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गुरु नानक

सूची गुरु नानक

नानक (पंजाबी:ਨਾਨਕ) (15 अप्रैल 1469 – 22 सितंबर 1539) सिखों के प्रथम (आदि गुरु) हैं। इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। लद्दाख व तिब्बत में इन्हें नानक लामा भी कहा जाता है। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु - सभी के गुण समेटे हुए थे। .

68 संबंधों: तखत श्री पटना साहिब, दादूदयाल, ननकाना साहिब, नानकशाही जंतरी, निजामाबाद, उत्तर प्रदेश, पटना के पर्यटन स्थल, पराप्राकृतिक संवाद, पंजाब (भारत), पंजाब का इतिहास, पंजाबी लेखकों की सूची, पंजाबी साहित्य, पीपाजी, फ़रीदुद्दीन गंजशकर, बन्दा सिंह बहादुर, बुरहानपुर, भारत में धर्म, भारतीय व्यक्तित्व, भाई संतोख सिंह, भक्ति आन्दोलन, भक्ति काल, मणिकर्ण, मसूरी, महाराजा रणजीत सिंह, माता सुलखनी, रहरास साहिब, राष्ट्रीय सिख संगत, लखपत, लंगर (सिख धर्म), श्री चन्द्रमुनि, सत्गुरु, सनातन सिख, सन्त कंवर राम, सिख, सिख धर्म, सिख धर्म और इस्लाम, सिख धर्म का इतिहास, सिख धर्म की आलोचना, सिखों के दस गुरू, संत मत, हिन्दू धर्म और सिख धर्म, हिन्दू धर्म की आलोचना, हिन्दू गुरु व सन्त, हिंदी साहित्य, जनमसाखी, जपजी साहिब, जिब्राल्टर हिन्दू मंदिर, वार (पंजाबी काव्य), गगन मै थाल, गुरबानी, गुरु तेग़ बहादुर, ..., गुरु नानक, गुरु पर्व, गुरु ग्रन्थ साहिब, गुरु अंगद देव, ओउ्म्, इन दिनों, कबीर, कबीर पंथ, कश्मीरी गेट, दिल्ली, कार्तिक पूर्णिमा, काली बेईं नदी, कूका, अरदास, अष्टांगयोग, अकाली, अकोई साहिब, उदासी सम्प्रदाय, २२ सितम्बर सूचकांक विस्तार (18 अधिक) »

तखत श्री पटना साहिब

तखत श्री पटना साहिब या श्री हरमंदिर जी, पटना साहिब (ਤਖ਼ਤ ਸ੍ਰੀ ਪਟਨਾ ਸਾਹਿਬ.) पटना शहर में स्थित सिख आस्था से जुड़ा यह एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल है। यहाँ सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह का जन्म स्थल है। गुरु गोविन्द सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1666 शनिवार को 1.20 पर माता गुजरी के गर्भ से हुआ था। उनका बचपन का नाम गोविन्द राय था। यहाँ महाराजा रंजीत सिंह द्वारा बनवाया गया गुरुद्वारा है जो स्थापत्य कला का सुन्दर नमूना है। .

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दादूदयाल

दादूदयाल (1544-1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से 'दादू पंथ' चल पडा। ये अत्यधिक दयालु थे। इस कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। .

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ननकाना साहिब

ननकाना साहिब गुरुद्वारा ननकाना साहिब, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित एक शहर है। इसका वर्तमान नाम सिखों के पहले गुरू गुरू नानक देव जी के नाम पर पड़ा है। इसका पुराना नाम 'राय-भोई-दी-तलवंडी' था। यह लाहौर से ८० किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। इसकी जनसंख्या ६०,००० है। चूंकि यह स्थान गुरू नानक देव का जन्मस्थान है, यह सिखों का पवित्र ऐतिहासिक स्थान (तीर्थ) है। यह विश्व भर के सिखों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहाँ का गुरुद्वारा साहिब बहुत प्रसिद्ध है। महाराजा रणजीत सिंह ने गुरु नानकदेव के जन्म स्थान पर गुरुद्वारा का निर्माण कराया था। .

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नानकशाही जंतरी

नानकशाही जंतरी या नानकशाही पंचांग एक सौर पंचांग है जिसे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने सिख धर्म से सम्बन्धित घटनाओं (तयौहारों) की तिथियाँ दर्शाने के लिये स्वीकार किया था। इसका उपयोग १९९८ से हो रहा है। इसके पहले सिखों के पर्वों के लिये शक पंचांग ही उपयोग किया जाता था। इसे पाल सिंह पुरेवाल ने डिजाइन किया था। इसका आरम्भ गुरु नानक देव के जन्मदिन से किया गया था। इस जंतरी के अनुसार नव वर्ष का प्रथम दिन १४ मार्च को पड़ता है। श्रेणी:सिख धर्म.

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निजामाबाद, उत्तर प्रदेश

निजामाबाद, उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश के मऊ जिला के मुख्यालय, मऊ के निकट स्थित है। अजामगढ़-निजामाबाद मार्ग पर स्थित यह जगह जिला मुख्यालय से लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर है। माना जाता है कि यहां पर एक शेख, सूफी संत निजाम-उद-दीन का मकबरा स्थित है। इसके अतिरिक्त, यहां स्थित गुरूद्वारा भी काफी प्रसिद्ध है। माना जाता है कि एक बार गुरू नानक देव इस जगह पर घूमने के लिए आए थे। गुरूद्वारे में गुरू नानक देव जी के ऊन के स्लीपर और कतार मौजूद है। इसके अलावा, यह प्रसिद्ध कवि अयोध्या सिंह हरिऔध की जन्मभूमि है। श्रेणी:मऊ जिले के शहर.

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पटना के पर्यटन स्थल

वर्तमान बिहार राज्य की राजधानी पटना को ३००० वर्ष से लेकर अबतक भारत का गौरवशाली शहर होने का दर्जा प्राप्त है। यह प्राचीन नगर पवित्र गंगानदी के किनारे सोन और गंडक के संगम पर लंबी पट्टी के रूप में बसा हुआ है। इस शहर को ऐतिहासिक इमारतों के लिए भी जाना जाता है। पटना का इतिहास पाटलीपुत्र के नाम से छठी सदी ईसापूर्व में शुरू होता है। तीसरी सदी ईसापूर्व में पटना शक्तिशाली मगध राज्य की राजधानी बना। अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त द्वितीय, समुद्रगुप्त यहाँ के महान शासक हुए। सम्राट अशोक के शासनकाल को भारत के इतिहास में अद्वितीय स्‍थान प्राप्‍त है। पटना एक ओर जहाँ शक्तिशाली राजवंशों के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर ज्ञान और अध्‍यात्‍म के कारण भी यह काफी लोकप्रिय रहा है। यह शहर कई प्रबुद्ध यात्रियों जैसे मेगास्थनिज, फाह्यान, ह्वेनसांग के आगमन का भी साक्षी है। महानतम कूटनीतिज्ञ कौटिल्‍यने अर्थशास्‍त्र तथा विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की यहीं पर रचना की थी। वाणिज्यिक रूप से भी यह मौर्य-गुप्तकाल, मुगलों तथा अंग्रेजों के समय बिहार का एक प्रमुख शहर रहा है। बंगाल विभाजन के बाद 1912 में पटना संयुक्त बिहार-उड़ीसा तथा आजादी मिलने के बाद बिहार राज्‍य की राजधानी बना। शहर का बसाव को ऐतिहासिक क्रम के अनुसार तीन खंडों में बाँटा जा सकता है- मध्य-पूर्व भाग में कुम्रहार के आसपास मौर्य-गुप्त सम्राटाँ का महल, पूर्वी भाग में पटना सिटी के आसपास शेरशाह तथा मुगलों के काल का नगरक्षेत्र तथा बाँकीपुर और उसके पश्चिम में ब्रतानी हुकूमत के दौरान बसायी गयी नई राजधानी। पटना का भारतीय पर्यटन मानचित्र पर प्रमुख स्‍थान है। महात्‍मा गाँधी सेतु पटना को उत्तर बिहार तथा नेपाल के अन्‍य पर्यटन स्‍थल को सड़क माध्‍यम से जोड़ता है। पटना से चूँकि वैशाली, राजगीर, नालंदा, बोधगया, पावापुरी और वाराणसी के लिए मार्ग जाता है, इसलिए यह शहर हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए पर्यटन गेटवे' के रूप में भी जाना जाता है। ईसाई धर्मावलंबियों के लिए भी पटना अतिमहत्वपूर्ण है। पटना सिटी में हरमंदिर, पादरी की हवेली, शेरशाह की मस्जिद, जलान म्यूजियम, अगमकुँआ, पटनदेवी; मध्यभाग में कुम्‍हरार परिसर, पत्थर की मस्जिद, गोलघर, पटना संग्रहालय तथा पश्चिमी भाग में जैविक उद्यान, सदाकत आश्रम आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्‍थल हैं। मुख्य पर्यटन स्थलों इस प्रकार हैं: .

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पराप्राकृतिक संवाद

पराप्राकृतिक संवाद व्यक्ति का स्वयं, या किसी माध्यम द्वारा, चेतना की विशेष अवस्था में पराप्राकृतिक तत्वों, जैसे देवी-देवता, से मानसिक संपर्क में होने वाला अनुभव है, और इसका परिणाम ज्ञान प्राप्ति, समस्या समाधान या कोई विशेष अनुभूति देखा गया है। यह इलहाम या श्रुति का आधार है, और दुनिया के अनेक धर्मों में देखे गए हैं। इस अतार्किक (प्रतिभा या प्रज्ञामूलक) आयाम (देखें भारतीय दर्शन) को हिंदुओं में ज्ञान, इसाईयों में नौसिस, बौद्धों में प्रज्ञा, तथा इस्लाम में मारिफ नाम से जानते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पराप्राकृतिक तत्वों से संवाद की परम्परा लम्बे समय से रही है। मान्यता है कि यह संवाद, चेतना की विशेष अवस्थाओं, में संभव हैं, और चेतना की इन ऊँचाइयों में जाने की लालसा का प्रमाण तपस्या की अनेकों पद्धतियाँ हैं। पराप्राकृतिक संवाद का लोकहित में प्रसार करना देवकार्य माना गया। मनोवैज्ञानिक पिंकर सहज या अतार्किक मानसिक अनुभव को कोरा रूढ़ीवाद समझते हैं। पर ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जिनके लिए यह मानसिक अनुभव चुनौती हैं। मन में ऐसे बदलाव का आधार संज्ञान की दो प्रणालियों, तार्किक और अतार्किक, में देखा जा सकता है। .

