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आर्यभट

सूची आर्यभट

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है। एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। .

79 संबंधों: चीनी शेषफल प्रमेय, डायोफैंटीय समीकरण, तंत्रसंग्रह, त्रिभुज, त्रिकोणमिति, त्रिकोणमितीय फलन, दशमलव पद्धति, दशगीतिका, द्विघात समीकरण, नालन्दा महाविहार, परहितकरण, पाई, प्रबोध चन्द्र सेनगुप्त, प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, प्राचीन भारतीय ग्रन्थकारों की सूची, बर्नूली संख्या, बिहार के महत्वपूर्ण लोगों की सूची, बिहार के व्यक्तियों की सूची, ब्रह्मदेव, ब्रह्मगुप्त, बृहस्पति (ग्रह), भारत में पर्यटन, भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, भारत के प्राचीन वैज्ञानिक, भारतीय मानचित्रकला, भारतीय ज्योतिष, भारतीय ज्योतिषी, भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का इतिहास, भारतीय व्यक्तित्व, भारतीय वैज्ञानिकों की सूची, भारतीय गणित, भारतीय गणित का इतिहास, भारतीय गणितज्ञों की सूची, भारतीय इतिहास की समयरेखा, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, भास्कर प्रथम, भास्कर प्रथम का ज्या सन्निकटन सूत्र, भौतिक विज्ञानी, महाभारत, मापयंत्रण, मीटरी पद्धति, लल्ल, शाकद्वीपीय ब्राह्मण, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, शंकरनारायण, शून्य, साँचे:ज्यामिति, साहित्य, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, ..., संस्कृति, संगमग्राम के माधव, स्वतन्त्रता के बाद भारत का संक्षिप्त इतिहास, सूर्यसिद्धान्त, हिन्दू मापन प्रणाली, ज्या, ज्यामिति का इतिहास, वराह मिहिर, वर्ग समीकरण, वितत भिन्न, व्यक्तियों के नाम से प्रसिद्ध वैज्ञानिक समीकरण, वृहद भारत, वीरसेन, खण्डखाद्यक, खगौल, गणित का इतिहास, आर्यभट (बहुविकल्पी), आर्यभट की ज्या सारणी, आर्यभट्ट (बहुविकल्पी), आर्यभट्ट द्वितीय, आर्यभट्ट सिद्धान्त, आर्यभट्ट की संख्यापद्धति, आर्यभटीय, कलन, कलियुग, कुट्टक, कुरुक्षेत्र युद्ध, कैलकुलस का इतिहास, उडिपी रामचंद्र राव सूचकांक विस्तार (29 अधिक) »

चीनी शेषफल प्रमेय

चीनी शेषफल प्रमेय (Chinese remainder theorem) को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है- यदि युग्मशः अभाज्य (pairwise coprime) हों यदि कोई पूर्णांक हैं, तो एक पूर्णांक ऐसा होगा कि, तथा कोई भी दो ऐसे पूर्णांक, सर्वसम मॉड्युलो होंगे।; उदाहरण ऐसा पूर्णांक x प्राप्त कीजिये जो निम्नलिखित शर्तों को सन्तुष्ट करती हो- x ≡ 3 (mod.5) x ≡ 5 (mod.13) x ≡ 7 (mod.29) x ≡ 1 (mod.41) X .

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डायोफैंटीय समीकरण

पूर्णांक भुजाओं वाले सभी समकोण त्रिभुज प्राप्त करना एक प्रकार से डायोफैंटीय समीकरण a^2+b^2.

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तंत्रसंग्रह

300px तंत्रसंग्रह नीलकण्ठ सोमयाजि द्वारा संस्कृत में रचित खगोलशास्त्रीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ 1501 ई में पूर्ण हुआ। इसमें 432 श्लोक हैं जो आठ अध्यायों में विभक्त हैं। इस ग्रन्थ में ग्रहों की गति के पारम्परिक मॉडल के स्थान पर परिस्कृत मॉडल प्रस्तुत किया गया है। इसकी दो टीकाएँ ज्ञात हैं- पहली तंत्रसंग्रहव्याख्या (रचनाकार अज्ञात) तथा युक्तिभाषा (ज्येष्ठदेव द्वारा लगभग १५५० ई में रचित)। तंत्रसंग्रह में नीलकण्ठ सोमयाजि ने बुध और शुक्र ग्रहों की गति का आर्यभट द्वारा प्रस्तुत मॉडल को पुनः सामने रखा। इस ग्रन्थ में दिया हुआ इन दो ग्रहों के केन्द्र का समीकरण १७वीं शताब्दी में केप्लर के पहले तक सबसे शुद्ध मान देता था। .

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त्रिभुज

त्रिभुज (Triangle), तीन शीर्षों और तीन भुजाओं वाला एक बहुभुज (Polygon) होता है। यह ज्यामिति की मूल आकृतियों में से एक है। शीर्षों A, B, और C वाले त्रिभुज को \triangle ABC द्वारा दर्शाया जाता है। यूक्लिडियन ज्यामिति में कोई भी तीन असंरेखीय बिन्दु, एक अद्वितीय त्रिभुज का निर्धारण करते हैं और साथ ही, एक अद्वितीय तल (यानी एक द्वि-विमीय यूक्लिडियन समतल) का भी। दूसरे शब्दों में, तीन सरल रेखाओं से घिरी बंद आकृति को त्रिभुज या त्रिकोण कहते हैं। त्रिभुज में तीन भुजाएं और तीन कोण होते हैं। त्रिभुज सबसे कम भुजाओं वाला बहुभुज है। किसी त्रिभुज के तीनों आन्तरिक कोणों का योग सदैव 180° होता है। इन भुजाओं और कोणों के माप के आधार पर त्रिभुज का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है। .

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त्रिकोणमिति

किसी दूरस्थ और सीधे मापन में कठिनाई वाले सर्वेक्षण के लिए समरूप त्रिभुज के उपयोग का उदाहरण (1667) त्रिकोणमिति गणित की वह शाखा है जिसमें त्रिभुज और त्रिभुजों से बनने वाले बहुभुजों का अध्ययन होता है। त्रिकोणमिति का शब्दिक अर्थ है 'त्रिभुज का मापन'। त्रिकोणमिति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है समकोण त्रिभुज का अध्ययन। त्रिभुजों और बहुभुजों की भुजाओं की लम्बाई और दो भुजाओं के बीच के कोणों का अध्ययन करने का मुख्य आधार यह है कि समकोण त्रिभुज की किन्ही दो भुजाओं (आधार, लम्ब व कर्ण) का अनुपात उस त्रिभुज के कोणों के मान पर निर्भर करता है। त्रिकोणमिति का ज्यामिति की प्रसिद्ध बौधायन प्रमेय (पाइथागोरस प्रमेय) से गहरा सम्बन्ध है। .

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त्रिकोणमितीय फलन

right गणित में त्रिकोणमितीय फलन (trigonometric functions) या 'वृत्तीय फलन' (circular functions) कोणों के फलन हैं। ये त्रिभुजों के अध्ययन में तथा आवर्ती संघटनाओं (periodic phenomena) के मॉडलन एवं अन्य अनेकानेक जगह प्रयुक्त होते हैं। ज्या (sine), कोज्या (कोज) (cosine) तथा स्पर्शज्या (स्पर) (tangent) सबसे महत्व के त्रिकोणमितीय फलन हैं। ईकाई त्रिज्या वाले मानक वृत्त के संदर्भ में ये फलन सामने के चित्र में प्रदर्शित हैं। इन तीनों फलनों के व्युत्क्रम फलनों को क्रमशः व्युज्या (व्युज) (cosecant), व्युकोज्या (व्युक) (secant) तथा व्युस्पर्शज्या (व्युस) (cotangent) कहते हैं। .

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दशमलव पद्धति

दशमलव पद्धति या दाशमिक संख्या पद्धति या दशाधारी संख्या पद्धति (decimal system, "base ten" or "denary") वह संख्या पद्धति है जिसमें गिनती/गणना के लिये कुल दस संख्याओं (0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9) का सहारा लिया जाता है। यह मानव द्वारा सर्वाधिक प्रयुक्त संख्यापद्धति है। उदाहरण के लिये 645.7 दशमलव पद्धति में लिखी एक संख्या है। (गलतफहमी से बचने के लिये यहाँ दशमलव बिन्दु के स्थान पर 'कॉमा' का प्रयोग किया गया है।) इस पद्धति की सफलता के बहुत से कारण हैं-.

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दशगीतिका

दशगीतिका प्रसिद्ध भारतीय खगोलज्ञ आर्यभट्ट रचित एक ग्रंथ है। श्रेणी:भारतीय गणित श्रेणी:खगोलशास्त्र श्रेणी:गणित श्रेणी:भारतीय ग्रंथ.

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द्विघात समीकरण

वर्ग समीकरण x^2 -5 x + 6 .

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नालन्दा महाविहार

नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष। यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से ८८.५ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से ११.५ किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ७ वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था। .

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परहितकरण

परहितकरण खगोलीय गणनाएँ करने की प्राचीन भारतीय पद्धति का नाम है। यह पद्धति मुख्यतः केरल और तमिलनाडु में प्रचलित थी। इसका आविष्कार केरल के खगोलशास्त्री हरिदत्त ने किया था। (683 ई)). नीलकण्ठ सोमयाजिन (1444–1544) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ दृक्करण में इसका उल्लेख किया है कि उनके समय में 'परहित' की रचना किस प्रकार की गई थी। परहितकरण पद्धति के दो ग्रन्थ ज्ञात हैं - 'ग्रहचारनिबन्धन' तथा 'महामार्गनिबन्धन' किन्तु अब केवल ग्रहचारनिबन्धन ही प्राप्य है। 'परहित' का शाब्दिक अर्थ 'दूसरों की भलाई' है और वास्तव में 'परहितकरन' के निर्माण का उद्देश्य यही था कि खगोलीय गणनाओं को इतना आसान बना दिया जाय कि 'आम जनता' भी खगोलीय गणनाएँ करने में सक्षम हो जाय अतः 'सैद्धान्तिक' परिपाटी की कठिनाइयों को परहित-प्रणाली ने बहुत सरल बना दिया। इस प्रणाली ने आर्यभटीय में दी गयी गणना-चक्र को सरल बना दिया। हरिदत्त ने संख्याओं को निरूपित करने के लिए आर्यभट द्वारा विकसित 'कठिन' विधि के स्थान कटपयादि पद्धति को अपनाया। कटपयादि पद्धति बाद में केरलीय गणित में बहुत लोकप्रिय हुई। 'ग्रहचारनिबन्धनसंग्रह' (932 AD) नामक ग्रन्थ में 'परहित' विधि का विस्तार से वर्णन है। बाद में इन विधियों को भी परमेशवरन् ने १४८३ में रचित अपने 'दृग्गणित' (.

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पाई

ग्रीक अक्षर '''पाई''' यदि किसी वृत्त का व्यास '''१''' हो तो उसकी परिधि '''पाई''' के बराबर होगी. पाई या π एक गणितीय नियतांक है जिसका संख्यात्मक मान किसी वृत्त की परिधि और उसके व्यास के अनुपात के बराबर होता है। इस अनुपात के लिये π संकेत का प्रयोग सर्वप्रथम सन् १७०६ में विलियम जोन्स ने सुझाया। इसका मान लगभग 3.14159 के बराबर होता है। यह एक अपरिमेय राशि है। पाई सबसे महत्वपूर्ण गणितीय एवं भौतिक नियतांकों में से एक है। गणित, विज्ञान एवं इंजीनियरी के बहुत से सूत्रों में π आता है। .

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प्रबोध चन्द्र सेनगुप्त

प्रबोध चन्द्र सेनगुप्त (1876 – 1962) प्राचीन भारतीय खगोलविज्ञान के इतिहासकार थे। वे कोलकाता के बेथुने कॉलेज में गणित के प्रोफेसर तथा कोलकाता विश्वविद्यालय में भारतीय खगोलिकी एवं गणित के प्रवक्ता थे। .

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प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी

प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य विज्ञान आदि भी वर्ण्यविषय रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्राचीन भारत के कुछ योगदान निम्नलिखित हैं-.

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प्राचीन भारतीय ग्रन्थकारों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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बर्नूली संख्या

भिन्नों की एक श्रेणी को बर्नौली संख्याएँ (Bernoulli number) दिया जाता है, जैसे 1/6, 1/30, 1/42, 1/30, 5/66.....आदि। जेकब बर्नौली (Jacob Bernoulli) ने इस श्रेणी का प्रतिपादन किया था तथा उन्होंने इसका उपयोग प्रथम (x) पूर्णांकों के (n) घातों का योग निकालने के लिए किया। इन्हें B0, B1, B2, B3 आदि से निरूपित किया जाता है। संख्या सिद्धान्त से इन संख्याओं का निकट सम्बन्ध है। इस संख्याओं का उपयोग संख्याओं के सिद्धांत, अंतरकलन तथा निश्चित समाकलों के सिद्धांत से संबंधित गणितीय निर्धारणों में किया जाता है। tan x तथा tanh x के टेलर श्रेणी प्रसार में ये संख्याएँ आतीं हैं। .

