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औद्योगिक संगठन

सूची औद्योगिक संगठन

अर्थशास्त्र में, औद्योगिक संगठन (industrial organization) की संकल्पना का विकास फर्म के सिधान्त से विकसित हुई है। .

3 संबंधों: ज्याँ तिरोल, व्यष्टि अर्थशास्त्र, औद्योगिक संबंध

ज्याँ तिरोल

ज्याँ मार्सेल तिरोल (जन्म 9 अगस्त 1953) फ़्रांस के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं। .

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व्यष्टि अर्थशास्त्र

आपूर्ति और मांग मॉडल का वर्णन कैसे मूल्य भिन्न प्रत्येक (कीमत आपूर्ति) और प्रत्येक (कीमत मांग में क्रय शक्ति के साथ उन लोगों की इच्छाओं पर उत्पाद की उपलब्धता के बीच एक संतुलन का एक परिणाम के रूप में). ग्राफ एक सही-D1 से मांग में कीमत में वृद्धि और फलस्वरूप मात्रा की आपूर्ति वक्र (एस) पर एक नया बाजार समाशोधन संतुलन बिंदु तक पहुँचने के लिए आवश्यक के साथ D2 में जाने के लिए दर्शाया गया है। सूक्ष्मअर्थशास्त्र (ग्रीक उपसर्ग माइक्रो - अर्थ "छोटा" + "अर्थशास्त्र") अर्थशास्त्र की एक शाखा है जो यह अध्ययन करता है कि किस प्रकार अर्थव्यवस्था के व्यक्तिगत अवयव, परिवार एवं फर्म, विशिष्ट रूप से उन बाजारों में सीमित संसाधनों के आवंटन का निर्णय करते हैं, जहां वस्तुएं एवं सेवाएं खरीदी एवं बेचीं जाती हैं। सूक्ष्म अर्थशास्त्र यह परीक्षण करता है कि ये निर्णय एवं व्यवहार किस प्रकार वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति एवं मांगों को प्रभावित करते हैं, जो मूल्यों का निर्धारण करती हैं और किस प्रकार, इसके बदले में, मूल्य, वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति एवं मांगों को निर्धारित करती है। वृहतअर्थशास्त्र में इसके विपरीत होता है, जिसमें वृद्धि, मुद्रास्फीति, एवं बेरोजगारी से संबंधित क्रियाकलापों का कुल योग शामिल होता है। सूक्ष्मअर्थशास्त्र अर्थव्यवस्था के पूर्व में बताये गए पहलुओं पर राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों (जैसे कि कराधान के बदलते स्तरों) के प्रभावों की भी चर्चा करता है। विशेष रूप से लुकास की आलोचना के मद्देनजर, अधिकांश आधुनिक वृहत आर्थिक सिद्धांत का निर्माण 'सूक्ष्मआधारशिला' - अर्थात् सूक्ष्म-स्तर व्यवहार के संबंध में बुनियादी पूर्वधारणाओं के आधार पर किया गया है। सूक्ष्मअर्थशास्त्र का एक लक्ष्य बाजार तंत्र का विश्लेषण करना है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के बीच सापेक्ष मूल्य की स्थापना और कई वैकल्पिक उपयोगों के बीच सीमित संसाधनों का आवंटन करता है। सूक्ष्मअर्थशास्त्र बाजार की विफलता का विश्लेषण करता है, जहां बाजार प्रभावशाली परिणाम उत्पन्न करने में विफल रहते हैं और यह पूर्ण प्रतियोगिता के लिए आवश्यक सैद्धांतिक अवस्थाओं का वर्णन करता है। सूक्ष्मअर्थशास्त्र में अध्ययन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सामान्य संतुलन, असममित जानकारी के अंतर्गत बाजार, अनिश्चितता के अंतर्गत विकल्प और खेल सिद्धांत के आर्थिक अनुप्रयोग शामिल हैं। बाजार व्यवस्था के भीतर उत्पादों के लोच पर भी विचार किया जाता है। .