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पंजाब (भारत)

पंजाब (पंजाबी: ਪੰਜਾਬ) उत्तर-पश्चिम भारत का एक राज्य है जो वृहद्तर पंजाब क्षेत्र का एक भाग है। इसका दूसरा भाग पाकिस्तान में है। पंजाब क्षेत्र के अन्य भाग (भारत के) हरियाणा और हिमाचल प्रदेश राज्यों में हैं। इसके पश्चिम में पाकिस्तानी पंजाब, उत्तर में जम्मू और कश्मीर, उत्तर-पूर्व में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में हरियाणा, दक्षिण-पूर्व में केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ और दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान राज्य हैं। राज्य की कुल जनसंख्या २,४२,८९,२९६ है एंव कुल क्षेत्रफल ५०,३६२ वर्ग किलोमीटर है। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ पंजाब की राजधानी है जोकि हरियाणा राज्य की भी राजधानी है। पंजाब के प्रमुख नगरों में अमृतसर, लुधियाना, जालंधर, पटियाला और बठिंडा हैं। 1947 भारत का विभाजन के बाद बर्तानवी भारत के पंजाब सूबे को भारत और पाकिस्तान दरमियान विभाजन दिया गया था। 1966 में भारतीय पंजाब का विभाजन फिर से हो गया और नतीजे के तौर पर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश वजूद में आए और पंजाब का मौजूदा राज बना। यह भारत का अकेला सूबा है जहाँ सिख बहुमत में हैं। युनानी लोग पंजाब को पैंटापोटाम्या नाम के साथ जानते थे जो कि पाँच इकठ्ठा होते दरियाओं का अंदरूनी डेल्टा है। पारसियों के पवित्र ग्रंथ अवैस्टा में पंजाब क्षेत्र को पुरातन हपता हेंदू या सप्त-सिंधु (सात दरियाओं की धरती) के साथ जोड़ा जाता है। बर्तानवी लोग इस को "हमारा प्रशिया" कह कर बुलाते थे। ऐतिहासिक तौर पर पंजाब युनानियों, मध्य एशियाईओं, अफ़ग़ानियों और ईरानियों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का प्रवेश-द्वार रहा है। कृषि पंजाब का सब से बड़ा उद्योग है; यह भारत का सब से बड़ा गेहूँ उत्पादक है। यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं: वैज्ञानिक साज़ों सामान, कृषि, खेल और बिजली सम्बन्धित माल, सिलाई मशीनें, मशीन यंत्रों, स्टार्च, साइकिलों, खादों आदि का निर्माण, वित्तीय रोज़गार, सैर-सपाटा और देवदार के तेल और खंड का उत्पादन। पंजाब में भारत में से सब से अधिक इस्पात के लुढ़का हुआ मीलों के कारख़ाने हैं जो कि फ़तहगढ़ साहब की इस्पात नगरी मंडी गोबिन्दगढ़ में हैं। .

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पंजाब का इतिहास

पंजाब शब्द का सबसे पहला उल्लेख इब्न-बतूता के लेखन में मिलता है, जिसनें 14वीं शताब्दी में इस क्षेत्र की यात्रा की थी। इस शब्द का 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में व्यापक उपयोग होने लगा, और इस शब्द का प्रयोग तारिख-ए-शेरशाही सूरी (1580) नामक किताब में किया गया था, जिसमें "पंजाब के शेरखान" द्वारा एक किले के निर्माण का उल्लेख किया गया था। 'पंजाब' के संस्कृत समकक्षों का पहला उल्लेख, ऋग्वेद में "सप्त सिंधु" के रूप में होता है। यह नाम फिर से आईन-ए-अकबरी (भाग 1) में लिखा गया है, जिसे अबुल फजल ने लिखा था, उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि पंजाब का क्षेत्र दो प्रांतों में विभाजित है, लाहौर और मुल्तान। इसी तरह आईन-ए-अकबरी के दूसरे खंड में, एक अध्याय का शीर्षक इसमें 'पंजाद' शब्द भी शामिल है। मुगल राजा जहांगीर ने तुज-ए-जान्हगेरी में भी पंजाब शब्द का उल्लेख किया है। पंजाब, जो फारसी भाषा की उत्पत्ति है और भारत में तुर्की आक्रमणकारियों द्वारा प्रयोग किया जाता था। पंजाब का शाब्दिक अर्थ है "पांच" (पंज) "पानी" (अब), अर्थात पांच नदियों की भूमि, जो इस क्षेत्र में बहने वाली पाँच नदियां का संदर्भ देते हैं। अपनी उपज भूमि के कारण इसे ब्रिटिश भारत का भंडारगृह बनाया गया था। वर्तमान में, तीन नदियाँ पंजाब (पाकिस्तान) में बहती हैं, जबकि शेष दो नदियाँ हिमाचल प्रदेश और पंजाब (भारत) से निकलती है, और अंततः पाकिस्तान में चली जाता है। .

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पंजाबी लेखकों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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पंजाबी साहित्य

पंजाबी साहित्य का आरंभ कब से होता है, इस विषय में विद्वानों का मतैक्य नहीं है। फरीद को पंजाबी का आदि कवि कहा जाता है; किंतु यदि इस बात को स्वीकार किया जाय कि जिन फरीद की बाणी "आदि ग्रंथ" में संगृहीत है वे फरीद सानी ही थे तो कहना पड़ेगा कि 16वीं शती से पहले का पंजाबी साहित्य उपलब्ध नहीं है। इस दृष्टि से गुरु नानक को ही पंजाबी का आदि कवि मानना होगा। "आदि ग्रंथ" पंजाबी का आदि ग्रंथ है। इसमें सात गुरुओं और 16 भक्तों की वाणियाँ संगृहीत हैं। पदों की कुल संख्या 3384 है। गुरु नानक की रचनाओं में सर्वप्रसिद्ध "जपुजी" है; इसके अतिरिक्त "आसा दी वार," "सोहिला" और "रहिरास" तथा लगभग 500 फुटकर पद और है। भाव और अभिव्यक्ति एवं कला और संगीत की दृष्टि से यह बाणी अत्यंत सुंदर और प्रभावपूर्ण है। भक्ति में "सिमरन" और जीवन में "सेवा" नानक की वाणी के दो प्रमुख स्वर हैं। परवर्ती सिक्ख गुरुओं ने गुरु नानक के भावों की प्राय: अनुकृति और व्याख्या की है। गुरु रामदास (1534-1581 ई.) की कविता में काव्यगुण अधिक है। गुरु अर्जुनदेव (1561-1606 ई.) की वाणी में ज्ञान और विचार की प्रधानता है। "आदि" ग्रंथ में सबसे अधिक पद (1000 से कुछ ऊपर) इन्हीं के हैं। यह बात विशेषत: उल्लेखनीय है कि पूरे ग्रंथ में कुल मिलाकर 350-400 पद पंजाबी के होंगे। गुरु गोविंदसिंह के "दशम ग्रंथ" में भी "चंडी दी वार" एकमात्र पंजाबी की कृति है, जो सिरखंडी छंद में रचना है। इसमें दुर्गा देवी और दैत्यों के युद्ध का वर्णन है। सिक्ख गुरुओं के अतिरिक्त भाई गुरुदास (1558-1637 ई.) की वाणी को गुरुमत साहित्य के अंतर्गत मान्यता दी जाती है। उनके कवित्त और सवैए ब्रजभाषा में हैं, वारें और गीत शुद्ध साहित्यिक पंजाबी में हैं। सूफी कवियों में फरीद के बाद लुत्फ अली का नाम आता है। इनकी रचना "सैफलमलूक" संवेदना, वैराग्य भावना और सरसता के लिए बहुत प्रसिद्ध है। परवर्ती सूफियों पर इसका बहुत अधिक प्रभाव रहा है। प्रेम, विरह और वैराग्य से भरे शाह हुसेन लाहौरी (1538-1599 ई.) के गीत बड़े प्रभावोत्पादक और कवित्वपूर्ण हैं। इनकी काफियों में निरपेक्ष प्रेम का स्वर है। इस्लाम की शरअ से विद्रोह करनेवाला दूसरा कवि सुल्तान बाहू (1629-1690 ई.) हुआ है। इसने अपनी "सीहर्फियों" में अहंकार के त्याग, गुरु की कृपा और सहायता, अंतर्निरीक्षण और आत्मचिंतन पर बल दिया है और उस दुनिया में रहने की आकांक्षा प्रकट की है जहाँ "मैं" और "मेरे" का बखेड़ा नहीं है। शाह शरफ की काफियों में रूपकों द्वारा इश्क हकीकी के रहस्य समझाए गए हैं। पंजाबी सूफी साहित्य के प्रसिद्धतम कवि बुल्लेशाह कसूरी प्रेम, साधना और मिलन के साधक हैं। उनकी कविता की सबे बड़ी विशेषता है भाषा का ओज और प्रभाव। अली हैदर (1690-1785 ई.) की सीहफिंयाँ और काफियाँ कुछ दुरूह और दार्शनिक होने के कारण सर्वप्रिय नहीं हैं। परवर्ती सूफियों में वजीद, फरीद (1720-90 ई.), गुलाम जीलानी (1749-1819), हाशिम (1753-1823), बहादुर (1750-1850 ई.) आदि प्रसिद्ध हैं। पंजाबी सूफी साहत्य प्राय: गेय मुक्तक काव्य है। इस युग का लौकिक साहित्य विशेषतया वारों और शृंगाररसप्रधान किस्सों के रूप में उपलब्ध है। हीर राँझा का किस्सा सबसे अधिक पुरातन और प्रसिद्ध है। सबसे श्रेष्ठ रचना बारिस शाह (1738-1798 ई.) की "हीर" है। वारिस शाह बड़े अनुभवी, प्रतिभाशाली और बहुज्ञ कवि थे। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। "मिरजा साहिबाँ" की प्रेमकथा को भी कई कवियों ने काव्यबद्ध किया, पर सबसे पुरातन और उत्तम किस्सा जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्यकाल में पीलू ने लिखा। पीलू के बाद हाफिज बरखुरदार ने भी मिरजासाहिबाँ का किस्सा लिखा। उसने "यूसूफ-जुलेखा" और "सस्सी पुन्नू" की प्रेमकथाएँ भी लिखीं। सस्सी और पुन्नू बिलोचिस्तन के एवं जुलेखा और यूसुफ मिस्र के थे। हाशिम (1753-1823 ई.) की "सस्सी" इस नाम के किस्सों में सबसे अधिक लोकप्रिय है। इसके अतिरिक्त उनकी "सोहनी महीवाल," "शीरीं फरहाद" और "लैला मजनूँ" प्रबंध कृतियाँ हैं। पिछले दो किस्से फारसी से लिए गए हैं और "सोहनी महीवाल" गुजरात (पंजाब) की लोकवार्ता से। भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए हाशिम अद्वितीय है। अहमदयार (1768-1845) ने 40 किस्से लिखे, जिनमें "हीर राँझा," "सस्सी पुन्नू," "कामरूप", "राजबीबी," "चंदरबदन" उच्च कोटि के हैं। इनके काव्य की विशेषता है वैचित्र्यपूर्ण घटनाओं का तारतम्य, संयत वर्णन एवं आलंकारिक भाषा शैली: किंतु विषय की मैलिकता कम है। अमामबख्श की कृतियों में "बहराम गोर" उत्तम काव्य के अंतर्गत गिना जाता है। इसी समय का एक और कवि कादरयार हुआ है। उसकी प्रसिद्धि "पूरनभगत" और "राजा रसालू" के किस्सों के कारण है। पूरन और रसालू दोनों स्यालकोट के राजा शालिवाहन के पुत्र थे। पंजाबी का वीर साहित्य बहुत समृद्ध है। इसके अंतर्गत गुरु गोविंदसिंह की "चंडी दी वार" शिरोमणि रचना है। नजाबत की "नादरशाह दी हीर" और शाह मुहम्मद (1782-1862 ई.) की अपने आश्रयदाता महाराजा रणजीतसिंह की कथा भी उल्लेखनीय है। मुकबल (1696 ई.) का "जगनामा", जिसमें हसन हुसैन और यजीद के युद्धों का मार्मिक वर्णन है, शिया मुसलमानों में बड़े चाव से पढ़ा जाता है। प्रारंभिक काल का पंजाबी गद्य साहित्य महापुरुषों की जन्मसाखियों, गोष्ठों और टीकाओं के रूप में प्राप्त होता है। भाई बालाकृत गुरु नानक की जन्मसाखी (1535 ई.) सबसे प्राचीन है। बाद में सेवासिंह (1588 ई.) और मनीसिंह (1737 ई.) ने भी गुरुनानक का जीवनचरित लिखा। भाई मनीसिंह की "ग्यान रतनावली" पंजाबी गद्य की उत्तम कृति है। उन्हीं की एक दूसरी गद्यरचना "भगत रतनावली" है जिसमें पहले पाँच गुरुओं के समकालीन कुछ प्रेमी भक्तों की कथाएँ है। इनके अतिरिक्त "पारसभाग," "भरथरी", "मैनावत," हजरत मुहम्मद साहब, कबीर और रविदास की जीवनियाँ, "सतयुग कथा," "पकी रोटी," "गीतासार", "लवकुश संवाद," "जपु परमार्थ" "सिंहासनबत्तीसी" और "विवेक" आदि छोटी बड़ी गद्यकृतियाँ उल्लेखनीय हैं। अमृता प्रीतम आधुनिक पंजाबी साहित्य मुख्यत: सिक्खों की देन हैं और उसमें सिक्खपन का अधिक स्थान मिला है। किंतु जीवन की एकांगिता रहते हुए भी साहित्य प्राय: लौकिक है। इस युग के आदि कवि भाई वीरसिंह (1872-1957 ई.) माने जाते हैं। उनका "राण सूरतसिंह" (1915) 35 सर्गों का अतुकांत प्रबंध काव्य है। इसका उद्देश्य सिक्ख सिद्धांतों की प्रतिष्ठा है। उनकी "लहराँ दे हार" रहस्यवादी रचना है। "मटक हुलारे" में प्रकृतिचित्रण और "बिजलियाँ दे हार" में देशप्रेम मिलता है। प्रो॰ पूर्ण सिंह (1882-1932 ई.) की कविता में वेदांती बौद्ध और पाश्चात्य विचारों का गूढ़ प्रभाव है। इनके विचारों और अलंकारों में अपनी मौलिकता भी स्पष्टत: लक्षित होती है। धनीराम चात्रिक (जन्म 1876 ई.) यथार्थवादी किंतु निराशावादी कवि हैं। उनके "भरथरी हरि" और "नल दमयंती" में शैली और विचारधारा पुरानी है, बाद की कविताओं में शहरी जीवन का चित्रण मौलिक ढंग से हुआ है। पंजाबी काव्य को नए मोड़ देनेवाले कवियों में प्रो॰ मोहनसिंह (जन्म 1905 ई.) सर्वविदित हैं। ईश्वर, जीवन, प्रेम, समाज और प्रकृति के प्रति उनकी नवीन और मौलिक दृष्टि है। "सावे पत्तर" "कसुंभड़े" में वे शरीरवादी और मानववादी हैं तो "अधवाटे" में समाजवादी और छायावादी बनकर आए हैं। मोहनसिंह गीतकार भी है और शैलीकार भी। काव्य में उन्होंने कई नए प्रयोग चलाए हैं। अमृता प्रीतम (जन्म 1909) के अनेक कवितासंग्रह प्रकाशित हैं। ये बड़ी सफल गीतकार हैं। इनकी कविता की प्रेरक शक्ति प्रेम है जो अब मानव प्रेम में परिवर्तित होता जा रहा है। गोपालसिंह दर्दी का "हनेरे सवेरे" काव्य संग्रह उल्लेखनीय है। वे समाज के पापों का चित्रण करने में दक्ष हैं। .

