। मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके "पत्ररचना", विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था। आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था। आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों। आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है। अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था। मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूल या पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था। भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं। शृंगार का सोलहवाँ अंग है नीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है। .

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जलपोशाक

जलपोशाक (wetsuit) जलक्रीड़ाओं में प्रयोग होने वाले ऐसे वस्त्रों को कहते हैं जो जल में तापावरोधन, ख़रोंचों से रक्षा और कुछ हद तक उत्प्लावन के लिये प्रगोग किया जाता है। यह अक्सर निओप्रीन के बने होते हैं। जलपोशाक पहनने पर यह त्वचा और पोशाक के बीच एक हवा के बुलबुलों की पतली-सी तह रोक लेती है जिससे शरीर की ऊष्मा अंदर ही सुरक्षित रहती है। ग़ोताख़ोरी, लहरबाज़ी (सर्फ़िंग) और अन्य जल के खेलों यह बहुत इस्तेमाल होती हैं। .

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गुणाढ्य

गुणाढ्य पैशाची में बड्डकहा (संस्कृत: बृहत्कथा) नामक अनुपलब्ध आख्यायिका ग्रंथ के प्रणेता। क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथामंजरी (११वीं शती) के अनुसार वे प्रतिष्ठान निवासी कीर्तिसेन के पुत्र थे। दक्षिणापथ में विद्यार्जन करके विख्यात पंडित हुए। प्रभावित होकर सातवाहनराज ने उन्हें अपना मंत्री बनाया। प्रवाद है कि महाराज संस्कृत व्याकरण के अच्छे ज्ञाता नहीं थे जिससे जलक्रीड़ा के समय वे विदुषी रानियों के मध्य उपहास के पात्र बने। दु:खी होकर उन्होंने अल्प काल में ही व्याकरण मे निष्णात्‌ होने के निमित्त गुणाढ्य पंडित को प्रेरित किया जिसे उन्होंने असंभव बताया। किंतु ‘कातत्र’ के रचयिता दूसरे सभापंडित शर्ववर्मा ने इसे छह मास में ही संभव बताया। गुणाढ्य ने इस चुनौती और प्रतिद्वंद्विता का उत्तर अपनी रोषयुक्त प्रतिज्ञा द्वारा किया। लेकिन शर्ववर्मा ने उसी अवधि में महाराज को व्याकरण का अच्छा ज्ञान करा ही दिया। फलत: प्रतिज्ञा के अनुसार गुणाढ्य को नगरवास छोड़ वनवास और संस्कृत, पाली तथा प्राकृत छोड़कर पैशाची का आश्रय लेना पड़ा। विद्वानों का एक वर्ग गुणाढ्य को कश्मीरी मानता है जिससे पैशाची से उनका संबंध स्वाभाविक हो जाता है। इसी भाषा में उन्होंने सात लाख की अपनी ‘बड्डकहा’ रची जो काणभूति के अनुसार चमड़े पर लिखी विद्याधरेंद्रो की कथा बताई जाती है। ग्रंथ को लेकर वे सातवाहन नरेश की सभा में पुन: गए जहाँ उन्हें वांछित सत्कार नहीं मिला। प्रतिक्रियास्वरूप, वन लौटकर वे उस कृति को पाठपूर्वक अग्नि में हवन करने लगे। कहा जाता है, माधुर्य के कारण पशु-पक्षी गण तक निराहार रह कथाश्रवण में लीन रहने लगें जिससे वे मांसरहित हो गए। इधर वनजीवों के मांसाभाव का कारण जानने के लिये सातवाहन द्वारा पूछताछ किए जाने पर लुब्धकों ने जो उत्तर दिया उसके अनुसार वे गुणाढ्य को मनाने अथवा ‘बड्डकहा’ को बचाने के उद्देश्य से वन की ओर गए। वहाँ वे अनुरोधपूर्वक ग्रंथ का केवल सप्तमांश जलने से बचाने में सफल हो सके जो क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथा श्लोकसंग्रह (७५०० श्लोक) और सोमदेवकृत कथासरित्सागर (२४०० श्लोक) नामक संस्कृत रूपांतरों में उपलब्ध है। गुणाढ्य का समय विवादास्पद है। संस्कृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं वे ७वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। कीथ ने कंबोडिया से प्राप्त ८७५ ई. के एक अभिलेख के आधार पर उनके अस्तित्व की कल्पना ६०० ई. से पूर्व की है। प्रचलित प्रवादों में गुणाढ्य का संबंध सातवाहन से जोड़ा गया है। सातवाहननरेशों का समय २०० ई. पू.

