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अग्निहोत्र

सूची अग्निहोत्र

ब्राह्मण पुरोहित यज्ञ वेदी में घी का हवन करते हुए. अग्निहोत्र एक वैदिक यज्ञ है जिसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। अग्निहोत्र एक नित्य वैदिक यज्ञ है। श्रेणी:यजुर्वेद.

12 संबंधों: ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीयोपनिषद, नित्यकर्म, पारस, ब्राह्मण, भोपाल गैस काण्ड, यजुर्वेद, हवन, जनक विदेह, गौतम बुद्ध, इष्टि, अरुन्धती (महाकाव्य)

ऐतरेय ब्राह्मण

ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की एक शाखा है जिसका केवल "ब्राह्मण" ही उपलब्ध है, संहिता नहीं। ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेदीय ब्राह्मणों में अपनी महत्ता के कारण प्रथम स्थान रखता है। यह "ब्राह्मण" हौत्रकर्म से संबद्ध विषयों का बड़ा ही पूर्ण परिचायक है और यही इसका महत्व है। इस "ब्राह्मण" के अन्य अंश भी उपलब्ध होते हैं जो "ऐतरेय आरण्यक" तथा "ऐतरेय उपनिषद्" कहलाते हैं। .

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तैत्तिरीयोपनिषद

तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है - कुल ५३ मंत्र हैं जो ४० अनुवाकों में व्यवस्थित है। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का ७, ८, ९वाँ प्रपाठक है। इस उपनिषद् के बहुत से भाष्यों, टीकाओं और वृत्तियों में शांकरभाष्य प्रधान है जिसपर आनंद तीर्थ और रंगरामानुज की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं एवं सायणाचार्य और आनंदतीर्थ के पृथक्‌ भाष्य भी सुंदर हैं। ऐसा माना जाता है कि तैत्तिरीय संहिता व तैत्तिरीय उपनिषद की रचना वर्तमान में हरियाणा के कैथल जिले में स्थित गाँव तितरम के आसपास हुई थी। .

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नित्यकर्म

प्रतिदिन किया जानेवाला प्रात्य्ह्रक कर्म नित्यकर्म कहलाता है। इसके अनुसार एक प्रात:काल से दूसरे प्रातःकाल तक शास्त्रोक्त रीति से, दिन-रात के अष्टयामों के आठ यामार्ध कृत्यों यथा- ब्राह्म मुहूर्त में निद्रात्याग, देव, द्विज और ऋषि स्मरण, शौचादि से निवृत्ति, वेदाभ्यास, यज्ञ, भोजन, अध्ययन, लोककार्य आदि- को करना चाहिए। मीमांसकों ने द्विविध कर्म कहे हैं - अर्थकर्म और गुणकर्म। इनमें अर्थकर्म के तीन भेद हैं - नित्यकर्म, नैमित्तिक कर्म और काम्यकर्म। गृहस्थों के लिए इन तीनों को करने का निर्देश है। इनमें प्रथम कर्म नित्यकर्म है जिसके अंतर्गत पंचयज्ञादि आते हैं। अग्निहोत्र आदि ब्राह्मणों के नित्यकर्म हैं। इन्हें करने से मनुष्य के प्रति दिन के पापों का क्षय होता है। जो इस कर्तव्य को नहीं निवाहता वह शास्त्र के अनुसार पाप का भागी होकर पतित और निंद्य हो जाता है। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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पारस

पारस (संस्कृत: पारस्य) हिंदुस्तान के पश्चिम सिन्धु नदी और अफगानिस्तान के आगे पड़नेवाला एक देश। यह प्राचीन कांबोज और वाह्लीक के पश्चिम का देश था जिसका प्रताप प्राचीन काल में बहुत दूर-दूर तक विस्तृत था और जो अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के लिये प्रसिद्ध चला आता है। अत्यंत प्राचीन काल से पारस देश आर्यों की एक शाखा का वासस्थान था जिसका भारतीय आर्यों से घनिष्ट संबंध था। अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा सरयू के किनारे तक की काली भूमि आर्यभूमि थी, जो अनेक प्रेदशों में विभक्त थी। इन प्रदेशों में भी कुछ के साथ आर्य शब्द लगा था। जिस प्रकार यहाँ आर्यांवर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वींय प्रदेश 'अरियान' या 'ऐर्यान' (यूनानी— एरियाना) कहलाता था जिससे ईरान शब्द बना है। ईरान शब्द आर्यावास के अर्थ में सारे देश के लिये प्रयुक्त होता था। शाशानवंशी सम्राटों ने भी अपने को 'ईरान के शाहंशाह' कहा है। पदाधिकारियों के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है।— जैसे 'ईरान-स्पाहपत' (ईरान के सिपाहपति या सेनापति), 'ईरान अंबारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ आर्य शब्द बडे़ गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट् दारयवहु (दारा) ने अपने को 'अरियपुत्र' लिखा है। सरदोरों के नामों में भी आर्य शब्द मिलता है, जैसे, अरियशम्न, अरियोवर्जनिस, इत्यादि। प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बँटा था उनमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़नेवाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पड़ा। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पार्सिपोलिस) थी, जहाँपर आगे चलकर 'इश्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम हखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिये व्यवहृत होने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता। पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में 'पारस्य' और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है। अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों में उपासना, कर्मकांड आदि में भेद नहीं था। वे अग्नि, सूर्य वायु आदि की उपासना और अग्निहोत्र करते थे। मिथ (मित्र .

