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कबीर

सूची कबीर

कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनके लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी मिला जा सकता है। Encyclopædia Britannica (2015)Accessed: July 27, 2015 वे हिन्दू धर्म व इस्लाम के आलोचक थे। उन्होंने यज्ञोपवीत और ख़तना को बेमतलब क़रार दिया और इन जैसी धार्मिक प्रथाओं की सख़्त आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी। कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं। .

91 संबंधों: दलित, दादूदयाल, धरमदास, नागार्जुन, निदा फ़ाज़ली, पलटू साहब, पूर्णिमा, बस्ती, उत्तर प्रदेश, बाबू गुलाबराय, बाकरपुर, बीजक, भारत में धर्म, भारत के सात आश्चर्य, भारत की संस्कृति, भारतवर्ष (टीवी सीरीज), भारतीय समाजसुधारक, भारतीय व्यक्तित्व, भारतीय कवियों की सूची, भगत धन्ना, भक्त कवियों की सूची, भक्ति आन्दोलन, भक्ति काल, भक्तिकाल के कवि, भोजपुरी भाषा, मथुरानाथ तर्कवागीश, मध्य प्रदेश, मगहर, भारत, मुक्तक, मेघवाल, रमैनी और बीजक, रस (काव्य शास्त्र), रामस्वरूप वर्मा, रामानन्द, रामानन्दी सम्प्रदाय, रामानुज, राजकमल प्रकाशन पुस्तक सूची, राजेन्द्र शाह, रविदास, शाह अब्दुल लतीफ़, शूद्र वर्ण के हिन्दू सन्त, सत्गुरु, सन्त कंवर राम, साहित्य, साहित्य अकादमी पुरस्कार बंगाली, साहित्य अकादमी पुरस्कार संस्कृत, साहित्य अकादमी पुरस्कार अंग्रेज़ी, साखी, सिख धर्म, संत मत, संत कबीर नगर जिला, ..., संतसाहित्य, संधा भाषा, स्वामी रामानन्दाचार्य, स्वामी सोमदेव, हिन्दू धर्म की आलोचना, हिन्दू गुरु व सन्त, हिन्दी पुस्तकों की सूची/क, हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी ग्रन्थों की सूची, हिन्दी कवि, हिन्दी कवियों की सूची, हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति, हिंदी साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी, होली, घीसादास, वाराणसी, वाराणसी का इतिहास, वाराणसी/आलेख, वाल्मीकि, विश्व हिन्दी सम्मेलन, गरीब दास, गंगा नदी, गुरबानी, गुरु ग्रन्थ साहिब, गुलाब खंडेलवाल, गुजराती साहित्य, गोरखपुर, ओउ्म्, कबीर पंथ, कबीर सम्मान, कबीर के आलोचक (पुस्तक), काशी, कुम्भ (बर्तन), अनाहत, अन्नू कपूर, अलख, उत्तर प्रदेश, उत्तर प्रदेश का इतिहास, उलटबाँसी, छत्तीसगढ़ी साहित्य सूचकांक विस्तार (41 अधिक) »

दलित

दलित का मतलब पहले पिडीत, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकडा, खंडित, तोडना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदाहुआ, विनष्ट हुआ करता था, लेकिन अब अनुसूचित जाति को दलित बताया जाता है, अब दलित शब्द पूर्णता जाति विशेष को बोला जाने लगा हजारों वर्षों तक अस्‍पृश्‍य या अछूत समझी जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्‍त होता है जो हिंदू धर्म शास्त्रों द्वारा हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले (चौथे) पायदान पर स्थित है। और बौद्ध ग्रन्थ में पाँचवे पायदान पर (चांडाल) है संवैधानिक भाषा में इन्‍हें ही अनुसूचित जाति कहां गया है। भारतीय जनगनणा 2011 के अनुसार भारत की जनसंख्‍या में लगभग 16.6 प्रतिशत या 20.14 करोड़ आबादी दलितों की है।http://m.timesofindia.com/india/Half-of-Indias-dalit-population-lives-in-4-states/articleshow/19827757.cms आज अधिकांश हिंदू दलित बौद्ध धर्म के तरफ आकर्षित हुए हैं और हो रहे हैं, क्योंकी बौद्ध बनने से हिंदू दलितों का विकास हुआ हैं।http://www.bbc.com/hindi/india/2016/04/160414_dalit_vote_politician_rd "दलित" शब्द की व्याखा, अर्थ तुलनात्मक दृष्टी से देखे तो इसका विरुद्ध विषलेशण इस प्रकार है। "दलित" -: पिडीत, शोषित, दबा हुआ, खिन्न, उदास, टुकडा, खंडित, तोडना, कुचलना, दला हुआ, पीसा हुआ, मसला हुआ, रौंदाहुआ, विनष्ट "फलित" -: पिडामुक्त, उच्च, प्रसन्न, खुशहाल, अखंड, अखंडित, जोडना, समानता, एकरुप, पूर्णरूप, संपूर्ण .

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दादूदयाल

दादूदयाल (1544-1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से 'दादू पंथ' चल पडा। ये अत्यधिक दयालु थे। इस कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। .

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धरमदास

धरमदास (या धनी धर्मदास; १४३३ - १५४३ अनुमानित) कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन सन्त एवं हिन्दी कवि थे। धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है। कबीरदास के बाद हरमदास कबीरपंथ के सबसे बड़े उन्नायक थे। .

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नागार्जुन

नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया। .

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निदा फ़ाज़ली

मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली (ندا فاضلی.) हिन्दी और उर्दू के मशहूर शायर थे इनका निधन ०८ फ़रवरी २०१६ को मुम्बई में निधन हो गया। .

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पलटू साहब

पलटू साहब। पलटू साहब.

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पूर्णिमा

पूर्णिमा पंचांग के अनुसार मास की 15वीं और शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चंद्रमा आकाश में पूरा होता है। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व हैं। हर माह की पूर्णिमा को कोई न कोई पर्व अथवा व्रत अवश्य मनाया जाता हैं। .

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बस्ती, उत्तर प्रदेश

यह भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर और बस्ती जिला का मुख्यालय है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। बस्ती जिला गोण्डा जिले के पूर्व और संत कबीर नगर के पश्चिम में स्थित है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भी यह उत्तर प्रदेश का सातवां बड़ा जिला है। प्राचीन समय में बस्ती को 'कौशल' के नाम से जाना जाता था। Created by_Deepak Patel .

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बाबू गुलाबराय

बाबू गुलाबराय (१७ जनवरी १८८८ - १३ अप्रैल १९६३) हिन्दी के आलोचक तथा निबन्धकार थे।। .

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बाकरपुर

भारत के बिहार राज्य में वैशाली जिला अंतर्गत एक पंचायत है। इसके अंतर्गत गोविन्दपुर झखराहा, दोबरकोठी, गंगाजल, सरमस्तपुर, नीरपुरा-बाकरपुर, शेखपुरा, अहमदपुर गाँव हैं। समूचे पंचायत में बज्जिका बोली जाती है। शिक्षा का माध्यम हिंदी एवं उर्दू है। साक्षरता का औसत मध्यम है। स्वतंत्रता पूर्व यह पंचायत अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित राजस्व वसूली का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। मुख्य रूप से ग्रामीण संस्कृति की यहाँ प्रधानता है। दैनिक जरुरतों की पूर्ति के लिए कई चौक-चौराहों पर बने दूकानों के अलावे प्रमुख बाजार चकसिकन्दर है। पंचायत के गाँवों की धार्मिक संरचना प्रमुख रूप से हिंदू एवं मुसलमान से बनी है लेकिन धर्म-निरपेक्ष स्वरुप वाले सम्प्रदाय जैसे- राधा स्वामी, कबीर मत को मानने वाले समूह भी हैं। हिंदू जातियों में यादव, कोईरी, कुर्मी, बनिया, लुहार्, चौरसिया आदि एवं मुस्लिम जातियों में धुनिया एवं लालमन प्रमुख है। यादव जाति बहुल इस पंचायत में एक कल्यानकारी संस्था यादव संघ बाकरपुर कार्यरत है।.

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बीजक

बीजक भगत कबीर की मुख्य प्रामाणिक कृति है, इस कृति को कबीर पंथ की पवित्र पुस्तक मानी जाती है। मसि कागद छुवों नहीं, कलम गहों नहिं हाथ (साखी १८७) इसको पढ़ कर कितने लोग इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि कबीर साहेब ने तो कलम-कागज छुआ ही नहीं। अतः बीजक उनकी रचना नहीं, किन्तु परिवर्तियों की है। परन्तु यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है। उन्होंने यदि 'मसि-कागद' नहीं छुआ तो मुख से तो जनाया | अर्थात आप समय-समय पर बीजक के पद्ध मुख से कहते गये और उनको शिश्यजन लिपिबद्ध करते गये। अपनी प्रिय पुस्तक का 'बीजक' नाम आप स्वयं रखे हैं, इसी प्रकार ग्यारहों प्रकरणों के नामकरण भी आप ही द्वारा हुए हैं।.

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भारत में धर्म

तवांग में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा. बैंगलोर में शिव की एक प्रतिमा. कर्नाटक में जैन ईश्वरदूत (या जिन) बाहुबली की एक प्रतिमा. 2 में स्थित, भारत, दिल्ली में एक लोकप्रिय पूजा के बहाई हॉउस. भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज, दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है। भारत के पूर्ण इतिहास के दौरान धर्म का यहां की संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है - हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिक्ख धर्म.

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भारत के सात आश्चर्य

विश्व की सबसे शानदार मानव-निर्मित और प्राकृतिक चीजों को सूचीबद्ध करने के लिए विश्व के सात आश्चर्य की कई सूचियां बनाई गयी हैं। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) समाचार पत्र ने के पहचाने गए 20 प्राचीन तथा मध्यकालीन स्थलों में से सात महान आश्चर्यों के चुनाव के लिए 21 से 31 जुलाई 2007 के बीच एक Simple Mobile Massage मतदान करवाया.

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भारत की संस्कृति

कृष्णा के रूप में नृत्य करते है भारत उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक सीमाओं और क्षेत्रों की स्थिरता और ऐतिहासिक स्थायित्व को प्रदर्शित करता हुआ मानचित्र भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को भी बहुत प्रभावित किया है। .

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भारतवर्ष (टीवी सीरीज)

भारतवर्ष: महानायकों की गौरव कथा एक भारतीय टेलीविजन ऐतिहासिक वृत्तचित्र श्रृंखला (डॉक्यूमेन्टरी) है, हिंदी समाचार चैनल एबीपी न्यूज पर अभिनेता-निर्देशक अनुपम खेर द्वारा होस्ट किया गया। यह 20 अगस्त 2016 को शुरू हुआ। यह शो भारत के 5000 वर्षीय इतिहास में व्यक्तित्वों के विचारों और विचारों को प्रस्तुत करता है और प्राचीन भारत से 19वीं शताब्दी तक का सफर दर्शाता है। सीजन-1 23 अक्टूबर 2016 को समाप्त हुआ। कुछ अंतराल के बाद सीजन 2 शुरू होगा। .