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बिहार के महत्वपूर्ण लोगों की सूची

बिहार के महत्वपूर्ण लोगों की सूची .

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बिहार के व्यक्तियों की सूची

यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी बिहार के प्रमुख व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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ब्रह्मदेव

ब्रह्मदेव प्राचीन भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इनका जीवनकाल लगभग १०६० ई से ११३० ई के बीच है। इन्होने आर्यभट प्रथम की कृतियों का भाष्य लिखा है। ब्रह्मदेव ने आर्यभटीय का भाष्य लिखा है जिसका नाम 'करणप्रकाश' है। इस ग्रन्थ में त्रिकोणमिति और इसके ज्योतिष में उपयोग की चर्चा है। इस ग्रन्थ के आधार पर बने पंचांगों की तिथि आदि का उपयोग माध्वसम्प्रदाय के वैष्णवों में बहुतायत से प्रचलित है। श्रेणी:भारतीय गणितज्ञ.

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ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त का प्रमेय, इसके अनुसार ''AF'' .

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बृहस्पति (ग्रह)

बृहस्पति सूर्य से पांचवाँ और हमारे सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है। यह एक गैस दानव है जिसका द्रव्यमान सूर्य के हजारवें भाग के बराबर तथा सौरमंडल में मौजूद अन्य सात ग्रहों के कुल द्रव्यमान का ढाई गुना है। बृहस्पति को शनि, अरुण और वरुण के साथ एक गैसीय ग्रह के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन चारों ग्रहों को बाहरी ग्रहों के रूप में जाना जाता है। यह ग्रह प्राचीन काल से ही खगोलविदों द्वारा जाना जाता रहा है तथा यह अनेकों संस्कृतियों की पौराणिक कथाओं और धार्मिक विश्वासों के साथ जुड़ा हुआ था। रोमन सभ्यता ने अपने देवता जुपिटर के नाम पर इसका नाम रखा था। इसे जब पृथ्वी से देखा गया, बृहस्पति -2.94 के सापेक्ष कांतिमान तक पहुंच सकता है, छाया डालने लायक पर्याप्त उज्जवल, जो इसे चन्द्रमा और शुक्र के बाद आसमान की औसत तृतीय सर्वाधिक चमकीली वस्तु बनाता है। (मंगल ग्रह अपनी कक्षा के कुछ बिंदुओं पर बृहस्पति की चमक से मेल खाता है)। बृहस्पति एक चौथाई हीलियम द्रव्यमान के साथ मुख्य रूप से हाइड्रोजन से बना हुआ है और इसका भारी तत्वों से युक्त एक चट्टानी कोर हो सकता है।अपने तेज घूर्णन के कारण बृहस्पति का आकार एक चपटा उपगोल (भूमध्य रेखा के पास चारों ओर एक मामूली लेकिन ध्यान देने योग्य उभार लिए हुए) है। इसके बाहरी वातावरण में विभिन्न अक्षांशों पर कई पृथक दृश्य पट्टियां नजर आती है जो अपनी सीमाओं के साथ भिन्न भिन्न वातावरण के परिणामस्वरूप बनती है। बृहस्पति के विश्मयकारी 'महान लाल धब्बा' (Great Red Spot), जो कि एक विशाल तूफ़ान है, के अस्तित्व को १७ वीं सदी के बाद तब से ही जान लिया गया था जब इसे पहली बार दूरबीन से देखा गया था। यह ग्रह एक शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र और एक धुंधले ग्रहीय वलय प्रणाली से घिरा हुआ है। बृहस्पति के कम से कम ६४ चन्द्रमा है। इनमें वो चार सबसे बड़े चन्द्रमा भी शामिल है जिसे गेलीलियन चन्द्रमा कहा जाता है जिसे सन् १६१० में पहली बार गैलीलियो गैलिली द्वारा खोजा गया था। गैनिमीड सबसे बड़ा चन्द्रमा है जिसका व्यास बुध ग्रह से भी ज्यादा है। यहाँ चन्द्रमा का तात्पर्य उपग्रह से है। बृहस्पति का अनेक अवसरों पर रोबोटिक अंतरिक्ष यान द्वारा, विशेष रूप से पहले पायोनियर और वॉयजर मिशन के दौरान और बाद में गैलिलियो यान के द्वारा, अन्वेषण किया जाता रहा है। फरवरी २००७ में न्यू होराएज़न्ज़ प्लूटो सहित बृहस्पति की यात्रा करने वाला अंतिम अंतरिक्ष यान था। इस यान की गति बृहस्पति के गुरुत्वाकर्षण का इस्तेमाल कर बढाई गई थी। इस बाहरी ग्रहीय प्रणाली के भविष्य के अन्वेषण के लिए संभवतः अगला लक्ष्य यूरोपा चंद्रमा पर बर्फ से ढके हुए तरल सागर शामिल हैं। .

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भारत में पर्यटन

हर साल, 3 मिलियन से अधिक पर्यटक आगरा में ताज महल देखने आते हैं। भारत में पर्यटन सबसे बड़ा सेवा उद्योग है, जहां इसका राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 6.23% और भारत के कुल रोज़गार में 8.78% योगदान है। भारत में वार्षिक तौर पर 5 मिलियन विदेशी पर्यटकों का आगमन और 562 मिलियन घरेलू पर्यटकों द्वारा भ्रमण परिलक्षित होता है। 2008 में भारत के पर्यटन उद्योग ने लगभग US$100 बिलियन जनित किया और 2018 तक 9.4% की वार्षिक वृद्धि दर के साथ, इसके US$275.5 बिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है। भारत में पर्यटन के विकास और उसे बढ़ावा देने के लिए पर्यटन मंत्रालय नोडल एजेंसी है और "अतुल्य भारत" अभियान की देख-रेख करता है। विश्व यात्रा और पर्यटन परिषद के अनुसार, भारत, सर्वाधिक 10 वर्षीय विकास क्षमता के साथ, 2009-2018 से पर्यटन का आकर्षण केंद्र बन जाएगा.

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भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी

भारत के प्रथम रिएक्टर '''अप्सरा''' तथा प्लुटोनियम संस्करण सुविधा का अमेरिकी उपग्रह से लिया गया चित्र (१९ फरवरी १९६६) भारतीय विज्ञान की परंपरा विश्व की प्राचीनतम वैज्ञानिक परंपराओं में एक है। भारत में विज्ञान का उद्भव ईसा से 3000 वर्ष पूर्व हुआ है। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सिंध घाटी के प्रमाणों से वहाँ के लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि तथा वैज्ञानिक उपकरणों के प्रयोगों का पता चलता है। प्राचीन काल में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत, खगोल विज्ञान व गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और आर्यभट्ट द्वितीय और रसायन विज्ञान में नागार्जुन की खोजों का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनकी खोजों का प्रयोग आज भी किसी-न-किसी रूप में हो रहा है। आज विज्ञान का स्वरूप काफी विकसित हो चुका है। पूरी दुनिया में तेजी से वैज्ञानिक खोजें हो रही हैं। इन आधुनिक वैज्ञानिक खोजों की दौड़ में भारत के जगदीश चन्द्र बसु, प्रफुल्ल चन्द्र राय, सी वी रमण, सत्येन्द्रनाथ बोस, मेघनाद साहा, प्रशान्त चन्द्र महलनोबिस, श्रीनिवास रामानुजन्, हरगोविन्द खुराना आदि का वनस्पति, भौतिकी, गणित, रसायन, यांत्रिकी, चिकित्सा विज्ञान, खगोल विज्ञान आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान है। .

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भारत के प्राचीन वैज्ञानिक

पाश्चात्य वैज्ञानिकों के बारे मे विश्व के अधिकाँश लोगों को काफी जानकारी है। विद्यालयों मे भी इस विषय पर काफी कुछ पढ़ाया जाता है। पर बड़े खेद की बात है कि प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिकों के बारे मे आज भी संसार बहुत कम जानता है। हमारे देश के विद्यार्थियों को भी अपने देश के चरक, सुश्रुत, आर्यभट तथा भास्कराचार्य आदि चोटी के प्राचीन वैज्ञानिकों के कृतित्व की जानकारी शायद नहीं होगी। आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष आचार्य कणाद का जन्म ६०० ईसा पूर्व हुआ थाI उनका नाम आज भी डॉल्टन के साथ जोडा जाता हैं, क्योंकि पहले कणाद ने बताया था कि पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म कणों से बना हुआ हैंI उनका यह विचार दार्शनिक था, उन्होंने इन सूक्ष्म कणों को परमाणु नाम दियाI बाद में डॉल्टन ने परमाणु का सिद्धांत प्रस्तुत कियाI परमाणु को अंग्रेजी भाषा में एटम कहते हैंI कणाद का कहना था– "यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैंI परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैंI" बौधायन, चरक, कौमारभृत्य जीवक, सुश्रुत, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट, नागार्जुन भास्कराचार्य .

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भारतीय मानचित्रकला

अभी प्राचीन भारत की मानचित्र कला तथा संबंधित भौगोलिक ज्ञान के विषय में शोध कार्य नहीं हुआ है, लेकिन अन्य विषयों के शोध कार्यों से संबंधित तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारतीयों ने मानचित्र कला में पर्याप्त उन्नति की थी। जोजेफ स्क्वार्टबर्ग (Joseph E. Schwartzberg (2008)) का विचार है कि कांस्य युगीन सिन्धु घाटी की सभ्यता (c. 2500–1900 BCE) मानचित्रकला से परिचित थी। यह बात वहाँ खनन से प्राप्त वस्तुओं में सर्वेक्षण उपकरण तथा मापन दण्ड (measuring rods) से स्पष्ट होती है। इसके अलावा बड़े आकार की निर्माण-योजनाएँ, ब्रह्माण्डीय चित्र, तथा मानचित्र निर्माण से सम्बन्धित सामग्री भारत में वैदिक काल से ही नियमित रूप से मिलती है। परिलेखन ज्ञान, प्रक्षेप, सर्वेक्षण, शुल्व सूत्र तथा तत्संबंधी विविध प्रकार के यंत्रों के निर्माण एवं ज्ञान का आभास प्राचीन पुस्तकों में मिलता है। यह कला रोमनों से बहुत पहले ऋग्वेद (4,000 ई0 पू0 से 1,500 ई0 पू0), बौधायन (800 ई0 पूर्व), आपस्तंब एवं कात्यायन के काल में उन्नत अवस्था में थी। भूमि पर विभिन्न आकृतियों और योजना लेखों के खींचने की परिपाटी बौधायन से पहले ही प्रारंभ हो चुकी थी। पाणिनि के अष्टाध्यायी से भी सर्वेक्षण ज्ञान की स्थिति का पता चलता है। मौर्य काल में सुसंगठित सर्वेक्षण ज्ञान की स्थिति, मानचित्रों को समाहित कर्यों में उपयोग करने की परंपरा तथा जातकों में शुल्व कार्य में यष्टि और रज्जु के प्रयोग आदि तथ्यों के उल्लेख से स्पष्ट हैं कि भारतीय लोग मानचित्रों के निर्माता ही नहीं थे, वरन्‌ उसका कुशल और व्यावहारिक उपयोग भी करते थे। सूर्यसिद्धांत तथा विविध ज्योतिष ग्रंथों में भूगोल एवं तत्संबंधी चित्रों एवं सीमांकन रेखाचित्रों आदि के संबंध में सर्वार्थवाची शब्द 'परिलेख' का उपयोग हुआ है। विभिन्न खगोल संबंधी कार्यों तथा ग्रहण आदि के अवसर पर विविध ग्रह उपग्रहों की स्थितियों, मार्गों आदि को प्रक्षेप प्रतिपाद के द्वारा दिखलाया जाता था। सूर्यसिद्धांत के अनुसार गोलक पर अक्षांश, देशांतर, क्रांति, विषुवत आदि को अंकित करने की रीतियाँ बताई गई हैं। उसी पुस्तक से स्पष्ट होता है कि जल द्वारा तलमापन (levelling) किया जाता था, जो आजकल स्पिरिट लेवल (spirit level) से किया जाता है। अक्षांश, देशांतर के स्थान पर सर्वप्रथम भारतीय पुराणकारों ने पृथ्वी के चारों ओर चार प्रमुख स्थानों, यथा श्रीलंका, श्रीलंका से 90° पूर्व यमकोटि, श्रीलंका से 90° पश्चिम सिद्धपुर तथा उसके विपरीत अध:भाग में रोमकपत्तन, का उल्लेख करते हुए सूर्य की दृश्यमान गति को स्पष्ट किया है। यहीं से बाद में अक्षांश तथा देशांतर का सूत्रपात होता है। प्रक्षेप की पद्धति का सूत्रपात भी सर्वप्रथम ज्योतिष ग्रंथों में ही मिलता है। आर्यभट्ट ने ही सर्वप्रथम पाई का वास्वविक फल तथा वृत्त का क्षेत्रफल निकलने की रीति बतलाई। पौराणिक काल में जंबू द्वीप आदि का मानचित्र बनाकर उन्हें मंजूषा में रखा जाता था। एक वर्ग हस्त के समपटल पर मानचित्र बनाने की पद्धति पाई जाती है। .

