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कान

सूची कान

मानव व अन्य स्तनधारी प्राणियों मे कर्ण या कान श्रवण प्रणाली का मुख्य अंग है। कशेरुकी प्राणियों मे मछली से लेकर मनुष्य तक कान जीववैज्ञानिक रूप से समान होता है सिर्फ उसकी संरचना गण और प्रजाति के अनुसार भिन्नता का प्रदर्शन करती है। कान वह अंग है जो ध्वनि का पता लगाता है, यह न केवल ध्वनि के लिए एक ग्राहक (रिसीवर) के रूप में कार्य करता है, अपितु शरीर के संतुलन और स्थिति के बोध में भी एक प्रमुख भूमिका निभाता है। "कान" शब्द को पूर्ण अंग या सिर्फ दिखाई देने वाले भाग के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। अधिकतर प्राणियों में, कान का जो हिस्सा दिखाई देता है वह ऊतकों से निर्मित एक प्रालंब होता है जिसे बाह्यकर्ण या कर्णपाली कहा जाता है। बाह्यकर्ण श्रवण प्रक्रिया के कई कदमो मे से सिर्फ पहले कदम पर ही प्रयुक्त होता है और शरीर को संतुलन बोध कराने में कोई भूमिका नहीं निभाता। कशेरुकी प्राणियों मे कान जोड़े मे सममितीय रूप से सिर के दोनो ओर उपस्थित होते हैं। यह व्यवस्था ध्वनि स्रोतों की स्थिति निर्धारण करने में सहायक होती है। .

33 संबंधों: दीपक संधू, ध्वनि, ध्वनिकी, नाक, कान और गले के रोग, परिश्रवण, पुँछकटवा रोग, प्लैटीपुस, भाषाविज्ञान, मस्तिष्क, मुख, लकी डायमंड रिच, शरीर का रूपांतरण, शरीरक्रिया विज्ञान, सप्तक, सामान्य चिकित्सा में प्रयुक्त उपकरण, सिर, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सुश्रुत संहिता, स्तनधारी, सैलामैंडर, हेडफ़ोन, ज्ञानेन्द्रिय, विकासात्मक मनोविज्ञान, वैक्सिंग, गतिक परिसर, गायन, आनन तंत्रिका, आन्तर कर्ण, कनफटा, कर्णवेध संस्कार, कुंडल, क्वोका, अवगम

दीपक संधू

दीपक संधू (जन्म 19 दिसम्बर 1948) भारत की पहली महिला मुख्य सूचना आयुक्त रह चुकी हैं। 5 सितंबर 2013 को इस पद पर उनकी नियुक्ति हुई थी और दिसंबर 2013 के अंत में वे इस पद से सेवानिवृत हो रही हैं। 1971 बैच की भारतीय सूचना सेवा की पूर्व अधिकारी संधू कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुकी हैं जिसमें पीआईबी की प्रधान महानिदेशक, मीडिया एवं संचार,डीडी न्यूज की महानिदेशक और 2009 में सूचना आयुक्त बनने से पहले ऑल इंडिया रेडियो, न्यूज की महानिदेशक रह चुकी हैं। वे कान, बर्लिन, वेनिस और टोक्यो में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों, रूस के ग्लेनक्षीक और साइप्रस में आतंकवाद एवं इलेक्ट्रानिक मास मीडिया पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के अलावा अटलांटा, अमेरिका एवं बीजिंग में समाचार प्रमुखों के सम्मेलन में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। .

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ध्वनि

ड्रम की झिल्ली में कंपन पैदा होता होता जो जो हवा के सम्पर्क में आकर ध्वनि तरंगें पैदा करती है मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? -- ('''नीला''': ध्वनि तरंग, '''लाल''': कान का पर्दा, '''पीला''': कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है। '''हरा''': श्रवण तंत्रिकाएँ, '''नीललोहित''' (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, '''नारंगी''': तंत्रिका में गया संकेत) ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर संचारित होती है। किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं। .

