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कुरुक्षेत्र

सूची कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र(Kurukshetra) हरियाणा राज्य का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है तथा दिल्ली और अमृतसर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। .

81 संबंधों: चतुरंगिणी, चौदहवीं लोकसभा, एशियाई राजमार्ग २, झेलम एक्स्प्रेस १०७७, तराइन का युद्ध, थानेसर, दुःशला, द्रोणाचार्य, दीनानाथ बत्रा, नरवाना, नायर, नौगाजा पीर, पानीपत, पिपली, पुराण, पेहवा, बंसी लाल, ब्रह्मसरोवर, भारत में विश्वविद्यालयों की सूची, भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ, भारत के मेलों की सूची, भारत के शहरों की सूची, भगदत्त, भीष्म का प्राण त्याग, भीष्मपर्व, महाभारत, महाभारत भाग १९, महाभारत के पात्र, महाभारत की संक्षिप्त कथा, महाराजा अग्रसेन कॉलेज, जगाधरी, मोहनलाल (अभिनेता), यशोवर्मन (कन्नौज नरेश), यजुर्वेद, युग वर्णन, यूनिवर्सिटी इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, राधाबाई, रामधारी सिंह 'दिनकर', राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरुक्षेत्र, राज कुमार सैनी, लक्ष्मी कांठम, शाहबाद मारकंडा, श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर, श्रीभार्गवराघवीयम्, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीकृष्ण का द्वारिका प्रस्थान, सत्य युग, सन्निहित सरोवर, सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सूरत, सरस्वती नदी, सरस्वती शिशु मंदिर, ..., संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, स्थानेश्वर महादेव मन्दिर, हरियाणा, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा के जिले, हिन्दू तीर्थ, हिन्दी पुस्तकों की सूची/क, जनमेजय, ज्योतिसर, विद्या भारती, विष्णु सहस्रनाम, खाण्डव वन, गुर्जर प्रतिहार राजवंश, गुसांईजी, गौड़पाद, ओडिआ चलचित्र सूची, आदि बद्री (हरियाणा), करनाल, कल्पना चावला, कुरु, कुरुक्षेत्र युद्ध, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कृष्ण, कैथल, कोस मीनार, अद्भुत रामायण, अपरा एकादशी, अम्बा, अगस्ति तारा, अक्षय वट, ४८ कोस भूमि की परिक्रमा सूचकांक विस्तार (31 अधिक) »

चतुरंगिणी

चतुरंगिणी - प्राचीन भारतीय संगठित सेना। सेना के चार अंग- हस्ती, अश्व, रथ, पदाति माने जाते हैं और जिस सेना में ये चारों हैं, वह चतुरंगिणी कहलाती है। चतुरंगबल शब्द भी इतिहासपुराणों में मिलता है। इस विषय में सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक रथ के साथ 10 गज, प्रत्येक गज के साथ 10 अश्व, प्रत्येक अश्व के साथ 10 पदाति रक्षक के रूप में रहते थे, इस प्रकार सेना प्राय: चतुरंगिणी ही होती थी। सेना की सबसे छोटी टुकड़ी (इकाई) 'पत्ति' कहलाती है, जिसमें एक गज, एक रथ, तीन अश्व, पाँच पदाति होते थे। ऐसी तीन पत्तियाँ सेनामुख कहलाती थीं। इस प्रकार तीन तीन गुना कर यथाक्रम गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी का संगठन किया जाता था। 10 अनीकिनी एक अक्षौहिणी के बराबर होती थी। तदनुसार एक अक्षौहिणी में 21870 गज, 21970 रथ, 65610 अश्व और 109350 पदाति होते थे। कुल योग 218700 होता था। कहते हैं, कुरुक्षेत्र के युद्ध में ऐसी 18 अक्षौहिणी सेना लड़ी थी। अक्षौहिणी का यह परिमाण महाभारत (आदि पर्व 2/19-27) में उल्लिखित है। महाभारत में (उद्योग पर्व 155/24-26) में सेना परिमाण की जो गणना है, उससे इस गणना में कुछ विलक्षणता है। शांतिपर्व 59/41-42 में 'अष्टांग सेना' का उल्लेख है, उसमें भी प्रथम चार यही चतुरंगिणी सेना है। श्रेणी:युद्ध श्रेणी:सुरक्षा श्रेणी:भारतीय संस्कृति श्रेणी:सेना.

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चौदहवीं लोकसभा

भारत में चौदहवीं लोकसभा का गठन अप्रैल-मई 2004 में होनेवाले आमचुनावोंके बाद हुआ था। .

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एशियाई राजमार्ग २

एशियाई राजमार्ग २ (ए एच २) एशियाई राजमार्ग जाल के अंतर्गत १३,१७७ किलोमीटर (८,१८८ मील) लम्बी एक सड़क है। यह इंडोनेशिया के देनपसार से शुरू होकर मेरक और सिंगापुर होते हुए ईरान के खोस्रावी नगर तक जाती है। .

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झेलम एक्स्प्रेस १०७७

झेलम एक्स्प्रेस झेलम एक्स्प्रेस १०७७ भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन पुणे जंक्शन रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:PUNE) से ०५:२०PM बजे छूटती है और जम्मू तवी रेलवे स्टेशन (स्टेशन कोड:JAT) पर ०८:५५AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है ३९ घंटे ३५ मिनट। झेलम एक्सप्रेस भारतीय रेल पर एक दैनिक ट्रेन है। यह पुणे से, जो महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी है से लेकर जम्मू तवी, जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी से उत्तर भारत मे चलती है। इसके अलावा, यह ट्रेन सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है; क्युंकि यह भारतीय सेना के मुख्यालय के दक्षिण कमान, पुणे को एक महत्त्वपूर्ण सीमा स्थित शहर से जोड़ता है। यह ट्रेन कुल मिलाकर ६५ स्टेशनों पर रूकती हैl यह ट्रैन कुल मिलाकर जम्मू तवी और पुणे के बीच २१७३ किलोमीटर का फासला तय करती हैl .

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तराइन का युद्ध

तराइन का युद्ध तराइन का युद्ध अथवा तरावड़ी का युद्ध युद्धों (1191 और 1192) की एक ऐसी शृंखला है, जिसने पूरे उत्तर भारत को मुस्लिम नियंत्रण के लिए खोल दिया। ये युद्ध मोहम्मद ग़ौरी (मूल नाम: मुईज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम) और अजमेर तथा दिल्ली के चौहान (चहमान) राजपूत शासक पृथ्वी राज तृतीय के बीच हुये। युद्ध क्षेत्र भारत के वर्तमान राज्य हरियाणा के करनाल जिले में करनाल और थानेश्वर (कुरुक्षेत्र) के बीच था, जो दिल्ली से 113 किमी उत्तर में स्थित है। .

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थानेसर

थानेसर या थानेश्वर (स्थानीश्वर) हरियाणा का ऐतिहासिक नगर एवं हिन्दुओं का तीर्थ है। यह सरस्वती घग्गर नदी के तट पर स्थित है।यह नगर कुरुक्षेत्र जिले में दिल्ली से १६० किमी उत्तर-पश्चिम में स्थित है। कुरुक्षेत्र का शहरी सीमा अब थानेसर से मिल गयी है।1014 में महमूद गजनवी ने थानेश्वर में लूटपाट की और चक्रस्वामी की मूर्ति तोड़कर मन्दिर को भारी नुकसान पहुँचाया .

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दुःशला

दुःशला दुर्योधन की बहन थी जिसका विवाह सिन्धु एवम सौविरा नरेश जयद्रथ से हुआ था जिसका वध अर्जुन द्वारा कुरुक्षेत्र में किया गया। दुःशला के पुत्र का नाम सुरथ था। जब अर्जुन कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद युधिष्ठिर द्वारा आयोजित अश्वमेध यज्ञ के परिणाम स्वरुप प्राप्त होने वाले कर को लेने सिन्धु पहुचे तो दु:शला के पौत्र से उनका युद्ध हुआ अर्जुन ने सदा दुर्योधन की बहन को अपनी बहन माना अतः वे अपनी बहन के पौत्र और सुरथ के पुत्र को जीवन दान दे कर सिन्धु को छोड़ आगे बढ़ गए। श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भरद्वाज एकबार नदी ने स्नान करने गए। स्नान के समाप्ति के बाद उन्होंने देखा की अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो परे और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्हीने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भरद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया, जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रु, पद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। .

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दीनानाथ बत्रा

दीनानाथ बत्रा 'शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति' के संस्थापक तथा राष्ट्रीय संयोजक हैं। वे विद्या भारती के महासचिव भी रह चुके हैं। वे पंजाब तथा हरियाणा में अंग्रेजी तथा हिन्दी विषयों के अध्यापक तथा प्रधानाचार्य रहे हैं। .

