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आदर्शोन्मुख यथार्थवाद

सूची आदर्शोन्मुख यथार्थवाद

इस तस्वीर का प्रतिनिधित्व के बजाय वास्तविकता को स्वीकार आदर्श बनने की कोशिश कर समय बर्बाद नहीं है और एक यथार्थवादी होना आदर्शोन्मुख यथार्थवाद (Idealistic Realism) आदर्शवाद तथा यथार्थवाद का समन्वय करने वाली विचारधारा है। आदर्शवाद और यथार्थवाद बीसवीं शती के साहित्य की दो प्रमुख विचार धाराएँ थीं। आदर्शवाद में सत्य की अवहेलना या उस पर विजय प्राप्त कर के आदर्शवाद की स्थापना की जाती थी। जबकि यथार्थवाद में आदर्श का पालन नहीं किया जाता था, या उसका ध्यान नहीं रखा जाता था। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद में यथार्थ का चित्रण करते हुए भी आदर्श की स्थापना पर बल दिया जाता था। इस प्रवृत्ति की ओर प्रथम महत्त्वपूर्ण संकेत प्रेमचन्द का है। उन्होंने कथा साहित्य को यथार्थवादी रखते हुए भी आदर्शोन्मुख बनाने की प्रेरणा दी और स्वतः अपने उपन्यासों ऑर कहनियों में इस प्रवृत्ति को जीवन्त रूप में अंकित किया। उनका उपन्यास प्रेमाश्रम इसी प्रकार की कृति है। पर प्रेमचन्द के बाद इस साहित्यिक विचारधारा का आगे विकास प्रायः नहीं हुआ। इस चिंतन पद्धति को कदचित कलात्मक स्तर पर कृत्रिम समझकर छोड दिया गया। प्रेमचन्द कला के क्षेत्र में यथार्थवादी होते हुए भी सन्देश की दृष्टि से आदर्शवादी हँ। आदर्श प्रतिष्ठा करना उनके सभी उपन्यासों का लक्ष्य हॅ। ऐसा करने में चाहे चरित्र की स्वाभाविकता नष्ट हो जाय, किन्तु वह अपने सभी पात्रों को आदर्श तक पहुँचाते अवश्य है। प्रेमचन्द की कला का चर्मोत्कर्ष उनके अन्तिम उपन्यास गोदान में दिखाई पडता हॅ। "गोदान" लिखने से पहले प्रेमचन्द आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे, परन्तु "गोदान" में उनका आदर्शोन्मुख यथार्थवाद जवाब दे गया है। प्रेमचंद इस विचारधारा के प्रमुख लेखक थे। .

2 संबंधों: प्रेमचंद, कहानी

प्रेमचंद

प्रेमचंद (३१ जुलाई १८८० – ८ अक्टूबर १९३६) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी (विद्वान) संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं। .

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कहानी

कथाकार (एक प्राचीन कलाकृति)कहानी हिन्दी में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना गया। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार- नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'बाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है। इसके पश्‍चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई हैं। .

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