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ध्वनिकी

सिरिया में बसरा स्थित रोमकालीन नाट्यशाला: ध्वनिकी के सिद्धान्तों का प्राचीन काल से ही उपयोग होता आ रहा है। ध्वनिकी (Acoustics) भौतिकी की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत ध्वनि तरंगो, अपश्रव्य तरंगों एवं पराश्रव्य तरंगों सहित ठोस, द्रव एवं गैसों में संचारित होने वाली सभी प्रकार की यांत्रिक तरंगों का अध्ययन किया जाता है। ध्वनि की उत्पत्ति द्रव्यपिंडों के दोलन द्वारा होती है। इस दोलन से वायु की दाब एवं घनत्व में प्रत्यावर्ती (alternating) परिर्वतन होने लगते हैं, जो अपने स्रोत से एक विशेष वेग के साथ आगे बढ़ते हैं। इनको ही ध्वनि की तरंग कहा जाता है। जब ये तरंगें कान के परदे से टकराती हैं, तब ध्वनि-संवेदन होता है। इन तरंगों की विशेषता यह है कि इनमें परावर्तन, अपवर्तन (refraction) तथा विवर्तन (diffraction) हो सकता है। प्रति सेकंड दोलन संख्या को आवृति (frequency) कहते हैं। मनुष्य का कान एक सीमित परास की आवृतियों को ही सुन सकता है, किंतु आजकल ऐसी तरंगें भी उत्पन्न की जा सकती है जिसका कान के परदे पर कोई असर नहीं होता। कान की सीमा से अधिक परास की आवृतियों की ध्वनि को पराश्रव्य तरंगें कहते हैं। बहुत से जानवर, जैसे चमगादड़, पराश्रव्य ध्वनि सुन सकते हैं। आधुनिक समय में श्रव्य तथा पराश्रव्य दोनों प्रकार की ध्वनियों की आवृतियों को एक बड़ी सीमा के भीतर उत्पन्न किया, पहचाना और मापा जा सकता है। .

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नाक, कान और गले के रोग

Kan .

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परिश्रवण

रोगी के पेट का परिश्रवण करता हुआ एक चिकित्सक शरीर के अंदर निरंतर होनेवाली ध्वनियों के सुनने की क्रिया को परिश्रवण (Auscultation) कहते हैं। इस शब्द का प्रयोग चिकित्सा विज्ञान में किया जाता है। रोगनिदान में इस क्रिया से बहुत सहायता मिलती है। शरीर के अन्दर की ध्वनियों को सुनने के लिए प्रायः आला (stethoscope) का उपयोग किया जाता है। इस कला के बढ़ते हुए प्रयोग का श्रेय लेनेक (Laenec) को मिलना चाहिए, जिन्होंने सन् १८१९ में परिश्रवण यंत्र का आविष्कार किया। इस यंत्र के आविष्कार के पहले ये ध्वनियाँ कान से सुनी जाती थीं। आधुनिक परिश्रवण यंत्र ध्वनि के भौतिक गुणों पर आधृत है। इसमें कानों में लगनेवाला भाग धातु का होता है और लगभग १० इंच लंबी रबर की नलियों द्वारा वक्षगोलक (chestpiece) से जुड़ा रहता है। चिकित्सक इस यंत्र द्वारा हृदय, श्वास और अँतड़ियों की ध्वनि सुनते हैं। सामान्यत: हृदय जब सिकुड़ता है तो लब्ब ध्वनि होती है और फिर जब वह फैलता है तो डब ध्वनि होती है, जिन्हें क्रमश: प्रथम और द्वितीय हृदयध्वनि कहते हैं। बीमारी में अन्य प्रकार की ध्वनियाँ और 'मर मर' ध्वनि सुनाई देती है। हवा फेफड़े में जाते और निकलते समय ध्वनि करती है, जिसे श्वासध्वनि कहते हैं। फेफड़े की बीमारियों में इस ध्वनि में परिवर्तन हो जाता है और दूसरे ढंग की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है, जिसे रोंकाई या क्रेपिटेशन (crepitation) कहते हैं। अँतड़ियों की ध्वनि की 'बारबोरिज्म' कहते हैं। यदि यह न सुनाई दे तो अँतड़ियों का अवरोध या पेरिटोनियम की सुजन का निदान समझना चाहिए। परिश्रवण यंत्र की सहायता से भ्रूणहृदय की ध्वनि तथा धमनियों की 'मरमर' ध्वनि भी सुनी जा सकती है। इसकी सहायता से ही 'रक्तचाप' की माप की जाती है। .