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नरवाना

नरवाना हरियाणा राज्य के जींद जिले में एक शहर है। .

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नायर

नायर (मलयालम: നായര്,, जो नैयर और मलयाला क्षत्रिय के रूप में भी विख्यात है), भारतीय राज्य केरल के हिन्दू उन्नत जाति का नाम है। 1792 में ब्रिटिश विजय से पहले, केरल राज्य में छोटे, सामंती क्षेत्र शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक शाही और कुलीन वंश में, नागरिक सेना और अधिकांश भू प्रबंधकों के लिए नायर और संबंधित जातियों से जुड़े व्यक्ति चुने जाते थे। नायर राजनीति, सरकारी सेवा, चिकित्सा, शिक्षा और क़ानून में प्रमुख थे। नायर शासक, योद्धा और केरल के भू-स्वामी कुलीन वर्गों में संस्थापित थे (भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व).

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नौगाजा पीर

नौगाजा पीर (पंजाबी: नोंगजा पीर) एक संत थे, जिनकी ऊंचाई 9 "गज" थी जो भारतीय मीट्रिक इकाइयों में 8 मीटर और 36 इंच या 27 फीट के बराबर होती है।Hindustan Times Vishal Joshi 12 09 2013 इनका नाम सैयद इब्राहिम बादशाह था, जो माना जाता है कि समय के साथ-साथ सभी कामों को पूरा करते थे। पंजाब क्षेत्र में नौगजा पीर के कई मंदिर हैं जो पंजाबी लोक धर्म का हिस्सा हैं।मंदिर नियमित रूप से पंजाब क्षेत्र के लोगों द्वारा दौरा किया जाता है।Hindustan Times Vishal Joshi 12 09 2013 .

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पानीपत

हरियाणा में पानीपत पानीपत, भारतीय राज्य हरियाणा के पानीपत जिले में स्थित एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। यह दिल्ली-चंडीगढ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के अन्तर्गत आता है और दिल्ली से ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत के इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली तीन प्रमुख लड़ाईयां यहां लड़ी गयी थी। प्राचीन काल में पांडवों एवं कौरवों के बीच महाभारत का युद्ध इसी के पास कुरुक्षेत्र में हुआ था, अत: इसका धार्मिक महत्व भी बढ़ गया है। महाभारत युद्ध के समय में युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच स्थान माँगे थे उनमें से यह भी एक था। आधुनिक युग में यहाँ पर तीन इतिहासप्रसिद्ध युद्ध भी हुए हैं। प्रथम युद्ध में, सन्‌ 1526 में बाबर ने भारत की तत्कालीन शाही सेना को हराया था। द्वितीय युद्ध में, सन्‌ 1556 में अकबर ने उसी स्थल पर अफगान आदिलशाह के जनरल हेमू को परास्त किया था। तीसरे युद्ध में, सन्‌ 1761 में, अहमदशाह दुर्रानी ने मराठों को हराया था। यहाँ अलाउद्दीन द्वारा बनवाया एक मकबरा भी है। नगर में पीतल के बरतन, छुरी, काँटे, चाकू बनाने तथा कपास ओटने का काम होता है। यहाँ शिक्षा एवं अस्पताल का भी उत्तम प्रबंध है। .

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पिपली

पिपली भारत के हरियाणा प्रान्त का शहर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 पर बसा यह कस्बा कुरुक्षेत्र का द्वार है तथा यहाँ का बस अड्डा कुरुक्षेत्र हाईवे बस अड्डा के नाम से भी जाना जाता है। श्रेणी:हरियाणा के शहर श्रेणी:कुरुक्षेत्र.

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पुराण

पुराण, हिंदुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत्का बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।Merriam-Webster's Encyclopedia of Literature (1995 Edition), Article on Puranas,, page 915 पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।Gregory Bailey (2003), The Study of Hinduism (Editor: Arvind Sharma), The University of South Carolina Press,, page 139 हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। John Cort (1993), Purana Perennis: Reciprocity and Transformation in Hindu and Jaina Texts (Editor: Wendy Doniger), State University of New York Press,, pages 185-204 पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताए जा सकते हैं। कर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं। पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंथ नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं। पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं। .

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पेहवा

पिहोवा (पेहवा, पेहोवा) हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले का एक नगर है। इसका पुराना नाम 'पृथूदक' है। यह एक प्रसिद्ध तीर्थ है। .

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बंसी लाल

चौधरी बंसीलाल (26 अगस्त 1927-28 मार्च 2006)(चौधरी बंसी लाल) एक भारयीय स्वतंत्रता सेनानी, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कई लोगों द्वारा आधुनिक हरियाणा के निर्माता माने जाते हैं। उनका जन्म हरियाणा के भिवानी जिले के गोलागढ़ गांव के जाट परिवार में हुआ था। उन्होंने तीन अलग-अलग अवधियों: 1968-197, 1985-87 एवं 1996-99 तक हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। बंसीलाल को 1975 में आपातकाल के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी का एक करीबी विश्वासपात्र माना जाता था। उन्होंने दिसंबर 1975 से मार्च 1977 तक रक्षा मंत्री के रूप में अपनी सेवाएं दी एवं 1975 में केंद्र सरकार में बिना विभाग के मंत्री के रूप में उनका एक संक्षिप्त कार्यकाल रहा। उन्होंने रेलवे और परिवहन विभागों का भी संचालन किया। लाल सात बार राज्य विधानसभा के लिए चुने गए, पहली बार 1967 में.

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ब्रह्मसरोवर

कुरूक्षेत्र के जिन स्थानों की प्रसिद्धि संपूर्ण विश्व में फैली हई है उनमें ब्रह्मसरोवर सबसे प्रमुख है। इस तीर्थ के विषय में विभिन्न प्रकार की किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। अगर उनकी बात हम न भी करें तो भी इस तीर्थ के विषय में महाभारत तथा वामन पुराण में भी उल्लेख मिलता है। जिसमें इस तीर्थ को परमपिता ब्रह्म जी से जोड़ा गया है। सूर्यग्रहण के अवसर पर यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर लाखों लोग ब्रह्मसरोवर में स्नान करते हैं। कई एकड़ में फैला हुआ यह तीर्थ वर्तमान में बहुत सुदंर एवं सुसज्जित बना दिया गया है। कुरूक्षेत्र विकास बोर्ड के द्वारा बहुत दर्शनीय रूप प्रदान किया गया है तथा रात्रि में प्रकाश की भी व्यवस्था की गयी है। श्रेणी:धार्मिक स्थान श्रेणी:हरियाणा.

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भारत में विश्वविद्यालयों की सूची

यहाँ भारत में विश्वविद्यालयों की सूची दी गई है। भारत में सार्वजनिक और निजी, दोनों विश्वविद्यालय हैं जिनमें से कई भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा समर्थित हैं। इनके अलावा निजी विश्वविद्यालय भी मौजूद हैं, जो विभिन्न निकायों और समितियों द्वारा समर्थित हैं। शीर्ष दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालयों के तहत सूचीबद्ध विश्वविद्यालयों में से अधिकांश भारत में स्थित हैं। .

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भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ

भारत अनादि काल से संस्कृति, आस्था, आस्तिकता और धर्म का महादेश रहा है। इसके हर भाग और प्रान्त में विभिन्न देवी-देवताओं से सम्बद्ध कुछ ऐसे अनेकानेक प्राचीन और (अपेक्षाकृत नए) धार्मिक स्थान (तीर्थ) हैं, जिनकी यात्रा के प्रति एक आम भारतीय नागरिक पर्यटन और धर्म-अध्यात्म दोनों ही आकर्षणों से बंधा इन तीर्थस्थलों की यात्रा के लिए सदैव से उत्सुक रहा है। .

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भारत के मेलों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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भारत के शहरों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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भगदत्त

भगवान कृष्ण नरकासुर के दुर्ग पर आक्रमण करते हुए भगदत्त प्राग्ज्योतिष (असम) देश के अधिपति, नरकासुर का पुत्र और इंद्र का मित्र था। वह अर्जुन का बहुत बडा़ प्रशंसक था, लेकिन कृष्ण का कट्टर प्रतिद्वंदी। एक बार भौमासुर ने इंद्र के कवच और कुंडल छीन लिए। इसपर कृष्ण ने क्रुद्ध होकर भौमासुर के सात पुत्रों का वध कर डाला। भूमि ने कृष्ण से भगदत्त की रक्षा के लिए अभयदान माँगा। भौमासुर की मृत्यु के पश्चात् भगदत्त प्राग्ज्योतिष के अधिपति बने। भगदत्त ने अर्जुन, भीम और कर्ण के साथ युद्ध किया। हस्ति युद्ध में भगदत्त अत्यंत कुशल थे। कृतज्ञ और वज्रदत्त नाम के इनके दो पुत्र थे, इनमें कृतज्ञ की मृत्यु नकुल के हाथ से हुई। वज्रदत्त राजा होने पर अर्जुन से पराजित हुआ। कुरुक्षेत्र के युद्ध में वह कौरव सेना की ओर से लडा़ और अपने विशालकाय हाथी के साथ उसने दर्शन सहित बहुत से योद्धओं का वध किया। अपने 'सौप्तिक' नामक हाथी पर उसने भीम को भी परास्त किया। भगदत्त के पास शक्ति अस्त्र और वैश्नव अस्त्र जैसे दिव्यास्त्र थे। उसके पुत्र क वध नकुल ने किया। १२ वें दिन के युद्ध में उसके वैष्णव अस्त्र को श्रीकृष्ण द्वारा विफ़ल किया गया और फिर अर्जुन ने उसका वध किया। .

