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चैतन्य महाप्रभु

सूची चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

68 संबंधों: चंडीदास, चंपू, चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत, चैतन्य महाप्रभु, चैतन्य मंगल, चैतन्य शतक, नायक नायिका भेद, नारायण भट्ट, नागरीदास, नित्यानंद प्रभु, नवद्वीप, परमानन्द सेन, बल्लभ रसिक, बंगाली साहित्य, ब्रजबुलि, भारत में धर्म, भारतीय संगीत का इतिहास, भारतीय व्यक्तित्व, भक्त, भक्त कवियों की सूची, भक्ति आन्दोलन, भक्तिरसशास्त्र (वैष्णव), भक्तिकाल के कवि, माधवदास 'माधुरी', माधवदास जगन्नाथी, मायापुर, मिश्र, मुरारि गुप्त, राधा रमण मंदिर, राधाचरण गोस्‍वामी, रामानन्द राय, रास, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, लोकनाथ गोस्वामी, शिषिर कुमार घोष, शिक्षाष्टक, श्री पाद केशव भारती, श्रीवास ठाकुर, षड्गोस्वामी, षण्गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप दामोदर, स्वामी निगमानन्द परमहंस, स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, हरिदास ठाकुर, हरे कृष्ण (मंत्र), ..., हिन्दू दर्शन, हिन्दू गुरु व सन्त, होली, जगन्नाथ मन्दिर, पुरी, जीव गोस्वामी, वृन्दावन, वृन्दावनदास ठाकुर, वेदान्त दर्शन, गदाधर भट्ट, गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय, गोपाल भट्ट गोस्वामी, गोविन्ददास आचार्य, गोविंददास, गोकुलानंद मंदिर, आदित्य चौधरी, कविराज कृष्णदास, अद्वैताचार्य महाराज, अमिय निमाइ चरित सूचकांक विस्तार (18 अधिक) »

चंडीदास

चंडीदास राधकृष्ण लीला संबंधी साहित्य का आदिकवि माने जाते हैं। इनका बंगाली वैष्णव समाज में बड़ा मान है। बहुत दिनों तक इनके बारे में कुछ विशेष ज्ञात नहीं था। चंडीदास को द्विज चंडीदास, दीन चंडीदास, बडु चंडीदास, अनंतबडु चंडीदास इन कई नामों से युक्त पद प्राप्त थे। इनकी पदावली को प्राय: कीर्तनियाँ लोग गाया करते थे। चन्डीदास इसके पर्दो का सर्वप्रथम आधुनिक संग्रह जगद्बंधु भद्र द्वारा "महाजन पदावली" नाम से किया गया। इस संग्रह ग्रंथ की द्वितीय संख्या में चंडीदास नामांकित दो सौ से अधिक पद संग्रहीत हैं। यह संग्रह सन् 1874 ई. में प्रकाशित हुआ था। सन् 1916 ई. तक चंडीदास के परिचय, समय इत्यादि के संबंध में कोई निश्चित मत न होते हुए भी इस बात की कोई समस्या नहीं थी कि चंडीदास नाम के एक ही व्यक्ति थे या अनेक। इसी समय वसंतरंजन राय ने स्वयं प्राप्त की हुई "श्रीकृष्णकीर्तन" नाम की। हस्तलिखित ग्रंथ की प्रति को संपादित कर प्रकाशित किया। यह ग्रंथ कृष्णलीला काव्य है। प्रचलित पदावली की भाषा और वर्ण्य विषय से "श्रीकृष्णकीर्तन" की भाषा एवं वर्ण्य विषय में अंतर होने के कारण इस बात की संभावना जान पड़ी कि चंडीदास नाम के एकाधिक व्यक्ति अवश्य थे। बहुत छानबीन के उपरांत प्राय: सभी विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दो चंडीदास अवश्य थे। चैतन्यदेव के पूर्ववर्ती एक चंडीदास थे, इस बात का निर्देश "चेतन्य-चरितामृत" एवं "चैतन्यमंगल" में मिलता है। चैतन्यचरितामृत में बताया गया है कि चैतन्य महाप्रभु चंडीदास एवं विद्यापति की रचनाएँ सुनकर प्रसन्न होते थे। जीव गोस्वामी ने भागवत की अपनी टीका "वैष्णव तोषिनी" में जयदेव के साथ चंडीदास का उल्लेख किया है। नरहरिदास और वैष्णवदास के पदों में भी इनका नामोल्लेख है। इन चंडीदास का जो कुछ परिचय प्राप्त है वह प्राय: जनश्रुतियों पर ही आधारित है। ये ब्राह्मण थे और वीरभूम जिले के नामूर ग्राम के निवासी थे। "तारा", "रामतारा" अथवा "रामी" नाम की धोबिन इनकी प्रेमिका थी, यह एक जनश्रुति है। दूसरी जनश्रुति के अनुसार ये बाँकुड़ा जिले के छातना ग्राम के निवासी थे। ये "वाशुली" देवी के भक्त थे। इनके नाम से प्रकाशित ग्रंथ "श्रीकृष्णकीर्तन" में प्रबंधात्मकता है। यह प्राचीन यात्रानाट्य और पांचाली काव्य का मिलाजुला रूप है। दीन चंडीदास नामक एक व्यक्ति चैतन्यदेव के परवर्ती थे, इस बात का भी पता चलता है। दीन चंडीदास के नाम से नरोत्तमदास का वंदना संबंधी एक पद प्राप्त है। इससे वे नरोत्तमदास के शिष्य ज्ञात होते हैं। दीन चंडीदास नांमाकित बहुत से पद प्राप्त हैं। इनका संपादित संग्रह श्री मणींद्रमोहन वसु ने प्रकाशित किया है। .