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भारतीय समाजसुधारक

भारतीय समाज सुधारक, जिन्होंने आधुनिक भारत की नींव स्थापित करने में मदद की है एक समृद्ध इतिहास के कुछ मामलों में, राजनीतिक कार्रवाई और दार्शनिक शिक्षाओं के माध्यम से दुनिया भर में अपने प्रभाव से प्रभावित किया है, यह एक साथ समाज सुधारकों जो उम्र के माध्यम से रहता है की एक विस्तृत सूची डाल करने के लिए लगभग असंभव है। नीचे उनमें से कुछ कर रहे हैं।.

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भारतीय कवियों की सूची

इस सूची में उन कवियों के नाम सम्मिलित किये गये हैं जो.

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भगत धन्ना

धन्ना भगत (जन्म:१४१५) एक रहस्यवादी कवि और जिसका तीन भजन आदि ग्रन्थ में मौजूद हैं एक वैष्णव भक्त थे।धन्ना मूल रूप से ढाणी धोरी राजस्थान के टोंक जिले में तहसील के पास के गांव में भारत जाट परिवार में पैदा हुआ थे। धन्ना का जन्म लेकिन अपने नाम का वर्ष प्रकट नहीं है जैसा कबीर या रविदास के लेखन में मैक्स आर्थर (१४१५) हल करता है। 'बीज बुवाई बिना अनाज कैसे धन्ना' मीरा बाई गाने में अपने नाम का जल्द से जल्द उल्लेख है।उन्होंने रामनुंज से शिक्षा प्राप्त की थी। .

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भक्त कवियों की सूची

* आलवार सन्त.

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भक्ति आन्दोलन

भक्ति आन्दोलन मध्‍यकालीन भारत का सांस्‍कृतिक इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। यह एक मौन क्रान्ति थी। यह अभियान हिन्‍दुओं, मुस्लिमों और सिक्‍खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्‍दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्‍वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्‍यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्‍पन्‍न हुए हैं। .

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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भक्तिकाल के कवि

भक्तिकाल में कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं - कबीरदास, संत शिरोमणि रविदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु। .

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भोजपुरी भाषा

भोजपुरी शब्द का निर्माण बिहार का प्राचीन जिला भोजपुर के आधार पर पड़ा। जहाँ के राजा "राजा भोज" ने इस जिले का नामकरण किया था।भाषाई परिवार के स्तर पर भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यवहारिक रूप से भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा या बोली है। भोजपुरी अपने शब्दावली के लिये मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी पर निर्भर है कुछ शब्द इसने उर्दू से भी ग्रहण किये हैं। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना (2001) आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग ४ करोड़ है, हालांकि द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख के में ये बताया गया है कि पूरे विश्व में भोजपुरी के वक्ताओं की संख्या १६ करोड़ है, जिसमें बिहार में ८ करोड़ और उत्तर प्रदेश में ७ करोड़ तथा शेष विश्व में १ करोड़ है। उत्तर अमेरिकी भोजपुरी संगठन के अनुसार वक्ताओं की संख्या १८ करोड़ है। वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है। .

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मथुरानाथ तर्कवागीश

मथुरानाथ तर्कवागीश नवद्वीप के विद्वन्मुकुट नैयायिक थे। इनके विशिष्ट पांडित्य के संमान में इन्हें "तर्कवागीश" कहा जाता था, इन्होंने "तत्त्वचिंतामणि" पर "रहस्य" नामक टीका की रचना की है। सचमुच "रहस्य" के बिना तत्वचिंतामणि के अनेक स्थान रहस्य ही रह जाते हैं। इन्हें 16वीं शाताब्दी में विद्यमान माना जाता है। .

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन एवं मध्यप्रदेश के कई नगर उस से हटा कर छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है। हाल के वर्षों में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर हो गया है। खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की 30% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य में वर्ष 2010-11 राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीत लिया। .

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मगहर, भारत

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के संत कबीर नगर जिले में मगहर एक क़स्बा और नगर पंचायत है। यह खलीलाबाद विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आता है।http://eci.nic.in/delim/Final_Publications/UP/UP.pdf .

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मुक्तक

मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। मुक्तक शब्द का अर्थ है ‘अपने आप में सम्पूर्ण’ अथवा ‘अन्य निरपेक्ष वस्तु’ होना.

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मेघवाल

जम्मू, भारत में एक समारोह के दौरान मेघ बालिकाओं का एक समूह मेघ, मेघवाल, या मेघवार, (उर्दू:میگھواڑ, सिंधी:ميگھواڙ) लोग मुख्य रूप से उत्तर पश्चिम भारत में रहते हैं और कुछ आबादी पाकिस्तान में है। सन् 2008 में, उनकी कुल जनसंख्या अनुमानतः 2,807,000 थी, जिनमें से 2760000 भारत में रहते थे। इनमें से वे 659000 मारवाड़ी, 663000 हिंदी, 230000 डोगरी, 175000 पंजाबी और विभिन्न अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते हैं। एक अनुसूचित जाति के रूप में इनका पारंपरिक व्यवसाय बुनाई रहा है। अधिकांश हिंदू धर्म से हैं, ऋषि मेघ, कबीर, रामदेवजी और बंकर माताजी उनके प्रमुख आराध्य हैं। मेघवंश को राजऋषि वृत्र या मेघ ऋषि से उत्पन्न जाना जाता है।सिंधु सभ्यता के अवशेष (मेघ ऋषि की मुर्ति मिली) भी मेघो से मिलते है। हडप्पा,मोहन-जोद़ङो,कालीबंगा (हनुमानगढ),राखीगङी,रोपङ,शक्खर(सिंध),नौसारो(बलुचिस्तान),मेघढ़(मेहरगढ़ बलुचिस्तान)आदि मेघवंशजो के प्राचीन नगर हुआ करते थे। 3300ई.पू.से 1700ई.पू.तक सिंध घाटी मे मेघो की ही आधिक्य था। 1700-1500ई.पू.मे आर्यो के आगमन से मेघ, अखंड भारत के अलग अलग भागो मे बिछुङ (चले) गये । ये लोग बहुत शांत स्वभाव व प्रवृति के थे। इनका मुख्य साधन ऊंठ-गाङा व बैल-गाङा हुआ करता। आज मेघवालो को बहुत सारी उपजातीयो बांट रखा है जिसमे सिहमार, भगत, बारुपाल, मिड़ल (मिरल),केम्मपाल, अहम्पा, पंवार,पङिहार,लिलङ,जयपाल,पंवार,चावणीया, तुर्किया,गाडी,देवपाल,जालानी गोयल-मंगी,पन्नु, गोगली,गंढेर,दहीया,पुनङ,मुंशी,कोली आदि प्रमुख है। मेघवंशो के कूलगुरु गर्गाचार्य गुरङा होते है। .

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रमैनी और बीजक

रमैनी या रमनिनी 'बीजक' की प्रस्तावना है। कबीर ने रमैनी द्वारा हिंदू एवं मुस्लिम दोनों को समान रूप से धार्मिक शिक्षा दी है और अपने विचारों को निर्भयतापूर्वक समाज के समक्ष रखा है। रमैनी में चौरासी पद हैं। प्रत्येक पद में स्वतंत्र विचार हैं। प्रथम रमैनी में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन, समष्टि और व्यष्टि भाव से किया गया है। द्वितीय रमैनी में व्यष्टि रूप से जीव तथा माया की त्रिगुणात्मक फाँस में जीवात्माओं के फँस जाने का वर्णन किया गया है। तीसरी एवं चौथी रमैनी में अनेक वाणियों एवं कर्मों के जाल का वर्णन किया गया है। पंचम पद में द्वंद्व के फंदे को मुक्ति का बाधक बतलाया गया है और छठे में आत्मा के असंग ज्ञान से माया के संग के परित्याग का विवेचन किया गया है। सातवें से लेकर दसवें तक वेदांत की चर्चा के साथ माया के बंधन और उनसे छूटने के मार्ग पर प्रकाश डाला गया है। रमैनी में चार स्थलों पर जीवों को चेतावनी दी गई हैं। सर्वप्रथम ग्यारहवें पद में जीवों को संबोधित किया गया है कि भोगों की वासना, उन्हें माया के बंधनों में फाँस देती है। इक्कीसवे एवं बाइसवें पदों में यह चेतावनी दी गई है कि इस अपार दु:खमय जगत्‌ में केवल दु:ख ही दु:ख है। अत: विवेक धारण करना आवश्यक है। चौवालीसवें पद में तीसरी बार कबीर ने जीवों को बतलाया है कि सतसंग से सन्मार्ग मिलता है। अंतिम याने, चौरासीवें पद में चौथी बार उद्बोधन किया है कि मनुष्य स्वयं सचेत नहीं होता अत: स्वप्रमय संसार से मुक्ति नहीं पाता। यदि वह स्वयं चेते तो वह एक हो जाए। रमैनी के शेष पदों में भ्रमजाल, अभिमान, अज्ञान, अविद्या, कर्मबंधन, संसारी गुरुओं की कहानी, जीव, ईश्वर और मन का ताना बाना और उसकी दशा, जैन आदि मत की समीक्षा, शास्त्रव्यवसायी पंडितों की दशा, ज्ञान की आवश्यकता, संसार की अनित्यता, माया ओर मन की प्रबलता, हठयोगियों की दशा, मनुष्य जाति का निरूपण, शैव हठयोगियों तथा वाचक ब्रह्मज्ञानियों की दशा, अवतारवाद, मायाफाँस और उसका विनाश, कालपुरुष और जीव का स्वरूप, विवेक की आवश्यकता, संसारवृक्ष की विलक्षणता एवं क्षत्रिय कर्तव्यविचार का आध्यात्मिक विवेचन किया गया है। कायागढ़ जीतने पर अधिक बल दिया गया है। कबीर के बीजक ग्रंथ का वास्तविक सार एवं आध्यात्मिक रहस्य रमैनी में मिलता है जो प्राय: चौपाई छंद में हैं। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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रामस्वरूप वर्मा

रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त, 1923 – 19 अगस्त, 1998), एक समाजवादी नेता थे जिन्होने 'अर्जक संघ' की स्थापना की। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का 'कबीर' कहा जाता है। वे डाॅ० राममनोहर लोहिया के निकट सहयोगी और उनके वैचारिक मित्र तथा १९६७ में उत्तर प्रदेश सरकार के चर्चित वित्तमंत्री थे जिन्होंने उस समय २० करोड़ लाभ का बजट पेश कर पूरे आर्थिक जगत को अचम्भित कर दिया। उनका सार्वजनिक जीवन सदैव निष्कलंक, निडर, निष्पक्ष और व्यापक जनहितों को समर्पित रहा। राजनीति में जो मर्यादाएं और मानदंण्ड उन्होंने स्थापित किये और जिन्हें उन्होंने स्वयं भी जिया उनके लिए वे सदैव आदरणीय और स्मरणीय रहेंगे। २२ अगस्त १९२३ को कानपुर (वर्तमान कानपुर देहात) के ग्राम गौरीकरन के एक किसान परिवार में जन्में रामस्वरूप ने राजनीति को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में छात्र जीवन में ही चुन लिया था बावजूद इसके कि छात्र राजनीति में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई जहां से उन्होंने हाई स्कूल और इंटर की परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्मा जी सदैव मेधावी छात्र रहे और स्वभाव से अत्यन्त सौम्य, विनम्र, मिलनसार थे पर आत्मस्म्मान और स्वभिमान उनके व्यक्तित्व में कूट-कूट कर भरा हुआ था। उन्होंने १९४९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिन्दी में एम०ए० और इसके बाद कानून की डिग्री हासिल की। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और इतिहास में सर्वोच्च अंक पाये जबकि पढ़ाई में इतिहास उनका विषय नहीं रहा। पर नौकरी न करने दृढ़ निश्चय के कारण साक्षात्कार में शामिल नहीं हुए। इनके पिता का नाम वंशगोपाल था। वर्मा जी अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे। अन्य तीन भाई गांव में खेती किसानी करते थे पर उनके सभी बड़े भाइयों ने वर्मा जी की पढ़ाई लिखाई पर न सिर्फ विशेष ध्यान दिया बल्कि अपनी रुचि के अनुसार कर्मक्षेत्र चुनने के लिए भी प्रोत्साहित किया। पढ़ाई के बाद सीधे राजनीति में आने पर परिवार ने कभी आपत्ति नहीं की बल्कि हर सम्भव उन्हें प्रोत्साहन और सहयोग दिया। सर्वप्रथम वे १९५७ में सोशलिस्ट पार्टी से भोगनीपुर विधानसभा क्षेत्र उत्तर प्रदेश विधान सभा के सद्स्य चुने गये, उस समय उनकी उम्र मात्र ३४ वर्ष की थी। १९६७ में संयुक्त सोशलिस्ट पर्टी से, १९६९ में निर्दलीय, १९८०, १९८९ में शोषित समाजदल से उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गये। १९९१ में छठी बार शोषित समाजदल से विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। जनान्दोलनों में भाग लेते हुए वर्मा जी १९५५, १९५७, १९५८, १९६०, १९६४, १९६९, और १९७६ में १८८ आई०पी०सी० की धारा ३ स्पेशल एक्ट धारा १४४ डी० आई० आर० आदि के अन्तर्गत जिला जेल कानपुर, बांदा, उन्नाव, लखनऊ तथा तिहाड़ जेल दिल्ली में राजनैतिक बन्दी के रूप में सजाएं भोगीं। वर्मा जी ने १९६७-६८ में उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में वित्तमंत्री के रूप में २० करोड़ के लाभ का बजट पेश कर पूरे आर्थिक जगत को अचम्भे में डाल दिया। बेशक संविद सरकार की यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। कहा जाता है कि एक बार सरकार घाटे में आने के बाद फायदे में नहीं लाया जा सकता है, अधिक से अधिक राजकोषीय घाटा कम किया जा सकता है। दुनिया के आर्थिक इतिहास में यह एक अजूबी घटना थी जिसके लिए विश्व मीडीया ने वर्मा जी से साक्षात्कार कर इसका रहस्य जानना चाहा। संक्षिप्त जबाब में तो उन्होंने यही कहा कि किसान से अच्छा अर्थशास्त्री और कुशल प्रशासक कोई नहीं हो सकता क्योंकि लाभ-हानि के नाम पर लोग अपना व्यवसाय बदलते रहते हैं पर किसान सूखा-बाढ़ झेलते हुए भी किसानी करना नहीं छोडता। वर्मा जी भले ही डिग्रीधारी अर्थशास्त्री नहीं थे पर किसान के बेटे होने का गौरव उन्हें प्राप्त था। बाबजूद इसके कि वर्मा जी ने कृषि, सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे तमाम महत्वपूर्ण विभागों को गत वर्ष से डेढ़ गुना अधिक बजट आवंटित किया तथा कर्मचारियों के मंहगाई भत्ते में वृद्धि करते हुए फायदे का बजट पेश किया। अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करते करते वर्मा जी समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गये थे और डा0 लोहिया के नेतृत्व में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। डाॅ० राममनोहर लोहिया को अपनी पार्टी के लिए एक युवा विचारशील नेतृत्व मिल गया जिसकी तलाश उन्हें थी। डा० लोहिया को वर्मा जी के व्यक्तित्व की सबसे महत्वपूर्ण बात यह लगी कि उनके पास एक विचारशील मन है, वे संवेदनशील हैं, उनके विचारों में मौलिकता है, इन सबसे बड़ी बात यह थी किसान परिवार का यह नौजवान प्रोफेसरी और प्रशासनिक रुतबे की नौकरी से मुंह मोड़ कर राजनीति को सामाजिक कर्म के रूप में स्वीकार कर रहा है। डाॅ लोहिया को वर्मा जी का जिन्दगी के प्रति एक फकीराना नजरिया और निस्वार्थी-ईमानदार तथा विचारशील व्यक्तित्व बहुत भाया और उनके सबसे विश्वसनीय वैचारिक मित्र बन गये क्योंकि वर्मा जी भी डा० लोहिया की तरह देश और समाज के लिए कबीर की तरह अपना घर फूंकने वाले राजनैतिक कबीर थे। वर्मा जी अपने छात्र जीवन में आजादी की लड़ाई के चश्मदीद गवाह रहे पर उसमें हिस्सेदारी न कर पाने का मलाल उनके मन में था इसीलिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की रुतबेदार नौकरी को लात मार कर राजनीति को देश सेवा का माध्यम चुना और राजनीति भी सिद्धान्तों और मूल्यों की। उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए पहला चुनाव १९५२ में भोगनीपुर चुनाव क्षेत्र से एक वरिष्ठ कांगे्रसी नेता रामस्वरूप गुप्ता के विरुद्ध लड़ा और महज चार हजार मतों से वे हारे पर १९५७ के चुनाव में उन्होंने रामस्वरूप गुप्ता को पराजित किया। उन्हें राजनीति में स्वार्थगत समझौते अोहदों की दौड़ से सख्त नफरत थी। उनका ध्येय एक ऐसे समाज की संरचना करना था जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। वे सामाजिक आर्थिक, सामाजिक राजनैतिक न्याय के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक बराबरी के प्रबल योद्धा थे और इसके लिए वे चतुर्दिक क्रान्ति अर्थात सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक क्रान्ति की लड़ाई एक साथ लड़े जाने पर जोर देते थे। वर्मा जी ने १९६९ में अर्जक संघ का गठन किया और अर्जक साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया। अर्जक संघ अपने समय का सामाजिक क्रान्ति का एक ऐसा मंच था जिसने अंधविश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय के आन्दोलन का बिगुल फूंका। उन्हें उत्तर भारत का अंम्बेडकर भी कहा गया। मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी वर्मा जी के इस सामाजिक न्याय के आन्दोलन से जुड़े और अर्जक साप्ताहिक में क्रान्तिकारी वैचारिक लेख प्रकाशित हुए। उस समय के अर्जक साप्ताहिक का संग्रह विचारों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वर्मा जी ने "क्रांन्ति क्यों और कैसे", ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा, अछूत समस्या और समाधान, ब्राह्मणण महिमा क्यों और कैसे? मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, निरादर कैसे मिटे, अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, भंडाफोड़, 'मानववादी प्रश्नोत्तरी' जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई़ं। महाराज सिंह भारती और रामस्वरूप वर्मा की जोड़ी "मार्क्स और एंगेल" जैसे वैचारिक मित्रों की जोड़ी थी और दोनों का अन्दाज बेबाक और फकीराना था। दोनों किसान परिवार के थे और दोनों के दिलों में गरीबी, अपमान अन्याय और शोषण की गहरी पीड़ा थी। महाराज सिंह भारती ने सांसद के रूप में पूरे विश्व का भ्रमण कर दुनिया के किसानों और उनकी जीवन पद्धति का गहन अध्ययन किया और उन्होंने महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी। उनकी पुस्तक "सृष्टि और प्रलय", डार्विन की "आॅरजिन आॅफ स्पसीज" की टक्कर की सरल हिन्दी में लिखी गयी पुस्तक है जो आम आदमी को यह बताती है कि यह दुनिया कैसी बनी और यह भी बताती है कि इसे ईश्वर ने नहीं बनाया है बल्कि यह स्वतः कुदरती नियमों से बनी है और इसके विकास में मनुष्य के ष्रम की अहम भूमिका है। उनकी "ईश्वर की खोज" और भारत का नियोजित दिवाला जैसी अनेक विचार परक पुस्तकें हैं जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं। बिहार के 'लेनिन' कहे जाने वाले जगदेव बाबू ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्व से प्रभावित होकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनेतिक संघर्ष से आंतकित होकर उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों ने उनकी हत्या करा दी। जगदेव बाबू की शहादत से शोषित समाज दल को गहरा आघात लगा पर सामाजिक क्रान्ति की आग और तेज हुई। जगदेव बाबू बिहार के पिछड़े वर्ग के किसान परिवार से थे और वर्मा जी की तरह वे भी अपने संघर्ष के बूते बिहार सरकार मंत्री रहे। वर्मा जी का संपूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित था। उन्होंने “जिसमें समता की चाह नहीं/वह बढि़या इंसान नहीं, समता बिना समाज नहीं /बिन समाज जनराज नहीं जैसे कालजयी नारे गढ़े। राजनीति और राजनेता के बारे में एक साक्षात्कार में दिया गया उनका बयान गौर तलब है। राजनीति के बारे में उनका मानना है कि यह शुद्धरूप से अत्यन्त संवेदनशील सामाजिक कर्म है और एक अच्छे राजनेता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि उसे देश और स्थानीय समाज की समस्याअों की गहरी और जमीनी समझ हो और उनके हल करने की प्रतिबद्ध्ता हो। जनता अपने नेता को अपना आदर्श मानता है इसलिए सादगी, ईमानदारी, सिद्धान्तवादिता के साथ-साथ कर्तब्यनिष्ठा निहायत जरूरी है। वर्मा जी ने विधायकों के वेतन बढ़ाये जाने का विधान सभा में हमेशा विरोध किया और स्वयं उसे कभी स्वीकार नहीं किया। वर्मा जी ने संविद सरकार में सचिवालय से अंगे्रजी टाइप राइटर्स हटवा दिये और पहली बार हिन्दी में बजट पेश किया जो परंपरा अब बरकरार। वर्मा जी ने बजट में खण्ड-६ का समावेश किया जिसमें प्रदेश के कर्मचारियों/अधिकारियों का लेखा जोखा होता है, इसके पहले सरकारें कर्मचरियों के बिना किसी लेखे-जोखे के अपने कर्मचारियों को वेतन देती थी। वर्मा जी के चिन्तन में समग्रता थी। उन्होंने क्रन्ति को परिभाषित करते हुए कहा कि "क्रान्ति जीवन के पूर्व निर्धारित मूल्यों का जनहित में पुनिर्धारण करना है क्रान्ति है"। उनके विचार मौलिक होते हैं पर वे बाबा साहब डा० अम्बेडकर, चारवाक, कार्ल मार्क्स और गौतम बुद्ध के विचारों से प्रभावित थे पर कहीं कहीं इनसे असहमत भी थे। यही बेबाकी उनकी खासियत थी। .