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पीपाजी

पीपाजी (१४वीं-१५वीं शताब्दी) गागरोन के शाक्त राजा एवं सन्त कवि थे। वे भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। गुरु ग्रंथ साहिब के अलावा २७ पद, १५४ साखियां, चितावणि व क-कहारा जोग ग्रंथ इनके द्वारा रचित संत साहित्य की अमूल्य निधियां हैं। .

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फ़रीदुद्दीन गंजशकर

बाबा फरीद (1173-1266), हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन गंजशकर (उर्दू: حضرت بابا فرید الدین مسعود گنج شکر) भारतीय उपमहाद्वीप के पंजाब क्षेत्र के एक सूफी संत थे। आप एक उच्चकोटि के पंजाबी कवि भी थे। सिख गुरुओं ने इनकी रचनाओं को सम्मान सहित श्री गुरु ग्रंथ साहिब में स्थान दिया। वर्तमान समय में भारत के पंजाब प्रांत में स्थित फरीदकोट शहर का नाम बाबा फरीद पर ही रखा गया था। बाबा फरीद का मज़ार पाकपट्टन शरीफ (पाकिस्तान) में है। बाबा फरीद का जन्म ११७3 ई. में लगभग पंजाब में हुआ। उनका वंशगत संबंध काबुल के बादशाह फर्रुखशाह से था। १८ वर्ष की अवस्था में वे मुल्तान पहुंचे और वहीं ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के संपर्क में आए और चिश्ती सिलसिले में दीक्षा प्राप्त की। गुरु के साथ ही मुल्तान से देहली पहुँचे और ईश्वर के ध्यान में समय व्यतीत करने लगे। देहली में शिक्षा दीक्षा पूरी करने के उपरांत बाबा फरीद ने १९-२० वर्ष तक हिसार जिले के हाँसी नामक कस्बे में निवास किया। शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मृत्यु के उपरांत उनके खलीफा नियुक्त हुए किंतु राजधानी का जीवन उनके शांत स्वभाव के अनुकूल न था अत: कुछ ही दिनों के पश्चात् वे पहले हाँसी, फिर खोतवाल और तदनंतर दीपालपुर से कोई २८ मील दक्षिण पश्चिम की ओर एकांत स्थान अजोधन (पाक पटन) में निवास करने लगे। अपने जीवन के अंत तक वे यहीं रहे। अजोधन में निर्मित फरीद की समाधि हिंदुस्तान और खुरासान का पवित्र तीर्थस्थल है। यहाँ मुहर्रम की ५ तारीख को उनकी मृत्यु तिथि की स्मृति में एक मेला लगता है। वर्धा जिले में भी एक पहाड़ी जगह गिरड पर उनके नाम पर मेला लगता है। वे योगियों के संपर्क में भी आए और संभवत: उनसे स्थानीय भाषा में विचारों का आदान प्रदान होता था। कहा जाता है कि बाबा ने अपने चेलों के लिए हिंदी में जिक्र (जाप) का भी अनुवाद किया। सियरुल औलिया के लेखक अमीर खुर्द ने बाबा द्वारा रचित मुल्तानी भाषा के एक दोहे का भी उल्लेख किया है। गुरु ग्रंथ साहब में शेख फरीद के ११२ 'सलोक' उद्धृत हैं। यद्यपि विषय वही है जिनपर बाबा प्राय: वार्तालाप किया करते थे, तथापि वे बाबा फरीद के किसी चेले की, जो बाबा नानक के संपर्क में आया, रचना ज्ञात होते हैं। इसी प्रकार फवाउबुस्सालेकीन, अस्रारुख औलिया एवं राहतुल कूल्ब नामक ग्रंथ भी बाबा फरीद की रचना नहीं हैं। बाबा फरीद के शिष्यों में निजामुद्दीन औलिया को अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई। वास्तव में बाबा फरीद के आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रभाव के कारण उनके समकालीनों को इस्लाम के समझाने में बड़ी सुविधा हुई। उनका देहावसान १२६५ ई. में हुआ। .

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बन्दा सिंह बहादुर

बन्दा सिंह बहादुर बैरागी एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मन दास और माधो दास भी कहते हैं। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुग़लों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्तासम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ में ख़ालसा राज की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव और गुरू गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहरे जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मज़दूरों को ज़मीन का मालिक बनाया। .

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बुरहानपुर

बुरहानपुर भारत के मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है। बुरहानपुर मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे पर स्थित एक नगर है। यह ख़ानदेश की राजधानी था। इसको चौदहवीं शताब्दी में ख़ानदेश के फ़ारूक़ी वंश के सुल्तान मलिक अहमद के पुत्र नसीर द्वारा बसाया गया। .

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भारत में धर्म

तवांग में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा. बैंगलोर में शिव की एक प्रतिमा. कर्नाटक में जैन ईश्वरदूत (या जिन) बाहुबली की एक प्रतिमा. 2 में स्थित, भारत, दिल्ली में एक लोकप्रिय पूजा के बहाई हॉउस. भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज, दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है। भारत के पूर्ण इतिहास के दौरान धर्म का यहां की संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है - हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिक्ख धर्म.