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पुँछकटवा रोग

पशुओं में पुँछकटवा रोग या डेगनाला रोग (Degnala disease) मुख्यतः भैंस जाति के पशुओं में होता है। वैसे गो-वंश के पशु भी इस संक्रमण के शिकार होते हैं। इस बीमारी का निश्चित कारण अभी तक ज्ञात नहीं है परन्तु डेगनाला एक फफुंद (फंगस) से पैदा होने वाला रोग है। इस बीमारी में पशुओं के कान, पूँछ एवं खुर सूखने लगते है और अंततः सड़ कर गिर जाते है। पशु भोजन करना बंद कर देता है एवं दिनों दिन कमजोर होते जाता है। कुछ वैज्ञानिकों का यह मत है कि यह बीमारी सूक्ष्म पोषक तत्वों (Mineral Deficiency) की कमी के वजह से हाेता है। अधिक नमी युक्त पुआल या भूसा खिलाने से यह रोग आमतौर पर जानवरों में होता है। .

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प्लैटीपुस

प्लैटीपुस (Platypus), जो बत्तखमुँह प्लैटीपस (duck-billed platypus) भी कहलाता है, पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में रहने वाला एक स्तनधारी प्राणी है। यह स्तनधारियों के मोनोट्रीम गण की पाँच ज्ञात जातियों में से एक है (अन्य चार एकिडना की जातियाँ हैं), जो स्तनधारी होने के नाते अपने शिशुओं को दूध तो पिलाते हैं लेकिन जिनमें माता गर्भ धारण करने की बजाए अण्डे देती है। पूरे स्तनधारी समुदाय में अण्डे देने वाली केवल यही पाँच जातियाँ है। क्रमविकास (एवोल्यूशन) की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह जातियाँ उस समय का संकेत हैं जब स्तनधारी नये-नये विकसित हो रहे थे और उनमें गर्भ में शिशु विकसित करने की क्षमता उत्पन्न नहीं हुई थी। इसलिए इन्हें जीवित जीवाश्म की श्रेणी में भी डाला जाता है। .

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भाषाविज्ञान

भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषा विज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। .

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मस्तिष्क

मानव मस्तिष्क मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है। यह मुख्य ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, जीभ और कान से जुड़ा हुआ, उनके करीब ही स्थित होता है। मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं। मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है। मस्तिष्क के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो के कार्यों का नियंत्रण एवं नियमन होता है। अतः मस्तिष्क को शरीर का मालिक अंग कहते हैं। इसका मुख्य कार्य ज्ञान, बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मरण, विचार निर्णय, व्यक्तित्व आदि का नियंत्रण एवं नियमन करना है। तंत्रिका विज्ञान का क्षेत्र पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। बडे-बड़े तंत्रिकीय रोगों से निपटने के लिए आण्विक, कोशिकीय, आनुवंशिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर मस्तिष्क की क्रिया के संदर्भ में समग्र क्षेत्र पर विचार करने की आवश्यकता को पूरी तरह महसूस किया गया है। एक नये अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्तिष्क के आकार से व्यक्तित्व की झलक मिल सकती है। वास्तव में बच्चों का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है और जैसे जैसे उनके मस्तिष्क का विकास होता है उसके अनुरुप उनका व्यक्तित्व भी तैयार होता है। मस्तिष्क (Brain), खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness) और स्मृति (memory) का स्थान है। सभी ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, जिह्रा तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर आते हैं, जिनको समझना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का काम्र है। पेशियों के संकुचन से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित भिन्न केन्द्रो से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है। .

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मुख

मुख (face) कई प्राणियों के सिर के सामने वाली ओर पाया जाने वाला भाग है जिसमें कई ज्ञानेन्द्रिय उपस्थित होती हैं, हालांकि हर प्राणी का मुख नहीं होता। स्तनधारियों में आमतौर पर मुख पर नाक, कान, मुँह (जिसमें स्वाद-बोध रखने वाली जिह्वा होती है) और आँखें होती हैं। मानव व अन्य स्तनधारी इनसे अपनी भावनाएँ भी प्रकट करते हैं, तथा इसे एक-दूसरे को पहचानने व मौखिक संचार के लिए भी प्रयोग करते हैं। .