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भारतीय ज्योतिष

नक्षत्र भारतीय ज्योतिष (Indian Astrology/Hindu Astrology) ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ ऐसे भी पंचांग बनते हैं जिन्हें नॉटिकल अल्मनाक के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, किंतु इन्हें प्राय: भारतीय निरयण पद्धति के अनुकूल बना दिया जाता है। .

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भारतीय ज्योतिषी

भारतीय ज्योतिषी से अभिप्राय उन ग्रंथकारों से है जिन्होंने अपने ग्रंथ, भारत में विकसित ज्योतिष प्रणाली के आधार पर लिखे। प्राचीन काल के ज्योतिषगणना संबंधी कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जिनके लेखकों ने अपने नाम नहीं दिए हैं। ऐसे ग्रंथ हैं वेदांग ज्योतिष (काल ई पू 1200); पंचसिद्धांतिका में वर्णित पाँच ज्योतिष सिद्धांत ग्रंथ। कुछ ऐसे भी ज्योतिष ग्रंथकार हुए हैं जिनके वाक्य अर्वाचीन ग्रंथों में उद्धृत हैं, किंतु उनके ग्रंथ नहीं मिलते। उनमें मुख्य हैं नारद, गर्ग, पराशर, लाट, विजयानंदि, श्रीषेण, विष्णुचंद आदि। अलबेरूनी के लेख के आधार पर लाट ने मूल सूर्यसिद्धांत के आधार पर इसी नाम के एक ग्रंथ की रचना की है। श्रीषेण के मूल वसिष्ठ सिद्धांत के आधार पर वसिष्ठ-सिद्धांत लिखा। ये सब ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त (शक संवत् 520) से पूर्व हुए है। श्रीषेण आर्यभट के बाद तथा ब्रह्मगुप्त से पूर्व हुए हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषियों का परिचय निम्नलिखित है:;आर्यभट प्रथम;वराहमिहिर;ब्रह्मगुप्त;मनु रचनाकाल: शक संवत् 800 के लगभग, ग्रंथ: बृहन्मानसकरण।;विटेश्वर रचनाकाल: शंक संवत् 821, ग्रंथ: करणसार।;बटेश्वर इन्होंने सिद्धांत बटेश्वर लिखा है, जिसे हाल ही में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑव ऐस्ट्रोनॉमिकल ऐंड संस्कृत रिसर्च, नई दिल्ली, ने छपाया है। अलबेरुनी के पास इस ग्रंथ का एक अरबी अनुवाद था और उसने इसकी बहुत प्रंशसा की है। इसकी ज्याप्रणाली अन्य सिद्धांतों की ज्याप्रणाली से सूक्ष्म है। कुछ विद्वानों के अनुसार वित्तेश्वर और बटेश्वर एक ही व्यक्ति थे।;मुंजाल इनका रचनाकाल शक संवत् 854 है। इनका उपलब्ध ग्रंथ लघुमानसकरण है। इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है। अयनगति के प्रसंग में भास्कराचार्य ने इनका नाम लिया है। मुनीश्वर ने मरीचि में अयनगति विषयक इनके कुछ श्लोक उद्धृत किए हैं, जो लघुमानस के नहीं हैं। इससे पता चलता है कि मुंजाल का एक और मानस नामक ग्रंथ था, जो उपलब्घ नहीं है।;आर्यभट द्वितीय;चतुर्वेद पृथूदक स्वामी, रचनाकाल: 850-900 शक संवत् के भीतर। ग्रंथ: ब्रह्मस्फुटसिद्धांत की टीका।;विजयनंदि रचनाकाल: शक सं 888। ग्रंथ: करणतिलक।;श्रीपति इनका रचनाकाल शक सं 961 हैं। इन्होंने सिद्धांतशेखर तथा धीकोटिदकरण नामक गणित ज्योतिष विषयक और रत्नमाला नामक मुहूर्त्त विषयक ग्रंथ लिखा है। सुधाकर द्विवेदी के अनुसार इनका रत्नसार नामक एक अन्य मुहूर्त ग्रंथ भी है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने ज्याखंडों के बिना केवल चाप के अंशों से ज्यासाधन किया है। ये नागदेव के पुत्र थे।;वरुण रचनाकाल: शक सं 962। ग्रंथ: खंडखाद्य टीका।;भोजराज इनका रचनाकाल शक सं 964 है। इनका ग्रंथ राजमृगांक है। इसमें इन्होंने ब्रह्मगुप्त के सिद्धांत के लिये बीजसंस्कारों को निकाला है।;दशबल इनका रचनाकाल शक सं 980 है। इसका ग्रंथ करणकमलमार्तंड है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें सारणियाँ दी गई हैं, जिनसे ग्रहों की गणना सुगम हो जाती है।;ब्रह्मदेव गणक इनके पिता का नाम चंद्र था। ये मथुरा के रहनेवाले थे। इनका रचनाकाल शक सं 1014 है। इन्होंने करणप्रकाश नामक ग्रंथ लिखा है। इन्होंने आर्यभटीयम् की गतियों में लल्ल के बीजसंस्कार करके उसे ग्रहण किया है। इनका शून्यायनांश वर्ष शक सं 445 है। इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है1;शतानंद जगन्नाथपुरी निवासी शतानंद का रचनाकाल शक सं 1021 है। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भास्वतीकरण है। इनका शून्यायनांश वर्ष 450 तथा अयनगति 1 कला है। इन्होंने अहर्गण का साधन स्पष्ट मेष से किया है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने ग्रहगतियों को शतांश अथवा प्रति शत में रखा है, जिससे गणित करने में सरलता हो जाती है। यह पद्धति आधुनिक दशमलव प्रणाली जैसी है1;महेश्वर प्रसिद्ध गणित ज्योतिषी भास्कराचार्य के पिता तथा गुरु, महेश्वर, का जन्मकाल शक सं 1000 के लगभग है। शेखर इनका गणितज्योतिष का ग्रंथ है। इनके अन्य ग्रंथ हैं। लघुजातकटीका, वृत्तशत, प्रतिष्ठाविधिदीपक।;सोमेश्वर तृतीय इनके अन्य नाम हैं भूलोक मल्ल और सर्वज्ञभूपाल। ये चालुक्य वंश के राजा थे। इन्होंने शक सं 1051 में अभिलाषितार्थचिंतामणि नामक ग्रंथ लिखा।;भास्कराचार्य;वाविलालकोच्चन्ना रचनाकाल: शक संवत् 1220। इन्होंने सूर्यसिद्धांत के आधार पर एक करणग्रंथ लिखा है।;महादेव प्रथम ये गुजराती ब्राह्मण थे। शक संवत् 1238 में इन्होंने चक्रेश्वर नामक ज्योतिषी द्वारा आरंभ किए हुए, ग्रहसिद्धि नामक सारणीग्रंथ को पूर्ण किया।;महादेव तृतीय ये त्र्यंबक की राजसभा के पंडित, बोपदेव, के पुत्र थे। इन्होंने शक संवत् 1289 में कामधेनुकरण नामक ग्रंथ लिखा।;नार्मद रचनाकाल: शक संवत् 1300। रचना: सूर्यसिद्धांत टीका।;पद्नाभ रचनाकाल: शक संवत् 1320। रचना: यंत्ररत्नावली, जिसके द्वितीय अध्याय में प्रसिद्ध ध्रुवमय यंत्र है।;लल्ल पं सुधाकर द्विवेदी ने इनका रचनाकाल शक संवत् 421 तथा केर्न ने शक संवत् 420 माना है, किंतु बालशंकर दीक्षित के अनुसार इनका काल लगभग शक संवत् 560 है। इन्होंने आर्यभटीय के आधार पर अपना शिष्यधीवृद्धिदतंत्र नामक ग्रहगणित का ग्रंथ लिखा है। प्रत्यक्ष वेध द्वारा इन्होंने कुछ बीज संस्कारों का वर्णन किया है। भास्कराचार्य ने सिद्धांतशिरोमणि में कई स्थानों पर इनके गणनासूत्रों की अशुद्धियाँ दिखलाई हैं।;दामोदर रचनाकाल: शक सं 1339, ग्रंथ: भट्टतुल्य। इसकी ग्रहगणना आर्यभट सरीखी है।;गंगाधर रचनाकाल: शक सं 1356। ग्रंथ: चंद्रमान।;मकरंद रचनाकाल: शक सं 1400। इन्होंने सूर्यसिद्धांत के अनुसार सारणियाँ बनाईं, जो बहुत प्रसिद्ध है। आज भी बहुत से पंचांग इनके आधार पर बनते हैं।;केशव प्रसिद्ध ग्रहलाघवाकार गणेश के पिता केशव का रचनाकाल 1418 ई सं के लगभग है। इन्होंने करणग्रंथ ग्रहकौतुक लिखा। ये बहुत निपुण वेधकर्त्ता थे। इन्होंने अपने ग्रंथ में प्रत्यक्ष वेध द्वारा अन्य सिद्धांतकारों के ग्रहगणित की अशुद्धियों का निर्देश किया है।;गणेश केशव के पुत्र गणेश का जन्मकाल 1420 शक सं के लगभग है। इनके ग्रंथ हैं ग्रहलाघव, लघुतिथि चिंतामणि, बृहत्तिथिचिंतामणि, सिद्धांतशिरोमणि टीका, लीलावती टीका, विवाहवृंदावन टीका, मुहूर्तत्व टीका, श्राद्धनिर्णय, छंदोर्णव, टीका, तर्जनीयंत्र, कृष्णाष्टमीनिर्णय, होलिकानिर्णय, लघुपाय पात आदि। इनकी कीर्ति का मुख्य स्तंभ है ग्रहलाघवकरण। सिद्धांतग्रंथों में वर्ण्य प्राय: सभी विषय इसमें हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसमें ज्या चाप की गणना के बिना ही सब गणना की गई है और यह अत्यंत शुद्ध है। ये बहुत अच्छे वेधकर्ता थे। इन्होंने अपने पिता के वेधों से भी लाभ उठाया। इसीलिये इन्होंने एक ऐसी गणनाप्रणाली निकाली जो अति सरल होते हुए भी बहुत शुद्ध थी। इनके ग्रंथ के आधार पर भारत में बहुत से पंचांग बनते हैं। ग्रहलाघव की अनेक टीकाएँ हो चुकी हैं।;लक्ष्मीदास रचनाकाल: शक सं 1422, रचना: सिद्धांतशिरोमणि के गणिताध्याय तथा गोलाध्याय की उदाहरण सहित टीका।;ज्ञानराज इनका रचनाकाल शक सं 1425 है। इनका ग्रंथ सुंदरसिद्धांत है। इसके दो मुख्य भाग हैं: गणिताध्याय तथा गोलाध्याय। ग्रहगणित के लिये इन्होंने करणग्रंथों की तरह क्षेपक तथा वर्षगतियाँ भी दी हैं। कहीं कहीं पर इनकी उपपत्तियाँ भास्करसिद्धांत से विशिष्ट हैं। इन्होंने यंत्रमालाधिकार में एक नवीन यंत्र बनाया है।;सूर्य इनका जनम शक सं 1430 है। ये ज्ञानराज के पुत्र थे। इन्होंने गणित ज्योतिष के सूर्यप्रकाश, लीलावती टीका, बीज टीका, श्रीपतिपद्धतिगणित, बीजगणित, नामक ग्रंथों की रचना की है। कोलब्रुक के अनुसार इन्होंने सिद्धांतशिरोमणि टीका तथा गणितमालती ग्रंथ भी बनाए हैं। इनका एक और ग्रंथ है सिद्धांतसंहितासार समुच्चय।;अनंत प्रथम रचनाकाल: शक सं 1447। रचना: अनंतसुधारस नामक सारणीग्रंथ।;ढुंढिराज रचनाकाल: शक सं 1447 के लगभग, रचना: अनुंबसुधारस की सुधारस-चषक-टीका, ग्रहलाघवोदाहरण, ग्रहफलोपपत्ति; पंचांगफल, कुंडकल्पलता तथा प्रसिद्ध फलितग्रंथ जातकाभरण।;नृसिंह प्रथम ये गणेश के भाई, राम, के पुत्र थे। रचना मध्यग्रहसिद्धि (शक सं 1400) तथा ग्रहकौमुदी।;अनंत द्वितीय मुहूर्तचिंतामणि के निर्माता राम तथा ताजिक नीलकंठी के निर्माता, नीलकंठ के पिता अनंत, का रचनाकाल शक सं 1480 है। इन्होंने कामधेनु की टीका तथा जातकपद्धति की रचना की।;नीलकंठ रचनाकाल: शक सं 509, ग्रंथ: तोडरानंद तथा ताजिकनीलकंठी। गणकतरंगिणी के अनुसार इन्होंने जातकपद्धति भी लिखी थी। आफ्रेच सूची के अनुसार इनके अन्य ग्रंथ हैं: तिथिरतनमाला, प्रश्नकौमुदी अथवा ज्योतिषकौमुदी, दैवज्ञवल्लभा, जैमिनीसूत्र की सूबोधिनी टीका। ग्रहलाघव टीका, ग्रहौतक टीका, मकरंद टीका तथा एक मुहूर्तग्रंथ की टीका।;रघुनाथ प्रथम काल: शक सं 1484, रचना: सुबोधमंजरी।;रघुनाथ द्वितीय काल: शक सं 1487, रचना: मणिप्रदीप।;कृपाराम काल: शक सं 1420 के पश्चात्, रचनाएँ: बीजगणित, मकरंद तथा यंत्रचिंतामणि की उदाहरणस्वरूप टीकाएँ। इन्होंने सर्वार्थचिंतामणि, पंचपक्षी तथा मुहूर्ततत्व की टीकाएँ भी की हैं।;दिनकर काल: शक सं 1500, ग्रंथ: खेटकसिद्धि तथा चंद्रार्की।;गंगाधर काल: शक सं 1508, ग्रंथ: ग्रहलाघव की मनोरमा टीका।;रामभट काल: शक सं 1512, ग्रंथ: रामविनोदकरण।;श्रीनाथ काल: शक सं 1512, ग्रंथ: ग्रहचिंतामणि।;विष्णु काल: शक सं 1530, ग्रंथ: एक करणग्रंथ।;मल्लारि काल: शक सं 1524, ग्रंथ: ग्रहलाघव की उपपत्तिसहित टीका।;विश्वनाथ काल: शक सं 1534-1556। ये प्रसिद्ध सोदाहरण टीकाकार हैं। इन्होंने सूर्यसिद्धांत शिरोमणि, करणकुतूहल, मकरंद, केशबीजातक पद्धति, सोमसिद्धांत, तिथिचिंतामणि, चंद्रमानतंत्र, बृहज्जातक, श्रीपतिपद्धति वसिष्ठसंहिता तथा बृहत्संहिता पर टीकाएँ की हैं।;नृसिंह द्वितीय जन्म: शक सं 1508, ग्रंथ: सूर्यसिद्धांत की सौरभाष्य तथा सिद्धांतशिरोमणि की वासनाभाष्य टीकाएँ।;शिव जन्म: शक सं 1510, ग्रंथ: अनंतसुधारस टीका।;कृष्ण प्रथम रचना: शक सं 1500-1530, ग्रंथ: भास्कराचार्य के बीजगणित की बीजनवांकुद तथा जातकपद्धति की टीकाएँ, तथा छादकनिर्णय।;रंगनाथ प्रथम रचना: शक सं 1525, ग्रंथ: सूर्यसिद्धांत की गूढ़ार्थप्रकाशिका टीका।;नागेश रचनाकाल: शक सं-1541, ग्रंथ: करणग्रंथ, तथा ग्रहप्रबोध।;मुनीश्वर ये गूढ़ार्थप्रकाशिकाकार रंगनाथ के पुत्र थे। इनका जन्मकाल श सं 1525 है। इन्होंने सिद्धांतसार्वभौम ग्रंथ लिखा तथा लीलावती पर निसृष्टार्थदूती और सिद्धांतशिरोमणि की मरीचि टीका की। कुछ विद्वान् पाटीसार भी इनका लिखा मानते हैं।;दिवाकर जन्मकाल: शक सं 1528 है, रचना: मकरंद की मकरंदविवृत्ति टीका।;कमलाकर भट्ट जन्म: शक सं 1530 के लगभग। इन्होंने काशी में शक सं 1580 के लगभग सिद्धांततत्वविवेक बनाया। यह आधुनिक सूर्यसिद्धांत के आधार पर लिखा गया है। इसमें बहुत सी गणित संबंधी नवीन रीतियाँ है। तुरीय यंत्र का विस्तृत वर्णन तथा ध्रुवतारा की स्थिरता का वर्णन इनकी नूतनता है। इन्होंने मुनीश्वर तथा भास्कराचार्य का कई स्थलों पर खंडन किया है, जो कुछ स्थलों पर इनके निजी अज्ञान का द्योतक है। ये संक्षिप्त न लिखकर बहुत विस्तार से लिखते हैं। इनके 13 अध्यायों के ग्रंथ में 3,024 श्लोक हैं।;रंगनाथ द्वितीय जन्म: शक सं 1534 के लगभग, ग्रंथ: सिद्धांतशिरोमणि की मितभाषिणी टीका तथा सिद्धांतचूड़ामणि।;नित्यानंद रचनाकाल: शक सं 1561। इन्होंने सायन मानों से सर्वसिद्धांतराज ग्रंथ लिखा है। इसमें वर्तमान 365.14.33.7 40448 दिनादि है, जो वास्तव काल के निकटतर है। इनके दिए हुए भगणों से यह स्पष्ट है कि ये कुशल वेधकर्ता थे।;कृष्ण द्वितीय इन्होंने शक सं 1575 में करणकौस्तुभ लिखा1;रत्नकंठ इन्होंने शक सं 1580 में पंचांगकौस्तुभ नामक सारणीग्रंथ लिखा।;विद्दन शक सं 1626 से कुछ पूर्व, इन्होंने वार्षिकतंत्र लिखा। इनका अन्य ग्रंथ ग्रहणमुकुर है।;जटाधर इन्होंने शक सं 1626 में फत्तेशाह प्रकाश नामक करणग्रंथ लिखा।;दादाभट इन्होंने शक सं 1641 में सूर्यसिद्धांत की करणावलि टीका लिखी1;नारायण रचना: शक सं 1661। इन्होंने होरासारसुधानिधि, नरजातकव्याख्या, गणकप्रिया, स्वरसार तथा ताजकसुधानिधि लिखे।;जयसिंह राजा जयसिंह शंक सं 1615 में राजसिंहासन पर बैठे थे। इन्होंने हिंदू, मुसलमान तथा यूरोपीय ज्योतिष ग्रंथों का अध्ययन किया और देखा कि उनसे स्पष्ट ग्रह तथा दृश्य ग्रहों में अंतर है। इसलिये इन्होंने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, उज्जैन तथा काशी में पक्की वेधशालाएँ बनवाईं जो अब भी इनके कीर्तिस्तंभ की तरह विद्यमान हैं। आठ साल तक वेध करवाकर इन्होंने अरबी का जिजमुहम्मद तथा संस्कृत में सम्राट् सिद्धांत नामक ग्रंथ बनवाए। सिद्धांत सम्राट् इन्होंने जगन्नाथ पंडित से शक सं 1653 में बनवाया। इनके ग्रंथ से ग्रह अतिसूक्ष्म आते हैं।;शंकर इन्होंने शक सं 1688 में वैष्णवकरण लिखा।;मणिराम इन्होंने शक सं 1696 में ग्रहगणित चिंतामणि लिखी।;भुला इन्होंने शक सं 1703 में ब्रह्मसिद्धांतसार लिखा।;मथुरानाथ इन्होंने शक सं 1704 में यंत्रराजघटना लिखा।;चिंतामणिदीक्षित शक सं 1658-1733। इन्होंने सूर्यसिद्धांतसारणी तथा गोलानंद नामक वेधग्रंथ लिखा।;शिव इन्होंने शक सं 1737 में तिथिपारिजात लिखा।;दिनकर इन्होंने शक सं 1734 से 1761 के बीच ग्रहविज्ञानसारणी, मासप्रवेशसारणी, लग्नसारणी, क्रांतिसारणी आदि ग्रंथ लिखे।;बापूदेव शास्त्री काशी के संस्कृत कालेज के ज्योतिष के मुख्य अध्यापक थे। बापूदेव शास्त्री (नृसिंह) का जन्म शक सं 1743 में हुआ। ये प्रयाग तथा कलकत्ता विश्वविद्यालयों के परिषद तथा आयरलैंड और ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल के सम्मानित सदस्य थे। इन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि मिली थी। इनके ग्रंथ हैं: रेखागणित प्रथमाध्याय, त्रिकोणमिति, प्राचीन ज्योतिषाचार्याशयवर्णन, सायनवाद, तत्वविवेकपरीक्षा, मानमंदिरस्थ यंत्रवर्णन, अंकगणित, बीजगणित। इन्होंने सिद्धांतशिरोमणि का संपादन तथा सूर्यसिद्धांत का अंग्रेजी में अनुवाद किया। इनका दृक्सिद्ध पंचांग आज भी वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित होता है।;नीलांबर शर्मा इनका गोलप्रकाश शक सं 1793 में प्रकाशित हुआ।;विनायक अथवा केरो लक्ष्मण छत्रे इन्होंने पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर ग्रहसाधनकोष्ठक शक सं 1772 में लिखा। इनका अन्य ग्रंथ चिंतामणि हैं।;चिंतामणि रघुनाथ आचार्य जन्म: शक सं 1750। इन्होंने तमिल में ज्योतिषचिंतामणि लिखा।;कृष्ण शास्त्री गाडबोले जन्म: शक सं 1753। इन्होंने वामनकृष्ण जोशी गद्रे के साथ ग्रहलाघव का मराठी अनुवाद, ज्योतिषशास्त्र तथा पंचांगसाधनसार छपाया तथा "मासानां मार्गशीर्षोहं" लेख द्वारा यह सिद्ध किया कि वेद शकपूर्व 30 हजार वर्ष से प्राचीन हैं1;वेंकटेश बापूजी केतकर इन्होंने शक सं 1812 में पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर "ज्योतिर्गणित" लिखा, जिससे ग्रहगणना बहुत सूक्ष्म होती है।;सुधाकर द्विवेदी इनका जन्मकाल शक सं 1782 है। ये काशी के संस्कृत कालेज के ज्योतिष के प्रधान पंडित तथा अपने समय के अति प्रसिद्ध विद्वान् थे। इन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि प्राप्त थी। इनके ग्रंथ हैं: दीर्घवृत्तलक्षण, विचित्र प्रश्न सभंग, द्युचरचार, वास्ववचंद्रश्रृंगोन्नति, पिंडप्रभाकर, भाभ्रम रेखानिरूपण, धराभ्रम, ग्रहणकरण, गोलीयरेखागणित, रेखागणित के एकादश द्वादश अध्याय तथा गणकतरंगिणी। इन्होंने सूर्यसिद्धांत, ग्रहलाघव आदि ग्रंथों की टीकाएँ तथा बहुत से ग्रंथों का संपादन भी किया।; शंकर बालकृष्ण दीक्षित जन्मकाल सं 1775 है। इन्होंने विद्यार्थीबुद्धिवर्द्धिनी, सृष्टिचमत्कार,