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भाई संतोख सिंह

भाई संतोख सिंह (सन् 1788-1843) वेदांत और सिक्ख दर्शन के विद्वान् और ज्ञानी संप्रदाय के विचारक थे। आपके पूर्वज छिंवा या छिब्बर नाम के मोह्याल ब्राह्मण थे। आपका जन्म अमृतसर में हुआ। आपके पिता श्री देवसिंह निर्मला संतों के संपर्क में रहे। आपकी माता का नाम राजादेई (राजदेवी) था। आप रूढ़िवाद के कट्टर विरोधी थे। अपनी परिवारिक परंपराओं की अवमानना करके आपने रोहिल्ला परिवार में विवाह किया। आपके सुपुत्र अजयसिंह भी बड़े विद्वान् हुए। भाई साहब ने ज्ञानी संतसिंह से काव्याध्ययन किया। तदनंतर संस्कृत की शिक्षा काशी में प्राप्त की। सन् 1823 में आप पटियालानरेश महाराज कर्मसिंह के दरबारी कवि के रूप में पधारे। दो वर्ष बाद कैथल के रईस श्री उदयसिंह आपको अपने यहाँ लिवा ले आए। पटियाला की भाँति कैथल में भी आपका बड़ा सम्मान हुआ और वहाँ पर अनेक विद्वानों का सहयोग भी प्राप्त हुआ। .

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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मणिकर्ण

मणिकर्ण भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य में कुल्लू जिले के भुंतर से उत्तर पश्चिम में पार्वती घाटी में व्यास और पार्वती नदियों के मध्य बसा है, जो हिन्दुओं और सिक्खों का एक तीर्थस्थल है। यह समुद्र तल से १७६० मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और कुल्लू से इसकी दूरी लगभग ४५ किमी है। भुंतर में छोटे विमानों के लिए हवाई अड्डा भी है। भुंतर-मणिकर्ण सडक एकल मार्गीय (सिंगल रूट) है, पर है हरा-भरा व बहुत सुंदर। सर्पीले रास्ते में तिब्बती बस्तियां हैं। इसी रास्ते पर शॉट नाम का गांव भी है, जहां कई बरस पहले बादल फटा था और पानी ने गांव को नाले में बदल दिया था। मणिकर्ण अपने गर्म पानी के चश्मों के लिए भी प्रसिद्ध है। देश-विदेश के लाखों प्रकृति प्रेमी पर्यटक यहाँ बार-बार आते है, विशेष रूप से ऐसे पर्यटक जो चर्म रोग या गठिया जैसे रोगों से परेशान हों यहां आकर स्वास्थ्य सुख पाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां उपलब्ध गंधकयुक्त गर्म पानी में कुछ दिन स्नान करने से ये बीमारियां ठीक हो जाती हैं। खौलते पानी के चश्मे मणिकर्ण का सबसे अचरज भरा और विशिष्ट आकर्षण हैं। प्रति वर्ष अनेक युवा स्कूटरों व मोटरसाइकिलों पर ही मणिकर्ण की यात्रा का रोमांचक अनुभव लेते हैं। .

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मसूरी

मसूरी भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक पर्वतीय नगर है, जिसे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है। देहरादून से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, मसूरी उन स्थानों में से एक है जहाॅं लोग बार-बार आते जाते हैं। घूमने-फिरने के लिए जाने वाली प्रमुख जगहों में यह एक है। यह पर्वतीय पर्यटन स्थल हिमालय पर्वतमाला के शिवालिक श्रेणी में पड़ता है, जिसे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है। निकटवर्ती लैंढ़ौर कस्बा भी बार्लोगंज और झाड़ीपानी सहित वृहत या ग्रेटर मसूरी में आता है। इसकी औसत ऊंचाई समुद्र तल से 2005 मी.

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महाराजा रणजीत सिंह

महाराजा रणजीत सिंह (पंजाबी: ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਣਜੀਤ ਸਿੰਘ) (१७८०-१८३९) सिख साम्राज्य के राजा थे। वे शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं। जाट सिक्ख महाराजा रणजीत एक ऐसी व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) जाट सिक्ख महाराजा महां सिंह के घर हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफगानों का राज चलता था जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का मुख्यालय गुजरांवाला में था। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी जाती रही। महज 12 वर्ष के थे जब पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सन 1802 में अमृतसर की ओर रूख किया। महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। पहली आधुनिक भारतीय सेना - "सिख खालसा सेना" गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकार जे टी व्हीलर के मुताबिक, अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते। महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में कानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को मृत्युदण्ड नहीं दी। उनका सूबा धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब गुरूद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। बेशकीमती हीरा कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की रौनक था। सन 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां कायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया और कोहिनूर महारानी विक्टोरिया के हुजूर में पेश कर दिया गया। .

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माता सुलखनी

माता सुलखनी (1473-1545) सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक की पत्नी थीं। .

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रहरास साहिब

रहरास साहिब (अथवा रहिरास, रेहरास) सिखों द्वारा शाम के समय की जाने वाली प्रार्थना है। इस प्रार्थना को पाँच गुरुओं गुरु नानक देव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी, गुरु अर्जन देव जी और गुरु गोविंद सिंह जी ने बनाया है। मूल प्रार्थना जिसे सिखों के पहले गुरु, नानक देव जी ने लिखा व बोला था में अन्य गुरुओं ने अपनी पंक्तियाँ जोडी। हर पंक्ति ईश्वर के विभिन्न विचारों व पहलुओं पर प्रकाश डालती है, व सर्वशक्तिमान की आराधना करती है। रहिरास दिन के अंत में गायी जाति है। इसका उद्देश्य दिन के कार्य खत्म करने के बाद गायक में एक नई उर्ज़ा भरने के लिए होती है। इसका उद्देश्य ईश्वर की प्रार्थना कर के शारीरिक कमजोरी, थकान, गरीबी, जमीन-जायदाद, निराशा, असफलता जैसे विचारों से छुटकारा पाकर स्वयँ में एक नई उर्जा का संचार करना होता है। कहते हैं कि इसमें बैयन्टी चौपाई गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा गायी हुई उनकी व्यक्तिगत प्रार्थना है जो प्रकृति के जल तत्व से संबंधित है। .

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राष्ट्रीय सिख संगत

राष्ट्रीय सिख संगत एक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था है जो गुरू ग्रन्थ साहब के सन्देशों को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में प्रसारित करने के लक्ष्य के साथ काम कर रही है। संगत का मानना है कि गुरू ग्रन्थ साहब केवल सिखों का ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप का पवित्र धर्मग्रन्थ है। राष्ट्रीय सिख संगत पूरी तरह सामाजिक एवं सांस्कृतिक मंच है, न कि पांथिक। इसका मुख्य उद्देश्य है सामाजिक समरसता पैदा करना और सिख परम्परा, सिख इतिहास को जन-जन तक पहुंचाना। उल्लेखनीय है कि सिखों का बड़ा तेजस्वी इतिहास रहा है। देश और धर्म के लिए मर मिटने की परम्परा इनकी रही है। बड़े तो बड़े, बच्चे भी देश-पंथ के लिए शहीद हुए हैं। गुरु गोविन्द सिंह जी के दो पुत्रों जोरावर सिंह (9) तथा फतेह सिंह (7) को मुगलों ने दीवार में चुनवा दिया था। अपने अन्य दो पुत्रों-अजीत सिंह और जुझार सिंह को गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने हाथों से युद्ध के लिए सजाया था और मुगलों की भारी-भरकम सेना के खिलाफ उन्हें मैदान में उतारा था। वे दोनों साहिबजादे भी बड़े वीर थे। युद्ध के मैदान में वीरता दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। सच कहा जाए जो ऐसे ही वीरों और शहीदों के कारण मुगलों के अत्याचारों से उत्तर भारत में हिन्दुओं की रक्षा हो पाई। नहीं तो क्या होता, इसको अलकाधर खान योगी ने कहा है- सिखों के इसी इतिहास को घर-घर तक पहुंचाने का कार्य राष्ट्रीय सिख संगत पिछले 25 साल से कर रही है। इस निमित्त पूरे देश में संगोष्ठियां एवं अन्य कार्यक्रम होते रहते हैं। .

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लखपत

लखपत कोरी क्रीक के मुहाने पर स्थित गुजरात राज्य के कच्छ जिले में एक कम आबादी वाला शहर और उप जिला है। शहर 7 कि.मी.

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लंगर (सिख धर्म)

लंगर का दृष्य लंगर (पंजाबी: ਲੰਗਰ) सिखों के गुरुद्वारों में प्रदान किए जाने वाले नि:शुल्क, शाकाहारी भोजन को कहते हैं। लंगर, सभी लोगों के लिये खुला होता है चाहे वे सिख हो या नहीं। लंगर शब्द सिख धर्म में दो दृष्टिकोणों से इस्तेमाल होता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में "लंगर" शब्द को निराकारी दृष्टिकोण से लिया गया है, पर आम तौर पर "रसोई" को लंगर कहा जाता है जहाँ कोई भी आदमी किसी भी जाति का, किसी भी धर्म का, किसी भी पद का हो इकट्ठे बैठ कर अपने शरीर की भूख अथवा पानी की प्यास मिटा सकता है। इसी शब्द को निराकारी दृष्टिकोण में लिया जाता है, जिसके अनुसार कोई भी जीव आत्मा या मनुष्य अपनी आत्मा की ज्ञान की भूख, अपनी आत्मा को समझने और हुकम को बूझने की भूख गुरु घर में आकर किसी गुरमुख से गुरमत की विचारधारा को सुनकर/समझकर मिटा सकता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में लंगर शब्द श्री सत्ता डूम जी और श्री बलवंड राइ जी ने अपनी वाणी में इस्तेमाल किया है। सिख धर्म की एक प्रमुख सिखावन है- "वंड छको" (हिंदी अनुवाद- मिल बांट कर खाओ)। लंगर की प्रथा इसी का व्यवहारिक स्वरूप है। .

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श्री चन्द्रमुनि

श्री चन्द्र मुनि जी (8 सितम्बर 1494 – 13 जनवरी 1629) गुरु नानक के ज्येष्ट पुत्र थे जिन्होने उदासीन सम्प्रदाय की स्थापना की थी। आप लुप्तप्राय उदासीन संप्रदाय के पुन: प्रवर्तक आचार्य है। उदासीन गुरुपरंपरा में आपका १६५ वाँ स्थान हैं। आपकी आविर्भावतिथि संवत १५५१ भाद्रपद शुक्ला नवमी तथा अंतर्धानतिथि संवत् १७०० श्रावण शुक्ला पंचमी है। आपके प्रमुख शिष्य श्री बालहास, अलमत्ता, पुष्पदेव, गोविन्ददेव, गुरुदत्त भगवद्दत्त, कर्ताराय, कमलासनादि मुनि थे। श्रेणी:सम्प्रदाय प्रवर्तक.