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भीष्म का प्राण त्याग

अपने वंश के नाश से दुखी पाण्डव अपने समस्त बन्धु-बान्धवों तथा भगवान श्रीकृष्ण को साथ ले कर कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह के पास गये। भीष्म जी शरशैया पर पड़े हुये अपने अन्त समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। भरतवंश शिरोमणि भीष्म जी के दर्शन के लिये उस समय नारद, धौम्य, पर्वतमुनि, वेदव्यास, वृहदस्व, भारद्वाज, वशिष्ठ, त्रित, इन्द्रमद, परशुराम, गृत्समद, असित, गौतम, अत्रि, सुदर्शन, काक्षीवान्, विश्वामित्र, शुकदेव, कश्यप, अंगिरा आदि सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि अपने शिष्यों के साथ उपस्थित हुये। भीष्म पितामह ने भी उन सभी ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियों का धर्म, देश व काल के अनुसार यथेष्ठ सम्मान किया। सारे पाण्डव विनम्र भाव से भीष्म पितामह के पास जाकर बैठे। उन्हें देख कर भीष्म के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक उठे। उन्होंने कहा, "हे धर्मावतारों! अत्यन्त दुःख का विषय है कि आप लोगों को धर्म का आश्रय लेते हुये और भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहते हुये भी महान कष्ट सहने पड़े। बचपन में ही आपके पिता स्वर्गवासी हो गये, रानी कुन्ती ने बड़े कष्टों से आप लोगों को पाला। युवा होने पर दुर्योधन ने महान कष्ट दिया। परन्तु ये सारी घटनायें इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों को कष्ट में डाल कर उन्हें अपनी भक्ति देते हैं, की लीलाओं के कारण से ही हुये। जहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीमसेन, गाण्डीवधारी अर्जुन और रक्षक के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हों फिर वहाँ विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं? किन्तु इन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को बड़े बड़े ब्रह्मज्ञानी भी नहीं जान सकते। विश्व की सम्पूर्ण घटनायें ईश्वाराधीन हैं! अतः शोक और वेदना को त्याग कर निरीह प्रजा का पालन करो और सदा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहो। ये श्रीकृष्णचन्द्र सर्वशक्तिमान साक्षात् ईश्वर हैं, अपनी माया से हम सब को मोहित करके यदुवंश में अवतीर्ण हुये हैं। इस गूढ़ तत्व को भगवान शंकर, देवर्षि नारद और भगवान कपिल ही जानते हैं। तुम लोग तो इन्हें मामा का पुत्र, अपना भाई और हितू ही मानते हो। तुमने इन्हें प्रेमपाश में बाँध कर अपना दूत, मन्त्री और यहाँ तक कि सारथी बना लिया है। इनसे अपने अतिथियों के चरण भी धुलवाये हैं। हे धर्मराज! ये समदर्शी होने पर भी अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं तभी यह मेरे अन्त समय में मुझे दर्शन देने कि लिये यहाँ पधारे हैं। जो भक्तजन भक्तिभाव से इनका स्मरण, कीर्तन करते हुये शरीर त्याग करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। मेरी यही कामना है कि इन्हीं के दर्शन करते हुये मैं अपना शरीर त्याग कर दूँ। धर्मराज युधिष्ठिर ने शरशैया पर पड़े हुये भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्वज्ञानी एवं धर्मेवेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति-प्रवृति आदि के सम्बंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये तथा दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म, भगवत्धर्म, द्विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया। उसी काल में उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदान्द भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को रो कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे - "मै अपने इस शुद्ध मन को देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुये भी अपनी लीला विलास के लिये योगमाया द्वारा इस संसार की श्रृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीताम्बरधारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कण्ठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किये हुये हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो। इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्मरूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया। देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की और दुंदुभी बजाये। युधिष्ठिर ने उनके शव की अन्त्येष्टि क्रिया की। .

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भीष्मपर्व

भीष्म पर्व के अन्तर्गत ४ उपपर्व हैं और इसमें कुल १२२ अध्याय हैं। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महाभारत भाग १९

बाणो की शय्या पर लेटे भीष्म दसवें दिन अर्जुन ने वीरवर भीष्म पर बाणों की बड़ी भारी वृष्टि की। इधर द्रुपद की प्रेरणा से शिखण्डी ने भी पानी बरसाने वाले मेघ की भाँति भीष्म पर बाणों की झड़ी लगा दी। दोनों ओर के हाथीसवार, घुड़सवार, रथी और पैदल एक-दूसरे के बाणों से मारे गये। भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी। जब पांडवों को ये समझ में आ गया की भीष्म के रहते वो इस युद्ध को नहीं जीत सकते तो श्रीकृष्ण के सुझाव पर उन्होंने भीष्म पितामह से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछा.

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महाभारत के पात्र

* विदुर: हस्तिनापुर का महामंत्री।.

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महाभारत की संक्षिप्त कथा

महाभारत प्राचीन भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य है। ये एक धार्मिक ग्रन्थ भी है। इसमें उस समय का इतिहास लगभग १,११,००० श्लोकों में लिखा हुआ है। इस की पूर्ण कथा का संक्षेप इस प्रकार से है। .

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महाराजा अग्रसेन कॉलेज, जगाधरी

महाराजा अग्रसेन कॉलेज कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से संलग्न कला और वाणिज्य का महाविद्यालय हैं, जो जगाधरी, हरियाणा में स्थित हैं। कॉलेज की स्थापना सन 1971 में 'महाराजा अग्रसेन सभा, जगाधरी' द्वारा किया गया था। .

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मोहनलाल (अभिनेता)

मोहनलाल विश्वनाथन नायर (जन्म 21 मई 1960), एक नाम मोहनलाल या लाल के नाम से जाने जाने वाले, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध भारतीय फिल्म अभिनेता और निर्माता हैं, जो मलयालम सिनेमा का सब सबसे बड़ा नाम है।മോഹന്‍ലാല്‍ चार बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता रहे मोहनलाल ने दो सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार, एक विशेष जूरी पुरस्कार और एक सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार (निर्माता के रूप में) जीता। 2001 में भारत सरकार ने उन्हें भारतीय सिनेमा के प्रति योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया। सन 2009 में भारतीय प्रादेशिक सेना द्वारा उन्हें मानद लेफ्टिनेंट कर्नल का पद दिया गया,Lt.Col.

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यशोवर्मन (कन्नौज नरेश)