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रामानन्द

रामानन्द सम्प्रदाय के प्रवर्तक समी रामानन्दाचार्य का जन्म सम्वत् 1236 में हुआ था। जन्म के समय और स्थान के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। शोधकर्ताओं ने जो जानकारी जुटाई है उसके अनुसार रामानन्द जी के पिता का नाम पुण्यसदन और माता का नाम सुशीला देवी था। उनकी माता नित्य वेणीमाधव भगवान की पूजा किया करती थीं। एक दिन वे मन्दिर में दर्शन करने गईं तो उन्हें दिव्योणी सुनाई दी - हे माता पुत्रवती हो। उनके आँचल में एक माला और दाहिनार्त शंख प्रकट हुआ। वह प्रसाद पाकर बहुत खुश हुईं और पतिदेव को सारी बात बताई। एक दिन माता ने देखा- आकाश से प्रकाश पुंज आ रहा है। वह प्रकाश उनके मुख में समा गया। माता डरकर बेहाश हो गईं। थोड़ी देर बाद उन्हें जब होश आया तो वे उठकर बैठ गई। उस दिन से उनके शरीर में एक शक्ति का संचार होने लगा। शुष्लग्न में प्रात:काल आचार्य प्रकट हुए। उनके प्रकट होने के समय माता को बिल्कुल पीड़ा नहीं हुई। पुण्यसदन जी के घर बालक पैदा होने की खबर पाकर पूरा प्रयाग नगर उमड़ पड़ा। कुलपुरोहित ने उनका नाम रामानन्द रखा। बालक के लिए सोने का पालना लगाया गया। उनके शरीर पर कई दिव्य चिन्ह थे। माथे पर तिलक का निशान था। बालक के खेलने के समय एक तोता रोजाना उसके पास आ जाता और ‘राम-राम‘ का शब्द करता। यह ‘राम-राम‘ का शब्द उनके जीन का आधार बन गया। इस बालक के पास एकोनर और कौआ भी रोजाना आता था। वह कौआ बालक के खिलौने लेकर उड़ जाता और बालक के मचलने परोपस दे जाता। भादों के महीने में ऋषि-पंचमी के दिन अन्न प्रक्षालन का उत्सव मनाया गया। थाल में पकान, खीर और लड्डू रखे गए लेकिन बालक रामानन्द ने केल खीर को उंगली लगाई। माता ने थोड़ी-सी खीर मुख में खिला दी। उसके अलावा बालक को कुछ नहीं खाया। यह खीर ही आजीन उनका आहार था। एक दिन बालक रामानन्द खेलते हुए पूजा के मन्दिर में जा पहुंचे। उन्होंने दाहिना्रत शंख उठा लिया और बजाने लगे। पिता ने शंख को हाथ से छीन लिया और क्रोधित होने लगे। बालक रामानन्द बाहर भाग गया। बाद में उनके पिता को स्वप्न में वेणीमाधव भगवान ने शंख बालक को देने की आज्ञा की। प्रात:काल बालक को शंख बजाने को कहा। उस दिन से बालक रामानन्द दिन में तीन बार उस शंख को बजाते थे। पांच साल की उम्र में पिता ने कुछ ग्रन्थों के श्लोक सिखाए तो बालक ने तुरन्त याद कर लिए। एक साल में ही बालक रामानन्द ने कई ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया। प्रयाग कुम्भ में विद्वानों की एक सभा हुई। इसमें बालक रामानन्द को भी बुलाया गया। सभी विद्वानों ने इसमें अपने-अपने मत रखे। बालक रामानंद ने कहा- जसे कमल के दल पर पानी की बूंद लटकती है वैसे ही जी इस पृथ्वी पर हैं। पता नहीं कब उसके जाने का समय आ जाए? इसलिए बाद-विवाद छोड़ कर भगवान की भक्ति करनी चहिए। इस पर सभी विद्वानों और भक्तों ने उनकी प्रशंसा तथा आरती की। आठ साल की अवस्था में बालक का यज्ञोपवीत कराया गया। माघ शुक्ला द्वादशी के दिन विद्वानों ब्राह्मणों नें पलास का डंडा देकर काशी पढ़ने चलने के लिए कहा और कुछ देर बाद लौटने के लिए कहने लगे। लेकिन बालक रामानन्द लौटकर आने के लिए तैयार न हुए। तो उनको उनके पिता पंडित औंकार शर्मा के घर लेकर आए। पंडित औंकार शर्मा रामानन्द जी के मामा लगते थे। शर्मा जी उनकी बुद्धि चातुर्य को देखकर आनन्दित थे। कुमार ने कुछ ही दिनों में चारों वेद उपवेद को कण्ठस्थ कर उनके रहस्यों को समझ लिया। उनकी प्रसिद्धि सुनकर नित्य-प्रति अनेकों लोग बालक को देखने आते। एक दिन सिद्ध देवी आई। उन्होंने कहा- मैं कालीखोह से आई हूं। उन्होंने बालक से संस्कृत में पूछा- हे कुमार, कौनसी स्त्री है जो बड़ी चंचल है और चित्त में छुपी रहती हैं? वह नए-नए पदार्थ लाकर व्यक्तियों के सामने रखती है। परन्तु एक बार कोई उसे देख लेता है तो वह सदा के लिए लुप्त हो जाती है। इस पर बालक रामानन्द ने उत्तर दिया- उस स्त्री का नाम माया है। तब वृृद्धा ने कहा- उससे ब्याह कर लो। तब कुमार ने कहा- उसकी इच्छा करते ही मुँह काला हो जाता है। ब्याह के समय मनुष्य लंगड़ा हो जाता है। वह माया अन्धी भी है। मैं तो ब्रह्मचारी हूं। सारे जगत का कल्याण करूंगा। वृद्धा ने आशीर्वा दिया- ऐसा ही होगा और अपने स्थान पर चली गई। वह माता साक्षात् कालिका देवी थीं। यह समद सुनकर उनके पिता को बड़ा दुख हुआ। वह शांडिल्य गोत्र के एक ब्राह्मण की कन्या माधवी से वो विवाह तय कर चुके थे। इस बात को सुनकर वे कुमारिल भट्ट की मीमांसा लेकर आए। इसमे लिखा था- ‘‘एक बार विवाह अवश्य करना चाहिए।‘‘विवाह न करने से अनेकों पाप लगते हैं। इस पर रामानन्द जी ने कहा- यह कर्मकाण्ड की बात है। जिसे ज्ञान और भक्ति की सिद्धि बाल्यकाल में ही हो जाए उसे कोई पाप नहीं लगता। ऐसा कहकर वह चुप हो गए। पिता ने समझा कि वे हंसी में ऐसा कह रहे हैं और विवाह की तैयारी में लग गए। कन्या माधवी ने स्वप्न में देखा- कोई देवता कह रहा है कि तूने रामानन्द से विवाह किया तो विधवा हो जाएगी। यह सुनकर उसके माता-पिता का उत्साह नष्ट हो गया। कन्या ने जीवन भर अविवाहित रहने की ठान ली और कठोर तप करने लगी। अन्न त्याग कर केवल लौंग खाकर रहने लगी। उसे दूसरा स्वप्न हुआ- जिससे तुम्हारा विवाह होने वाला था, जाकर उसी से उपदेश लो तो तुम्हारा शीघ्र कल्याण होगा। दूसरे दिन प्रात:काल ही वह अपने परिवाार के साथ रामानन्द जी के सामने प्रस्तुत हुई और मन्त्र दीक्षा लेने की मांग करने लगी। रामानन्द जी के मना करने पर दूसरे लोग भी उसका समर्थन करने लगे। ज्यादा जिद करने पर रामानन्द जी ने अपने शंख को बजा दिया। शंख ध्वनि सुनते ही उनकी समाधि लग गई। समाधि में उसे दस जन्मों का स्मरण हो आया। उसने कहा- मुझे भगवान से दिव्य ज्ञान मिल गया है मैं अभी भगान के धाम में जा रही हूं। यह कहते ही एक दिव्य विमान वहाँ प्रकट हुआ और वह विमान पर बैठ कर चली गई। इस पर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके माता-पिता ने भी दीक्षा लेने की बात कही। इस पर रामानन्दाचार्य बहुत लज्जित महसूस करने लगे। वे वहीं बैठे-बैठे अन्तर्ध्यान हो गए। माता-पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। उन्हें दिव्य धाम के दर्शन हुए। जहाँ कुमार रामानन्द दिव्य सिंहासन पर बैठे थे। बड़े-बड़े देता और ऋषि उनकी स्तुति कर रहे थे। जन्म में उन्हें भगवान ने जो आशीर्वाद दिया था ह भी उन्हें ज्ञात हो गया। मोह माया का बंधन छूट गया। माता-पिता ने उठ कर देखा, सभी लोग विलाप कर रहे थे। चारो ओर पित्ति देखकर पुण्य सदन जी ने शरीर त्यागने की इच्छा की लेकिन लोगों ने उन्हें धैर्य बंधाया। उसी समय योग बल से महर्षि राघानन्द हाँ प्रकट हुये। शिष्ठ मुनि के अतार राघानन्द जी के प्रकट होते ही समस्त नर नारी उनके चरणों में जा पड़े। उन्होने समाधि लगाकर लोगों की समस्या को समझा। वे पुण्य सदन जी को सम्बोधित कर कहने लगे- आपका पुण्य महान है। आपको प्रभु ने रदान दिया था कि ह बारह साल तक वे आपके घर में बाल लीला का आनन्द देंगे। अब ह समय पूरा हो गया है और प्रभु अपने लोक को चले गये हैं। इस पर लोगो ने महर्षि राघानन्द जी से एक बार दर्शन कराने की बात की तो राघानन्द जी ने बड़े राम यज्ञ की आश्यकता बताई। उस यज्ञ के बाद कुमार रामानन्द प्रकट हुये। महíष राघानन्द जी ने कुमार से कहा- आपने दर्शन देकर हमारे यज्ञ को सफल किया। अब आप इस भूमि पर धर्म में आई गिराट को मिटाने के लिए और यनों के अत्याचार को खत्म करने के लिए यहीं रहो। महर्षि राघवानन्द जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा देकर विधिवत वैष्णव संन्यास दिया। रामानन्द जी पंच गंगा घाट पर तपस्या करने लगे। लोगों के ज्यादा आग्रह पर वह शंख बजाकर लोगों की समस्या का समाधान कर देते। एक मुर्दा उनकी शंख ध्वनि सुनकर जीवित् हो गया था। उन्हें जब ज्यादा विक्षोभ होने लगा तो उन्होंने शंख बजाना बंद कर दिया। वे लोगों के आग्रह पर दिन में सिर्फ एक बार शंख बजाने लगे। आधी रात के पश्चात एक दिन जब वे गंगा स्नान के लिए गये तो कलयुग राज उनके सामने प्रकट हुये। उनका पंच पात्र सोने का था। कलयुग राज उसमें जा बैठे। लेकिन आचार्य को इसका पता चल गया। जब आचार्य ने उनसे पूछा कि आप मेरी पूजा में विघ्न क्यों डालते हो तो कलयुग राज प्रत्यक्ष होकर राम मंत्र की दीक्षा मांगने लगे। रामानन्दाचार्य जी ने अपना स्वभाव छोड़ उन्हें मंत्र दीक्षा दी। रामानन्द जी ने अपने जीन काल में अनेकों दुखियों और पीड़ितों को अपने आर्शीाद से ठीक किया जिनमें राजकुमार का क्षय रोग, रैदास को दीक्षा, कबीर को आशीर्वाद, नये योगी श्री हरि नाथ की पीड़ा, ब्राह्मण कन्या बीनी का उद्धार जसी अनेकों चमत्कारिक घटनायें शामिल थीं। गगनौढ़गढ़ के राजा पीपाजी को मंत्र दीक्षा देकर उन्होंने वैष्णब सन्त बना दिया। उन्होंने अपने जीन काल में यवनों से हिन्दुओं की रक्षा की। उनके अत्याचारों को रुकाने के लिए दिल्ली के बादशाह से सन्धि की। आचार्य ने धर्म प्रचार के लिए काशी से चलकर गगनौरगढ़, चित्रकूट, जनकपुर, गंगासागर, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की यात्रा की। आज उन्हीं के तपोबल से रामानन्द सम्प्रदाय का विशाल पंथ चल रहा है। .