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भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का इतिहास

भारत की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की विकास-यात्रा प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होती है। भारत का अतीत ज्ञान से परिपूर्ण था और भारतीय संसार का नेतृत्व करते थे। सबसे प्राचीन वैज्ञानिक एवं तकनीकी मानवीय क्रियाकलाप मेहरगढ़ में पाये गये हैं जो अब पाकिस्तान में है। सिन्धु घाटी की सभ्यता से होते हुए यह यात्रा राज्यों एवं साम्राज्यों तक आती है। यह यात्रा मध्यकालीन भारत में भी आगे बढ़ती रही; ब्रिटिश राज में भी भारत में विज्ञान एवं तकनीकी की पर्याप्त प्रगति हुई तथा स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद भारत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में तेजी से प्रगति कर रहा है। सन् २००९ में चन्द्रमा पर यान भेजकर एवं वहाँ पानी की प्राप्ति का नया खोज करके इस क्षेत्र में भारत ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है। चार शताब्दियों पूर्व प्रारंभ हुई पश्चिमी विज्ञान व प्रौद्योगिकी संबंधी क्रांति में भारत क्यों शामिल नहीं हो पाया ? इसके अनेक कारणों में मौखिक शिक्षा पद्धति, लिखित पांडुलिपियों का अभाव आदि हैं। .