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लकी डायमंड रिच

लकी डायमंड रिच (अंग्रेजी:Lucky Diamond Rich) (जन्म: ग्रेगरी पॉल मैकलरीन1971) विश्व का वह इंसान है जिसके पूरे शरीर पर गोदना बनाये गये हैं। इसके शरीर पर हर अंग पर -आँख,कान,नाक गाल इत्यादि जगह पर गोदने किये गये हैं। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने भी यह दावा किया है कि इसके शरीर पर 100% प्रतिशत गोदने अर्थात छेद है, इस कारण 2006 में इसका गिनीज़ विश्व कीर्तिमान पुस्तक में उल्लेख किया गया है। .

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शरीर का रूपांतरण

शरीर का रूपांतरण (या शरीर में परिवर्तन) सौंदर्य बोधक या गैर-चिकित्सात्मक उद्देश्य जैसे कि यौन वृद्धि, संबद्धता, विश्वास एवं वफादारी को सूचित करने वाले परस्पर विश्वास विनिमय संबंधी संस्कार, धार्मिक कारणों, मूल्यों के आघात एवं आत्म-अभिव्यक्ति के लिए मानव शरीर में जान-बूझ कर किया गया परिवर्तन है। यह सामाजिक रूप से स्वीकार्य अलंकरण (जैसे कि कई समाजों में छेदे हुए कान) से लेकर धार्मिक रूप से अधिदेशित (जैसे कि कई संस्कृतियों में ख़तना) एवं इसके बीच में हर जगह तक हो सकता है। शरीर कला आध्यात्मिक, धार्मिक, कलात्मक या सौन्दर्य संबंधी उद्देश्यों के लिए मानव शरीर के किसी भी हिस्से का रूपांतरण (संशोधन) है। .

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शरीरक्रिया विज्ञान

शरीरक्रियाविज्ञान या कार्यिकी (Physiology/फ़िज़ियॉलोजी) के अंतर्गत प्राणियों से संबंधित प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन और उनका वर्गीकरण किया जाता है, साथ ही घटनाओं का अनुक्रम और सापेक्षिक महत्व के साथ प्रत्येक कार्य के उपयुक्त अंगनिर्धारण और उन अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है जिनसे प्रत्येक क्रिया निर्धारित होती है। शरीरक्रियाविज्ञान चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा है जिसमें शरीर में सम्पन्न होने वाली क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य या किसी अन्य प्राणी/पादप के शरीर में मौजूद भिन्न-भिन्न अंगों एवं तन्त्रों (Systems) के कार्यों और उन कार्यों के होने के कारणों के साथ-साथ उनसे सम्बन्धित चिकित्सा विज्ञान के नियमों का भी ज्ञान दिया जाता है। उदाहरण के लिए कान सुनने का कार्य करते है और आंखें देखने का कार्य करती हैं लेकिन शरीर-क्रिया विज्ञान सुनने और देखने के सम्बन्ध में यह ज्ञान कराती है कि ध्वनि कान के पर्दे पर किस प्रकार पहुँचती है और प्रकाश की किरणें आंखों के लेंसों पर पड़ते हुए किस प्रकार वस्तु की छवि मस्तिष्क तक पहुँचती है। इसी प्रकार, मनुष्य जो भोजन करता है, उसका पाचन किस प्रकार होता है, पाचन के अन्त में उसका आंतों की भित्तियों से अवशोषण किस प्रकार होता है, आदि। .

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सप्तक

में संगीत, एक सप्तक (आठवें) या सही सप्तक है के अंतराल के बीच एक संगीत पिच और एक अन्य आधे के साथ या इसकी आवृत्तिहै । यह द्वारा परिभाषित किया गया है एएनएसआई की इकाई के रूप में आवृत्ति के स्तर जब लघुगणक का आधार दो है । सप्तक संबंध एक प्राकृतिक घटना है कि किया गया है के रूप में भेजा "साधारण चमत्कार के संगीत", का उपयोग है जो "आम में सबसे संगीत सिस्टम".

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सामान्य चिकित्सा में प्रयुक्त उपकरण

सामान्य चिकित्सा और क्लिनिकों (अर्थात् आंतरिक चिकित्सा और बाल रोग) में प्रयुक्त उपकरण इस प्रकार हैं: .