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चंपू

चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य तथा पद्य मिश्रित काव्य को "चंपू" कहते हैं। काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पूकाव्य परंपरा का प्रारम्भ हमें अथर्व वेद से प्राप्त होता है। चम्पू नाम के प्रकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू', जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सुरि द्वारा रचित यशःतिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई। हिन्दी में यशोधरा (मैथिलीशरण गुप्त) को चम्पू-काव्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। गद्य और पद्य के इस मिश्रण का उचित विभाजन यह प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाय। परन्तु चंपूरचयिताओं ने इस मनोवैज्ञानिक वैशिष्ट्य पर विशेष ध्यान न देकर दोनों के संमिश्रण में अपनी स्वतंत्र इच्छा तथा वैयक्तिक अभिरुचि को ही महत्व दिया है। .

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चैतन्य चरितामृत

चैतन्य महाप्रभु पर भी उनके चरित्र को प्रकाश में लाने वाले जीवनी के सूत्रों पर सधे ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखे गए। ऐसा एक महत्वपूर्ण ग्रंथ श्री चैतन्य चरितामृत है। यह कविराज श्री कृष्णदास के इसी नाम के प्रसिद्ध ग्रंथ का सुकल श्याम अथवा बेनीकृष्ण कृत "ब्रजभाषा" रुपांतर है। यह १७७५ के लगभग प्रणीत हुआ। .

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चैतन्य भागवत

श्री चैतन्य भागवत चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों पर लिखा एक ग्रन्थ है। चैतन्य भागवत में यह वर्णन है कि ईश्वरपुरी के निकट दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात श्री चैतन्य महाप्रभु गयासे नवद्वीप धाम जाते समय यहां प्रथम बार भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किये तथा उससे आलिंगनबद्ध हुए। इस कारण से इस स्थान का नाम कालंातर में कन्हैयास्थान पड़ा। उक्त कन्हाई नाटयशाला में राधाकृष्ण एवं चैतन्य महाप्रभु के पदचिह्न आज भी मौजूद है। श्रेणी:हिन्दू ग्रन्थ.

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चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

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चैतन्य मंगल

चैतन्य मंगल श्री चैतन्य महाप्रभु पर एवं उनकी शिक्षाओं पर लिखित एक महान ग्रन्थ है। श्रेणी:हिन्दू ग्रन्थ.

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चैतन्य शतक

पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने गौरांग की शत-श्लोकी स्तुति रची जिसे आज चैतन्य शतक नाम से जाना जाता है। .

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नायक नायिका भेद

संस्कृत साहित्य में भरत के नाट्य शास्त्र में अधिकांशत: नाटकीय पात्रों के वर्गीकरण प्रस्तुत हुए हैं और वात्स्यायन के कामसूत्र में एतद्विषयक भेद प्रभेद किए गए हैं जिनका संबंध प्राय: स्त्री-पुरुष के यौन व्यापारों से है। "अग्निपुराण" में प्रथम बार नायक-नायिका का विवेचन शृंगार रस के आलंबन विभावों के रूप में किया गया है। संस्कृत और हिंदी के परवर्ती लेखकों ने "अग्निपुराण" का स्थिति स्वीकार करते हुए श्रृंगाररस की सीमाओं में ही इस विषय का विस्तार किया है। इन सीमाओं का, जिनका अतिक्रमण केवल अपवाद के रूप में किया गया है, इस प्रकार समझा जा सकता है.

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नारायण भट्ट

नारायण भट्ट (वैशाख शु. 14, संवत् 1588 - मृत्यु १७वीं शती के अन्त में) संस्कृत के प्रकांड पंडित तथा प्रतिभाशाली थे। इन्होंने लगभग 60 रचनाएँ संस्कृत में प्रस्तुत कीं। ब्रजभक्तिविलास, ब्रजोत्सव चंद्रिका अनेक ग्रंथों में ब्रज के स्थानों, उत्सवों आदि का विस्तार से वर्णन है। लीला सम्बन्धी एक प्रेमांकुर नाटक भी लिखा है। इन्होंने ब्रज के लुप्त तीर्थों के उद्धार, ब्रजयात्रा के प्रचार तथा भावुक भक्तों के लिए रासमंडलियों की स्थापना में बहुत प्रयास किया। .

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नागरीदास

नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले कवि एवं कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। इनका नाम सांवतसिंह था। नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह कृष्णगढ़ में आज भी विराजमालन हैं। नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता का नाम राजसिंह था। सावंतसिंह ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजसिंह के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इनको कृष्णगढ़ की गद्दी पर बिठाना चाहा परन्तु इनके भाई बहादुरसिंह जोधपुर नरेश की सहायता से पहले ही राज्य पर अधिकार कर बैठे थे। सावंतसिंह ने मरहठों से संधि कर ली, और बहादुरसिंह को हराकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। किंतु गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, और यह मत इन्होंने बना लिया कि 'सबै कलह इक राज में, राज कहल को मूल।' राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। कृष्णभक्त तो थे ही, राज्य की ओर से विरक्ति हो जाने के फलस्वरूप इनके मन में ब्रजवास करने की इच्छा प्रबल हो उठी- राजकाज छोड़कर नागरीदास वृन्दावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है - सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया- .

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नित्यानंद प्रभु

नित्यानंद प्रभु (जन्म:१४७४) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। नित्यानन्द जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति (ब्राह्मण), मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां १४७४ के लगभग वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एकचक्र या चाका नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्णलीला तथा रामलीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्ययन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्यायचूड़ामणि' की पदवी मिली। यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये १२ वर्ष के ही थे माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्णकीर्तन करते हुए २० वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँचकर वहीं रहने लगे। जब श्रीगौरांग का नवद्वीप में प्रकाश हुआ, यह भी संवत् १५६५ में नवद्वीप चले आए। यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे। इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो जाती तथा 'जै निताई-गौर' कहती। नित्यानन्द के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडलु यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नवद्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्री गौरांग के अप्रकट होने के पश्चात् वसुधा देवी से एक पुत्र वीरचंद्र हुए जो बड़े प्रभावशाली हुए। संवत् १५९९ में नित्यानंद का तिरोधान हुआ औैर उनकी पत्नी जाह्नवी देवी तथा वीरचंद्र प्रभु ने बंगाल के वैष्णवों का नेतृत्व ग्रहण किया। .

