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आत्मजयी

सूची आत्मजयी

'आत्मजयी' में मृत्यु सम्बंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए। पिछले पच्चीस वर्षों में कुँवर नारायण की कृति ‘आत्मजयी’ ने हिन्दी साहित्य के एक मानक प्रबन्ध-काव्य के रूप में अपनी एक खास जगह बनायी है और यह अखिल भारतीय स्तर पर प्रशंसित हुआ है। ‘आत्मजयी’ का मूल कथासूत्र कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रसंग पर आधारित है। इस आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को एक बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक साधन बनाया है। जीवन के पूर्णानुभव के लिए किसी ऐसे मूल्य के लिए जीना आवश्यक है जो मनुष्य में जीवन की अनश्वरता का बोध कराए। वह सत्य कोई ऐसा जीवन-सत्य हो सकता है जो मरणधर्मा व्यक्तिगत जीवन से बड़ा, अधिक स्थायी या चिरस्थायी हो। यही मनुष्य को सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है। जब वह जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला असहाय प्राणी नहीं, जीवन को कुछ दे सकने वाला समर्थ मनुष्य होगा तब उसके लिए यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। ‘आत्मजयी’ मूलतः मनुष्य की रचनात्मक सामर्थ्य में आस्था की पुनःप्राप्ति की कहानी है। इसमें आधुनिक मनुष्य की जटिल नियति से एक गहरा काव्यात्मक साक्षात्कार है। इतालवी भाषा में ‘नचिकेता’ के नाम से इस कृति का अनुवाद प्रकाशित और चर्चित हुआ है-यह इस बात का प्रमाण है कि कवि ने जिन समस्याओं और प्रश्नों से मुठभेड़ की है उनका सार्विक महत्त्व है। जिस दौर में आत्मजयी छप कर आई थी उस दौर की हिन्दी आलोचना को कविता के बाहर काव्य-सत्य पाने-जांचने में बड़ी दिलचस्पी थी। अकारण नहीं उसने इस कृति को निरे अस्तित्ववादी दार्शनिक शब्दावलियों में घटा कर अपने काम से छुट्टी पा ली थी। उम्मीद है बीते वर्षों में वह इतनी प्रौढ़ और जिम्मेदार हो चुकी है कि कविता को उसके अर्जित जैविक अनुभव और काव्य-गुण के आधार पर जांचने की जहमत उठाए। अन्यथा यह एक निर्विवाद तथ्य है कि उसकी तत्कालीन बंद सोच के बावजूद आत्मजयी आधुनिक हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। .

1 संबंध: कुँवर नारायण

कुँवर नारायण

कुँवर नारायण का जन्म १९ सितंबर १९२७ को हुआ। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। ‘तनाव‘ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। 2009 में कुँवर नारायण को वर्ष 2005 के लिए देश के साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

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