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सिर

एक चीता का सिर प्राणियों के शरीर के सबसे शीर्ष भाग को आमतौर पर सिर कहते हैं, इसमें नाक, कान, आँख इत्यादि ज्ञानेन्द्रियाँ स्थित होती हैं। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सुश्रुत संहिता

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे। सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। सुश्रुतसंहिता के उपदेशक काशिराज धन्वन्तरि हैं, एवं श्रोता रूप में उनके शिष्य आचार्य सुश्रुत सम्पूर्ण संहिता की रचना की है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में रोगों की शल्यचिकित्सा एवं शालाक्य चिकित्सा ही मुख्य उद्देश्य है। शल्यशास्त्र को आचार्य धन्वन्तरि पृथ्वी पर लाने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में आचार्य सुश्रुत ने गुरू उपदेश को तंत्र रूप में लिपिबद्ध किया, एवं वृहद ग्रन्थ लिखा जो सुश्रुत संहिता के नाम से वर्तमान जगत में रवि की तरह प्रकाशमान है। आचार्य सुश्रुत त्वचा रोपण तन्त्र (Plastic-Surgery) में भी पारंगत थे। आंखों के मोतियाबिन्दु निकालने की सरल कला के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत संहिता शल्यतंत्र का आदि ग्रंथ है। .

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स्तनधारी

यह प्राणी जगत का एक समूह है, जो अपने नवजात को दूध पिलाते हैं जो इनकी (मादाओं के) स्तन ग्रंथियों से निकलता है। यह कशेरुकी होते हैं और इनकी विशेषताओं में इनके शरीर में बाल, कान के मध्य भाग में तीन हड्डियाँ तथा यह नियततापी प्राणी हैं। स्तनधारियों का आकार २९-३३ से.मी.

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सैलामैंडर

सैलामैंडर (Salamander) उभयचरों की लगभग 500 प्रजातियों का एक सामान्य नाम है। इन्हें आम तौर पर इनके पतले शरीर, छोटी नाक और लंबी पूँछ, इन छिपकली-जैसी विशेषताओं से पहचाना जाता है। सभी ज्ञात जीवाश्म और विलुप्त प्रजातियाँ कॉडाटा जीववैज्ञानिक वंश के अंतर्गत आती हैं, जबकि कभी-कभी विद्यमान प्रजातियों को एक साथ यूरोडेला के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। ज्यादातर सैलामैंडरों के अगले पैरों में चार और पिछले पैरों में पाँच उंगलियाँ होती हैं। उनकी नम त्वचा आम तौर पर उन्हें पानी में या इसके करीब या कुछ सुरक्षा के तहत (जैसे कि नम सतह), अक्सर एक गीले स्थान में मौजूद आवासों में रहने लायक बनाती है। सैलामैंडरों की कुछ प्रजातियाँ अपने पूरे जीवन काल में पूरी तरह से जलीय होती हैं, कुछ बीच-बीच में पानी में रहती हैं और कुछ बिलकुल स्थलीय होती हैं जैसे कि वयस्क.

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हेडफ़ोन

सेन्नहेइसेर HD555 हेडफ़ोन, का इस्तेमाल ऑडियो प्रोडक्शन माहौल में होता है. हेडफ़ोन छोटे लाउडस्पीकरों की एक जोड़ी है, या आमतौर पर कम से कम एक स्पीकर होता है, इन्हें उपयोगकर्ता के कान के पास लगाया जाता है और यह ऑडियो ऐम्प्लीफायर, रेडियो या सीडी प्लेयर जैसे एकल स्रोत को इससे जोड़ने का साधन है.

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ज्ञानेन्द्रिय

वातावरण के परिवर्तनों को ग्रहण करने वाले अंगो को ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा प्रमुख ज्ञानेन्द्रिय हैं। आंख का सम्बन्ध दृष्टि से है। नाक द्वारा सूँघकर किसी वस्तु की सुगंध को ज्ञात किया जा सकता है। जीभ पर उपस्थित स्वाद कलिकाओं से भोजन के स्वाद की जानकारी प्राप्त होती है। श्रेणी:तन्त्रिका तंत्र *.