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भारतीय वैज्ञानिकों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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भारतीय गणित

गणितीय गवेषणा का महत्वपूर्ण भाग भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुआ है। संख्या, शून्य, स्थानीय मान, अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित, कैलकुलस आदि का प्रारम्भिक कार्य भारत में सम्पन्न हुआ। गणित-विज्ञान न केवल औद्योगिक क्रांति का बल्कि परवर्ती काल में हुई वैज्ञानिक उन्नति का भी केंद्र बिन्दु रहा है। बिना गणित के विज्ञान की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं हो सकती। भारत ने औद्योगिक क्रांति के लिए न केवल आर्थिक पूँजी प्रदान की वरन् विज्ञान की नींव के जीवंत तत्व भी प्रदान किये जिसके बिना मानवता विज्ञान और उच्च तकनीकी के इस आधुनिक दौर में प्रवेश नहीं कर पाती। विदेशी विद्वानों ने भी गणित के क्षेत्र में भारत के योगदान की मुक्तकंठ से सराहना की है। .

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भारतीय गणित का इतिहास

सभी प्राचीन सभ्यताओं में गणित विद्या की पहली अभिव्यक्ति गणना प्रणाली के रूप में प्रगट होती है। अति प्रारंभिक समाजों में संख्यायें रेखाओं के समूह द्वारा प्रदर्शित की जातीं थीं। यद्यपि बाद में, विभिन्न संख्याओं को विशिष्ट संख्यात्मक नामों और चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया जाने लगा, उदाहरण स्वरूप भारत में ऐसा किया गया। रोम जैसे स्थानों में उन्हें वर्णमाला के अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया गया। यद्यपि आज हम अपनी दशमलव प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके हैं, किंतु सभी प्राचीन सभ्यताओं में संख्याएं दशमाधार प्रणाली पर आधारित नहीं थीं। प्राचीन बेबीलोन में 60 पर आधारित संख्या-प्रणाली का प्रचलन था। भारत में गणित के इतिहास को मुख्यता ५ कालखंडों में बांटा गया है-.

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भारतीय गणितज्ञों की सूची

सिन्धु सरस्वती सभ्यता से आधुनिक काल तक भारतीय गणित के विकास का कालक्रम नीचे दिया गया है। सरस्वती-सिन्धु परम्परा के उद्गम का अनुमान अभी तक ७००० ई पू का माना जाता है। पुरातत्व से हमें नगर व्यवस्था, वास्तु शास्त्र आदि के प्रमाण मिलते हैं, इससे गणित का अनुमान किया जा सकता है। यजुर्वेद में बड़ी-बड़ी संख्याओं का वर्णन है। .

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भारतीय इतिहास की समयरेखा

पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं भारत एक साझा इतिहास के भागीदार हैं इसलिए भारतीय इतिहास की इस समय रेखा में सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की झलक है। .

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भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम

भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम डॉ विक्रम साराभाई की संकल्पना है, जिन्हें भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम का जनक कहा गया है। वे वैज्ञानिक कल्पना एवं राष्ट्र-नायक के रूप में जाने गए। वर्तमान प्रारूप में इस कार्यक्रम की कमान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के हाथों में है। .

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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, (संक्षेप में- इसरो) (Indian Space Research Organisation, ISRO) भारत का राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान है जिसका मुख्यालय बेंगलुरू कर्नाटक में है। संस्थान में लगभग सत्रह हजार कर्मचारी एवं वैज्ञानिक कार्यरत हैं। संस्थान का मुख्य कार्य भारत के लिये अंतरिक्ष संबधी तकनीक उपलब्ध करवाना है। अन्तरिक्ष कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्यों में उपग्रहों, प्रमोचक यानों, परिज्ञापी राकेटों और भू-प्रणालियों का विकास शामिल है। 1969 में स्थापित, इसरो अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय समिति (INCOSPAR) स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके करीबी सहयोगी और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के प्रयासों से 1962 में स्थापित किया गया। भारत का पहला उपग्रह, आर्यभट्ट, जो 19 अप्रैल 1975 सोवियत संघ द्वारा शुरू किया गया था यह गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था बनाया।इसने 5 दिन बाद काम करना बंद कर दिया था। लेकिन ये अपने आप में भारत के लिये एक बड़ी उपलब्धि थी। 7 जून 1979 को भारत ने दूसरा उपग्रह भास्कर 445 किलो का था, पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया। 1980 में रोहिणी उपग्रह पहला भारतीय-निर्मित प्रक्षेपण यान एसएलवी -3 बन गया जिस्से कक्षा में स्थापित किया गया। इसरो ने बाद में दो अन्य रॉकेट विकसित किये। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान उपग्रहों शुरू करने के लिए ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी),भूस्थिर कक्षा में उपग्रहों को रखने के लिए ध्रुवीय कक्षाओं और भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान। ये रॉकेट कई संचार उपग्रहों और पृथ्वी अवलोकन गगन और आईआरएनएसएस तरह सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम तैनात किया उपग्रह का शुभारंभ किया।जनवरी 2014 में इसरो सफलतापूर्वक जीसैट -14 का एक जीएसएलवी-डी 5 प्रक्षेपण में एक स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया। इसरो के वर्तमान निदेशक ए एस किरण कुमार हैं। आज भारत न सिर्फ अपने अंतरिक्ष संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है बल्कि दुनिया के बहुत से देशों को अपनी अंतरिक्ष क्षमता से व्यापारिक और अन्य स्तरों पर सहयोग कर रहा है। इसरो एक चंद्रमा की परिक्रमा, चंद्रयान -1 भेजा, 22 अक्टूबर 2008 और एक मंगल ग्रह की परिक्रमा, मंगलयान (मंगल आर्बिटर मिशन) है, जो सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा में प्रवेश पर 24 सितंबर 2014 को भारत ने अपने पहले ही प्रयास में सफल होने के लिए पहला राष्ट्र बना। दुनिया के साथ ही एशिया में पहली बार अंतरिक्ष एजेंसी में एजेंसी को सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की कक्षा तक पहुंचने के लिए इसरो चौथे स्थान पर रहा। भविष्य की योजनाओं मे शामिल जीएसएलवी एमके III के विकास (भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए) ULV, एक पुन: प्रयोज्य प्रक्षेपण यान, मानव अंतरिक्ष, आगे चंद्र अन्वेषण, ग्रहों के बीच जांच, एक सौर मिशन अंतरिक्ष यान के विकास आदि। इसरो को शांति, निरस्त्रीकरण और विकास के लिए साल 2014 के इंदिरा गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मंगलयान के सफल प्रक्षेपण के लगभग एक वर्ष बाद इसने 29 सितंबर 2015 को एस्ट्रोसैट के रूप में भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित किया। जून 2016 तक इसरो लगभग 20 अलग-अलग देशों के 57 उपग्रहों को लॉन्च कर चुका है, और इसके द्वारा उसने अब तक 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं।http://khabar.ndtv.com/news/file-facts/in-record-launch-isro-flies-20-satellites-into-space-10-facts-1421899?pfrom.

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भास्कर प्रथम

भास्कर प्रथम (600 ई – 680 ईसवी) भारत के सातवीं शताब्दी के गणितज्ञ थे। संभवतः उन्होने ही सबसे पहले संख्याओं को हिन्दू दाशमिक पद्धति में लिखना आरम्भ किया। उन्होने आर्यभट्ट की कृतियों पर टीका लिखी और उसी सन्दर्भ में ज्या य (sin x) का परिमेय मान बताया जो अनन्य एवं अत्यन्त उल्लेखनीय है। आर्यभटीय पर उन्होने सन् ६२९ में आर्यभटीयभाष्य नामक टीका लिखी जो संस्कृत गद्य में लिखी गणित एवं खगोलशास्त्र की प्रथम पुस्तक है। आर्यभट की परिपाटी में ही उन्होने महाभास्करीय एवं लघुभास्करीय नामक दो खगोलशास्त्रीय ग्रंथ भी लिखे। .

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भास्कर प्रथम का ज्या सन्निकटन सूत्र

भारत के महान गणितज्ञ भास्कर प्रथम ने अपने 'महाभास्करीय' नामक ग्रंथ में त्रिकोणमितीय फलन ज्या य (Sin x) का मान निकालने का एक परिमेय व्यंजक दिया है। यह पता नहीं है कि भास्कर ने यह सन्निकटन सूत्र कैसे निकाला होगा। किन्तु गणित के अनेकों इतिहासकारों ने अपने-अपने अनुमान लगाये हैं कि भास्कर ने यह सूत्र किस प्रकार निकाला होगा। यह सूत्र सुन्दर एवं सहज है तथा इसके द्वारा Sin x का पर्याप्त शुद्ध मान प्राप्त होता है। (p.104) महाभास्करीय में आठ अध्याय हैं। सातवें अध्याय के श्लोक १७, १८ और १९ में उन्होने sin x का सन्निकट मान (approximate value) निकालने का निम्नलिखित सूत्र दिया है- इस सूत्र को उन्होने आर्यभट्ट द्वारा दिया हुआ बताया है। इस सूत्र से प्राप्त ज्या य के मानों का आपेक्षिक त्रुटि 1.9% से कम है। (अधिकतम विचलन \frac - 1 \approx 1.859\% जो x.

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भौतिक विज्ञानी

अल्बर्ट आइंस्टीन, जिन्होने सामान्य आपेक्षिकता का सिद्धान्त दिया भौतिक विज्ञानी अथवा भौतिक शास्त्री अथवा भौतिकीविद् वो वैज्ञानिक कहलाते हैं जो अपना शोध कार्य भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में करते हैं। उप-परवमाणविक कणों (कण भौतिकी) से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तक सभी परिघटनाओं का अध्ययन करने वाले लोग इस श्रेणी में माने जाते हैं। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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मापयंत्रण

वाष्प टरबाइन का नियंत्रण पटल (कंट्रोल पैनेल) मापयंत्रण (Instrumentation) इंजीनियरी की एक शाखा है जो मापन एवं नियंत्रण से सम्बन्धित है। इन युक्तियों को मापकयंत्र (instrument) कहते हैं जो किसी प्रक्रम (process) के प्रवाह (flow), ताप, दाब, स्तर आदि चरों (variables) को मापने या नियंत्रित करने के काम आते हैं। मापकयंत्र के अन्तर्गत वाल्व, प्रेषित्र (transmitters) आदि अत्यन्त सरल युक्तियों से लेकर विश्लेषक (analyzers) जैसे जटिल युक्तियां सम्मिलित हैं। प्रक्रमों का नियंत्रण अनुप्रयुक्त मापयंत्रण की प्रमुख शाखा है। आधुनिक नियंत्रण कक्ष .

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मीटरी पद्धति

विश्व में बहुत कम देश बचे हैं जहाँ अब भी मीटरी पद्धति लागू नहीं है। मीटरी पद्धति (metric unit system या metric system) भौतिक राशियों के मापन में प्रयुक्त मात्रकों की एक पद्धति है जिसमें मीटर लम्बाई की आधारभूत इकाई है। इस पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि किसी भौतिक राशि के छोटे-बड़े सभी मात्रकों का अनुपात १० या उसके किसी पूर्णांक घात (जैसे, १०-२, १०-५, १०७, १०९, १०८ आदि) होता है। उदाहरण के लिये, मीटर और सेन्टीमीटर दोनों लम्बाई (दूरी) के मात्रक हैं और एक मीटर १०० सेन्टीमीटर के बराबर होता है। इस प्रणाली का आरम्भ फ्रांस में सन १७९९ में हुआ। इसके पहले प्रचलित अधिकांश प्रणालियों में एक ही भौतिक राशि के विभिन्न मात्रकों में अनुपात १० या १० के किसी घात का होना जरूरी नहीं था। उदाहरण के लिये इंच और फुट दोनों लम्बाई के मात्रक हैं और १ फुट १२ इंच के बराबर होता है। इंच, फुट, सेर, मील आदि गैर-मीट्रिक इकाइयाँ थीं। इस प्रणाली का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांस की क्रांति के प्रारंभिक दिनों (१७९१) में हुआ था। पिछले लगभग दो सौ वर्षों में मीट्रिक पद्धति के कई रूप आये; जैसे मीटर-किलोग्राम-सेकेण्ड पद्धति और वर्तमान में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत एसआई पद्धति आदि। इन सभी में केवल मूल मात्रकों (फण्डामेंटल यूनिट्स) का अन्तर है किन्तु वस्तुत: वे सभी दशांश पद्धति का ही पालन करतीं हैं। मीट्रिक पद्धति का वैज्ञानिक एवं तकनीकी कार्यों के लिये बहुतायत में उपयोग किया जा रहा है। वर्तमान में केवल यूएसए, म्यांमार और लाइबेरिया को छोड़कर विश्व के सभी देशों ने आधिकारिक रूप से मीट्रिक प्रणाली को अपना लिया है। .