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रामानन्दी सम्प्रदाय

तीर्थयात्रा करने के बाद रामानन्द जब घर आए और गुरुमठ पहुँचे तो उनके गुरुभाइयों ने उनके साथ भोजन करने में आपत्ति की। उनका अनुमान था कि रामानन्द ने तीर्थाटन में अवश्य ही खानपान संबंधी छुआछूत का कोई विचार नहीं किया होगा। राघवानन्द ने अपने शिष्यों का यह आग्रह देखकर एक नया संप्रदाय चलाने की सलाह दे दी। यहीं से रामानन्द संप्रदाय का जन्म हुआ। इन दृष्टियों से रामानंद संप्रदाय एवं रामानुज संप्रदाय में भेद है किंतु दार्शनिक सिद्धांत से दोनों ही संप्रदाय विशिष्टाद्वैत मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत से मोक्ष का उपाय परमोपास्य की 'प्रपत्ति' है। रामानंद संप्रदाय में निम्नलिखित बातें प्रधान हैं -.

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रामानुज

रामानुजाचार्य (अंग्रेजी: Ramanuja जन्म: १०१७ - मृत्यु: ११३७) विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था। रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचारों का आधार बनाया। .

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राजकमल प्रकाशन पुस्तक सूची

राजकमल प्रकाशन हिन्दी पुस्तकों को प्रकाशित करने वाला प्रकाशन संस्थान है। इसका मुख्यालय दिल्ली, भारत, में स्थित है। 1949 में स्थापित यह प्रकाशन प्रति वर्ष लगभग चार सौ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन करता है। .

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राजेन्द्र शाह

राजेन्द्र केशवलाल शाह (રાજેન્દ્ર કેશવલાલ શાહ; २८ जनवरी १९१३, कपाड़वनज, भारत - २ जनवरी २०१०) एक गुजराती भाषा के साहित्यकार थे। उन्होंने गुजराती में २० से अधिक काव्य और गीतों के संकलन रचे हैं, ज़्यादातर प्रकृति की सुंदरता और जनजाति और मछुआरों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के विषयों पर। संस्कृत छंदों में रची उनकी कविताओं पर रविन्द्रनाथ टगोर की कृतियों का गहरा असर रहा है। उनके अनेक पेशों में उन्होंने बम्बई में प्रिंटिंग प्रेस भी चलाया है, जहाँ से उन्होंने कविलोक नाम की कविता पत्रिका छापी। हर रविवार सुबह उनके प्रेस में कवि आया करते थे, जो अपने आप में एक अहम प्रथा बन गयी। काव्यों के अलावा शाह ने गुजराती में कई अनुवाद भी किए हैं, जिनमें से कुछ: टगोर का कविता संकलन बलाक, जयदेव रचित गीतगोविन्द, अंग्रेज़ी कवि कॉलरिज की द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर और इटली के दांते की प्रसिद्ध कृति डिवाइन कॉमेडी हैं। शाह को वर्ष २००१ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। निर्णायकों का कहना था, "इनके जज़बातों की तीव्रता और इनके काव्यों के रूप और अभिव्यक्ति में नयापन इन्हें एक ख़ास और मह्त्वपूर्ण कवि बतलाता है। इनकी कविता की आद्यात्मिकता कबीर और नरसी मेहता जैसे मध्यकालीन महान कवियों की परम्परा में है।" .

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रविदास

संत कुलभूषण कवि संत शिरोमणि रविदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। मधुर एवं सहज संत शिरोमणि रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में शिरोमणि रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे। इनकी याद में माघ पूर्ण को रविदास जयंती मनाई जाती हैं। .

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शाह अब्दुल लतीफ़

शाह अब्दुल लतीफ शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई (1689-1752) सिंध के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि थे, जिन्होंने सिन्धी भाषा को विश्व के मंच पर स्थापित किया। शाह लतीफ़ का कालजयी काव्य-संकलन 'शाह जो रसालो' सिन्धी समुदाय के हृदयकी धड़कन सा है। सिन्ध का सन्दर्भ विश्व में शाह लतीफ़ की भूमि के रूप में भी दिया जाता है, जिस की सात नायिकाओं मारुई, मूमल, सस्सी, नूरी, सोहनी, हीर तथा लीला को सात रानियाँ भी कहा जाता है। ये सातों रानियाँ पवित्रता, वफादारी और सतीत्व के प्रतीक रूप में शाश्वत रूप से प्रसिद्ध हैं। इन सब की जीत प्रेम और वीरता की जीत है। शाह अब्दुल लतीफ़ एक सूफी संत थे जिन के बारे में राजमोहन गाँधी ने अपनी पुस्तक 'अण्डरस्टैण्डिंग द मुस्लिम माइण्ड' में लिखा है कि जब उनसे कोई पूछता था कि आप का मज़हब क्या है, तो कहते थे कोई नहीं। फिर क्षण भर बाद कहते थे कि सभी मज़हब मेरे मज़हब हैं। सूफी दर्शन कहता है कि जिस प्रकार किसी वृत्त के केंद्र तक असंख्य अर्द्ध- व्यास पहुँच सकते हैं, वैसे ही सत्य तक पहुँचने के असंख्य रास्ते हैं। हिन्दू या मुस्लिम रास्तों में से कोई एक आदर्श रास्ता हो, ऐसा नहीं है। कबीर की तरह शाह भी प्रेम को उत्सर्ग से जोड़ते हैं। प्रेम तो सरफरोशी चाहता है। इसीलिए शाह अपने एक पद में कहते हैं: .

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शूद्र वर्ण के हिन्दू सन्त

बहुत से प्रसिद्ध हिन्दू सन्त मूलतः शूद्र वर्ण के थे। उन्होने अपने ज्ञान तथा ईश्वर भक्ति से समाज में पूजनीय स्थान प्राप्त किया। हिन्दू समाज के सभी वर्गों के लोगों ने उन्हें सम्मान दिया और उनके उपदेशों तथा शिक्षाओं को अंगीकार किया। नीचे दी गई सारणी में प्रमुख शूद्रवर्णीय हिन्दू सन्तों का विवरण दिया गया है- .

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सत्गुरु

सत्गुरु या सद्गुरु का अर्थ है सच्चा गुरु.

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सन्त कंवर राम

सन्त कंवर राम (13 अप्रैल 1885 - १ नवम्बर 1939) सिन्ध के महान कर्मयोगी, त्यागी, तपस्वी तथा सूफी सन्त थे। .

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साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार बंगाली

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और बंगाली भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार संस्कृत

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और संस्कृत भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार अंग्रेज़ी

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और अंग्रेज़ी भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साखी

साखी संस्कृत 'साक्षित्‌' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव (5,60) में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। सिद्धों के अपभ्रंश साहित्य में भी प्रत्यक्षदर्शी के रूप में साखी का प्रयोग हुआ है, जैसे 'साखि करब जालंधर पाए ' (सिद्ध कण्हृपा)। आगे चलकर नाथ परंपरा में गुरुवचन ही साखी कहलाने लगे। इनकी रचना का सिलसिला गुरु गोरखनाथ से ही प्रारंभ हो गया जान पड़ता है, क्योंकि खोज में कभी-कभी जोगेश्वर साखी जैसे पद्य संग्रह मिल जाते हैं। आधुनिक देशी भाषाओं में विशेषत: हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की। कबीर के पूर्ववर्ती संत नागदेव की साखी नामक हस्तलिखित प्रति भी मिली है परंतु उसका संकलन उत्तर भारत, संभवत: पंजाब में हुआ होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में नामदेव की वाणी पद या अभग ही कहलाती है, साखी नहीं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार दादुदयाल के शिष्य रज्जब ने अपने गुरु की साखियों को अंगों में विभाजित किया। रज्जब का काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी है-कबीर के लगभग सौ वर्ष बाद। कबीर वचनावली में साखियाँ विभिन्न अंगों में पाई जाती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीर वचनावली का संग्रह रज्जब के पश्चात्‌ हुआ होगा। कबीर ने तो 'मसि कागद छूयो' नहीं अतएव संभावना यही है कि उनके परवर्ती शिष्यों ने अपने गुरु की साखियों-सिखावनी-को विभिन्न अंगों में विभाजित कर दिया होगा। साखी अपभ्रंश काल से बहुप्रचलित छंद 'दूहा' (दोहा) में लिखी जाती रही है अत: 'दूहा' का पर्याय भी समझी जाती रही है परंतु तुलसीदास के समय तक वह दोहा का पर्याय नहीं रह गई।; 'साखी', सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान।; भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।। तुलसीदास का समय ईसा की सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी है। प्रतीत होता है कि कबीर के समय से अथवा उनसे भी पहले साखी दोहा के अतिरिक्त चौपाई, चौपई, सार, छप्पय, हरिपद आदि छंदों में भी लिखी जाने लगी थी। 'गुरु ग्रंथसाहब' में साखी को सलोकु कहा गया है। मराठी साहित्य में भी हिंदी के प्रभाव से 'साकी' या 'साखी' का चलन हो गया था। वहाँ भी पहले वह 'दोहरा' छंद में लिखी जाती थी। पर क्रमश: अन्य छंदों में भी प्रयुक्त होने लगी। तुलसीदास के समान मराठी संत स्वामी रामदास ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दासबोध में उसकी अन्य काव्य प्रकारों से पृथक्‌ गणना की है- ' नाना पदें, नाना श्लोक, नाना वीर, नाना कड़क, नाना साख्या, दोहरे अनेक, नामानिधान।' ना.

