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उर्वशी

सूची उर्वशी

उर्वशी और पुरुरवा। साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है। पद्मपुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरु से हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरु के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मर्त्यलोक में रहने का अभिशाप दे दिया। मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्क्षा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में सात-साथ रहे। इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रीय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे। आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया। जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई। महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। आधुनिक हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर ने इसी कथा को अपने काव्यकृति का आधार बनाया और उसका शीर्षक भी रखा ऊर्वशी। महाभारत की एक कथा के अनुसार एक बार जब अर्जुन इंद्र के पास अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने गए तो उर्वशी उन्हें देखकर मुग्ध हो गई। अर्जुन ने ऊर्वशी को मातृवत देखा। अतः उसकी इच्छा पूर्ति न करने के कारण। इन्हें शापित होकर एक वर्ष तक पुंसत्व से वंचित रहना पड़ा। .

18 संबंधों: भारतीय रंगमंच, महाकाव्य, मित्र वरुण, रामधारी सिंह 'दिनकर', रंगमंच, रंगोली, हिन्दी पुस्तकों की सूची/अ, ज्ञानपीठ पुरस्कार, विक्रमोर्वशीयम्, ओडिआ चलचित्र सूची, आयुस्, आख्यान, कालिदास, अप्सरा, अर्जुन, उर्वशी (महाकाव्य), ऋष्यशृंग, ऋग्वेद संहिता

भारतीय रंगमंच

'कुडियट्टम' में सुग्रीव की भूमिका में एक कलाकार भारत में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना है। ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। .

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महाकाव्य

संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है .

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मित्र वरुण

मित्र और वरुण दो हिन्दू देवता है। ऋग्वेद में दोनों का अलग और प्राय: एक साथ भी वर्णन है, अधिकांश पुराणों में 'मित्रावरुण' इस एक ही शब्द द्वारा उल्लेख है।। ये द्वादश आदित्य में भी गिने जाते हैं। इनका संबंध इतना गहरा है कि इन्हें द्वंद्व संघटकों के रूप में गिना जाता है। इन्हें गहन अंतरंग मित्रता या भाइयों के रूप में उल्लेख किया गया है। ये दोनों कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के पुत्र हैं। ये दोनों जल पर सार्वभौमिक राज करते हैं, जहां मित्र सागर की गहराईयों एवं गहनता से संबद्ध है वहीं वरुण सागर के ऊपरी क्षेत्रों, नदियों एवं तटरेखा पर शासन करते हैं। मित्र सूर्योदय और दिवस से संबद्ध हैं जो कि सागर से उदय होता है, जबकि वरुण सूर्यास्त एवं रात्रि से संबद्ध हैं जो सागर में अस्त होती है। मित्र द्वादश आदित्यों में से हैं जिनसे वशिष्ठ का जन्म हुआ। वरुण से अगस्त्य की उत्पति हुई और इन दोनों के अंश से इला नामक एक कन्या उस यज्ञकुंड से प्रगट हुई जिसे प्रजापति मनु ने पुत्रप्राप्ति की कामना से रचाया था। स्कन्दपुराण के अनुसार काशी स्थित मित्रावरुण नामक दो शिवलिंगों की पूजा करने से मित्रलोक एवं वरुणलोक की प्राप्ति होती है। दोनों देवता पृथ्वी एवं आकाश को जल से संबद्ध किये रहते हैं तथा दोनों ही चंद्रमा, सागर एवं ज्वार से जुड़े रहते हैं। भौतिक मानव शरीर में मित्र शरीर से मल को बाहर निकालते हैं जबकि वरुण पोषण को अंदर लेते हैं, इस प्रकार मित्र शरीर के निचले भागों (गुदा एवं मलाशय) से जुड़े हैं वहीं वरुण शरीर के ऊपरी भागों (मुख एवं जिह्वा) पर शासन करते हैं। मित्र, वरुण एवं अग्नि को ईश्वर के नेत्र स्वरूप माना जाता है। वरुण की उत्पत्ति व्रि अर्थात संयोजन यानि जुड़ने से हुई है। इसी प्रका मित्र की उत्पत्ति मींय अर्थात संधि से हुई है। .