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सत्गुरु

सत्गुरु या सद्गुरु का अर्थ है सच्चा गुरु.

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सनातन सिख

सनातन सिख वे हैं जो सिख धर्म को हिन्दू धर्म का अंग मानते हैं। उन्होने 'तत खालसा' का विरोध किया था, विशेषतः सिंह सभा आन्दोलन के समय। १८७३ में सनातन सिखों ने खेम सिंह बेदी के नेतृत्व में सिख सभा की स्थापना की। खेम सिंह बेदी, गुरु नानक के वंशज थे। .

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सन्त कंवर राम

सन्त कंवर राम (13 अप्रैल 1885 - १ नवम्बर 1939) सिन्ध के महान कर्मयोगी, त्यागी, तपस्वी तथा सूफी सन्त थे। .

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सिख

भारतीय सेना के सिख रेजिमेन्ट के सैनिक सिख धर्म के अनुयायियों को सिख कहते हैं। इसे कभी-कभी सिक्ख भी लिखा जाता है। इनके पहले गुरू गुरु नानक जी हैं। गुरु ग्रंथ साहिब सिखों का पवित्र ग्रन्थ है। इनके प्रार्थना स्थल को गुरुद्वारा कहते हैं। हिन्दू धर्म की रक्षा में तथा भारत की आजादी की लड़ाई में और भारत की आर्थिक प्रगति में सिखों का बहुत बड़ा योगदान है। .

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सिख धर्म

सिख धर्म (सिखमत और सिखी भी कहा जाता है; पंजाबी: ਸਿੱਖੀ) एक एकेश्वरवादी धर्म है। इस धर्म के अनुयायी को सिख कहा जाता है। सिखों का धार्मिक ग्रन्थ श्री आदि ग्रंथ या ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब है। आमतौर पर सिखों के 10 सतगुर माने जाते हैं, लेकिन सिखों के धार्मिक ग्रंथ में 6 गुरुओं सहित 30 भगतों की बानी है, जिन की सामान सिख्याओं को सिख मार्ग पर चलने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता ह। सिखों के धार्मिक स्थान को गुरुद्वारा कहते हैं। 1469 ईस्वी में पंजाब में जन्मे नानक देव ने गुरमत को खोजा और गुरमत की सिख्याओं को देश देशांतर में खुद जा जा कर फैलाया था। सिख उन्हें अपना पहला गुरु मानते हैं। गुरमत का परचार बाकि 9 गुरुओं ने किया। 10वे गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ये परचार खालसा को सोंपा और ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब की सिख्याओं पर अम्ल करने का उपदेश दिया। संत कबीर, धना, साधना, रामानंद, परमानंद, नामदेव इतियादी, जिन की बानी आदि ग्रंथ में दर्ज है, उन भगतों को भी सिख सत्गुरुओं के सामान मानते हैं और उन कि सिख्याओं पर अमल करने कि कोशिश करते हैं। सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है। .

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सिख धर्म और इस्लाम

सिख धर्म और इस्लाम का प्रारंभ से ही एक अभिन्न एवं विचित्र संबंध रहा है। सिख धर्म का उदय पंजाब क्षेत्र (वर्तमान भारत व पाकिस्तान) में हुआ जहाँ हिंदू व मुस्लिम दोनों धर्मों के अनुयायी काफी मात्रा में थे। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के बारे में कहा गया: जहाँ प्रारंभ से ही मुस्लिम लोगों का भी पर्याप्त समर्थन सिख धर्म को मिला, वहीं बाद के समय में मुस्लिम शासकों ने इस धर्म व इसके अनुयायियों का दमन करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। .

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सिख धर्म का इतिहास

सिख धर्म का इतिहास प्रथम सिख गुरु, गुरु नानक के द्वारा पन्द्रहवीं सदी में दक्षिण एशिया के पंजाब क्षेत्र में आग़ाज़ हुआ। इसकी धार्मिक परम्पराओं को गुरु गोबिन्द सिंह ने 30 मार्च 1699 के दिन अंतिम रूप दिया। विभिन्न जातियों के लोग ने सिख गुरुओं से दीक्षा ग्रहणकर ख़ालसा पन्थ को सजाया। पाँच प्यारों ने फिर गुरु गोबिन्द सिंह को अमृत देकर ख़ालसे में शामिल कर लिया। इस ऐतिहासिक घटना ने सिख धर्म के तक़रीबन 300 साल इतिहास को तरतीब किया। सिख धर्म का इतिहास, पंजाब का इतिहास और दक्षिण एशिया (मौजूदा पाकिस्तान और भारत) के 16वीं सदी के सामाजिक-राजनैतिक महौल से बहुत मिलता-जुलता है। दक्षिण एशिया पर मुग़लिया सल्तनत के दौरान (1556-1707), लोगों के मानवाधिकार की हिफ़ाज़ात हेतु सिखों के संघर्ष उस समय की हकूमत से थी, इस कारण से सिख गुरुओं ने मुस्लिम मुगलों के हाथो बलिदान दिया। इस क्रम के दौरान, मुग़लों के ख़िलाफ़ सिखों का फ़ौजीकरण हुआ। सिख मिसलों के अधीन 'सिख राज' स्थापित हुआ और महाराजा रणजीत सिंह के हकूमत के अधीन सिख साम्राज्य, जो एक ताक़तवर साम्राज्य होने के बावजूद इसाइयों, मुसलमानों और हिन्दुओं के लिए धार्मिक तौर पर सहनशील और धर्म निरपेक्ष था। आम तौर पर सिख साम्राज्य की स्थापना सिख धर्म के राजनैतिक तल का शिखर माना जाता है, इस समय पर ही सिख साम्राज्य में कश्मीर, लद्दाख़ और पेशावर शामिल हुए थे। हरी सिंह नलवा, ख़ालसा फ़ौज का मुख्य जनरल था जिसने ख़ालसा पन्थ का नेतृत्व करते हुए ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार दर्र-ए-ख़ैबर पर फ़तह हासिल करके सिख साम्राज्य की सरहद का विस्तार किया। धर्म निरपेक्ष सिख साम्राज्य के प्रबन्ध के दौरान फ़ौजी, आर्थिक और सरकारी सुधार हुए थे। 1947 में पंजाब का बँटवारा की तरफ़ बढ़ रहे महीनों के दौरान, पंजाब में सिखों और मुसलमानों के दरम्यान तनाव वाला माहौल था, जिसने पश्चिम पंजाब के सिखों और हिन्दुओं और दूसरी ओर पूर्व पंजाब के मुसलमानों का प्रवास संघर्षमय बनाया। .

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सिख धर्म की आलोचना

सिख धर्म की आलोचना अक्सर अन्य धर्मों या सिद्धांतों के मानने वालों के द्वारा की गई है। .

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सिखों के दस गुरू

श्रेणी:सिख धर्म.

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संत मत

लगभग 13 वीं सदी के बाद से भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में “संत मत” एक ढीले ढंग से जुड़ा गुरुओं का एक सहयोगी समूह था जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली। धर्म ब्रह्म विज्ञान के तौर पर उनकी शिक्षाओं की विशेषता यह है कि वे अंतर्मुखी और प्रेम भक्ति के एक दैवीय सिद्धांत से जुड़े हैं और सामाजिक रूप से वे एक समतावादी गुणों वाले सिद्धांत से जुड़े हैं जो हिंदु धर्म की जाति प्रथा के विरुद्ध है और हिंदू - मुस्लिम के अंतर के भी विरुद्ध है।वुडहेड, लिंडा और फ्लेचर, पॉल.

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हिन्दू धर्म और सिख धर्म

हिन्दू धर्म और सिख धर्म दोनों मूलतः भारत की धरती से निकले धर्म हैं। हिन्दू धर्म एक अति प्राचीन (अनादि) धर्म है जो कई हजार वर्षों के विकास का मार्ग तय करके आया है। सिख धर्म की स्थापना १५वीं शताब्दी में गुरु नानक ने की जब भारत पर मुगलों का अधिकार था। गुरु नानक स्वयं हिन्दू थे। दोनों धर्मों में बहुत सी बातें और दर्शन समान हैं, जैसे कर्म, धर्म, मुक्ति, माया, संसार आदि। मुगल काल में राजा के तलवार के बल से हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जा रहा था, उस समय सिख धर्म इस अत्याचार के विरोध में खड़ा हुआ। गुरु नानक पहले व्यक्ति थे जिन्होने बाबर के विरुद्ध आवाज उठायी थी। .

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हिन्दू धर्म की आलोचना

चित्रित: सती प्रथा के अनुसार हिन्दू विधवा अपना पति की लाश से उसका अपना शरीर को भी जीवित होने पर जलाया जाता है - अतः उसकी आत्महत्या करायी गयी हिन्दू धर्म की आलोचना से तात्पर्य हिन्दू धर्म के अनुयायियों द्वारा आयोजित प्रथाओं तथा विश्वासों की आलोचना से है। यह आलोचना दोनों हिन्दू एवं ग़ैर-हिन्दू विचारकों द्वारा की गई है। धार्मिक आलोचना एक संवेदनशील मुद्दा है तथा धर्म के अनुयायी इससे असहमत भी होते हैं किंतु गौरतलब है कि आलोचनाओं के फलस्वरूप ही कई सामाजिक सुधार संभव हो पाए। प्रारंभिक हिन्दू सुधारकों ने भी भेदभाव व कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई तथा कई हिन्दू समाजसुधारक आंदोलन भी चलाए गए। Encyclopædia Britannica Premium Service.

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हिन्दू गुरु व सन्त

* कबीर.

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हिंदी साहित्य

चंद्रकांता का मुखपृष्ठ हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से जो कि ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई।हिंदी का आरंभिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है। गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। .

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जनमसाखी

जनमसाखी (संस्कृत: जन्मसाक्षी) उन रचनाओं को कहते हैं जो सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक का जीवनचरित हैं। पंजाबी साहित्य में जनमसाखियों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। गुरु नानक के देहान्त के बाद समय-समय पर ऐसी रचनाएँ होती रहीं हैं।Nikky-Guninder Kaur Singh (2011), Sikhism: An Introduction, IB Tauris, ISBN 978-1848853218, pages 1-8 .