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विकासात्मक मनोविज्ञान

विकासात्मक मनोविज्ञान (डेवलपमेन्तल साइक्लोजी) एक वैज्ञानिक अध्ययन है जो मनुष्य के जीवन मे हो रहे परिवर्तन के बारे मे बताता है। मूल रूप से यह शिशुओं और बच्चो से संबंध रखता है पर इस क्षेत्र मे किशोरावस्था, वयस्क विकास, उम्र बढ़ने और पूरे जीवनकाल को भी लिया गया है। विकासात्मक मनोविज्ञान के तीन लक्षय हैं- विकासात्मक को वर्णन करना, समझाना और अनुकूलन करना। एरिक एरिक्सन एक प्रभाविक मनोविज्ञानी हैं जिन्होंने मनोसमाजिक विकास के बारे मे अध्ययन किया है। सिगमंड फ्रायड दूसरे प्रसिदध विकासात्मक ममनोविज्ञानी हैं जिन्होंने मनोसामाजिक विकास के बारे मे अध्ययन किया था। मानव जीवन का मनोवैज्ञानिक विकास पर चर्चा करने के लिए एरिक एरिकस ने मनोसामाजिक विकास के अपने चरणों का प्रसताव दिया। विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की शाखा मानी जाती है। .

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वैक्सिंग

वैक्सिंग के पहले और बाद में पुरुष की छाती. वैक्सिंग (Waxing), अनचाहे बालों को हटाने की एक अर्द्ध स्थायी विधि है जो बालों को जड़ों से हटा देती है। पहले से वैक्स किये हुए भाग में नए बाल, दो से आठ सप्ताह से पहले नहीं उगते हैं। शरीर के लगभग किसी भी भाग में वैक्स किया जा सकता है, जैसे भोहें, चेहरा, बिकिनी का भाग, पैर, हाथ, पीठ, पेट का निचला भाग और पंजा। कई प्रकार के वैक्सिंग उपलब्ध हैं जो अनचाहे बालों को हटाने के लिए उपयुक्त हैं। वैक्सिंग की प्रक्रिया को पूरी करने के लिए त्वचा पर मोम के मिश्रण की पतली परत फैलाई जाती है। उसके बाद एक कपड़े या कागज की पट्टी को उसके ऊपर दबाया जाता है और फिर उसे बालों के उगने की दिशा में एक झटके में खींचा जाता है। यह मोम के साथ बालों को भी हटा देता है। एक अन्य विधि में सख्त मोम का इस्तेमाल किया जाता है (यह पट्टी मोम के विपरीत होता है).

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गतिक परिसर

उच्च गतिक परिसर वाला एक दृष्य गतिक परिसर (Dynamic range, संक्षिप्त रूप: DR या DNR) किसी चर राशि के अधिकतम एवं न्यूनतम मानों के अनुपात को कहते हैं जो किसी युक्ति, उपकरण, यंत्र या अंग द्वारा ग्रहण किये जा सकते हैं। इसे या तो अनुपात के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है या अनुपात के लघुगणक (डेसीबेल और डबुलिंग्स) द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये मानव के कान एवं नेत्र की गतिक परिसर बहुत अधिक होती है (लगभग १०० डीबी और ९० डीबी क्रमशः)। 'गतिक परिसर' का उपयोग ध्वनि, संगीत, इलेक्ट्रॉनिकी, मापन, फोटोग्राफी आदि में होता है। अधिक गतिक परिसर वाले यंत्र, उपकरण और युक्तियाँ अच्छी मानी जातीं है। यदि कोई बहुमापी (मल्टीमीटर) कम से कम १ मिलीवोल्ट और अधिक से अधिक १००० वोल्ट का मापन कर सकता है तो कहेंगे कि इसकी गतिक परास १०००००० या १२० डीबी है। यदि कोई इलेक्ट्रानिक तुला कम से कम १ ग्राम तथा अधिक से अधिक १० किलो तौल सकती है तो उसका गतिक परिसर (१० किग्रा / १ ग्राम) .