हिमालय.jpg himalaya यशोवर्मन का राज्यकाल ७०० से ७४० ई० के बीच में रखा जा सकता है। कन्नौज उसकी राजधानी थी। कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर इसके पहले हर्ष का शासन था जो बिना उत्तराधिकारी छोड़े ही मर गये जिससे शक्ति का 'निर्वात' पैदा हुआ। यह भी संभ्भावना है कि उसे राज्याधिकार इससे पहले ही ६९० ई० के लगभग मिला हो। यशोवर्मन्‌ के वंश और उसके प्रारंभिक जीवन के विषय में कुछ निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। केवल वर्मन्‌ नामांत के आधार पर उसे मौखरि वंश से संबंधित नहीं किया जा सकता। जैन ग्रंथ बप्प भट्ट, सूरिचरित और प्रभावक चरित में उसे चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज कहा गया है किंतु यह संदिग्ध है। उसका नालंदा अभिलेख इस विषय पर मौन है। गउडवहो में उसे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। गउडवहो में यशोवर्मन्‌ की विजययात्रा का वर्णन है। सर्वप्रथम इसके बाद बंग के नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की। दक्षिणी पठार के एक नरेश को अधीन बनाता हुआ, मलय पर्वत को पार कर वह समुद्रतट तक पहुँचा। उसने पारसीकों (पारसी) को पराजित किया और पश्चिमी घाट के दुर्गम प्रदेशों से भी कर वसूल किया। नर्मदा नदी पहुँचकर, समुद्रतट के समीप से वह मरू देश पहुँचा। तत्पश्चात्‌ श्रीकंठ (थानेश्वर) और कुरूक्षेत्र होते हुए वह अयोध्या गया। मंदर पर्वत पर रहनेवालों को अधीन बनाता हुआ वह हिमालय पहुँचा और अपनी राजधानी कन्नौज लौटा। इस विरण में परंपरागत दिग्विजय का अनुसरण दिखलाई पड़ता है। पराजित राजाओं का नाम न देने के कारण वर्णन संदिग्ध लगता है। यदि मगध के पराजित नरेश को ही गौड़ के नरेश स्वीकार कर लिया जाय तो भी इस मुख्य घटना को ग्रंथ में जो स्थान दिया गया है वह अत्यल्प है। किंतु उस युग की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसी विजयों को असंभव कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। अन्य प्रमाणों से विभिन्न दिशाओं में यशोवर्मन्‌ की कुछ विजयों का संकेत और समर्थन प्राप्त होता है। नालंदा के अभिलेख में भी उसकी प्रभुता का उल्लेख है। अभिलेख का प्राप्तिस्थान मगध पर उसके अधिकार का प्रमाण है। चालुक्य अभिलेखों में सकलोत्तरापथनाथ के रूप में संभवत: उसी का निर्देश है और उसी ने चालुक्य युवराज विजयादित्य को बंदी बनाया था। अरबों का कन्नौज पर आक्रमण सभवत: उसी के कारण विफल हुआ। कश्मीर के ललितादित्य से भी आरंभ में उसके संबंध मैत्रीपूर्ण थे और संभवत: दोनों ने अरब और तिब्बत के विरूद्ध चीन की सहायता चाही हो किंतु शीघ्र ही ललितादित्य और यशोवर्मन्‌ की महत्वाकांक्षाओं के फलस्वरूप दीर्घकालीन संघर्ष हुआ। संधि के प्रयत्न असफल हुए और यशोंवर्मन्‌ पराजित हुआ। संभवत: युद्ध में यशोवर्मन्‌ की मृत्यु नहीं हुई थी, फिर भी इतिहास के लिये उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यशेवर्मन्‌ ने भवभूति और वाक्पतिराज जैसे प्रसिद्ध कवियों को आश्रय दिया था। वह स्वयं कवि था। सुभाषित ग्रथों के कुछ पद्यों और रामाभ्युदय नाटक का रचयिता कहा जाता है। उसने मगध में अपने नाम से नगर बसाया था। उसका यश गउडवहो और राजतरंगिणी के अतिरिक्त जैन ग्रंथ प्रभावक चरित, प्रबंधकोष और बप्पभट्ट चरित एवं उसके नालंदा के अभिलेख में परिलक्षित होता है। कश्मीर से यशोवर्मा के नाम के सिक्के प्राप्त होते हैं। यशोवर्मा के संबंध में विद्वानों ने अटकलबाजियाँ लगाई थीं। कुछ ने उसे कन्नौज का यशोवर्मन्‌ ही माना है। किंतु अब इसमें संदेह नहीं रह गया है कि यशोवर्मा कश्मीर के उत्पलवंशीय नरेश शंकरवर्मन का ही दूसरा नाम था। .

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यजुर्वेद

यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ॠग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।। भारत कोष पर देखें इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं: दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई।। ब्रज डिस्कवरी कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू.

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युग वर्णन

युग का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। उदाहरणः कलियुग, द्वापर, सत्ययुग, त्रेतायुग आदि। युग वर्णन का अर्थ होता है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई होती है एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय दे। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है: .

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यूनिवर्सिटी इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालय अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (UIET) उत्तम तकनीकी शिक्षा देने और अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी में अनुसंधान के एक "उत्कृष्टता केंद्र" के रूप में विकसित करने के लिए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा २००४ में स्थापित किया गया था। यह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के विश्वविद्यालय परिसर में स्थित एक सरकारी महाविद्यालय है.

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राधाबाई

राधाबाई नेवास के बर्वे परिवार की कन्या थीं जिनका विवाह बालाजी विश्वनाथ के साथ हुआ था। इनके पिता का नाम डुबेरकर अंताजी मल्हार बर्वे था। राधाबाई बालाजी के पिता विश्वनाथ भट्ट सिद्दियों के अधीन श्रीवर्धन गाँव के देशमुख थे। भारत के पश्चिमी सिद्दियों से न पटने के कारण विश्वनाथ और बालाजी श्रीवर्धन गाँव छोड़कर बेला नामक स्थान पर भानु भाइयों के साथ रहने लगे। राधाबाई भी अपने परिवार के साथ बेला में रहने लगीं। कुछ समय पश्चात् बालाजी डंडाराजपुरी के देशमुख हो गए। १६९९ ई. से १७०८ ई. तक वे पूना के सर-सूबेदार रहे। राधाबाई में त्याग, दृढ़ता, कार्यकुशलता, व्यवहारचातुर्य और उदारता आदि गुण थे। राधाबाई एवं बालाजी के दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। इनके बड़े पुत्र बाजीराव का जन्म १७०० ई. में और दूसरे पुत्र चिमाजी अप्पा का सन् १७१० में हुआ था। इनकी पुत्रियों के नाम अनुबाई और भिऊबाई थे। बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु सन् १७२० में हुई। राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ, यद्यपि उनके पुत्र बाजीराव पेशवा बनाए गए। राधाबाई राज्य के विभिन्न कार्यों में बाजीराव को उचित सलाह देती थीं। जब १७३५ में राधाबाई ने तीर्थयात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की, चिमाजी अप्पा ने इसका प्रबंध शीघ्र ही किया। १४ फरवरी को इन्होंने पूना से प्रस्थान किया। ८ मार्च को वे बुरहानपुर पहुँची। ६ मई को उदयपुर में उन्हें राजकीय सम्मान मिला। २१ मई को नाथद्वारा का दर्शन किया और २१ जून को जयपुर पहुँची। सवाई राजा जयसिंह ने उनका अत्यधिक आदर सत्कार किया। वे यहाँ तीन माह तक ठहरीं। सितंबर मास में वे जयपुर से चल पड़ीं। वे मथुरा, वृंदावन, कुरुक्षेत्र और प्रयाग होती हुईं १७ अक्टूबर को वाराणसी पहुँच गईं। वहाँ से दिसंबर के अंतिम सप्ताह में गया की ओर प्रस्थान किया। वहीं से १७३६ में वे वापसी यात्रा पर चल पड़ीं। मार्ग में स्थानीय शासकों ने उनके लिए अंगरक्षकों की व्यवस्था की। मोहम्मद खान बंगश ने राधाबाई का बहुत सम्मान किया और उन्हें बहुमूल्य उपहार प्रदान किए। राधाबाई प्रसन्न हुई और १ जून, १७३६ ई. को पूना पहुंचीं। राधाबाई की इस यात्रा ने साधारणत: मराठों के लिए और विशेषकर पेशवा बाजीराव के लिए मित्रतापूर्ण वातावरण का निर्माण किया। राधाबाई को यात्रा से लौट दो वर्ष भी न हो पाए थे कि उन्हें एक और परिस्थिति का सामना करना पड़ा। मस्तानी और बाजीराव का संबंध सरदारों की आलोचना का विषय बन चुका था। बाजीराव के आलोचकों का वर्ताव उस समय और तीव्र हुआ जब पेशवा परिवार में रघुनाथ राव का उपनयन और सदाशिव राव का विवाह होने वाला था। पंडितों ने किसी भी ऐसे कार्य में भाग न लेने का निर्णय किया। राधाबाई ने बाजीराव को विशेष रूप से सतर्क रहने के लिए लिखा। अंतत: राधाबाई उपर्युक्त कार्य कराने में सफल हुई। मस्तानी और बाजीराव के संबंध को विशेष महत्व कभी नहीं दिया अपितु सदा ही यह प्रयत्न किया कि परिवार में फूट की स्थिति न उत्पन्न हो और पेशवा परिवार का सम्मान भी बना रहे। चिमाजी अप्पा ने मस्तानी को कैद किया। राधाबाई ने मस्तानी को कैद से छुड़ाया और वह बाजीराव के पास आ गई। बाजीराव ने भी राधाबाई की आज्ञाओं का पालन किया। १७४० ई. के अप्रैल मास में बाजीराव की मृत्यु से राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ। पाँच माह पश्चात् ही चिमाजी अप्पा की भी मृत्यु हो गई। अब राधाबाई का उत्साह शिथिल पड़ गया। फिर भी, जब कभी आवश्यकता पड़ती थी, वे परिवार की सेवा और राजकीय कार्यों में बालाजी बाजीराव को उचित परामर्श देतीं थीं। १७५२ ई. में जब पेशवा दक्षिण की ओर गए हुए थे राधाबाई ने ताराबाई और उमाबाई की सम्मिलित सेना को पूना की ओर बढ़ने से रोकने का उपाय किया। दूसरे अवसर पर उन्होंने बाबूजी नाइक को पेशवा बालाजी के विरुद्ध अनशन करने से रोका। राधाबाई ने तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लिया। इनके व्यवहार में कभी भी कटुता नहीं आने पाती थी। इन्होंने अपने परिवार को साधारण स्थिति से पेशवा पद प्राप्त करते देखा। २० मार्च, १७५३ ई. को इनकी मृत्यु हुई। श्रेणी:मराठा साम्राज्य.