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जपजी साहिब

आदि गुरु श्री गुरुग्रंथ साहब की मूलवाणी जपुजी जगतगुरु श्री गुरुनानकदेवजी द्वारा जनकल्याण हेतु उच्चारित की गई अमृतमयी वाणी है। 'जपुजी' एक विशुद्ध एक सूत्रमयी दार्शनिक वाणी है उसमें महत्वपूर्ण दार्शनिक सत्यों को सुंदर अर्थपूर्ण और संक्षिप्त भाषा में काव्यात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। इसमें ब्रह्मज्ञान का अलौकिक ज्ञान प्रकाश है। इसका दिव्य दर्शन मानव जीवन का चिंतन है। इस वाणी में धर्म के सत्य, शाश्वत मूल्यों को बही मनोहारी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। अतः महान गुरु की इस महान कृति की व्याख्या करना तो दूर इसे समझना भी आसान नहीं है। लकिन जो इसमें प्रयुक्त भाषाओं को जानते हैं उनके लिए इसका चिंतन, मनन करना उदात्तकारी एवं उदर्वोमुखी है। यह एक पहली धार्मिक और रहस्यवादी रचना है और आध्यात्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में इसका अत्यधिक महत्व महान है। गुरु नानक की जन्म साखियों में इस बात का उल्लेख है कि जब गुरुजी सुलतानपुर में रहते थे, तो वे रोजाना निकटवर्ती वैई नदी में स्नान करने के लिए जाया करते थे। जब वे 27 वर्ष के थे, तब एक दिन प्रातःकाल वे नदी में स्नान करने के लिए गए और तीन दिन तक नदी में समाधिस्थ रहे। वृतांत में कहा है कि इस समय गुरुजी को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ था। उन पर ईश्वर की कृपा हुई थी और देवी अनुकम्पा के प्रतीक रूप में ईश्वर ने गुरुजी को एक अमृत का प्याला प्रदान किया थ। वृतांतों में इस बात की साक्षी मौजूद है कि इस अलौकिक अनुभव की प्रेरणा से गुरुजी ने मूलमंत्र का उच्चारण किया था, जिससे जपुजी साहिब का आरंभ होता है। जपुजी का प्रारंभिक शब्द एक ओमकारी बीज मंत्र है जैसे उपनिषदों और गीता में ओम शब्द बीज मंत्र है। मूल मंत्र है, जिसमें प्रभु के गुण नाम कथन किए गए हैं। समस्त जपुजी को मोटे तौर पर चार भागों में विभक्त किया गया है-.

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जिब्राल्टर हिन्दू मंदिर

जिब्राल्टर हिन्दू मंदिर ब्रिटिश प्रवासी शासित प्रदेश जिब्राल्टर में स्थित हिन्दू मंदिर है। वर्ष 2000 में निर्मित हुआ जिब्राल्टर हिन्दू मंदिर इंजीनियर्स लेन पर स्थित है। यह जिब्राल्टर में मौजूद एकमात्र हिन्दू मंदिर है तथा क्षेत्र की हिन्दू आबादी के लिए आध्यात्म का केंद्र है। जिब्राल्टेरियन हिन्दू जिब्राल्टर की आबादी का लगभग 1.8 प्रतिशत हैं। इनमें से ज्यादातर लोग वर्तमान पाकिस्तान के सिंध राज्य से आए व्यापारीयो के वंशज हैं। मंदिर एक धर्मार्थ संगठन है जिसका मुख्य उद्देश्य जिब्राल्टर में हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का संरक्षण करना है। मंदिर में प्रमुख आराध्य राम हैं, जो अपनी धर्मपत्नी सीता, भाई लक्ष्मण और परम भगत हनुमान के साथ मंदिर की प्रमुख वेदी में विराजमान हैं। इनके आलावा मंदिर में कई अन्य हिन्दू देवी-देवताओ की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर में रोजाना शाम के 7:30 बजे आरती होती है तथा हर महीने की पूर्णिमा को सत्यनारायण कथा भी आयोजित की जाती है। मंदिर हिन्दू धर्म से सम्बंधित विभिन्न प्रकार की धार्मिक कक्षाओं का भी आयोजन करता है। .

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वार (पंजाबी काव्य)

वार पंजाबी साहित्य का एक काव्यभेद, जो वर्णनात्मक शैली में लिखा जाता है। "वार" शब्द संस्कृत की "वृ' धातु से व्युत्पन्न है। "कीर्ति', "घेरा', "धावा' (आक्रमण), "बार बार', बाह्य (पंजाबी वाहर .

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गगन मै थाल

गगन मैं थाल, रव चंद दीपक बने।..

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गुरबानी

गुरबानी शब्द गुरुवाणी का पंजाबी स्वरूप है। सिक्ख धर्म में पाँचवे गुरू अर्जुन देव ने बाबा गुरु नानक, बाबा फरीद,रविदास तथा कबीर की वाणी को आदि ग्रंथ में संकलित किया। इनको गुरबानी कहा जाता है। .

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गुरु तेग़ बहादुर

गुरू तेग़ बहादुर (1 अप्रैल, 1621 – 24 नवम्बर, 1675) सिखों के नवें गुरु थे जिन्होने प्रथम गुरु नानक द्वारा बताए गये मार्ग का अनुसरण करते रहे। उनके द्वारा रचित ११५ पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित हैं। उन्होने काश्मीरी पण्डितों तथा अन्य हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाने का विरोध किया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 1675 में मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हे इस्लाम कबूल करने को कहा कि पर गुरु साहब ने कहा सीस कटा सकते है केश नहीं। फिर उसने गुरुजी का सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग़ बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। अंगूठाकार गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के अन्दर का दृष्य इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था। आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग़ बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे। 11 नवंबर, 1675 ई को दिल्ली के चांदनी चौक में काज़ी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार करके गुरू साहिब का शीश धड़ से अलग कर दिया। किन्तु गुरु तेग़ बहादुर ने अपने मुंह से सी तक नहीं कहा। आपके अद्वितीय बलिदान के बारे में गुरु गोविन्द सिंह जी ने ‘बिचित्र नाटक में लिखा है- .

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गुरु नानक

नानक (पंजाबी:ਨਾਨਕ) (15 अप्रैल 1469 – 22 सितंबर 1539) सिखों के प्रथम (आदि गुरु) हैं। इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। लद्दाख व तिब्बत में इन्हें नानक लामा भी कहा जाता है। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु - सभी के गुण समेटे हुए थे। .

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गुरु पर्व

नानक देव या गुरू नानक देव सिखों के प्रथम गुरू थे। गुरु नानक देवजी का प्रकाश (जन्म) १५ अप्रैल, १४६९ ई. (वैशाख सुदी 3, संवत्‌ 1526 विक्रमी) में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ। सुविधा की दृष्टि से गुरु नानक का प्रकाश उत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। तलवंडी अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। इस दिन को सिख धर्म के अनुयायी गुरु पर्व के रूप में मनाते हैं। .

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गुरु ग्रन्थ साहिब

एक ग्रन्थआदिग्रन्थ सिख संप्रदाय का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इसे 'गुरु ग्रंथ साहिब' भी कहते हैं। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने किया। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पहला प्रकाश 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल 1430 पृष्ठ है। गुरुग्रन्थ साहिब में मात्र सिख गुरुओं के ही उपदेश नहीं है, वरन् 30 अन्य हिन्दू संत और अलंग धर्म के मुस्लिम भक्तों की वाणी भी सम्मिलित है। इसमे जहां जयदेवजी और परमानंदजी जैसे ब्राह्मण भक्तों की वाणी है, वहीं जाति-पांति के आत्महंता भेदभाव से ग्रस्त तत्कालीन हिंदु समाज में हेय समझे जाने वाली जातियों के प्रतिनिधि दिव्य आत्माओं जैसे कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी भी सम्मिलित है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। अपनी भाषायी अभिव्यक्ति, दार्शनिकता, संदेश की दृष्टि से गुरु ग्रन्थ साहिब अद्वितीय है। इसकी भाषा की सरलता, सुबोधता, सटीकता जहां जनमानस को आकर्षित करती है। वहीं संगीत के सुरों व 31 रागों के प्रयोग ने आत्मविषयक गूढ़ आध्यात्मिक उपदेशों को भी मधुर व सारग्राही बना दिया है। गुरु ग्रन्थ साहिब में उल्लेखित दार्शनिकता कर्मवाद को मान्यता देती है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार ही महत्व पाता है। समाज की मुख्य धारा से कटकर संन्यास में ईश्वर प्राप्ति का साधन ढूंढ रहे साधकों को गुरुग्रन्थ साहिब सबक देता है। हालांकि गुरु ग्रन्थ साहिब में आत्मनिरीक्षण, ध्यान का महत्व स्वीकारा गया है, मगर साधना के नाम पर परित्याग, अकर्मण्यता, निश्चेष्टता का गुरुवाणी विरोध करती है। गुरुवाणी के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होकर जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर हमारे हृदय में ही है, उसे अपने आन्तरिक हृदय में ही खोजने व अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरुवाणी ब्रह्मज्ञान से उपजी आत्मिक शक्ति को लोककल्याण के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। मधुर व्यवहार और विनम्र शब्दों के प्रयोग द्वारा हर हृदय को जीतने की सीख दी गई है। .

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गुरु अंगद देव

अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखो के एक गुरू थे। गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिससे पहले वे एक सच्चे सिख बनें और फिर एक महान गुरु। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गांव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम्‌ वैसाख) सम्वत १५६१ (३१ मार्च १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुख्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे। .

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ओउ्म्

देवनागरी में ओ३म कन्नड में ओ३म तमिळ में ओम मलयालम में ओ३म तिब्बती में ओ३म गुरुमुखी में 'एक ओंकार' बाली भाषा में ओंकार ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है। .