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गायन

हैरी बेलाफोन्ट 1954 गायन एक ऐसी क्रिया है जिससे स्वर की सहायता से संगीतमय ध्वनि उत्पन्न की जाती है और जो सामान्य बोलचाल की गुणवत्ता को राग और ताल दोनों के प्रयोग से बढाती है। जो व्यक्ति गाता है उसे गायक या गवैया कहा जाता है। गायक गीत गाते हैं जो एकल हो सकते हैं यानी बिना किसी और साज या संगीत के साथ या फिर संगीतज्ञों व एक साज से लेकर पूरे आर्केस्ट्रा या बड़े बैंड के साथ गाए जा सकते हैं। गायन अकसर अन्य संगीतकारों के समूह में किया जाता है, जैसे भिन्न प्रकार के स्वरों वाले कई गायकों के साथ या विभिन्न प्रकार के साज बजाने वाले कलाकारों के साथ, जैसे किसी रॉक समूह या बैरोक संगठन के साथ। हर वह व्यक्ति जो बोल सकता है वह गा भी सकता है, क्योंकि गायन बोली का ही एक परिष्कृत रूप है। गायन अनौपचारिक हो सकता है और संतोष या खुशी के लिये किया जा सकता है, जैसे नहाते समय या कैराओके में; या यह बहुत औपचारिक भी हो सकता है जैसे किसी धार्मिक अनुष्ठान के समय या मंच पर या रिकार्डिंग के स्टुडियो में पेशेवर गायन के समय। ऊंचे दर्जे के पेशेवर या नौसीखिये गायन के लिये सामान्यतः निर्देशन और नियमित अभ्यास आवश्यकता होती है। पेशेवर गायक सामान्यतः किसी एक प्रकार के संगीत में अपने पेशे का निर्माण करते हैं जैसे शास्त्रीय या रॉक और आदर्श रूप से वे अपने सारे करियर के दौरान किसी स्वर-अध्यापक या स्वर-प्रशिक्षक की सहायता से स्वर-प्रशिक्षण लेते हैं। .

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आनन तंत्रिका

आनन तंत्रिका, कपालीय तंत्रिकाओं के बारह युग्मों में से सातवीं (VII) युग्मित तंत्रिका है। यह वेरोलसेतु (पोंस) और मज्जा (मेड्यूला) के बीच, मस्तिष्क स्तंभ से उभरती है और चेहरे पर विभिन्न भावों को प्रदर्शित करने वाली मांसपेशियों को नियंत्रित करती है, साथ ही यह मौखिक गुहा और जिह्वा के अग्रवर्ती दो तिहाई भाग से स्वाद की उत्तेजना के संवहन का कार्य भी करती है। यह सिर और गर्दन की कई गंडिकाओं (गैंगलिया) को गंडिकापूर्व परानुकंपी (प्रीगैंग्लियोनिक पैरासिम्पैथेटिक) तंतु की आपूर्ति भी करती है। .

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आन्तर कर्ण

आंतर कर्ण (inner ear या internal ear या auris interna) कशेरुकों के कान का सबसे भीतरी भाग है। मुख्यतः आन्तर कर्ण ही कशेरुकों में ध्वनि संसूचन (डिटेक्शन) एवं संतुलन बनाने का काम करता है। .

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कनफटा

कनफटा गोरख संप्रदाय के योगियों का एक वर्ग है। दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने के कारण इन्हें कनफटा कहते हैं। मुद्रा अथवा कुंडल को दर्शन और पवित्री भी कहते हैं। इसी आधार पर कनफटा योगियों को 'दरसनी साधु' भी कहा जाता है। नाथयोगी संप्रदाय में ऐसे योगी, जो कान नहीं छिदवाते और कुंडल धारण नहीं करते, औघड़ कहलाते हैं। औघड़ जालंधरनाथ के और कनफटे मत्स्येंद्रनाथ तथा गोरखनाथ के अनुयायी माने जाते हैं, क्योंकि प्रसिद्ध है कि जालंधरनाथ औघड़ थे और मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ कनफटे। कनफटे योगियों में विधवा स्त्रियाँ तथा योगियों की पत्नियाँ भी कुंडल धारण करती देखी जाती हैं। यह क्रिया प्राय: किसी शुभ दिन अथवा अधिकतर वसंतपंचमी के दिन संपन्न की जाती है और इसमें मंत्रोप्रयोग भी होता है। कान चिरवाकर मुद्रा धारण करने की प्रथा के प्रवर्तन के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार इसका प्रवर्तन मत्स्येन्द्रनाथ ने और दूसरे मत के अनुसार गोरक्षनाथ ने किया था। कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफैंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है। कहा जाता है, गोरक्षनाथ ने (शंकराचार्य द्वारा संगठित शैव संन्यासियों से) अवशिष्ट शैवों का 12 पंथों में संगठन किया जिनमें गोरखनाथी प्रमुख हैं। इन्हें ही कनफटा कहा जाता है। एक मत यह भी मिलता है कि गोरखनाथी लोग गोरक्षनाथ को संप्रदाय का प्रतिष्ठाता मानते हैं जबकि कनफटे उन्हें 'पुनर्गठनकर्ता' कहते हैं। इन लोगों के मठ, तीर्थस्थान आदि बंगाल, सिक्किम, नेपाल, कश्मीर, पंजाब (पेशावर और लाहौर), सिंध, काठियावाड़, बंबई, राजस्थान, उड़ीसा आदि प्रदेशों में पाए जाते हैं। श्रेणी:भारतीय संस्कृति श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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कर्णवेध संस्कार