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रामधारी सिंह 'दिनकर'

रामधारी सिंह 'दिनकर' (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया। .

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राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरुक्षेत्र

राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान, कुरुक्षेत्र, हरियाणा क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कालेज, कुरूक्षेत्र की स्थापना १९६३ में की गई थी तथा इसे २६ जून २००२ को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरूक्षेत्र के रूप में स्तरोन्नत किया गया था। संस्थान सिविल इंजीनियरिंग, इलैक्ट्रीकल इंजीनियरिंग, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, इलैक्ट्रॅनिक्स तथा संचार इंजीनियरिंग, औद्योगिक इंजीनियरिंग, सूचना प्रौद्योगिकी तथा कम्प्यूटर इंजीनियरिंग जैसे विषयों में ७ अवर स्नातक पाठयक्रम संचालित करता है। संस्थान इन विषयों में स्नातकोत्तर पाठयक्रम भी संचालित करता है। संस्थान के पास सुविकसित कैंपस तथा फाइवर आपटिक के माध्यम से कम्प्यूटर नेटवर्किंग भी है। .

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राज कुमार सैनी

राजकुमार सैनी भारतीय राजनीतिज्ञ हैं। राजकुमार सैनी वर्तमान में संसद सदस्य हैं। वह हरियाणा राज्य के कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं। वह मई 2014 में में सदस्य बने। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से 2014 का लोकसभा चुनाव कुरुक्षेत्र से लड़ा और कांग्रेस पार्टी से दो बार लगातार सांसद रह चुके उद्योगपति नवीन जिंदल को भारी मतों से हराया। राजकुमार सैनी भारत के एकमात्र नेता है जिन्होंने लोकतंत्र के सबसे निचले सदन "पंचायत" से लेकर उच्च सदन "लोकसभा" तक के सभी चुनाव लड़े व जीते हैं। राजकुमार सैनी एक हैं, जो अपनी नीतियों और योजनाओं के बलबूते देश की सेवा करना चाहते हैं। .

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लक्ष्मी कांठम

माननेपल्ली लक्ष्मी कांठम एक भारतीय वैज्ञानिक हैं। वह सीएसआईआर-आईआईसीटी की निर्देशक हैं और १९८२ में प्रो.

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शाहबाद मारकंडा

शाहबाद मारकंडा हरियाणा का एक शहर है जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर अंबाला व कुरूक्षेत्र के मध्य स्थित है। भारतीय महिला हॉकी टीम की कई सदस्याएं इसी एक शहर से हैं। .

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श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर

श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर कुरुक्षेत्र की पावन धरती पर स्थित है। लोक मन्यता है कि महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन समेत यहा भगवान शिव की उपासना कर अशिर्वाद प्राप्त किया था। इस तिर्थ की खासियत यह भी है कि यहा मन्दिर व गुरुद्वरा एक हि दिवार से लगते हैं। यहा पर हजारो देशी विदेशी पर्यटक दर्शन हेतु आते हैं .

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीमद्भगवद्गीता

कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग ८वीं सदी के अंत में शंकराचार्य (७८८-८२०) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। १०वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है। गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। .

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श्रीकृष्ण का द्वारिका प्रस्थान

कौरव पाण्डव दोनों वंश काल की गति से परस्पर लड़ कर नष्ट हो गये। केवल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की कृपा से उत्तरा का गर्भ ही सुरक्षित रह गया। धर्मराज युधिष्ठिर के राज्य में अधर्म का नाश हो गया। वे देवराज इन्द्र की भाँति सम्पूरण पृथ्वी पर शासन करने लगे। उनके चारों भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनकी आज्ञा का पालन करते थे। राज्य में यथासमय वृष्टि होती थी, पृथ्वी उर्वरा होकर समुचित मात्रा से भी अधिक अन्न तथा फल उत्पन्न करती थी और रत्नों से भरपूर थी, गौएँ पर्याप्त से भी अधिक मात्रा में दूध देती थीं, अकाल का कहीं नामोनिशान तक न था। प्रजा सुखी थी, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण तथा स्नातक यज्ञ योगादि कर्मों को नित्य नियमपूर्वक करते थे। प्रजा वर्ण आश्रमों के अनुकूल धर्म का आचरण करती थी। सम्पूर्ण प्राणी दैविक, भौतिक और आत्मिक तापों से मुक्त थे। अपनी बहन सुभद्रा तथा पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये अनेक मासों तक हस्तिनापुर में रहने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, राजा युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर, द्वारिका के लिये विदा हुये। कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, उत्तरा, युयुत्स, गुरु धौम्य तथा वेदव्यास जी ने उन्हें प्रेमपूर्वक विदा किया। विदाई के समय मृदंग, ढोल, नगाड़े, घण्ट, शंख, झालर आदि बजने लगे। नगर की नारियाँ अपनी-अपनी अट्टालिकाओं से झाँक कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन करने लगीं। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। यद्यपि भगवान के लिये ब्राह्मणों के आशीर्वाद का कोई महत्व नहीं था फिर भी लोकाचार के अनुसार ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को आशीर्वचन कहने लगे। उन्हें को किसी प्रकार की सुरक्षा की भी आवश्यकता नहीं थी फिर भी धर्मराज युधिष्ठिर ने एक विशाल सेना उनके साथ भेज दिया। सभी पाण्डव दूर तक भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को छोड़ने के लिये गये। सभी लोगों को वापस जाने के लिये कह कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने केवल उद्धव और सात्यकी को अपने साथ रखा। वे विशाल सेना के साथ कुरुजांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना के निकटवर्ती अनेक प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत मरु प्रदेश आदि को लांघते हुये सौवीर और आभीर देशों के पश्चिमी भाग आनर्त्त देश में पहुँचे। थके हुये घोड़ों को रथ से खोल कर विश्राम दिया गया। जिस प्रान्त से भी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र गुजरते थे वहाँ के राजा बड़े आदर के साथ अनेक प्रकार के उपहार दे कर उनका सत्कार करते थे। मगन भये नर नारि सब, सुनि आगम यदुराय। ले लेकर उपहार बहु, धाये जन हरषाय॥ आनर्त्त देश अति सम्पन्न और वैभवयुक्त था तथा उसी के निकट अमरावती के समान उनकी नगरी द्वारिकपुरी थी। अपनी सीमा में पहुँचते ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया जिसकी ध्वनि से सम्पूर्ण प्रजा की विरह वेदना नष्ट हो गई। श्वेत शंख उनके ओष्ठों तथा करों पर ऐसा शोभायमान था जैसे लाल कमल पर राजहंस शोभा पाता है। उनके शंख की ध्वनि को सुन कर सम्पूर्ण प्रजा उनके दर्शनों के लिये गृहों से निकल पड़ी। जो जिस भी हालत में था उसी हालत में ऐसे दौड़ कर आया जैसे गाय के रंभाने की ध्वनि सुन कर बछड़ा दौड़ कर आता है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करके सबके मुखों पर प्रसन्नता छा गई और वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे - "हे भगवन्! आपके चरणों की स्तुति ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्रादि सभी देवता करते हैं। आप ही विश्व का कल्याण करते हैं। ये चरण कमल हमारा आश्रय है। इन चरणों की कृपा से कराल काल भी हमारी ओर दृष्टि नहीं कर सकता। आप ही हमारे गुरु, माता-पिता और मित्र हैं। आपके दर्शन बड़े बड़े योगीजन, तपस्वी तथा देवताओं को भी प्राप्त नहीं होते किन्तु हम अति भाग्यशाली हैं जो निरन्तर आपके मुखचन्द्र का दर्शन करते रहते हैं। द्वारिका छोड़ कर आपके मथुरा चले जाने पर हम निष्प्राण हो जाते हैं और आपके पुनः दर्शन से ही सप्राण हो पाते हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।" उनके इन वचनों को सुनकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उन पर अपनी कृपादृष्टि डाली और द्वारिकापुर में प्रवेश किया। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की द्वारिकापुरी अमरावती के समान मधु, भोज, दाशार्ह, अर्हकुकुर, अन्धक तथा वृष्णि वंशी यादवों से उसी प्रकार सुरक्षित रहती थी जिस प्रकार नागों से पातालपुरी सुरक्षित रहती है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वागतार्थ नगर वासियों ने नगर के फाटकों, गृहद्वारों तथा सड़कों पर बन्दनवार, चित्र-विचित्र ध्वजायें, कदली खम्भ और स्वर्णकलश सजाये। सुगन्धित जल से छिड़काव किया गया। उनके उपहार के लिये दधि, अक्षत, फल, धूप, दीप आदि सामग्री लेकर नगरवासी अपने द्वारों पर खड़े थे। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के शुभागमन का समाचार पाकर वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, महाबली बलराम, प्रद्युम्न, साम्ब आदि परिजन मांगलिक सामग्रियों के साथ ब्राह्मणों को लेकर शंख तुरही, मृदंग आदि बजाते हुये उनकी अगवानी के लिये आ गये। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने भी अपने बन्धु-बान्धवों तथा नगरवासियों का यथोचित सम्मान किया। सर्वप्रथम उन्होंने माताओं के महल में जाकर देवकी आदि माता के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपनी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ रानियों हृदय से लगा कर सान्त्वना दी। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने सम्पूर्ण राजाओं को परस्पर भिड़ाकर पृथ्वी के भार को बिना शस्त्रास्त्र ग्रहण किये ही हल्का कर दिया। रति के समान सुन्दर भार्यायें निरन्तर उनके साथ रहकर भी उन्हें भोगों में आसक्त न कर सकीं क्योंकि वे योग-योगेश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कर्म करते हये भी हृदय में उनके प्रति आसक्त नहीं थे, वे प्रकृति में स्थित रहते हुये भी प्रकृति के गुणों में लिप्त नहीं थे। उनकी योगमाया से मोहित होकर ही स्त्रियाँ उन पर मुग्ध रहती थीं और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को स्ववश समझती थीं। .