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नवद्वीप

नवद्वीप (নবদ্বীপ) भारत के पश्चिमी बंगाल प्रदेश में नदिया जिले में भागीरथी और जलांगी नदियों के संगम पर कृष्णनगर से आठ मील पश्चिम में स्थित प्रसिद्ध नगर है। यह हिंदुओं का एक तीर्थस्थान है। १४८५ ई. में चैतन्य महाप्रभु का जन्म यहीं हुआ था। १२वीं शताब्दी में सेनवंश के राज्य की राजधानी थी। इस नगर को पहले 'नदिया' कहा जाता था। यहाँ वर्ष भर तीर्थयात्री आया करते हैं। .

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परमानन्द सेन

परमानंद सेन (कर्णपूर कवि) बंगला कवि तथा वैष्णव सन्त थे। इनका जन्म 1581 में नदिया के काँचनपाड़ा में हुआ। पिता का नाम शिवानंद। श्री गौरांग ने इनका नाम 'कर्णपूर' रखा। इनके गुरु का नाम श्रीनाथ था। इनके पुत्र श्रीचंद्र भी सुकवि थे। इन्होंने 18 वर्ष की अवस्था में "श्री चैतन्यचरित महाकाव्य" 20 सर्गो में प्रस्तुत किया। इसकी भाषा प्रांजल, प्रसादगुणपूर्व तथा अलंकृत है। अन्य रचनाएँ आर्याशतक, श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक (सं. 1629), श्री गौरगणीद्देशदीपिका (सं. 1633), अलंकारकौस्तुभ तथा टीका बृहत् गणोद्देशदीपिका या कृष्णलीलोपदेश दीपिका, आनंदवृंदावन चंपू (22 स्तवकों में कृष्णलीला वर्णित) वर्णप्रकाश कोष तथा चमत्कार चंद्रिका हैं। चंपू भक्ति तथा वात्सल्य रसों से भरा है और इनके पांडित्य तथा प्रसिद्धि की आधारशिला है। श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:भक्त कवि श्रेणी:भक्ति आन्दोलन.

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बल्लभ रसिक

बल्लभ रसिक गौड़ीय सम्प्रदाय के भक्त कवि हैं।http://hindisahityainfo.blogspot.in/2017/05/blog-post_14.htmlगदाधर भट्ट के वंशजों के अनुसार वल्लभ रसिक,गदाधर भट्ट के द्वितीय पुत्र थे। इनके बड़े भाई का नाम रसिकोत्तंस था। भट्ट जी अपने दोनों पुत्रों को स्वयं शिक्षा और दीक्षा दी। इस आधार पर वल्लभ रसिक का कविताकाल वि ० सं ० १६५० के आस पास स्वीकार किया जा सकता है। क्योंकि गदाधर भट्ट का समय वि ० सं ० १६०० से कुछ पूर्व का अनुमानित किया गया है। भट्ट जी के पुत्र होने के कारण ये भी दक्षिणात्य ब्राह्मण हैं। किन्तु इन सभी तथ्यों ~~ समय,वंश सम्प्रदाय आदि के विषय में वल्लभ रसिक ने स्वयं कुछ नहीं लिखा। अपनी वाणी में तो महाप्रभु चैतन्य अथवा षट्गोस्वामियों की उन्होंने वन्दना भी नहीं की। .

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बंगाली साहित्य

बँगला भाषा का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है - 1.

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ब्रजबुलि

ब्रजबुलि उस काव्यभाषा का नाम है जिसका उपयोग उत्तर भारत के पूर्वी प्रदेशों अर्थात् मिथिला, बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा के भक्त कवि प्रधान रूप से कृष्ण की लीलाओं के वर्णन के लिए करते रहे हैं। नेपाल में भी ब्रजबुलि में लिखे कुछ काव्य तथा नाटकग्रंथ मिले हैं। इस काव्यभाषा का उपयोग शताब्दियों तक होता रहा है। ईसवी सन् की 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक इस काव्यभाषा में लिखे पद मिलते हैं। यद्यपि "ब्रजबुलि साहित्य" की लंबी परंपरा रही हैं, फिर भी "ब्रजबुलि" शब्द का प्रयोग ईसवी सन् की 19वीं शताब्दी में मिलता है। इस शब्द का प्रयोग अभी तक केवल बंगाली कवि ईश्वरचंद्र गुप्त की रचना में ही मिला है। .

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भारत में धर्म

तवांग में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा. बैंगलोर में शिव की एक प्रतिमा. कर्नाटक में जैन ईश्वरदूत (या जिन) बाहुबली की एक प्रतिमा. 2 में स्थित, भारत, दिल्ली में एक लोकप्रिय पूजा के बहाई हॉउस. भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज, दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है। भारत के पूर्ण इतिहास के दौरान धर्म का यहां की संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है - हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिक्ख धर्म.

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भक्त

आराधना करने वाले को भक्त कहा जाता है। और भक्तों के समूह को भक्तों की संज्ञा दी जाती है। किसी धर्म स्थान पर सामूहिक रूप से इकट्ठा होना ही भक्तों की श्रेणी मे गिना जाता है।.

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भक्त कवियों की सूची

* आलवार सन्त.