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रामधारी सिंह 'दिनकर'

रामधारी सिंह 'दिनकर' (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया। .

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रंगमंच

न्यूयॉर्क स्टेट थिएटर के अन्दर का दृष्य रंगमंच (थिएटर) वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है। .

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रंगोली

अधिक विकल्पों के लिए यहाँ जाएँ - रंगोली (बहुविकल्पी) रंगोली पर जलते दीप। रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। इसमें साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं या फिर देवी देवताओं की आकृतियाँ। इनका प्रयोजन सजावट और सुमंगल है। इन्हें प्रायः घर की महिलाएँ बनाती हैं। विभिन्न अवसरों पर बनाई जाने वाली इन पारंपरिक कलाकृतियों के विषय अवसर के अनुकूल अलग-अलग होते हैं। इसके लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पारंपरिक रंगों में पिसा हुआ सूखा या गीला चावल, सिंदूर, रोली,हल्दी, सूखा आटा और अन्य प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया जाता है परन्तु अब रंगोली में रासायनिक रंगों का प्रयोग भी होने लगा है। रंगोली को द्वार की देहरी, आँगन के केंद्र और उत्सव के लिए निश्चित स्थान के बीच में या चारों ओर बनाया जाता है। कभी-कभी इसे फूलों, लकड़ी या किसी अन्य वस्तु के बुरादे या चावल आदि अन्न से भी बनाया जाता है। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/अ

कोई विवरण नहीं।

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ज्ञानपीठ पुरस्कार

पुरस्कार-प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। .

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विक्रमोर्वशीयम्

विक्रमोर्वशीयम् कालिदास का विख्यात नाटक। यह पांच अंकों का नाटक है। इसमें राजा पुरुरवा तथा उर्वशी का प्रेम और उनके विवाह की कथा है। .

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ओडिआ चलचित्र सूची

ओड़िआ चलचित्र की सारणी ओड़िआ भाषा .

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आयुस्

आयुस्‌‌ श्चद्रवंशी सम्राटों में पुरुरवा के पुत्र। उनकी माता का नाम उर्वशी था। पुरूरवा और उर्वशी की कहानी शतपथ ब्रह्मण में दी हुई है। उनके संयोग से आयूस्‌ का जन्म हुआ। आयुस्‌ की वंशपरंपरा को आगे ले चलनेवाले राज नहुष छात्रवृद्ध थे। कुछ किवदंतियों के अनुसार विश्वरथ जिन्हें विश्वामित्र भी कहा जाता है इसी कुल के थे। श्रेणी:पौराणिक पात्र श्रेणी:भारतीय संस्कृति.

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आख्यान

आख्यान या अनुश्रुति शब्द आरंभ से ही सामान्यत: कथा अथवा कहानी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। तारानाथकृत "वाचस्पत्यम्" नामक कोश के प्रथम भाग में, इसकी व्युत्पत्ति "आख्यायते अनेनेति आख्यानम्" दी है। साहित्यदर्पण में आख्यान को "पुरावृत कथन" (आख्यानं पूर्ववृतोक्ति) कहा गया है। डॉ॰ एस.के.

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कालिदास

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। thumb .

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अप्सरा

अप्सरा तिलोत्तमा अप्सरा देव लोक में नृत्य संगीत करने वाली सुन्दरियाँ। इनमें से प्रमुख हैं उर्वशी, रम्भा, मेनका आदि। .

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अर्जुन

शिव अर्जुन को अस्त्र देते हुए। महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे। द्रौपदी, कृष्ण और बलराम की बहन सुभद्रा, नाग कन्या उलूपी और मणिपुर नरेश की पुत्री चित्रांगदा इनकी पत्नियाँ थीं। इनके भाई क्रमशः युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव। .