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सत्य युग

चार प्रसिद्ध युगों में सत्ययुग या कृतयुग प्रथम माना गया है। यद्यपि प्राचीनतम वैदिक ग्रंथों में सत्ययुग, त्रेतायुग आदि युगविभाग का निर्देश स्पष्टतया उपलब्ध नहीं होता, तथापि स्मृतियों एवं विशेषत: पुराणों में चार युगों का सविस्तार प्रतिपादन मिलता है। पुराणादि में सत्ययुग के विषय में निम्नोक्त विवरण मिलता है - इस युग में ज्ञान, ध्यान या तप का प्राधान्य था। प्रत्येक प्रजा पुरुषार्थसिद्धि कर कृतकृत्य होती थी, अत: यह "कृतयुग" कहलाता है। धर्म चतुष्पाद (सर्वत: पूर्ण) था। मनु का धर्मशास्त्र इस युग में एकमात्र अवलंबनीय शास्त्र था। महाभारत में इस युग के विषय में यह विशिष्ट मत मिलता है कि कलियुग के बाद कल्कि द्वारा इस युग की पुन: स्थापना होगी (वन पर्व 191/1-14)। वन पर्व 149/11-125) में इस युग के धर्म का वर्ण द्रष्टव्य है। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग .

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सन्निहित सरोवर

सन्निहित सरोवर सन्निहित सरोवर हरियाणा के कुरुक्षेत्र में स्थित एक पवित्र सरोवर है। यह कुरूक्षेत्र में कैथल मार्ग पर श्री कृष्ण संग्रहालय के पास स्थित है। कहा जाता है कि यहाँ पर महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने सभी दिवंगतों की मुक्ति के लिए पिंड-दान आदि कार्य किया था। यहाँ एक विशाल सरोवर का निर्माण किया गया है जिसके चारों ओर रात्रि के लिए प्रकाश व्यवस्था भी की गई है। सन्निहित सरोवर के बारे में मान्यता है कि यहीं सात सरस्वती नदियाँ मिलती हैं। इस सरोवर के जल में अमावस्या को स्नान करना पुण्यकारी माना जाता है। श्रेणी:हिन्दू तीर्थ स्थल श्रेणी:कुरुक्षेत्र.

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सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सूरत

सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सूरत जिसे 'एन आई टी सूरत' के नाम से भी जाना जाता है, प्रौद्योगिकी एवम अभियांत्रिकी का राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। यह भारत के लगभग तीस राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (एन आई टी) में से एक है। इसे भारत सरकार ने १९६१ में स्थापित किया था। इसकी संगठनात्मक संरचना एवम स्नातक प्रवेश प्रक्रिया शेष सभी एन आई टी की तरह ही है। संस्थान में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी, विज्ञान मानविकी और प्रबंधन में स्नातक, पूर्व स्नातक एवम डॉक्टरेट के पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। .

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सरस्वती नदी

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। कहते हैं, यह नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकार यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। .

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सरस्वती शिशु मंदिर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित विद्या भारती के विद्यालयों को सरस्वती शिशु मंदिर एवं ""सरस्वती विद्या मंदिर"" कहते हैं। संघ परिवार सरस्वती शिशु मंदिर की शिक्षा प्रणाली को अभिनव रूप में मानते हुवे इसका प्रसार करता है। इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिध्दि मिली है। विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए सरस्वती शिशु मंदिर अच्छा विकल्प स्वीकार किया जा सकता है। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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स्थानेश्वर महादेव मन्दिर

स्थानेश्वर महादेव मन्दिर हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के थानेसर शहर में स्थित एक प्राचीन हिन्दू मन्दिर है। यह मंदिर भगवान शिव का समर्पित है और कुरुक्षेत्र के प्राचीन मंदिरों मे से एक है। मंदिर के सामने एक छोटा कुण्ड स्थित है जिसके बारे में पौराणिक सन्दर्भ अनुसार यह माना जाता है कि इसकी कुछ बूँदों से राजा बान का कुष्ठ रोग ठीक हो गया था। कहते हैं कि भगवान शिव की शिवलिंग के रुप में पहली बार पूजा इसी स्थान पर हुई थी। इसलिए कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र की तीर्थ यात्रा इस मंदिर की यात्रा के बिना पूरी नही मानी जाती हैै। स्थाणु शब्द का अर्थ होता है शिव का निवास। इसी शहर को सम्राट हर्षवर्धन के राज्य काल में राजधानी का गौरव मिला, जिसके साथ साथ इसका नाम बिगड़कर अपभ्रंश रूप में थानेसर हो गया। .

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हरियाणा

हरियाणा उत्तर भारत का एक राज्य है जिसकी राजधानी चण्डीगढ़ है। इसकी सीमायें उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण एवं पश्चिम में राजस्थान से जुड़ी हुई हैं। यमुना नदी इसके उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश राज्यों के साथ पूर्वी सीमा को परिभाषित करती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली हरियाणा से तीन ओर से घिरी हुई है और फलस्वरूप हरियाणा का दक्षिणी क्षेत्र नियोजित विकास के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल है। यह राज्य वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता का मुख्य निवास स्थान है। इस क्षेत्र में विभिन्न निर्णायक लड़ाइयाँ भी हुई हैं जिसमें भारत का अधिकत्तर इतिहास समाहित है। इसमें महाभारत का महाकाव्य युद्ध भी शामिल है। हिन्दू मतों के अनुसार महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ (इसमें भगवान कृष्ण ने भागवत गीता का वादन किया)। इसके अलावा यहाँ तीन पानीपत की लड़ाइयाँ हुई। ब्रितानी भारत में हरियाणा पंजाब राज्य का अंग था जिसे १९६६ में भारत के १७वें राज्य के रूप में पहचान मिली। वर्तमान में खाद्यान और दुध उत्पादन में हरियाणा देश में प्रमुख राज्य है। इस राज्य के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है। समतल कृषि भूमि निमज्जक कुओं (समर्सिबल पंप) और नहर से सिंचित की जाती है। १९६० के दशक की हरित क्रान्ति में हरियाणा का भारी योगदान रहा जिससे देश खाद्यान सम्पन्न हुआ। हरियाणा, भारत के अमीर राज्यों में से एक है और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर यह देश का दूसरा सबसे धनी राज्य है। वर्ष २०१२-१३ में देश में इसकी प्रति-व्यक्ति १,१९,१५८ (अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर भारत के राज्य देखें) और वर्ष २०१३-१४ में १,३२,०८९ रही। इसके अतिरिक्त भारत में सबसे अधिक ग्रामीण करोड़पति भी इसी राज्य में हैं। हरियाणा आर्थिक रूप से दक्षिण एशिया का सबसे विकसित क्षेत्र है और यहाँ कृषि एवं विनिर्माण उद्योग ने १९७० के दशक से निरंतर वृद्धि का प्राप्त की है। भारत में हरियाणा यात्रि कारों, द्विचक्र वाहनों और ट्रैक्टरों के निर्माण में सर्वोपरी राज्य है। भारत में प्रति व्यक्ति निवेश के आधार पर वर्ष २००० से राज्य सर्वोपरी स्थान पर रहा है। .

