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जल घड़ी

सूची जल घड़ी

Ancient Persian clock जल घडी बनाने की एक सरल योजना अल-जजारी का 'गज-घड़ी' जल घड़ी (water clock या clepsydra) एक समयमापक युक्ति है जिसमें समय मापन के लिये किसी द्रव के नियंत्रित प्रवाह का सहारा लिया जाता है। विभिन्न सभ्यताओं में इनका उपयोग प्राचीन काल से ही हो रहा था। .

3 संबंधों: नियंत्रण सिद्धान्त का इतिहास, समय मापन का इतिहास, आर्यभट

नियंत्रण सिद्धान्त का इतिहास

* २०० ईसा पूर्व - फ्लोट रेगुलेटर मेकैनिज्म (यूनान).

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समय मापन का इतिहास

'इस्केप मेकैनिज्म' से युक्त एक घड़ी अति प्राचीन काल में मनुष्य ने सूर्य की विभिन्न अवस्थाओं के आधार प्रात:, दोपहर, संध्या एवं रात्रि की कल्पना की। ये समय स्थूल रूप से प्रत्यक्ष हैं। तत्पश्चात् घटी पल की कल्पना की होगी। इसी प्रकार उसने सूर्य की कक्षागतियों से पक्षों, महीनों, ऋतुओं तथा वर्षों की कल्पना की होगी। समय को सूक्ष्म रूप से नापने के लिए पहले शंकुयंत्र तथा धूपघड़ियों का प्रयोग हुआ। रात्रि के समय का ज्ञान नक्षत्रों से किया जाता था। तत्पश्चात् पानी तथा बालू के घटीयंत्र बनाए गए। ये भारत में अति प्राचीन काल से प्रचलित थे। इनका वर्णन ज्योतिष की अति प्राचीन पुस्तकों में जैसे पंचसिद्धांतिका तथा सूर्यसिद्धांत में मिलता है। पानी का घटीयंत्र बनाने के लिए किसी पात्र में छोटा सा छेद कर दिया जाता था, जिससे पात्र एक घंटी में पानी में डूब जाता था। उसके बाहरी भाग पर पल अंकित कर दिए जाते थे। इसलिए पलों को पानीय पल भी कहते हैं। बालू का घटीयंत्र भी पानी के घटीयंत्र सरीखा था, जिसमें छिद्र से बालू के गिरने से समय ज्ञात होता था। किंतु ये सभी घटीयंत्र सूक्ष्म न थे तथा इनमें व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी थीं। विज्ञान के प्रादुर्भाव के साथ लोलक घड़ियाँ तथा तत्पश्चात् नई घड़ियाँ, जिनका हम आज प्रयोग करते हैं, अविष्कृत हुई। जैसा पहले बता दिया गया है, समय का ज्ञान सूर्य की दृश्य स्थितियों से किया जाता है। सामान्यत: सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन तथा सूर्यास्त से पुन: सूर्योदय तक रात्रि होती हैं, किंतु तिथिगणना के लिए दिन-रात मिलकर दिन कहलाते हैं। किसी स्थान पर सूर्य द्वारा याम्योत्तर वृत्त के अधोबिंदु की एक परिक्रमा को एक दृश्य दिन कहते हैं, तथा सूर्य की किसी स्थिर नक्षत्र के सापेक्ष एक परिक्रमा को नाक्षत्र दिन कहते हैं। यह नक्षत्र रूढ़ि के अनुसार माप का आदि बिंदु (first point of Aries i. e. g), अर्थात् क्रांतिवृत्त तथा विषुवत् वृत्त का वसंत संपात बिंदु लिया जाता है। यद्यपि नाक्षत्र दिन स्थिर है, तथापि यह हमारे व्यवहार के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि यह दृश्य दिन से 3 मिनट 53 सेकंड कम है। दृश्य दिन का मान सदा एक सा नहीं रहता। अत: किसी घड़ी से दृश्य सूर्य के समय का बताया जाना कठिन है। इसके दो कारण हैं: एक तो सूर्य की स्पष्ट गति सदा एक सी नहीं रहती, दूसरे स्पष्ट सूर्य क्रांतिवृत्त में चलता दिखाई देता है। हमें समयसूचक यंत्र बनाने के लिए ऐसे सूर्य की आवश्यकता होती है, जो मध्यम गति से सदा विषुवत्वृत्त में चले। ऐसे सूर्य को ज्योतिषी लोग ज्योतिष-माध्य-सूर्य (mean Astronomical Sun) अथवा केवल माध्य सूर्य कहते हैं। विषुवत्वृत्त के मध्यम सूर्य तथा क्रांतिवृत्त के मध्यम सूर्य के अंतर को भास्कराचार्य ने उदयांतर तथा क्रांतिवृत्तीय मध्यम सूर्य तथा स्पष्ट सूर्य के अंतर को भुजांतर कहा है। यदि ज्योतिष-माध्य सूर्य में उदयांतर तथा भुजांतर संस्कार कर दें, तो वह दृश्य सूर्य हो जाएगा। आधुनिक शब्दावली में उदयांतर तथा भुजांतर के एक साथ संस्कार को समय समीकार (Equation of time) कहते हैं। यह हमारी घड़ियों के समय (माध्य-सूर्य-समय) तथा दृश्य सूर्य के समय के अंतर के तुल्य होता है। समय समीकार का प्रति दिन का मात्र गणित द्वारा निकाला जा सकता है। आजकल प्रकाशित होनेवाले नाविक पंचांग (nautical almanac) में, इसका प्रतिदिन का मान दिया रहता है। इस प्रकार हम अपनी घड़ियों से जब चाहें दृश्य सूर्य का समय ज्ञात कर सकते हैं। इसका ज्योतिष में बहुत उपयोग होता है। विलोमत: हम सूर्य के ऊध्र्व याम्योत्तर बिंदु के लंघन का वेध करके, उसमें समय समीकार को जोड़ या घटाकर, वास्तविक माध्य-सूर्य का समय ज्ञात करके अपनी घड़ियों के समय को ठीक कर सकते हैं। .

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आर्यभट

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। .

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