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उर्वशी (महाकाव्य)

उर्वशी रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित काव्य नाटक है। १९६१ ई. में प्रकाशित इस काव्य में दिनकर ने उर्वशी और पुरुरवा के प्राचीन आख्यान को एक नये अर्थ से जोड़ना चाहा है। अन्य रचनाओं से इतर उर्वशी राष्ट्रवाद और वीर रस प्रधान रचना है। इसके लिए १९७२ में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। इस कृति में पुरुरवा और उर्वशी अलग-अलग तरह की प्यास लेकर आये हैं। पुरुरवा धरती पुत्र है और उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। पुरुरवा के भीतर देवत्व की तृष्णा और उर्वशी सहज निश्चित भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है। उर्वशी प्रेम और सौन्दर्य का काव्य है। प्रेम और सौन्दर्य की मूल धारा में जीवन दर्शन सम्बन्धी अन्य छोटी-छोटी धाराएँ आकर मिल जाती हैं। प्रेम और सुन्दर का विधान कवि ने बहुत व्यापक धरातल पर किया है। कवि ने प्रेम की छवियों को मनोवैज्ञानिक धरातल पर पहचाना है। दिनकर की भाषा में हमेशा एक प्रत्यक्षता और सादगी दिखी है, परन्तु उर्वशी में भाषा की सादगी अलंकृति और आभिजात्य की चमक पहन कर आयी है-शायद यह इस कृति को वस्तु की माँग रही हो। .

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ऋष्यशृंग

"ऋष्यश्रृंग" या श्रृंगी ऋषि वाल्मीकि रामायण में एक पात्र हैं जिन्होंने राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराये थे। वह विभण्डक ऋषि के पुत्र तथा कश्यप ऋषि के पौत्र बताये जाते हैं। उनके नाम को लेकर यह उल्लेख है कि उनके माथे पर सींग (संस्कृत में ऋंग) जैसा उभार होने की वजह से उनका यह नाम पड़ा था। उनका विवाह अंगदेश के राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री शान्ता से सम्पन्न हुआ जो कि वास्तव में दशरथ की पुत्री थीं। पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋष्यशृंग विभण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभण्डक ने इतना कठोर तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशि को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था अतः उनका यह नाम पड़ा। ऋष्यशृंग के पैदा होने के तुरन्त बाद उर्वशी का धरती का काम समाप्त हो गया तथा वह स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई। इस धोखे से विभण्डक इतने आहत हुये कि उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई तथा उन्होंने अपने पुत्र ऋष्यशृंग पर नारी का साया भी न पड़ने देने की ठान ली। इसी उद्देश्य से वह ऋष्यशृंग का पालन-पोषण एक अरण्य में करने लगे। वह अरण्य अंगदेश की सीमा से लग के था। उनके घोर तप तथा क्रोध के परिणाम अंगदेश को भुगतने पड़े जहाँ भयंकर अकाल छा गया। अंगराज रोमपाद (चित्ररथ) ने ऋषियों तथा मंत्रियों से मंत्रणा की तथा इस निष्कर्ष में पहुँचे कि यदि किसी भी तरह से ऋष्यशृंग को अंगदेश की धरती में ले आया जाता है तो उनकी यह विपदा दूर हो जायेगी। अतः राजा ने ऋष्यशृंग को रिझाने के लिए देवदासियों का सहारा लिया क्योंकि ऋष्यशृंग ने जन्म लेने के पश्चात् कभी नारी का अवलोकन नहीं किया था। और ऐसा ही हुआ भी। ऋष्यशृंग का अंगदेश में बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया। उनके पिता के क्रोध के भय से रोमपाद ने तुरन्त अपनी पुत्री शान्ता का हाथ ऋष्यशृंग को सौंप दिया। बाद में ऋष्यशृंग ने दशरथ की पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वह अयोध्या से लगभग ३८ कि॰मी॰ पूर्व में था और वहाँ आज भी उनका आश्रम है और उनकी तथा उनकी पत्नी की समाधियाँ हैं। .

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ऋग्वेद संहिता

ऋग्‍वेद-संहिता ऋग्वैदिक वाङ्मय का मन्त्र-भाग है। इसमें १०१७ सूक्‍त हैं। इसे विश्‍व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। विद्वानों के अनुसार ऋग्‍वेद 3500 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। .

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ऊर्वशी, उरवशी

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