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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भक्तिरसशास्त्र (वैष्णव)

महाप्रभु चैतन्य (१४८६-१५३३ ई.) की प्रेरणा से वृंदावन के षट्गोस्वामियों में अन्यतम रूपगोस्वामी (१४७०-१५५४ ई.) ने वैष्णव संप्रदाय के धर्मदर्शन की छाया में भक्तिरसशास्त्र का प्रवर्तन किया। "भक्तिरसामृत सिंधु" तथा "उज्ज्वलनीलमणि", जिसमें कामशास्त्र की परंपराओं का रिक्थ है, वैष्णव रसशास्त्र के मौलिक और उपजीव्य ग्रंथ हैं। .

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भक्तिकाल के कवि

भक्तिकाल में कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं - कबीरदास, संत शिरोमणि रविदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु। .

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माधवदास 'माधुरी'

माधवदास 'माधुरी' (लगभग संवत् १६५० - लगभग संवत १७१०) चैतन्य सम्प्रदाय के हिन्दी कवि थे। इनका नाम 'माधव दास' था और ये कपूर खत्री थे। कहीं अन्यत्र से आकर वृंदावन के पास माधुरीकुंड पर रहने लगे और अपना उपनाम 'माधुरी' रखा। वंशीवटमाधुरी, केलिमाधुरी, उत्कंठामाधुरी, वृंदावनमाधुरी, दानमाधुरी, मानमाधुरी, होरी माधुरी, प्रिया जी की बधाई आदि इनकी छोटी-छोटी रचनाएँ हैं, जिनका एक संग्रह 'माधुरी वाणी' नाम से प्रकाशित हो चुका है। दो रचनाओं में सं० १६८७ तथा सं० १६९९ रचनाकाल दिया है अत: इनका समय संवत् १६५०-१७१० तक निश्चित रूप से माना जा सकता है। यह चैतन्य संप्रदाय के थे, क्योंकि सभी रचनाओं में श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रूपसनातन की वंदना की है। श्रेणी:हिन्दी कवि.

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माधवदास जगन्नाथी

माधवदास जगन्नाथी पहले श्री माधवेंद्रपुरी के शिष्य थे पर श्री गौरांग का आविर्भाव होने पर यह उनके अनुगत हो गए। श्रीमाधवेंद्रपुरी सं० १५४८ में अप्रकट हुए अत: इनका जन्म सं० १५३० के लगभग हुआ होगा। यह पद बनाकर गायन करते हुए यात्रा करते रहते थे और जगन्नाथ पुरी अधिक जाते थे, जिससे यह 'जगन्नाथी' भी कहे जाने लगे। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। ये विरक्त भक्त संन्यासी तथा संस्कृत के विद्वान थे और ब्रजभाषा पदों के सिवा इन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ प्रस्तुत किए हैं पर वे सब प्राय: अप्राप्य है। ब्रजभाषा की कुछ छोटी छोटी रचनाएँ, जैसे ध्यान लीला, मदालसा आख्यान, परतीत परीच्छा आदि प्राप्त हैं। यह १६वीं शती के अंत तक विद्यमान थे। श्रेणी:भक्त कवि श्रेणी:ब्रजभाषा साहित्यकार श्रेणी:सम्स्क्र्त साहित्यकार.

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मायापुर

मायापुर (মায়াপুর) पश्चिम बंगाल के नदिया जिला में गंगा नदी के किनारे, उसके जलांगी नदी से संगम के बिंदु पर बसा हुआ एक छोटा सा शहर है। यह नवद्वीप के निकट है। यह कोलकाता से १३० कि॰मी॰ उत्तर में स्थित है। यह हिन्दू धर्म के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए अति पावन स्थल है। यहां उनके प्रवर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था। इन्हें श्री कृष्ण एवं श्री राधा का अवतार माना जाता है। यहां लाखों श्रद्धालु तीर्थयात्री प्रत्येक वर्ष दशनों हेतु आते हैं। यहां इस्कॉन समाज का बनवाया एक मंदिर भी है। इसे इस्कॉन मंदिर, मायापुर कहते हैं। मायापुर में जलांगी नदी को नाव द्वारा पार करते हुए लोग भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा १८८० में चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली पर निर्मित मंदिर श्रीला प्रभुपाद का समाधि मंदिर मायापुर अपने शानदार मन्दिरों के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। इन मन्दिरों में भगवान श्री कृष्णको समर्पित इस्कान मन्दिर प्रमुख है। मन्दिरों के अलावा पर्यटक यहां पर सारस्वत अद्वैत मठ और चैतन्य गौडिया मठ की यात्रा भी कर सकते हैं। होली के दिनों मे मायापुर की छटा देखने लायक होती है क्योंकि उस समय यहां पर भव्य रथयात्रा आयोजित की जाती है। यह रथयात्रा आपसी सौहार्द और भाईचारे का प्रतीक मानी जाती है। Jai shri krishna .

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मिश्र

मिश्र ब्राह्मणों में आस्पद या उपनाम है। सब गुणों और कर्मों में निपुण तथा सबमें मिले रहने के कारण इस उप नाम को अंगीकृत किया गया। .

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मुरारि गुप्त

मुरारि गुप्त चैतन्य महाप्रभु के प्रम भक्त थे। इनका जन्म श्रीहट्ट में वैद्य वंश में हुआ था और इनके परिवार वाले वहाँ से नवद्वीप आकर श्री गौरांग के पड़ोस में बस गये। यह श्री गोरांग के बाल्यबंधु तथा सहपाठी थे। इन्होंने संस्कृत काव्य ग्रंथ 'चैतन्यचरितामृत' में इस सबका वर्णन किया है। इस ग्रंथ के सिवा पदावली भी बनाई है तथा 'रामाष्टक' भी लिखा है। महाप्रभु के प्रति इनकी भक्ति अतुलनीय थी और श्री गौरांग भी इन पर अत्यंत स्नेह रखते थे। श्रेणी:भक्त कवि.

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राधा रमण मंदिर

राधा रमण मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का एक मंदिर है। इसकी स्थापना चैतन्य महाप्रभु के भेजे छः षण्गोस्वामियों में से एक ने की थी। श्रेणी:वृंदावन के मंदिर.