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गोवा के होटल

गोवा में पर्यटन के लिए बहुत कुछहै। इस ही प्रकार पर्यटकों के लिए रुकनेके अच्छे साधन है। .

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कला

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित 'गोपिका' कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है। .

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कल्कि पुराण

कल्कि पुराण हिन्दुओं के विभिन्न धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों में से एक हैं यह एक उपपुराण है। इस पुराण में भगवान विष्णु के दसवें तथा अन्तिम अवतार की भविष्यवाणी की गयी है और कहा गया है कि विष्णु का अगला अवतार (महा अवतार) "कल्कि अवतार होगा। इसके अनुसार ४,३२० वीं शती में कलियुग का अन्त के समय कल्कि अवतार लेंगें। .

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2010 राष्ट्रमण्डल खेल

2010 राष्ट्रमण्डल खेल उन्नीसवें राष्ट्रमंडल खेल थे जिनका आयोजन भारत की राजधानी नई दिल्ली में 3 से 14 अक्टूबर 2010 में किया गया। दिल्ली में इससे पहले 1951 और 1982 में एशियाई खेल भी आयोजित किए जा चुके हैं। उद्घाटन समारोह जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हुआ। इन खेलों का आयोजन भारत में पहली बार तथा 1998 में कुआलालम्पुर, मलेशिया के बाद एशिया में दूसरी बार हुआ। .

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2014 एशियाई खेल

सत्रहवें एशियाई खेल २०१४ में दक्षिण कोरिया के इंचियोन में १७ सितम्बर २०१४ से ४ अक्टूबर २०१४ के मध्य आयोजित किए गए। .

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2014 राष्ट्रमण्डल खेल

2014 राष्ट्रमण्डल खेल (आधिकारिक XX राष्ट्रमण्डल खेल) ग्लासगो, स्कॉटलैंड, में 23 जुलाई से 3 अगस्त 2014 के मध्य आयोजित हुआ। यह ओलंपिक व एशियाड खेलों के बाद तीसरा सबसे बड़ी बहु-खेल स्पर्धा है। यह स्कॉटलैंड में होने वाला अब तक का सबसे बड़ा बहु-खेल आयोजन रहा जिसमे 4,560 खिलाड़ी 17 विभिन्न खेलों में भाग लिया। स्कॉटलैंड में इससे पूर्व एडिनबरा में 1970 और 1986 के राष्ट्रमण्डल खेल आयोजित कर चुका है। इन खेलों ने संगठन, लोगों की उपस्तिथि तथा उत्साह के कारण काफी प्रशंसा पाई। राष्ट्रमण्डल खेल संघ के प्रमुख माइक हूपर ने इन खेलों की प्रशंसा करते हुए अब तक इतिहास का असाधारण खेल करार दिया। स्कॉटलैंड की धरती पर तीसरी बार आयोजित हुए इन खेलों में यूनाईटेड किंगडम के गृह देशों इंग्लैंड, वेल्स तथा मेजबान स्कॉटलैंड ने सबसे अधिक पदक पा कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। इंग्लैंड ने 1986 के खेलों के बाद पदक तालिका में शीर्ष स्थान हासिल किया, जो कि स्कॉटलैंड में ही आयोजित हुए थे। किरिबाती ने राष्ट्रमण्डल खेल के इतिहास में अपना पहला पदक जीता, जो कि भारोत्तोलन की पुरुष 105 किग्रा स्पर्धा में स्वर्ण था। .

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2018 राष्ट्रमण्डल खेल

2018 राष्ट्रमण्डल खेल या 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स गोल्ड कोस्ट, क्वींसलैंड, ऑस्ट्रेलिया, में 4 अप्रैल से 15 अप्रैल 2018 के मध्य में आयोजित हुआ। यह ओलंपिक व एशियाड खेलों के बाद तीसरा सबसे बड़ी बहु-खेल स्पर्धा है| ऑस्ट्रेलिया ने पांचवी बार, राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी करी। .

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