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लल्ल

लल्लाचार्य (७२०-७९० ई) भारत के ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। वे शाम्ब के पौत्र तथा भट्टत्रिविक्रम के पुत्र थे। उन्होने 'शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रम्' (.

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शाकद्वीपीय ब्राह्मण

शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यांश तथा सूर्योपासक थे। सूर्यदेव का चित्र। शाकद्वीपीय ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण ब्राह्मण वर्ग में सर्वोत्तम माना जाता है। प्राचीन इतिहासकारों के अनुसार ये शाकद्वीप से श्री कृष्ण द्वारा जम्बूद्वीप में लाए गए थे। इन्हें पुराणों में तथा श्री करपात्रीस्वामी के अनुसार दिव्य ब्राह्मण की उपाधि दी गई है। यह हिन्दू ब्राह्मणों का ऐसा वर्ग है जो मुख्यतः पूजा पाठ, वेद-आयुर्वेद, चिकित्सा, संगीत से संबंधित है। इनकी जाति मुख्यतः बिहार तथा पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में है। इन्हें सूर्य के अंश से उत्पन्न होने के कारण सूर्य के समान प्रताप वाला ब्राह्मण माना जाता है। .

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शंकर बालकृष्ण दीक्षित

शंकर बालकृष्ण दीक्षित (जन्म 24 जुलाई 1853 - मृत्यु 20 अप्रैल 1898) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। मराठी में लिखित "भारतीय ज्योतिषशास्त्र" आपका अमूल्य ग्रंथ है। .

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शंकरनारायण

शंकरनारायण (840 – 900 ई) भारत के खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ थे। वे राजा स्थाणु रविवर्मन के दरबार में थे। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि उन्होने केरल के कोडुनगल्लुर में भारत की प्रथम एक वेधशाला स्थापित की थी। लघुभास्करीयविवरण उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है जो भास्कर प्रथम की लघुभास्करीय का भाष्य है। (लघुभास्करीय भी आर्यभट प्रथम की रचनाओं पर आधारित है।) लघुभास्करीयविवरण की रचना ७९१ शक संवत (८६९ ई) में की गयी थी। शंकरनारायण खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ गोविन्दस्वामी के शिष्य थे। लघुभास्करीयविवरण की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें संख्याओं को दशमलव आधारित स्थानीय मान पद्धति के साथ-साथ कटपयादि पद्धति में भी लिखा गया है। इसमें आर्यभट प्रथम द्वारा दी गयीं अधिकांश गणितीय विधियाँ दी गयी हैं, जैसे कि अनिर्धार्य समीकरण by .

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शून्य

शून्य (0) एक अंक है जो संख्याओं के निरूपण के लिये प्रयुक्त आजकी सभी स्थानीय मान पद्धतियों का अपरिहार्य प्रतीक है। इसके अलावा यह एक संख्या भी है। दोनों रूपों में गणित में इसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्णांकों तथा वास्तविक संख्याओं के लिये यह योग का तत्समक अवयव (additive identity) है। .

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साँचे:ज्यामिति

श्रेणी:ज्यामिति साँचा.

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साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

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संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

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संस्कृति

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। ‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है। .

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संगमग्राम के माधव

संगमग्राम के माधव (सी. 1350 - सी. 1425) एक प्रसिद्ध केरल गणितज्ञ-खगोलज्ञ थे, ये भारत के केरल राज्य के कोचीन जिले के निकट स्थित एक कस्बे इरन्नलक्कुता से थे। इन्हें केरलीय गणित सम्प्रदाय (केरल स्कूल ऑफ एस्ट्रोनॉमी एंड मैथेमैटिक्स) का संस्थापक माना जाता है। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अनेक अनंत श्रेणियों वाले निकटागमन का विकास किया था, जिसे "सीमा-परिवर्तन को अनंत तक ले जाने में प्राचीन गणित की अनंत पद्धति से आगे एक निर्णायक कदम" कहा जाता है। उनकी खोज ने वे रास्ते खोल दिए, जिन्हें आज गणितीय विश्लेषण (मैथेमैटिकल एनालिसि) के नाम से जाना जाता है। माधवन ने अनंत श्रेणियों, कलन (कैलकुलस), त्रिकोणमिति, ज्यामिति और बीजगणित के अध्ययन में अग्रणी योगदान किया। वे मध्य काल के महानतम गणितज्ञों-खगोलज्ञों में से एक थे। कुछ विद्वानों ने यह विचार भी दिया है कि माधव के कार्य केरल स्कूल के माध्यम से, जेसूट मिशनरियों और व्यापारियों द्वारा, जो उस समय कोच्ची के प्राचीन पत्तन के आसपास काफी सक्रिय रहते थे, यूरोप तक भी प्रसारित हुए हैं। जिसके परिणामस्वरूप, इसका प्रभाव विश्लेषण और कलन में हुए बाद के यूरोपीय विकास क्रम पर भी पड़ा होगा.

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स्वतन्त्रता के बाद भारत का संक्षिप्त इतिहास

कोई विवरण नहीं।

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सूर्यसिद्धान्त

सूर्यसिद्धान्त भारतीय खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। कई सिद्धान्त-ग्रन्थों के समूह का नाम है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं। भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे आर्यभट्ट और वाराहमिहिर, आदि.

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हिन्दू मापन प्रणाली

हिन्दू समय मापन (लघुगणकीय पैमाने पर) गणित और मापन के बीच घनिष्ट सम्बन्ध है। इसलिये आश्चर्य नहीं कि भारत में अति प्राचीन काल से दोनो का साथ-साथ विकास हुआ। लगभग सभी प्राचीन भारतीय गणितज्ञों ने अपने ग्रन्थों में मापन, मापन की इकाइयों एवं मापनयन्त्रों का वर्णन किया है। ब्रह्मगुप्त के ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त के २२वें अध्याय का नाम 'यन्त्राध्याय' है। संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। .

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ज्या

समकोण त्रिभुज में किसी कोण की ज्या उस कोण के सामने की भुजा और कर्ण के अनुपात के बराबर होती है। गणित में ज्या (Sine), एक त्रिकोणमितीय फलन का नाम है। समकोण त्रिभुज में का समकोण के अलावा एक कोण x है तो, उदाहरण के लिये, यदि कोण का मान डिग्री में हो तो, .

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ज्यामिति का इतिहास

1728 साइक्लोपीडिया से ज्यामिति की तालिका. ज्यामिति (यूनानी भाषा γεωμετρία; जियो .

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वराह मिहिर

वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। कापित्थक (उज्जैन) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक देते हैं। वरःमिहिर का मुख्य उद्देश्य गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ना था। वस्तुतः ऋग्वेद काल से ही भारत की यह परम्परा रही है। वरःमिहिर ने पूर्णतः इसका परिपालन किया है। .

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वर्ग समीकरण

गणित में दो घात वाले समीकरण को वर्ग समीकरण (quadratic equation) या द्विघात समीकरण कहते हैं। विज्ञान, तकनीकी एवं अन्य अनेक स्थितियों में किसी समस्या के समाधान के समय वर्ग समीकरण से अक्सर सामना पडता रहता है। इसलिये वर्ग समीकरण का हल बहुत महत्व रखता है। वर्ग समीकरण का सामान्य समीकरण(General Equation) इस प्रकार का होता है: यहाँ a ≠ 0.

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वितत भिन्न

गणित में निम्नलिखित प्रकार के व्यंजक (expression) को वितत भिन्न (continued fraction) कहते हैं। यहाँ, a0 एक पूर्णांक है तथान्य सभी संख्याएँ ai (i ≠ 0) धनात्मक पूर्णांक हैं। यदि उपरोक्त वितत भिन्न में अंश एवं हर का मान कुछ भी होने की स्वतंत्रता दे दी जाय (जैसे फलन होने की छूट) तो इसे 'सामान्यीकृत वितत भिन्न' कह सकते हैं। .

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व्यक्तियों के नाम से प्रसिद्ध वैज्ञानिक समीकरण

यह उन समीकरणों की सूची है जिनका नाम किसी व्यक्ति के नाम पर रखे गये हैं।.

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वृहद भारत

'''वृहद भारत''': केसरिया - भारतीय उपमहाद्वीप; हल्का केसरिया: वे क्षेत्र जहाँ हिन्दू धर्म फैला; पीला - वे क्षेत्र जिनमें बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ वृहद भारत (Greater India) से अभिप्राय भारत सहित उन अन्य देशों से है जिनमें ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। इसमें दक्षिणपूर्व एशिया के भारतीकृत राज्य मुख्य रूप से शामिल है जिनमें ५वीं से १५वीं सदी तक हिन्दू धर्म का प्रसार हुआ था। वृहद भारत में मध्य एशिया एवं चीन के वे वे भूभाग भी सम्मिलित किये जा सकते हैं जिनमे भारत में उद्भूत बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ था। इस प्रकार पश्चिम में वृहद भारत कीघा सीमा वृहद फारस की सीमा में हिन्दुकुश एवं पामीर पर्वतों तक जायेगी। भारत का सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र .

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वीरसेन

आचार्य वीरसेन आठवीँ शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं जैन दार्शनिक थे। वे प्रखर वक्ता एवं कवि भी थे। धवला उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। 'जयधवला' के भी वे रचयिता हैं। उन्होने स्तम्भस्थूण या 'फ्रस्टम' (frustum) का आयतन निकालने की विधि बतायी। वे 'अर्धच्छेद', 'त्रकच्छेद' और 'चतुर्थच्छेद' नाम के काँसेप्ट का प्रयोग करते थे। अर्धच्छेद में देखते हैं कि कोई संख्या कितनी बार में २ से विभाजित होकर अन्ततः १ हो जाती है। वस्तुतः यह २ आधार पर उस संख्या का लघुगणक (log2x) की खोज है। इसी प्रकार 'त्रक्च्छेद' और 'चतुर्च्छेद' क्रमशः (log3x) और (log4x) हैं। आचार्य वीरसेन ने किसी वृत्त की परिधि C और उसके व्यास d के बीच सम्बध के लिये एक सन्निकट सूत्र दिया: d के बड़े मानों के लिये यह सूत्र पाई का मान लगभग π ≈ 355/113 .

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खण्डखाद्यक

खण्डखाद्यक ब्रह्मगुप्त द्वारा रचित खगोलशास्त्र (ज्योतिष) ग्रन्थ है। इसकी रचना ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के बाद (६६५ ई में) हुई। खण्डखाद्यक के दो भाग हैं-.