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इन दिनों

कुंवर नारायण भारतीय परंपरा के उन प्रमुख कवियों में हैं जिनकी कविता मानवीय मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन और निर्माण के लिए किसी बड़ी नदी की तरह हर बार मार्ग बदलती रही है। उनता छठा कविता संग्रह इन दिनों पढ़ते हुए जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने वाले कवि के जीवनाभुवों से मिलने-टकराने की भी अपेक्षा रहती है। जीवन के अनेकानेक पक्षों को जिस भाषिक संक्षिप्तता और अर्थ गहराई के साथ उन्होंने कविता का विषय बनया है उसे देखकर उन्हीं की कविता पंक्ति में ‘कभी’ की जगह ‘कवि’ को रखकर कहा जा सकता है कि – ‘कवि तुमने कविता की ऊंचाई से देखा शहर’ और अब इस ताजा संग्रह में उन्होंने कहा है कि ‘बाजार की चौंधिया देने वाली जगमगाहट, के बीच / अचानक संगीत की एक उदास ध्वनि में हम पाते हैं / उसके वैभव की एक ज्यादा सच्ची पहचान’। इन पंक्तियों में अर्थ की सारी चाभी ‘उदास’ विशेषण के पास है जिसका अन्वय बाजार, संगीत और ध्वनि तीनों के साथ करना पड़ेगा और समन्वय करना पड़ेगा ‘वैभव’ के साथ भी। इस संग्रह में कहीं किसी निरर्थक विशेषण का प्रयोग कवि ने नहीं किया है। इस सृजन संयम से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इन कविताओं में यदि कोई खोट या मैल दिखाई दे तो वह रचनाकार की दुनिया में विनम्र न होकर जाने का अहंकार है जो शायद ‘सादगी’ कविता की इन पंक्तियों से तुष्ट हो सके: ‘तुम्हारे कपड़ों का दोष है / मिट्टी का नहीं / जो उसे छूते ही मैले हो गये तुम /’ शुरू से ही उनकी कविताओं में ‘अलख’ (जो दिखाई नहीं देता है। वह यथार्थ) दिखाने के प्रति विशेष रुझाम रहा है जिसे पुराने मुहावरे में ‘अलख जगाना’ कहते थे जो कहने को व्यक्तिगत नहीं रहने देता और सहने की दुर्निवार अभिव्यक्ति को सामाजिक बना देता है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब बाजार वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का साधन और सूत्रधार बनकर आधुनिकता और विकास को उदास और प्रसन्न दो चेहरों की तरह धारण किये हुए सब पर छा गया है। कवियों के लिए भले ही यह स्थायी भाव न रहा हो, लेकिन हिंदी कविता में यह बाजार-भाव नया नहीं है। पिछले सात सौ साल से तो यह चल ही रह है। प्राचीन जगत व्यापार से लेकर ‘कबिरा घड़ा बजार में’ और ‘धोति फटी सिलटी दुपटी’ से लेकर आज तक यह बाजार व्याप्त रहा है। बाजारवाद का जवाब देने के लिए आज जिस नयी दृष्ट की जरूरत है उससे उपजी हुई कविताएं कुंवर नारायण के इस नये कविता संग्रह में एकत्र हुई हैं। ‘इन दिनों’ में जो कुछ भी हमें घेरे, दबोचे और चिंतित किये हुए है वह किसी न किसी सूत्र के रूप में इस संग्रह की ८३ कविताओं में मौजूद है। इन कविताओं में दरअसल प्रेम के खो जाने का और बाजार के आतंक का मुकाबला मानवीय सहजता से व्यंग्य क्षमता के अनोखे अंदाज में किया गया है। न कवि ने स्वयं को कहीं परास्त माना है न विजेता, फिर भी जले हुए मकान की वास्तविकता के सामने अपने जीवित होने को कई कत्लों के बाद जीवित होना माना है। यह रूपक वहां तक जाता है जहां उसे कहना पड़ता है कि ‘ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर, रुकते ही नहीं किसी तरह मेरी हत्या के सिलसिले।‘ यह जला हुआ मकान हिंदुस्तान के सिवा आखिर हो भी कौन सकता है? इतने बड़े मकान में एक छोटा घर और इस ‘घर का दरवाजा जैसे गर्द से ढंकी एक पुरानी किताब’, जिसमें ‘लौटी हो एक कहानी अपने नायक के साथ छानकर दुनिया भर की खाक’। ‘जो रोज पढ़ता है अखबारों में कि अब वह नहीं रहा, अपनी शोकसभाओं में खड़ा है वह, आंखें बंद किये – दो मिनटों का मौन।‘ इस भयावह समय में कुंवर नारायण का कविता संग्रह व्यक्तिगत डायरी, कहानी, निबंध और नाटक का मिलाजुला स्वाद देने वाले किसी अलभ्य ऐलबम की तह अपनी जीवंत उपस्थिति के घेरे में ले लेता है: ‘आधी रात अपने घर में घुस रह हूं चोरों की तरह/...

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कबीर

कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनके लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी मिला जा सकता है। Encyclopædia Britannica (2015)Accessed: July 27, 2015 वे हिन्दू धर्म व इस्लाम के आलोचक थे। उन्होंने यज्ञोपवीत और ख़तना को बेमतलब क़रार दिया और इन जैसी धार्मिक प्रथाओं की सख़्त आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी। कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं। .

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कबीर पंथ

संत कबीर कबीर पंथ या सतगुरु कबीर पंथ भारत के भक्तिकालीन कवि कबीर की शिक्षाओं पर आधारित एक संप्रदाय है। कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनके निधन के लगभग सौ साल बाद इस पंथ की शुरुआत की थी। प्रारंभ में दार्शनिक और नैतिक शिक्षा पर आधारित यह पंथ कालांतर में धार्मिक संप्रदाय में परिवर्तित हो गया। कबीर पंथ के अनुयायियों में हिंदू, मुसलमान, बौद्ध और जैन सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। इनमें बहुतायत हिंदुओं की है। कबीर की रचनाओं का संग्रह बीजक इस पंथ के दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन का आधार ग्रंथ है। अपने काव्य में कबीर ने पंथ को महत्त्वहीन बताते हुए उसका उपहास उड़ाया है। "ऐसा जोग न देखा भाई। भूला फिरै लिए गफिलाई॥ महादेव को पंथ चलावै। ऐसो बड़ो महंथ कहावै॥" कबीर पंथ का अध्ययन करने वाले केदारनाथ द्विवेदी के अनुसार इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि पंथ की स्थापना कबीर ने स्वयं की। कबीर की मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने यह कार्य किया। .

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कश्मीरी गेट, दिल्ली

कश्मीरी दरवाज़ा (या कश्मीरी गेट) दिल्ली के लाल किले के निकटस्थ पुराने दिल्ली शहर (शाहजहानाबाद) का एक उत्तर मुखी द्वार हुआ करता था। इसका निर्माण एक सैन्य अभियांत्रिक रॉबर्ट स्मिथ द्वारा १८३५ में करवाय़ा गया था, एवं इसके उत्तरी ओर कश्मीर प्रान्त को मुख होने के कारण इसे कश्मीरी दरवाजा कहा गया। यहां से निकलने वाली सड़क कश्मीर को जाती थी। वर्तमान में यह उत्तरी दिल्ली का एक मोहल्ला है, जो पुरानी दिल्ली क्षेत्र में आता है। यहां कुछ महत्त्वपूर्ण मार्ग मिलते हैं, जो लाल किले, महाराणा प्रताप अन्तर्राज्यीय बस टर्मिनल एवं दिल्ली जंक्शन रेलवे स्टेशन को जोड़ते हैं। .

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कार्तिक पूर्णिमा

हिंदू धर्म में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष 12 पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। .

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काली बेईं नदी

काली बेई एक नदी है जो पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के ग्राम घनोआ के पास से ब्यास नदी से निकली है और दुबारा 'हरि के छम्ब' में जाकर ब्यास नदी में ही मिल जाती है। काली बेईं का सिख धर्म के लिए बड़ा धार्मिक महत्व है और इसे पवित्र माना जाता है। यही वह नदी है जिसके किनारे पर सिखों के पहले गुरू नानक देव जी ने 14 साल 9 महीने और 13 दिन व्यतीत किये थे। इसके बाद उन्होंने इसी नदी के तट पर सिख धर्म के मूल मंत्र ‘एक ओंकार सतनाम’ का सृजन किया था। बलबीर सिंह सीचेवाल नामक एक संत ने एक सौ साठ किलोमीटर लंबी 'काली बेई' नदी को 'जीवित' किया है। पर्यावरण बचाने के लिए नदियों का संरक्षण भी जरूरी है यह उनका दृढ़ विश्वास है। .

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कूका

कूका एक सिख संप्रदाय है जिसे नामधारी भी कहते हैं। इस सप्रंदाय की स्थापना रामसिंह नामक एक लुहार ने की थी जिसका जन्म 1824 ई. में लुधियाना जिले के भेणी नामक ग्राम में हुआ था। उन दिनों सिख धर्म का जो प्रचलित रूप था वह रामसिंह को मान्य न था। गुरु नानक के समय जो धर्म का स्वरूप था उसे पुन: प्रतिष्ठित करने के निमित्त वे लोकप्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक आचार विचार की कटु आलोचना करने लगे। धीरे-धीरे उनके विचारों से सहमत होनेवाले लोगों का एक सप्रंदाय बन गया। इस धार्मिक संप्रदाय ने आगे चलकर एक क्रांतिकारी राष्ट्रीय दल का रूप धारण कर लिया। महाराष्ट्र के संत रामदास ने महाराष्ट्र में स्वतंत्रता के मंत्र फूँके थे, कुछ उसी तरह का कार्य रामसिंह ने भी किया और 1864 ई. में उन्होंने अपने अनुयायियों को ब्रिटिश सरकार से असहयोग करने का आदेश दिया। इस आदेश के फलस्वरूप इस संप्रदाय ने पंजाब में स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया। तब सरकार ने इस पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। रामसिंह और उनके अनुयायियों ने गुप्त रूप से कार्य करना आरंभ किया। गुप्त रूप से शास्त्रास्त्र एकत्र करना और सैनिकों को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उभारने का काम किया जाने लगा। इस प्रकार वे लोग पाँच वर्ष तक गुप्त रूप से कार्य करते रहे। 1872 ई. में एक जगह मुसलमानों ने गोवध करना चाहा। कूकापंथियों ने उसका विरोध किया। दोनों दलों के बीच गहरा संघर्ष हुआ। ब्रिटिश सरकार ने रामसिंह को गिरफ्तार कर ब्रह्मदेश (म्यानमार) भेज दिया जहाँ 1885 ई. में उनका निधन हुआ। इसके बाद कूकापंथ का विद्रोहात्मक रूप समाप्त हो गया किंतु धार्मिक संप्रदाय के रूप में पंजाब में आज भी लोहार, जाट आदि अनेक लोगों के बीच इसका महत्व बना हुआ है। .

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अरदास

अरदास का सामान्य अर्थ परमशक्ति के आगे विनती करने से है। सिख धर्म की प्रथाओं (रहत मर्यादा) में अरदास का एक मानक रूप है, जो कि गुरुद्वारों में प्रतिदिन की जाती है।यह किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को आरंभ करने से पहले या करने के बाद की जाती है; सुबह और शाम को बाणी के पाठ के बाद की जाती है। दुःख हो या खुशी हर अवसर पर, गुरु का सिख गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अरदास करता है। अरदास का यह मानक रूप इस प्रकार है - .

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अष्टांगयोग

महर्षि पतंजलि ने आठ अंगों की योग साधना का तरीका बताया है:-.