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औद्योगिक संबंध

औद्योगिक संबंध एक बहु-विषयक कार्य क्षेत्र है जो रोजगार संबंध का अध्ययन करता है। औद्योगिक संबंधों को तेजी से रोजगार संबंध कहा जाने लगा है, ऐसा गैर-औद्योगिक रोजगार संबंधों के महत्व के कारण हुआ है। कई बाहरी लोग औद्योगिक संबंधों को श्रम संबंधों के बराबर भी मानते हैं और समझते हैं कि औद्योगिक संबंध केवल संगठित रोजगार स्थितियों का ही अध्ययन करते हैं, मगर यह एक अत्यधिक सरलीकरण है। स्वामी और श्रमिक के निजी उद्देश्यों की भिन्नता ने औद्योगिक संबंधों की समस्या को जन्म दिया। मानव कल्याण के प्रसाधन के रूप में अब उद्योगों के समाजिक उद्देश्य भली भाँति स्वीकार कर लिया गया है। इसका अर्थ है, काम करने के लिए अधिक अनुकूल ऐसी अवस्थाओं का सृजन जिनके अंतर्गत उत्पादन को सुव्यवस्थित किया जा सके और उत्पादन के दो मुख्य प्रसाधनों, पूँजी और श्रम, के बीच होनेवाली क्रिया प्रतिक्रिया को सुविभाजित करने के लिए एक उपयुक्त सिद्धांत बन सके। कारखानों की पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत पूँजीपति श्रमिकों के साथ एक विक्रेय वस्तु की भाँति व्यवहार करते थे और वे पारश्रमिक, काम के घंटों और नौकरी के प्रतिबंधों के लिए माँग एवं पूर्ति के नियम के अनुसार अनुशासित होते थे। आरंभ में तो श्रमिकों ने इसे टल जानेवाली विपत्ति समझा, किंतु बाद में उन्हें यह भान हुआ कि उनके ये दु:ख प्राय: स्थायी से हो चले हैं। स्वामी के अधिकारक्षेत्र में उनके सामाजिक एवं भौतिक अभाव दिन दूने रात चौगुने होते गए और इस प्रकार दोनों के संबंध इस ढंग के न रहे जिन्हें किसी भी प्राकर सद्भावनापूर्ण कहा जा सके। समस्या दिनों-दिन उग्र रूप धारण करती गई। अब औद्योगिक संबंधों का अर्थ केवल स्वामी श्रमिक का संबंध ही नहीं रहा, अपितु वैयक्तिक संबंध, सह परामर्श, समितियों के संयुक्त लेन-देन तथा इन संबंधों के निर्वाह कार्य में सरकार की भूमिका आदि सब कुछ है। मध्ययुग में व्यापारों का क्षेत्र छोटा था तथा स्वामी एवं श्रमिक अधिक निकट संपर्क में थे। श्रमिक स्वामियों से पृथक अपनी एक भिन्न जाति ही समझते थे। धीरे-धीरे उन्हें बोध हुआ कि उनकी व्यक्तिगत शक्ति कितनी अल्प थी। फिर उनकी स्थिति में और भी पतन हुआ जिससे वे क्रीतदास के समान हो गए और अंतत: स्वामी श्रमिक का संबंध इसी आधार पर स्थिर हुआ। उत्पादन कार्य में कारखानों की पद्धति प्रारंभ होने पर श्रमिक वर्ग ने अपना संघ स्थापित करना आरंभ किया। इस दिशा में सर्वप्रथम ब्रिटेन के श्रमिक १९वीं सदी में अग्रगामी सिद्ध हुए, यद्यपि उनके संघ १८२४ ई. तक गैरकानूनी प्रतिबंध लगा ही रहा। फिर भी, औद्योगिक संघटनों (ट्रेड यूनियन) के आंदोलन के विकास के साथ-साथ संयुक्त मोल भाव (कलेक्टिव बार्गेनिंग) की प्रणाली शक्तिशाली बनती गई, और आज यह प्रणाली न केवल ब्रिटेन में, वरन् विश्व भर के देशों में, औद्योगिक संबंधों को सुनिश्चित करने की मुख्य प्रणाली के रूप में व्यवहृत हो रही है। इन संघटनों (यूनियन) का महत्व इतने से ही समझा जा सकता है कि १९०० ई. से इन्होंने कुछ देशों की राजनीति पर भी अपना प्रभाव डालना आरंभ कर दिया और उनके वर्तमान एवं भविष्य को अधिकाधिक प्रभावित करने लगे। औद्योगिक-श्रम-संघटनों का अंतर्राष्ट्रीय संघ १९१९ ई. में स्थापित हुआ जिसमें ६० देशों के मालिकों, श्रमिकों एवं सरकारों के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। कुछ यूरोपीय देशों में मालिकों एवं श्रमिकों के संघटन सरकारी नियंत्रण में ले लिए गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद भी अधिकांश देशों की सरकारों ने अपने मामलों में मालिकों एवं श्रमिकों के प्रतिनिधियों से परामर्श ग्रहण किया। अब सामान्यत: सभी श्रमिक देश के लिए अपना महत्व समझने लगे हैं और यह भी जान गए हैं कि उनकी सुखसुविधा अंतत: उत्पादन को विकसित करने पर ही अवलंबित है। .

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