हिन्दू धर्म संस्कारों में कर्णवेध संस्कार नवम संस्कार है। यह संस्कार कर्णेन्दिय में श्रवण शक्ति की वृद्धि, कर्ण में आभूषण पहनने तथा स्वास्थ्य रक्षा के लिये किया जाता है। विशेषकर कन्याओं के लिये तो कर्णवेध नितान्त आवश्यक माना गया है। इसमें दोनों कानों को वेध करके उसकी नस को ठीक रखने के लिए उसमें सुवर्ण कुण्डल धारण कराया जाता है। इससे शारीरिक लाभ होता है।.

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कुंडल

कुंडल कान में पहनने का एक आभूषण, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। प्राचीन काल में कान को छेदकर जितना ही लंबा किया जा सके उतना ही अधिक वह सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। इसी कारण भगवान्‌ बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार कान लंबा करने के लिये लकड़ी, हाथीदाँत अथवा धातु के बने लंबे गोल बेलनाकार जो आभूषण प्रयोग में आते थे, उसे ही मूलत: कुंडल कहते थे और उसके दो रूप थे - प्राकार कुंडल और वप्र कुंडल। बाद में नाना रूपों में उसका विकास हुआ। साहित्य में प्राय: पत्र कुंडल (पत्ते के आकार के कुंडल), मकर कुंडल (लकड़ी, धातु अथवा हाथीदाँत के कुंडल), शंख कुंडल (शंख के बने अथवा शंख के आकार के कुंडल), रत्न कुंडल, सर्प कुंडल, मृष्ट कुंडल आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। देवताओं के मूर्तन के प्रसंग में बृहत्संहिता में सूर्य, बलदेव और विष्णु को कुंडलधारी कहा गया है। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है। नाथ पंथ के योगियों के बीच कुंडल का विशेष महत्व है। वे धातु अथवा हिरण की सींग के कुंडल धारण करते हैं। श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:शृंगार.

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क्वोका

क्वोका (quokka) पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के दक्षिणी भाग में मिलने वाला एक बिल्ली-जितने आकार का मैक्रोपोड धानीप्राणी (मारसूपियल) है। कंगारू और वालाबी जैसे अन्य धानीप्राणियों की तरह यह भी शाकाहारी और मुख्य रूप से निशाचरी होता है। क्वोका सेटोनिक्स (Setonix) वंश की एकमात्र सदस्य जाति है। क्वोका पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के कुछ द्वीपों में मिलता है, जैसे कि रॉटनेस्ट द्वीप और ऐल्बनी के पास स्थित बॉल्ड द्वीप। इसके अलावा मुख्यभूमि पर टू पीपल्स बे प्राकृतिक उद्यान नामक संरक्षित क्षेत्र में भी इसकी कुछ आबादी है, जहाँ वे गिल्बर्ट्स पोटोरू नामक एक अन्य धानीप्राणी के साथ रहता है। .

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अवगम

नॅकर क्यूब और रुबिन गुलदस्ते ऐसे दो चित्र हैं जिनको दो भिन्न बोधों से देखा जा सकता है अपने वातावरण के बारे में इन्द्रियों द्वारा मिली जानकारी को संगठित करके उस से ज्ञान और अपनी स्थिति के बारे में जागरूकता प्राप्त करने की प्रक्रिया को अवगम या प्रत्यक्षण (perception) कहते हैं।Pomerantz, James R. (2003): "Perception: Overview".

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