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राधाचरण गोस्‍वामी

राधाचरण गोस्‍वामी (२५ फरवरी १८५९ - १२ दिसम्बर १९२५) हिन्दी के भारतेन्दु मण्डल के साहित्यकार जिन्होने ब्रजभाषा-समर्थक कवि, निबन्धकार, नाटकरकार, पत्रकार, समाजसुधारक, देशप्रेमी आदि भूमिकाओं में भाषा, समाज और देश को अपना महत्वपूर्ण अवदान दिया। आपने अच्छे प्रहसन लिखे हैं। .

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रामानन्द राय

रामानंद राय उड़ीसा के राजा गजपति प्रतापरुद्रदेव के अधीनस्थ विद्यानगर के शासक थे। यह भक्त, सुकवि, विरक्त तथा कृष्ण तत्व के विशिष्ट ज्ञाता थे। इनके पिता का नाम भवानंद राय था तथा जन्म संभवत: कटक के पास सं.

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रास

रास एक धार्मिक परिकल्पना है जो गौडीय वैष्णव आदि कृष्णभक्ति परम्परा में विशेष रूप से देखने को मिलती है। इस शब्द का प्रयोग निम्बार्क और चैतन्य महाप्रभु से भी दो हजार वर्ष पूर्व देखने को मिल जाती है। चैतन्य परम्परा में तैत्तिरीय उपनिषद के 'रसो वै सः' (वस्तुतः भगवान 'रस' है) को प्रायः उद्धृत किया जाता है। .

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रघुनाथ दास गोस्वामी

श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। इन्होंने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव स्वरूप दामोदर के निजी सहायक रहे। उनके संग ही इन्होंने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये। गौरांग के देहत्याग उपरांत ये वृंदावन चले आए, व सनातन गोस्वामी व रूप गोस्वामी के साथ अत्यंत सादगी के साथ भग्वन्नाम का जाप करते रहे, व चैतन्य की शिक्षाओं का प्रचार किया। इनके दीक्षा गुरु थे यदुनंदन आचार्य। .

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रघुनाथ भट्ट गोस्वामी

श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। ये सदा हरे कृष्ण का अन्वरत जाप करते रहते थे और श्रीमद भागवत का पाठ नियम से करते थे। राधा कुण्ड के तट पर निवास करते हुए, प्रतिदिन भागवत का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाते थे और इतने भावविभोर हो जाते थे, कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भी भीग जाते थे। इन्होंने कभी किसी की आलोचना नहीं की। इनका मानना था, कि सभी वैष्णव अपनी ओर से श्री कृष्ण की सेवा में लगे हैं, अतएव हमें उनकी गलतियों को ना देखकर अपनी भूलों का सुधार करना चाहिए। इनकी प्रेरणा से एक धनी भक्त ने वृंदावन में राधा-गोविंद का मंदिर निर्माण करवाया था। .

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रूप गोस्वामी

श्री रूप गोस्वामी (१४९३ – १५६४), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। वे सनातन गोस्वामी के भाई थे। इनका जन्म १४९३ ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के ५१ वर्ष ये ब्रज में ही रहे। इन्होंने श्री सनातन गोस्वामी से दीक्षा ली थी। इन्हें शुद्ध भक्ति सेवा में महारत प्राप्त थी, अतएव इन्हें भक्ति-रसाचार्य कहा जाता है। ये गौरांग के अति प्रेमी थे। ये अपने अग्रज श्री सनातन गोस्वामी सहित नवाब हुसैन शाह के दरबार के उच्च पदों का त्याग कर गौरांग के भक्ति संकीर्तन में हो लिए थे। इन्हीं के द्वारा चैतन्य ने अपनी भक्ति-शिक्षा तथा सभी ग्रन्थों के आवश्यक सार का प्रचार-प्रसार किया। महाप्रभु के भक्तों में से इन दोनों भाइयों को उनके प्रधान कहा जाता था। सन १५६४ ई (तदा० १४८६ शक. की शुक्ल द्वादशी) को ७३ वर्ष की आयु में इन्होंने परम धाम को प्रस्थान किया। श्री रूप गोस्वामी समस्त गोस्वामियों के नायक थे। उन्होंने भक्तिकार्यकलापों का निर्देश करने के लिए हमे उपदेशामृत प्रदान किया जिससे भक्तगण उसका पाल कर सकें। जिस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पीछे शिक्षाष्टक नामक आठ श्लोक छोड़ गये थे उसी प्रकार श्री रूप गोस्वामी भी श्रीउपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम शुद्ध भक्त बन सकें समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है। मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है। उसे श्री रूपगोस्वामी के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये। तभी आगे की उन्नति सम्बधि प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा .

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लोकनाथ गोस्वामी

लोकनाथ गोस्वामी गैड़ीय वैष्णव सन्त थे। उनका जन्म यशोहर (जैसोर) के तालखडि ग्राम में सं.

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शिषिर कुमार घोष

शिषिर कुमार घोष (1840–1911) भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी पत्रकार, अमृत बाजार पत्रिका के संस्थापक तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे 'इण्डिया लीग' के संस्थापकों में से थे। वे एक वैष्णव थे। उन्होने चैतन्य महाप्रभु के जीवनचरित पर १८९७ में अंग्रेजी में एक पुस्तक की रचना भी की थी। वे श्रीला भक्तिविनोद ठाकुर के मित्र थे भी जिनको उन्होने 'सप्तम् गोस्वामी' कहा था। शिषिर घोष अपने जीवन के अधिकांश समय शान्तिनिकेतन में रहे जहाँ वे अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं के ज्ञाता और रहस्यवाद (mysticism) के अध्येता थे। .