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खगौल

खगौल भारत के बिहार प्रांत का एक शहर है। बिहार राज्य की राजधानी पटना (प्राचीन पाटलिपुत्र) के निकट सुप्रसिद्ध दानापुर रेलवे स्टेशन के उत्तर दक्षिण पूर्व और पश्चिम चारों तरफ का क्षेत्र खगौल के नाम से प्रसिद्ध है | दानापुर रेलवे स्टेशन से सटे दक्षिण चक्रदाहा क्षेत्र में आर्यभट्ट की खगोलीय वेधशाला (एस्ट्रोनोमिकल ऑब्जर्वेटरी) के स्थित होने के कारण ही इस क्षेत्र का नामकरण खगोल हुआ, जो वर्तमान में खगोल शब्द के अपभ्रंश खगौल के नाम से प्रसिद्ध है | यहीं बैठकर आर्यभट ने विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभटीय की रचना की थी तथा शून्य के सिद्धांत का आविष्कार किया था | यहीं बैठकर आर्यभट्ट ने बीजगणित (अलजेबरा), रेखागणित (ज्योमेट्री) एवं त्रिकोणमिति (ट्रिगोनोमेट्री) के मूल सिद्धांतों की रचना की थी तथा पांचवीं शताब्दी में सर्वप्रथम पाई का मान निकाला था जो आज भी मान्य है| प्राचीन काल में सुप्रसिद्ध सोन नदी इसी क्षेत्र से होकर बहते हुए दानापुर में जाकर गंगा से मिलती थी | वर्तमान चक्रदाहा से नवरतनपुर के बीच प्राचीन सोन नदी के किनारे मगध साम्राज्य के प्रधानमंत्री सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री चाणक्य की तपस्थली कुटिया थी, जहां चौथी शताब्दी ईसापूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य से प्रारंभिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्राप्त किया था | चाणक्य शिष्य चंद्रगुप्त ने मगध के क्रूर शासक धनानंद को पराजित कर विश्व के सबसे शक्तिशाली, सबसे प्रभुत्वशाली एवं सबसे विकसित विश्वविख्यात मगध साम्राज्य की स्थापना की तथा सिकंदर और उसके सेनापति सेल्युकस को हराकर वर्तमान भारत पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान समेत ईरान तक मगध साम्राज्य का विस्तार किया | चाणक्य का समाधिस्थल चाणक्य चबूतरा आज भी विद्यमान है | दानापुर रेलवे स्टेशन से उत्तर कैन्ट रोड के किनारे मुस्तफापुर में 1901 ई० में स्थापित वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल बीसवीं शताब्दी के प्रथम आधुनिक गुरुकुल के रूप में विश्वप्रसिद्ध रहा है | दानापुर रेल मंडल कार्यालय, इरिगेशन रिसर्च इंस्टीच्युट, वाटर एंड लैंड मैनेजमेंट इंस्टीच्यूट (वाल्मी), ऑल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज (एम्स पटना), एन०सी०घोष इंस्टीच्यूट, जगजीवन स्टेडियम राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं | महान शिक्षाविद, चिकित्सक, चिकित्सा वैज्ञानिक, स्वतंत्रता सेनानी, आर्यसमाज के अग्रणी नेता महामंत्री पंडित हरिनारायण शर्मा (1862 - 1962) द्वारा सन 1901 ई० में स्थापित तथा सन 1915 ई० में विस्तारित वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल, मुस्तफापुर, कैन्ट रोड, खगौल, पटना (बिहार) बीसवीं शताब्दी के प्रथम आधुनिक गुरुकुल के रूप में विश्वप्रसिद्ध रहा है | वैदिक अध्ययन, गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद, दर्शनशास्त्र, ज्योतिष, नाड़ीविज्ञान, साहित्य, व्याकरण, धनुर्विद्या तलवारबाजी, निशानेबाजी, खेल प्रशिक्षण, वक्तृत्वकला नेतृत्व प्रशिक्षण आदि की श्रेष्ठ व्यवस्था के कारण देश - विदेश के लोग यहाँ आकर शिक्षा प्राप्त करते थे | अनेकों सुप्रसिद्ध डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डायरेक्टर, वक्ता, अधिवक्ता, न्यायाधीश, मंत्री, मुख्यमंत्री के आदर्श व्यक्तित्व का निर्माता यह गुरुकुल अत्याधुनिक शिक्षा चिकित्सा छात्रावास सुविधायुक्त प्राथमिक से स्नातकोत्तर स्तर की संस्कारयुक्त शिक्षा हेतु प्रसिद्ध रहा है | स्वतंत्रता आन्दोलन एवं समाजसुधार आन्दोलन का यह सुप्रसिद्ध केन्द्र रहा है | करीब चार एकड़ क्षेत्र में विस्तृत चौतरफा चहारदीवारीयुक्त इस गुरुकुल के दक्षिणी भाग में छात्रावासभवन, मध्यपूर्व में यज्ञशाला, सुदूर पूर्व में औषधि निर्माणकेन्द्र एवं रसोईघर, मध्यपश्चिम में अवस्थित आयुर्वेदिक चिकित्सालय, उत्तरपश्चिम में प्रशासनिक एवं शैक्षणिक भवन तथा बीच में खेल का मैदान अवस्थित था | प्राथमिक स्तर से स्नातकोत्तर स्तर की उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था एवं सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति हेतु यह गुरुकुल विश्वविख्यात रहा है | वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल में सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति के विषय थे - धर्मविज्ञान, न्यायविधिविज्ञान योगविज्ञान, भाषाविज्ञान प्रकृतिविज्ञान, समाजविज्ञान, गणित, सैन्यविज्ञान, व्यावसायिकशिक्षा, नेतृत्वप्रशिक्षण | सन 1926 ई० में मुस्तफापुर स्थित वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल के उच्च शिक्षा विभाग को देवघर में स्थानांतरित किया गया, जहां वह करीब अस्सी एकड़ भुक्ल्हंद में विस्तृत “गुरुकुल महाविद्यालय बैद्यनाथधाम, देवघर” के नाम से प्रसिद्ध है | पंडित हरि नारायण शर्मा की प्रेरणा और सक्रिय सहयोग से 1902 ई० में उनके परम सहयोगी आर्य समाजी मित्र स्वामी श्रद्धानंद द्वारा हरिद्वार में “गुरुकुल कांगड़ी विश्व विद्यालय” की स्थापना की गयी तथा सन 1916 ई० में पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा “बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय’ की स्थापना की गयी | उन्होंने लाला हंसराज, गुरुदत्त विद्यार्थी, लाला लाजपत राय के साथ मिलकर सन 1886 ई० में लाहौर में प्रथम ‘डी०ए०वी० स्कूल’ एवं डी०ए०वी० कॉलेज की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया | इस गुरुकुल के संस्थापक सचिव पं० हरिनारायण शर्मा के 1962 ई० में स्वर्गवास, उनके शिक्षाविद पुत्र पं०वेद व्रत शर्मा का पृथ्वीराज कपूर के साथ मुंबई प्रवास एवं 1966 ई० में स्वर्गवास तथा पौत्र ब्रज बल्लभ शर्मा के अन्यत्र कार्यरत रहने एवं सरकारी उपेक्षा के कारण यहाँ की उच्चस्तरीय शिक्षा बाधित हुई | इसके दक्षिणी भाग में अभी मध्यविद्यालय कार्यरत है | पं० हरिनारायण शर्मा के प्रपौत्र कृष्ण बल्लभ शर्मा ‘योगीराज’ (अधिवक्ता, पटना उच्च न्यायालय) द्वारा गुरुकुल के जीर्णोद्धार एवं विकास का प्रयास निरंतर जारी है | बिहार सरकार द्वारा संचालित प्रसिद्ध शोध संस्थान के० पी० जायसवाल रीसर्च इंस्टीच्युट, पटना संग्रहालय भवन, बुद्ध मार्ग, पटना द्वारा प्रकाशित “कॉम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ बिहार” के वोल्यूम – ३, पार्ट – २, पृष्ठ – २९, ३१, ३७ में पंडित हरि नारायण शर्मा की कुछ कीर्ति सहित उपरोक्त वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल का ऐतिहासिक स्वरुप वर्णित है |  महान शिक्षाविद, चिकित्सक, चिकित्सा वैज्ञानिक, स्वतंत्रता सेनानी, आर्यसमाज के अग्रणी नेता महामंत्री पंडित हरिनारायण शर्मा (1862 - 1962) ने लाहौर जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त किये थे | लाला लाजपत राय, नरदेव शास्त्री, मंगलदेव शास्त्री आदि सुप्रसिद्ध महान लोग लाहौर में उनके सहपाठी रहे थे | साइमन कमीशन के विरुद्ध आंदोलन में लाठीचार्ज से घायल अपने परम सहयोगी मित्र लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए उन्होंने चंद्रशेखर आजाद को वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल प्रांगण में रखकर सन १९२८ ई० में अंग्रेज सौन्डर्स को मारने की योजना को सफल बनाया | डॉ०राजेन्द्र प्रसाद, डॉ०दुखन राम, डॉ०बद्री प्रसाद, डॉ०मधुसूदन दास, लखन लाल पॉल, पारस नाथ, रमाकांत पांडे, अनुग्रह नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह, कृष्ण बल्लभ सहाय, सतीश चन्द्र मिश्रा, बलभद्र प्रसाद, चंद्रशेखर आजाद, पं०वेद व्रत शर्मा, पं०सत्य व्रत शर्मा, पं०प्रिय व्रत शर्मा, ताराकांत झा आदि महान विभूतियों के आदर्श व्यक्तित्व का निर्माता यह सुप्रसिद्ध ‘वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल’ रहा है | गुरुकुल का आदर्श था- ‘एक सुशिक्षित व्यक्ति 100 सेना के बराबर होता है |’ लालालाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, नरदेव शास्त्री, मंगलदेव शास्त्री, डॉ०राजेन्द्र प्रसाद, पं०मदनमोहन मालवीय, जे०बी०कृपलानी, पृथ्वीराज कपूर आदि मानवता के महान विभूतियों का गुरुकुल में आगमन होता रहा है | पं०हरिनारायण शर्मा द्वारा प्रभावशाली व्यक्तित्व नेतृत्व प्रशिक्षण कोर्स हेतु सदाकत आश्रम पटना तथा आर्यसमाज मंदिर पटना- रांची में गुरुकुल की शाखा चलाई जाती थी | पं०हरिनारायण शर्मा एवं उनके सहयोगी मित्र लालालाजपत राय के सक्रिय सहयोग से उनके मित्र स्वामी श्रद्धानंद द्वारा 1902 में गुरुकुल कांगड़ी विव्श्वविद्यालय की स्थापना हुई, तदनंतर सन 1909 ई० में हिन्दू महासभा की स्थापना हुई | सन 1916 ई० में वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल में स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा प्रारम्भ की गयी | यहीं से सन 1916 ई० में पं०हरिनारायण शर्मा द्वारा मासिक पत्रिका ‘दिव्य रश्मि’ एवं ‘शाकद्वीपीय ब्राह्मण बंधू’ तथा सुप्रसिद्ध अखबार “आर्यावर्त” का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया और “दिव्य आयुर्वेद” नाम से आयुर्वेदिक औषधि का उत्पादन प्रारम्भ किया गया | सम्पूर्ण बुद्धिजीवी वर्ण की एकता हेतु “ऑल इंडिया ब्राह्मण एसोसियेशन” का गठन किया गया | उनके द्वारा 1916 ई० में पुनपुन में तथा मुस्तफापुर में अपने पैतृक आवास के सामने 6000 वर्गफीट में दोमंजिला पक्का भवन बनाकर उसमें आयुर्वेदिक चिकित्सालय एवं आयुर्वेद शिक्षाकेन्द्र शुरू किया गया | पं०हरिनारायण शर्मा के सक्रिय सहयोग से उनके सहयोगी पं०मदनमोहन मालवीय द्वारा 1916 ई० में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी | 1926 में “गुरुकुल महाविद्यालय बैद्यनाथधाम” की स्थापना कर उसमें ‘वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल’ का उच्चतर शिक्षा विभाग स्थानांतरित कर दिया गया | पं०हरिनारायण शर्मा तथा उनके मित्र लालालाजपत राय, गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानंद आदि मिलकर 1886 ई० में लाहौर में प्रथम डी०ए०वी०स्कूल, डी०ए०वी०कॉलेज स्थापित किये | सन 1901 ई० में वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल की स्थापना के बाद देश भर में विभिन्न स्थानों पर डी०ए०वी०स्कूल, डी०ए०वी०कॉलेज तथा अनाथाश्रम, विधवाश्रम एवं गुरुकुल स्थापित करने का सिलसिला प्रारम्भ किया गया | 1915 ई०में पं०हरिनारायण शर्मा द्वारा 4000 मुसलमान एवं ईसाई लोगों को आर्यसमाज में शामिल करके एक नया विश्व इतिहास रच दिया गया | हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत एवं जातिवाद की गंदी राजनीति का उन्होंने प्रबल विरोध किया तथा विधवा विवाह प्रथा को प्रोत्साहित किया | धर्मांतरण एवं समाज सुधार आंदोलन के विरोध की समाप्ति हेतु वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल में 1916 ई० में विश्वधर्मसभा (वर्ल्ड रेलीजीयस समिट) का आयोजन किया गया | 1938 ई० में उन्होंने हैदराबाद निजाम के विरुद्ध कॉंग्रेस जत्था का नतृत्व किया | सन 1929 ई० साइमन कमीशन के विरुद्ध आंदोलन में अंग्रेज पुलिस पदाधिकारी सौन्डर्स द्वारा लाहौर में किये गए लाठीचार्ज के कारण लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने हेतु चंद्रशेखर आजाद द्वारा वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल में क्रांतिकारियों की बैठक कर सौन्डर्स को मारने का निर्णय लिया गया और सौन्डर्स को मारकर लालालाजपत राय की मौत का बदला लिया गया | पं०हरिनारायण शर्मा के अन्यत्र व्यस्तता के कारण दरभंगा महाराजा सर कामेश्वर सिंह द्वारा 1941 में आर्यावर्त का पुनःप्रकाशन प्रारम्भ किया गया| पं० हरिनारायण शर्मा के पुत्र पं० वेद व्रत शर्मा सुप्रसिद्ध वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल के प्राचार्य, सुप्रसिद्ध शिक्षाविद, इतिहासकार, पत्रकार तथा अनेक शिक्षण संस्थानों के संस्थापक होने के साथ साथ अंगरेजी साहित्य के विश्व प्रसिद्द विद्वान रहे हैं | पं० वेद व्रत शर्मा जी के छोटे भाई पं० सत्य व्रत शर्मा 'सुजन'(पूर्व निदेशक, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार) संस्कृत और हिन्दी साहित्य के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान रहे हैं | पं० वेद व्रत शर्मा जी के सबसे छोटे भाई पं० प्रिय व्रत शर्मा जी पूर्व प्राचार्य, पटना आयुर्वेदिक महाविद्यालय, पटना एवं पूर्व निदेशक, स्नातकोत्तर आयुर्वेद संस्थान, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (Director, Post Graduate Institute of Indian Medicine, Banaras Hindu University, Varanasi) विश्वप्रसिद्ध आयुर्वेद विशेषज्ञ एवं ऋषि परम्परा के महान संत थे |आयुर्वेद के विश्वव्यापी प्रचार प्रसार, कालजयी रचना और हिन्दी अंगरेजी संस्कृत भाषा में पं० श्रेष्ठ चंद मिश्र, पं० प्रभुनाथ मिश्र, पं० रामावतार मिश्र उर्फ पं० रामावतार शर्मा, पं० हरिनारायण मिश्र उर्फ पं० हरिनारायण शर्मा जैसे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त महान आयुर्वेद विशेषज्ञों की वंश परम्परा से अर्जित सम्पूर्ण ज्ञान और अनुभव को आचार्य प्रिय व्रत शर्मा जी ने विश्व पटल पर स्थापित किया | पं० हरिनारायण शर्मा के भतीजा आचार्य प्रिय व्रत शर्मा जी विश्व प्रसिद्द ऐतिहासिक गुरुकुल 'वेदरत्न विद्यालय गुरुकुल, मुस्तफापुर, खगौल, जिला- पटना' के अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने गुरुकुल की उच्च परंपरा और ऊँचे आदर्शों का जीवन पर्यंत निर्वाह किया | वह ऋषि परम्परा के महान संत थे | उनका संप.