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ब्राह्मण

ब्राह्मण का शब्द दो शब्दों से बना है। ब्रह्म+रमण। इसके दो अर्थ होते हैं, ब्रह्मा देश अर्थात वर्तमान वर्मा देशवासी,द्वितीय ब्रह्म में रमण करने वाला।यदि ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म अर्थात ईश्वर को रमण करने वाला ब्राहमण होता है। । स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को द्विज की उत्त्पत्ति बताई गई है जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते। शापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः प्रसन्नता। ब्राह्मण (आचार्य, विप्र, द्विज, द्विजोत्तम) यह वर्ण व्‍यवस्‍था का वर्ण है। एेतिहासिक रूप हिन्दु वर्ण व्‍यवस्‍था में चार वर्ण होते हैं। ब्राह्मण (ज्ञानी ओर आध्यात्मिकता के लिए उत्तरदायी), क्षत्रिय (धर्म रक्षक), वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (सेवक, श्रमिक समाज)। यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: -- ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। अतः ब्राह्मण का अर्थ है - "ईश्वर का ज्ञाता"। सन:' शब्द के भी तप, वेद विद्या अदि अर्थ है | निरंतारार्थक अनन्य में भी 'सना' शब्द का पाठ है | 'आढ्य' का अर्थ होता है धनी | फलतः जो तप, वेद, और विद्या के द्वारा निरंतर पूर्ण है, उसे ही "सनाढ्य" कहते है - 'सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:' उपर्युक्त रीति से 'सनाढ्य' शब्द में ब्राह्मणत्व के सभी प्रकार अनुगत होने पर जो सनाढ्य है वे ब्राह्मण है और जो ब्राह्मण है वे सनाढ्य है | यह निर्विवाद सिद्ध है | अर्थात ऐसा कौन ब्राह्मण होगा, जो 'सनाढ्य' नहीं होना चाहेगा | भारतीय संस्कृति की महान धाराओं के निर्माण में सनाढ्यो का अप्रतिभ योगदान रहा है | वे अपने सुखो की उपेक्षा कर दीपबत्ती की तरह तिलतिल कर जल कर समाज के लिए मिटते रहे है | .

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भोपाल गैस काण्ड

भोपाल गैस काण्ड स्मारक भारत के मध्य प्रदेश राज्य के भोपाल शहर में 3 दिसम्बर सन् 1984 को एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने से एक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ जिससे लगभग 15000 से अधिक लोगो की जान गई तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए। भोपाल गैस काण्ड में मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। जिसका उपयोग कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता था। मरने वालों के अनुमान पर विभिन्न स्त्रोतों की अपनी-अपनी राय होने से इसमें भिन्नता मिलती है। फिर भी पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 थी। मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3,787 की गैस से मरने वालों के रूप में पुष्टि की थी। अन्य अनुमान बताते हैं कि 8000 लोगों की मौत तो दो सप्ताहों के अंदर हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग तो रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों से मारे गये थे। २००६ में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने की संख्या लगभग 38,478 थी। ३९०० तो बुरी तरह प्रभावित हुए एवं पूरी तरह अपंगता के शिकार हो गये। भोपाल गैस त्रासदी को लगातार मानवीय समुदाय और उसके पर्यावास को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में गिना जाता रहा। इसीलिए 1993 में भोपाल की इस त्रासदी पर बनाए गये भोपाल-अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को इस त्रासदी के पर्यावरण और मानव समुदाय पर होने वाले दीर्घकालिक प्रभावों को जानने का काम सौंपा गया था। .