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अकाली

अकाल शब्द का शब्दार्थ है - 'कालरहित'। भूत, भविष्य तथा वर्तमान से परे, पूर्ण अमरज्योति ईश्वर, जो जन्ममरण के बंधन से मुक्त है और सदा सच्चिदानंद स्वरूप रहता है, उसी का अकाल शब्द द्वारा बोध कराया गया है। उसी परमेश्वर में सदा रमण करने वाला अकाली कहलाया। कुछ लोग इसका अर्थ काल से भी न डरने वाला लेते हैं। परंतु तत्वतः दोनों भावों में कोई भेद नहीं है। सिक्ख धर्म में इस शब्द का विशेष महत्व है। सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव ने परमपुरुष परमात्मा की आराधना इसी अकालपुरुष की उपासना के रूप में प्रसारित की। उन्होंने उपदेश दिया कि हमें संकीर्ण जातिगत, धर्मगत तथा देशगत भावों से ऊपर उठकर विश्व के समस्त धर्मों के मानने वालों से प्रेम करना चाहिए। उनसे विरोध न करके मैत्रीभाव का आचरण करना चाहिए, क्योंकि हम सब उसी अकालपुरुष की संतान हैं। सिक्ख गुरुओं की वाणियों से यह स्पष्ट है कि सभी सिक्ख संतों ने अकालपुरुष की महत्ता को और दृढ़ किया और उसी के प्रति पूर्ण उत्सर्ग की भावना जागृत की। प्रत्येक अकाली के लिए जीवन निर्वाह का एक बलिदानपूर्ण दर्शन बना जिसके कारण वे अन्य सिक्खों में पृथक् दिखाई देने लगे। इसी परंपरा में सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंद ने अकाल बुंगे की स्थापना की। बुंगे का अर्थ है एक बड़ा भवन जिसके ऊपर गुंबज हो। इसके भीतर अकाल तख्त (अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के सम्मुख) की रचना की गई और इसी भवन में अकालियों की गुप्त मंत्रणाएँ और गोष्ठियाँ होने लगीं। इनमें जो निर्णय होते थे उन्हें गुरुमताँ अर्थात् गुरु का आदेश नाम दिया गया। धार्मिक समारोह के रूप में ये सम्मेलन होते थे। मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित जनता की रक्षा ही इस धार्मिक संगठन का गुप्त उद्देश्य था। यही कारण था कि अकाली आंदोलन को राजनीतिक गतिविधि मिली। बुंगे से ही गुरुमताँ को आदेश रूप से सब ओर प्रसारित किया जाता था और वे आदर्श कार्य रूप में परिणत किए जाते थे। अकाल बुंगे का अकाली वही हो सकता था जो नामवाणी का प्रेमी हो और पूर्ण त्याग और विराग का परिचय दे। ये लोग बड़े शूर वीर, निर्भय, पवित्र और स्वतंत्र होते थे। निर्बलों, बूढ़ों, बच्चों और अबलाओं की रक्षा करना ये अपना धर्म समझते थे। सबके प्रति इनका मैत्रीभाव रहता था। मनुष्य मात्र की सेवा करना इनका कर्तव्य था। अपने सिर को हमेशा ये हथेली पर लिए रहते थे। 30 मार्च सन् 1699 को गुरु गोविंदसिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की। इस पंथ के अनुयायी अकाली ही थे। औरंगजेब के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए अकाली खालसा सेना के रूप में सामने आए। गुरु ने उन्हें नीले वस्त्र पहनने का आदेश दिया और पाँच ककार (कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश तथा कंघा) धारण करना भी उनके लिए अनिवार्य हुआ। अकाली सेना की एक शाखा सरदार मानसिंह के नेतृत्व में निहंग सिंही के नाम से प्रसिद्ध हुई। फारसी भाषा में निहंग का अर्थ मगरमच्छ है जिसका तात्पर्य उस निर्भय व्यक्ति से है जो किसी अत्याचार के समक्ष नहीं झुकता। इसका संस्कृत अर्थ निसर्ग है अर्थात् पूर्ण रूप से अपरिग्रही, पुत्र, कलत्र और संसार से विरक्त पूरा-पूरा अनिकेतन। निहंग लोग विवाह नहीं करते थे और साधुओं की वृत्ति धारण करते थे। इनके जत्थे होते थे और उनका एक अगुआ जत्थेदार होता था। पीड़ितों, आर्तों और निर्बलों की रक्षा के साथ-साथ सिक्ख धर्म का प्रचार करना इनका पुनीत कर्तव्य था। जहाँ भी ये ठहरते थे, जनता इनका आदर करती थी। जिस घर में ये प्रवेश पाते थे वह अपने को परम सौभाग्यशाली समझता था। ये केवल अपने खाने भर को ही लिया करते थे और आदि न मिला तो उपवास करते थे। ये एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। कुछ लोग इनकी पक्षीवृत्ति देखकर इन्हें विहंगम भी कहते थे। सचमुच ही इनका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन था। वीर ये इतने थे कि प्रत्येक अकाली अपने को सवा लाख के बराबर समझता था। किसी की मृत्यु की सूचना भी यह कहकर दिया करते थे कि वह चढ़ाई कर गया, जैसे मृत्यु लोक में भी मृत प्राणी कहीं युद्ध के लिए गया हो। सूखे चने को ये लोग बदाम कहते थे और रुपए और सोने को ठीकरा कहकर अपनी असंग भावना का परिचय देते थे। पश्चिम से होने वाले अफगानों के आक्रमणों का मुकाबला करना और हिंदू कन्याओं और तरुणियों को पापी आततायियों के हाथों से उबारना इनका दैनिक कार्य था। महाराजा रणजीत सिंह के समय अकाली सेना अपने चरम उत्कर्ष पर थी। इसमें देश भर के चुने सिपाही होते थे। मुसलमान गाजियों का ये डटकर सामना करते थे। मुल्तान, कश्मीर, अटक, नौशेरा, जमशेद, अफगानिस्तान आदि तक इन्हीं के सहारे रणजीत सिंह ने अपना साम्राज्य बढ़ाया। अकाल सेना के पतन का कारण कायरों और पापियों का छद्मवेश में सेना के निहंगों में प्रवेश पाना था। इससे इस पंथ को बहुत धक्का लगा। अंग्रेजों ने भी अकालियों की वीरता से भयभीत होकर हमेशा उन्हें दबाने का प्रयास किया। इधर अकाली इतिहास में एक नया अध्याय आरंभ हुआ। जो गुरुद्वारे और धर्मशालाएँ दसों सिक्ख गुरुओं ने धर्मप्रचार और जनता की सेवा के लिए स्थापित की थीं और जिन्हें सदृढ़ रखने के लिए महाराज रणजीत सिंह ने बड़ी-बड़ी जागीरें लगवा दी थीं वे अंग्रेजी राज्य के समय अनेक नीच आचरण वाले महंतों और पुजारियों के अधिकार में पहुँच गई थीं। उनमें सब प्रकार के दुराचरण होने लगे थे। उनके विरोध में कुछ सिक्ख तरुणों ने गुरुद्वारों के उद्धार के लिए अक्टूबर, सन् 1920 में अकालियों की एक नई सेना एकत्रित की। इसका उद्देश्य अकालियों की पूर्व परंपरा के अनुसार त्याग और पवित्रता का व्रत लेना था। इन्होंने कई नगरों में अत्याचारी महंतों को हटाकर मठों पर अधिकार कर लिया। इस समय गुरुनानक की जन्मभूमि ननकाना साहब (जिला शेखपुरा, वर्तमान पाकिस्तान में) के गुरुद्वारे पर महंत नारायण दास का अधिकार था। उससे मुक्त करने के लिए भी गुरुमता (प्रस्ताव) पास किया गया। सरदार लक्ष्मण सिंह ने 200 अकालियों के साथ चढ़ाई की; परंतु उनका तथा उनके साथियों का बड़ी निर्दयता के साथ वध कर दिया गया और उन्हें नाना प्रकार की क्रूर यातनाएँ दी गईं। और भी बहुत से मठों को छीनने में अकालियों को अनेक बलिदान करने पड़े। ब्रिटिश सरकार ने पहले महंतों की भरपूर सहायता की परंतु अंत में अकालियों की जीत हुई। सन् 1925 तक समस्त गुरुद्वारे, शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के अंतर्गत धारा 195 के अनुसार आ गए। अकालियों की सहायता में महात्मा गांधी ने बड़ा योग दिया और भारतीय कांग्रेस ने अकाली आंदोलन को पूरा-पूरा सहयोग दिया। सन् 1925 से गुरुद्वारा ऐक्ट बनने के पश्चात् इसी के अनुसार गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का पहला निर्वाचन 2 अक्टूबर 1926 को हुआ। अब शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का निर्वाचन प्रति पाँचवें वर्ष होता है। इस समिति का प्रमुख कार्य गुरुद्वारों की देखभाल, धर्म प्रचार, विद्या का प्रसार इत्यादि है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के अतिरिक्त एक केंद्रीय शिरोमणि अकाली दल भी अमृतसर में स्थापित है। इसके जत्थे हर जिले में यथाशक्ति गुरुद्वारों का प्रबंध और जनता की सेवा करते हैं। .

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अकोई साहिब

अकोई साहिब मलेरकोट्ला-संगरूर मार्ग पर स्थित पंजाब का एक गाँव है, जो संगरूर से पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। इस गाँव में सिक्खों के तीन गुरू - गुरु नानक देव, गुरु हरगोविन्द सिंह और गुरु तेग बहादुर। .

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उदासी सम्प्रदाय

उदासी संप्रदाय सिख-साधुओं का एक सम्प्रदाय है जिसकी कुछ शिक्षाएँ सिख पंथ से लीं गयीं हैं। इसके संस्थापक गुरु नानक के पुत्र श्री चन्द (1494–1643) थे। ये लोग सनातन धर्म को मानते हैं तथा पंच-प्रकृति (जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश) की पूजा करते हैं। उदासी सम्प्रदाय के साधु सांसारिक बातों की ओर से विशेष रूप से तटस्थ रहते आए हैं और इनकी भोली भाली एवं सादी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण इन्हें सिख गुरु अमरदास तथा गुरु गोविन्द सिंह ने जैन धर्म द्वारा प्रभावित और अकर्मण्य तक मान लिया था। परंतु गुरु हरगोविंद के पुत्र बाबा गुराँदित्ता ने संप्रदाय के संगठन एवं विकास में सहयोग दिया और तब से इसका अधिक प्रचार भी हुआ। .

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२२ सितम्बर

22 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 265वॉ (लीप वर्ष में 266 वॉ) दिन है। साल में अभी और 100 दिन बाकी है। .

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नानक, नानक देव, बाबा नानक, गुरु नानक देव, गुरु नानकदेव, गुरू नानक, गुरू नानक देव

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