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शिक्षाष्टक

चैतन्य महाप्रभु ने संस्कृत में आठ श्लोकों की रचना की जिन्हें शिक्षाष्टक कहा जाता है। इनमें से एक श्लोक में वे कहते हैं:- भगवान श्री कृष्ण के पावन नाम और गुणों का संकीर्तन सर्वोपरि है, उसकी तुलना में और कोई साधन नहीं ठहर सकता है।......

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श्री पाद केशव भारती

श्री पाद केशव भारती गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु के गुरु थे। इन्होंने गौरांग को २४ वर्ष की आयु में १५१० में दीक्षा दी। उनका नाम बदल कर कृष्ण चैतन्य कर दिया। केशवदास जी के कुछ पद इस प्रकार से हैं:- हम तो हर दम ही श्यामा श्यामै लखैं। केशव भारती बचन यह साँचे भखैं। हरि के नाम कि धुनि पै सूरति रखैं। क्या अनुपम अभी रस मन भर चखैं। नहिं परदा नेकहू दुइ का रखैं। ५। जे सतगुरु से मारग ये नाहीं सिखैं। ते कर्मन को अपने नाहक झखैं। ज्ञान पढ़ि सुनि कहैं औ तन मन मखैं। ८। .

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श्रीवास ठाकुर

श्रीवास ठाकुर, चैतन्य महाप्रभु के निकटतम सहयोगी तथा 'पंचतत्त्व' में से एक हैं। श्रीवास ठाकुर के माता-पिता श्रीहद से नवद्वीप में आ बसे थे। यहीं संवत् १५१० में इनका जन्म हुआ। ये आरंभ में निष्ठुर, नास्तिक तथा दंभी थे पर स्वप्न में प्रेरणा प्राप्त कर भक्त हो गए। श्री गौरांग ने इन्हें तथा इनके परिवार को प्रत्यक्ष अवतारी महाभावावेश का दर्शन दिया था और एक वर्ष इनके गृह पर रहकर भक्ति का प्रचार किया। श्री गौरांग के कृष्णलीलाभिनय में इन्होंने नारद जी की भूमिका ग्रहण की थी। श्री गौरांग के पुरी चले जाने पर यह श्रीहद चले गए और वहाँ भक्तिकीर्तन का प्रचार किया। १५९० में श्रीगौर के अंतर्धान होने पर यह भी अंतर्हित हो गए। श्रेणी:गौडीय सन्त.

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षड्गोस्वामी

षड्गोस्वामी (छः गोस्वामी) से आशय छः गोस्वामियों से है जो वैष्णव भक्त, कवि एवं धर्मप्रचारक थे। इनका कार्यकाल १५वीं तथा १६वीं शताब्दी था। वृन्दावन उनका कार्यकेन्द्र था। चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियों की अत्यंत अहम् भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु 1572 विक्रमी में वृंदावन पधारे। वे व्रज की यात्रा करके पुनः श्री जगन्नाथ धाम चले गये परंतु उन्होंने अपने अनुयाई षड् गोस्वामियों को भक्ति के प्रचारार्थ वृंदावन भेजा। ये गोस्वामी गण सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने युग के महान विद्वान, रचनाकार एवं परम भक्त थे। इन गोस्वामियों ने वृंदावन में सात प्रसिद्ध देवालयों का निर्माण कराया जिनमें ठाकुर मदनमोहनजी का मंदिर, गोविन्द देवजी का मंदिर, गोपीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं। ये छः गोस्वामी थे-.

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षण्गोस्वामी

वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः शिष्य थे। इन्हें ही षण्गोस्वामी कहा गया। ये इस प्रकार हैं। .

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सनातन गोस्वामी

सनातन गोस्वामी (सन् 1488 - 1558 ई), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे। .

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सार्वभौम भट्टाचार्य

पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने गौरांक की शत-श्लोकी स्तुति रची जिसे आज चैतन्य शतक नाम से जाना जाता है। सन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे, तब भगवान की मूर्ति देखाकर ये इतने भाव-विभोर हो गए, कि उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे, व मूर्छित हो गए। तब वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। घर पर शास्त्र-चर्चा आरंभ हुई, जिसमें सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया व उन्हें अपने षड्भुजरूप का दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। .

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स्वरूप दामोदर

स्वरूप दामोदर गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के सहाध्यायी और परम मित्र थे। इनके पिता पद्मगर्भाचार्य थे। इनका जन्म नवद्वीप में सं.

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स्वामी निगमानन्द परमहंस

स्वामी निगमानन्द परमहंस (18 अगस्त 1880 - 29 नवम्बर 1935) भारत के एक महान सन्यासी ब सदगुरु थे। उनके शिश्य लोगं उन्हें आदरपूर्वक श्री श्री ठाकुर बुलाते हैं। ऐसा माना जाता है की स्वामी निगमानंद ने तंत्र, ज्ञान, योग और प्रेम(भक्ति) जैशे चतुर्विध साधना में सिद्धि प्राप्त की थी, साथ साथ में कठिन समाधी जैसे निर्विकल्प समाधी का भी अनुभूति लाभ किया था। उनके इन साधना अनुभूति से बे पांच प्रसिध ग्रन्थ यथा ब्रह्मचर्य साधन, योगिगुरु, ज्ञानीगुरु, तांत्रिकगुरु और प्रेमिकगुरु बंगला भाषा में प्रणयन किये थे। उन्होंने असाम बंगीय सारस्वत मठ जोरहट जिला और नीलाचल सारस्वत संघ पूरी जिला में स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। उन्होने सारे साधना मात्र तिन साल में (1902-1905) समाप्त कर लिया था और परमहंस श्रीमद स्वामी निगमानंद सारस्वती देव के नाम से विख्यात हुए। .