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हरियाणा का इतिहास

हालाँकि हरियाणा अब पंजाब का एक हिस्सा नहीं है पर यह एक लंबे समय तक ब्रिटिश भारत में पंजाब प्रान्त का एक भाग रहा है और इसके इतिहास में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। हरियाणा के बानावाली और राखीगढ़ी, जो अब हिसार में हैं, सिंधु घाटी सभ्यता का हिस्सा रहे हैं, जो कि ५,००० साल से भी पुराने हैं। .

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हरियाणा के जिले

उत्तर भारत में स्थित हरियाणा जनसंख्या के हिसाब से भारत का १७वां सबसे बड़ा राज्य है। जनसामान्य को बेहतर प्रशासनिक सेवाएं देने के लिये राज्य को ६ मण्डलों तथा २२ जिलों में विभाजित किया गया है। १ नवंबर १९६६ को जब तत्कालीन पूर्वी पंजाब के विभाजन द्वारा हरियाणा राज्य की स्थापना हुई थी, तब राज्य में ७ जिले थे; रोहतक, जींद, हिसार, महेंद्रगढ़, गुडगाँव, करनाल तथा अम्बाला। २०१७ तक इन जिलों के पुनर्गठन के बाद १४ नए जिले जोड़े जा चुके हैं। निम्नलिखित सूची हरियाणा राज्य के जिलों की है: श्रेणी:हरियाणा के जिले श्रेणी:हरियाणा से सम्बन्धित सूचियाँ.

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हिन्दू तीर्थ

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/क

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जनमेजय

जनमेजय महाभारत के अनुसार कुरुवंश का राजा था। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय मारा गया, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ से राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठा। जनमेजय इसी परीक्षित तथा मद्रावती का पुत्र था। महाभारत के अनुसार (१.९५.८५) मद्रावती उनकी जननी थीं, किन्तु भगवत् पुराण के अनुसार (१.१६.२), उनकी माता ईरावती थीं, जो कि उत्तर की पुत्री थीं। .

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ज्योतिसर

पवित्र वटवृक्ष जिसके नीचे भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। ज्योतिसर हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित एक कस्बा है। यह एक हिन्दू तीर्थ है जो कुरुक्षेत्र-पहोवा मार्ग पर थानेसर से पाँच किमी पश्चिम में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। 'ज्योति' का अर्थ 'प्रकाश' है तथा 'सर' का अर्थ 'तालाब'। यहाँ एक बरगद का वृक्ष है जिसके बारे में मान्यता है कि इसी वट वृक्ष के नीचे कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था और यहीं अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया था। .

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विद्या भारती

विद्या भारती, भारत में शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़ी अशासकीय संस्था है। इसका पूरा नाम "विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान" है। इसके अन्तर्गत भारत में लगभग १८,००० शैक्षिक संस्थान कार्य कर रहे हैं। इसकी स्थापना सन् १९७७ में हुई थी। विद्या भारती, शिक्षा के सभी स्तरों - प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च पर कार्य कर रही है। इसके अलावा यह शिक्षा के क्षेत्र में अनुसंधान करती है। इसका अपना ही प्रकाशन विभाग है जो बहुमूल्य पुस्तकें, पत्रिकाएँ एवं शोध-पत्र प्रकाशित करता है। विद्या भारती के तहत, ३०००० शिक्षण संस्थान संचालित होते है। विद्या भारती शिशुवाटिका, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक, वरिष्ठ माध्यमिक, संस्कार केंद्र, एकल विद्यालय, पूर्ण एवं अर्द्ध आवासीय विद्यालय और महाविद्यालयों के छात्रों के लिए शिक्षा प्रदान करता है। .

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विष्णु सहस्रनाम

विष्णु सहस्रनाम की पाण्डुलिपि, 1690 ई. विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। यह हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र तथा प्रचलित स्तोत्रों में से एक है। महाभारत में उपलब्ध विष्णु सहस्रनाम इसका सबसे लोकप्रिय संस्करण है। पद्म पुराण व मत्स्य पुराण में इसका एक और संस्करण उपलब्ध है। प्रत्येक नाम विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ गुणों को सूचित करता है। कई हिंदु परिवारों मे पूजन के समय इसका पठन करते है। इसके सुनने या पठन से मनुष्य की मनोकामनाएँ पूर्ण होने की मान्यता है। अनुशासनपर्व (महाभारत) के १४९ वें अध्याय के अनुसार, कुरुक्षेत्र मे बाणों की शय्या पर लेटे पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को इसका उपदेश दिया था। .

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खाण्डव वन

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गुर्जर प्रतिहार राजवंश

प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में साम्राज्य पश्चिम में सतुलज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बगांल असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए गुर्जर प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। गुर्जर प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। .

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गुसांईजी

नागौर जिले के जुन्जाला गाँव में स्थित गुसाईंजी मंदिर गुसाईंजी हिन्दुओं के देवता हैं। इनका एक प्रासिद्ध मंदिर नागौर जिले के जुन्जाला गाँव में स्थित है। यद्यपि गुसाईंजी हिन्दुओं के देवता हैं परन्तु मुसलमान भी इनको मानते हैं। एक समय राजा बलि इस धरती पर राज करता था। राजा बलि ने अश्वमेघ यग्य और अग्नि होम किए। उसने इस तरह ९९ यज्ञ संपन्न कर दिए। राजा बलि का यश चारों और फैलने लगा और वह इन्द्रलोक का राजा बनने की सोचने लगा। राजा बलि ने १०० वें यज्ञ का आयोजन रखा और इसके लिए निमंन्त्रण भेजे.

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गौड़पाद

गौड़पाद या गौडपादाचार्य, भारत के एक दार्शनिक थे। उन्होने माण्डूक्यकारिका नामक नामक दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की जिसमें माध्यमिक दर्शन की शब्दावली का प्रयोग करते हुए अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों की व्याख्या की गयी है। अद्वैत वेदांत की परंपरा में गौड़पादाचार्य को आदि शंकराचार्य के 'परमगुरु' अर्थात् शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है। .

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ओडिआ चलचित्र सूची

ओड़िआ चलचित्र की सारणी ओड़िआ भाषा .

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आदि बद्री (हरियाणा)

आदि बद्री हरियाणा के यमुनानगर ज़िले में स्थित वनक्षेत्र है। यह स्थान पौराणिक महत्व रखने वाली, लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है। .

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करनाल

हरियाणा में स्थित करनाल इस नाम के जिले का मुख्यालय शहर है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 1 पर चण्डीगढ़ से 126 कि॰मी॰ की दूरी पर यमुना नदी के किनारे स्थित है। घरौंड़ा, नीलोखेड़ी, असन्ध, इन्द्री और तरावड़ी इसके मुख्य दर्शनीय स्‍थल हैं। करनाल में अनेक फैक्ट्रियां हैं। इन फैक्ट्रियों में वनस्पति तेल, इत्र और शराब तैयार की जाती है। इसके अलावा यह अपने अनाज, कपास और नमक के बाजार के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है। यहां पर मुख्यत: धान की खेती की जाती है। यह धान उच्च गुणवत्ता वाला होता है और इसका निर्यात विदेशों में किया जाता है। इसकी उत्तर-पश्चिम दिशा में कुरूक्षेत्र, पश्चिम में जीन्द व कैथल, दक्षिण में पानीपत और पूर्व में उत्तर प्रदेश स्थित है। पर्यटक यहां पर अनेक पर्यटक स्थलों की यात्रा कर सकते हैं। इनमें कलन्दर शाह गुम्बद, छावनी चर्च और सीता माई मन्दिर आदि प्रमुख हैं। यह सभी बहुत खूबसूरत हैं और पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। करनाल के एक छोटे से गाँव मदनपुर का एक लडका जिसका नाम कमल कशयप ह वह अपनी तीर्व बूद्धि के लिए पूरे हरियाणा में मशहूर है। .

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कल्पना चावला

कल्पना चावला (17 मार्च 1962 - 1 फ़रवरी 2003), एक भारतीय अमरीकी अंतरिक्ष यात्री और अंतरिक्ष शटल मिशन विशेषज्ञ थी और अंतरिक्ष में जाने वाली प्रथम भारतीय महिला थी। वे कोलंबिया अन्तरिक्ष यान आपदा में मारे गए सात यात्री दल सदस्यों में से एक थीं। .