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सिख धर्म

सिख धर्म (सिखमत और सिखी भी कहा जाता है; पंजाबी: ਸਿੱਖੀ) एक एकेश्वरवादी धर्म है। इस धर्म के अनुयायी को सिख कहा जाता है। सिखों का धार्मिक ग्रन्थ श्री आदि ग्रंथ या ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब है। आमतौर पर सिखों के 10 सतगुर माने जाते हैं, लेकिन सिखों के धार्मिक ग्रंथ में 6 गुरुओं सहित 30 भगतों की बानी है, जिन की सामान सिख्याओं को सिख मार्ग पर चलने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता ह। सिखों के धार्मिक स्थान को गुरुद्वारा कहते हैं। 1469 ईस्वी में पंजाब में जन्मे नानक देव ने गुरमत को खोजा और गुरमत की सिख्याओं को देश देशांतर में खुद जा जा कर फैलाया था। सिख उन्हें अपना पहला गुरु मानते हैं। गुरमत का परचार बाकि 9 गुरुओं ने किया। 10वे गुरु गोबिन्द सिंह जी ने ये परचार खालसा को सोंपा और ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब की सिख्याओं पर अम्ल करने का उपदेश दिया। संत कबीर, धना, साधना, रामानंद, परमानंद, नामदेव इतियादी, जिन की बानी आदि ग्रंथ में दर्ज है, उन भगतों को भी सिख सत्गुरुओं के सामान मानते हैं और उन कि सिख्याओं पर अमल करने कि कोशिश करते हैं। सिख एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे एक-ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है। .

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संत मत

लगभग 13 वीं सदी के बाद से भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में “संत मत” एक ढीले ढंग से जुड़ा गुरुओं का एक सहयोगी समूह था जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली। धर्म ब्रह्म विज्ञान के तौर पर उनकी शिक्षाओं की विशेषता यह है कि वे अंतर्मुखी और प्रेम भक्ति के एक दैवीय सिद्धांत से जुड़े हैं और सामाजिक रूप से वे एक समतावादी गुणों वाले सिद्धांत से जुड़े हैं जो हिंदु धर्म की जाति प्रथा के विरुद्ध है और हिंदू - मुस्लिम के अंतर के भी विरुद्ध है।वुडहेड, लिंडा और फ्लेचर, पॉल.

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संत कबीर नगर जिला

संत कबीर नगर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है। जिले का मुख्यालय खलीलाबाद है। क्षेत्रफल - 1659.15 वर्ग कि॰मी॰ जनसंख्या - 1,152,110 (1991 जनगणना) साक्षरता - 33 % (1991) एस॰टी॰डी॰ कोड - 05547 जिलाधिकारी - भूपेंद्र चौधरी समुद्र तल से उचाई - अक्षांश - उत्तर देशांतर - पूर्व औसत वर्षा - मि॰मी॰ .

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संतसाहित्य

संतसाहित्य का इस लेख में अर्थ है- वह साहित्य जो निर्गुणिए भक्तों द्वारा रचा जाए। यह आवश्यक नहीं कि सन्त उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो। इसके अंतर्गत लोकमंगलविधायी सभी सत्पुरुष आ जाते हैं, किंतु आधुनिक कतिपय साहित्यकारों ने निर्गुणिए भक्तों को ही "संत" की अभिधा दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है। "संत" शब्द संस्कृत "सत्" के प्रथमा का बहुवचनान्त रूप है, जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति। हिन्दी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास आदि पुराने कवियों ने इस शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी, पुरुष के अर्थ में बहुलांश: किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं। लोकोपकारी संत के लिए यह आवश्यक नहीं कि यह शास्त्रज्ञ तथा भाषाविद् हो। उसका लोकहितकर कार्य ही उसके संतत्व का मानदंड होता है। हिंदी साहित्यकारों में जो "निर्गुणिए संत" हुए उनमें अधिकांश अनपढ़ किंवा अल्पशिक्षित ही थे। शास्त्रीय ज्ञान का आधार न होने के कारण ऐसे लोग अपने अनुभव की ही बातें कहने को बाध्य थे। अत: इनके सीमित अनुभव में बहुत सी ऐसी बातें हो सकती हैं, जो शास्त्रों के प्रतिकूल ठहरें। अल्पशिक्षित होने के कारण इन संतों ने विषय को ही महत्व दिया है, भाषा को नहीं। इनकी भाषा प्राय: अनगढ़ और पंचरंगी हो गई है। काव्य में भावों की प्रधानता को यदि महत्व दिया जाए तो सच्ची और खरी अनुभूतियों की सहज एवं साधारणोकृत अभिव्यक्ति के कारण इन संतों में कइयों की बहुवेरी रचनाएँ उत्तम कोटि के काव्य में स्थान पाने की अधिकारिणी मानी जा सकती है। परंपरापोषित प्रत्येक दान का आँख मूँदकर वे समर्थन नहीं करते। इनके चिंतन का आकार सर्वमानववाद है। ये मानव मानव में किसी प्रकार का अंतर नहीं मानते। इनका कहना है कि कोई भी व्यक्ति अपने कुलविशेष के कारण किसी प्रकार वैशिष्ट्य लिए हुए उत्पन्न नहीं होता। इनकी दृष्टि में वैशिष्ट्य दो बातों को लेकर मानना चाहिए: अभिमानत्यागपूर्वक परोपकार या लोकसेवा तथा ईश्वरभक्ति। इस प्रकार स्वतंत्र चिंतन के क्षेत्र में इन संतों ने एक प्रकार की वैचारिक क्रांति को जन्म दिया। .

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संधा भाषा

संधा भाषा सिद्धों द्वारा अपनी अंतःसाधनात्मक अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त भाषा है। इसमें प्रतीकों के सहारे अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को व्यक्त किया जाता है। इसलिए इसका तात्पर्य प्रतीकों के खुलने पर ही प्रकट होता है। सिद्धों ने अपनी रचनाएँ मुख्यतः अपभ्रंश और पुरानी हिंदी में की है। संधा भाषा वास्तव में इन रचनाओं में प्रयुक्त भाषा शैली है। यह कोई नितांत पृथक भाषा नहीं है। नाथों ने भी संधा भाषा का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। कबीर की ऐसी ही भाषा को 'उलटबाँसी' कहा जाता है। श्रेणी:आदिकाल श्रेणी:सिद्ध श्रेणी:निर्मित भाषाएँ.

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स्वामी रामानन्दाचार्य

स्वामी रामानंद को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि - द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद। यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत, ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध किया। .

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स्वामी सोमदेव

स्वामी सोमदेव आर्य समाज के एक विद्वान धर्मोपदेशक थे। ब्रिटिश राज के दौरान पंजाब प्रान्त के लाहौर शहर में जन्मे सोमदेव का वास्तविक नाम ब्रजलाल चोपड़ा था। सन १९१५ में जिन दिनों वे स्वास्थ्य लाभ के लिये आर्य समाज शाहजहाँपुर आये थे उन्हीं दिनों समाज की ओर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' को उनकी सेवा-सुश्रूषा में नियुक्त किया गया था। किशोरावस्था में स्वामी सोमदेव की सत्संगति पाकर बालक रामप्रसाद आगे चलकर 'बिस्मिल' जैसा बेजोड़ क्रान्तिकारी बन सका। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में मेरे गुरुदेव शीर्षक से उनकी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जीवनी लिखी है। सोमदेव जी उच्चकोटि के वक्‍ता तो थे ही, बहुत अच्छे लेखक भी थे। उनके लिखे हुए कुछ लेख तथा पुस्तकें उनके ही एक भक्‍त के पास थीं जो उसकी लापरवाही से नष्‍ट हो गयीं। उनके कुछ लेख प्रकाशित भी हुए थे। लगभग 57 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। .

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हिन्दू धर्म की आलोचना

चित्रित: सती प्रथा के अनुसार हिन्दू विधवा अपना पति की लाश से उसका अपना शरीर को भी जीवित होने पर जलाया जाता है - अतः उसकी आत्महत्या करायी गयी हिन्दू धर्म की आलोचना से तात्पर्य हिन्दू धर्म के अनुयायियों द्वारा आयोजित प्रथाओं तथा विश्वासों की आलोचना से है। यह आलोचना दोनों हिन्दू एवं ग़ैर-हिन्दू विचारकों द्वारा की गई है। धार्मिक आलोचना एक संवेदनशील मुद्दा है तथा धर्म के अनुयायी इससे असहमत भी होते हैं किंतु गौरतलब है कि आलोचनाओं के फलस्वरूप ही कई सामाजिक सुधार संभव हो पाए। प्रारंभिक हिन्दू सुधारकों ने भी भेदभाव व कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई तथा कई हिन्दू समाजसुधारक आंदोलन भी चलाए गए। Encyclopædia Britannica Premium Service.

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हिन्दू गुरु व सन्त

* कबीर.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/क

कोई विवरण नहीं।

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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हिन्दी ग्रन्थों की सूची

रामचरितमानस - गोस्वामी तुलसीदास सूरसागर - सूरदास साखी - कबीरदास सतसई - बिहारी गोदान - मुंशी प्रेमचन्द कामायनी - जयशंकर प्रसाद प्रिय प्रवास - अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध रश्मिरथी - रामधकठपुतलियों का दौर - शिवकुमार श्रीवास्तव ारी सिंह दिनकर .

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हिन्दी कवि

हिन्दी साहित्य राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी कविता परम्परा बहुत समृद्ध है। .

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हिन्दी कवियों की सूची

हिन्दी कविता की परम्परा बहुत लम्बी है। कुछ विद्बान सरहपाद को हिन्दी का पहला कवि मानते हैं। सरहपाद और उनके समवर्ती व परवर्ती सिद्धों ने दोहों और पदों के रूप में अपनी स्फुट रचनाएं प्रस्तुत कीं। रासोकाल तक आते-आते प्राचीन हिन्दी का रूप स्थिर हो चुका था। अपभ्रंश और शुरुआती हिन्दी परस्पर घुली-मिली दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे हिन्दी में परिष्कार होता रहा और अपभ्रंश भाषा के पटल से लुप्त हो गई।.

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हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति

हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति साहित्य का सर्वोत्कृष्ट रस श्रृंगार है और इस श्रृंगार का भी परिष्कृत रूप विरह -वर्णन में मिलता है। श्रृंगार के संयोग पक्ष में तो बाह्य चेष्टाओं और काम क्रीड़ाओं की ही अधिकता होती है,ह्रदय की सूक्ष्म भाव वृत्तियों का प्रकाशन और काम से मुक्त प्रेम के शुद्ध रूप का प्रकटीकरण वियोग ही होता है। .

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हिंदी साहित्य

चंद्रकांता का मुखपृष्ठ हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से जो कि ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई।हिंदी का आरंभिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है। गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। .

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हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी के मौलिक निबन्धकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार थे। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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घीसादास

सन्त घासीदास के लिये संबन्धित लेख देखिये। ---- घीसादास भक्तिकाल के कवि एवं सन्त थे। वे संत कबीर के शिष्यों में से एक थे। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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वाराणसी का इतिहास

वाराणसी का मूल नगर काशी था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काशी नगर की स्थापना हिन्दू भगवान शिव ने लगभग ५००० वर्ष पूर्व की थी, जिस कारण ये आज एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। ये हिन्दुओं की पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कंद पुराण, रामायण एवं महाभारत सहित प्राचीनतम ऋग्वेद सहित कई हिन्दू ग्रन्थों में नगर का उल्लेख आता है। सामान्यतः वाराणसी शहर को कम से कम ३००० वर्ष प्राचीन तो माना ही जाता है। नगर मलमल और रेशमी कपड़ों, इत्रों, हाथी दाँत और शिल्प कला के लिये व्यापारिक एवं औद्योगिक केन्द्र रहा है। गौतम बुद्ध (जन्म ५६७ ई.पू.) के काल में, वाराणसी काशी राज्य की राजधानी हुआ करता था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने नगर को धार्मिक, शैक्षणिक एवं कलात्मक गतिविधियों का केन्द्र बताया है और इसका विस्तार गंगा नदी के किनारे ५ कि॰मी॰ तक लिखा है। .