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स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती

स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती (6 फ़रवरी 1874 – 1 जनवरी 1937) गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख गुरू एवं आध्यात्मिक प्रचारक थे। उन्हें 'भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर' भी कहते हैं। उनका मूल नाम विमल प्रसाद दत्त था। श्रीकृष्ण की भक्ति-उपासना के अनन्य प्रचारकों में स्वामी भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी का नाम अग्रणी है। उन्हीं से प्रेरणा और आशीर्वाद प्राप्त कर स्वामी भक्तिवेदान्त प्रभुपाद ने पूरे संसार में श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की शाखाएं स्थापित कर लाखों व्यक्तियों को हिन्दूधर्म तथा भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त बनाने में सफलता प्राप्त की थी। .

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हरिदास ठाकुर

हरिदास ठाकुर (जन्म 1451 या 1450) महान वैष्णव सन्त थे। उन्होने हरे कृष्ण आन्दोलन के आरम्भिक प्रसार में महती भूमिका अदा की। रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के अतिरिक्त वे चैतन्य महाप्रभु के वे प्रमुख शिष्य थे। .

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हरे कृष्ण (मंत्र)

हरे कृष्ण मंत्र कलि संतारण उपनिषद में वर्णित एक मंत्र है जिसे वैष्णव लोग 'महामन्त्र' कहते हैं। १५वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन के समय यह मंत्र प्रसिद्ध हुआ। यह मंत्र निम्नलिखित है- श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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हिन्दू दर्शन

हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। .

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हिन्दू गुरु व सन्त

* कबीर.

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जगन्नाथ मन्दिर, पुरी

पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे। .

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जीव गोस्वामी

जीव गोस्वामी की प्रतिमा श्री जीव गोस्वामी (१५१३-१५९८), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। उनकी गणना गौड़ीय सम्प्रदाय के सबसे महान दार्शनिकों एवं सन्तों में होती है। उन्होने भक्ति योग, वैष्णव वेदान्त आदि पर अनेकों ग्रंथों की रचना की। वे दो महान सन्तों रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी के भतीजे थे। इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई० (तद.१४५५ शक. भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को हुआ था। श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ, ये तीनों भाई नवाब हुसैन शाह के दरबार में उच्च पदासीन थे। इन तीनों में से एक के ही संतान थी, श्री जीव गोस्वामी। बादशाह की सेवाओं के बदले इन लोगों को अच्छा भुगतान होता था, जिसके कारण इनका जीवन अत्यंत सुखमय था। और इनके एकमात्र पुत्र के लिए किसी वस्तु की कमी न थी। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी, इनकी आंखें कमल के समान थीं, व इनके अंग-प्रत्यंग में चमक निकलती थी। श्री गौर सुदर्शन के रामकेली आने पर श्री जीव को उनके दर्शन हुए, जबकि तब जीव एक छोटे बालक ही थे। तब महाप्रभु ने इनके बारे में भविष्यवाणी की कि यह बालक भविष्य में गौड़ीय संप्रदाय का प्रचारक व गुरु बनेगा। बाद में इनके पिता व चाचाओं ने महाप्रभु के सेवार्थ इनको परिवार में छोड़कर प्रस्थान किया। इन्हें जब भी उनकी या गौरांग के चरणों की स्मृति होती थी, ये मूर्छित हो जाते थे। बाद में लोगों के सुझाव पर ये नवद्वीप में मायापुर पहुंचे व श्रीनिवास पंडित के यहां, नित्यानंद प्रभु से भेंट की। फिर वे दोनों शची माता से भी मिले। फिर नित्य जी के आदेशानुसार इन्होंने काशी को प्रस्थान किया। वहां श्री रूप गोस्वामी ने इन्हें श्रीमद्भाग्वत का पाठ कराया। और अन्ततः ये वृंदावन पहुंचे। वहां इन्होंने एक मंदिर भी बनवाया। १५४० शक शुक्ल तृतीया को ८५ वर्ष की आयु में इन्होंने देह त्यागी। .

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वृन्दावन

कृष्ण बलराम मन्दिर इस्कॉन वृन्दावन वृन्दावन मथुरा क्षेत्र में एक स्थान है जो भगवान कृष्ण की लीला से जुडा हुआ है। यह स्थान श्री कृष्ण भगवान के बाललीलाओं का स्थान माना जाता है। यह मथुरा से १५ किमी कि दूरी पर है। यहाँ पर श्री कृष्ण और राधा रानी के मन्दिर की विशाल संख्या है। यहाँ स्थित बांके विहारी जी का मंदिर सबसे प्राचीन है। इसके अतिरिक्त यहाँ श्री कृष्ण बलराम, इस्कान मन्दिर, पागलबाबा का मंदिर, रंगनाथ जी का मंदिर, प्रेम मंदिर, श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिर, अक्षय पात्र, निधि वन आदिदर्शनीय स्थान है। यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों की स्थिति का ज्ञान होता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे। विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है। विष्णुपुराण में अन्यत्र वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। .

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वृन्दावनदास ठाकुर

वृन्दावनदास ठाकुर (1507-1589 ई) बंगला भाषा में चैतन्य भागवत नामक ग्रंथ के रचयिता हैं। यह ग्रन्थ चैतन्य महाप्रभु का जीवनचरित है। यह बंगला भाषा का आदि काव्य ग्रंथ माना जाता है। इनके पिता कुमारहद निवासी बैकुंठनाथ ठाकुर थे। नवद्वीप में सं.

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वेदान्त दर्शन

वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .

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गदाधर भट्ट

गदाधर भट्ट गौड़ीय संप्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गिने जाते हैं।http://hindisahityainfo.blogspot.in/2017/05/blog-post_30.html .