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कुरु

श्रीमद्भाग्वता एवं विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की वंशावली के राजा अजमीढ़ की पीढ़ी में कुरु राजा के नाम से सम्पूर्ण कुरुक्षेत्र जाना जाता है। कुरु एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए हैं जो महाभारत में कौरवों के पितामह थे, उन्ही के नाम से कुरु प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका क्षेत्र आधुनिक हरियाणा (कुरुक्षेत्र) के ईर्द-गिर्द था। इसकी राजधानी संभवतः हस्तिनापुर या इंद्रप्रस्थ थी। कुरु के राज्य का विस्तार कहाँ तक रहा होगा ये भारतियों के लिए खोज का विषय है किन्तु विश्व इतिहास में कुरु Cyrus the Great प्राचीन विश्व के सर्वाधिक विशाल साम्राज्य को नए आयाम देने वाला चक्रवर्ती राजा था जिसने ईरान में मेड साम्राज्य को अपने ही ससुर अस्त्यागस से हस्तांतरित करते हुए साम्राज्य का नया नाम अजमीढ़ साम्राज्य (Achaemenid_empire) रखा था। इस साम्राज्य की सीमायें भारत से मिश्र, लीबिया और ग्रीक तक फ़ैली हुई थी। .

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कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,सौप्तिकपर्व इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,भीष्मपर्व इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है। कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं, जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया, इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं, ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। .

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कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का प्रतीक चिह्न कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय भारत का एक विश्वविद्यालय है। यह भारत के हरियाणा राज्य के कुरुक्षेत्र में स्थित है। इसकी स्थापना ११ जनवरी १९५७ को की गयी थी। यह विश्वविद्यालय पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल चन्द्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह का सपना था जो भारतीय संस्कृति और परम्परा को पोषित करने वाले एक संस्थान की स्थापना चाहते थे। जब डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने इस विश्वविद्यालय का उद्घाटन किया था तब यहाँ केवल संस्कृत विभाग ही था। इस विश्वविद्यालय का प्रांगण लगभग ४०० एकड़ में फैला हुआ है। .

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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कैथल

कैथल हरियाणा प्रान्त का एक महाभारत कालीन ऐतिहासिक शहर है। इसकी सीमा करनाल, कुरुक्षेत्र, जीन्द और पंजाब के पटियाला जिले से मिली हुई है। पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना युधिष्ठिर ने की थी। इसे वानर राज हनुमान का जन्म स्थान भी माना जाता है। इसीलिए पहले इसे कपिस्थल के नाम से जाना जाता था। आधुनिक कैथल पहले करनाल जिले का भाग था। लेकिन 1973 ई. में यह कुरूक्षेत्र में चला गया। बाद में हरियाणा सरकार ने इसे कुरूक्षेत्र से अलग कर 1 नवम्बर 1989 ई. को स्वतंत्र जिला घोषित कर दिया। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 65 पर स्थित है। .

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कोस मीनार

कोस मीनार का प्रयोग शेर शाह सूरी के जमाने में सड़कों को नियमित अंतराल पर चिन्हित करने के लिए किया जाता था।। ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे हर कोस पर मीनारें बनवाई गई थीं। अधिकतर इन्हें १५५६-१७०७ के बीच बनाया गया था। कई मीनारें आज भी सुरक्षित हैं तथा इन्हें दिल्ली-अंबाला राजमार्ग पर देखा जा सकता है। पुरातत्व विभाग के अनुसार भारत के हरियाणा राज्य में कुल ४९ कोस मीनारे है जिनमें फरीदाबाद में १७, सोनीपत में ७, पानीपत में ५, करनाल में १०, कुरुक्षेत्र और अम्बाला में ९ एवं रोहतक में १ मीनार हैं। आजकल इन्हें सुरक्षित स्मारक घोषित किया गया है तथा पुरातत्व विभाग इनकी देखरेख करता है। File:Mughal milestone.jpg|उत्तर प्रदेश में स्थित एक कोस मीनार File:Mughal-era Kos Minar in the Delhi National Zoo.jpg | दिल्ली चिड़ियाघर स्थित कोस मीनार File:Kos minar,tirawadi,karnal.JPG|हरियाणा के तरावड़ी (जिला करनाल) स्थित कोस मीनार File:One Kos Minar, Lahore.JPG|लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) स्थित कोस मीनार .

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अद्भुत रामायण

अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्यविशेष है। कहा जाता है, इस ग्रंथ के प्रणेता बाल्मीकि थे। किंतु इसकी भाषा और रचना से लगता है, किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है। .

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अपरा एकादशी

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी कहा जाता है। .

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अम्बा

अम्बा महाभारत में काशीराज की पुत्री बताई गयी हैं। अम्बा की दो और बहने थीं अम्बिका और अम्बालिका। अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का स्वयंवर होने वाला था। उनके स्वयंवर में जाकर अकेले ही भीष्म ने वहाँ आये समस्त राजाओं को परास्त कर दिया और तीनों कन्याओं का हरण करके हस्तिनापुर ले आये जहाँ उन्होंने तीनों बहनों को सत्यवती के सामने प्रस्तुत किया ताकि उनका विवाह हस्तिनापुर के राजा और सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य के साथ सम्पन्न हो जाये। जब अम्बा ने यह बताया कि उसने राज शाल्व को मन से अपना पति मान लिया है तो विचित्रवीर्य ने उससे विवाह करने से इन्कार कर दिया। भीष्म ने उसे राजा शाल्व के पास भिजवा दिया। राजा शाल्व ने अम्बा को ग्रहण नहीं किया अतः वह हस्तिनापुर लौट कर आ गई और भीष्म से बोली, "हे आर्य! आप मुझे हर कर लाये हैं अतएव आप मुझसे विवाह करें।" किन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के कारण उसके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अम्बा रुष्ट हो गई और यह कह कर की वही भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी वह परशुराम के पास गई और उनसे अपनी व्यथा सुना कर सहायता माँगी। परशुराम ने अम्बा से कहा, "हे देवि! आप चिन्ता न करें, मैं आपका विवाह भीष्म के साथ करवाऊँगा।" परशुराम ने भीष्म को बुलावा भेजा किन्तु भीष्म उनके पास नहीं गये। इस पर क्रोधित होकर परशुराम भीष्म के पास पहुँचे और दोनों वीरों में भयानक युद्ध छिड़ गया। दोनों ही अभूतपूर्व योद्धा थे इसलिये हार-जीत का फैसला नहीं हो सका। आखिर देवताओं ने हस्तक्षेप कर के इस युद्ध को बन्द करवा दिया। अम्बा निराश हो कर वन में तपस्या करने चली गई जहाँ उसने महादेव की घोर तपस्या की। महादेव उसकी तपस्या से प्रसन्न हुये और उसके समक्ष प्रकट होकर उसे यह वर दिया कि वह अगले जन्म में भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। यह वर पाकर अम्बा ने आत्म दाह कर लिया और अगले जन्म में राजा द्रुपद के घर में शिखण्डी के रूप में जन्म लिया। शिखण्डी कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म के मृत्यु का कारण बने क्योंकि कृष्ण ने उस दिन शिखण्डी को अर्जुन का सारथी बनाया और क्योंकि भीष्म को शिखण्डी के पूर्व जन्म का ज्ञात था, अतएव उन्होंने एक महिला के विरुद्ध शस्त्र उठाने से इन्कार कर दिया और इसी बीच अर्जुन ने मौका पाकर भीष्म पर बाणों की वर्षा कर दी जिसके कारण भीष्म आहत होकर धरती पर गिर गये। .

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अगस्ति तारा

अगस्ति तारा एक अत्यंत रोशन तारा है कराइना तारामंडल में अगस्ति तारा अगस्ति या कनोपस कराइना तारामंडल का सबसे रोशन तारा है और और पृथ्वी से दिखने वाले तारों में से दूसरा सब से रोशन तारा है। यह F श्रेणी का तारा है और इसका रंग सफ़ेद या पीला-सफ़ेद है। इसका पृथ्वी से प्रतीत होने वाले चमकीलापन (यानि "सापेक्ष कान्तिमान") -०.७२ मैग्निट्यूड है जबकि इसका अंदरूनी चमकीलापन (यानि "निरपेक्ष कान्तिमान") -५.५३ मापा जाता है। यह पृथ्वी से लगभग ३१० प्रकाश-वर्ष की दूरी पर है। .

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अक्षय वट

पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षय वट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। भारतवर्ष में क्रमशः चार पौराणिक पवित्र वटवृक्ष हैं--- गृद्धवट- सोरों 'शूकरक्षेत्र', अक्षयवट- प्रयाग, सिद्धवट- उज्जैन और वंशीवट- वृन्दावन। .

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४८ कोस भूमि की परिक्रमा

४८ कोस भूमि की परिक्रमा का तात्पर्य कुरुक्षेत्र के चारों ओर ४८ कोस की परिक्रमा में फैले तीर्थ स्थलों से है।.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

सावित्री शक्तिपीठ, कुरु क्षेत्र, कुरूक्षेत्र

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