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यजुर्वेद

यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ॠग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।। भारत कोष पर देखें इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं: दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई।। ब्रज डिस्कवरी कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू.

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हवन

हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से देवता के निकट हवि पहुँचाने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं).

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जनक विदेह

जनक विदेह के उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में चार भिन्न भिन्न स्थलों में हुए हैं और सभी में याज्ञवल्क्य भी साथ-साथ आते हैं। वहाँ जनक विदेह, याज्ञवल्क्य को शिक्षा देते हुए पाए जाते हैं। यह भी कहा गया है कि वे अंत में स्वयं ब्रह्मण्य (ब्रह्मा) पद प्राप्त कर लेते हैं। यों तो वैदिक युग में वर्णपरिवर्तन संभव ही नहीं अपितु प्रचलित भी था; यह कह सकना कठिन है कि यहाँ जनक द्वारा क्षत्रिय वर्ण छोड़कर ब्राह्मण वर्ण में प्रवेश कर जाने का उल्लेख है अथवा केवल ज्ञान और दर्शन क्षेत्र में ब्रह्मण्य प्राप्त कर लेने की ओर निर्देश है। यह भी कहा गया है कि अग्निहोत्र के बारे में उचित उत्तर पाकर जनक ने याज्ञवल्क्य को १०० गायों का दान दिया। एक दूसरे स्थल पर १००० गायों के दान देने की बात भी कही गई है। शाखायन श्रौतसूत्र में उन्हें 'सप्तरात्र' नामक यज्ञ का कर्ता भी कहा गया है। जनक और याज्ञवल्क्य का बृहदारण्यक उपनिषद् में भी उल्लेख हुआ है, किंतु वहाँ याज्ञवल्क्य शिष्यत्व छोड़कर गुरु का स्थान प्राप्त कर लेते हैं और स्वयं जनक उनसे परलोक, ब्रह्म और आत्मा के विषय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों तथा शांखायन आरण्यक से यह तो सिद्ध होता ही है कि जनक विदेह और याज्ञवल्क्य समकालीन थे, यह भी ज्ञात होता है कि श्वेतकेतु आरुणेय और काशी के प्रसिद्ध दार्शनिक राजा अजातशत्रु भी उन्हीं के समय में हुए थे। एक विद्वान् ने काशी के अजातशत्रु के मगध के अजातशत्रु से मिलाते हुए जनक का समय ई.पू.

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गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ। उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए। .

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इष्टि

इष्टि वैदिक काल का विशेष प्रकार का यज्ञ। यज्ञ वैदिक आर्यो के दैनिक तथा वार्षिक जीवन में प्रधान स्थान रखता है। 'इष्टि' 'यज्‌' धातु से 'क्तिन्‌' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। फलत: इसका अर्थ 'यज्ञ' है। ऐतरेय ब्राह्मण में इष्टि पाँच भागों में विभक्त है--अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, चातुर्मास्य, पशु तथा सोम। परंतु स्मृति और कल्पसूत्रों में स्मार्त तथा श्रौत कर्मो की सम्मिलित संख्या 21 मानी गई है जिनमें पाकयज्ञ, हविर्यज्ञ तथा सोमयज्ञ प्रत्येक सात प्रकार के माने जाते हैं। प्रत्येक अमावास्या तथा पूर्णिमा के अनंतर होने वाली प्रतिपदा के याग सामान्य रूप से 'इष्टि' कहलाते हैं जिनमें पहला 'दर्श' तथा दूसरा 'पौर्णमास' कहलाता है। श्रेणी:हिन्दू संस्कृति श्रेणी:वैदिक काल.

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अरुन्धती (महाकाव्य)

अरुन्धती हिन्दी भाषा का एक महाकाव्य है, जिसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) ने १९९४ में की थी। यह महाकाव्य १५ सर्गों और १२७९ पदों में विरचित है। महाकाव्य की कथावस्तु ऋषिदम्पती अरुन्धती और वसिष्ठ का जीवनचरित्र है, जोकि विविध हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित है। महाकवि के अनुसार महाकाव्य की कथावस्तु का मानव की मनोवैज्ञानिक विकास परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।रामभद्राचार्य १९९४, पृष्ठ iii—vi। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन श्री राघव साहित्य प्रकाशन निधि, हरिद्वार, उत्तर प्रदेश द्वारा १९९९४ में किया गया था। पुस्तक का विमोचन तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा जुलाई ७, १९९४ के दिन किया गया था। .

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