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गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला चैतन्य महाप्रभु के द्वारा रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। कृष्णकृपामूर्ती श्री श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के पश्चिमी जगत के आज तक के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक माने जाते हैं। राधा रमण मन्दिर वृंदावन में श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। श्री गोपाल भट्ट जी शालिग्राम शिला की पूजा करते थे। एक बार उनकी यह अभिलाषा हूई की शालिग्राम जी के हस्त-पद होते तो मैं इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता। भक्त वत्सल श्री कृष्ण जी ने उनकी इस मनोकामना को पूर्ण किया एवं शालिग्राम से श्री राधारमण जी प्रकट हुए। श्री राधा रमण जी के वामांग में गोमती चक्र सेवित है। इनकी पीठ पर शालिग्राम जी विद्यमान हैं। .

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गोपाल भट्ट गोस्वामी

गोपाल भट्ट गोस्वामी (1503–1578) चैतन्य महाप्रभु सबसे प्रमुख शिष्यों में से एक थे। वे वृन्दावन के प्रसिद्ध छः गोस्वामियों में से एक थे। .

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गोविन्ददास आचार्य

गोविन्ददास आचार्य बांग्ला के प्रसिद्ध कवि थे। वे श्री चैतन्य के शिष्य और समसामयिक थे तथा सन् 1533 ई. के लगभग उपस्थित थे। "वैष्णव" "वंदना" एवं "गैर-गणोद्देश-दीपिका" दोनों ग्रंथों में इनका उल्लेख है। "वैष्णव वंदना" के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इन्होंने राधा-कृष्ण-लीला संबंधी रचनाएँ "विचित्र घामाली" की थीं। श्रेणी:बांग्ला कवि.

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गोविंददास

चैतन्य महाप्रभु के परवर्ती कवियों में गोविन्ददास कविराज सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इन्होने केवल "ब्रजबुलि" में पर रचना की है। समस्त पद राधा-कृष्ण-लीला संबंधी है। इन पदों में समस्त काव्यगुण बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। छंद में अत्यंत सुंदर गति शब्दों के चयन द्वारा प्रस्तुत की गई है। अनुप्रासों की छटा भी अनुपम है। तत्सम एवं अर्धतत्सम शब्दों के प्रयोग से काव्य अत्यंत सुन्दर हो उठा है। प्रकृतिचित्रण, नख-शिख-वर्णन अत्यंत मनोमुग्धकारी है। कहा जाता है, कवि ने अपने पदों का संग्रह गीतामृत नाम से स्वयं किया था। इनका जन्म 1530 ई. और मृत्यु 1613 ई. लगभग हुई। गोविंददास का उल्लेख प्रमुख वैष्णव जीवनीग्रंथ जैसे भक्तमाल, भक्तिरत्नाकर और प्रेमविलास में विस्तृत रूप से है। इन सबके अनुसार गोविंददास का जन्म श्रीखंड में हुआ था। इनका ग्राम "तेलियाबुधरी" था। इनके पिता का नाम चिरंजीव सेन एवं माता का नाम सुनंदा था। इनके नाना ने, जिनका नाम दामोदर सेन था अनाथ हो जाने पर इनको और इनके भाई रामचंद्र को पाला था। गोविंददास पहले शाक्त थे फिर वैष्णव हो गए। श्रीनिवास आचार्य इनके गुरु थे। इनके प्राप्त पदों की संख्या 450 से ऊपर है। .

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गोकुलानंद मंदिर

गोकुलानंद मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का एक मंदिर है। इसकी स्थापना चैतन्य महाप्रभु के भेजे छः षण्गोस्वामियों में से एक ने की थी। श्रेणी:वृंदावन के मंदिर.

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आदित्य चौधरी

आदित्य चौधरी (अंग्रेज़ी: Aditya Chaudhary, जन्म: 9 दिसम्बर, 1961) '' और '' के संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक हैं। उन्होंने वर्ष 2006 से भारतकोश का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। वर्ष 2008 में ब्रज क्षेत्र का समग्र ज्ञानकोश (इंसाइक्लोपीडिया) 'ब्रजडिस्कवरी' का ऑनलाइन प्रकाशन किया तथा वर्ष 2010 में भारत का समग्र ज्ञानकोश (एंसाइक्लोपीडिया) 'भारतकोश' की ऑनलाइन वेबसाइट शुरू की। .

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कविराज कृष्णदास

कविराज कृष्णदास बंगाल के वैष्णव कवि। बंगाल में उनका वही स्थान है जो उत्तर भारत में तुलसीदास का। इनका जन्म बर्दवान जिले के झामटपुर ग्राम में कायस्थ कुल में हुआ था। इनका समय कुछ लोग 1496 से 1598 ई. और कुछ लोग 1517 से 1615 ई. मानते हैं। इन्हें बचपन में ही वैराग्य हो गया। कहते हैं कि नित्यानन्द ने उन्हें स्वप्न में वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तदनुसार इन्होंने वृन्दावन में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें गोविन्दलीलामृत अधिक प्रसिद्ध है। इसमें राधा-कृष्ण की वृंदावन की लीला का वर्णन है। किंतु इनका महत्व पूर्ण ग्रंथ चैतन्यचरितामृत है। इसमें महाप्रभु चैतन्य की लीला का गान किया है। इसमें उनकी विस्तृत जीवनी, उनके भक्तों एवं भक्तों के शिष्यों के उल्लेख के साथ-साथ गौड़ीय वैष्णवों की दार्शनिक एवं भक्ति संबंधी विचारधारा का निदर्शन है। इस महाकाव्य का बंगाल में अत्यंत आदर है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। श्रेणी:बांग्ला साहित्यकार श्रेणी:भक्त कवी.

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अद्वैताचार्य महाराज

अद्वैताचार्य महाराज चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हीं के साथ नित्यानंद प्रभु भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। महाराज, अद्वैताचार्य श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अमिय निमाइ चरित

अमिय निमाइ श्री चैतन्य महाप्रभु पर एवं उनकी शिक्षाओं पर लिखित एक महान ग्रन्थ है। श्रेणी:हिन्दू ग्रन्थ श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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महाप्रभु चैतन्य, चैतन्‍य महाप्रभु, गौरांग

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