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वाराणसी/आलेख

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī), जिसे बनारस) और काशी) भी कहते हैं, गंगा नदी के तट पर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में बसा शहर है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इसका नाम वाराणसीं वरुणा ओर असि नदियों के नाम के मिलाने से बना है !जो प्राचीन समय में यहा बहती थी !इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र शहर माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। ये संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रन्थ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः मंदिरों का शहर, भारत की धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी, दीपों का शहर, ज्ञान नगरी आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, दंतकथाओं (लीजेन्ड्स) से भीप्राचीन है और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से दोगुना प्राचीन है।" .

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वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीक (संस्कृत: महर्षि वाल्मीक) प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है।http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmeki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। वाल्मीकि एक आदि कवि थे पर उनकी विशेषता यह थी कि वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि केवट थे।। .

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विश्व हिन्दी सम्मेलन

विश्व हिन्दी सम्मेलन हिन्दी भाषा का सबसे बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन है, जिसमें विश्व भर से हिन्दी विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, भाषा विज्ञानी, विषय विशेषज्ञ तथा हिन्दी प्रेमी जुटते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रति जागरुकता पैदा करने, समय-समय पर हिन्दी की विकास यात्रा का आकलन करने, लेखक व पाठक दोनों के स्तर पर हिन्दी साहित्य के प्रति सरोकारों को और दृढ़ करने, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने तथा हिन्दी के प्रति प्रवासी भारतीयों के भावुकतापूर्ण व महत्त्वपूर्ण रिश्तों को और अधिक गहराई व मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से १९७५ में विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शृंखला शुरू हुई। इस बारे में पूर्व प्रधानमन्त्री स्व० श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने पहल की थी। पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से नागपुर में सम्पन्न हुआ जिसमें प्रसिद्द हिंदी साहित्यकार विनोबा भावे ने अपना विवेक सन्देश भेजा। प्रारंभ में इसका आयोजन हर चौथे वर्ष आयोजित किया जाता था लेकिन अब यह अंतराल घटाकर ३ वर्ष कर दिया गया है। अब तक दस विश्व हिन्दी सम्मेलन हो चुके हैं- मारीशस, नई दिल्ली, पुन: मारीशस, त्रिनिडाड व टोबेगो, लन्दन, सूरीनाम न्यूयार्क और जोहांसबर्ग में। दसवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन २०१५ में भोपाल में आयोजित हुआ। २०१८ संस्करण का आयोजन मॉरीशस में प्रस्तावित है। .

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गरीब दास

संत गरीब दास (1717-1778) भक्ति और काव्य के लिए जाने जाते हैं। गरीब दास ने एक विशाल संग्रह की रचना की जो गरीबग्रंथ के नाम से प्रसिद्द है। जिसे रत्न सागर भी कहते हैं। इन्होने गरीबदासी नामक सम्प्रदाय की नींव रखी.

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गंगा नदी

गंगा (गङ्गा; গঙ্গা) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर २,५१० किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी ही जाती हैं, मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाये जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है। .

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गुरबानी

गुरबानी शब्द गुरुवाणी का पंजाबी स्वरूप है। सिक्ख धर्म में पाँचवे गुरू अर्जुन देव ने बाबा गुरु नानक, बाबा फरीद,रविदास तथा कबीर की वाणी को आदि ग्रंथ में संकलित किया। इनको गुरबानी कहा जाता है। .

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गुरु ग्रन्थ साहिब

एक ग्रन्थआदिग्रन्थ सिख संप्रदाय का प्रमुख धर्मग्रन्थ है। इसे 'गुरु ग्रंथ साहिब' भी कहते हैं। इसका संपादन सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव जी ने किया। गुरु ग्रन्थ साहिब जी का पहला प्रकाश 16 अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब अमृतसर में हुआ। 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल 1430 पृष्ठ है। गुरुग्रन्थ साहिब में मात्र सिख गुरुओं के ही उपदेश नहीं है, वरन् 30 अन्य हिन्दू संत और अलंग धर्म के मुस्लिम भक्तों की वाणी भी सम्मिलित है। इसमे जहां जयदेवजी और परमानंदजी जैसे ब्राह्मण भक्तों की वाणी है, वहीं जाति-पांति के आत्महंता भेदभाव से ग्रस्त तत्कालीन हिंदु समाज में हेय समझे जाने वाली जातियों के प्रतिनिधि दिव्य आत्माओं जैसे कबीर, रविदास, नामदेव, सैण जी, सघना जी, छीवाजी, धन्ना की वाणी भी सम्मिलित है। पांचों वक्त नमाज पढ़ने में विश्वास रखने वाले शेख फरीद के श्लोक भी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। अपनी भाषायी अभिव्यक्ति, दार्शनिकता, संदेश की दृष्टि से गुरु ग्रन्थ साहिब अद्वितीय है। इसकी भाषा की सरलता, सुबोधता, सटीकता जहां जनमानस को आकर्षित करती है। वहीं संगीत के सुरों व 31 रागों के प्रयोग ने आत्मविषयक गूढ़ आध्यात्मिक उपदेशों को भी मधुर व सारग्राही बना दिया है। गुरु ग्रन्थ साहिब में उल्लेखित दार्शनिकता कर्मवाद को मान्यता देती है। गुरुवाणी के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मो के अनुसार ही महत्व पाता है। समाज की मुख्य धारा से कटकर संन्यास में ईश्वर प्राप्ति का साधन ढूंढ रहे साधकों को गुरुग्रन्थ साहिब सबक देता है। हालांकि गुरु ग्रन्थ साहिब में आत्मनिरीक्षण, ध्यान का महत्व स्वीकारा गया है, मगर साधना के नाम पर परित्याग, अकर्मण्यता, निश्चेष्टता का गुरुवाणी विरोध करती है। गुरुवाणी के अनुसार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होकर जंगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर हमारे हृदय में ही है, उसे अपने आन्तरिक हृदय में ही खोजने व अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरुवाणी ब्रह्मज्ञान से उपजी आत्मिक शक्ति को लोककल्याण के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा देती है। मधुर व्यवहार और विनम्र शब्दों के प्रयोग द्वारा हर हृदय को जीतने की सीख दी गई है। .

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गुलाब खंडेलवाल

गुलाब खण्डेलवाल एक भारतीय कवि हैं। .

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गुजराती साहित्य

गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है। गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-.

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गोरखपुर

300px गोरखपुर उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग में नेपाल के साथ सीमा के पास स्थित भारत का एक प्रसिद्ध शहर है। यह गोरखपुर जिले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। यह एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मशहूर है जो बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली रहा। किन्तु मध्ययुगीन सर्वमान्य सन्त गोरखनाथ के बाद उनके ही नाम पर इसका वर्तमान नाम गोरखपुर रखा गया। यहाँ का प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर अभी भी नाथ सम्प्रदाय की पीठ है। यह महान सन्त परमहंस योगानन्द का जन्म स्थान भी है। इस शहर में और भी कई ऐतिहासिक स्थल हैं जैसे, बौद्धों के घर, इमामबाड़ा, 18वीं सदी की दरगाह और हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का प्रमुख प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस। 20वीं सदी में, गोरखपुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक केन्द्र बिन्दु था और आज यह शहर एक प्रमुख व्यापार केन्द्र बन चुका है। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय, जो ब्रिटिश काल में 'बंगाल नागपुर रेलवे' के रूप में जाना जाता था, यहीं स्थित है। अब इसे एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करने के लिये गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा/GIDA) की स्थापना पुराने शहर से 15 किमी दूर की गयी है। .

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ओउ्म्

देवनागरी में ओ३म कन्नड में ओ३म तमिळ में ओम मलयालम में ओ३म तिब्बती में ओ३म गुरुमुखी में 'एक ओंकार' बाली भाषा में ओंकार ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है। .

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कबीर पंथ

संत कबीर कबीर पंथ या सतगुरु कबीर पंथ भारत के भक्तिकालीन कवि कबीर की शिक्षाओं पर आधारित एक संप्रदाय है। कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनके निधन के लगभग सौ साल बाद इस पंथ की शुरुआत की थी। प्रारंभ में दार्शनिक और नैतिक शिक्षा पर आधारित यह पंथ कालांतर में धार्मिक संप्रदाय में परिवर्तित हो गया। कबीर पंथ के अनुयायियों में हिंदू, मुसलमान, बौद्ध और जैन सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। इनमें बहुतायत हिंदुओं की है। कबीर की रचनाओं का संग्रह बीजक इस पंथ के दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन का आधार ग्रंथ है। अपने काव्य में कबीर ने पंथ को महत्त्वहीन बताते हुए उसका उपहास उड़ाया है। "ऐसा जोग न देखा भाई। भूला फिरै लिए गफिलाई॥ महादेव को पंथ चलावै। ऐसो बड़ो महंथ कहावै॥" कबीर पंथ का अध्ययन करने वाले केदारनाथ द्विवेदी के अनुसार इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि पंथ की स्थापना कबीर ने स्वयं की। कबीर की मृत्यु के पश्चात उनके शिष्यों ने यह कार्य किया। .

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कबीर सम्मान

राष्ट्रीय कबीर सम्मान मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग ने साहित्य और सृजनात्मक कलाओं में उत्कृष्टता तथा श्रेष्ठ उपलब्धि को सम्मानित करने, साहित्य और कलाओं में राष्ट्रीय मानदण्ड विकसित करने की दृष्टि से अखिल भारतीय सम्मानों और राज्य स्तरीय सम्मानों की स्थापना की है। उत्कृष्टता और सृजन को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करने की अपनी सुप्रतिष्ठित परम्परा का अनुसरण करते हुए मध्यप्रदेश शासन ने भारतीय कविता के लिए राष्ट्रीय कबीर सम्मान की स्थापना की है। महान संत कवि कबीर ने सदियों पहले कविता का पुनराविष्कार किया था और उसे नयी निभीर्कता दी थी। देश के अनेक भागों में वे आज भी सबसे लोकप्रिय कवि हैं। ' .

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कबीर के आलोचक (पुस्तक)

डॉ॰ धर्मवीर द्वारा लिखित इस पुस्तक में हिंदी साहित्य में कबीर पर लिखने वाले पूर्ववर्ती आलोचकों के लेखन का विश्लेषणात्मक एवं दलित विमर्श की दृष्टि से अध्ययन किया गया है। इसमें पं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के कबीर संबंधी विश्लेषण को ब्राह्मणवादी आलोचक की राजनीति के तौर पर पढ़ा गया है। इसकी भूमिका में डॉ॰ धर्मवीर लिखते हैं- “ इसमें मैंने कबीर के ब्राह्मणवादी समीक्षकों को समझना चाहा है।……..मूल कबीर से ये सभी बचते हैं। इनकी यह भी कोशिश रही है कि कहीं यह जाहिर न हो जाए कि कबीर दलितों के किसी पुराने धर्म के प्रवर्तक थे। इन सबका उद्देश्य इस सम्भावना पर रोक लगाना है कि हिन्दू धर्म को छोड़कर डडभारत के दलितों का कोई नया या अलग डडधर्म भी हो सकता है। ”(कबीर के आलोचक- डॉ॰ धर्मवीर-भूमिका .