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गणित का इतिहास

ब्राह्मी अंक, पहली शताब्दी के आसपास अध्ययन का क्षेत्र जो गणित के इतिहास के रूप में जाना जाता है, प्रारंभिक रूप से गणित में अविष्कारों की उत्पत्ति में एक जांच है और कुछ हद तक, अतीत के अंकन और गणितीय विधियों की एक जांच है। आधुनिक युग और ज्ञान के विश्व स्तरीय प्रसार से पहले, कुछ ही स्थलों में नए गणितीय विकास के लिखित उदाहरण प्रकाश में आये हैं। सबसे प्राचीन उपलब्ध गणितीय ग्रन्थ हैं, प्लिमपटन ३२२ (Plimpton 322)(बेबीलोन का गणित (Babylonian mathematics) सी.१९०० ई.पू.) मास्को गणितीय पेपाइरस (Moscow Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित (Egyptian mathematics) सी.१८५० ई.पू.) रहिंद गणितीय पेपाइरस (Rhind Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित सी.१६५० ई.पू.) और शुल्बा के सूत्र (Shulba Sutras)(भारतीय गणित सी. ८०० ई.पू.)। ये सभी ग्रन्थ तथाकथित पाईथोगोरस की प्रमेय (Pythagorean theorem) से सम्बंधित हैं, जो मूल अंकगणितीय और ज्यामिति के बाद गणितीय विकास में सबसे प्राचीन और व्यापक प्रतीत होती है। बाद में ग्रीक और हेल्लेनिस्टिक गणित (Greek and Hellenistic mathematics) में इजिप्त और बेबीलोन के गणित का विकास हुआ, जिसने विधियों को परिष्कृत किया (विशेष रूप से प्रमाणों (mathematical rigor) में गणितीय निठरता (proofs) का परिचय) और गणित को विषय के रूप में विस्तृत किया। इसी क्रम में, इस्लामी गणित (Islamic mathematics) ने गणित का विकास और विस्तार किया जो इन प्राचीन सभ्यताओं में ज्ञात थी। फिर गणित पर कई ग्रीक और अरबी ग्रंथों कालैटिन में अनुवाद (translated into Latin) किया गया, जिसके परिणाम स्वरुप मध्यकालीन यूरोप (medieval Europe) में गणित का आगे विकास हुआ। प्राचीन काल से मध्य युग (Middle Ages) के दौरान, गणितीय रचनात्मकता के अचानक उत्पन्न होने के कारण सदियों में ठहराव आ गया। १६ वीं शताब्दी में, इटली में पुनर् जागरण की शुरुआत में, नए गणितीय विकास हुए.

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आर्यभट (बहुविकल्पी)

आर्यभट्ट से निम्नलिखित का बोध होता है-.

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आर्यभट की ज्या सारणी

आर्यभट द्वारा रचित आर्यभटीय में दिये गये २४ संख्याओं का समुच्चय आर्यभट की ज्या-सारणी (Āryabhaṭa's sine table) कहलाता है। आधुनिक अर्थ में यह कोई गणितीय सारणी (टेबुल) नहीं है जिसमें संख्याएँ पंक्ति व स्तम्भ के रूप में विन्यस्त (arranged) हों। वृत्त में चाप (Arc) तथा जीवा (chord) परम्परागत अर्थों में यह त्रिकोणमिति में प्रयुक्त ज्या फलन (sine function) के मानों की सूची भी नहीं है बल्कि यह ज्या फलन के मानों के प्रथम अन्तर (first differences) है। इसी लिये इसे 'आर्यभट की ज्या-अन्तर सारणी (Āryabhaṭa's table of sine-differences) भी कहा जाता है। आर्यभट की यह सारणी, गणित के इतिहास में, विश्व की सबसे पहले रचित ज्या-सारणी है। .

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आर्यभट्ट (बहुविकल्पी)

कोई विवरण नहीं।

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आर्यभट्ट द्वितीय

आर्यभट्ट (द्वितीय) गणित और ज्योतिष दोनों विषयों के अच्छे आचार्य थे। इनका बनाया हुआ महासिद्धान्त ग्रंथ ज्योतिष सिद्धांत का अच्छा ग्रंथ है। .

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आर्यभट्ट सिद्धान्त

आर्यभट्ट सिद्धांत प्रसिद्ध भारतीत गणितज्ञ आर्यभट्ट की लिखि पुस्तक थी। आज इसके मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। अपनी वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने आर्यभट्ट सिद्धांत के नाम से लिखी। यह दैनिक खगोलीय गणना और अनुष्ठानों के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है। श्रेणी:भारतीय गणित श्रेणी:खगोलशास्त्र श्रेणी:गणित श्रेणी:भारतीय ग्रंथ.

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आर्यभट्ट की संख्यापद्धति

संख्याओं को शब्दों में बदलने के लिये आर्यभट द्वारा प्रयुक्त पद्धति की तालिका आर्यभट्ट ने आर्यभटीय के 'गीतिकापादम्' नामक अध्याय में संख्याओं को 'शब्दों' के रूप में बदलने की पद्धति का विवरण दिया है। इस पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि इसके उपयोग से गणित तथा खगोलिकी में आने वाली संख्याएँ भी श्लोकों में आसानी से प्रयुक्त की जा सकती थीं। इस पद्धति का आधार आर्यभट्ट की महान रचना आर्यभटीय के प्रथम अध्याय (गीतिकापदम्) के द्वितीय श्लोक में वर्णित है। आर्यभट को अपना ग्रंथ पद्य में लिखना था, गणित व ज्योतिष के विषयों को श्लोकबद्ध करना था। प्रचलित शब्दांकों से आर्यभट का काम नहीं चल सकता था, इसलिए उन्होंने संस्कृत वर्णमाला का उपयोग करके एक नई वर्णांक या अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया। संस्कृत व्याकरण के विशिष्ट शब्दों का उपयोग करके आर्यभट ने अपनी नई अक्षरांक-पद्धति के सारे नियम एक श्लोक में भर दिए। ग्रंथ के आरंभ में ही अपनी नई अक्षरांक पद्धति को प्रस्तुत कर देने के बाद आर्यभट अब बड़ी-बड़ी संख्याओं को अत्यंत संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत रूप में रखने में समर्थ थे। उन्होंने शब्दांकों का भी काफी प्रयोग किया है। वह अद्भुत श्लोक है- अर्थात् क से प्रारंभ करके वर्ग अक्षरों को वर्ग स्थानों में और अवर्ग अक्षरों को अवर्ग स्थानों में (व्यवहार करना चाहिए), (इस प्रकार) ङ और म का जोड़ य (होता है)। वर्ग और अवर्ग स्थानों के नव के दूने शून्यों को नव स्वर व्यक्त करते हैं। नव वर्ग स्थानों और नव अवर्ग स्थानों के पश्चात् (अर्थात् इनसे अधिक स्थानों के उपयोग की आवश्यकता होने पर) इन्हीं नव स्वरों का उपयोग करना चाहिए। 'आर्यभटीय' के भाष्यकार परमेश्वर कहते हैं- 'केनचिदनुस्वारादिविशेषण संयुक्ताः प्रयोज्या इत्यर्थः' अर्थात् किसी अनुस्वार आदि विशेषणों का उपयोग (स्वरों में) करना चाहिए। संस्कृत वर्णमाला में क से म तक पच्चीस वर्ग अक्षर हैं और य से ह तक आठ अवर्ग अक्षर हैं। संख्याओं के लिखने में दाहिनी ओर से पहला, तीसरा, पाँचवाँ अर्थात् विषम स्थान और दूसरा, चौथा, छठा आदि सम स्थान अवर्ग स्थान है। क से म तक 25 अक्षर हैं। आर्यभट ने इन्हें 1 से 25 तक मान दिए हैं अर्थात् क .

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आर्यभटीय

आर्यभटीय नामक ग्रन्थ की रचना आर्यभट प्रथम (४७६-५५०) ने की थी। यह संस्कृत भाषा में आर्या छंद में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। आर्यभटीय, दसगीतिका पाद से आरम्भ होती है। इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं: 1.

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कलन

कलन (Calculus) गणित का प्रमुख क्षेत्र है जिसमें राशियों के परिवर्तन का गणितीय अध्ययन किया जाता है। इसकी दो मुख्य शाखाएँ हैं- अवकल गणित (डिफरेंशियल कैल्कुलस) तथा समाकलन गणित (इटीग्रल कैलकुलस)। कैलकुलस के ये दोनों शाखाएँ कलन के मूलभूत प्रमेय द्वारा परस्पर सम्बन्धित हैं। वर्तमान समय में विज्ञान, इंजीनियरी, अर्थशास्त्र आदि के क्षेत्र में कैल्कुलस का उपयोग किया जाता है। भारत में कैल्कुलस से सम्बन्धित कई कॉन्सेप्ट १४वीं शताब्दी में ही विकसित हो गये थे। किन्तु परम्परागत रूप से यही मान्यता है कि कैलकुलस का प्रयोग 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आरंभ हुआ तथा आइजक न्यूटन तथा लैब्नीज इसके जनक थे। .

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कलियुग

कलियुग पारम्परिक भारत का चौथा युग है। आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध ३१३७ ईपू में हुआ। कलियुग का आरम्भ कृष्ण के इस युद्ध के ३५ वर्ष पश्चात निधन पर हुआ। के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के इस पृथ्वी से प्रस्थान के तुंरत बाद 3102 ईसा पूर्व से कलि युग आरम्भ हो गया। .

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कुट्टक

कुट्टक रैखिक डायोफैंटीय समीकरणों के पूर्णांक हल निकालने की विधि (algorithm) हैं जो भारतीय गणित में बहुत प्रसिद्ध हैं। .

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कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,सौप्तिकपर्व इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,भीष्मपर्व इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है। कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं, जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया, इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं, ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। .

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कैलकुलस का इतिहास

कोई विवरण नहीं।

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उडिपी रामचंद्र राव

उडिपी रामचंद्र राव (कन्नड: ಉಡುಪಿ ರಾಮಚಂದ್ರ ರಾವ್, जन्म:१० मार्च १९३२, निधन: २४ जुलाई २०१७) भारत के एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक तथा भारतीय उपग्रह कार्यक्रम के वास्तुकार थे। उन्होने भारत में अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास तथा प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में संचार एवं सुदूर संवेदन के विस्तृत अनुप्रयोग के लिये मौलिक योगदान दिया है। वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के भूतपूर्व अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में ही वर्ष १९७५ में भारत का पहला उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया था। वे भारत के प्रथम अंतरिक्ष वैज्ञानिक थे जिन्हें वर्ष २०१३ में ‘सैटेलाइट हाल ऑफ द फेम’ में तथा वर्ष २०१६ में ‘आईएएफ हाल ऑफ फेम’ में सम्मिलित किया गया था। निधन से पूर्व वे तिरुवनंतपुरम में स्थित भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान के कुलपति के रूप में कार्यरत थे। उनको भारत सरकार द्वारा सन १९७६ में विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में पद्म भूषण से तथा वर्ष २०१७ में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

आर्यभट प्रथम, आर्यभट:, आर्यभट्ट, आर्यभट्ट प्रथम

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