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काशी

काशी जैनों का मुख्य तीर्थ है यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ एवम श्री समन्तभद्र स्वामी ने अतिशय दिखाया जैसे ही लोगों ने नमस्कार करने को कहा पिंडी फट गई और उसमे से श्री चंद्रप्रभु की प्रतिमा जी निकली जो पिन्डि आज भी फटे शंकर के नाम से प्रसिद्ध है काशी विश्वनाथ मंदिर (१९१५) काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते..

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कुम्भ (बर्तन)

कच्चे कुम्भ कुम्भ एक परम्परागत भारतीय पात्र (बर्तन) है। कुम्भ का निर्माण करने वालों को कुम्भकार कहते हैं। 'कुम्भ' को मोटे तौर पर 'घड़ा' कह सकते हैं। कबीरदास का 'कुम्ब' से सम्बन्धित प्रसिद्ध दोहा है- .

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अनाहत

(१) हठयोग के अनुसार शरीर के भीतर रीढ़ में अवस्थित षट्चक्रों में से एक चक्र का नाम अनाहत है। इसका स्थान हृदय-प्रदेश है। यह लाल पीले मिश्रित रंगवाले द्वादश दलों के कमल जैसा वर्तमान है और उनपर "क' से लेकर "ठ' तक अक्षर हैं। इसके देवता रुद्र हैं। (२) वह शब्द ब्रह्म जो व्यापक नाद के रूप में सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है और जिसकी ध्वनि मधुर संगीत जैसी है। यूरोप के प्राचीन दार्शनिकों को भी इसके अस्तित्व में विश्वास था और यह वहाँ "म्जूज़िक ऑव दि स्फ़ियर्स' (विश्व का मधुर संगीत) कहलाता था। (३) वह शब्द वा नाद जो दोनों हाथों के अँगूठो से दोनों कानों को बंद करके ध्यान करने से सुनाई देता है। अनहद शब्द वा सबद। (४) जो बिना किसी आघात के ही उत्पन्न हुआ हो। .

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अन्नू कपूर

अन्नू कपूर (उर्दु: ان کپُور) जन्म: २० फरवरी १९५६ भारतीय अभिनेता व टेलीविजन प्रस्तुतकर्ता हैं। .

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अलख

अलख (संस्कृत:अलक्ष्य) का अर्थ है, जो दिखाई न पड़े, अदृश्य, अप्रत्यक्ष। उदाहरण- 'अलख न लखिया जाई' (कबीर)। अगोचर, इंद्रियातीत, परमात्मा का एक विशेषण। 'अलख अरूप अवरन सो करता ' - जायसी।.

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उत्तर प्रदेश

आगरा और अवध संयुक्त प्रांत 1903 उत्तर प्रदेश सरकार का राजचिन्ह उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य है। लखनऊ प्रदेश की प्रशासनिक व विधायिक राजधानी है और इलाहाबाद न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, कानपुर, झाँसी, बरेली, मेरठ, वाराणसी, गोरखपुर, मथुरा, मुरादाबाद तथा आज़मगढ़ प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है। सन २००० में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना। विश्व में केवल पाँच राष्ट्र चीन, स्वयं भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनिशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है। उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य २,३८,५६६ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय इलाहाबाद में है। कानपुर, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ, गोरखपुर, नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बरेली, आज़मगढ़, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य शहर हैं। .

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उत्तर प्रदेश का इतिहास

उत्तर प्रदेश का भारतीय एवं हिन्दू धर्म के इतिहास मे अहम योगदान रहा है। उत्तर प्रदेश आधुनिक भारत के इतिहास और राजनीति का केन्द्र बिन्दु रहा है और यहाँ के निवासियों ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभायी। उत्तर प्रदेश के इतिहास को निम्नलिखित पाँच भागों में बाटकर अध्ययन किया जा सकता है- (1) प्रागैतिहासिक एवं पूर्ववैदिक काल (६०० ईसा पूर्व तक), (2) हिन्दू-बौद्ध काल (६०० ईसा पूर्व से १२०० ई तक), (3) मध्य काल (सन् १२०० से १८५७ तक), (4) ब्रिटिश काल (१८५७ से १९४७ तक) और (5) स्वातंत्रोत्तर काल (1947 से अब तक)। .

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उलटबाँसी

सीधे-सीधे न कहकर, घुमा-फिराकर उलटकर कविता माध्यम से कही हुई बात अथवा व्यंजना उलटवाँसी कहलाती है। संतों और विशेष रूप से कबीर ने अनेक उलटवाँसियों की रचना की है जिन्हें लेकर ऐतिहासिक दृष्टि तथा संतमानस की ठीक ठीक समझ के अभाव के कारण न केवल भारी भ्रम फैला है, अपितु काफी विवाद भी हुआ है। डॉ॰ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल (हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय, प्रथम संस्करण, पृ. ३७०-७१) के मत से आध्यात्मिक अनुभव की अनिर्वचनीयता के कारण साधक को कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्वारा (अपना मनोगत) व्यक्त करने का ढंग अपनाना पड़ता है, जैसे चंद्रविहीन चाँदनी, सूर्यविहीन सूर्यप्रकाश आदि और इसके आधार पर ऐसे गूढ़ प्रतीकों की सृष्टि हो जाती है जिन्हें "उलटवाँसी" या "विपर्यय" कहते हैं। जब सत्य की अभिव्यक्ति बिना इन परस्पर विरोधी कथनों के सहारे नहीं हो पाती तो उसे आवश्यक सत्याभास कह सकते हैं। किंतु कभी-कभी इन उलटवाँसियों का प्रयोग अर्थ को जान बूझकर छिपाने के लिए भी हुआ करता है जिससे आध्यात्मिक मार्ग के रहस्यों का पता अयोग्य व्यक्तियों को न लगने पाए। ऐसी उलटवाँसियों को जान बूझकर रची गई उलटवाँसियाँ कर सकते हैं। साधारण प्रकार से आध्यात्मिक साधनाओं को ही ऐसी उलटवाँसियों में स्पष्ट किया जाता है। उक्त पहले प्रकार की उलटवाँसियाँ सांकेतिक होती हैं जहाँ दूसरी का स्वरूप रहस्यमय हुआ करता है। इसमें संदेह नहीं कि सांकेतिक उलटवाँसियों में उच्च श्रेणी का काव्य रहा करता है। किंतु गुह्य उलटवाँसियों स्वभावत: काव्यगत सौंदर्य से हीन हुआ करती हैं। डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी (कबीर, तृतीय संस्करण, पृ. ८०-८१) के मतानुसार संतों पर योगियों का व्यापक प्रभाव था और योगियों की अद्भुत क्रियाएँ साधारण जनता के लिए आश्चर्य तथा श्रद्धा का विषय थीं। योगियों का अपने विषय में कहना था कि वे तीन लोक से न्यारे हैं। सारी दुनिया भ्रम में उलटी बही जा रही है। हठयोग के सिद्धांतों और व्यवहारों का माननेवाले लोग ही रास्ते पर हैं। गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह (सं. महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, काशी, १९२५, पृ. ५८-५९) के अनुसार एक योग संप्रदाय को छोड़कर शेष सभी मतों की बात उलटी है। नाथ का अंश नाद है और नाद का अंश है प्राण। दूसरी और शक्ति का अंश बिंदु हैं और बिंदु का अंश है शरीर। अत: स्पष्ट ही नाद और प्राण बिंदु तथा शरीर से अधिक महत्वपूर्ण हैं, अर्थात्‌ पुत्रक्रम की अपेक्षा शिष्यक्रम आधिक मान्य है। परंतु दुनिया की रीत इससे उलटी है। वह पुत्रक्रम को प्रमुख मानती है ओर शिष्यक्रम को गौण। दुनिया के अनुसार क्रम है: धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश-ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि; यानी सब उलटा, इसलिए कि जो श्रेष्ठ है उसे पहले रखना चाहिए और जो अपेक्षाकृत कम श्रेष्ठ है उसे बाद में। सही क्रम इससे बिलकुल उलटा होता है। यथा, मोक्ष-धर्म-अर्थ-काम, आकाश-वायु-तेज-जल-पृथ्वी, शिव-विष्णु-ब्रह्मा आदि। फलस्वरूप योगी, तांत्रिक और संत (योगियों के प्रभाव के कारण) दुनिया से उलटी बात कहने लगे। काव्यबद्ध इन्हीं उलटी बातों को "उलटवाँसी' की संज्ञा दी गई है। लोक में गो-मांस-भक्षण महापाप है जबकि उलटवाँसी में "गो" जिह्वा है और उसे तालु में उलटकर ब्रह्मर्ध्रां की ओर ले जाना "गो-मांस-भक्षण" है। गंगा, यमुना और सरस्वती से सामान्यत: भारत की तीन नदियों का ज्ञान होता है जबकि उलटवाँसियों में गंगा इड़ा है, यमुना पिंगला और सरस्वती इड़ा पिंगला की मध्यवर्तिनी सुषुम्ना है जिसके अंदर स्थित कुंडलिनी नामक बालरंडा को जर्बदस्ती ऊपर उठा ले जाना ही मनुष्य का परम लक्ष्य है। एक उदाहरण के माध्यम से उलटवाँसियों को समझने में सहायता मिल सकती है: अवधू ऐसा ग्यान विचारै। भेरैं बढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं।। टेक।। ऊघट चले सु नगरि पहूँते, बाट चले ते लूटे। एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे।। (कबीर ग्रंथावली, ना.प्र. सभा, ११वाँ संस्करण, पृ. ११०) कबीर कहते हैं, "हे अवधू ! जो लोग नाव पर चढ़े (भिन्न-भिन्न इष्टदेवों का आधार लेकर चले) वे समुद्र में डूब गए (संसार में ही लिप्त रहे), किंतु जिन्हें ऐसा कोई भी साधन न था वे पार लग गए (मुक्त हो गए)। जो बिना किसी मार्ग के चले वे नगर (परम पद) तक पहुँच गए, किंतु जिन व्यक्तियों ने मार्ग (अंधविश्वासपूर्ण परंपराओं) का सहारा लिया, वे लूट लिए गए (उनके आध्यात्मिक गुणों का ह्रास हो गया)। सभी बंधन (माया) में बँधे हुए हैं, किसे मुक्त और किसे बद्ध कहा जाए। श्रेणी:साहित्य.

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छत्तीसगढ़ी साहित्य

कबीर दास के शिष्य और उनके समकालीन (संवत 1520) धनी धर्मदास को छत्तीसगढ़ी के आदि कवि का दर्जा प्राप्त है, जिनके पदों का संकलन व प्रकाशन हरि ठाकुर जी ने किया है। बाबू रेवाराम के भजनों ने छत्तीसगढ़ी की इस शुरुआत को बल दिया। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

भगत कबीर, संत कबीर, कबीर दास, कबीरदास, अब्दुर्रहमान ख़ाँ

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